SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 743
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूक्ति-माला ६७५ . से प्रायबले, से नाइबले, से मित्त बले, से पिञ्चबले, से देवबले, से रायबले, से चोरबले, से अतिहिबले, से किविणबले, से समणबले, इच्चेहिं निरूव वरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कजाइ, पावमुक्खुत्ति मन्नमाणे, अदुवा प्रासंसाए । -पत्र १०३-२ -~-शरीरबल, जातिबल, मित्रबल, परलोकबल, देवबल, राजबल, चोरबल, अतिथिबल, भिक्षुकबल, श्रमणबल आदि विविध बलों की प्राप्ति के लिए यह अज्ञानी प्राणी विविध प्रकार की हिंसक प्रवृत्ति में पड़कर जीवों की हिंसा करता है। कई बार इन कार्यों से पापों का क्षय होगा अथवा इस लोक और परलोक में सुख मिलेगा, इस प्रकार की वासना से भी अज्ञानीपुरुष सावध (पाप) कर्म करता है। (८) से अबुज्झमाणे होवहए जाईमरणं अणुपरियट्ठमाणे -पत्र १०९-१ -अज्ञान जीव राग से ग्रस्त तथा अपयशवंत होकर जन्ममरण में फसता रहता है। ततो से एगया रोग समुप्पाया समुप्पति -~-पत्र ११३-२ --कामभोग से भोगी के असाता वेदनीय के उदय से रोगों का प्रादुर्भाव होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy