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तीर्थंकर महावीर
( १०६ ) जहाहियग्गी जलणं नमसे, नाणा हुई मंतपयाभिसितं । एवायरियं उवचिएज्जा, अणंतनाणोवगोऽवि संतो ॥११॥ -अ० ९-उ० १, पत्र २४५-१
- जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण, मधु, घृत आदि की आहुति से एवं मंत्रों से अभिषिक्त अग्नि की नमस्कार आदि से पूजा करता है, ठीक उसी प्रकार अनन्तज्ञान सम्पन्न हो जाने पर भी शिष्य को आचार्यश्री की नम्र भाव से उपासना करनी चाहिए ।
( १०७ )
जे य चण्डे मिए श्रद्ध, दुब्वाई नियडी सढे ।
gues से विणीअप्पा, कटं सो गयं जहा ॥ ३ ॥
- अ० ९ उ० २ पत्र २४७-१ -जो क्रोधी, अज्ञानी, अहंकारी, कटुवादी, कपटी और अविनीत पुरुष होते हैं, वे जल-प्रवाह में पड़े काष्ठ के समान संसार - समुद्र में बह जाते हैं ।
( १०८)
न जाइमत्ते न य रूवमते, न लाभमत्ते न सु मत्ते ।
भयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाणरए से य भिक्खु ॥ १६॥ - दशवैकालिक अ० १०, पत्र २६८-१
- जो जातिमद नहीं करता, रूप का मद नहीं करता, लाभ का मद नहीं करता, श्रुत का मद नहीं करता, इस प्रकार सब मदों को विवर्जन कर जो धर्मध्यान में सदा रत रहता है, वह सच्चा भिक्षु है ।
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