SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 687
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्त राजे ६१६ इस प्रकार दिक्चक्रवाल - तप करने से शिवराजर्षि के आवरणभूत कर्म नष्ट हो गये और विभंग ज्ञान उत्पन्न हो गया । उससे शिवराजर्षि को इस लोक में ७ द्वीप और ७ समुद्र दिखलायी पड़े । उसने कहा उसके बाद द्वीप और समुद्र नहीं हैं । यह बात हस्तिनापुर में फैल गयी । उसी बीच महावीर स्वामी वहाँ आये । उनके शिष्य गौतम भिक्षा माँगने गये । गाँव में उन्होंने शिवराजर्षि की कही सात द्वीप और सात समुद्र की बात सुनी । भिक्षा से लौटने पर उन्होंने भगवान् महावीर से यह बात पूछी"भगवन् ! शिवराजर्षि कहता है कि सात ही द्वीप और सात ही समुद्र हैं । यह बात कैसे सम्भव है ?" इस पर भगवान् महावीर ने कहा – हे गौतम ! यह आयुष्मान् ! इस तिर्यक् लोक में स्वयंम्भूरमण समुद्र पर्यन्त और द्वीप हैं । यह बात भी फैल गयी । उसे सुनकर शिव राजर्षि को शंका हो गयी और तत्काल उनका विभंग-ज्ञान नष्ट हो गया । फिर उसे ज्ञान हुआ कि भगवान् तीर्थङ्कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं । इसलिए उसने भगवान् के पास जाने का विचार किया । असत्य है । हे असंख्य समुद्र वह भगवान् के पास गया और धर्म सुनकर श्रद्धायुक्त हुआ। पंचमुष्टि लोच किया और भगवान् के पास उसने दीक्षा ले ली । १ – तपो विशेषे च । एकत्र पारण के पूर्वस्यां दिशि यानि फलाSSदीनि तान्याहृत्यभुक्ते, द्वितीये तु दक्षिणास्यामित्येवं दिक्चक्रवालेन तत्र तपः कर्मेणिपारणक करणं तत्तपः कर्म दिक्चक्रवालमुच्यते - नि० १ ० ३ वर्ग ३ अ० । श्रु - राजेन्द्राभिधान, भाग ७, पृष्ठ २५३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy