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तीर्थकर महावीर
-जयसिंहसूरि-प्रणीति कुमारपालचरित्र सर्ग ३, इलोक ४६३ पत्र ६०-१
बौद्ध-ग्रन्थों का एक भ्रामक उल्लेख दीघनिकाय के पासादिक-सुत्त में उल्लेख है
ऐसा मैंने सुना—एक समय भगवान् शाक्य (देश) में वेधचा-नामक शाक्यों के आम्रवन-प्रासाद में विहार कर रहे थे ।
उस समय निगण्ठ नाथपुत्त ( तीर्थकर महावीर ) की पावा में हाल ही में मृत्यु हुई थी। उनके मरने पर निगण्टों में फूट हो गयी थी, दो पक्ष हो गये थे, लड़ाई चल रही थी, कलह हो रहा था। वे लोग एक दूसरे को वचन रूपी वाणों से बेधते हुए विवाद करते थे-तुम इस धर्मविनय को नहीं जानते, मैं इस धर्मविनय को जानता हूँ। तुम भला इस धर्मविनय को क्या जानोगे ? तुम मिथ्याप्रतिपन्न हो, मैं सम्यकप्रतिपन्न हूँ। मेरा कहना सार्थक है और तुम्हारा कहना निरर्थक । जो (बात ) पहले कहनी चाहिए थी, वह तुमने पीछे कही, और जो पीछे कहनी चाहिए थी, वह तुमने पहले कही । तुम्हारा वाद बिना विचार का उल्टा है । तुमने वाद रोपा, तुम निग्रहस्थान में आ गये। इस आक्षेप से बचने के लिए यत्न करो, यदि शक्ति है तो इसे सुलझाओ । मानों निगण्टों में युद्ध हो रहा था।
"निगण्ठ नाथयुत्त के जो श्वेत-वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य थे, वे भी निगण्ट के वैसे दुराख्यात ( = ठीक से न कहे गये) दुष्प्रवेदित (= ठीक से न साक्षात्कार किये गये), अ-नैर्याणिक (= पार न लगाने वाले), अन्उपशम-संवर्तनिक ( =न शान्तिगामी ), अ-सम्यक संबुद्ध-प्रवेदित (= किसी बुद्ध द्वारा न साक्षात् किया गया), प्रतिष्ठा (नीव)-रहित
=भिन्न स्तूप आश्रय रहित धर्म में अन्यमनस्क हो खिन्न और विरक्त हो रहे थे।
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