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यबूरण वणीततूल फरसे सीहासण संठीए प्रासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे ।
- औपपातिक सूत्र सटीक, सूत्र ५, पत्र १८-२ - उस उत्तम अशोकवृक्ष के नीचे स्कंध से कुछ दूरी पर किन्तु उसी के अबः प्रदेश में विशाल एक पृथिवीशिलापट्टक था । यह लम्बाई चौड़ाई एवं ऊँचाई में बराबर प्रमाण वाला था, हीनाधिक प्रमाणवाला नहीं था । इसका वर्ण कृष्ण था । अंजन, घन, कृपाण, कुवलय, हल स्कौशेय (बलदेव वस्त्रं ), आकाश, केश, कज्जलांगी ( कज्जलगृह ), खंजनपक्षी,
गभेद, रिष्टक ( रत्नम् ), जम्बूफल, असनक (बीयकाभिधानो वनस्पतिः) सनबंधन ( सनपुष्पवृत्यं ), नीलोत्पलपत्रनिकर और अतसीकुसुम के प्रकाशजैसा था ( अर्थात् श्याम वर्ण का था ) | मरकत, मसार ( मसृणीकारकः पाषाणविशेषः ), कटित्र ( वृत्ति विशेषः ), नयनकीका ( नेत्रमध्यतारा ताशिवर्गः काल इत्यर्थः ), के पुंज- जैसा इसका वर्ग था । वह सजल मेघ के समान था । इसके आठ कोने थे ( 'अहसिरे' अष्टशिराः - अष्टकोण इत्यर्थः ) । इसका तलभाग काँचदर्पण-जैसा चमकीला था । ( देखने में यह ) सुरम्य ( लगता ) था । इहामृग ( वृका: ), वृषभ, तुरंग ( अश्व ), नर, मकर, विहग, व्याल ( सर्प ), किन्नर, रुरु, सरभ, चमर, कुञ्जर, वनलता एवं पद्मलता इन सबके चित्रों से यह सुशोभित था । ( इसका स्पर्श ) अजिनक ( चर्ममय वस्त्र ), रूत ( रूई ), बूर ( वनस्पति विशेषः ), नवनीत, तूल ( अर्कतूल ) के स्पर्श के समान था । यह सिंहासनाकार था । हृदय को हर देनेवाला, नेत्रों को आल्हादित करने वाला एवं सुन्दर आकृति सम्पन्न यह पृथ्वीशिपक अपूर्व शोभा संपन्न था ।
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