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है । ..... जैनधर्म कई बातों में आर्य पूर्व जातियों के धर्म और विश्वास का उत्तराधिकारी है ।"
और, रही ऐतिहासिक दृष्टि से जैन ग्रन्थों के महत्त्व की वात, तो मैं कहूंगा कि जैन साहित्य ही भारतीय साहित्य की उस कड़ी की पूर्ति करता है जिसे पुराण छोड़ गये हैं । एक निश्चित अवधि के बाद पुराणों की गतिविधि मृत हो गयी । उस समय का इतिहास जैन ग्रंथों में ही है। उदाहरण के लिए श्रेणिक का नाम ही लें । वैदिक ग्रंथों में तो उसका नाम मात्र है- वह कौन था, उसने क्या किया, इन सबका उत्तर तो एक मात्र जैनसाहित्य में ही मिलने वाला है । जैन साहित्य के इस महत्त्व से परिचित भगवत्दत्त जैसे इतिहासज्ञ जब उस पर 'गप्प' का आरोप लगाते हैं तो इस पर दुःख प्रकट करने के सिवा और क्या कहा जा सकता है ।
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भगवान् महावीर की जीवन कथा का पूरा आधार वर्तमान उपलब्ध आगम ही है । हमारे पास महावीर - कथा के लिए और कोई ऐसा साधन नहीं है, जिसे हम मूल प्रमाण कह सकें । हिन्दूग्रंथों में वर्द्धमान महावीर का कोई उल्लेख नहीं मिलता और जो मिलता भी है, उसे धार्मिक मतभेद के कारण हिन्दुओं ने विकृत कर दिया है । उदाहरण के लिए कहें विष्णु के सहस्त्र नामों में एक नाम 'वर्द्धमान' भी है, पर उसकी टीका शंकराचार्य ने अति विकृत रूप में की है । आगमों के बाद साधनों में दूसरा स्थान नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका, आदि का है ।
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