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तीर्थकर महावीर स्थानकवासी साधु अमोलक ऋषि ने जो उबवाइयसूत्र छपवाया, उसमें भी यह पाट यथावत् है ।'
यहाँ 'चेझ्याई' की टीका अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है:
चेझ्याइं ति अर्हचैत्यानि-जिन प्रतिभा इत्यर्थः । पर, अमोलक ऋषि ने इसका अर्थ 'साधु' किया है। स्थानकवासी विद्वान् रतनचन्द ने अपने अर्द्धमागधी कोप में भी 'साधु' अर्थ दिया है। और, उसके उदाहरण में ३ प्रमाण दिये हैं—(१) उवा० १,५८, (२) भगवती ३, २, तथा ( ३ ) ठाणांग ३-४
उपासगदशा के पाट पर हम आगे विचार करेंगे। अतः उसे यहाँ छोड़ देते हैं। __ भगवती के जिस प्रसंग को रतनचंद्र ने लिखा है, वहाँ पाट इस प्रकार है:---
मात्थ अरिहंते वा अरिहंत चेझ्याणि वा अणगारे वा..."
यहाँ पाट ही व्यक्त कर देता है कि 'चेझ्याणि' का अर्थ साधु नहीं है; क्योंकि उसके बाद ही 'अणगारे वा' पाट आ जाता है ।
तीसरा प्रसंग टाणांग का है ।
टाणांग के ठाणा ३, उदेशा १, के सूत्र १२५ मैं 'चेतितं' शब्द आता है । उसकी टीका अभय देव सूरि ने इस प्रकार की है ।
जिनादि प्रतिमेव चैत्यं श्रमणं
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१-पत्र १६३ २-औपपातिकमूत्र सटीक पत्र १९२, बाबू वाला संस्करण पत्र २६७ ३-भाग २, पृष्ठ ७३८ ४-भगवतीसूत्र सटीक, श० ३, उ० २, सूत्र १४४ पत्र ३१३ ५-- ठाणांगसूत्र सटीक पूर्वार्ध, पत्र १०८-२ ६-वही, पत्र १११
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