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तीर्थकर महावीर 'श्रमण' शब्द का अर्थ ही भगवान् महावीर है। इस बात से स्वयं स्थानकवासी विद्वान् भी अवगत हैं। रतनचन्द ने अपने कोष में 'श्रमण" शब्द का एक अर्थ 'भगवान् महावीर स्वामी का एक उपनाम' भी दिया है।'
ठाणांग की टीका में जो श्रमण शब्द आया, वहाँ उससे तात्पर्य भगवान् महावीर से है न कि साधु से ।
भगवती वाले पाठ पर विचार अमोलक ऋषि ने भगवती वाले पाठ का अनुवाद इस प्रकार किया है- .
अरिहंत, अरिहंत चैत्य सो छद्मस्थ, अनगार...
चैत्य का अर्थ 'छद्मस्थ' किसी कोष में नहीं मिलता। स्वयं स्थानकवासी साधु रतनचन्द्र ने अपने कोष में 'चैत्य' का एक अर्थ 'तीर्थकर' का ज्ञान केवलज्ञान' दिया है। उपाध्याय अमरचंद्र ने भी चेतिंत का का अर्थ ज्ञान किया है ( सामायिक सूत्र, पृष्ठ १७३ )। छद्मास्थावस्था में केवलज्ञान तो होता ही नहीं।
और, फिर छद्मस्थ कौन ? छद्मस्थ तो जब तक केवलज्ञान नहीं होता सभी साधु रहते हैं और यदि सूत्रकार का तात्पर्य साधु से होता तो आगे अणगार न लिखता और यदि अमोलक ऋषि का तात्पर्य तीर्थकर से हो तो अरिहंत होने के बाद छद्मावस्था नहीं रहती-या इस प्रकार कहें कि छमावस्था समाप्त होने पर ही अर्हत होते हैं । भगवान् को केवलज्ञान जब हुआ, तब का वर्णन कल्पसूत्र में इस प्रकार आया है :
१-अर्द्धमागधी कोष, भाग ४ पृष्ठ ६२१ २–अर्द्धमागधी कोष, भाग २, पृष्ठ ७३८ ३-भगवती सूत्र ( अमोलक ऋषि वाला ) पत्र ४६६
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