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तीर्थंकर महावीर
— जो शब्दादि विषय हैं, वही संसार के मूल कारण हैं; जो संसार के मूलभूत कारण हैं, वे विषय हैं । इसलिए विषयाभिलाषी प्राणी प्रमादी बनकर ( शारीरिक और मानसिक ) बड़े-बड़े दुःखों का अनुभव कर सदा परितप्त रहता है । मेरी माता, मेरे पिता, मेरे भाई, मेरी बहिन, मेरी पत्नी, मेरी पुत्री, मेरी पुत्रबधू, मेरे मित्र, मेरे स्वजन, मेरे कुटुम्बी, मेरे परिचित, मेरे हाथीघोड़े-मकान आदि साधन, मेरी धन-सम्पत्ति, मेरा खान-पान, मेरे वस्त्र इस प्रकार के अनेक प्रपंचों में फँसा हुआ यह प्राणी आमरण प्रमादी बनकर कर्मबन्धन करता रहता है ।
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इच्चेवं समुट्ठिए होविहाराए अन्तरं च खलु इमं संपेहाए धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए । वयो ऋच्चेति जोव्वणं च ।
- पत्र ९६-२
- इस प्रकार संयम के लिए उद्यत होकर इस अवसर को विचार कर धीर पुरुष मुहूर्त मात्र का भी प्रमाद न करे – अवस्था बीतती है, यौवन भी ।
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जाणित्त दुक्खं पत्तेयं सायं प्रणभिक्कतं च खलु वयं संपेहाए ख जाहि पंडिए ।
- पत्र ९८-२, ९९-१
- प्रत्येक प्राणी अपने ही सुख और दुःख का निर्माता है और स्वयं ही सुख-दुःख का भोक्ता है । यह जानकर तथा अब भी कर्त्तव्य और धर्म अनुष्ठान करने की आयु को शेष रही हुई जानकर, हे पंडित पुरुष ! अवसर को पहिचानो !
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