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भक्त राजे शिवः हस्तिनागपुर राजो' हस्तिनापुर के इस राजा की चर्चा भगवतीसूत्र में भी आती है।
उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था । उस हस्तिनापुर नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में सहस्र आम्रवन नाम का उद्यान था । वह उद्यान सब ऋतुओं के फल-पुष्प से समृद्ध था और नन्दनवन के समान रमणीक था।
उस हस्तिनापुर में शिव नाम के राजा थे। वह राजाओं में श्रेष्ठ थे । उक्त शिव राजा को पटरानी का नाम धारिणी था। धारिणी से उक्त शिव राजा को एक पुत्र था। उसका नाम शिवभद्र था ।
एक दिन राजा के मन में रात्रि के पिछले प्रहर में विचार हुआ कि हमारे पास जो इतना-सारा धन है, वह हमारे पूर्व जन्म के पुण्य का फल है । अतः पुनः पुण्य संचय करना चाहिए । इस विचार से उसने दूसरे दिन अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर दिया और अपने सगे-सम्बन्धियों से अनुमति लेकर लोही आदि लेकर गंगा किनारे रहते तापसों के पास दीक्षा लेकर दिशाप्रोक्षक तापस हो गया और निरन्तर ६ टंक उपवास का व्रत उसने ले लिया।
पहले उपवास के पारणा के दिन शिव राजर्षि तपस्थान से नीचे आया और नीचे आकर वल्कल-वस्त्र धारण करके अन्यों की झोपड़ी के निकट गया और किठिण (साधु के प्रयोग में आने वाला बाँस का पात्र ) और
१-स्थानांगसूत्र सटीक, उत्तराद्ध पत्र ४३१-१ । २-भगवती सूत्र सटीक, शतक ११, उद्देशा ९, पत्र ९४४-९५८ । ३-विशेष परिचय के लिए देखिए-'हस्तिनापुर' (ले० विजेन्द्रसूरि)
४-इस पर टीका करते हुए अभयदेव सूरि ने लिखा है'दिसापोक्खिणो' त्ति उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुचिन्वन्ति ।
-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ५५४ ।
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