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भक्त राजे
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किसी प्रकार की बाधा न आये, इस रूप में वह त्रिवर्ग' की साधना करने वाला श्रावक था ।
शंख को वैराग्य हुआ और उन्होंने दीक्षा ले ली । कालान्तर में वह गीतार्थ हुए ।
एक बार विहार करते हुए शंख मुनि हस्तिनापुर गये और गोचरी के लिए उन्होंने नगर में प्रवेश किया ।
वहाँ एक गली थी जो सूर्य की गर्मी से इतनी उत्तप्त हो जाती थी कि उसमें चलने वाला व्यक्ति भुन जाता था और इस प्रकार उसकी मृत्यु हो जाती थी ।
शंख राजा जब उस गली के निकट पहुँचे तो पास के घर के स्वामी सोमदेव-नामक पुरोहित से पूछा - " इस गली में जाऊँ या नहीं ?" द्वेषवश उस पुरोहित ने कह दिया- "हाँ ! जाना हो तो जाइए ।"
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५ – त्रिवर्गो धर्मार्थकामः तत्र यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः । यतः सर्व प्रयोजन सिद्धिः सोऽर्थः । यत श्राभिमानिकरसानुविद्धा सवेंन्द्रिय प्रीतिः स कामः । ततोऽन्योऽन्यस्य परस्परं योऽप्रतिबन्धोऽनुपधातस्तन त्रिवर्गमपि न त्वैकेकं साधयेत ।
यह विवरण हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र की स्वोपज्ञ टीका में श्रावकों के प्रकरण में दिया है ।
— योगशास्त्र सटीक पत्र ५४-१
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- महुरा नयरीए संखो नाम राया, सोय तिवग्गसारं जिणधम्मागुट्टा परं जीवलोगसुहमणुभविऊण
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— उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, पत्र १७३ ३ – गीतो विज्ञात कृत्याकृत्यलक्षणोऽर्थो येन स गीतार्थः । बहुश्रुते
प्रत्र० १०२ द्वार
- राजेन्द्राभिधान, भाग ३, पृष्ठ ९०२
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