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तीर्थकर महावीर "हे शाक्यदार्शनिक ! तुम पूरे ज्ञाता दिखलायी पड़ते हो। तुमने कर्म-विपाक पर पूरी तरह विचार कर लिया है। इसी विज्ञान के फलस्वरूप तुम्हारा यश पूर्व और पश्चिम समुद्र तक विस्तार प्राप्त कर चुका है। तुम तो (ब्राह्माण्ड को) हथेली पर देखते हो।
___“जीव का जो अणुभाग है, उन्हें जो पीड़ा-रूप दुःख हो सकता है, उस पर भली प्रकार विचार करके (जैन-साधु ) अन्न-पानी के सम्बन्ध में विशुद्धता का ध्यान रखते हैं। तीर्थकर के सिद्धान्तों को मानने वाले साधुओं का ऐसा अणुधर्म है कि, वह गुप्त रूप में भी पाप नहीं करते ।
"जो व्यक्ति २ हजार स्नातक साधुओं को नित्य जिमाता है, तुम कहते हो, उसे पुण्य होता है; पर वह तो रक्त लगे हाथों वाला है। उसे इस लोक में निन्दा मिलती है और परभव में उसकी दुर्गति होती है।
"मोटे-मेढ़े को मार कर उसके मांस में नमक डाल कर, तेल में तलकर, पोपल डालकर तुम्हारे लिए भोजन तैयार किया जाता है।
"तुम लोग इस प्रकार भोजन करते थके, भोग भोगते थके और फिर भी कहते हो कि तुम्हें पाप-रूप रज स्पर्श नहीं होता । यह अनार्य-धर्मी है । अनाचारी बाल और अज्ञानी रसगृद्ध ऐसी बातें करते हैं ।
"जो अज्ञानी इस प्रकार मांस भोजन करते हैं, वे केवल पाप का सेवन करते हैं । कुशल पंडित ऐसा कोई कार्य नहीं करते । इस प्रकार की बालें ही असत्य हैं।
"एकेन्द्रियादिक सभी जीवों के प्रति दया के निमित्त उसे महादोषरूप जानकर ऐसा कार्य नहीं करते। हमारे धर्म के साधुओं का ऐसा आचरण है।
"ज्ञातपुत्र के अनुयायी, जो पाप है, उसका त्याग करते हैं । इसलिए वे अपने लिए बनाये भोजन को ग्रहण नहीं करते ।”
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