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तीर्थकर महावीर -जो आकांक्षाओं का अन्त करता है, वह पुरुष ( जगत के लिए) चक्षुरूप है । छुरा अपने अन्त पर चलता है, चक्र भी अपने किनारों पर ही चलता है। धीर पुरुष भी अन्त का ही सेवन करते हैं और वे ही ( जीवन-मरण का ) अन्त करने वाले होते हैं।
( ४२ ) धम्मं कहन्तस्स उ पत्थि दोसो, खन्तस्स दन्तस्स जिइन्दियस्स। भासाय दोसे य विवजगस्स, गुणे य भासाय णिमेवगस्स ॥५॥
__ -पृष्ठ ११८ -धर्म कहने मात्र से दोष नहीं लगता-यदि उसका कथन करने वाला क्षांत हो, दांत हो, जितेन्द्रिय हो, वाणी के दोप का त्याग करने वाला हो और वाणी के गुण का सेवन करने वाला हो।
ठाणांगसूत्र सटीक
( ४३ ) दोहिं ठाणेहिं ऋणगारे संपन्ने अणादीयं अणवयगं दीहमद्धं चाउरंत संसारकतारं वीतिवतंजा-तंजहा विजाए चेव चरणेण चेण ।
-ठा० २, उ० १, सूत्र ६३, पत्र ४४-१ -विद्या और चारित्र इन दो वस्तुओं के होने से साधु अनादि और दीर्घकालीन चार गति वाले संसार से तर जाता है।
( ४४ ) अज्झवसाणनिमित्ते पाहारे वेयणाराघाते । फासे श्राणापाणू , सत्तविहं भिज्जए ग्राऊं ॥१७॥
-ठा० ७, उ० ३, सूत्र ५६१ पत्र ३६-२
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