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भगवान् श्रपापापुरी में
३०३
समय जान कर
साश्रु
उस समय आसन कंपित होने से, प्रभु के मोक्ष का सभी सुरों-असुरों के हन्द्र परिवार सहित वहाँ आये । फिर, शक्रेन्द्र हाथ जोड़ कर बोला - " हे नाथ ! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान में हस्तोत्तरा नक्षत्र था । इस समय उसमें भस्मक-ग्रह संक्रान्त होने वाला है । आपके जन्म-नक्षत्र में संक्रमित वह ग्रह २ हजार वर्षों तक आपकी संतान ( साधु-साध्वी ) को बाधा उत्पन्न करेगा । इसलिए, वह भस्मक ग्रह आपके जन्म-नक्षत्र से संक्रमण करे, तब तक आप प्रतीक्षा करें । आपके सामने वह संक्रमण कर जाये, तो आपके प्रभाव से वह निष्फल हो
( पृष्ठ ३०२ पादटिप्पणि का शेषांश )
भगवान् महावीर का यह अंतिम उपदेश ही उत्तराध्ययन है । उसके ३६ - वें अध्ययन की अंतिम गाथा है
इति पाउकरे बुद्ध, नायए परिनिव्वुए । छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धी संभए ॥
- शान्त्याचार्य की टीका सहित, पत्र ७१२-१ - इस प्रकार छत्तीस उत्तराध्ययन के अध्ययनों को जो भव्यसिद्धिक जीवों को सम्मत हैं, प्रकट करके बुद्ध ज्ञातृपुत्र वद्ध मान स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुए । इस प्रकार कहता हूँ |
इस गाथा पर उत्तराध्ययन चूर्णि में पाठ भाता है
इति परिसमाप्तौ उपप्रदर्शने च प्रादुः प्रकाशे, प्रकाशीकृत्य प्रज्ञाप•fear बुद्धः श्रवगतार्थः ज्ञातकः ज्ञातकुल समुद्भवः वद्ध'मान स्वामी, ततः परिनिर्वाण गतः, किं प्रज्ञपयित्वा ? षट् त्रिंशदुत्तराध्ययनानि भवसिद्धिक संमतानि - भघसिद्धिकानामेव संमतानि, नाभवसिद्धिकानामिति, ब्रवीम्याचार्योपदेशात्, न स्वमनीषिकया, नयाः पूर्ववत ।
- उत्तराध्ययन चूर्ण, पत्र २८३ इस आशय का समर्थन शान्त्याचार्य की टीका भाग २, पत्र ७१२-१ नेमिचन्द्र की टीका पत्र ३६१-२ तथा उत्तराध्ययन की अन्य टीकाओं में भी है ।
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