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गोशालक की मृत्यु जिन नहीं था लेकिन वह जिन कहता हुआ विचरता था। श्रमणों का घात करने वाला वह मंखलिपुत्र गोशालक छद्मावस्था में ही कालकर गया । श्रमण भगवान् महावीर जिन हैं। इस प्रकार ऋद्धि-सत्कार से हीन मेरा शव निकालना।”
गोशालक की मृत्यु उसके बाद गोशालक मर गया । गोशाला के स्थविरों ने कमरे का द्वार बन्द कर दिया । उस कमरे में ही श्रावस्ती नगरी का आलेखन किया । उसीके चौराहों आदि में उसकी टाँग में रस्सी बाँधकर उसे खींचा और उसके मुख में थूका ।
उसके पश्चात् हालाला कुम्भकारिन के कमरे का दरवाजा खोला । सुगंधित जल से गोशालक को स्नान कराया तथा उसके पूर्व कहे के अनुसार बड़े धूमधाम से गोशालक का शव निकाला ।
गोशालक देवता हुआ . मृत्यु को प्राप्त कर गोशालक-अच्युत-नामक १२-वें देवलोक में देव-रूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ उसकी स्थिति २२ सागरोपम की होगी।'
भगवान मेंढियग्राम में श्रावस्ती के कोष्ठक-चैत्य से निकलकर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् मेंढियग्राम पहुँचे और उसके उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित साणकोष्ठक चैत्य ( देव-स्थान) में ठहरे । उस चैत्य में पृथ्वीशिलापट्टक था। उस चैत्य के निकट ही मालुया-कच्छ था।
१-भगवतीसूत्र सटीक, श० १५, उ० १, सूत्र ५५६ पत्र १२६४ ।
२-'मालुया' शब्द पर टीका करते हुए भगवतीसूत्र के टीकाकार ने लिखा है
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