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बड़ा लेख लिखा था। उसमें उन्होंने बुद्ध और महावीर का तुलनात्मक विवेचन किया है। उक्त लेख में ( गुजराती-अनुवाद, पृष्ठ १९ ) एक स्थल पर ल्यूमैन ने लिखा है
"ये महावीर सम्पूर्ण पुरुषार्थ आत्मा के ऊपर दिखाते थे । ये साधु मात्र नहीं थे । पर, तपस्वी थे । पर, बुद्ध सत्य के बोध प्राप्त करने के बाद, तपस्वी नहीं रह गये-मात्र साधु रह गये और उन्होंने अपना पूरा पुरुषार्थ जीवन-धर्म पर दिखलाया। एक का उद्देश्य आत्मधर्म था, दूसरे का लोकधर्म ।'
और, रही बौद्धिक स्तर पर तार्किक दृष्टि से विचारणा । इस सम्बन्ध में ल्यूमैन ने लिखा है (गुजराती अनुवाद, पृष्ठ ३५)
"......महावीर के सम्बन्ध में हमने देखा कि समर्थ दार्शनिक के रूप में अपने समय में उठे हुए प्रश्नों के सम्बन्ध में ध्यान देकर वह परिपूर्ण रूप से उत्तर देते हैं और अपना जो दर्शन उन्होंने योजित किया है, उसमें पूरा खुलासा मिल जाता है।... पर बुद्ध तो पृथक प्रकार के पुरुष थे 1......"
और, बुद्ध की प्रकृति की विवेचना करते हुए ल्यूमैन ने लिखा है-"जिन विषयों को वह बुद्धिगम्य नहीं समझते थे उसका उत्तर टाल जाते थे ।'
इन उद्धरणों से उन कारणों की ओर सहज ही ध्यान चला जाता है, जिसके फलस्वरूप श्रमण-सम्प्रदायों में अकेले जैन ही अब तक जीवित बचे रहे ।
भगवत्दत्त ने अपनी पुस्तक 'वैदिक वाङ्गमय का इतिहास' में ( पृष्ठ ३९ ) लिखा है
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