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________________ ६७४ तीर्थंकर महावीर — जो शब्दादि विषय हैं, वही संसार के मूल कारण हैं; जो संसार के मूलभूत कारण हैं, वे विषय हैं । इसलिए विषयाभिलाषी प्राणी प्रमादी बनकर ( शारीरिक और मानसिक ) बड़े-बड़े दुःखों का अनुभव कर सदा परितप्त रहता है । मेरी माता, मेरे पिता, मेरे भाई, मेरी बहिन, मेरी पत्नी, मेरी पुत्री, मेरी पुत्रबधू, मेरे मित्र, मेरे स्वजन, मेरे कुटुम्बी, मेरे परिचित, मेरे हाथीघोड़े-मकान आदि साधन, मेरी धन-सम्पत्ति, मेरा खान-पान, मेरे वस्त्र इस प्रकार के अनेक प्रपंचों में फँसा हुआ यह प्राणी आमरण प्रमादी बनकर कर्मबन्धन करता रहता है । (*) इच्चेवं समुट्ठिए होविहाराए अन्तरं च खलु इमं संपेहाए धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए । वयो ऋच्चेति जोव्वणं च । - पत्र ९६-२ - इस प्रकार संयम के लिए उद्यत होकर इस अवसर को विचार कर धीर पुरुष मुहूर्त मात्र का भी प्रमाद न करे – अवस्था बीतती है, यौवन भी । ( ६ ) 3 जाणित्त दुक्खं पत्तेयं सायं प्रणभिक्कतं च खलु वयं संपेहाए ख जाहि पंडिए । - पत्र ९८-२, ९९-१ - प्रत्येक प्राणी अपने ही सुख और दुःख का निर्माता है और स्वयं ही सुख-दुःख का भोक्ता है । यह जानकर तथा अब भी कर्त्तव्य और धर्म अनुष्ठान करने की आयु को शेष रही हुई जानकर, हे पंडित पुरुष ! अवसर को पहिचानो ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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