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________________ श्रावक-धर्म ३६६ मन के १० दोष हैं :-- १-अविवेक-दोप–सामायिक करके सब क्रिया करे; परन्तु मन में विवेक न करके निर्विवेकता से करे । २-यशोवांछा-दोष-सामायिक करके कीर्ति की इच्छा करे । ३-धनकांछा-दोष-~सामायिक करके धन की कामना करना । ४-गर्व-दोप–सामायिक करके यह विचार करना कि, लोग मुझे धार्मिक कहेंगे। ५-भय दोप----लोगों की निन्दा से डरता हुआ सामायिक करना । ६-निदान दोष---सामायिक करके निदान करे कि, इससे मुझे धन, स्त्री, पुत्र, राज, भोग, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पद मिलेंगे। ७-संशय-दोष—यह संशय कि, क्या जाने कि सामायिक का क्या फल होगा। ८-कषाय-दोष-सामायिक में कषाय करे अथवा क्रोध में तुरत सामायिक करने बैठ जाये। ९-अविनय-दोष-विनयहीन सामायिक करे। १०-अबहुमान-दोष-भक्तिभाव अथवा उत्साह से हीन सामायिक करे। वचन के भी १० दोष हैं :१-कुबोल-~-सामायिक में कुवचन बोले । २.—सहसात्कार-दोष—सामायिक लेकर बिना विचारे बोले । ३---असदारोपण-दोष-सामायिक में दूसरों को खोटी मति देना । ४.—निरपेक्षवाक्य-दोष-सामायिक में शास्त्र की अपेक्षा बिना बोले। ५-संक्षेप-दोष--सामायिक में सूत्र-पाट में संक्षेप करे अथवा अक्षर पाठ ही न करे । ६-कलह-दोष-सामायिक में सहधर्मियों से क्लेश करे।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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