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________________ २४० तीर्थङ्कर महावीर __ गांगेय—"हे भगवन् ! मनुय्यप्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ?" भगवान्-"दो प्रकार का-१ संमूछिम मनुष्य प्रवेशनक और २ गर्भजमनुष्य प्रवेशनक ।" उसके बाद भगवान् ने उनके सम्बन्ध में विस्तृत रुप में वर्णन किया। गांगेय- "हे भगवन् ! देवप्रवेशनक कितने प्रकार का है ? भगवान्-'हे गांगेय ! देवप्रवेशनक चार प्रकार के हैं-१ भवनवासीदेव प्रवेशक, २ वानव्यंतर, ३ ज्योतिष्क, ४ वैमानिक ।" फिर भगवान् ने इनके सम्बंध में भी विशेष सूचनाएँ दी। गांगेय "हे भगवन् ! 'सत्' नारक उत्पन्न होते हैं या असत् ! इसी तरह 'सत्' तिर्यच, मनुष्य और देव उत्पन्न होते हैं 'असत्' ?" भगवान् "हे गांगेय सभी सत् उत्पन्न होते हैं असत् कोई उत्पन्न नहीं होता?" गांगेय- "हे भगवन् ! नारक, तिर्यंच, और मनुष्य 'सत्' मरते हैं या 'असत्' । इसी प्रकार देव भी 'सत्' च्युत् होते हैं या 'असत् ?” । __ भगवान्-"सभी सत्च्यवते हैं असत् कोई नहीं च्यवता ?” गांगेय-"भगवान् ! यह कैसे ? सत् की उत्पत्ति कैसी ? और मरे हुए की सत्ता कैसी ?” भगवान्–“गांगेय ! पुरुषादानीय पार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत, अनादि और अनन्त कहा है। इसलिए मैं कहता हूँ कि वैमानिक सत् च्यवते हैं असत् नहीं।" गांगेय—"हे भगवन् ! आप इस रूप में स्वयं जानते हैं या अस्वयं जानते हैं ?" भगवान्-"मैं इनको स्वयं जानता हूँ। अस्वयं नहीं जानता।" गांगेय--"आप यह किस कारण कहते हैं कि मैं स्वयं जानता हूँ ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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