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तीर्थकर महावीर
वेण्णा की स्थिति का स्पष्टीकरण करते हुए जैन ग्रन्थों में आता है आभीर विसर कण्हाए वेण्णाए '
'वेण्णायड' वेण्णा के तट पर था, इसका अधिक स्पष्ट उल्लेख मूलदेव की कथा से हो जाता है । उसमें आता है कि एक सार्थवाह फारस से जहाज में माल भर कर वहाँ आता है । इससे स्पष्ट है कि यह वेण्णातट जहाँ समुद्र में कृष्णानदी मिलती है, स्थित रहा होगा । मंडित चोर के - प्रकरण में भी इस नगर का उल्लेख है ।
इस नदी का नाम प्राकृत ग्रन्थों में कण्ह वेण्णा आया है । 'कण्ह' से 'संस्कृत रूप 'कृष्ण' तो ठीक हुआ; पर 'वेण्णा' शब्द को संस्कृत रूप देने में - सभी ने भूल की है। भागवत में वह प्राकृत- सरीखा ही 'वेण्णा' लिख दिया है"; पर अन्य पुराणों के लिपिकारों ने 'ण्ण' की प्रकृति पर ध्यान दिये बिना ही एक 'ण' लिखकर उसे 'वेणा' बना दिया । पर, 'ण' ही ठीक है, यह बात शिलालेख, जातक, जैनग्रन्थों और भागवत से सिद्ध है । प्राकृत शब्द 'वण्ण' का संस्कृत रूप 'वर्ण' होता है, 'कण्ण' का संस्कृत रूप 'कर्ण' होता है । अतः वेण्णा का संस्कृत रूप वेर्णा होगा वेण्णा नहीं ।
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इस कण्हा-वेण्णा का उल्लेख भाष्य अवचूरी सहित पिंडनियुक्ति में आया है । 'कण्हा-वेण्णा' पर टीका करते हुए उसमें उल्लेख आया है :
१- आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ४१२-२
२ – उत्तराध्ययन नेमिचंद्रसूरि की टीका पत्र ६४-२ हिन्दू टेल्स मेयर - लिखित पृष्ठ २१५-२१६ ३ – 'षट्खंडागम' में पाठ आता है.. अंध विसयवेण्णायणादो पेसिदा ..... इससे भी हमारी कल्पना की पुष्टि हो जाती है ।
४ -- उत्तराध्ययन नेमिचंद्र की टीका, पत्र ९५ - १ ५ - हिस्टारिकल ज्यागरैफी आव ऐंशेंट इंडिया, पृष्ठ १६८
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