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तीर्थंकर महावीर ऐसा सुनकर विजयघोष ने हाथ जोड़कर पूछा- 'हे साधो ! वेदों के मुख को कहो । यज्ञों के मुख को कहो । नक्षत्रों के मुख को कहो और धर्मों के मुख को कहो । पर और अपनी आत्मा के उद्धार करने में जो सफल हैं, उनके बारे में कहो ।”
यह सुनकर जयघोष ने कहा-'अग्निहोत्र वेदों का मुख है । यज्ञ के द्वारा कर्मों का क्षय करना यज्ञ का मुख है। चन्द्रमा नक्षत्रों का मुख है
और धर्मों के मुख काश्यप भगवान् ऋषभदेव हैं। जिस प्रकार सर्वप्रधान चन्द्रमा की, मनोहर नक्षत्रादि तारागण, हाथ जोड़ कर वंदना-नमस्कार करते स्थित हैं, उसी प्रकार इन्द्रादि देव भगवान् काश्यय ऋषभदेव की सेवा करते हैं। हे यज्ञवादी ब्राह्मण लोगों ! तुम ब्राह्मण की विद्या और सम्पदा से अनभिज्ञ हो । स्वाध्याय और तप के विषय में भी अनभिज्ञ हो । स्वाध्याय और तप के विषय में भी मूढ हो। अतः तुम भस्म से आच्छादित की हुई अग्नि के समान हो । तात्पर्य यह है कि, जैसे भस्म से आच्छादित की हुई अग्नि ऊपर से शांत दिखती है और उसके अंदर ताप बराबर बना रहता है, इसी प्रकार तुम बाहर से तो शांत प्रतीत होते हो; परन्तु तुम्हारे अंतःकरण में कषाय-रूप अग्नि प्रज्वलित हो रही है। जो कुशलों द्वारा संदिष्ट अर्थात् जिसको कुशलों ने ब्राह्मण कहा है और जो लोक में अग्नि के समान पूजनीय है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं । जो स्वजनादि में आसक्त नहीं होता और दीक्षित होता हुआ सोच नहीं करता; किन्तु आर्य-वचनों में रमण करता है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं । जैसे अग्नि के द्वारा शुद्ध किया हुआ स्वर्ण तेजस्वी और निर्मल हो जाता है, तद्वत् रागद्वेष और भय से जो रहित है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं।" इस प्रकार ब्राह्मण के सम्बंध में अपनी मान्यता बताते हुए जयघोष ने कहा-'सर्व वेद पशुओं के बध-बन्धन के लिए हैं और यज्ञ पाप-कर्म का हेतु है । वे वेद या यज्ञ वेदपाठी अथवा यज्ञकर्ता के रक्षक नहीं हो सकते । वे तो पाप-कर्मों को बलवान बना कर दुर्गति में पहुँचा देते हैं। केवल
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