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कुण्डकोलिक
४६७ है; क्योंकि उसमें उत्थान यावत् पराक्रम है और नियति आश्रित सब कुछ नहीं माना जाता है।"
कुंडकोलिक श्रमणोपासक ने उस देव सेकहा-'हे देव ! मंखलिपुत्र गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति उत्थान न होने से यावत् सर्व भाव नियत होने से अच्छी है और भगवान् महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति उत्थान होने से यावत् सर्वभाव अनियत होने से खराब है, यह मान लिया जाये, तो हे देव ! यह दिव्य ऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्यदेवानुभाव आपको कैसे प्राप्त हुए ? यह सब आपको उत्थान यावत् पराक्रम से प्राप्त हुए अथवा उत्थान के अभाव यावत् पराक्रमहीनता से ?”
यह सुनकर वह देव बोला-“हे देवानुप्रिय ! मैंने यह देवऋद्धि उत्थान के अभाव यावत् पराक्रम के अभाव में प्राप्त किया है।"
कुंडकोलिक ने उत्तर दिया-"यदि यह देवऋद्धि उत्थान आदि के अभाव में प्राप्य है, तो जिन जीवों में विशेष उत्थान नहीं है, और पराक्रम नहीं है, वह देव क्यों नहीं होते ? गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर होने का जो कारण आप बताते हैं, और भगवान् पहावीर की धर्मप्रज्ञप्ति अच्छी न होने का जो आप कारण बताते हैं, वे मिथ्या हैं।"
कुंडकोलिक की इस प्रकार वार्ता सुनकर वह देव शंकित् हो गया और कुंडकोलिक को उत्तर न दे सका । नाममुद्रिका और उत्तरीय पृथ्वीशिलापट्टक पर रखकर वह जिधर से आया था, उधर चला गया ।
उस समय भगवान् महावीर वहाँ पधारे । कामदेव के समान कुंडको. लिक भगवान् की वंदना करने गया। धर्मदेशना के बाद भगवान् ने कुंडकोलिक से देव के आने की बात पूछी। कुंडकोलिक ने सारी बात स्वीकार कर ली। __ भगवान् ने कहा- "हे आर्यो ! जो गृहस्थावास में रहकर भी अर्थ',
१ 'अर्थै-जीवादिभिः सूत्राभिधेयैर्वा-उपासकदशा सटीक पत्र ३६-१
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