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तीर्थकर महावीर कोई स्तम्भ नहीं मिला और आर्द्रककुमार को ही स्पर्श कर वह बोली"यह मेरा पति है।" ___इसी समय आकाश में एक देवता बोला-"सभी कन्याएँ तो स्तम्भ का ही वरण करती रहीं, पर धनश्री ने तो ऐसे का वरण किया जो तीनों भुवनों में श्रेष्ठ है । देवताओं ने आकाश में दुंदुभी बजायी और रत्नों की वर्षा की।
। देवदुंदुभी सुनकर धनश्री आर्द्रकमुनि के चरणों पर गिर पड़ी और बड़ी दृढ़ता से आर्द्रककुमार का चरण पकड़ लिया। आद्रककुमार ने धनश्री के हाथ से अपना पैर छुड़ाकर वहाँ से विहार कर दिया ।
वसन्तपुर का राजा रत्नादि की वृष्टि का समाचार सुनकर रत्नों को संग्रह करने वहाँ पहुँचा; पर शासन-देवी ने उसे मना कर दिया ।
कुछ समय बाद धनश्री के पिता ने धनश्री के विवाह की बात अन्यत्र चलायी; पर धनश्री ने कहा-"उत्तम कुल में उत्पन्न कन्या एक ही बार वरण करती है । जिसके वरण के समय देवताओं ने रत्नों की वृष्टि की वही मेरा पति है ।' सुनकर धनश्री के पिता ने पूछा--"पर, वह साधु तुम्हें मिलेगा कहाँ ?' इस पर धनश्री बोली-"बिजली की चमक में उस साधु के चरण में मैंने पद्म देखे हैं । मैं उन्हें पहचान जाऊँगी।” उसके पिता ने कहा--"तुम नित्य दानशाला में दान दिया करो। जो साधु आयें, उनके चरण देखा करो । सम्भव है, वह साधु कभी आ जाये।"
धनश्री पिता के कथनानुसार नित्य दान देती।
दिशाभ्रम होने से एकवार आर्द्रककुमार पुनः वसन्तपुर में आ पहुँचे। उन्हें देखकर धनश्री ने अपने पिता को बुला भेजा। मुनि को देखकर धनश्री के पिता ने कहा-“हे मुनि, यदि आप मेरी पुत्री का पाणिक-ग्रहण नहीं करेंगे, तो वह प्राण त्याग देगी।" आर्द्रककुमार को अपनी भोगावलि शेष रहने की बात स्मरण आयी और उन्होंने धनश्री से विवाह करना स्वीकार कर लिया ।
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