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तीर्थंकर महावीर
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अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहारण य सुहाण य । अप्पा मिश्रममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्टिश्रो ॥ ३७ ॥
-अ० २०, पृष्ठ ५७ - आत्मा ही दुःख और सुख का कर्ता और विकर्ता है । एवं यह आत्मा ही शत्रु और मित्र है, सुप्रस्थित मित्र और दुःप्रस्थित शत्रु है ।
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एगप्पा जिए सत्तू,
कसाया इन्द्रियाणि य ।
ते जिखित्तु जहानायं विहरामि श्रहं मुणी ॥ ३८ ॥
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- श्र० २३, पृष्ठ ६७ - वशीभूत न किया हुआ आत्मा शत्रुरूप है - कषाय और इन्द्रियाँ भी शत्रुरूप हैं । उनको न्यायपूर्वक जीत कर मैं विचरता हूँ ।
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उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई ।
भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥ ४१ ॥
- अ० ६५, पृष्ठ ७५ - भोग से कर्म पर आलेपन होता है, भोगी संसार का भ्रमण करता है । अभोगी पर आलेपन नहीं होता और अभोगी संसार पार कर जाता है ।
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रोगो य दोसो विय कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई
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मरणं वयंति ॥ ७ ॥ -अ० ३२, पृष्ठ ९६.
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