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श्रानन्द
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ठाणांग में जहाँ चक्रवर्ती के १४ रत्न' गिनाये गये हैं, वहाँ एक रत्न 'गाहावईरयन' दिया है । उसकी टीका करते हुए टीकाकार ने लिखा है - ' कोष्ठागारनियुक्तः । ये चौदह रत्न जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी गिनाये गये हैं पर वहाँ टीकाकार 'गाहावई' शब्द की टीका ही नहीं दी है ।
चक्रवर्ती के रत्नों का प्रसंग जिनभद्रगणि-रचित वृहत्संगृहणी में भी आता है । वहाँ 'गाहावई' की टीका में उसके कर्तव्य आदि पर प्रकाश डाला गया है :
गृहपतिः - चक्रवर्त्तिगृह समुचितेतिकर्तव्यतापरो यस्त मित्रगुहायां खण्डप्रपात गुहायां च चक्रवर्तिनः समस्तस्यापि स्कन्धावारस्य सुखोत्तारयोग्य मुन्मग्नजलायां निमग्न जलायां वा नद्यां काष्ठमयं सेतुबन्धं करोति ।'
इस प्रसंग को चन्द्रसूरि-प्रणीत संग्रहणी में इस प्रकार व्यक्त किया गया है :
अन्नादिक के कोष्ठागार का अधिपति तथा चक्री-गृह का तथा सेना के लिए भोजन-वस्त्र-जलादि की चिंता करने वाला, पूरा करने वाला | सुलक्षण तथारूपवंत, दानशूर, स्वामिभक्त, पवित्रादि गुणवाला होता है । दिग्विजय आदि के प्रसंग में आवश्यकता पड़ने पर अनेक प्रकार के धान्य, शाक चर्मरत्न पर प्रातः बोता है और सन्ध्या समय काटता है ताकि सेना का सुखपूर्वक निर्वाह हो ।
१ – ठाणांगसूत्र सटीक उत्तरार्द्ध ठाणा ७, उद्देसा ३, सूत्र ५५८ पत्र ३६८-१ २- ठाणांगसूत्र सटीक उत्तरार्द्ध पत्र ३६६ - २ । समवायांग के १४ वें समवाय में जहाँ रत्न गिनाये हैं ( पत्र २७ - १ ) वहाँ भी गहवई की टीका में 'कोष्ठागारिकः ' लिखा है ।
३ - जम्बूद्वीपपज्ञप्ति, पूर्व भाग, पत्र २७६-१
४ - जिनभद्गणि क्षमाश्रमण-रचित वृहत्संगृहणी श्री मलयगिरि की टीका सहित, पत्र ११८-२
५ - बृहत्संग्रहणी गुजराती-अनुवाद के साथ ( बड़ौदा ) पष्ठ ५१७ ।
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