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भक्त राजे स्वर्गवासी हुए और आर्य सुहस्ती विदिशा से उज्जयनी में जीवित प्रतिमा को वंदन करने चले गये।
अपनी महत्त्वपूर्ण स्थिति के कारण विदिशा का प्राचीन भारतीय इतिहास में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। और, इसी कारण शताब्दियों तक वह बड़े महत्त्व का व्यापारिक केन्द्र रहा। यहाँ से व्यापार-मार्ग कौशाम्बी, काशी, पाटलिपुत्र, भरुकच्छ और सूर्पारक तक जाते थे। पालीसाहित्य में इसे पाटलिपुत्र से ५० योजन की दूरी पर बताया है। पालीसाहित्य में यहाँ से जाने वाले एक अति लम्बे मार्ग का भी एक उल्लेख आया है । बावरी नामक एक व्यक्ति ने श्राप का फल जानने के लिए अपने १६ शिष्य बुद्ध के पास भेजे । अल्लक से प्रस्थान करके वह दल प्रतिष्ठान, माहिष्मती, उज्जयिनी, गोनद्ध, होता हुआ विदिशा पहुँचा और यहाँ से बनसाय, कौशाम्बी, साकेत, श्रावस्ती, सेतव्या, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, भोगनगर, वैशाली होता हुआ राजगृह गया।
सम्राट अशोक अपने युवराजत्वकाल में यहाँ रह चुका था और उसने एक वैश्य की पुत्री से यही विवाह कर लिया था। उसी की संतान महेन्द्र राजकुमार और संघमित्रा थी।
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में इसे मध्यम प्रकार के हाथियों के लिए
१-आवश्यक चूणि, द्वितीय भाग, पत्र १५६ -१५७ । आवश्यक हारिभद्रीय टीका तृतीय भाग, पत्र ६६६-२, ६७०-१। आवश्यक नियुक्ति दीपिका, द्वितीय भाग, पत्र १०७.१ गाथा १२७८ ।
२-डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पेज ६२२ । ३-सुत्तनिपात ( हार्वाड ओरियेंटल सिरीज ) लार्ड चैमर्स-सम्पादित पृष्ठ २३८, ४-डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पृष्ठ ६२२; बुद्धचर्यो, पृष्ट ५३७
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