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तीर्थकर महावीर -जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, जीवाजीव को नहीं जानता वह संयम को किस प्रकार जानेगा ?
तवे तेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । अायारभावतेणे य, कुम्वइ देवकिविसं ॥४६॥
-अ० ५, उ० २, पत्र १८९-२ -जो तप का चोर, वचन का चोर, रूप का चोर, आचार का चोर, भाव का चोर होता है, वह अगले जन्म में अत्यन्त नीच योनि किल्विष-देवों में उत्पन्न होता है।
तथिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसि । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो ॥८
--अ० ६, पत्र १९६-२ --(अठाहरह ठाणों में ) प्रथम स्थानक अहिंसा महावीरस्वामी ने उपदेशित किया । अहिंसा सब सुख देने वाली है। अतः सर्व भूतों को इसका संयम रखना चाहिए ।
अप्पणट्टा परट्टा वा कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं वूश्रा, नोवि अन्नं वयावए ॥११॥
---अ०६, पत्र १९७-१ -क्रोध, मान, माया, लोभ तथा भय के कारण से अपने लिए तथा दूसरों के लिए साधु न तो स्वयं मृषा भाषण करे और न करवाए।
चित्तमंत मचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्वं वि, उग्गहसि अजाइया ।।१३।।
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