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भगवान् अपापापुरी में
२९३ प्रभु के समवसरण में अपापापुरी का राजा हस्तिपाल भी आया और प्रभु की धर्मदेशना सुनने बैठा । भगवान् की धर्मदेशना सुनने देवता लोग भी आये । इस समय इन्द्र ने भगवान् की स्तुति की
"हे प्रभु ! धर्माधर्म पाप-पुण्य बिना शरीर प्राप्त नहीं होता। शरीर के विना मुख नहीं होता और मुख के बिना वाचकत्व नहीं होती। इस कारण अन्य ईश्वरादिक देव दूसरों को किस प्रकार शिक्षा दे सकते हैं ? देह से हीन होने पर भी ईश्वर की जगत रचने की प्रवृत्ति घटती नहीं है। जगत रचने की प्रवृत्ति में उसे अपने स्वतंत्रपने की अथवा किसी दूसरे की आज्ञा की आवश्यकता नहीं है । यदि वह ईश्वर क्रीड़ा के कारण, जगत के सृजन में प्रवृत्तिवान् हो तो वह बालक के समान रागवान् ठहरे । और, यदि वह कृपा-पूर्वक सृष्टि का सृजन करे तो सब को सुखी बनाना चाहिए । हे नाथ! दुःख, दरिद्रता, और दुष्ट योनि में जन्म इत्यादि क्लेश से ब्याकुल लोक के सृजन से कृपालु ईश्वर की कृपालुता कहाँ रही ? अर्थात् उसकी स्थापना नहीं हो सकती । ईश्वर कर्म की अपेक्षा से, दुःखी अथवा मुखी करता है यदि ऐसा है तो ऐसा सिद्ध होता है कि, हमारे समान ही वह भी स्वतंत्र नहीं है।
यदि जगत् में कर्म की विचित्रता है, तो फिर विश्वका नाम धारण करने वाले नपुंसक ईश्वर का काम क्या है ? अथवा महेश्वर की इस जगत के रचने में यदि स्वभावतः प्रवृति हो, और कहें कि वह उस सम्बंध में कुछ विचार नहीं करता, तो उसे परीक्षकों की परीक्षा के लिए डंका समझना चाहिए । अर्थात् इस सम्बंध में उसकी परीक्षा करनी ही नहीं, ऐसा कथन सिद्ध होगा । यदि सर्वभाव के सम्बंध में ज्ञातृत्व-रूप कर्तव्य कहें तो मुझे मान्य है; कारण कि सर्वज्ञ दो प्रकार के होते हैं-एक मुक्त और दूसरा शरीरधारी । हे नाथ ! आप जिस पर प्रसन्न होते हैं, वह पूर्वकथित अप्रमाणिक कर्तृत्ववाद को तज कर आपके शासन में रमण करता है।"
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