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________________ सुक्ति-माला ६७१ वाले होते हैं । अधोदृष्टि वाले चार स्थानों से जीव नैरयिक कर्म को पकड़ता है । नैरयिक का कर्म पकड़कर वह नरक में उत्पन्न होता है । सो यह है - १ महा आरम्भ, २ महा परिग्रह, ३ पंचिन्द्रिय वध और ४ मांसाहार । तिर्यच गति में उत्पन्न होने के इसी प्रकार चार कारण हैं – १ मायाचरण-कपटाचरण, २ असत्य भाषण, ३ मिथ्या प्रशंसा और ४ वंचना । मनुष्य गति में जीव इन चार कारणों से उत्पन्न होता है - १ प्रकृति से भद्र होने से, २ प्रकृति से विनीत होने से, ३ दयालु होने से और ४ अमत्सरी होने से । चार कारणों से देवलोक में उत्पन्न होते हैं-१ सराग संयम से, २ देशविरति से, ३ अकाम निर्जरा से और ४ बालतप से । जीव जिस प्रकार नरक गमन करता है, वहाँ जो नारकी हैं, एवं उन्हें जो वेदना भोगनी पड़ती है, यह सब बतलाया । तिर्यंचयोनि में जो शारीरिक और मानसिक दुःख होते हैं, यह भी ( स्पष्ट किया ) | मानव-पर्याय अनित्य है । व्याधि, जरा, मरण एवं वेदना से भरा है । देव और देवलोक देवर्द्धि और देवसौख्य ( का वर्णन किया ) ||२|| नरक, तिर्यंच योनि, मनुष्य-भाव और देवगति का कथन किया। सिद्ध, सिद्धस्थान और षट्जीव निकायों का वर्णन किया ||३|| जिस प्रकार जीव बँधते हैं, बंधन से छूटते हैं, जिस प्रकार संक्लेशों को भोगते हैं, जिस प्रकार दुःखों का अन्त करते हैं, कितने अप्रतिबद्ध हैं— उनका वर्णन किया || ४ || आर्तध्यान से पीड़ित चित्त वाले प्राणी जीव किस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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