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________________ तीर्थंकर महावीर ( १७ ) सव्व पमत्तस्स भयं सव्वश्री अपमत्तस्स नत्थि भयं । 2 ६७८ - पत्र १२५-२ - प्रमादी को सभी प्रकार का डर रहता है । अप्रमत्तात्मा को किसी प्रकार का डर नहीं रहता । (१८) जे एगं नामे से बहुं नामे, जे बहुं नामे से एगं नामे - पत्र १५५-२ - जो एक को नमाता है, वह अनेक को नमाता है और जो अनेक को नमाता है, वह एक को नमाता है । ( 9ε ) पत्तेयं, पुव्वं निकायसमयं दुक्खं हं भो ! पवाइया किं भे सायं समिया पडवणे यावि एवं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसिं जीवाण बूया - सव्वेसिं सत्ताणं, असायं परिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं । पुच्छि सामि असाय ? - पत्र ९६८-१ करता हूँ -- "हे - प्रत्येक दर्शन को पहले जानकर मैं प्रश्न वादियों ! तुम्हें सुख अप्रिय है या दुःख अप्रिय है ?” यदि तुम स्वीकार करते हो कि दुःख अप्रिय है तो तुम्हारी तरह ही सर्व प्राणियों को सर्व भूतों को सर्व जीवों को और सर्व तत्त्वों को दुःख महाभयंकर अनिष्ट और अशांतिकर है । Jain Education International ( २० ) इमेण चैव जुज्झाहि किं ते जुज्भेण वज्झाओ जुद्धारिहं खलु दुल्लभं । -पत्र १६०-२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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