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व्रतधारी राजे
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राजा उद्रायण के पास विद्युन्माली - नामक एक देव की बनायी हुई तथा उसी द्वारा भेजी हुई गीशीर्ष चंदन की एक भगवान् महावीर की एक प्रतिमा थी । राजा ने अंतःपुर में चैत्य निर्माण करके उसमें उस प्रतिमा को स्थापित करा दिया था ।' रानी प्रभावती त्रिसंध्या उसकी पूजा किया करती थी। रानी प्रभावती की मृत्यु के बाद राजा की एक कुब्जा दासी उस मूर्ति की पूजा करने लगी । इसी दासी को चंडप्रद्योत हर ले गया । जिसके कारण चंडप्रद्योत और उद्रायन में युद्ध हुआ । उसका सविस्तार विवरण हमने चंडप्रद्योत के वर्णण में दे दिया है ।
राजा उद्रायण की पत्नी मर कर देवलोक में गयी और बाद में उसने राजा उद्रायण की निष्ठा श्रावक-धर्म में दृढ़ की ।
एक बार राजा ने पौषधशाला में जाकर पौषघ किया । वहाँ रात्रि में धर्म- -जागरण करता हुआ राजा को विचार हुआ कि - "वह नगर ग्राम
कार आदि धन्य हैं, जिन्हें वर्धमान स्वामी अपने चरण रज से पवित्र करते हैं । यदि भगवान् के चरण से वीतभय पवित्र हो, तो मैं दीक्षा ले लूँ ।” उसके विचार को जानकर भगवान् ने विहार किया और अनुक्रम से विहार करते वीतभयपत्तन के उद्यान में ठहरे । प्रभु का आगमन जानकर उद्रायण भगवान् के पास वंदना करने गया । वंदना करके उसने भगवान् से विनती की - "जब तक अपने पुत्र को राज्य सौंप कर दीक्षा लेने न आऊँ तब तक आप न जाइये । "
भगवान् महावीर ने कहा - " पर इस ओर प्रमाद मत करना । " लौटकर राजा आया तो उसे विचार हुआ कि, यदि मैं अपने पुत्र को राज्य दूँगा तो वह राज्य में ही फँसा रह जायेगा और चिरकाल तक भवभ्रमण
१ – उतराध्ययन भावविजय की टीका, अ० १८, श्लोक ८४, पत्र ३-३-१ |
२ - वही, श्लोक ८५ ।
३ - आवश्यक चूर्ण, पूर्वाद्ध, पत्र ३६६ ।
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