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भगवान् के पाट पर उनके महापरिनिर्वाण के बाद सुधर्मा स्वामी बैठे। उन्होंने भगवान् के उपदेशों को अपने शिष्यों से कहा । अतः वर्तमान काल में आगमों का जो रूप मिलता है, उसमें पाठ आता.है कि, सुधर्मास्वामी ने कहा कि, जैसा भगवान् ने कहा था, वैसा मैं तुमको कहता हूँ।
भगवान् महावीर-निर्वाण की दूसरी शताब्दि में भयंकर अकाल पड़ा । साधु लोग अपने निर्वाह के लिए समुद्रतटवर्ती ग्रामों में चले गये। उस समय पठन-पाठन शिथिल होने के कारण श्रुतज्ञान विस्मृत होने लगा-कारण कि बारम्बार आवृत्ति न होने से बुद्धिमान का अभ्यास भी नष्ट हो जाता है। दुष्काल समाप्त होने पर जब समुद्र-तट पर गये लोग भी वापस आ गये तो पाटलिपुत्र में समस्त संघ एकत्र हुआ। जिनके पास अंगअध्ययन और उद्देशादिक जो उपस्थित थे, उनके पास से वे अंश ले लिये गये। इन प्रकार ११ अंग संघ को मिले ।
दृष्टिवाद के निमित्त विचार किया जाने लगा। यह जानकर कि भद्रबाहु स्वामी पूर्वधर हैं, श्रीसंघ ने उन्हें बुलाने के लिए २ साधु नेपाल भेजे । वहाँ जाकर साधु भद्रबाहु स्वामी से बोले"हे भगवन् ! आपको बुलाने के लिए श्रीसंघ ने आदेश किया है।' यह सुनकर भद्रबाहु स्वामी ने कहा-"मैंने महाप्राण-ध्यान आरम्भ किया है । वह १२ वर्षों में पूरा होगा। महाप्राण-व्रत की सिद्धि होने पर मैं सब पूर्वो के सूत्र और अर्थ को एक मुहूर्त मात्र में कह सकूगा।"
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