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भक्त राजे
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समाचार सुनकर पोतनपुर का राजा प्रसन्नचन्द्र तत्काल भगवान् की वंदना करने आया। भगवान् के उपदेश से प्रभावित होकर अपने बालकुमार को गद्दी पर बैठा कर वह दीक्षित हो गया। प्रभु के साथ विहार करता रहा और उग्र तपस्या करता रहा। अनुक्रम से प्रसन्नचन्द्र समस्त सूत्रों
और उनके अर्थों में पारगामी हुआ । __एक बार भगवान् महावीर राजगृह आये । भगवान् के आने का समाचार सुनकर श्रेणिक बड़े सजधज से भगवान् की वंदना करने निकला। आगे-आगे सुमुख और दुर्मुख-नाम के दो मिथ्यादृष्टि सेनानी चल रहे थे। उन दोनों ने प्रसन्नचन्द्र को एक पैर पर खड़े होकर दोनों हाथ ऊपर करके आतापना लेते देखा । उसे देखकर सुमुख बोला-"अहो ! आतापना करने वाले इस मुनि को मोक्ष कुछ भी दुर्लभ नहीं है।" सुनकर दुर्मुख बोला-"अरे ! यह पोतनपुर का राजा प्रसन्नचन्द्र है । बड़ी-सी गाड़ी में जैसे कोई छोटा-सा बछड़ा जोत दे, वैसे ही इन्होंने अपने नन्हें-से बच्चे पर राज्य का भार डाल दिया है। यह कैसा धर्मी ? इसके मंत्री चम्पानगरी के राजा दधिवाहन से मिलकर उसके राजकुमार को राज्य भ्रष्ट करेंगे । उस पर उनकी पत्नियाँ भी कहीं चली गयी हैं । पाषंडीदर्शन वाला यह प्रसन्नचन्द्र देखने योग्य नहीं है ?"
इनकी बात सुनकर प्रसन्नचन्द्र का ध्यान टूट गया और वे विचार करने लगे---"मेरे मंत्रियों को धिक्कार है । मैंने सदा इनका सत्कार किया; पर उन लोगों ने मेरे पुत्र के साथ बुरा व्यवहार किया । यदि मैं वहाँ होता तो उनको उचित शिक्षा देता । इस संकल्प-विकल्प के कारण प्रसन्नचन्द्र अपना व्रत भूल गये। अपने को राजा-रूप में मानते हुए प्रसन्नचन्द्र मंत्रियों से युद्ध करने पर उद्यत हुए।
इतने में श्रेणिक उनके निकट पहुँचा और उसने विनयपूर्वक प्रसन्नचन्द्र की वंदना की। यह विचार कर कि अभी राजर्षि प्रसन्नचन्द्र पूर्णध्यान में हैं, श्रेणिक भगवान् के पास आया और उसने भगवान् से पूछा--
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