________________
१३०
तीर्थकर महावीर फिर गोशाला उन्माद में बोला- "हे वीरक ! बीणा बजा !! हे वीरक ! वीणा बजा !!” उसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने ऐसा उत्तर दिया जिससे संतुष्ट होकर अयं पुल अपने घर वापस चला गया ।
गोशाला की मरणेच्छा अपना मरण जानकर गोशाला ने आजीवक-स्थविरों को बुलाया और कहा--"अहो देवानुप्रियो ! जब मुझे मृत्यु प्राप्त हुआ जानो, तब सुगंधित पानी से मुझे स्नान कराना, पक्ष समान सुकोमल कषाय रंग वाले वस्त्रों से गात्र को स्वच्छ करना, सरस गोशीर्ष चन्दन का गात्र पर लेपन करना, बहुमूल्य वाला हंस-सा श्वेत वस्त्र पहिनाना, सर्वालंकार से विभूषित कराना, सहस्रपुरुष-वाहिनी शिविका पर बैठाना और श्रावस्ती नगर के मार्गों पर चिल्लाना-"मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' प्रलापी और 'जिन' शब्द पर प्रकाश करते हुए इस अवसर्पिणी के २४ तीर्थकरों में चरम सिद्ध बुद्ध यावत् अंतकर्ता हुए।”
स्थविरों ने उसकी बात स्वीकार कर ली।
सात रात्रि बीतते हुए मंखलिपुत्र गोशालक को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई और उसे ऐसा विचार हुआ--
“मैं जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रलाप करके विचरने वाला नहीं हूँ। मैं श्रमणों का घात करने वाला, श्रमणों को मारने वाला, श्रमणों का प्रत्यनीक (विरोधी ), आचार्य-उपाध्याय का अपयश करने वाला मंखलिपुत्र गोशाला हूँ यावत् छद्मावस्था में काल कर रहा हूँ श्रमण भगवान् महावीर जिन यावत् जिन शब्द पर प्रकाश करते विहरते हैं।''
। अतः उसने फिर अपने स्थविरों को बुलाया और कहा-"इसलिए हे देवानुप्रियो ? मुझे मरा जानकर मेरे बायें पैर में रस्सी बाँधकर तीन बार मेरे मुख में थूकना । उसके बाद श्रावस्ती नगरी के राजमार्गों पर मुझे घसीटना और यह उद्घोषणा करना- "हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org