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________________ श्रयुण्य कर्म-सम्बन्धी स्पष्टीकरण आयुष्य कर्म-सम्बन्धी स्पष्टीकरण एक बार गौतम स्वामी ने पूछा - "हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं कि जैसे कोई एक जाल हो, उस जाल में एक क्रमपूर्वक गाँठें लगी हों, उसी के समान अनेक जीवों को अनेक भव-संचित आयुष्यों की रचना होती है । जिस प्रकार जालमें सब गाँठें नियत अंतर पर रहती हैं और एक दूसरे से सम्बन्धित रहती हैं, उसी तरह सब आयुष्य एक दूसरे से नियत अंतर पर होते हैं । इनमें से एक जीव एक समय में दो आयुष्यों को अनुभव करता है— इहभविक और पारभविक ! जिस समय वह इस भव का आयुष्य का अनुभव करता है, उसी समय वह पारभविक का भी अनुभव करता है । अन्यतीर्थिकों का कथन क्या ठीक है ?" भगवान् — “गौतम ! अन्यतीर्थिक जो कहते हैं, वह असत्य है । इस सम्बन्ध में मैं कहता हूँ कि, जैसे कोई जाल यावत् अन्योन्य समुदायपने रहता है, इस प्रकार क्रम करके अनेक जन्मों के साथ सम्बन्ध धारण करने वाला एक-एक जीव ऊपर की श्रृंखला की कड़ी के समान परस्पर क्रम करके गुँथा हुआ होता है और ऐसा होने से एक जीव एक समय एक आयुष्य का अनुभव करता है । वह इस प्रकार है-वह जीव इस भव के आयुष्य का अनुभव करता है, अथवा परभव के आयुष्य का अनुभव करता है । जिस समय वह इस भव के आयुष्य का अनुभव करता है, उस समय वह परभव के आयुष्य का अनुभव नहीं करता और जिस समय वह परभव के आयुष्य का अनुभव करता है, उस समय वह इस भव के आयुष्य का अनुभव नहीं करता । इस भव का आयुष्य वेदने के समय परभव का आयुष्य वह नहीं वेदता ।' मनुष्यलोक में मानव बस्ती गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा - "हे भगवन् ! अन्य तीर्थिक १ - भगवती सूत्र सटीक, शतक ५, उद्देशा ३ पत्र ३८५ Jain Education International २८३. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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