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तीर्थङ्कर महावीर प्राप्त होते हैं ( वैसे श्रोत्रेन्द्रिय के आश्रयी भी बध-बंधन प्राप्त करते हैं।)
(१२) चक्खिदियदुदंत-त्तणस्स अह एत्तिो भवति दोसो। जं जलणम्मि जलते, पडसि पयंगो अबुद्धिो ॥
-पृष्ठ २०६ -चक्षुरिन्द्रिय के दुर्दुरान्तपने से पुरुष में इतना दोष होता है कि, जैसे मूर्ख पतंग जलते अग्नि में कूद पड़ते हैं ( वैसे ही वे दुःख प्राप्त करते हैं)।
घाणिदिय दुईतत्तणस्स अह एत्तिो हवह दोसो । जं अोसहि गंधेण बिलाश्रो निद्धावई उरगो ॥६॥
-पृष्ठ २०६ -जो मनुष्य घ्राणेन्द्रिय के आधीन ( अनेक प्रकार के सुगंध में आसक्त) होते हैं, वे उसी प्रकार बंधित होते हैं) जैसे ओषधि के गंध के कारण बिल से निकलने पर सर्प पकड़ लिया जाता है।
जिभिदि य दुइंतत्तणस्स अह एत्तिो हवइ दोसो। जं गललग्गुक्खित्तो फुरइ थल विरेल्लिो मच्छो ॥७॥
__ -पृष्ठ २०६ -जो जिह्वेन्द्रिय के वश में होता है, वह गले में काँटा लगा कर पृथ्वी पर पटकी हुई मछली की तरह तड़पता है (और मरण पाता है।)
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