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तीर्थकर महावीर . ... ... ... . 'ओषधादिकं पुनः 'भक्त' विकल्पितम्, किं चिदाहारः किंचिदानाहारः इत्यर्थः। तत्र शर्करादिकमौषधमाहारः सर्पदष्टादेर्मृत्तिकादिकमौषधमनाहारः
-अर्थात् जो खाने वाली शर्करा आदि ओषधि है, वह आहार है, जो बाहर लगायी जाये वह अनाहार है।
(४) स्वादिम की टीका ठाणांगसूत्र ( पत्र २२०-१) में ताम्बूलादि दी है । प्रवचनसारोद्धार में उसके सम्बध में गाथा आती है
दंतवणं तंबोलं तुलसी कुडेह गाईयं ।
महुपिप्पलि सुंठाई अणेगहा साइमने यं ॥२१०॥ यहाँ यह जान लेना चाहिए कि बासी आहार साधु को नहीं कल्पता है। वृहत्कल्प में पाठ हैनो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा पारियासियस्स...
-वृहत्कल्प सभाष्य सटीक, विभाग ५, पृष्ठ १५८३ पर, यह नियम सब प्रकार के खाद्य के लिए नहीं है। पर्युषित भोजन दो प्रकार का होता है। उसमें एक प्रकार का पर्युपित साधु को कल्पता है और एक प्रकार का नहीं कल्पता । ____ जो राँधा हुआ हो, उसे साधु बासी नहीं खाता और जिसमें जल का अंश न हो, सूखा हो, चूर्ण हो, घृत में बना हो, वह बासी भी खाया जा सकता है।
पर्युषित भोजन के सम्बन्ध में कहा गया हैवासासु पन्नर दिवसं, सि-उण्ह कालेसु मास दिण वीसं । उग्गहियं जोईणं, कप्पइ प्रारब्भ पढम दिण्णा ॥
-धर्मसंग्रह यशोविजय की टिप्पण सहित, पत्र ७६-१ —पकानादि पकायो तथा तली हुई वस्तु उस दिन को गिनकर वर्षा काल में १५ दिन, शीतकाल में १ मास और उष्ण काल में २० दिवस तक साधु को कल्पता है।
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