Book Title: Triloksar
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MERNTubCANAN A श्री वीतरागाय नमः * TODESED भगवान महावीर के २५०० व परिनिर्वाण के पुनीत अवसर पर प्रकाशित श्री शिवसागर ग्रन्थमाला का छठा पुष्प श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवति विरचित त्रिलाकसार ( श्रीमन्माधवचन्म त्रैविग्रदेवकृत व्याख्या सहित ) हिन्दी टीकाकी : पूज्य विदुषी आर्यिका १०५ श्री विशुद्धमति माताजी ( संघस्था, प० पू० पात्रायंकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज ) सम्पादक : सिद्धान्तभूपण ७० पं. रतनचन्द जैन मुख्तार, सहारनपुर प्रा० चेतनप्रकाश पाटनी, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर प्रकाशक : ७० लाडमल मैन अधिष्ठाता, शान्तिवीर गुरुकुल ___ठि. श्री शान्तिवीर दिगम्बर जैन संस्थान, श्री महावीरजी ( राजस्थान ) ANAND RANDMURARREARY AAAAAPPPPMurtal RAMANTRAPA 31 SANEL Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि त्रि लो का कृ ति श का का ह 5 이 Jotud 14 सीरी कृषी नात तर सड़क और शुक्र है ऐशुरू लान्भ A काष्ठ महा मे ब्रह्मांतर AA cor का nigam itt HA ܘܢ à A oft A A राला 14 म ........... "आग 49 बार्क य प्रकाश येनेबर उप्र का अ 'धुम अ पृथ्वी जम प्रभ 2155 - न का བཚན་ शि ऐमान बल्य ने L Saya 15 Chaven' * Ch. ך रा T 214. Th Jour ॐ का का श Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन वि० [सं०] १०२१ का चातुर्मास अज मेष में सम्पन्न करने के अनम्सर आचार्य कल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज का किशनगढ़ में ससंघ पदार्पण हुआ। शरद अवकाश के कारण संयोग से मेरा किशनगढ़ जाना हुआ। उन दिनों श्री शिवसागर स्मृति ग्रन्थ प्रेस में था और पूज्य आर्यिका विशुद्धमति माताजी त्रिलोकसार की हिन्दी टीका लिखने में व्यस्त थीं। पूज्य पिताजी श्री महेन्द्रकुमारजी पाटनी (वर्तमान क्षुल्लक १०१ श्री समता सागरजी महाराज ) के सानिध्य में प्रथमानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के कतिपय ग्रन्थों का स्वाध्याय तो किया था परन्तु करणानुयोग के किसी धन्य का अब तक स्पर्श भी नहीं किया था। पूज्य माताजी के सम्पर्क से करणानुयोग के विषय में भी रुचि जागृत हुई और मैंने इच्छा व्यक्त की कि किसी बड़े अवकाश के समय आकर इसका अध्ययन करूँगा । किंचित् काल के बाद संघ का किशनगढ़ से विहार हो गया और मैंने जिज्ञासावश शास्त्र भण्डार से तिलोय+ पत्ती बोर जम्बूद्वीपपण्णत्ती लेकर स्वाध्याय प्रारम्भ किया। वि सं० २०३० का चातुर्मास निवाई में हुआ। दीपमालिका के अवकाश में संघ के दर्शनों हेतु निवाई जाना हुआ। वहाँ उन दिनों पं० रतनचन्दजी मुख्तार ( सहारनपुर) और पण्डित पनाचाचणी साहित्याचार्य (सागर) पूज्य श्री अजितसागरजी महाराज तथा पू० विशुद्धमति माताजी के साथ त्रिलोकसार की मुद्रित प्रति का दो तीन हस्तलिखित प्रतियों में मिलान कर आवश्यक संशोधन कर रहे थे। पूज्य बड़े महाराज व पू० माताजी की प्रेरणा से मैं भी इस महदनुष्ठान में सम्मिलित हो गया । प्रतियों से मिठान एवं संशोधन का काम पूरा हो चुकने पर समस्या आई शुद्ध प्रेस कापी तैयार करने की। मेरे अचानक सम्मिलित होने से पूर्व यह सुनिश्चित था कि यह गुरुतर उत्तरदायित्व पं० पन्नालालनी सा० सँभालेंगे क्योंकि वे विषय और भाषा दोनों के विशेषज्ञ हैं। पूज्य पण्डितओं ने मुझसे कहा कि "तुम्हें तो समय मिलता ही होगा, क्यों न यह काम तुम कर दो ? मेरो व्यस्तताओं के कारण मुझ से विलम्ब सम्भव है।" पण्डितजी के इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से मैं इतप्रभ हुआ । कार्य की परिमा जटिलता, गम्भीरता एवं विशालता से मैं आतंकित था अतः मैंने निवेदन किया कि "यह कार्य गलत हाथों में नहीं जाना चाहिये, मेथी इस विषय में गति नहीं है अतः आप ही इस वृहत्कार्य को सम्पादित करें; ऐसे ग्रन्थों के शुद्ध प्रकाशन में यदि विलम्ब भी हो तो कोई हर्ज नहीं ।" परन्तु मेरा निवेदन शायद उन्हें नहीं भाषा और उन्होंने पं० रतनचन्दजी से परामर्श कर पूज्य बड़े महाराज व माताजी के समक्ष अपनी बात दोहराई। न जाने क्यों पण्डितजी का निर्णय ही सर्वमान्य रहा। अपनी सीमाओं से मैं परिचित था परन्तु पूज्य गुरुजनों के आदेश की अवज्ञा करने का दुस्साहस मैं न कर सका Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मुझ मूड को यह वृहकार्य करने की हामी भरनी पड़ी । सारी सामग्री अपने साथ जोधपुर ले आया और देवशास्त्रगुरु के स्मरणपूर्वक इस गम्भीर एवं जटिल कार्य में संलग्न हो गया। परेशानी यह थी कि प्रेस कापी करके सीधे प्रेस में भेजनी थी। मैं चाहता था कि मेरे लिखने के बाद पूज्य पण्डितजी उसे देख लेते, परन्तु मेरी यह शत भी उन्हें स्वीकार्य नहीं हुई। मैंने प्रेसकापी प्रेसको भेजी, यह सोचकर कि प्रफ पन्डितजी के पास सागर जायेंगे तो वहाँ भूलों का निवारण हो ही जाएगा परन्तु पूज्य बड़े महाराज ने विलम्ब को देखते हुए सायर प्रफ भेजने की अनुमति प्रेस को नहीं दो, यहाँ भी मुझे निराशा ही मिली । अस्तु, कई छोटी बड़ी कठिनाइयों के बाद भगवरकृपा एवं गुरुजनों के माशीर्वाद से यह विशाल कार्य पूरा कर सका हूँ । मेरे अत्यन्त सीमित ज्ञान के कारण अशुद्धियां रहना सम्भव है । दूरस्थ होने के कारण सारे प्रफ भी स्वयं नहीं देख मका हूँ। सिद्धान्त चक्रवर्ती धी नेप्रिनन्द्राक्षाग की इस पद्धृत मौलिक कृति की संस्कृत टीका उन्हीं के शिष्य माधवचन्द्र ऋषिध देव ने को है । पूज्य आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज के निर्देशनसंरक्षण में पू. विशुद्धमति माताजी ने विशेष श्रमपूर्वक इसको टोका सरल हिन्दी में लिखी है। भाषा सम्बन्धी भूलों का परिमान ५० पन्नालालजी ने किया है, गणित के जटिल विषय की विशेषज्ञ पं. रतनचन्दजी ने हल किया है। चित्ररचना श्री विमलप्रकाशजी जैन ( अजमेर ) तथा घी नेमीचन्दजी जंन कला अध्यापक, निवाई द्वारा हुई है। इस जटिल गणितीय विशालकाय ग्रन्थ का आकर्षक एवं सुरुचिपूर्ण मुद्रण असीम धैर्य के साथ कमल मिन्टस, मदनगंज के सम्बालक बी नेमीचन्दजो बाकलीवाल एवं भी पांचूलालजी बंद ने विशेष मनोयोग से किया है। वस्तुत: अपने वर्तमान रूप में प्रस्तुत यह सारी उपलब्धि इन्हीं महानुभावों की है। मैं तो कोरा नकलनवीस हूँ, मतः भूलें मेरी हैं। मैं इन सब पुण्य आत्माओं का हृदय से अत्यन्त आभारी है। अपनी भूलों के लिए सुधी गुणग्राही विद्वानों से क्षमा चाहता है। अस्तु । ६५६, सरदारपुरा विनीत जोधपुर वेतनप्रकाश पाटनी २५ दिसम्बर, १६७४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन सामग्री त्रिलोकसाथ के प्रस्तुत संस्करण का सम्पादन विशेष अनुसन्धानपूर्वक निम्नलिखित ५ प्रतियों के आधार पर किया गया है । 'प' प्रति का परिचय ८ यह प्रति भाषहारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना से प्राप्त हुई है। इसमें x ४ इंच विस्तारवाले ४२९ पत्र है। प्रतिपत्र में पक्तियाँ और प्रति पंक्ति में ३० से ३५ अक्षर है। लिपि सुवाच्य है । अन्त के दो पो हो कि २६-७-१३२६ ई को लगाए गए हैं। शेष पत्र प्राचीन है। अन्तिम पत्र के जी होकर नष्ट हो जाने से प्रति के लेखनकाल का ज्ञान नहीं हो सका है। बोच बोच में लाल स्याही मे संदृष्टियों के अंक भी दिए गए हैं। इस प्रति में १६५ से १५० तक के पत्र नहीं है। पूना से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'प' है । 'ब' प्रति का परिचय यह प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन व्यावच को है । श्रीमान् पं० हीरालालजी शास्त्री के सौजन्य से प्राप्त हुई है। इसमें २१९ पत्र है। प्रत्येक पत्र में १० पंक्तियाँ हैं किन्तु प्रारम्भिक पृष्ठ में ११ पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति में ४०-४५ तक अक्षय हैं। हिने में चमकदार काली और लाल स्थाही का उपयोग किया गया है। लिपि सुवाच्य है। लिखित पत्र के चारों ओर के चिक्त स्थान में सघन टिप्पण दिए गए हैं। बीच बीच में ब संदृष्टियाँ लाल स्याही से दीगई है। प्रति शुद्ध है। लिपिकाल प्रथम ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया बृहस्पतिवाद विक्रम संवत् १७८८ है । प्रति की दशा अच्छी है फिर भी जो होने के सम्मुख है। भरत में प्रशस्ति इसप्रकार दी है "ति । श्रोमच्छ्रीम कंस मयात् वसुदिग्गज शैलशा संमिते हायने प्रवरे श्रीमच्छालिवाहन भूपाल प्रवर्तावित शाके वृहद्भानुभूत भूपालप्रमिते मासोत्तम श्री ज्येष्ठवरिष्ठमासि सितेतरपक्षे द्वितीया कर्मवादयां ( तियों) पुरन्दरपुरोहितवारे लिखितोऽयं ग्रश्थः । श्रीमदंचल गच्छाषिदराज पूष्यभट्टारकपुरन्दर भट्टारक श्री विद्यासागर सूरीश्वराणामुपदेशतः श्री श्रीमालीज्ञातीय साह श्रष्ठालचन्द्र सुस साह श्री कस्तुरन्द्र साहाय्येन षी बुरहानपुरे लेखक हेमकुशलेन लिखितः । अग्रवालज्ञातीय साह श्री श्यामदासेन लिखापितोऽयं ग्रन्थः ज्ञानवृद्ध आत्मश्रं यसे च श्रीमदुषजनेः पठ्यमानो वाच्यमानः भूयमानाचन्द्रा के तिष्ठत्रय ग्रन्थः । श्रीः श्रीः श्रीः श्रीरस्तु । करकृतमपराधं सन्तुमर्हन्ति सन्तः ।" व्यावर से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'क' है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ক ১১:৫৯ ক স খিলাফল q' : :::::: f. f sk .. it: . '। ge' rise৮:১As-wise৯৯৮ sr a aysacts । ই ! sts: পু, Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १५ ] चार्य श्री सवितिसागर जी महारान.. .: :. .: for प्रति SAXSE SHAA. INE. RRA YEARNISM KRREST AAG ::....:3883STRIPA GARHHOMERMER ..MAHASAILASPERITY 'प्रति Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 'ज' प्रति का परिचय यह प्रति लूणकरण पाण्या शास्त्रभपवार जयपुर की है । श्रीमान पं० मिलापचन्द्रशी के सौजन्य से प्राम हुई है । इसमें १३१४६१ इन्च विस्तारवाले ७१ पत्र हैं। प्रति पत्र में १३-१६ पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में ४०-४५ तक अमर है। गाथाएं मूलपात्र हैं, आज बाजू में टिप्पण दिये हैं तथा भनेक सुन्दर चित्र अंकित हैं। इसका लिपिकाल आषाढ़ बबी ५ सम्वत् १६१५ शनिवार है। मंकुलेश्वर में इसको लिपि हुई है । अक्षर सुवाच्य हैं परन्तु वशा परयन्त जीर्ण है। इसके प्रत्येक पत्र को प्लास्टिक के पारदर्शक लिफाफे में सुरक्षित किया जाना है । इसकी प्रशस्ति इस प्रकार है "संवत १६१० वर्ष आषादबदि ५ शनो अंकुशेश्वरस्थान प्रोपद्मप्रभचैत्यालये श्री श्रीमूल संघ श्री सरस्वती गच्छ श्री बलात्कारगण श्री विद्यानन्दीश्वरं देवं मन्लिभूषणसद्गुरुम् । लक्ष्मीचन्द्रं च नीन्दनन्द्रश्री नववण । प्राचार्य श्री सुमतिकीर्तितफिछध्य आचार्य श्रोरत्न भूषणस्येदं पुस्तकं भी त्रैलोक्यतारमूनसूत्रग्रंथः। शुभं भवतु । जयपुर से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'ज' है। 'स' प्रति का परिचय यह प्रति ताड़पत्र पर कन्नड भाषा में लिखित है। लाला जम्यूप्रसादजी सहारनपुर के मन्दिर की है। इसमें २३३४१३ध्यास के ११७ पत्र हैं, प्रति पत्र में ३ कालम और प्रत्येक कालम में ६-६ पंक्तियां हैं। सहारनपुर से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'स' है। 'म' प्रति का परिचय __ पह प्रति मुद्रित है। श्री माणिक्यचन्द दिगम्बर जैन ग्रंथमाला समिति, बम्बई द्वारा ग्रन्थमाला के १२८ पुष्प के रूपमें ज्येष्ठ, वीर निवारण सं० २४४४ में प्रकाशित हुई है। इस प्रथमावृत्ति का मूल्य एक रुपया बारह आना है। इसका सम्पादन संशोधन पं० मनोहरलालजी शास्त्री द्वारा हुआ है। प्रारम्भ में ग्रन्पमाला के मंत्री श्री नाथूरामजी प्रेमो द्वारा लिखित अन्यकर्ता श्री नेमिचन्द्राचार्य का परिचय दस पृष्ठों में है । प्रत्येक गाथाके साथ संस्कृत छाया और श्री माधवचन्द्र विद्यदेवकूठ उसकी संस्कृत टीका है । मुद्रण स्वच्छ और सुरुचिपूर्ण है, यत्रतत्र प्रफको भूलें अवश्य हैं । त्रिलोकसार मूळ ग्रन्थ ४०५ पृष्ठों में है, इसके बाद २० पृष्ठों में गाथाओं की अकाराविक्रम से सूची दी गई है । इस प्रकार पुस्तकाकार इस प्रतिमें कुल ४३५ (१०+४०५+२.) पृष्ठ हैं। मुद्रित होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'म' है। प्रस्तुत संस्करण का मूल आधार यही मुद्रित प्रति है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यमिताक्षर यह परम सौभाग्य की बात है कि भगवान कुन्दकुन्द की आम्नाय में प्रवर्तन करने वाले इस युग के महान तपस्वी चारित्र चक्रवर्ती स्व० आचार्य श्री १०८ शान्तिसागरजी महाराज की पवित्र परम्परा में मेरा जन्म (दीक्षा) हुआ। आपके प्रथम सुशिष्य स्व० आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज थे जो अनेक गुरा विभूषित एवं निर्मल रत्नत्रय से समन्वित थे। आपके प्रथम सुशिष्य स्व० आचार्य श्री १०८ शिव सागरजी महाराज हुए जो अपने समय में दिगम्बर धर्म रूपी नभ मण्डल के सूर्य थे। भयाताप से पीड़ित जीवों को शान्ति सुधा का पान कराने के लिए पूर्णमासी के चन्द्र थे, धार्मिक ज्योतिर्मय दीप के श उन परमोपकाजी गुरु ने मोहान्धकार में भटकने वाली भवभीरू मेरी आत्मा को रत्नत्रय रूपी ज्योति प्रदान कर मेरी अशुद्ध मति ( बुद्धि ) को विशुद्ध किया । सं० २०२५ में आपके स्वर्गारोहण के बाद आपके पट्टाधा आचार्य १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज हुए जो निर्भय, निःसंग एवं निर्लेपता के साथ आज भारत में हिसामय जन धर्म का डंका बजा रहे हैं । ११ पूज्य स्व० आचार्य १०८ श्री वीरसागरजी महाराज के अस्तिम परम सुशिष्य परम पूज्य १०८ श्री सन्मतिसागरजी महाराज एवं परम पूज्य आचार्य कल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज अनेक क्षेत्रों में मंगल विहार करते हुए स्पर कल्याण कर रहे हैं। परम पूज्य आचार्य कल्प श्री श्रतसागरजी महाराज यथार्थ में अत के हो सागर हैं। चारों अनुयोगों पर आपका विशिष्ट अधिकार होते हुए भी करणानुयोग रूपी सघनवन में बिना प्रयास प्रवेश करने की आपमें अपूर्व क्षमता है, इसी कारण सिद्धान्त भूपण श्री रतनचन्दजो मुक्तार सहारनपुर वाले करीब ८, १० वर्षों से चातुर्मास में निरन्तर आते हैं । मेरा भी आपसे परिचय हुब्बा और सिद्धान्त ग्रंथ षट्खण्डागम में प्रवेश करने की कुञ्जियों को प्रायः आपके सौजन्य से प्राप्त हुई । संभवतः २०१५ की बात है- आपने कहा कि त्रिलोकसार महान ग्रन्थ है आपको एक बार उसका स्वाध्याय करना चाहिए। बात हृदयंगत हो गई और हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय से प्रकाशित त्रिलोकसार की दो प्रतियों साथ भी रख लो किन्तु इस ग्रन्थ में क्या, कितना और कैसा प्रमेय है यह कभी खोलकर नहीं देखा । सं० २०२९ के अजमेर चातुर्मास में मैं घबल ग्रन्थ को सचित्रदृष्टियों तैयार कर रही थी, बन्हें देख भी रतन चन्दजी ने मुझे पुनः त्रिलोकसार को स्मृति दिलाई, मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई और दूसरे ही दिन त्रिलोकसार का स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया। तीसरी गाथा का अर्थ जिस समय बुद्धिगत हुआ उस समय आत्मा में जो अपूर्व माह्लाद एवं उत्साह जाग्रत हुआ वह लेखनी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता इस प्रकार १४० पाथाओं का स्वाध्याय विशेष चिन्तन एवं मनन पूर्वक श्री रतनचन्द्रओ के सानिध्य में हुआ। यह अपूर्व प्रमेय कहीं भविष्य के यतं में न को जाय इस भय से मैंने रंगीन चित्रण सहित उसे नोट कर लिया। एक दिन मनायास बद्द रजिस्टर पूज्य बड़े महाराजजी के हाथ लग गया। आपने बड़े ध्यान से देखा और बोले वह तो छपना चाहिए। श्री रतनचन्हों ने तत्काल उसका समर्थन कर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४ । दिसा "दुम्हें शीघ्रातिशीघ्र इस ग्रंथ का पूरा अनुवाद करना है" गुरु का यह प्रेरणामय आदेश प्रा हा। सुनते ही मुझे ऐसा अनुभव हुआ मानों मकोड़े की पीठ पर गुड़ की परिया ( भेलो ) रखी जा रही है। अपनी प्रसमर्थना के लिए बहुत अनुनय विनय को किन्तु "आज्ञा माने आज्ञा, करना ही पड़ेगा" इस आदेश के आगे मुझे नत मस्तक होना पड़ा और उसो समय समयसार को गाया याव आ गई कि"पगरण चेदा कस्स वि ण प पायरणो त्ति सो होई" अर्थात प्रकरण की चेष्टा होते हुए भी मैं प्राकरशिक नहीं हूँ कारण ग्रह कार्य में नहीं कर रहो बल्कि गुरुका आदेश करा रहा है। आसौज कृ. ९ को श्री रतनचन्द्रजी सहारनपुर चले गये और मैंने श्री जिनेन्द्रदेव एवं गुरु के पवित्र चागों को अपने हृदय कमल में स्थापित कर मौज कृ० १३ गुरुवार को प्रातः गुरु की होरा में जब उच्चका बुध सूर्य एवं मंगल के साथ लग्न में पा; चन्द्र एवं शुभ सिंह राशि पर तथा सगृही गुरु केन्द्रस्थ था तब कार्य का श्री गणेश किया। प्रतिमाह २०० गाथा के हिमान में माघ शु० दूज तक रंगीन चित्रण सहित ८.. गाथाओं को प्रेस कापी नैपार हो गई इसके बाद कुछ ऐमे कारण कलाप उपस्थित हो गये जिससे ३९ माह लेखन कार्य बिलकुल बन्द रहा । महाराज धी के आदेश एवं प्रेरणा में ज्येष्ठ माह में पुनः उस्माह जापत हा और सं० २०३० ज्येष्ठ शु. पूणिमा शुक्रबार मृगशोनिक्षत्र में जबकि कन्या लग्न में उच्च का चन्द्र सूर्य एवं शनि के साथ लग्न में, स्वगृही बुध धन स्थान में, मयल दशम और गुरु धर्म स्थान (त्रिकोण ) में स्थित था तब इस बृहद् कार्य की परिसमाप्त हुई। पड़ने पकाने की बात तो दूर नहीं किन्तु जिस ग्रन्थ को आद्योपान्त कभी एक बार भी नहीं देखा उसके अनुवाद में कितनी कठिनाइयाँ उपस्थित हुई यह लिखने की बात नहीं है । किन्तु मरस्वती माता और गजमों के प्रसाद से वे कठिनाइया तत्क्षण सुलझती गई। जिसप्रकार मृत्यु भो स्वप्रत्यय से उपस्थित नहीं होती अर्थात् काम वह करती है और नाम किसी रोमादिक का होता है कि अमुक रोग से मृत्यु हुई, उसीप्रकार हृदय स्थित गुरु एवं गुरु भक्ति ने ही स्वयं यह सम्पूर्ण कार्य निविघ्न समाप्त किया है मेरा इसमें कुछ भी नहीं है मैं तो रोग के स्थानीय है। अथवा श्री गुणभद्राचार्य के वचनानुसार मात्र के फलों में जो सरसता' आदि गुण हैं वे आम्र' के स्वयं के नहीं हैं बल्कि वृक्ष के द्वारा ही प्रदत्त है, उसी प्रकार यह जो कुछ लिखा जा रहा है वह गुरु के द्वारा ही प्रदत्त है कारण गुप्त मेरे हृश्य में निरन्तर विद्यमान हैं और वे हो इस प्रमेय को संस्कारित कर रहे हैं अतः मुझे इसमें कुछ परिश्रम भी नहीं हो रहा है। मेरी भी मारशः यही बात है। अर्थात् हृदयस्थ गुरु चरणों ने ही सर्व कार्य सम्पत किया है। मैं ये सब बातें केवल शिष्टाचार को खाना पूर्ति के लिये नहीं लिख रही है किन्तु अनुभव की पथार्थता . पुरूणामेव माहारम्यं यद्यपि स्वाद मचः । समण हिमाण परफर्म स्वाजायते ॥मा० पु. ४३-७ निर्यात हरपायाधो दिये गुरखः स्थिताः। तत्र संस्करिष्यन्न वन में परिधम ॥ आपु. ४-५ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] यह है कि जब कोई विषय या मणित कई घण्टों के चिश्तन के बाद भी समझ में नहीं आता तब थकावट से चूर होकर मन कहता 'अब छोड़ो ! प्रातः पूज्य बड़े महाराज जी से पूछेंगे' बस महाराज श्री की इतनी स्मृति आते ही विषय समझ में आ जाता कभी भी नही समाधान हो जाता था। इसप्रकार ग्रन्थ के भावात्मक हार्द को प्रकाश में लाने के लिये जिन्होंने या जिनकी भक्ति ने यह बल प्रदान किया है तथा द्रव्यात्मक अर्थात् सम्पूर्ण प्रेस मंटर का जिन्होंने बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण कर पनेक त्रुटियों का शोधन किया है वे परम पूज्य, करुणा सागर तारण तरण श्रुत के समुद्र आ० क० १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज ही इस ग्रन्थ के सच्चे अनुवादक हैं । परमपूज्य अभीक्ष्णा ज्ञानोपयोग बालब्रह्मचारी अनन्य श्रद्धेय विद्यागुरु १०८ श्री अजितसागरजी महाराज के शिक्षादान का ही यह फल है जो मैं आज गोवा भाषाको हिन्दी भाषा के रूप में परिववित करा सकी। आपने अपना मूल्य समय देकर समय समय पर त्रिलोकसार की संस्कृत सम्बन्धी कठिनाइयों को बड़ी ही सुगमता पूर्वक सुलझाया है, अतः आपके अनन्य उपकारों के प्रति भी मेरा मन अत्यन्त आभारी है। श्री पं० टोडरमलजी कृत हिन्दी त्रिलोकसार, लोक विभाग, तिलोयपपत्ति और जम्बूद्वीप पत्ति से भी बहुत कुछ सहयोग प्राप्त हुआ है अतः इन ग्रन्थों का भी मेरे ऊपर अनन्य उपकार है । गाथा २० १७, १९, २२, २४, ८४,६६, १०२, ११७, ११०, १६५, २३१, ३२७, १५६, १६०, ३६१, ७५६ इत्यादि को बासना सिद्धि अत्यन्त कठिन थी जिसे सिद्धान्त भूषण श्री रतनचन्दजी मुख्तार अत्यन्त परिश्रमपूर्वक सुगम किया है। समय समय पर और भी अनेक स्थलों पर आपका सहयोग प्राप्त रहा । विषय की दृष्टि स आपने प्रेस मंटर को आद्योपान्त देखा है । ८०० गाथाएँ लिखने तक तो कहीं से त्रिलोकसार की अन्य कोई प्रति प्राप्त नहीं हुई किन्तु इसके बाद श्री मिलापचन्दजी गोधा लूणा पांड्या मन्दिर जयपुर के सौजन्य से करीब १६० वर्ष पुरानी एक अत्यन्त जो प्रति प्राप्त हुई जिसमें मूलगाथाएँ और गाथाओं से सम्बन्धित आकृतियों का दिग्दर्शन रमान रेखाओंक द्वारा किया गया है। इस प्रतिसे कई नवीन चित्र लिये गये हैं और जिन्हें मैं पहिले बना चुकी या आवश्यकतानुसार किन्हीं किन्हीं में इस प्रति के आधार पर संशोधन भी किया गया है । त्रिलोकसाब के पृ० १४८ पर सोध स्वर्ग के मानस्तम्भ का जो चित्र छपा हुआ है वह इसी प्रति का है। पुरानी कळा की सुरक्षाको दृष्टि में रखते हुए उनका फोटो लेकर जैसे का सा ही छाप दिया गया है। इसप्रकार इस अत्यन्त जोणं प्रति का भी महान उपकार है । ग्रन्थ समाप्ति के बाद संस्कृत टीका सहित एक प्रति पूना भण्डारकर रिस इन्स्टीट्यूट से, एक प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन व्यावर से और कड़ भाषा को ताड़पत्रीय एक प्रति सहारनपुर मन्दिर से श्री रतनचन्दजी के सौजन्य से प्राप्त हुई। कन्नड़ भाषा की अनभिज्ञता के कारण इस प्रति का पूरा उपयोग नहीं हा कारमा मा ३२७ के चित्रों का मिलान इस प्रति की आकृतियों से करके ही उनकी यथावंता का निलंय किया गया है। अन्य दो प्रतियों का मिलान निवाई चातुर्मास में 5 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पू० १०८ श्री अजितसागरजी महाराज, श्री रखनचन्द्रजी मुख्तार, श्री डॉ. पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर ने बड़े परिधम पूर्वक किया। उसी समय जोधपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी प्राध्यापक श्रीचेतनप्रकाश पाटनो और श्रीनीरज मंन एम.ए. सतना वाले भी वहां उपस्थित थे। आप दोनों का भी सराहनीय सहयोग प्राव हुआ। पुरानी प्रतियोंके एवं मानस्तम्भ आदिक फोटो श्री नीरजजी जनके सौजन्य से ही प्राप्त हुए हैं। सराहनीय अनेक सहयोगोंके साथ साथ संस्कृत की प्रेस कापोश्रोचेतनप्रकाशजी ने की है। हा०प० पन्नालालजो साहित्याचार्य ने हिन्दी प्रेस मंदर का आद्योपान्त निरीक्षण कर स्वर ध्य जन जन्य बृटियों का बयोधम करने में अपना बहुमूल्प समय लगाया है। श्री विमलप्रकाशजी ड्राफ्टमेन, रामगंज अजमेर वालों ने प्रेस कापी के आधार से ब्लॉक बनने ग्य करीब ४०-४५ चित्र निवाई पाकर तैयार किये थे। तपा श्री नेमिचन्द्रजी गंगवाल निवाई वालों ने शेष सभी चित्र बड़े परिश्रम एवं लगन पूर्वक निरपेक्ष भाव से तैयार करने में जो उदारता प्रगट को है वह यथार्थ में सराहनीय है। इसप्रकार जिन जिन भध्यात्माओं ने इस महान ज्ञानोपकरण में अपना हार्दिक सहयोग प्रदान किया है उन्हें परम्परया के बलज्ञान को अप्ति अवश्यमेव होगी ऐसा मेरा विश्वास है । श्रीमन्नेपिन्द्र-सिद्धान्त चक्रवति-विरचित त्रिलोकसार को संस्कृत टीका श्रीम माधवचन्द्रविध देव कृत है। इसी टीका का हिन्दो में रूपान्तर किया गया है जिसे टीकाथ नाम न देकर विशेषाथं संज्ञा दी गई है। वैसे जहाँ तक शक्य हआ है संस्कृत टीका का अक्षरशः अर्थ किया गया है ( विषय स्पष्ट करने की दृषि से कहीं कहीं विशेष भी किखना पड़ा है। किन्तु संस्कृत का पूरा ज्ञान न होने से अक्षरशः अनुवाद में कमी रहने की सम्भावना यो अतः इसे टीका संज्ञा न देकर विशेषार्थ संज्ञा दी गई है। प्रलोक्य के प्रमेयों को आत्मसात कर लेने के कारण यह ग्रन्थ जितना महान है गणित के कारण उतना ही क्लिष्ट है और यहाँ मेरी बुद्धि अत्यन्त मन्दतम है अतः इममें त्रुटियाँ होना सम्भव हो नहीं बल्कि स्वाभाविक है अतः गुरुजनों एवं विद्वज्जनों में यही अनुरोध है कि मेरे प्रमाद या अज्ञान से उत्पन्न हुई त्रुटियों का संशोधन करते हुए ही ग्रन्थ के अन्तस्तत्त्व (सार) को हृदयंगत कर इने अपने पात्म कल्याण का साधन बनावें। मंतिम:-जिस गुरु भक्ति रूपी मौका के अवलम्बन से इस त्रिलोकसार रूपी महार्णव को पाय कर सकी है वही भक्ति रूपी नोका शीघ्रातिशीघ्र भवार्णव को पार करने में सहयोगी हो इसी सद्भावना पूर्वक पूज्य गुरुजनों के पवित्र चरणारविन्दों में त्रियोग शुद्धि पूर्वक त्रिकाल नमोऽस्तु । नमोऽस्तु !! नमोऽस्तु !!! - मार्यिका विशुद्धमति Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] इतिहास में गङ्गनरेश राचमहल का समय विक्रम संवत् १०३१ मे १०४१ तक माना गया है । इनके सचित्र या सेनापति होने से चामुण्डराय का भी यही समय सिद्ध है और इन्हीं के समय नेमिचन्द्र सिद्धासचक्रवर्ती हुए है। इसलिए इनका समय विक्रम की ११ वीं शताब्दो का पूर्वाध है । रचनाएँ श्री नेमिचद्राचार्य रचित निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध है-गोम्मटसार ( जीव काण्ड, कर्मकाण्ड ) त्रिलोकसार छविषता और क्षपासार। धनुवाद ये सभी हो चुके है, अतः इनके परिषद की काश्यता नहीं समझता । उपयुक्त ग्रथों को रचना प्राकृत भाषा में है। संस्कृत का अभ्यासी विद्वान् इन पचनाओं का भाव सरलता से हृदयं गत कर लेता है । प्रस्तुत टीका के प्रेरणा-स्रोत श्री १०५ आर्थिक विशुद्धमतिजो ने त्रिलोकसार की यह टीका आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी महाराज की प्रेरणा से को है मेसा कि उन्होंने अपने 'बाथ मिलाअर' शीर्षक वक्तव्य में स्पष्ट किया है। श्री १०८ श्रतसागरजी महाराज 'यथा नाम तथा गुण: है यर्थात् सचमुच ही श्रुत के सागर हैं। पट्खण्डागम आदि आगम ग्रन्थों का आपने अच्छा प्रनुगम किया है। प्राकृत और संस्कृत भाषा का क्रमबद्ध अध्ययन न होने पर भी आप उसमें प्रतिपादित विषय को बड़ी सूक्ष्मदृष्टि से ग्रहण कर लेते हैं। त्रिलोकसार का पति एक गहन विषय माना जाता है परन्तु आपने अपनी प्रतिभा से उसे अच्छी तरह बैठाया है । वात्सल्य गुण की मानों आप मूर्ति हो है । संघस्य समस्त साधुन और माताओं की दिनचर्या वा प्रवृत्ति पर कठोर नियन्त्रण रखते हुए भी वासल्य रसने उन्हें प्रभावित करते रहते हैं। आप अभीक्ष्णज्ञानोपयोगो हैं । आपके सम्पर्क में रहने वाला व्यक्ति यदि अध्यवसायी हो तो शीघ्र ही बागम का ज्ञाता बन जाता है । टीकाकत्री श्री १०५ विशुद्धमविभी त्रिलोकसार ग्रंथ की हिन्दी टीका लिखकर जब इन्होंने देखने के लिए मेरे पास भेजों तब मैं आश्चर्य में पड़ गया । जब ये सागर के महिलाश्रम में पढ़ती थीं और में इन्हें पढ़ाता था तबसे इनके क्षयोपशम में अवनि अन्तरीक्ष जैसा अन्तर दिया। मुझे लगा कि इसका क्षयोपशम तपश्चरण के प्रभाव से ही इतनी वृद्धि को प्राप्त हुआ है । वास्तविक बात है भी यहीं । द्वादशाङ्ग के विस्तार का अध्ययन गुरुमुख से नहीं हो सकता, वह तो तपश्चरण के प्रभाव मे क्षयोपशम में एक साथ आश्चर्यजनक वृद्धि होने से ही सम्भव हो सकता है। मुझे स्वयं भी त्रिकसार का गणित नहीं माता परंतु इनके द्वारा निरूपित पति की विविध चीतियों बेचकर बहुत हुआ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २५ ) श्री दि० जैन महिलाश्रम सागर को एक छात्रा सुमित्राबाई आज विशुद्धमति माता के रूप में जन जन की पूज्य हई और उसने त्रिलोकसाद जैसे गहन ग्रन्थ की विस्तृत हिन्दी टीका की, यह देख मुझे अपार हर्ष हो रहा है माशा करता कामा पर भी अनेक पग्यों को टीकाएं होंगी। श्री १०८ अजितसागरजी महाराज भी जो उपयुक्त माताजी के विधागुरु हैं और जिन्होंने संस्कृत प्राकृत भाषा के ग्रन्थों में इनका प्रवेश कराया है. त्रिलोकसार को इस टोका को देखकर अपने परिणम को सफल मान रहे हैं। सम्पादन ___ सिद्धान्तभूषण श्री रतनचन्द्र जी मुस्पार, सहारनपुर और बी चेतनप्रकासजी पाटनी, किशनगढ़ ने इस अन्य के सम्पादन में भारी प्रम किया है। श्री रतनचन्द्रजी मुख्त्यार पूर्वभव के संस्कारी जीव हैं। इस भव का अध्ययन नगण्य होने पर भी इन्होंने अपने अध्यवसाय से जिनागम में अच्छा प्रवेश किया है और प्रवेश ही नहीं, ग्रन्थ तथा टीकागत अशुद्धियों को पकड़ने की इनकी अद्भुत क्षमता है। इनका यह संस्कार पूर्व भवागत है. ऐसा मेरा विश्वास है । त्रिलोकसार के दुरूह स्थलों को इन्होंने सुगम बनाया है और माधवपन्द्र विद्यदेवकृत संस्कृत टीका सहित मुद्रित प्रति में जो पाठ छूटे हुए ये अथवा परिवर्तित हो गए थे उन्हें आपने अपनी प्रति पर पहले से ही ठीक कर रखा था। पूना और च्यावर से प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों से जब मैंने इस मुद्रित टीका का मिलान किया तब श्री मुख्त्यारजी के द्वारा . संशोधित पाठों का मूल्याङ्कन हुआ। पाठ भेद लेने के बाद मुद्रित प्रति में इतना अधिक काट कूट हो गया कि उसे सोधा प्रेस में नहीं दिया जा सका था। मुझे अवकाश नहीं था और श्री माताजी तथा मुख्त्यारजी को संस्कृत का विशिष्ट अभ्यास न होने से संस्कृत की प्रेस कापी करना मुकर नहीं था। इसलिए असमंजस हो रही थी। इसी बोच में किशनगढ़ निवासी श्री चेतन प्रकाश जी पाटनी, प्राध्यापक, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर का पाठभेद लेते समय निवाई में सागमन हुआ तथा उन्होंने पाठभेद लेने में पर्याप्त सहयोग दिया। उनकी संस्कृत भाषा और गणित विषय सम्बन्धी क्षमता देखकर मुझे लगा कि यह काम इनके द्वारा अनायास हो सकता है । प्रसन्नता की बात थी कि उन्होंने अपना सहयोग देना स्वीकृत कर लिया। श्री चेतनप्रकाशजी उन पण्डित महेन्द्रकुमारजी पाटनी काव्यतीर्थ किशनगढ़ के सुपुत्र है। जो अब श्री १०८ श्रतसागरजी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ले चुके हैं। पं० महेन्द्र कुमारजी प्रकृति के शान्त और स्वाध्याय के रसिक हैं। एक बार भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत्परिषद् के द्वारा सायर में आयोजित शिक्षण शिविर के समय लगभग एक माह तक हमारे सम्पर्क में रहे थे। श्री चेतनप्रकाशजी को स्वाध्याय को रसिकता अपने पिताजी से विरासत में मिली हुई है । मैं पाठभेदों से युक्त अपनी मुद्रित प्रति इन्हें सौंफ कर निवाई से वापिस चला आया। इन्होंने प्रेस कापी कर मुद्रण का काम शुरू कराया। इनके एक वर्ष के कठिन परिश्रम के बाद ही त्रिलोफसार का यह संस्करण सामने आ सका है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] इसप्रकार श्री रतन चन्द्रजी मुख्त्यार और श्री चेतनप्रकाशपी पाटनी ने अन्य के सम्पादन में जो धम किया है वह श्लाघनीय है। प्रकाशन इस ग्रन्थ की १००० प्रतियों के प्रकाशन का व्यय भार श्री हीरालालजी पाटनी, निवाई को धर्मपत्नी श्रीमती रतनदेवी ने उठाया है। श्री पाटनीनी और उनकी धर्मपत्नी आदर्श दम्पति हैं।बी पाटनीषी बहुत समय से सप्तम प्रतिमा का और उनकी धर्मपत्नी द्वितीय प्रतिमा का पालन कर रही है। मुनियों के प्रति आपकी अगाध भक्ति है । एक बार माप आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज को समस्त संघ के साथ गिरनारजी ले गए और उसकी सारी व्यवस्था मापने स्वयं को । सानिया (जयपुर) तत्वचर्चा की व्यवस्था का पूर्ण सभी आपने दो उर-य ही नहीं उनाया, आपने जिस तत्परता से मागत विद्वानों की सेवा की थी, उसे स्मरण कर हृदय में पार हर्ष होता है । निवाई आने वाले महानुभाव आपके आतिथ्य से प्रभावित होते हैं । लथा श्रीमती सरदारी बाई घमं पनि स्व. श्री सुरजमल जी बहमास्या कामदार जोबनेर (जयपुर ) ने १२५ प्रतियों के प्रकाशन का व्यय भार वहन कर जिनवाणी के प्रचार में अपना स्तुत्य सहयोग प्रदान किया है । हम उनके अत्यन्त मामारी है। मुद्रण त्रिलोकसार से ही गणित के विभिन्न संकेतों से युक्त है उस पर माताजी ने विविध चित्रों, चार्टी तथा संदृष्टियों से इसे अलंकृत किया है अतः इसका मुद्रण करना सरल काम नहीं था। श्री नेमीचन्दजी पाचूलालजी जैन ने अपने कमल प्रिन्टर्स में इसका मुद्रा करना स्वीकृत किया, इसके लिए उपयुक्त टाइप की नयी व्यवस्था की और बड़ी समता व पीरज के साथ इसका मुद्रण किया, यह प्रसन्नता की बात है । कम्पोज किए हुए मंटर को बदलने की बात सुनते ही जहाँ अन्य प्रेसवालों का पास गर्म हो जाता है वहाँ बम्होंने बड़ी सरलता दिखलाई और मौम्यभाव से ग्रन्थ का मृद्रण किया । अतः दोनों ही महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं। आकृति निर्माण श्री माताजी के अभिप्राय को हृदयपत कर श्री विमलप्रकाशजी तथा श्री नेमीचन्दजी गंगवाल ने त्रिलोकसार की अनेक रेखामियां बनाई हैं, अतः वे धन्यवाद के पात्र हैं। इसप्रकार जिन जिन के सक्रिय सहयोग में इस ग्रन्थ का यह संस्करण निर्मित हुआ है, उन सबके प्रति नम्र आमार है। श्री पं. टोडरमलमी द्वारा त हिन्दी टाकावाला संस्करण वर्षों से अप्राप्य या इसलिए स्वाध्यायशीर जनता में इस ग्रंथ को बड़ी मांग थी। पूज्य माताजी ने इस परिमार्जित टीका की रचना कर तथा श्री पाटनीजी की धर्मपत्नी ने इसका प्रकाशन कर इस ग्रन्थ को सुलम किया है इसके लिए समस्त स्वाध्यायशील जनता इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करती है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] मपनी मात की अचाकर सागरनी नहायक पर बड़ी अनुकम्पा है। इनके माध्यम से संघ में यदि किसी अन्य का प्रकाशन होता है तो वे बड़े स्नेह के साथ उस ग्रन्थ की संभाल करने का भावेश मुझे देते हैं और उनकी माज्ञा का पालन करता हुआ मैं अपने आपको धन्य मानता हूँ। त्रिलोकसार की प्रस्तावना के रूप में कुछ लिख देने का आदेश मुझे प्रात हा अव: उपयुक्त पंक्तियाँ लिखकर अपने को धन्य समझता है। आजकल प्रस्तावनाएँ लम्बी लिखने की परम्परा चल पड़ी है परन्तु पूज्य महाराज का मादेश प्राप्त हुया कि प्रस्तावना अधिक लम्बी न हो इसलिए पथासम्भव संक्षेप किया गया है। जिन विषयों को अधिक स्पष्ट करने की भावना भी, उनको संकेत मान कर छोड़ दिया है। अन्त में, त्रुटियों के लिए समाप्रार्थी है। सागर दीपावली २५.१ विनीत पमालाल साहित्याचार्य Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार के गपित की विशेषताएँ तीन लोक के सम्पूर्ण प्रमेयों को अपने गर्भ में धारण करने वाले इस त्रिलोकसार पंध में तीन लोक की रचना से सम्बन्धित गणित का विवेचन विशद रूप से किया गया है, जो अन्यत्र नहीं पाया जाता। सर्व प्रथम आचार्य ने 'माणं दुविहं लोगिंग छोगुत्तरीत्य'........ गापा १ के दाग कौकिक और बलोकिक के भेद से मान दो प्रकार का बताया है। इसमें मान, उन्मान, प्रवमान, गणिमान, प्रतिमान और तत्पतिमान के भेद से लौकिक मान ६ प्रकार का और द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के भेव से अलौकिकमान ४ प्रकार का कहा है। सामान्यता दन्यमान से द्रव्य ( पदार्थ, क्षेत्रमान से प्रदेश ( सर्वाका तक ), कालमान से समय और भावमान से अविभागप्रतिच्छेदों का ग्रहण किया जाता है। जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के क्षेत्र से प्रगान की कार : पम् प्रगान में एक परमाणु और उत्कृष्ट में सम्पूर्ण द्रव्य समूह का ग्रहण होता है। मध्यम द्रव्यमान दो प्रकार का है(१) संख्या प्रमाण मोर (२) उपमा प्रमाण (गा, ११.१२ ) संख्यात, असंख्यात और मनन्त के भेव से संख्या प्रमाण तीन प्रकार का है। इसमें संख्यात एक ही प्रकार का है, किन्तु परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यात तथा परीतानन्त, युक्तानन्त और अतम्तानात के भेद से असंख्यात और अनन्त तीन-तीन प्रकार के होते हैं। इस प्रकार संख्या प्रमाण के कुल (१+३+३= ७ भेद होते हैं। ये सातों ही स्थान जघन्य, मध्यम भोर उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन तीन प्रकार के होते हैं. प्रतः संख्या प्रमाण के कुल ( ७४३)२१ भेद हो जाते हैं (पा. १३, १४)। एक में एक का भाग देने से या गुणा करने से कुछ भी हानि वृद्धि नहीं होती अतः संख्या का प्रारम्भ दो के अंक से होता है और इसीलिये जघन्य संश्यात का प्रमाण को (२) है। ३, ४, ५ आदि में लेकर एक कम उत्कृष्ट संख्यात पर्वतके सम्पूर्ण भेदों को मध्यम संस्मात और एक कम जघन्यपरीतासंस्थात को उत्कृष्ट संख्यात कहते हैं। उत्कृष्ट संख्यात ( एक कम जघन्य परीतासंख्यात ) और अघन्यपरीठासंख्यात के प्रमाण का ज्ञान कराने के लिए अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका इन चार कुण्डों की कल्पना की गई है। ये चारों कुण्ड गोल होते हैं। इनका व्यास एक लाख योजन और उरष एक हजार योजन प्रमाण है । प्रथम अनवस्था कुण्ड में गोल सरसों का प्रमाण प्राप्त करने के लिए उपास व परिधि का अनुपात स्थूल रूप से तिगुणा और सूक्ष्म रूप से दश का वर्गमूल बतलाया है। वर्तमान गणित में इस अनुरात को 'पाइ' कहते हैं जिसका संकेत चिह्न ( ) है। परिधि को चौथाई व्यास से गुणित करने पर वृत्ताकार क्षेत्र का क्षेत्रफल प्रान हो जाता है । अर्थात् ग्यास ( २ अर्धव्यास 1x1 का वर्गमूल (पाइ)x Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५९ ] ---- पाइ - २ । इस क्षेत्र को बेध से तुका करने पर घनफळ प्राप्त हो जाता है ( गा० १७ ) । गोल गेंद का घनफल, समधनाकार के घनफल का होता है । गा० १६ ) । इसी विषय को ( पृ० २६ से ) वासना द्वारा सिद्ध किया गया है। प्रथम अनवस्था कुण्ड की शिखा का घनफल परिधि के ग्यारहवें भाग को परिषि के छठे भाग के वर्ग से गुणित करने पर प्राप्त होता है ( गा० २२ ) । इसे भी बासना द्वारा सिद्ध किया गया है। इस जम्बूद्वीप सदृश प्रथम अनवस्था कुण्ड को गोल सरसों से शिखाक भरने पर सरसों का प्रमाण – १९६७११२६३८४४१३१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६२६२ अर्थात् छियालीस अंक प्रमाण प्राप्त होता है। इसके बाद जघन्यपरीता संख्यात के प्रमाण की प्राप्ति तक का सम्पूर्ण विषय पृ० ३४ मे ४० तक दृष्टव्य है, यहाँ केवल दृष्टांत दर्शाया जा रहा है। मानलो- प्रथम अनवस्था कुछ ४६ पंक प्रमाण संख्या के स्थानीय ) १० सरसों से भरा था, अतः बढ़ते हुए व्यास के साथ १० अनवस्था कुण्डों के बन जाने पर एक बार शलाका कुण्ड भरेगा तब एक सरसों का दाना प्रतिशलाका कुण्ड में डाला जाएगा। इसी प्रकार वृद्धिगत व्यास के साथ १० का वर्ग अर्थात् १०० अनवस्था कुण्डों के बन जाने पर १० बार शलाका कुण्ड भरेगा तब एक बार प्रतिशलाका कुण्ड भरेगा तब महाशलाका कुण्ड में डाला जाएगा। इसी प्रकार बढ़ते हुए व्यास के साथ १० के धन अर्थात् १००० अनवस्था कुम्हों के बन जाने पर १० के वर्ग अर्थात् १०० बार शलाका प्रतिशलाका कुण्ड भरेगा और तब एक बार नहाया कुम्हरे कुण्ड में शिक्षा सहित गोल सरसों की जितनी संख्या प्राप्त होती है वही संख्या जघन्यपरीता संख्यात की है, और उसमें से एक अंक कम कर देने पर उत्कृष्ट संख्या का प्रमाण प्राप्त होता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी आगे के मूल भेद के जघन्य भेदों में से एक घटा देने पर पिछले मूल भेद का उत्कृष्ट भेद प्राप्त हो जाता है, तथा जघन्थ और उत्कृष्ट भेदों के बीच के सभी भेद मध्यम कहलाते हैं, अतः जघन्य का स्वरूप ही लिखा जाता है । दाना कुण्ड भरेगा तब १० वाद प्रकार इस अन्तिम अनवस्था ए अध्यास अर्थात् २ अर्धव्यास २ व्यास पाइ= अर्धव्यास का वर्ग yo जघन्ययुक्तासंख्यातः - जघन्यपरीता संख्यात का विरलन कर प्रत्येक एक एक अंक के ऊपर जघन्यपरीतासंरूपात हो देय देकर परस्पर गुणा करने से जो लध उत्पन्न होता है वही जधन्ययुक्तःसंख्यात की संख्या आवली सहा है। अर्थात् जधन्ययुक्तासंख्यात की जितनी संख्या है उतने ही समयों की एक मावली होती है । जघम्ययुक्तासंख्यात अर्थात् आवली का वर्ग करने पर जघन्य असंख्याता संख्यात का प्रमाण प्राप्त होता है । जघन्य असंख्याता संख्यात राशि के शलाकात्रय निष्ठापन ( पृ० ४३ ) की समाप्ति होने पर जो मध्यम असंख्यातासल्यात राशि उत्पन्न हो उस महाराशि में धर्मद्रव्य के असंख्यात प्रदेश अधर्मद्रव्य के असंख्यात प्रदेश, एक जोव के असंख्यात प्रदेश, चोक के पाट प्रदेश लोक से असंख्यात गुणा अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक जीवों का प्रमाण और असं लोक प्रमाण प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों का प्रमाण मिलाने से जो राशि उत्पन्न Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३० । हो उसका पुनः शलाकात्रय निष्ठापन करना चाहिये। उसके बाद उत्पन्न होने वाली महाराशि में बीस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण कल्पकाल के समय, इनमे भी असरूपात कोर गुगणे जितिनंघमाग गयान, इससे भी असंख्यातगुणे अनुभागबंधाध्यवसाय स्थान और इनसे भी प्रसंख्यातगुणे योग के ( मन, वचन काय के ) उत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेद स्वरूप ये चार राशियो मिलाकर पूर्वोक्त प्रकार पुनः शलाकात्रय निष्ठापन करने से जो महाराशि उत्पन्न होती है वही जघन्यपरीतानन्त का प्रमाण है। इस जघन्यपरीतानन्त का विरलन कर प्रत्येक अंक पर इसी को देय देकर परस्पर गुणा करने से जघन्ययुक्तानन्त की प्राप्ति होती है। इस जघन्ययुक्तानन्स की जितनी संख्या है उतनी संख्या प्रमाण हो अभध्यराशि है। जघन्य युक्तानन्त का वर्ग करने से जघन्य अनन्तानन्त प्राप्त होता है । इस महाराशि का पूर्वोक्त प्रकार शलाकात्रय निष्ठापन करने से जो मध्यम अनम्तानन्त उत्पन्न हो उसमें सम्पूर्ण जीव राशि के अनन्त भाग प्रमाण सिद्धराशि, इससे अनन्तगुणी निगोद राशि, सम्पूर्ण वनस्पतिकाय शशि, जीव राशि से अनन्त गुणी पुद्गल राशि, उससे भी अनन्तगुणे तीनों काल के समय और काल राशि से अनन्त. गुणी मलोकाकामा को प्रदेश राशि अर्थात् अनन्त स्वरूप इन छः राशियों का क्षेपण करने से जो योगक - ननदो उसका पन: शलाकात्रय नियापन करने से उत्पन्न होने वाली महाराशि में धमंद्रध्य और ५. मद्रव्य के अगुरुल घुगुण के अविभागीप्रतिच्छेद मिलानेसे उत्पन्न होने वाली राशि का पुन। शलाकात्रय निष्ठापन करने में जो महाराशि रूप लप प्राप्त होपा वह भी केवलज्ञान के बराबर नहीं होगा, अत: केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में से उक्त महाराशि घटा देने पर जो लम्म उपलब्ध हो उसे वैसे का वैसा उसी में मिला देने पर केवलज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदों के प्रमाण स्वरूप उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त होता है। जितने विषयों को ध तज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है उसे संख्या कहते हैं उससे बाहर जितने अधिक विषयों को अवधिज्ञान युगपत प्रत्यक्ष मानता है उसे असंख्यात कहते हैं और अबाधिज्ञान के विषय से बाहर जिलने विषयों को केवलज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है उसे अनन्त कहते है। गा० ५२ ) मात्र केवलज्ञान का विषय होने से अपुद्गल परिवर्तन को भी अनन्त कहा गया है किन्तु मह सक्षय अनन्त होने से परमातः अनन्त नहीं है । आय के बिना ध्यय होते रहने पर भी जिस राशि का अन्त महीं होता उसे अक्षय अनन्त कहते हैं । त्रिलोकसार ग्रन्थ में (पा. ५३ से १० तक ) चौदह धाराओं का वर्णन है जो अन्यत्र नहीं पाया जाता। नोट:-संस्कृत टीकाकार ने चौदह धाराओं को स्पष्ट करने के लिए अंकसंदृष्टि में उत्कृष्ट अनन्तानन्त स्वरूप केवलज्ञान का मान कहीं १६ पौर कहीं ६५५३६ माना है किन्तु हिन्दी टीका में उसे सर्वत्र ६५५३६ मानकर ही समझापा गया है। १. एक ग्रंक को आदि लेकर केवलज्ञान पर्यन्त के सर्व अंकों को सबंधारा कहते हैं। (पा-५४) १. दो के अछु से प्रारम्भ कर दो दो को वृद्धि को प्राप्त होती हुई केवलज्ञान पर्यन्त समधारा होती है Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३१ । { गा० ५५ ) । ३. एक पंक से प्राप्त होकर दो दो की वृद्धि को प्राप्त होतो हुई केवलज्ञान के प्रमाण से एक अंक हीन तक विषम धारा होती है ( गा. ५६ ) । ४. जो संख्याए' वर्ग से उत्पन्न होती हैं उन्हें कृतिघास कहते हैं (गा०२८)। 1. जो मंग्याएं स्वयं किमी के वर्ग से उत्पन्न नहीं होती वे संख्याएँ प्रकृतिधारा की है ( मा० ५.)। ६. किसी भी संख्या को तीन बार परस्पर गुणा करने से जो संख्या आती है, वह धनधाम की संख्या है ( गा०६०)। ७. सर्वधारा में से धनधारा के स्थानों को कम कर देने पर केवल ज्ञान पर्यन्त समस्त स्थान अघनधारा स्वरूप है ( गा.६१)।८. जो संख्याएँ वर्ग को उत्पन्न करने में समर्म है उन्हें व गंमातृक कहते हैं (गा. ६२ ) । . जिन संख्याओं का वर्ग करने पर वर्ग संख्या का प्रमाण केवलज्ञान से आगे निकल जाता है ये सब संख्याएं अवर्गमातृक हैं ( गा० ६३ ) । १०. जो संख्याएँ धन उत्पन्न करने में समर्थ हैं उन्हें धनमातृक कहते हैं। इसके स्थान एक को आदि लेकर केवलज्ञान के बासनघनमूल पर्यन्त है ( गा०६४ । । ११. जिन संख्याओं के धनफल का प्रमाण केवलज्ञान के प्रमाण से आगे निकल जाता है. ये सब संस्थाएं अधनमातृक है ( मा० ६५) । १२. जिस धारा में दो के वर्ग से प्रारम्भ कर पूर्व पूर्व के स्थानों का वर्ग करते हुए उत्तर उत्तर स्यान प्राप्त होते हैं उसे विरूपवर्गधारा कहते हैं । इस धारा का वर्णन (६६-७१) सात गाथाओं में किया गया है। "अवरा बाइयलद्धी" गरथा ७१ में नेमिचन्द्राचार्य ने जघन्यक्षायिक लन्धि के अविभाग प्रतिच्छेदों का और "वरख इपलहिणाम" | १२ द्वारा शिकधि के उत्कृष्ठ अविभागप्रतिच्छेदों का उल्लेख किया है, जिसे टोकाकार ने स्पष्ट किया है कि ( ततोऽनन्तस्थानानि गत्वा तियंगस्य संयतसम्यग्दृष्टो जघन्यक्षायिक सम्यक्त्वरूपलधेर विभागप्रतिच्छेदाः) पर्यायनामा बघन्य लम्ध्यार तज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों के प्रमाण से अनन्त स्थान आगे जाकर तियंचगति में असंयतसम्यग्दृष्टि जीव के जघन्य क्षायिक सम्यक्त्व लन्धि के अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण होता है । तथा केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल का एक वार वर्ग फरने पर उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि के अविभाग प्रतिच्छेदों की सत्पत्ति होती है। इस विरूपवर्गधारा के मध्यम स्थानों में १० बाशियां प्राप्त होती हैं जो पृ.६५, ६६ पर दृष्य हैं। १३. द्विरूपधन धारा में उपलब्ध वर्गरूप राशियों की जो घनरूप राशि है उनको धारा को द्विरूपचनधारा कहते हैं। इसका वर्णन छह गाथाओं ( ७५-६२) में किया पया है। १४. धन राशि का पुनः घन करने का नाम घनाघन है। विरूप वर्गधार में जो जो राशि वर्ग रूप है उस प्रत्येक राशि का घनाधन इस धारा में प्राप्त होता है। इसका विवेचन आठ गायामों ( ८३.-.) द्वारा किया गया है। गा०५४ से २० तक किये जाने वाली धाराओं के विवेचन के मध्य वर्ममूल, घनमूल, (पा० ६८) जोवराशि, पुदगलराशि, कामशशि, ज्याकाश, प्रतराकाश (1०६६) मंद्रव्य. अघमंद्रव्य, मगुरुल घुगुणा अविभागप्रतिच्छेव, पर्यायज्ञान ( गा.७०) जघन्यक्षायिक ब्धि, अष्ट म्मूल आदि (गा०.५) तथा बर्गशलाका और अर्धच्छेद ( गा० ७६ ) का भी कथन किया गया है । संख्या प्रमाण का विवेचन समाप्त हुआ। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३२ ] गा० १२ में फ्ल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रत संगुल, घनांगुल, जगच्छु णी, जगत्प्रतर और लोक इन पाठ उपमा प्रमाणों के नाम दर्शाये गए हैं। व्यवहार पल्प, उद्धार पल्य मौर अापल्य के भेद से पल्य तोन प्रकार का है ( गा.६३) । एक योजन लम्बे, एक प्रोजन चौड़े और एक ही योजन गहरे कुण्ड को विशिष्ट मेढ़े ( गा.१४) के अविभागी रोम खण्डों से भरने पर, न रोम शरडों के द्वारा व्यवहार पल्य प्राप्त होता है। तथा प्रत्येक सौ वर्ष बाद एक एक रोम निकालने पर जितने काल में सम्पूर्ण रोम समाप्त हो उतने काल के समयों की संख्या व्यवहार पल्य के समयों की संख्या है। इस व्यवहार पत्य से संख्या का माप किया जाता है ( गा.९३-४)। __ यतदार पन्य शसंन्यास का के मगों को बाशि = उद्धार पल्य (गा० १०० ) । इस उद्धार पल्य से द्वीप समुद्रों का माप किया जाता है। ___उद्धार पल्य राशि४ असंख्यात वर्षों के समयों की राशि = अदा पल्य ( गा० १०१)। इससे को स्थिति का माप किया जाता है। व्यवहार पख्य x १० कोड़ाकोड़ी--एक व्यवहार सागर । उद्धार पल्य x १० कोड़ाफोड़ी- एक उद्धार सागर । अद्धा पल्य x १. कोडाकोढ़ी = एक अद्धा सागर । " मा० १०३ और १०४ में लवण समुद्र को सागरोपम संज्ञा की अन्वर्थता दिखलाने के लिए कुण्डों आदि का प्रमाण निकाला गया है। गुण्य मान और गुणकार के अघच्छेदों को जोड़ने से लधराशि के अर्धच्छेद प्राप्त होते हैं तथा माज्य के अधंच्छेदों में से भाजक के अर्घच्छेद घटाने पर लब्घराशि के अर्धच्छेद होते हैं ( मा० १०५१०६ )। विरलन शशि में देय राशि के अच्छेदों का गुणा करने से उत्पन्न (लब्ध ) राशि के अर्धच्छेद प्राप्त हो जाते हैं ( गा० १०७) विरलन राशि के अच्छेयों को देय राशि के अर्घच्छेदों के अर्धच्छेदों ( वगंशलाकाओं) में मिलाने से विरलन एवं देय के द्वारा उत्पन्न हुई राशि की धर्मशलाकाओं का प्रमाण होता है (गा० १०८" मूलराशि के बर्धछेनों से अधिक अवच्छेदों द्वारा गुणकार राशि उत्पन्न होती है (.११.)। मुल राशि के अच्छेवों से हीन अधच्छेदों द्वारा पागहार राशि उत्पन्न होती है । गा० १११।। सूच्यंगुल:-इसी शास्त्र के २३ पृ० पर परमाणु से लेकर अंगुल तक का जो माप दिया गया है उसो भंगुन्ठ को सूच्यंगुल या उत्सेधांगुल या व्यवहारांगुल भी कहते हैं । इस सूच्यंगुल में देव, मनुष्य, तिमंच एवं नारकियों के शरीर की ऊंचाई का प्रमाण, देवों के निवास स्थान और नगरादि का प्रमाण मापा जाता है (पा )। अथवा:--पल्य के जितने अर्धच्छेद होते हैं उतनी वार पल्य का परस्पर में गुणा करने से जो प्रमाण प्राप्त होता है उसे सूच्यंशुल कहते हैं । जो एक अंगुल ल क्षेत्र में जितने प्रदेश है उतने प्रमाण है । { गा० ११२) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३३ । प्रत गुल:- सूपंगुल के वर्ग ( सूच्यं गुल x सूच्यंगुल ) को प्रतरोगुल कहते हैं। जो एक अंगुल लम्बे और अंगुरु पौड़े क्षेत्र के प्रदेशों के प्रमाण है। ( गा.१२) पांगुलः-सूख्यंगुल के घन ( सूच्या सूच्य०४ सूच्य० ) को घनागुल कहते हैं ( गा० ११३) जो एक अंगुल लम्बे एक अंगुल चौड़े और एक भंगुल ऊँचे क्षेत्र के प्रदेशों के बराबर है। जगतारणी:-पाय के अर्घच्छेदों में असंख्यात का भाग देने पर जो एक माप प्राप्त हो उतनी बार घनांगुलों का परस्पर में गुरणा करने पर जगच्छणी होतो है । गा० ११२)। मागप्रतर:- जगच्छेणी के वर्ग को जगस्पतर कहते हैं। लोक:--जगच्छणी के घन को लोक कहते हैं। उपमा प्रमाण का प्रकरण समाप्त हुआ। चय:-मुख भोर भूमि में जिसका प्रमाण अधिक हो उसमें से हीन प्रमाण को घटा कर ऊंचाई अपवा एक कम गच्छ का भाग देमे से चय पास होता है ( गा- ११४.२००,७४६ ।। क्षेत्रफल:-मुम और भूमि के योग को आधा कर पद से गुणा करने पर क्षेत्रफल की प्राप्ति होती है ( गा० ११४ ।। (१) सामान्य, (२) उर्दायत, (३) तियंगायत, (४) यवमुरज, (५) यवमध्य, (६) मन्दरमेरु, ( . ) दृष्य (रेरा) और (८) मिरिकटक इन आठ प्रकारों से अधोलोक का क्षेत्रफल निकाला गया है । ( 1 ) सामान्य, (२) प्रत्येक, (३) अर्धस्तम्भ, (४) स्तम्भ और ( ५ ) पिनष्ट प्रम पाच प्रकारा अपलोग काफल प्रत किया गया है ( गा० ११५--१२." गाथा १६३ बोर १६४ में चय के द्वारा मुख भूमि और पवधन प्राप्त करने का विधान बतलाय। पपा है। गा• १६५ में एक नरक के संकलित बिलों की संख्या प्राप्त करने के विधान का कयन है। पद का जितना प्रमाण हो उतनी बार गुणकार का परस्पर में गुणा कर प्राप्त गुणनफल में से एक घटाकर शेष को एक कम गुणकार से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसका मुद में गुणा करने से उत्तरोत्तर सदृश गुणकार के कम से पदों का गुण संकलित धन प्राप्त होता है। ( गा० २३१) अंग्रेजी में इसे s a{" इस प्रकार दर्शाया गया है। इष्ट गच्छ के बाण में से एक एक कम करके जो प्राप्त हो उतनी बार दो वो को परसह गुणित करके एक लाख से गुरिणत करने पर वलय ग्यास प्राप्त होता है (पा० ३.१)। इष्ट यच्छ के प्रमाण को एक अधिक करने से जो प्राप्त हो उतनी बार दो दो को परस्पर गुणित करके, उसमें से तीन घटा कर एक लाख से गुणा करने पर सूची व्यास प्राप्त होता है ( मा० ३०१)। गा०३१० में लवण समुद्र आदि समुद्रों और दीपों के अभ्यन्तर, मध्य भोर माह सूधियों के व्यास को प्राप्त करने का करणसूत्र है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३४ ] गा. ३१ मे ३१५तमा में बादर व सूक्ष्म परिषि भोर क्षेत्रफल प्राप्त करने का विधान है। विवक्षित द्वीप तथा समुद्र में जम्बूद्वीप सदृश मम प्राप्त करने के लिए करणसूत्र कहा गया है (या. ३१६-१८) गा. ३२७ में वासना रूप से शंख का मुरज क्षेत्रफल निकालने का विधान बतलाया गया है। का अत्यन्त जटिल है फिर भी अनेक बाकृतियों द्वारा उसे समझाने का प्रयत्न किया गया।। गाथा ३३२ में चित्रा पृथ्वी से सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों की ऊंचाई योजनों में दर्शाई गई है, किन्तु इन योजनों को दूरी आज कल के प्रति माप में क्या होगी? या विचारणीय बात है। यदि २ हामनगर माना जाय तो स्थूल रूप से एक योजना .....पों के बराबर अपवा ४५४५.४५ मील के बकायर प्राप्त होता है, किन्तु यदि वर्तमान प्रचलित माप के अनुसार एक कोश में २ मील मान लिये जोय सो एक महायोजन के २०.. कोशों के ४००० मील प्राप्त होते हैं। वैसे अनुमान यह है कि एक महायोजन में मीलों का प्रमाण ४००० से अधिक ही प्राप्त होना चाहिये, किन्तु इस त्रिलोकसार ग्रन्थ में स्थल रूप से ४०० मील मानकर ही माप दर्शाया गया है। इस माप के अनुसार पृथ्वोतल से तारों की ऊंचाई ३१६००.० मील, सूर्य की ३२०००.० मील, चन्द्रमा की ३५२०००० मील, नमत्रों की ३५३६००. मौल, बुध की ४२०० मील, शुरू की ३५६४ मील, गुरु की ३५७६००० मील, मंगल की ३५८८००० मोल और शनि को ३६..... मील प्राप्त होती है। अर्थात संपूर्ण ज्योतिषी देव पृथ्वीतल से ३१६०००• मोल को ऊंचाई से प्रारम्भ कर ३..... मोल फी ऊंचाई सक स्थित हैं। सर्वज्योतिविमान अर्धगोने के सदृश ऊपर को अर्थात् ऊध्वंमुख रूप से स्थित है, उनका केवल नीधे वाला गौलाकार भाग ही हमारे द्वारा दृश्यमान है, शेष भाग नहीं ( पा. ३३६ )। ढाई द्वीप के ज्योतिषी देवों के समूह मेरु पर्वत को १११ योजन अर्थात् etc.. मील छोड़कर प्रदक्षिया रूप से यमन करते है (गा.३४५)। सुमेरु पर्वत के मध्य से प्रारम्भ कर अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र के एक पाश्वं भाग पर्यन्त का क्षेत्र अषं राजू प्रमाण है। अवशेष अपंगजू के कितने अर्धच्छेद कहाँ कहाँ प्राप्त होते हैं यह विषय गा० ३५२ से ३५॥ तक स्पष्ट किया गया है। ३. और ये दो गापाए ज्योतिबिम्बों की संख्या जाने के लिए गच्छ कहा गया है । ( दोनों गामाए" बटिल है।) पा० ३.३ की टोका में केवल लवण समुद्र स्थित सूर्य का सूर्य से और चन्द्र का चन्द्र से अन्तर दिखाया गया है किन्तु हिन्दी टीका में पातको लण, कालोदक समुद्र धौर पुष्करा दीप के सूर्यचन्द्रों का अन्तरमी स्पष्ट कर दिया पया है। पविशशि के गमन करने की क्षेत्रगली को चारक्षेत्र कहते हैं अथवा चारों ओर का क्षेत्र संचरित होने से बह चार क्षेत्र कहलाता है। जम्बूद्वीप के दो चन्द्रों और दो सूर्गों के प्रति एक एक हा चार क्षेत्र होता है जिसका प्रमाण ५१० योजन अर्थात २.४६१४७ मील है ( गा० ३७४ )। इस चार मेत्र में सूर्य के पमन करने की १५ लिया है, प्रत्येक वली का प्रमाण योजन ( ३१४७३॥ पोल) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। से पपग्मास भी कहते हैं । एक पजी से दूसरी गली का अन्तर २ योबन (६... मोल ) है अतः सूर्य के प्रतिदिन पमन क्षेत्र का प्रमाण २ योजन अर्यात १११४७१ मोल है इसी प्रकार उसो चार क्षेत्र Rt यो.) मैं चन्द्रमा को १५ गलिया है। प्रत्येक गली का प्रमाण योजन (३१०२९ मो) है और एक गली से दूसरी गली का अन्तर ३५० योजन (१२००४ मील) है, तथा चन्द्रमा के प्रतिदिन गमन क्षेत्र का प्रमाण ३६२२० योजन ( १४५६७६१ मोल है। ( पा० ३७७ )। पा. ३७८ में "सुरगिरिबदनीण" पद से ऐसा ज्ञात होता है कि सूर्य के सदृश चन्द्र को दिवस गति, मार्ग, वन्तर एवं परिधि गादि का वर्णन होना चाहिए मा, मिस्तु संस्कृत रोका में नहीं किया गया है। हिन्दी टीका में कुछ दशा दिग गया है। सूर्य चन्द्र की सुमेह के समीप वाली गली को सम्पन्तपीथी बार लवरण समुद्र स्थित अन्तिम गली को बाह्मवीथी कहते हैं। अपनी जिस परिधि को सूर्य ६. मुहूत ( २५ घंटे ) में पूर्ण करता है उमी प्रमाण वाली उमी परिधि को चन्द्र १५३ (कुछ कम २४ घंटे) में समाप्त कर पाता है। सूर्य अम्पनर ( प्रथम ) वीपी में एक मुहूर्त में ५२५११: योजने (२१.०५६३४ मील) और एक मिनिट में ४२७६२३३२ मील चलता है । मध्यम वीयो में एक मुहूर्त में ५२७ योजन (१९५१३४६६ मील) और एक मिनिट में ४३१५६ मील पाता है, सपा अन्तिम (बाह । वीथी में एक मुहूर्त में ५६०५ योजन { २१२२०९३३३ मील ) पलता है और एक मिनिट में ॥२१०२॥ मील चलता है। इसी प्रकार चन्द्रमा अभ्यस्तस वोपी में एक मुहूर्त में ५.३ पोवन ( २०२६४२५1111 मोल ) और एक मिनिट में २१Ur1 मील चलता है और बास वीथी में एक मुहूर्त में ५११५ पोजन ( २०७२.४१५ मोल ) पौर एक मिनिष्ट में ४३१५७८ मील चलता है (पा- २८०)। प्रथम बौथी में भ्रमण करता हा सूर्य जब निषध कुळाचल के उत्तर तट से १४६२१४१ योजन पर्वत के ऊपर आता है तभी भक्तक्षेत्र में उदिा होते हुए दीखता है और तभी अयोध्या नारी के मध्य स्थित चक्रवर्ती के द्वारा देखा जाता है, जिसका अध्वान ४७२६३३० योजन ( १८१०५३४०० मील) है। इसी प्रकार प्रथम पीथी में भ्रमण करता हुआ सूर्य जब निषधाचल के दक्षिण तट पर कुछ कम १५७५ योजन वाता है तब मस्त हो जाता है (गा.९१ }1 उनसेतर दुगुण दुगुण संस्थाओं के संकलित घर को प्राप्त करने के लिए करणसूत्र पा. २६१ को टोका में है। अभ्यम्लर बीर्थ में चन्द्रमा एक मिनिट में जितना पलता है सूर्म उससे १४४२११ मील अधिक चलता है और उसी एक मिनिट में नक्षत्र सूर्य को अपेक्षा ११९६३ मोल अधिक चलते है। गा..०३" गाथा ५६०, ४६१, ६३, १४, ७६५ मोर ७६६ में धनुषाकार क्षेत्र को जीवा, बाण, धनुष एवं वृत्तविम्म निकालने के लिए रणसूत्र विये पये है. तथा इसी कारण सूत्रों के आधार पर Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरुक्षेत्र के धनुषाकार क्षेत्र की जीवा आदि निकाल कर उसी प्रकार भरस आदि क्षेत्रों और हिमवत आदि पर्वतों की जीवा आदि निकालने की सूचना दी गई है । गा० ७६२ में धनुषाकार क्षेत्र का क्षेत्रल प्राप्त करने का विधान दर्शाया गया है। ना ३८ में जम्बूदीपस्य हिमवत् आदि पर्वतों पोर भरतादि क्षेत्रों का पाए निकालने का विधान बतलाया गया है। यहाँ कृति स्वरूप संख्या का वर्गमूल निकालने के बाद अवशेष मचे प्रकों को छोड़ दिया गया है। जमेः-दक्षिण भरत को धनुषकृति का प्रमाण १४४११५५३१० है, इसका वर्गभूल " होता है और २१४८७ अंक अवशेष बचते हैं जिनका ग्रहण नहीं किया। विजया को धनुषकति के वर्गमन प्राप्ति के बाद २६ अवशेष घंक त्याज्य है। इसी प्रकार अन्यत्र जानना चाहिए। ०१. पृ० १५पर नाना प्रकार की आकृतियों द्वारा वृत्ताकार क्षेत्र की परिधि व क्षेत्रफल के करण सूत्र को सिद्ध किया गया है। गा• ६१ पृ.८५ पर गेंद मादि गोल वस्तु के समघनाकार का घनफल होता है । विष्कम्भ और परिधि का अनुपात १.का वर्गमूल है। इसको अनेक नापतियों द्वारा अवमानमा मद्ध किया गण है। गा• १०३ पृ. 8-10 पर वृत्ताकार के सूक्ष्मक्षेत्र को चतुरन रूप करके सिद्ध किया है । गा० २३१ पृ० २१४ पर दृष्टान्त द्वारा नाना प्रकार से गुणसंकलम धन के. करणसूम को सिद्ध किया गया है। पा. ३०९ पृ. २५४ पर वलय व्यास और सूचीव्यास प्राप्त करने के लिए करणसूत्र की वासना का विवेचा किया पया है। विशेससार की सबसे जटिछ गा. ३१७ (पृ. २७१ ) को टीका में अत्यन्त कुशलता पूर्वक नाना प्रकार की आकृतियों द्वारा शंख का क्षेत्रफल प्राप्त करने का प्रयास किया गया है, और भी अनेक गाथाओं में अनेक चित्रों एवं पार्टी द्वारा गणित सम्बाधी जटिल प्रशों को सुगम करने का प्रयास किया गया है। भी ने मिचन्द्राचार्य कृत त्रिलोकसार रूपी गगन माल पर करणसूत्र कपी मनेक तारागणों की अनुपम छटा दिखाई देती है, जिनकी सिद्धि के लिए श्री माषवचखाचार्य ने अपनी संस्कृत टीका में पत्र तप सर्वत्र वासमा का प्रयोग किया है। यद्यपि करण सूत्र सरन है किन्तु उनकी वासना बहुत जटिल है। वासना के अतिरिक्त मापने अपनी टीका में कुछ मरिणत सम्बन्धी अन्य नियमों का भी उल्लेख किया है। ये नियम गणित के लिए अत्यन्त उपयोगी है। परिशिष्ट में करणसूत्र, वासना और नियमों का विवरण दिया गया है । इस ग्रन्थ में कुछ ऐसे भी करणसूत्र, वासना एवं नियम है जिनका सम्पत्र उल्लेख नहीं पाया जाता। . इस प्रकार यह त्रिलोसार अंग लोकोत्तर गणित की अनेक विशेषताओं से सुशोभित होता हुना अपने आप मे परिपूर्ण एवं द्वितीय है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा स० १ २ * ५ ६ फ ८ १० ११-१२ १४ १५ १६ १७ १८ 7 विषय-सूची विषय करणानुयोग - परमागम केवल ज्ञान के समान है। मंगलाभरण चालयों को नमस्कार आकाश व लोक, बोनाका पाठ मध्य प्रदेश लोक के अभ्यथा स्वरूप का खण्डन लोक व अलोक की परिभाषा लोक के कल्पित आकार का खण्डन श्रेणी व रज्जु का प्रमाण सूच्यंगुल, प्रतशंगुल, घनांगुल मान लौकिक मान, अलोकिक मान के मेव लौकिक मान के हष्टान्त तथा बलोकिक मान के भेद reatfee मानमें जघन्य व उत्कृष्ट द्रश्य क्षेत्र काळ पांव का कथन तथा द्रव्य अलोकिक मान के क्षेत्र संख्या प्रमाण संख्यात, जसंख्यात, अनन्त के भेद प्रभेद अनवस्था आदि कुंड मान के भेदों का बारं चारों कुडों का व्यास व उत्सेध आदि नरना, सख्यात और कृति की परिभाषा परिधि क्षेत्रफल घनफल का करण सूत्र प्रथम अनवस्था कुंड का क्षेत्रफल व खातफल प्रथम अनवस्था कुण्ड के व्यवहार योजन, चकोष व गो सरसों का प्रमाण अवसन्नासन, सन्नासन आदि का प्रमाण उसेांगुल, प्रमाणांगुल, बात्मांगुल पोल सरसों का प्रमाण गोल सरसों के प्रमाण की सिद्धि ! पृष्ठ सं ३ ३ १० १० ܐܐ १२ F १३ १३ १४-४८ १४ १५ १६ * १८ १५ ་ २२ ५३ २३ २४ २५ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सं० 14 २०-२१ २२ २३ ६४-२५ ५६ २७-१६ २६-३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ . ३६-३७ ४८६-१९ लफल तथा उसकी सिद्धि तिल आदि वस्तुओं को शिक्षा की ऊंचाई परिधि के ग्यारहवें चाय होती है । प्रथम अनवस्था कुण्ड की शिखा में मरसों का प्रमाण प्रथम अनवस्था कृणा और शिखा इन दोनों का सम्मिलित एनफल कुण्ड व शिक्षा इन दोनों में सरसों का प्रमाण द्वितीय अनवस्था कुण्ड का प्रमाण द्वितीय आदि अनवस्था कुण्डों का प्रमाण लाने के लिये गच्छ का प्रमाण शलाका कुण्ड में सरसों डालने का विधान प्रतिशलाका कुण्ड में सरसों डालने का विधान महाशलाका कुण्ड भरने का विधान अन्तिम अवस्था कुण्ड में जघन्य परीतासंख्यात सरसों मध्यम परीता संख्यात, उत्कृष्ट परीतासंख्यात अघस्य युक्तासंख्यात प्रमाण पावली मध्यम युक्त संख्यात, उत्कृष्ट युक्तासंख्यात, जघन्य असंख्याता संख्यात शलाका त्रय निष्ठापन के द्वारा जघन्य परीतानन्त की उत्पत्ति ३८-४४ ४६-४७ उत्कृष्ट परीमानत, अघम्य युक्तानन्त प्रमाण अभव्य राशि, उत्कृष्ट युक्तानन्त, बघस्य अनन्तानन्त, प्रतिच्छेद उत्कृषु अनन्तानन्त व केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद श्रतज्ञान का विषय संस्थात भवविज्ञान का विषय वसंक्यात, केवलज्ञान का विषय बनात है। ५.२ [ ३८ 1 ५३ २४ ५५ १६ ५७ ५८ विषय धनाद के धन का शिवा का घनफळ घनाकार के बनफल से होता है। प्रथम अनवस्था कुण्ड में गोकसरसों का प्रमाण गो गेंद आदि वस्तु का घनफल होता है तथा चौदह भारा सबंधारा आदि १४ भाषाओं के नाम सबंधारा का स्वरूप समधारा का स्वरूप विषमधारा समधारा व विषमधारा के स्थानों का प्रमाण बोर जनको प्राप्त करने की विभि कृतिधारा का स्वरूप पृष्ठ सं० २५. २८ २९ 2. ३१ ३१ ३३ *૪ ६५ ३६ * ३३ મા ro ४२-४५ ४५-४६ ६-४० ४५ ४९-८६ ४९ ४९ ५० ५१ ५१ KP Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा स• २६ ******** ० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६० ६८ १६ ७. ७१ x ७३ ७५ ७६ विषय [ ३६ ] पृष्ठ सं० ५३ ५४ ५५-१६ 명 अकृतिधारा का स्वरूप धनधारा का स्वरूप अवनधारा का स्वरूप कृतिमातृकधारा ( वर्गमा बारा) का स्वरूप व स्थान वर्ग ( अकृति ) मातृका धारा मातृक बारा अवन मास धारा द्विरूप वगंधारा जघन्य परीता सख्यात की वर्ग शलाका, अर्धच्छेद, प्रथम वर्गमूल तथा रानि आवली, प्रतरावली दिरूप वर्गधारा में श्रद्धापल्य की वर्गशलाका अर्धच्छेद, प्रथम वर्गमूल, क्ल्य, सूच्यंगुल प्रतरांगुल, जगत् श्र ेणी का प्रथम धनमूल ६१ द्विरूप वर्गधारा में जघन्य परीतानन्त की वर्गशलाका, अर्धच्छेद, प्रथम वर्गमूल, जघन्यपरीतानन्त, अधन्य युक्तानन्त, लघन्य अनन्तानन्त जीव, पुद्गल, काल, आकाशणी, आकाश पत द्विरूप वगंधारा धर्माधर्म दृश्य के मगुरुलघु गुगा के अविभाग प्रतिच्छेद और एक जीव के अगुरुलघुगुण के अविभाग प्रतिच्छेद, जयन्य पर्याय नामक श्रुतज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेव विरूप वर्गधारा में जधम्म क्षायिक सम्यगश्व के विभाग प्रतिच्छेद तथा केवलज्ञान की वर्गशलाका, अर्धच्छेद, वर्गमूल प्राप्त होते हैं द्विरूप वर्गद्वारा में केवलज्ञान अर्थात् उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि के अविभाग प्रतिच्छेद द्विरूप वर्षधारा के समस्त स्थान " ५. ३८ Xe ५८ ६२ ६४ E ६५ जो राशि विरलन और देय के विधान से जिस पारा में उत्पन्न होती है उस धारा में उसकी वर्गशलाका व अच्छेद नहीं पाये जाते हैं। यह नियम द्विप वगंधारा, द्विरूप धनवारा व द्विरूप घनाघन बारा में लागू होता है। ६९ द्विरूप वर्गद्वारा द्विरूप घनधारा, द्विरूप घनाघन धाराओं में वर्ग से ऊपर के वर्ण में अच्छे दुगुने दुगुने और परस्थान में तिगुने तिगुने होते हैं शलाकाओं की अधिक्यता एवं सादृश्यता का विधान वर्ग पालाका और अव का स्वरूप द्विरूप धनधारा का प ६५ ६० बक .. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० गाथा सं. १-८२ ८५-४ E५-१७ RE-९० विषय द्विरूप घनधारा में अन्तिम स्थान और उसका कारण द्विरूप धनाधन धारा के कथन में लोक, तेजस्कायिक जीव, तेजस्काय-स्थिति, अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र सपा इनको गुणकार पालाका, वगंशलाका, पच्छेद, प्रथम मूल का कथन ७४. विरूप धनाधन पारा में स्थिति बन्ध कषाय परिणाम स्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान, निगोद शरीरों को उत्कृष्ट सख्या, निगोद काय स्थिति, सर्वोत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेद का प्रमाण तथा इनकी वगं गलाका. अच्छेव, वर्गमून ८१ द्विरूप वगंधारा के स्थान को परस्पर । वार गुणा करने से द्विरूप-नाधन धारा का स्थान होता है। द्विरूप घनाघन धारा में सर्वोत्कृष्ट योग के उस्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेदों के प्रमाण से अनन्त स्थान पर जाकर केवलज्ञान के चतुर्थ वर्गमूल का धनाधन अन्तिम स्थान है । समस्त स्थानों का प्रमाण चार कम केवलज्ञान की वर्गशलाकाओं के बरार है। ८४-८५ चौदह धाराओं का विस्तृतस्वरूप वृहदधारापरिकम शास्त्र में है। उपमा प्रमाण उपमा प्रमाण आठ प्रकार का है-पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगईणी, अगस्पतर, लोक व्यवहार, उदार और बड़ा के भेद से पल्य तीन प्रकार का है पल्य का प्रमाण प्राप्त करने का विधान 5७-१५ परिधि व क्षेत्रफ का करण सूत्र व वासना पल्य ( गड्ड ) में रोमों की संख्या ध्यत्र हार पल्य के समयों का प्रमाण उद्धार पल्य का काख छापल्य का काल ८४-१५ सागरोपम का काल सागरोपम काल की सिद्धि सागर में पल्यों के प्रमाण की सिद्धि गुणाकार और गुण्यमान इन दोनों के अर्घच्छेदों को जोड़ने से ला राशि के अर्घच्छे होते हैं। सागर को वर्गशलाका नहीं है १४-101 ६७-10 १९ १०० १०१ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ से. १०८ १.1 ११२ गाथा सं. विषय भाज्य के अच्छेरों में से भाजक के अच्छों को घगने पर ला राशि के अधुच्छेद होते हैं विरलन राशि में देय शाशि के अच्छे का गुणा करने में गुणा करने पच लग्ध राशि के अच्छे होते हैं विरहन राशि के अधच्छेदों को देय राशि के अर्धच्छेषों को अच्छेदों (वर्गशलाका) में मिछाने पर लन्धराशि की वर्गशलाका होती है। जगत मेणी की वर्गशालाका मूलराशि के अघंध्छेदों से अधिक अर्धच्छेदों के द्वारा गुरणकाष शशि की उत्पत्ति होती है १०६ मूलराशि के अधच्छेदों से होन अर्धच्छेदों द्वारा मागाहार राशि उत्पन होती है जगमणी का वर्ग जगत्प्रतर और घन घनलोक होता है लोक ११३ लोक का विस्तार हानि तथा यय का विधान, क्षेत्रफल तथा धन कह की उत्पत्ति ११० अधो लोक का आठ प्रकार से क्षेत्रफल (1) सामान्य, (२) फायत, (1) तिर्यगायत की अपेक्षा क्षेत्रफल (४) यवमुरज (५) यवमध्य की अपेक्षा अधोलोक का क्षेत्रफल (६) पादर, (0) दूष्य, (८) गिरिकटक की अपेक्षा अधोलोक का क्षेत्रफल ११८. ११९ पाच प्रकार मे अवलोक का क्षेत्रफक । (१) सामान्य, (२) प्रत्येक, ( ३ ) अस्तम्भ, (४) स्तम्भ, (.) पितष्टि की अपेक्षा अध्यलोक का क्षेत्रफल १६-१२. पिनष्टि द्वारा अवलोक क्षेत्रफल में त्रिभुज को ऊंचाई तथा पिनधि द्वारा अलोक का क्षेत्रफल १२१-१२२ लोक की पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर-दक्षिण परिधि १२३-१२५ लोक को परिवेष्ठित करने वाली तीन वासवसयों का स्वरूप व बाइप लोक शिक्षा पर तीन वातवजय का राहुरम लोक के नीरे वातवसयों का क्षेत्रफल "" १३१ १४१ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] . गाथा सं. विषय पृष्ठ सं० १२६-१२९ सातवीं पृथ्वी तक पाश्वभागों में वासबलयों का क्षेत्रफल १३०-१३१ दक्षिणोत्तर वातवलयों का क्षेत्रफल १४३ १३२-१३३ सातवीं पृथ्वी से मध्यलोक पयंत पूर्व पश्चिम दिशा में वातवछयों का क्षेत्रफल १४५ १३४-१३५ दक्षिणोत्तर पारवंमामों में वातवलयों का क्षेत्रफल १३६ पूर्व-पश्चिम दिशाओं में अवलोक के पाव भागों में वातवलयों का क्षेत्रफल दक्षिणोत्तर दिशाबों में ऊष्यलोक के पारवं भागों में वागवलयों का क्षेत्रफळ १४८ १३८ लोकान में वातवलयों का क्षेत्रफल १३-१४. कोक में सम्मान होनस १५०-१५२ १४१-१४२ सिद्ध परमेष्ठी की जघन्य व उत्कृष्ठ अवगाहना १५२-१५३ १४३ सनाली का स्वरूप १५४ १४४-२०७ नरक १५४ -२०० असनाली के अघो भाग में स्थित परिवयां १४५ सातों नरकों के नाम सनप्रभा के तीन भाग १४४-१५८ घर भाग की १८ भूमियों के नाम शकरा आदि पृथ्वियों की मोटाई नरक पृध्वियों में स्थित पटलों व विक्षों का स्थान १५१ प्रत्येक नरक में बिलों की संख्या मरकों में उष्ण व शीत वेदना का विभाग १५३ नरकों में पटल इन्द्रक वणीबद्ध विलों की संख्या १५४-१५८ प्रमादि छह नरकों के इन्द्रक बिलों के नाम १५६ सातवे नरक के बिलों के नाम १५-१६२ प्रत्येक पृथिवी में प्रथम इन्द्रक बिल संबंधी चाट चार श्रेणीबद्ध मिलों के नाम प्रत्येक पृथिवी के प्रथम पटल के श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या द्वारा अन्तिम पटल में । संख्या प्राप्त करने के लिये तथा अन्तिम पटल के बशीबद्ध बिलों की संख्या द्वारा प्रथम पटल में संख्या प्राप्त करने के लिये करण सूत्र श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण निकालने के लिये करण सूत्र १६४ अम्प करण सूत्र के द्वारा श्रेणी बद्ध विकों का प्रमाल प्राप्त करने का विधान १६६ ११ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषम . पृष्ठ सं. गाचा सं० प्रकीर्णक बिलों की संख्या १७० १६७-१६१ नरक बिलों का विस्तार १४०-१७१ सालों १८कों के स मीप काली का बाहुल्य १७२ इन्द्रक, भेणीबद्ध और प्रकीर्णक जिलों का कंचाई में अंतपाल १७३-१७४ प्रथम आदि पृध्वियों के अन्तिम पटल पोर विसीयादि प्रवियों के आदि पटलों का अन्तराल। १७६ १५-१७६ बिलों का ति पंतराल बिलों का जाकार १८१ १८ नरक बिलों को दुर्गन्ध २७४-१५० नरक में उत्पत्ति का कारण तथा उपपाव स्थान का साकार, व्यास व माहल्य १८१-८२ नारको जीव उत्पन्न होकर भूमि पर गिरकर उघलते हैं १५४ १९३-१०४ पुराने और मबीन नारकियों का परस्पर व्यवहार १८५ १८५ प्रपथक विकिया का विधान 14६-१६१ क्षेत्रपत पदार्थों की करता तया दुःखों का वर्णन १७ १९२-१५ मारकी दुर्गध वाली मिट्टी बाते है १६४ शरीर का यिम्न मिग्न हो जाने पर भी मरण नहीं होता १९५ मरक व स्वर्ग में तीनकर प्रकृति पालों की मरण से यह माह पूर्व विशेषता मरण होने पर सम्पूर्ण शरीर विलय हो जाता है क्षेत्र जनित,मानसिक, शारीरिक, असुरफत दुम्स १६२ १५०-२०० प्रत्येक पटल में जघन्य उत्कृष्ट आयु प्रत्येक पक्ष में शीय का उत्सेम ११५ २०२ अवधि क्षेत्र २०३-२०४ मरक से निकलने वाले मोवों की उत्पत्ति २०५ कौन जीव किस नरक तक उत्पन्न हो सकता है जो कितनी बार उत्पन्न हो सकता है। प्रथमादि नरकों में जम्म मरण का उत्कृष्ट अन्तर २०७ नरक में टिमकार मात्र भी सुख नहीं लोक सामान्य अधिकार व नरक.अधिकार समाप्त २६२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ २०४ २२१ २०० पाथा सं० विषय या सं० भवनाधिकार २ . २०८ भवनों में स्थित जिन-मदिरों को नमस्कार रूप गाल २.१ २०९-२११ भवन वासी देवों के इस भेद (कुम) तथा इन्द्रों के नाम ૨૦૨ २१२ कौन सा शिस इम्ब से स्पर्धा करता है प्रमादि के रिह चिह्न स्वरूप चैत्यवृक्षों के दस भेव २०४ २१५-२१६ चैत्यवृक्षों के मूल में स्थित जिन प्रतिमा तथा मानस्तम्भ २१५-२१८ भवनवासी इन्द्रों के भवनों की संख्या व विशेष स्वरूप २०५ मवनवासी देवों का ऐश्वर्य २१० भवनों को भूगृह संशा तथा उनका विस्तार २०६ भवन, विमान, मावासों के स्थान २२२ पसभाग में असुरकुमार के पवन व राक्षसों के भावास हैं २२३-२२५ इन्द्र प्रतीन्द्र आदि दस भेदों का उपमा सहित कञ्चन २२६-१२८ भवनवासी देवी में इन्द्र, प्रतीन्द्र, लोकपास, निश, सामानिक अङ्गरक्षक, परिषद देवों की संख्या २१० तोनों परिषदों के विशेष नाम अनीक देवों के भेद तथा संख्या २१ उत्तरोत्तर प्ररश गुणकार के कम से प्राप्त साहों अतीकों के पन को प्रा करने के लिये गुण संकलन करण सूत्र २३२-२३३ बनीकों के भेद तथा स्वरूप २३१-२३५ भवनवासी इन्द्रों की देवियों की संख्या ५३६ पमर मोर बरोधन इन्द्रों की पट्ट देवियों के नाम ९३७-२३९ प्रतीम्, छोकपाश, वायत्रिशद और सामानिक को देवांपना एद्र के मार हैं। शोष देवों को देवांगनाओं का प्रमाल कहा पमा है। २४०-२४७ भवनवासी और व्यन्तर देवों व देवांगनाओं की आयु १२० २४८ खावास व भाहार का कम . २०४ भवनत्रिक का उत्सेध २२५ भवनत्रय में जन्म लेने वाले जी गा४५० पृ. ३५० २२० २१२ २१८ २१९ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० [ ४५ ] पृ . ___उपन्तरलोक अधिकार ३ २२६-२५. २५० ४माता देवों तथा जिन चैत्यालयों का प्रमाण १२१ १५१-२५३ मन्तर देवों के भेद तथा उनके शरीर का वर्ण २२ २५३-२५५ चैत्यवृक्षों के नाम, जिनप्रतिमा, मानस्तम्भ १२ art-२८ बाठ कुलों वान्तर भद, प्रत्येक कुल के इन्द्र सपा उनकी वल्लमा तथा वलिना को भायु २० २७॥ प्रतीन्द्र, सामानिक, तनुरक्षक तथा पारिषद देवों की संख्या २०-२१ सातों भनीकों के माम, भेर तथा महत्तरी के नाम २३८ २८२ मनीक और प्रकीर्णकादि देवों की संख्या २८३-२८० भ्यन्तर रेवों के नपरों के मात्रयरूप द्वीपों के नाम, नगरों के नाम, आयाम, नगरों के फोट तथा दरवाजों की ऊँचाई, दरवाजों के ऊपर स्थित प्रासाद, तथा नमरु बाह्य वन और उनमें गणिका महत्तरियों के नगरों का प्रमाण व संपादि २३. कुल भेदों की अपेक्षा निलय (भवन) भेदों का निरूपण २४१-२३ नीचोपाद देवों के निवास क्षेत्र व आयु २१४-4.1 भवनपुर, जावास और भवन के स्थान, स्वामी, आमाम मावि बाझर व सन्नवास का कम भवनपय में जन्म मेनेवाले वीव गा०४५. पृ. ३६० व्यन्तर लोक अधिकार समाप्त ज्योतिलोंकाधिकार २५१-३९८ ज्योतिष देवों तथा ज्यी सबिम्ध एवं चैत्यालयों की संख्या ज्योतिष देवों के भेष तिर्यग्लोक का कथन ३०४-10८ ज्योतिष देवों के बाधारभूत द्वीप समुद्रों के नाम व संख्या सपा विस्तार व माकार इच्छित दीप व समुद्र का सूची व्यास एवं वलय श्यास लाने के लिए करणसूत्र । २५४ अभ्याता मध्य और बाह्य सबी प्राप्त करने के लिए करणसूत्र सूचौगास के आधार से चादर व सूक्ष्म परिधि तवा बारसम्म क्षेत्र फल प्राप्त करने के लिए करण मात्र 2. २५२ १५८ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं. २. [ ४६ ] गाथा सं० विषय ३१२-३१३ बम्बूद्वीप की सूक्ष्म परिधि व सूक्ष्म क्षेत्र फल का प्रमाण ३१४ जम्बूद्वीप की परिधि के द्वारा विवक्षित तोप या समुद्र की परिधि प्राप्त करने के लिए करणसव २६१ स्थल एवं सक्ष्म क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिए करणसूत्र ३१६-३१८ बबण समुद्रादिकों के जम्बूद्वीप प्रमाण खण्ड प्राप्त करने के लिए ४ करणसत्र समुद्रों के बल का स्वाद ३१. किन समुद्रों में पम और कम में नहीं २६६ तीन समुद्रों में रहनेवाले मस्स्यों को अवगाहना ३२२-३२५ मानुषोत्तर पर्वत व स्वयंप्रभ पर्वत ३२५-३२६ एकेन्दिय आदि जीवों की उत्कृष्ट अवयाइना १२७स के क्षेत्रमल सम्बन्धी करण सूत्र २७१ टोका पकेन्द्रियावि का क्षेत्रफल २७२ ३२८-३३. पांच स्थावरों की, विकलत्रय, मत्स्य, सरीसृप पक्षी मोर सपो की उत्कृष्ट वायु तथा कमभूमिण मनुष्य व नियंचों की जघन्य आयु । १ चारों गतियों में वेद का कथन ज्योतिलोक ३३. चित्रा पृषीसे ज्योतिबिम्बों की ऊंचाई ३३३ दुध बोर खमि के मातराल में स्थित ग्रहों के नाम ३३४-३३५ ज्योतिष देवों का बाल्य तथा तारागण का तिर्यग अन्तराल २८३ २३६-३३% ज्योतिष विमानों का माकार, व्यास तथा बाहुल्य २८३ ३३६-३४० राहु केतु विमानों का ध्यास, उनके कार्य और अबस्थान २८४ चन्द्रमादि की किरणों का प्रमाण तथा उनको तीव्रता व मदता २८. ३४२ चन्द्रमण्डल वृद्धि व हानि का कम २८७ चन्द्रमा आदि ज्योतिषदेवों के विमान वाहक देवों का खाकार विशेष और संख्या आकाश में गमन करने वाले कुछ नक्षत्रों का दिशा भेद मेव पर्वत में कितनी दूर जाकर ज्योतिष देव गमन करते हैं अढाई होप र समुद्रों में चन्द्र व सूर्य की संख्या अढाई द्वीप में प्रव साराओं की संख्या ज्य तिष रेवों का गमन कम २४९ २८९ २९. R Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गामा सं० विषय ३४६- ३५१ मानुषोत्तर पयंत के पर भाग में चन्द्र व सूर्य का अवस्थान क्रम व संख्या व परस्पर में अन्तर ७५० ३५२-३५९ असंख्यात द्वीप समुद्रगत चन्द्रादिक को संख्या प्राप्ति के किये कपात द्वोप समुद्रों की संख्या का कथन ज्योतिशे का संख्या खाने के लिये जो गच्छ कहा है उस की आदि भहते हैं आदि, गुणाकार बोर वच्छ के द्वारा संकलन रूप पत्र को प्राप्त करके सर्व ज्योतिविम्बों का प्रमाण लाने के लिए विधान एक चन्द्रमा के परिवार सम्बन्धी ग्रह, नक्षत्र व ताराओं की संख्या ३६३-२००८ प्रहों के नाम ३७१-२७२ जम्बूद्वीपस्थ भरतादि क्षेत्र और फुलाचल पर्वतों की शटाकाओं द्वारा भरतादि में ताराओं को संख्या ३६१ ३६२ [ ४७ ) ३७३ ३७४-३७५ चार क्षेत्र लोथ उनके विभाग का नियम ३७६-३७८ चन्द्र और सूर्य की वोथियों का प्रमाण विधियों का अन्तराल, मेरु पर्वत से प्रत्येक मार्ग ( वीथी } का अस्वद तथा मार्ग की परिधि Act ३८२ ३८३ नवगादि समुद्र से पुष्करार्धं पर्यंत स्थित चन्द्र सूर्यो का मंतर ३७६-३८० बाह्य और अभ्यन्तर वीथियों पर जब सूर्य होता है तब दिन व रात्रि का प्रमाण तथा प्रतिदिन होनेवाली हानि व बुद्धि का प्रमाण मयं भावण में दक्षिणायन और माघ में उत्तरायण होता है सर्व परिधियों में ताप और तम लाने का विधान ૨૬૪ ३५-३८६ पांचों परिषियों का प्रमाण ३६१०३११ १९२ - ३६४ जिस परिधि में जो तापमान होता है उसका आधा सूर्य विम्ब के पीछे मोर आधा सूर्य बिम्ब के जागे होता है प्रत्येक दिन में ताप व तम की हानि वृद्धि का प्रमाण ३८७-३८८ दक्षिणायन में सूर्य शीघ्रता से गमन करता है और उत्तरायण में सूर्य मंद मंद गति से गमन करता है, इसका दृष्टान्त तथा प्रत्येक वोषी में सूर्य का एक मुहूर्त में गमन क्षेत्र पृष्ठ सं० अभ्यत्वर वीथी में स्थित सूर्य और चक्षु इन्द्रिय की दूरी प्रयोजन भूत चाप का प्रमाण प्राप्त करने के लिये, उसके बाण को प्राप्त करने का विज्ञान तथा निषध पर्वत की पाचवें भुजा का प्रमाण R&R २९५ ३०४ ३०७ ३११ ३१२ ३१५ ३१६ ३२० ३२२ ३२८ ३३० ३३१ ३३४ ३३४ ३३५ ३३६ १३६ rk Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ३६१ [ ] पाषा सं. विषय पृष्ठ सं० निषध, नील पर्वतों पर, हरि व मोर्चा तपास सग म उदार स्थानों की संख्या दक्षिणायन में द्वीप संबंधी चार क्षेत्र तथा वेदिका के विभाग करके सर्य व चन्द्रमा के उत्य स्थानों की संख्या ३४७ दक्षिण, उत्तर, ऊवं और अधःस्थानों में सूर्य का आताप क्षेत्र एक एक नक्षत्र सम्बन्धी मर्यादा रूप गन खम ३५-४०० जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम नक्षत्रों के नाम १५८ ४.१-४०२ सयं, चन्द्र धोर नक्षत्रों का परिधि में भ्रमण काल तथा पगन खंडों का प्रमाण ३५६ चन्द्रमा, सयं, ग्रह और नक्षत्रों की चाल में शीघ्रता को तरतमता चन्द्रमा को नक्षत्रों के साथ लथा सर्य की नक्षत्रों के साथ निकटता ( अर्थात् भुक्ति ) का काल १.५-४०६ राह को नावों के साथ निकटसा ( भुक्ति) काल ३६३ १०७-४. एक अपन में तोन गतदिवस ( अधिक दिन) पुष्य नक्षत्र की विशेषता तथा दोनों अयनों में सयं, चन्द्रमा, राहु धारा नक्षत्रों का भुक्ति काल ३७ ४१.-४२० अधिक माम होने का विधान तथा उसकी सिद्धि ४२१-४३१ किस पर्व, तिथि और नक्षत्र में दिन रात समान ( विषुप ) होंगे ४५२-४३६ नमत्रों के नाम. अधि देवला. स्थिति विशेष का विधान तथा गमन वीथी ४४.-४४५ प्रत्येक नक्षत्र हाराओं की संख्या, उन नाराओं के साहार तथा परिवार ताराओं की संख्या ४४६ पांचों प्रकार के ज्योतिषी देवो की बायु ४४७-४४८ चाद्र और सूर्य की देवाङ्गमा ४४६ देवाङ्गनामों की वायु तथा प्रत्येक देव की देवियों की संख्या भवनचय में उत्पन्न होने वाले जीव ३.७ चौथा ज्योतिलोंक समाप्त मानिक लोकाधिकार ५ ३९९-५७६ ४१ सर्व १४६७०२३ विमानो' में स्थित जिन मंदिरों को नमस्कार ३६९ ४५५-४५३ कल्प और कल्पातीत में से करपों के नाम ३६६ ४.६ ३३७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ४७२ [४ ] पाथा सं० विषय पृष्ठ सं० ४४४ इन्द्र अपेक्षा कल्पों की संख्या १५५-४७ बल्पातीत विमानों का गितमा नाम १५८-४४० कल्प और कल्पातीत विमानों का अवस्थान ४.३१४०० ४५९-४६२ सौधर्मादि स्वगं विमानों की संख्या तथा पटलों की संख्या १३-४६ इन्द्रक विमानों का ऊवं अन्तर तथा नाम ४.१ कल्प और कल्पातीतों को सीमा ४० इन्द्रक विमानों का विस्तार ४० ४०३-७४ श्रेणीबद्ध विमानों की संख्या व अवस्थान ४७५ प्रकीर्णक विमानों का स्वरूप व प्रमाण १४६-४७. दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र के इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानों का विभाग तथा व्यास विस्तार ४७-४७६ सौधर्मादि वर्गों में संस्थान व असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों की संख्या ४१७ ४८०-४८२ विमानों का बाहुल्य, वर्ण व आवार ४८३-४ इन्द्र किस विमान में रहता है और उसका नाम ४८६-४६७ सौधर्म वादि देषों के मुकुट चिह्न ४८८-१३ इन्द्रो के पर स्थान व विस्तार, ऊंचाई, पाप ( नौंव ) तथा गोपुरों का स्वरूप, संख्या, ऊँचाई व म्यास मादि ४२४ ४॥४-४५ सामानिक, तनुरक्षक और अनीक देषों की संख्या ४२४ ४६६-१९७ दक्षिणेन्द्र बोर उत्तरेन्द्र के खनीक नायकों के नाम पारिषद देवों की संख्या ४९९-५०१ इन्द्र के नवा बाह्य पांच कोटों का परस्पर में राम तथा अन्तरालों में स्थित देवो के भेद ५०२-५०३ नगर बास स्थित वनों के नाम तथा उनमें स्थित पत्य वृक्षों का स्वरूप ५०४-५०६ लोकपाल के तपा गणिका महत्तरियों के नगरों का विस्तार तथा नाम ४३५ २०४-१०८ देव और देवीयताओ के गृहों का विस्तार तथा उत्सेध ४३७ कर पामो देवों की अन एव परिवार देवांगनाओं की सस्या ५१०-१२ इन्द्रो को अन्य देवाङ्गनाओं के नाम और विश्यिा का प्रमाण ४३६ ५५३-५१४ वरसचा देवागनायों की संख्या तथा उनके प्रासादों के अवस्थानो' की दिशा व प्रासादों का उत्सेध ४.० Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 गाथा सं० विषय पृ० स ५१५-५१८ इद्र के अवस्थान मण्डप का स्वरूप, उसमें स्थित बासन तथा मण्डप के द्वारों का विस्तार तथा आसनों की संख्या ४१-२२२ आस्थान मण्डप के अप्रस्थित मानस्तम्भ का स्वरूप तथा उस पर स्थित कन्हों [ ५० ] का स्वरूप ५२३ इन्द्र के उत्पत्ति ग्रह का स्वरूप ५२४-५२५ कल्पवासी देवांगनाओं के उत्पत्ति स्थान ५२६ कल्पवासी देवों के प्रत्रीचार ( काम सेवन ) का स्वरूप ५२०-५२८ वैमानिक देवों की विक्रिया शक्ति और ज्ञान का विषय ५२९-५३० वैमानिक देवों के तथा इन्द्र, पट्ट रानी, लोकपाल, त्रास्त्रिश, सामानिक, तनुरक्षक और परिषद देवों के जन्म मरण का उत्कृष्ट अन्तर ५३१ xxv कंसा मनुष्य कंदर्प, किश्विदिक और अभियोग्य को जधन्य आयु बांधकर कोन कौन से स्वर्ग तक उत्पन्न होता है ५३२ सौधर्म आदि युगलों में जघन्य व उत्कृष्ट आयु ५३३-५४१ घानायुक सम्यग्दृष्टि को प्रत्येक पटल में उत्कृष्ट वायु ५४१, १४३ ५४२ ५३४- ५४० लौकान्तिक देवों के अवस्थान, नाम, संख्या, विशेष स्वरूप घातायुष्क सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि की आयु में विशेषता देवांगनाओं की अध्यु ५४३-५४४ देवों का उत्सेध, उच्छ्रत्रास काल व आहार काल ५४५-५४७ कोन जीव किस स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है। ५४= देवगति से कर निर्वाण को जाने वाले krt मनुष्य, तियंच और भवनत्रिक से मानेवाले प्रेसठ शलाका पुरुष नहीं होते ५५०-५५३ देवों की उत्पत्ति स्थान तथा उत्पन्न होने के कार्य कल्पवासी देव जिनेन्द्र महापूजा तथा पंचकल्याणकों में जाते हैं किन्तु अहमिन्द्र अपने स्थान पर ही नमस्कार करते हैं देव सम्पत्ति किन जीवों को प्राप्त होती है ५५५ ५५६-५५० अम पृथिवी सिद्ध शिला व सिद्ध क्षेत्र ५५९ - ३६० सिद्धों का सुख ५. वैमानिक लोकाधिकार समाप्त ४४ * ४४ ४४ E x21 ४५४ ४५९ ४५६ ४५७ ૪૬ ४६५ ४३५ ४६६ ४६ un ४०१ Ko VO ४७३ rs لاد Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गावा सं [ ५१ विषय नरति ग्लोकाधिकार ६ ४७७ नोट - [ द्वीप समुद्रों को संकपा, नाम, विस्तार, आकार, सूचो व्यास, वलयध्यास, परिधि, क्षेत्रक समुद्र जल का स्वाद तथा बस सहित या रहित, मत्स्यों को अवगाहना, मानुषोत्तर पर्वत व स्वयंप्रभ पर्वत. एकेन्द्रिय आदि ओवों को उत्कृष्ट अवगाहना, उनका क्षेत्रफल, विभिन्न तियंचों की उत्कृष्ट व जघन्य आयु तथा वेद के कथन के लिये गाथा ३०४-३३१ देखना चाहिये। द्वीप समुद्रों की संख्या का विशेष कथन ० ३४२-३६० जम्बूदीपस्थ भरतादि क्षेत्र व पर्वतों की शाका या० २७१ ] ५६१-५६२ नर तिर्यग्लोक में स्थित ४५८ जिन मंदिरों को नमस्कार ५६३ ५. मेरा गिर ५६४-२७७ एक मेह सम्बन्धी ७ क्षेत्र, ६ कुलाचल पर्वत तथा उन पर सरोवर, उन सरोवरों में कमल, कमलों पर देवियों व परिवार देव ४७-४८१ महा नदियों के नाम, उभय तट, किस सरोवर से निकली है ५८२-५१६ गंगा नदी की उत्पत्ति आदि का विशेष कथन सिन्धु नदी पृष्ठ ५६७ ४६८-६०२ शेष बारह नदियों का तथा तत् सम्बन्धित फुकाचल व सरोवरों, तोरण द्वार आदि का विस्तार आदि ६१७ ६१८ सं० ४७७ ४८० ૪૧ ४९३ ५०१ ५०२ ६०३ - ६०४ शलाकामों द्वारा वर्ष ( क्षेत्र ) वर्षघरों के विस्तार का कथन ( या० ३७१ भी मी बाहिये ) ५०५ ६०५ ५१० विदेह क्षेत्र स्थित नगर, वलागिरि, विभंगा नदी, देवरादि वनों क लम्बाई ५१० २०६६०८ विदेह क्षेत्र स्थित मन्दरगिर, उस पर वन व वृक्षों का कथन ६०६ - ६१३ अन्य चार मेरा तथा तत् स्थित वन आदि के विस्तार आदि का कथन ६१४ - ६१६ चित्रा पृथ्वी के तक में मेद का व्यास, तथा नन्दन सौमनस आदि का व्यास तथा कहां परमे की ऊंचाई, हानिचय का कथन ५.१३ चारों घुल मेरु पर्वतों का हानिचय तथा विस्तार नादि पाचों मेरु की चूलिका ६१-६२३ नन्दन, सोमनस और पाथदुक वनों में स्थित भवनों के नाम, भवनों के स्वामी देव मोर जनकी देवांगना, आयु आदि, उन देव सम्बन्धित कल्पविमान ६२४ - ६२५ बंधन वन में कूट और उन पर रहने वाले व्यस्त देव तथा कुमारियां तथा वन में स्थित वापियां और बावड़ियों में प्रासाद ५१६ ५२१ ५२३ ५२४ ५२६ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५२ । २४१ ५४३ पाया सं. विषय ६३३-६३७ मेक शिखर पर स्थित पांडुक शिलामो के नाम व स्थान, किस क्षेत्र से सम्बन्धित हैं तथा शिलाओं का विन्यास व प्राकृति, सिहासनों के स्वामी तथा सिंहासनों का विस्तार पर्वत कूट आदि की विशेषता ६३९-६५० जम्बूवृक्ष के स्थानादिक व परिकर ५३४ ६५१-६५२ शाल्मलो वृक्ष ५३८ ६५३ भोगभूमि और कर्म भूमि का विभाग ५३॥ ६५४-६४५ यमगिरि के स्थान, आकार, नाम तथा अन्तराल ६५६-६५९ मे पर्वत चारों दिशाओं में यमगिरि पर्वतों से पांचसो योजन दूर स्थित द्रह और उनके तट पर स्थित काश्चन शैलों की संख्या व विस्तार ६६. द्रहों से आगे नदी का गमन का प्रमाणा. तथा तटों पर स्थित पवंतों व मरोवरों का कथन ६६१-६६२ दिग्गज पर्वतों का स्थान तथा विस्तार शादि ६६३-६६४ गजवन्त पर्वतों के नाम आदि ६६५-६७१ विदेह के देशों का विभाग तथा वक्षार, पर्वतों व विभंगा नदियों के नाम आदि पर्वतों पर देव ६७२-६७३ देवारण्य वनों का स्थान ननमें वृक्ष सरोवर आदि ६०५-६७६ विदेह देशों के ग्रामादि का लक्षण व विस्तार आदि ६७४ विदेह देशों में स्थित उपसमुद्रों के अभ्यन्तर दीपों का वन ५५२ ६७८ मागष आदि तीन देवों के द्वीपों का कपम ६७९-६८० विदेह क्षेत्र गत वर्षादि ६०१ पंचमेश सम्बन्धी तीर्थकर परवर्ती, अर्धचकी की उविष्ट सख्या ६८२ चक्रवर्ती को सम्पदा ६८३-६८५ राजाधिराज आदि राजाओं के लक्षण ६८६ मीपंकर का विशेष स्वरूप ६५०-६९४: विदेह देशों के नाम लथा. उनमें खपा विभाजन तथा विभाजन करने वाले विजयाचं पर्वत व नदियां. विजया की कोणियो । ६६५-.९ विदेह स्थित विजया की दक्षिण उत्तर श्रेणी पर स्थित नपरों की संन्या व माम व कोट धादि ५६२ - - Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठसं. पाया सं0 ६३३-६३७ मेरु शिखर पर स्थित पांडक शिलामो के नाम व स्थान, किस क्षेत्र मे सम्बन्धित हैं तथा शिलाओं का विन्यास व प्राकृति, सिंहासनों के स्वामी तथा सिंहासनों का विस्तार ५३० पर्वत कूट आदि की विशेषता ५३३ ६३९-६५० मम्बूवृक्ष के स्थानादिक व परिकार ६.५१-६५२ शाल्मली वृक्ष ५३८ ६५३ भोगभूमि और कर्म भूमि का विभाग ६४४-१५५ यमगिरि के स्थान, आकार, नाम Hशा सन्तान ६५६-६५९ मेरु पर्वत चारों दिशाओं में यमगिरि पर्वतों से पांचसो योजन दूर स्थित दह और उनके तट पर स्थित काश्चन शैलों की संख्या व विस्तार ६६० द्रहों से मागे नदी का गमन का प्रमाण तथा तटों पर स्थित पर्वतों व सरोवरों का कपन ६६१-६६२ दिमाज पर्वतों का स्थान तथा विस्तार आदि ६६३-६६४ पजत पर्वतों के नाम आदि ६६५-६७१ विदेह के देशों का विभाग तथा वक्षार, पर्वतों व विमंगा नदियों के नाम आदि पर्वतों पर देव ६७२-६७३ देवारण्य वनों का स्थान बनमें वृक्ष सरोवर आदि ६४४-६७६ विदेह देशों के प्रामादि का लक्षण व विस्तार आदि विदेह देशों में स्थित उपसमुद्रों के अम्पतर दोषों का कथन ६७६ मागध माधि तीन देवों के द्वीपों का कपम ५५३ ६७९-६८० विदेह क्षेत्र गत वर्षादि . ५५३ ६०१ . पंचमेह सम्बन्धी तोयंकर चक्रवर्ती, अपंचकी की उत्कृष्ट संख्या ५५४ ६८२ चक्रवर्ती को सम्पदा ६८३-६८५ राजाधिरान आदि राजाभों के लक्षण ६८६ तीर्थकर का विशेष स्वरूप ६५-६६४.. विदेह देशों के नाम तथा.. उनमें ना विभाजन तथा विभाजन करने वाले विजया पर्वत व नदियां व विजया की दो बेणियो। 4६५-९ विदेह स्थित विजया की दक्षिया उत्तर श्रेणी पर स्थित नगरों की संख्या व माम बकोट कादि ५६२ ५५७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५३ । विषय ५६६ ५८६ माथा सं. ४१.-०१७ - विदेह की-नपरियों के मध्य म्लेच्छ सग के मध्य में स्थित, इषमावल पर्वत, . तथा मार्यों की राजधानियां व उनके नाम व विशेष स्वरूप ote-१९ नाभिगिरि पर्वतों के स्थान व उस्मेध आदि .. ७२०-४३. हिमवन आदि कुलाचल पौर विजयाओं पर स्थित कूटों की संख्या, प्राकार व नाममाधि पर्वत, कुण्ड, द नदियों आदि पर घेदिकामों की संख्या ५७ ७३२-७३। भरत ऐशवत क्षेत्र के विजयाओं के कूटों को उन पर. परिषत देव तथा जिनालय के उदय, व्यास और लम्बाई ७३७-७४४ गजहमत व वक्षार पर्वतों पर स्थित कुटों की संख्या व नामाथि ७४५-७४६ वक्षार पर्वतों की ऊँचाई, उन पर अकृत्रिम बस्यालय तथा कूटों की ऊंचाई ५८५ .७४७-७५० भरतादि क्षेत्रों में परिवार नदियों की संख्या ७५१-४५३. विदेह क्षेत्र में स्थित मैन, नयर, वन, पर्वतों, वड़ियों आदि का ध्यास .५४-७५५ घातकी खण्ड और पुष्कराचं द्वोपों में मेरु व मद्रशाल वनों का विदेह बेशों का म्यास .५६-७५७ ढाई द्रोणे के गजदन्त पवंतों का मायाम ७५-७६६ कुरुक्षेत्र की जीवा, चाप, वाण, तथा वृत्त-विष्कम्भ, क्षेत्रफल .. . ७६७-७६८ दक्षिण भरत. विजया, उत्तर भरतक्षेत्र, हिमवत आदि पर्वतों तथा हैमवत बादि क्षेत्रों के वाण का प्रमाण ७६-७७ दक्षिण भरतादि क्षेत्र और पर्वतों की जीवा व धनुष का प्रमाण ६०१ ७७ चूलिका व पाश्वभुजाका लक्षण व प्रमाण ७७२-७८५ भरतरावत क्षेत्रों में छह कालों का कपन ४८६-०६१ भोग भूमि व कल्प वृक्ष आदि का कथन १२-८.१ कम भूमि प्रवेश, कुलकरों का स्वरूप, उत्घ, बायु, परस्पर अन्तरकाल, दण्ड विधान व बनके कार्यों का कथन चतुर्थ काल में शलाका पुरुषों की गणना ५०४-८१३ तीर्थंकरों की अवगाहना, आयु. परस्पर अन्तर काल तथा तीर्थकाल' . ६३४ ८१४ जिनधर्म का उच्छेद काल ६३. ८५५-५२४ नाह चकियों के नाम, वतना कान, वर्ग, उत्सेध, मासु, मनिषि, चौदह रत्न, . किस पति को प्रात हुए . . . ६२२ २४ ६४० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४५ (५१ ६५५ गाषा सं. विषय ०२५-६३३ नारायणों के नाम, उनके आयुष, बलभद्र के आयुध, उनका पतनाकाल, बलदेष व प्रतिनारायण के नाम तीनों का उस्सेध, गाय, गति ८३४-८३५ नारों का नाम आदि ६५० ६३६-८५१ रुद्रों के नाम व संख्या, वर्तनाकाल, उत्से घ, आयु, गति तथा विशेष स्वरूप ८५२-८४६ चक्री, अचव रुद्री का पतनाकाल ८४७-४६ तीर्थकरों का वर्ण व वंश आदि E४०-६१ शक राजा और कल्कि राजा की उत्पत्तिवकार्य तथा अन्तिम कहिक का स्वरूप ८६२-८६३ पंचम काल के भारत में माग्नि आदि का नाश, मनुष्यों की गति मागति ६६५ ६४-६६. अति दुःषमा छठा काल के अन्त का कपम तथा प्रलय ६६६ ८६५-६७. उन्सपिणी काल का प्रवेश ६६७ ८७१-७२ उत्सपिशी के दूसरे काल के प्रान्त में कुल करो का कथन तथा तीसरे दुषमासुषमा काम का प्रारम्भ ६६ ५७३-७६ उत्सपिणी के तीसरे काल के १४ तौकरों के नाम, प्रथम व अन्तिम तीर्थकर की आयु व खत्मेध ८७७-८० उत्सपिणी काल के चक्रवर्ती, अर्धचकी, बलदेव के नाम ८८१ उत्सपिणी के चतुर्थादि कालों में भोगभूमि। ६७२ E८२ देवकुरु उत्तरकुरु में प्रथम काल, हरि, रम्यक क्षेत्र में दूसरा काल हेमवत हरण्यवत में तीसरा काल, विदह मे चतुर्थकाल भरत रावत के म्लेच्छ बडो में विद्याधरों की श्रेणियों में पंयम काल के मादि से अन्त पर्यन्त देवों में प्रथम काल सदृश, नरकों में छठवें काल पश, मनुष्य और तियंचों में छहों काल, अर्ध स्वयंभू रमण द्वीप और सम्पूर्ण स्वयंभूरमण समुद्रमें पचमकाल सहा वर्तना है ६७४ E८५-८९५ स तोप और समुद्रों के अन्त में परिधि स्वरूप प्रकार व वेदिका, वन प्रासाद, वापिका, दरवाजे ८९६-९२४ लवण समुद्र ५९६-९०० लक्षण में स्थित पातालों के नाम, स्थान, संख्या, परिमाण, जल और वायु का . प्रवर्तन, समुद्र के जल की ऊंचाई में हानि वृद्धि। ६७१ ८८३ ८४ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० [ ५५ ] पाथा सं. विषय जम्बूदीपस्थ चन्द्र सूर्य से समुद्र जल का अन्तर ६५६ १०२ पातालों का अन्तर ९.३-10४ सण समुद्र के प्रतिपालक नागक्रमार देवों की संख्या त्ययस्थान, व्यास ६६२ ९.५-१०५ विगत पातालों के पाश्वभागों में स्थित पर्वत और उन पर रहने वाले देवों का कचन tut-६॥ सवण समुद्र के सम्यन्तर देवों के द्वीप ६१३-४१५ भवणसमुद्र व काळोवक समुद्र में कुमानुषों के १६ द्वीप, तटों से उन द्वीपों का सतर, वीपों का विस्तार व ऊंचाई ६६६ ११६-१२. कुभोग भूमि के मनुष्यों को वाकृति और रहने के स्थान ७०२ १२१ १६ द्वीपों की संख्या का विशेष विवरण ७०४ १२२-२४ कुभोप भूमि में उपजने के कारण ९२५-९३६ धातुकी खण्ड व पुष्कराघ ५२५-६२. इष्वाकार व कुलाचल आदि पर्वत व नदी आदि का कथन ॥१८- क्षेत्रों के आकार, विष्कम आदि 4.-६३६ विदेह क्षेत्र के कच्छादिक देशों का, पर्वतों का, नदियों का व वनों का आयाम मादि घातको वृक्ष व पुष्का वृक्ष ९१५ गंगा आदि नदियों का पर्वत पर बहने का प्रमाण मध्य लोक के स पर्वतों का अब नाघ ७२८ ९३७-९४२ मानुषोतर पर्वत ३५-३६ मानुषोत्तर पर्वत का स्वरूप ७२६ ३-४१ मानुषोत्तर पर्वत पर स्थित कूट १४२ मानुषोत्तर पर्वत का ध्यास, अपाष ढाई द्वीप से बाहर १४३-६० कुणाल गिरि व वचक गिरि सपा उनके कूट सपा उन पर रहने वाली देवांगनामों का कार्य १५१-६६६ द्वीप व समुद्रों के स्वामी देव ९६६-६७ नन्दीश्वर द्वीप का विशेष रूपन ४२ 10-१.१४ बत्रिम चस्यानयों का विशेष कथन ३१ .३२ ४० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृहसं० ७६६ पृष्ठ १३ गाया सं० विषय अरहन्त प्रतिमा और सिद्ध प्रतिमा में अमर १०१५-१०१८ मूलमंथकार का वक्तव्य संस्कृत टीकाकार का वक्तम्म १.९१ हिन्दी टीकाकी को प्रशस्ति परिशिष्ट खण्ड परिशिष्ट : १ करण सूत्र १ व्यास व परिधि का अनुपात व वृसाकार का क्षेत्रफल २ गेंद आदि गोल वस्तु का धनकल ३ शिखा का घनफल ४ पय प्राप्त करमा ५ विधम चतुर्भुज का क्षेत्रफल ६ ' मुख व भूमि प्राप्त करना ७ पदधन निकालना - बिलों का सङ्कलित धन ६ उत्तरोत्तर समान गुणाकार पदों का सङ्कलित धम १. वलय व्यास व सघी व्यास १६ शेखावतं का घनफळ १२ चव द्वारा विवक्षित पद प्राप्त करना १३ धनुषाकार क्षेत्र के वाण, जीवा, धनुष, वृत्तविष्कम्भ क्षेत्रफल १४ हिमवत् पर्वत आदि पर्वतों व क्षेत्र का वाण परिशिष्ट : २ नियम सची १ सम व विषम वर्गशलाका का अधं व चौथाई घन २ वराशि को वर्गशलाका व अघच्छेद ३ वर्गशि व घन राशि के गुणाकार व भागाहार ४ हार का हार ५ गुणनफल व भाजफल के अच्छत ६ वगित समगित राशि के अर्धच्छेद व वर्गशमाका - अधिक अर्धच्छेद व हीन अधच्छेद पृष्ठ ४-५ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • श्रीनेमिचन्द्राय नमः श्रीमन्नेमिचन्द्राचार्यविरचितः त्रिलोकसारः श्रीमन्माधवचन्द्राचार्यविरचिता संस्कृतटीका त्रिभुवनचन्द्रजिनेन्द्र भक्त्यानत्य त्रिलोकसारस्य । पूचिरियं किश्चिमायोधनाय प्रकाश्यते विधिना ।। १ ।। नीयादकलावस्तूरिगुणभूरिरतुलवृषधारी । अनवरतचिनतजिनमतविरोधिवादिब्रजो जगति ॥ २ ॥ यस्मादखिलबुधानां विस्मयकदभून प्रनिरिह यस्य | तच्छासनमपनुदतादनघं घनकमनतिमिरनिवहमतः ।। ३ ॥ भीमप्रतिहताप्रतिमभिःप्रतिपक्षनिःकरण-निःशमकेवल शामतृतीयलोचनावलोक्तिसकलपवान' संरक्षितामरेन्द्रनरेग्नमुनीमारिसान तोकरपुण्यमहिमावष्टम्भसम्भूतसमवसरणप्रातिहार्मालिशयाविबहिरङ्गालक्ष्मीविशेषेण निर्मूलीकृताहाबादोषेण सर्वाङ्गसमालिगितानन्तचतुष्यादिगुणगणामकान्तरंगलक्ष्मीप्रकटितपरमात्मप्रभाविप पोवर्धमानतीर्थकरपरमदेवेन सर्वभाषास्वभाववियभाषाभाषितार्य सप्तविसमृगौतमस्वामिना विश्वविद्यापरमेश्वरेण ध्रुसकेलिना वितिसरधनाविशेषं तवर्थमाननिनामसम्पन्नवयंमोहगुरुपर्वक्रमेणा म्युछिन्मतया प्रवतमानमविनसूत्रावन केवलशामसमानं करणानुयोगमामानं परमागमं कालानुरोधेम संक्षिप्य निरूपयितुकामो भगवानेमिचनसंबान्तदेवश्चतुरनुयोगचतुवषिपारगचामुण्डरायप्रतियोषनव्याजेनाशेषविनेयन प्रतिबोषमा त्रिलोक . सारनामानं प्रम्पमारचयन् तवायौ निविस्मतः शास्त्रपरिसमापाविक फलकुलमवलोक्य विशिष्टेष्टदेवतामभिष्टोति १ लोचनालोकितसकलपदार्थसान ( ब०, प०)। २ मुनीन्द्रादिभध्यमार्येन ( च०, प.)। ३ सभापारवभाषास्वभाव (५०)। ४ तदनुज्ञानविज्ञानसम्पनपापवय॑गुरुपूर्वक्रमण (प.)। तदनुज्ञान विज्ञानसम्पन्नवर्मभीरगुरुपचक्रमेण (40)। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ त्रिलोकसार हिन्दी टीकाकार का मङ्गलाचरण * श्रीमत्पार्श्व जिनेन्द्रपादयुगलं, वार्णी जिनास्योद्गतां सूरीन श्रीश्वन्दनीयचरणान् श्रीनेमिचन्द्रादिकान् | शान्ति बीपियति, पालोदधिं सन्मति धर्माधाजितं महागुणवृत्तं मव्यावलीसंनुतम् ॥१॥ त्वा शुद्धहृदा महर्षिनिचयं भव्यधमोहच्छिदे टीकां मन्दजनप्रबोधजननीं त्रैलोक्यसारस्य वै । शिवसूरिभूरि कृपया प्राप्ताविकासता संत्राता श्रुतसागरेण सुनिना याचार्यकन्पेन च ||२|| गुरूणां कृपया सैषा, विशुद्धमतिसंज्ञिता । प्रारब्धकार्य निर्वाह दोषादक्षा भवत्वरम् ||३|| गाथा : १ * हिन्दी भाषानुवाद - सर्व प्रथम ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्रीमन्नेमिचन्द्राचार्यविरचित प्राकृत गाथाबद्ध श्री त्रिलोकसार नामक ग्रन्थ की संस्कृत टीका के रचयिता श्रीमन्माधव चन्द्राचार्य मङ्गलाचरण करते हुए कहते हैं— दीनों लोकों को चन्द्रमा के समान आह्लाददायक श्री जिनेन्द्र भगवान् को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अल्पज्ञों के ज्ञानके लिए विधिपूर्वक त्रिलोकसार की यह टीका मेरे द्वारा प्रकट की जाती हैरची जाती है ॥१॥ गुग्गों से परिपूर्ण, अनुपम धर्म के धारक तथा जिनमतके विरोधी वादियों के समूह को निरन्तर नीत करने वाले श्री अकलङ्क आदि आचार्य जयवन्त हों ॥ २ ॥ यतः इस जगत् में जिसकी प्रवृत्ति समस्त विद्वज्जनों को आश्चयं उत्पन्न करने वाली हुई थी मत्तः बढ् निष्कलंक जिनशासन मिध्यामतरूपी सघन अन्धकार के समूह को नष्ट करे || ३ || इस युग के अन्तिम तीर्थप्रवर्तक श्री भगवान् वर्धमान स्वामी हैं। उन्होंने श्रीसम्पन्न निर्वाध अनुपम, विरोधरहित, इन्द्रियादि की सहायता से रहित तथा युगपत् प्रवर्तने वाले केवलज्ञान रूपी तृतीय नेत्र के द्वारा समस्त पदार्थों के समूह को देख लिया था। वे देवेन्द्र, नरेन्द्र और मुनीन्द्र आदि के समूह के संरक्षक थे । तीर्थङ्कर नामक पुण्य प्रकृति की महिमा के अवलम्बन से प्रकट होने वाले समवसरण, अष्टप्रातिहार्य तथा अनेक अतिशयरूप बहिरङ्ग लक्ष्मी से विशिष्ट थे। उन्होंने जन्म जरा मरण आदि १ श्री श्रुतसागर जी Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:१ लोकसामान्याधिकार अठारह दोषों को नष्ट कर दिया था और आत्मा के समस्त प्रदेशों में प्रकट होने वाले अनन्तचतुष्टयादि गुण समूहरूप अन्तरङ्ग लक्ष्मी के कारण उनके परमात्मपद का प्रभाव प्रकट हुआ था । ऐसे श्रीवर्धमान तीर्थङ्कर परमदेव ने सर्व भाषारूप परिणमन करने वाली दिव्यध्वनि के द्वारा जिस करणानुयोग नामक परमागम का अर्थरूप से निरूपण किया था, उसको शब्द रचना सप्त ऋद्धियों से युक्त तथा समस्त विद्याओं के परमेश्वर श्रुतकेवली गौतम स्वामी ने की थी। तदनंतर ज्ञान विज्ञान से सम्पन्न निष्पाप गुरुओं को परम्परा से वह आज तक अव्युच्छिन्न रूप से चला आ रहा है। जिस अर्थ का निरूपण श्री वीतराग सर्वज्ञ वर्धमान स्वामी ने किया था उसी अर्थ के विद्यमान रहने से वह करणानुयोग परमागम केवलज्ञाम के समान है, परन्तु अबसपिणी काल के प्रभाव से लोगों की बुद्धि कम हो गई है इसलिये चारों अनुयोग रूपी शास्त्र समुद्र के पारगामी भगवान् नेमिचन्द्र सैद्धान्तदेव, उस करणानुयोग नामक परमागम का संक्षेप से वर्णन करना चाहते हैं । वे अपने शिष्य चामुण्डराय को प्रतिबुद्ध करने के बहाने समस्त शिष्यों को समझाने के लिये श्रिलोकसार नामक ग्रन्थ की रचना करते हुये ग्रन्थ के प्रारम्भ में निर्विघ्न रूप से शास्त्र समाप्ति आदि फल समूह का विचार कर मङ्गलाचरण के रूपमें विशिष्ठ इष्ट देवता का स्तवन करते हैं बलगोविंदसिहामणिकिरणकलावरुणचरणणहकिरण । विमलयरणेमिचंदं तिवणचंदं णमंसामि ।। १ ॥ बलगोविन्दशिखामणिकिरणकलापारुणचरणनखकिरणम् । विमलतरनेमिचन्द्र त्रिभुवनचन्द्रं नमस्यामि ॥१॥ अस्याः कथ्यते । मंसामि नमस्यामि नमस्करोमि । के। विमलयरऐमिचन्द विमलसरनेमिछन्त्र, विगत' मलं ध्यभावात्मकं प्रास्मगुगघातिकमर देहपातयो' वा यस्मारसो विमलः अयं विशुशेश्वयस्य परमकाष्ठामधिष्ठित: सन्मन्येवामप्यारमाषितानां कर्ममलक्षालामहेतुत्वावतिशयन विमलो विमलसरः । अनेनासायातिशयः प्रकाशितः । नेमिचन्द्रो वाविशतीर्थकरपरमदेवः बिमलसरनेमिनास्तं" । कर्ममूतम् ? 'त्रिभुवनचन्द्र त्रिभुवनानी चन्न इव चन्द्रः प्रकाशकस्तं त्रिलोकाना म्वरूपोपवेशक तस्वरूपपरिच्छेवक बेत्यपः । एसेन वागतिशयः प्राप्स्यतिशयो' वा प्रतिपाक्तिः । अवसरोधितं तविशेषणं । प्रयाणां भुवमान स्वरूपनिरूपणे बद्धम्यवसायत्याचार्यस्य वामज्योतिषा ज्ञानज्मोतिषा व तत्स्वरूपप्रकाशकत्व नमस्कारकरणं समुचितमेवेति । पुनरपि कपमूतं ? 'बखगोविन्दशिखामरिणकिरणालापावरचरणनसकिरणं' मिजपारपपावनतपनपनामचुराप्रसा १ विगतं बिनप्टं ( ब०, म०)। २ आत्मगुणघातक कर्म ( ब०, प० । ३ देहमप्तधातवो (ब०, प०)! ४ द्वार्षिशस्तीर्थकरपरमदेवः ( ब०, प०)। ५ विमलतरण्चासौ नेमिचन्द्रसां (ब०, ५० )। ६ प्राप्त्यति भयो बा ( शानातिशयो वा टि० ब०)। ५ चैतविशेषणं ( म०, प.)। ८ दलगोविन्द सिडामणिकिरणफलावरुणचरणणहकिरणं (ब०,५०)। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकमार गाथा :१ पपरागमणिमरीचिजालबालातपमञ्जरोपिञ्जरितपबकाऊजनसमरीचिपुत्रमित्यर्थः । अनेन भगवतः पूजातिशयः शेषातिशयाविनाभावी निवेदितः । प्रोपयोगी श्लोक: अपायप्राप्तिवाकपूजा विहारास्यापिका तनु' । प्रवृत्तय इति ख्याता जिनस्पतिशया इमे || अषमा नमस्यामि नमामि । कं ? [वमलतरनेमिचन्द्र, नेमिनायारा नेमिरिव नेमिः अमरयप्रवर्तकस्वात् । धन्वयत्यालादयति भव्यजनमयनमनासीति चन्द्र इन्द्राधसंभवरूपातिशयसम्पन्न इत्यर्थः । नेमिश्चासौ चनश्च मिचन्द्रः विमलसरवनासी नेमिचन्द्रश्च बिमलतरनेमिचन्द्रः। प्रथा यषापस्थितमर्थ नयति परिछिमत्तीति नेमिर्बोषः विगत मलमज्ञानं यस्मादसो विमल. मतिशयेन विमलो विमलतर: विमलतपचासौ नेमिश्च विमलतरनेमिः सकल विमलकेवलज्ञानमिलि पावत तेनोपलक्षितचन्द्रो विमलतरनेमिचन्द्रः । अथवा विमलप्तरा रत्नत्रयपवित्रास्मानस्ते एव नेम्यो नक्षत्राणि तेषां चन्द्र इव चन्द्रः स्वामी तं विमलतरनेमिचंद्र मंतिमतीर्थकरस्वामिनं चतुर्विशतितीर्थकर समुवार्य वेत्यर्थ । कि विशिष्ट । त्रिभुवनचंबं । त्रिभुवनशब्देनात्र त्रिभुवनस्या विनेया ब्राह्माः तेषां छा इव चंद्रा अज्ञानतमोविनाशकस्त । मयः कि मूतं । 'बल-किरणं' धलं जम्बूदीपपरावर्तनलक्षणं सत्त्वं प्रतीन्द्राविक वेवसंन्यं प्रतिमनोहरं रूपं वा विद्यते प्रस्येति ।लः प्रत्रोपयोगी इनोक : - यसं शक्तिबलं सैन्यं बलं योल्यं बलो धलः । बलं रूपं बलो दश्यो बलः काको मलो बलः ॥ गां स्वर्ग विवति पालयतीति गोविन्धो वेवेंद्र: बलश्चासौ गोविन्दवच बलगोविन्दः तस्य शिखेत्यादि शाब्बार्गः सुबोधः । भक्तिभरविमतशतमलप्रमुख निखिललेखशिलामरिणमयूखमालारुणीकृतचरणमनकिरणमितितात्पर्यामः। अथवा । मंसामि । कं ? 'विमलयरणेमिचंद्र' पञ्चविंशतिमलरहितसम्यक्त्वसमस्थितस्वाद्विशुमानसमृखत्यान्निरतिचारचाश्चारित्रपवित्रौ मूतत्वाता विमलतर: स चासो नेमिचंद्राचार्यश्च विमलतरनेमिचंद्रस्तं तमस्यामोति चामुण्डराय: स्वगुरुन मस्कारपूर्वकं शामिदं प्रारभते । कथंभूत स ? त्रिभुवनधन्नं चन्द्र इव चंद्रो षर्मामृतस्यविस्वात् । प्रथवा चन्द्रं काश्चन समनरावेयत्वात् । त्रिभुबनाना चन्म स्त्रिभुवनचंद्रस्तं । पुनरपि कयंमूतं ? लकिरणं, बलं वासप्ततिनियोग'वर्तनलक्षणं हस्त्याविक वा स्येति बलपचामुण्डराय: । पृथ्वी विवति पालयतीति गोविन्दो राचमल्लदेवः" बलश्र गोविन्दश्च बालगोविन्यो तयोः शिखयादि पूर्ववत् ॥१॥ १ अनीहिलवृत्या कागबाट मनसा व्यापार: ( बo-टि) ३. सम्पन्नमित्यर्थः । ब०, प.)। ४ बथंभूतं ( ब०५०)। ६ विनियोग (५०)। ७ राजमल्लदेवः ( ब०, ५० )। २ त्रिभुवनभव्यजन (4०, प. )। ५ बलमित्युच्यते ( ब०, ५०)। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:१ लोकसामान्याधिकार गाथा :--जिनके चरण सम्बन्धी नखों की किरणें बलदेव और नारायण की चूड़ामरिण की किरणों के समूह से लाल हो रही हैं, तथा जो तीनलोक सम्बन्धी भव्यजीवों को दानन्दित करने के लिये चन्द्रमा स्वरूप हैं ऐसे अत्यन्त निमंल श्री नेमिचन्द्र-नेमिनाघनामक बाईसवें तीर्थरूर को मैं श्रीनेमि वात्राय माता हूँ !: 11 विशेषाय :-यहाँ संस्कृत टीकाकार श्री माधवचन्द्र आचार्य ने भगवान् नेमिनाथ के विमलतर विशेषण की व्याख्या करते हुए कहा है कि द्रव्य और भावरूप मल अथवा शरीर मम्बन्धी धातु उपधातुरूप मल नष्ट हो जाने से जो विमल कहलाते हैं और स्वयं विशुद्धि को परम सीमा को प्राप्त हो अपने आश्रित रहने वाले जीवों के कमल का प्रक्षालन करने के कारण जो घिमलतर कहलाते हैं, एसे विमलसर अर्थात् अस्यन्त निर्मल बाईम सीथंकर को मैं नमस्कार करता हूँ। इम विमलतर विशेषण से यह मूचित होता है कि वे अपाय-अतिशय अर्थात् बाधक कारणों से रहित हैं। वे बाईसवें तीर्थङ्कर त्रिभुवनचन्द्र है अर्थात् तीन लोक का स्वरूप प्रगट करने के लिये चन्द्रमा के समान प्रकाशमान हैं। अथवा त्रिलोकवर्ती जीवों को हितकारन उपदेश देने से चन्द्रमा के सदृश आल्हाददायी हैं। इस विशेषण से ग्रन्थकर्ता ने उनके बबनरूप अतिशय अथवा प्राप्ति-अतिशय का वर्णन किया है। चलगोविन्द आदि विशेषग से यह सूचित किया है कि उन्हें बलभद्र और नारायण पद के धारक बलदेव और श्रीकृष्ण सदा मस्तक से प्रणाम करते थे तथा प्रणाम करते समय उनके मस्तक पर स्थित पद्मरागमणि की लाल लाल किरणों से उन भगवान के चरण नख लाल लाल हो जाते थे। इस तरह वे पूजातिगय से सम्पन्न थे। इस सन्दर्भ में जिनेन्द्र भगवान के अतिशयों का वर्णन करते हुए कहा है-- 'अपायप्राप्तिवाक्पूजाविहारास्थायिका ननु प्रवृत्तय इति ख्याता जिनस्यातिशया इमे ।।' अर्थात् अपाय, प्राप्ति, वचन, पूजा, विहार, समवशरण मभा और शरीर की निर्दोष प्रवृत्ति ये अरहन्त भगवान् के अनिशय कहे गये हैं । टीकाकार ने 'विमलसर नेमिचंद का एक अर्थ यह भी प्रगट किया है कि भगवान् जिनेन्द्र धर्मरूपी रथ के प्रश्न क होने से 'नेमि' ( चक्र की धारा हैं और भव्य जीवों के नेत्र और मन को आहादिन करने से 'चन्द्र' है. तथा मल से रहित होने के कारण विमलता हैं। इस तरह "विमलनर नमिचन्द्र' दाबद का अर्थ अत्यन्त निर्मल तीर्थकररूपी चन्द्रमा हाता है । अथवा 'यथास्थितमर्थ नयनि परिस्छिन नि इति नेमिः' इम व्युत्पत्ति के अनुसार नेमि का अर्थ ज्ञान होता है और विमलनर शब्द का अर्थ अत्यन्त निमल है "विमलत रश्चासो ने मिश्च' इस कमंधारय ममास से 'विमलतर नेमि' का अर्थ अत्यन्त निर्मल केवलज्ञान होना है और तेनोपलक्षितः चन्द्रो विमलतर नेमिचन्द्रः' इस समास के द्वारा पूर्ण पद का अर्थ अत्यन्त निर्मल केवलजान से सहित आलाददायक होता है । अथवा 'बिमलन रा रत्नत्रयपवित्रात्मानः, ते एव नेमयो नक्षत्राणि तेषां चन्द्र इव चन्द्रः स्वामी तम्' इन ममास के द्वारा विमलतर चन्द्र का अर्थ अन्तिम तीर्थकर अथवा चौबीस तीर्थरों का समूह होता है, क्योंकि जिनकी आत्मा रत्नत्रय से पवित्र है वे विमलतर कहलाते हैं और Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ त्रिलोकसार गाथा : २ नेमि शब्द का अर्थ नक्षत्र होता है, इस तरह जो रत्नत्रय के धारक मुनिरूपी नक्षत्रों के चन्द्र अर्थात् स्वामी है ऐसे अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामी अथवा सामान्य रूप से चौबीसों तीर्थंकरों का समूह ऐसा अर्थ होता है । इस पक्ष में 'त्रिभुवन चन्द्र' शब्दको व्याख्या इस प्रकार है- 'त्रिभुवनशब्देनात्र त्रिभुवनस्याविनेया ब्राह्याः तेषां चन्द्र इव प्रज्ञातलमोविनाशकः तम् ' अर्थात् जो तीनों लोकों में स्थित शिष्य जनों के अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिये चन्द्रमा के समान है। बलगोविन्द आदि विशेषरण का अर्थ करते हुये शब्द का अर्थ बजेट वोररूपं वा विद्यते यस्य स बल:' इस विग्रह के द्वारा बल से सहित और गां स्वर्ग विदति - पालयति इति गोविन्दः इस व्युत्पत्ति के अनुसार गोविन्द का अर्थ देवेन्द्र किया है। समुदाय में शक्ति सम्पन्न इन्द्र के चूड़ामणि की किरणावलों से जिनके चरणनख लाल लाल हो रहे हैं, यह अर्थ किया है। मात्र यह है कि जो सौ इन्द्रों के द्वारा वन्दनीय हैं। अथवा टीकाकार श्री माधवचन्द्र आचार्य अपने गुरु श्री नेमिचन्द्र आचार्य को नमस्कार करते हृये कहते हैं कि जो पच्चीस दोषों से रहित सम्यक्त्व, निर्दोष ज्ञान और निरतिचार चारित्र से पवित्र होने के कारण अत्यन्त निर्मल हैं ऐसे नेमिचन्द्र आचार्य को नमस्कार करता है। इस पक्ष में 'त्रिभुवन चन्द्र' विशेषण का अर्थ तीन लोक के जीवों के लिये धर्मामृत की वर्षा करने के कारण चन्द्रमा स्वरूप, होता है। अथवा चन्द्र का अर्थ सुवर्ण भी होता है इसलिये जो तीन लोक के जीवों के लिये सुबर के सद्दश उपादेय हैं । बल गोविन्द आदि विशेषण का अर्थ करते हुये 'वल का अर्थ चामुण्डराय राजा और गोविन्द का अर्थ राचमल्ल किया है. इस तरह चामुण्डराय और राजमल्ल के शिखामण की किरणों से जिनके चरणनख लाल लाल हो रहे हैं, अर्थात् उनके द्वारा जो निरन्तर वन्दित होते थे ऐसे नेमिचन्द्र आचार्य को मैं ( माधवचन्द ) नमस्कार करता ॥१॥ अथ प्रथमद्वितीयगाथाद्वयकृत चैत्य चैत्यालयनमस्कार करणेन नवदेवतानमस्कारं कुर्वन् ग्रन्थस्य पश्चाधिकारं सूचयन्नाह - भवणच्चितर जोइस विमाणणरतिरियलोयजिणभवणे । सच्चामरिंदर वह संपूजियवं दिए वंदे || २ || भव नव्यंतर ज्योतिविमानन रतिर्यग्लोकजिनभवनानि । सर्वामरेंद्रन पतिसंपूजितानि वंदे ॥ २ ॥ भवनध्पेस एज्योतिविमामन र सियं ग्लोक मिनभवनानि सर्वामरेंद्र नरपतिसम्पूजित भवरण । बंदितानि बंधे । २ ॥ आगे प्रथम और द्वितीय गाथाओं द्वारा किये हुए चैत्य और वैस्यालय के नमस्कार से नव देवताओं को नमस्कार करते हुए ग्रन्थ के पांच अधिकारों की सूचनारूप गाथा कहते हैं : अन्तमादियं जिणधम्मवयणपडिमाओ । निणिल इदि एवं वदेवादितु मे वोह ॥ ( ब० दि० ) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया।३ लोकसामान्याधिकार गाथार्ष:-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, विमानवासी, मनुष्यलोक और तियंग लोक में देवेन्द्र एवं चक्रवर्ती आदि से पूजित जितने जिनमन्दिर हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २॥ विशेषार्य :-इस त्रिलोकसार ग्रन्थ में इसी क्रम से भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक, मनुष्यलोक और तिर्यग्लोक इन पांच अधिकारों का वर्णन किया गया है ।।२।। गग तानि विनाम कुशागामामाह सव्वागासमणतं तस्स य नहुमज्झदिसमागम्हि । लोगोसंखपदेसो जगसेदिघणप्पमाणो हु ॥ ३ ॥ सकिाशमनंतं तस्य च बहमध्यदेशभागे । लोकोऽसंख्यप्रदेशो जगच्छ्रणिधनप्रमाणो हि ॥३॥ सम्व । सर्वाकाशमनंतं तस्य च महमध्यदेशभागे, बहवः प्रतिशयिताः रचनीकृताः प्रसंस्पाता पाकाशस्य' मध्यवेशा यस्य स बहुमध्यदेशः स धासौ भागश्च खण्डः तस्मिन् बहुमध्यदेशभागे । पथवा बहवः प्रष्टो गोस्तनाकाराः माकाशस्य मष्पवेशाः मध्यदेशे मस्य स तथोक्तस्तस्मिन् । लोकोऽपसंख्यप्रवेशः सागणार घनप्रमाणः खप्तु ॥५॥ उपयुक्त जिनभवन कहाँ हैं ? ऐसी शंका होने पर लोक का स्वरूप कहते हैं :--- गाथार्य :-सर्वाकाश अनन्तप्रदेशी है, और उसके बदमध्य भाग में असंख्यात प्रदेशो लोक है, जो जगच्छणी के घनप्रमाण है ।। ३ ।। विशेषार्थ :-अनन्तप्रदेशी सब काश के वहमध्य भाग में अतिशय रचनारूप जो असंख्यात प्रदेश हैं, वही आकाश के खण्डस्वरूप लोक है । अथवा जो गोस्तनावार आठ प्रदेशा आकाश के मध्य में हैं, वे ही आठ प्रदेश जिसके मध्य में हैं, ऐसे आकाश के खण्ड को लोक कहते हैं। लोक असंख्यात प्रदेशी है और वह निश्चयसे जगच्छ्रेणी के घनप्रमाण है। लोक के असंख्यात प्रदेश समसंन्यास्वरूप है, अतः एक प्रदेश मध्य न बन कर दो प्रदेशों का मध्य बनता है और लोक घनस्वरूप है, अतः दो प्रदेशों का घन रूप क्षेत्र आठ प्रदेशप्रमाण है। इन गोस्तमाकार आठ प्रदेशों की रचना निम्न प्रकार है : [ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ] १ वा आकाशस्य ( ब०, ५०)। २ जगच्छृ णी ' धन = ३७३ प्रमाणः ( २०, प.) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाय गाथा: -सुदर्शन मेरु +-मध्य के ४ प्रदेश-इन ४ प्रदेशों के नीचे ४ प्रदेश ऊंचाई (धन) की अपेक्षा मध्यप्रदेश बने हुए हैं । कपर नीचे के दो प्रदेशों का एक स्तन बनता है, इस प्रकार आठ प्रदेशों के चार स्तम बन गये। अतः ये प्रदेश गोस्तनाकार कहलाते हैं। विशेष ज्ञातव्य :--(१) लोकाकाश, अलोकाकाश के मध्य भागमें स्थित है, अतः जो अलोकाकाश के ८ मध्य के प्रदेश है, वे ही आठ प्रदेश लोकाकाश के भी मध्य प्रदेश बन जाते हैं, तथा सुदर्शन मेरु के नीचे ठीक मध्य में ये आठ प्रदेश स्थित हैं, अतः सुमेरु का मध्य भी इन आठ प्रदेशों पर ही होता है। (२) क्षेत्र परिवर्तन का प्रारम्भ गोस्तनाकार इन आर मध्य के प्रदेशों से होता है। जघन्य अवगाहना वाला सूक्ष्मनिगोदिमा जीव अपने आठ मध्य के प्रदेशों को इन आठ मध्य प्रदेशों पर स्थापित कर जन्म लेता है। जितने आकाश प्रदेशों को वह रोकता है, उतनी ही बार अपने आठ मध्य प्रदेशों को इन पर स्थापित कर जन्म लेता है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा:४. लोकयामात्याधिकार (३) इन आठ मध्य प्रदेशों के अवलम्बन से लोकाकाश की चार दिशाओं का व्यवहार होता है। (४) भरहन्त केवली तेरहवें गुणस्थान के अन्तमें जब केवलिंसमुद्घात करते हैं, तब लोक पूर्ण अवस्था में इन आठ मध्य के प्रदेशों पर केवली के आठ मध्य प्रदेश स्थित होकर लोकाकाश को त्याप्त करते हैं। अथ लोकविप्रतिपत्तिनिरासार्थमाह लोगो अकिहिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिव्ययो । जीपाजीवेहि फुडो सब्वागासवयवो णिच्चो ॥४॥ लोकः अकृत्रिमः खलु अनादिनिधनः स्वभावनिवृतः । जीवाजीवः स्फुटः सकाशाव ययः नित्यः ॥ ४॥ लोगो। प्रषिकारामतस्य लोकपपस्य पुनरुपादानं लोकमनूध दूषणा । लोकोस्तीति । पनेन विशेषणेन शून्यवावनिराकृतिः हता। प्रकृत्रिमः खलु, प्रमेश्वरकर्तृकरवं निराकृतम् । अनादिनिधनः । अनेन सृष्टिसंहार निराकरणं । स्वभावनिर्वसः। प्रमेन परमादारमतानिराकृतिः । बोपाजोवैः स्फुर: मनेम मायावारिनिराकरणं | सकिाशावयः । अमेन प्रलोकाभाववावापहारः । निस्यः । मनेन माणिकमनिरासः । एतावता सपनेम लोक्यत इति लोकः इति षाग्यसमवायस्प लोकत्वमुक्तम् ॥४॥. लोकके अन्यथा स्वरूप के श्रद्धान को दूर करने के लिये कहते हैं: गाथा :-निश्चय से लोक अकृत्रिम, अनादिनिधन, स्वभाव से निष्पन्न, जीवाजोवादि द्रव्यों से सहित, सर्वाकाश के अवयव स्वरूप और नित्य है ॥ ४॥ वियोषा:-लोक का अधिकार तो था ही, किन्तु यहाँ लोक शब्द का ग्रहण शून्यवादी का निराकरण और 'लोक है' इसकी सिद्धि के लिये किया गया है। अकृत्रिम-इस पद से 'लोक का कर्ता ईश्वर है' इसका खण्डन किया गया है। अनादिनिधनः-इस पद से सृष्टि का संहार मानने वाले मत का खण्डन किया गया है। स्वभावनिवृत्त:-इस पद से 'परमाणु वारा लोक का आरम्भ हुमा है' इस मान्यता का निरसन किया गया है। जीवाजीवः स्फुटः-इस विशेषण से 'लोक. मायामय है' इस मान्यता का खण्डन किया गया है। सर्वाकाशावयवः- इस विशेषण से जो अलोकाकाश का अभाष मानते हैं-उनके मत का निराकरण किया गया है। नित्य :--इस पद से लोक को क्षणिक मानने वाले शरिएकमत का बडन किया गया है। इस कथन से जो देखा जाता है, उसे लोक कहते हैं। अथवा यह प्रध्यों के समवाय को लोक कहते हैं। १ निरात्मकरणं (५०) । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० त्रिलोकसार इदानीं तदाधारस्याकाशस्य लोकरवमुच्यते धम्मम्मागासा गदिरामदि जीवपोग्गलाणं च । जावत्तावल्लोगो आयासमदो परमतं ॥ ५ ॥ गाथा : ५-६ धर्माधर्माका गतिरागतिः जीवपुद्गलयाः च । यावत्तावलोक आकाशं अतः परमनंतम् ॥ ५ ॥ धम्मा | धर्माधर्माकाशा गतिरागतिजवपुद्गलयोः चकारात् काला सावरण याववाकाशममिव्याप्य वर्तन्ते तावदाकाय लोकः प्रतः परमाकाशमम न संख्यातादि ॥ ५ ॥ द्रव्यों के माघारभूत आकाश को लोक कहते हैं:गाथार्थ :- धर्मद्रव्य, अधमंद्रव्य, आकाला और गति की एवं द्रव्य तथा च शब्द से ) काल द्वष्य जितने आकाश को अभिव्याप्त करते हैं उतने आकाशको लोक कहते हैं, इसके आगे अलोकाकाश है जो अनन्त है ॥ ५ ॥ विशेषार्थ :- जितने आकाश में छह द्रव्य पाये जाते हैं अथवा जितना आकाश छह द्रष्यों का आधार है, उसे लोक कहते हैं। लोक के आगे अनन्त अलोकाकाश है। आकाश द्रव्यमें लोक और अलोकका विभाजन धर्म, अधमं द्रव्य के कारण हुआ है। ये धर्म, अधमं द्रव्य जीव और पुद्गल की गति व स्थिति में कारण हैं। अथ परपरिकल्पित लोकसंस्थान निराकरणार्थमाह अन्तः ( ब०, १० ) । २ एकमुरजोदय: ( प० ) । उन्मियदलेकमुखद्धयसंचयमणिहो हवे लोगो । अद्भुदयो मुरवसमो चोदसरज्जूद सब्द ।। ६ ।। उद्भूतलक मुरजध्वज समयसन्निभो भवेत् लोक | अर्धोदयः मुरजसमः चतुर्दशरज्जूदयः सर्वः ॥ ६ ॥ उभय । उभी मूलमुरक सुरज समिः । प्रत्र' शून्यतानिराकरणार्थ सभी भवेल्लोकः । प्रमुरजोषय: एक मुरजोवयसमः मिलित्वा सर्वलोकातुवंशरज्जूदय ॥६॥ अब अन्यवादियों द्वारा परिकल्पित लोकरचना के निराकरण हेतु कहते हैं : -- गाथार्थ :- लोक का आकार खड़ी (ऊभी) डेढ़ मृदङ्ग के सदृश है। तथा मध्य में भी ध्वजाओं के समूह सह भरितावस्था स्वरूप है, शून्य नहीं है । अर्धमृदंग के समान अधोलोक और एक मृदंग के समान ऊर्ध्वलोक है, तथा दोनों को मिलाकर सवं लोक चौदह राजू ऊंचा है ॥ ६ ॥ विशेषार्थ :- लोक का आकार डेढ़मृदंग के समान कहा, उसका अर्थ यह नहीं है कि लोक मृदंग के समान बीच में पोला भी है, किन्तु वह तो बजाओं के समूह सहरा भरा हुआ है । अघं मुर Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ७ लोकसामान्याधिकार की ऊंचाई और एक मुरज की ऊंचाई मिला कर सम्पूर्ण लोक की चौदह राजू ऊंचाई ( उदय ) कही गई है। यहाँ पर लोक को डेह मृदंगाकार कहा गया है, उसका भाव यह है कि जैसे अर्ध मृदंग नीचे से चौड़ा और ऊपर संकरा होता है । असी प्रकार अधोलोक नीचे मान राज चौड़ा है, और कम से घटना हुआ ऊपर एक राजू चौदा रह गया है। इसके ऊपर एक मृदंगाकार ऊध लोक कहा गया है । इसका भाव भी यह है कि जैसे मृदंग नीचे ऊपर संकरा और बीच में चौड़ा होता है, उसी प्रकार ऊध्वंलोक भी नीचे एक राजू चौड़ा है इसके ऊपर कम से बढ़ता हुआ बीच में ५ राजू चौड़ा हो जाता है । पुनः क्रम से घटता हुआ अन्त में एक राजू चौड़ा रह जाता है। मृदङ्गाकार कहने का यह भाव नहीं है कि लोक मृदङ्ग के सदृश गोल है यदि लोक को मृदङ्ग के सदृश गोल माना जाय तो अधोलोक का धनफल १०६ घन राज तथा ऊर्ध्वलोक का घन फल ५८६३५ धन राजू प्राप्त होता है। इन दोनों को जोड़ने में मृदङ्गाकार गोल लोक का क्षेत्रफल १०६ +५८१५ - १६४३ घन राजू प्राप्त होता है। जो ३४३ घन रान के संध्यातवें भाग प्रमाण है । अतः लोक चौकोर है। क्योंकि चौकोर लोक का घनफल ७ राज के ( श्रेणी के ) घन स्वरूप ३४३ धन राजू प्राप्त है । ( धवल पु० ४ पृष्ठ १२-२२)। अथ प्रसङ्गायात रज्जुप्रतीत्यर्थमाह जगसेढिमचमागो रज्ज सेढीवि पल्लछेदाणं । होदि असंखेअदिमम्पमाणविदगुलाण हदी ।। ७ ।। जगमलेरिणसप्तमभाग: रजः घरिणरपि पल्यच्छेदानाम् । भवति असंख्येयप्रमाणवृन्दांगुलानां हृतिः ॥ ७॥ जग। अङ्कसंरष्टिप्रवर्शनद्वारेण गामार्यों विनियले । जगण्याः १८४२= सप्तम भागो रज्जुः । बरिणापि केस्यत्रोच्यते । पस्य १६ छेवानां ४ पसंख्येय भाग २ प्रमितवृन्दाज गुलामा ४२६५= ४२ = ६५= परस्परा हतिः श्रेणिः १८= ४२ = ॥७॥ अन्न प्रसङ्गवश राजू का स्वरूप कहते हैं : गाचार्य :--पल्य के अघच्छेदों में असंख्यात का भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उतनी बार धनांगुलों का परस्पर में गुणा करने पर जगच्छ शी होती है, और जगच्छ पी के सातवें भाग प्रमाण राजू होता है ।। ७ ।। विशेषापं:- जगच्छेणी के सातवें भाग को राजू कहते हैं जैसे जगच्छणी का प्रमाण वादाल से गुणित एकट्ठी-(६५५३६४४६५५३६२ ) है । उसमें सात का भाग ( ६५५३६" x ६५५३६२ ) देने पर जो एक भाग प्राप्त हो वह राजू का प्रमाण है । अथवा एकट्टी ( १८= 1 X बादाल ( ४२ = }राज का प्रमाण प्राप्त होता है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : ८-९ जगच्छुणी का प्रमाण-पज्य के अर्धच्छेदों में असंख्यात का भाग देने पर जो एक भाग आवे उतनी बार पनांगुलों का परस्परमें गुणा करने पर जगच्छ णी का प्रमाण प्राप्त होता है । जैसे—मान लो अङ्कसंदृष्टि में पल्य का प्रभागा १६. असंख्यात का प्रमाण २ और धनांगुल का प्रमाण ४२= x ६५= अथवा ६५५३६' है । अतः पल्य { १६ ) के अधच्छेद ४६२ असंम्यान ) =लब्ध २ आया, इसलिये दो बार धनांगुलों ( ६५५३६' x ६५५३६' ) का परस्पर में गुणा करने से जगच्छेणी का प्रमाण प्राप्त होता है । अर्थात् ( ६५५३६ x ६५५३६२)xt६५५३६ ४६५१६६२ = ६५५६६२४६५५३६५ ( वादाल x एकट्ठी) अथवा ( ४२ ४६५ = ) X (४२= x ६५ - ) प्रमाण जगच्छेणी होती है । यहाँ सूच्यंगुल=६५५३६ और धनागुल = ६५५३६' है। अथ वृन्दांगुलप्रतिपत्त्यर्थ माह पल्लनिदिमेच पल्लाणण्णोण्णहदीए अंगुलं सूई । तन्नपणा कमसो पटरघणंगुल समक्खादो ||८|| पल्यच्छदमापल्यानामन्योन्यहृत्या अंगुलं सूची। तर्गधनी क्रमश: प्रतरघनांगुले ममाख्याते ।। ८ ।। पहल । पल्य १६ छेश ४ मात्रपल्यानt (१६४१६४१६४१६ ) मन्योग्यहत्या सूख्य शुलं ६५ -- सवर्गघनौ प्रतर ४२= धनागुले ४२ = x ६५ मशः समास्याते | अब धनांगुल का स्वरूप बताते हैं : पापा :-पल्प के जितने अचंच्छेद होते हैं, उतनी बार पल्य का परस्पर में गुणा करने से सूच्यंगुल का प्रमाणा प्राप्त होता है। इस सूच्यंगुल के वर्ग को प्रतरागुल और इसीके घन को घनांगुल कहते हैं ॥ ८ ॥ विशेषार्थ :-मानलो-पस्य का प्रमाण १६ है । इसके प्रर्धच्छेद ४ हुए, अतः चार बार पल्म (१६४१६४१६४१६ ) का परस्पर में गुणा करने से सुच्यंगुल ६५%D ( ६५५३६ ) प्राप्त हुआ। इस सूज्यंगुल के वर्ग ४२= ६५५३६ ४३५५३६ ) को प्रतरांगुल तथा सूल्यंगुल के धन ( ६५५३६२४ ६५५३६ ) या ( ६५५३६४६५५३६ ४६५५३६ ) = ६५५३६३ को ( ४२.४६५ = ) घनांगुल कहते हैं। अथ मानप्रतीत्यर्थ प्रक्रियामाह माणं दुविहं लोगिग लोगुत्तामेत्य लोगिनं छद्धा । मागुम्माणोमाणं गणिपडिनप्पडिपमाणमिदि ।। ९ ।। मानं द्विविधं लौकिक लोकोत्तरमत्र लौकिक पोढा । मानोन्मानावमानं गणिप्रतितत्प्रतिप्रमाण मिनि ।।९।। मारणं । मान विविध लौकिकं लोकोत्तरमिलि । प्रत्र लौकिक पोळा मानोन्मानापमानगरिणमानप्रतिमामताप्रतिमानमिति ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १०-११-१२ लोकसामान्याधिकार अब मान के भेद प्रभेद कहे जाते हैं :-- गायार्थ :--मान दो प्रकार का है। १ लौकिक मान, २ अलौकिक मान । लौकिक मान छह प्रकार का है-मान, उन्मान, अवमान, गणि मान, प्रतिमान और तत्प्रतिमान ॥९॥ विशेषार्थ :-सुगम है। एतेपा पण्णां यथासंख्यं दृष्टान्तमुवनोपपत्तिमाह-- पस्थतुलचुलुयएगप्पहुदी गुंजातुरंगमोलादी । दब्धं खितं कालो भावो लोगुत्तरं चदुधा || १० ॥ प्रस्थतुलाचुलुके प्रभूति गुञ्जातुरंगमुल्यादि । द्रव्यं क्षेत्र कालो भावो लोकोत्तर चतुर्धा ॥ १७ ॥ पस्थ | पति तुलापमुनि मुटुमा काम गुजावि तुरङ्गमूल्यायोति । इतो लोकोत्तरमाम मेव उच्यते ।ग्य क्षेत्र कालो भाव इति लोकोत्तरं चतुर्था ॥१०॥ इन छह मानों की यथाक्रम दृष्टान्तपूर्वक उत्पत्ति इस प्रकार है : गाथार्थ :--प्रस्थ, तुला, चुल्ल. एकादि, गुजाफल और घोड़े आदि का मूल्य ये क्रमशः लौकिक मान हैं, और द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव ये चार लोकोत्तर मान हैं ॥१०॥ विशेषाय :-अनादि का जिससे माप किया जाता है, ऐसे प्रस्थादि को मान; तुलादि को उन्मान; चुम्ल से जो जलादि का माप होता है, उसे अवमान; एक, दो, तीन आदि को गणिमान; गुआदि के माप को प्रतिमान और घोड़े के अवयवादि देख कर मूल्य करने को तत्प्रतिमान कहते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये चार लोकोनर मान हैं। अथ तेषां चतुण ययासंख्येन जघन्योत्कृष्टप्रतीत्यर्थ गाथाचतुष्टयमाह-- परमाणु सयलदध्वं एमपदेमो य सबमागाम । इगिसमय सन्चकालो सुहमणिगोदेस पूण्णेसु ।। ११ ।। णाणं जिणेसु य कमा अबर वरं मज्झिम अणेयविहं । दव्यं दुविहं संखा उपमपमा उवम अविहं ।।१२।। परमाणुः सकलद्रध्य एकप्रदेश: च. सर्वमाकाशम् । एकसमयः सर्वकाल: सूक्ष्म निगोदेषु अपूर्णेषु ।। ११ ।। ज्ञानं जिनेषु च कमात् अवरं वरं मध्यम अनेकविधम् । द्रव्यं द्विविध संख्या उपमाप्रमा उपमाष्टविधा ॥ १२ ॥ परमाणु । परमाणुः १ सकलद्रव्यं १६ व एकप्रदेशः १ सर्वमाकामं १६ खसख एकसमयः १ सकाल: १६ स स सूक्ष्मनियोबलध्यपर्याप्तकेषु नानम् ।। ११ ।। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा: १३ णायं । जिनेषु च शानं क्रमाउनघन्यमुत्कृष्ट मध्यम भनेकविध । तत्रापि द्रव्यं निषिधं संख्याप्रमारणमुपमाप्रमाणमिति । तत्रोपमाप्रमाणमविषं । पल्पमतपयमावो वक्तव्यमिति न्यायेन यथोक्तोद्दशेन' निर्देशं मुपाया उपमामेव उच्यते । उपमा प्रष्टविधेति ॥१२॥ लोकोत्तर चारों मानों की क्रमसे जघन्योत्कृष्ट की प्रतीति के लिए चार गाथाएं कहते हैं गाथार्थ :-द्रव्यमानमें जघन्य एक परमाणु और उत्कृष्ट मम्पूर्ण द्रव्य समूह क्षेत्रमान में जघन्य एक प्रदेश और उत्कृष्ट सब काश; कालमान में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट सर्वकाल; भावमान में जघन्य सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपप्तिक का पर्याय नाम का ज्ञान और उत्कृष्ट जिनेन्द्र भगवान में केबलज्ञान-इस प्रकार क्रम से जघन्य और उत्कृष्ट मान हैं। मध्यम मान अनेक प्रकार का है। द्रव्यमान दो प्रकार का है। संख्या प्रमाण और उपमा प्रमाण । उपमा प्रमाण आठ प्रकार का है ।।११-१२।। ___विशेषार्थ :- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार में से द्रव्य मान के दो भेद हैं-संख्या प्रमाण और उपमा प्रमाण । जिसका कथन अल्प है उसे पहले कहना चाहिये । इस नियम के अनुसार उपमा प्रमाण के भेद पहले कहत है । वह आः प्रकार का है। कारण प्रतिपतिपूर्वकत्वात् कार्यप्रतिपत्त रिति तामपि त्यजति तं उबरि भणिस्सामो संखेजमसंखमणतमिदि ति विह। संखंतिल्लदु तिविहं परिचजुति दुगवारं ।। १३ ।। तामुपरि भणिष्यामः संख्येयं असंख्य मनन्तमितिविविधम्। संख्यं अन्तिमद्धिक त्रिविध परील युक्त इति त्रिकतारम् ।।१३।। तं उपरि । तामुपरि भरिगण्याम इति । प्रवशिष्ठभेव उच्यते--संख्येयं, असंख्यं, प्रमन्तमिति त्रिविषम् । संख्यं प्रन्तिमविक विविध परीतं युक्त हिरवामिति ॥१३॥ कारण का ज्ञान होने पर ही कार्य का ज्ञान होता है, इस न्यायानुसार उपमाको भी छोड़ते हैं पायार्प :--उस उपमा प्रमाण को आगे कहेंगे 1 संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद से संख्या प्रमाण तीन प्रकार का है । इसमें संख्यात एक ही प्रकार का है। किन्तु असंख्यात और अनन्त परीत, युक्त और द्विकवार के भेद से तीन तीन प्रकार के हैं ||१३|| विशेषार्थ :-संख्यात एक ही प्रकार का है। किन्तु परीतासंख्यात, युक्तागंख्यान और असंख्यातासंख्यात के भेद से असंख्यात तीन प्रकार का है । तथा परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त के भेद से अनन्त भी तीन प्रकार का है। इस प्रकार तीनों के कुल सात भेद हार। १ यथोद्देशन ( व०, प.)। २ तिविहा ( ब०, प.)। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसामान्याधिकार ते व्यवर मज्झ जेदु तिविधा संखेज्जजाणणणिमित्तं । अणवत्थ सलागा पडिमहासला चारि कुंडाणि ॥ १४ ॥ तानि अवरं मध्यं ज्येष्ठ त्रिविधा संख्येयज्ञाननिमित्तम् । अनवस्था शलाका प्रतिमहाशला चत्वारि कुण्डानि ।। १४ ।। ते अवर । तानि सप्तापि स्थानानि नघम्यं मध्यमं उत्कृष्टमिति त्रिषा । संक्षयज्ञाननिमित्तं धनवस्था शलाका प्रतिशलाका महाशलाकेति च चत्वारि कुण्डानि कल्पयिष्यानि ॥ १४ ॥ गाथा : १४ गाथार्थ :- ये सातों ही स्थान जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन तीन प्रकारके हैं। यहाँ संख्या का ज्ञान करने के लिये अनवस्था शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका ऐसे चार कुण्डों की कल्पना करना चाहिये ||१४|| विशेषार्थ :- संख्या प्रमाण के प्रधानतः संख्यात, असंख्यात और अनन्त इस प्रकार तीन भेद किये थे । उनमें से संख्यात का ज्ञान कराने के लिये यहाँ निम्नलिखित चार कुण्डों की स्थापना की जाती है। जैसे : प्रथम अनवरर्था कुण्डे शलाका कुण्ड १५ प्रति शलांका कुण्ड महा शलाका कुण्ड १ ( ब०, १० ) प्रती च नास्ति । इन चारों कुण्डों का व्यास एक लाख योजन का तथा उत्सेध ( गहराई ) एक हजार योजन का है। ये चारों ही कुण्ड वृत्ताकार गोल हैं । १ अनवस्था कुण्ड :-जिन कुण्ड का प्रमाण अनवस्थित है, वह अनवस्था कुण्ड है। प्रथम अनवस्था कुण्ड का व्यास एक लाख योजन का है, किन्तु दूसरे, तीसरे आदि अनवस्था कुण्डों का व्यास पूर्व पूर्व अनवस्था कुण्ड से संख्यात व असंख्यात गुणा है। गलाका आदि कुण्डों के समान इस अनवस्था कुण्ड का व्यास अवस्थित नहीं है। अतः इसका नाम अनवस्था कुण्ड है । २ शलाका कुण्ड : अनवस्था कुण्ड के एक बार भर जाने पर जिस कुण्ड में एक सरसों डाली जाती है, उसे शलाका कुण्ड कहते हैं । अनवस्था कुछ कितनी वार भर गया, उसका ज्ञान इस कुण्ड 'के द्वारा होता है, अर्थात् यह कुण्ड अनवस्था कुण्ड की शलाकाओं को बतलाता है अतः इस कुण्ड का नाम शलाका कुण्ड सार्थक है । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाँकि जमान 21 ईस्वी) Jetta fel - अवमान (आदि) -गमन (संख्या) -तत्वति मत घोड़े i संत्यात 1 आदि) 1 [gi]] पा मध्यम सख्यकर धन्य जय जव सधन्य THR सरख्या प्रमाण अंकृष्ट संख्या माध्यम जकय प्राप्त +--- उत्कृष्ट + 6, मध्यन दन्यमात पीएन उत्कृष्ट मध्यम युक्ता मुख्यान व्यत সদঃ i मध्यम भागर 1 उद्वार पन्य च्यवहार पटना अद्धामध्य जिमी रिमहखना है (द्वीप समुद्रका) (जर्मन) मूव्यङ्गल मान नiva क्षेत्रमान आवास रख 3rgh 12 पराङ्गुल यस ज्यान चल उत्कृष्ट पीतान्त T. МЛА तत्य जवन्य T उच्छम अनुना माले t स मुक्तानना अजना कट די कृष्ट मध्यम जगद्रेणी पट J जगदार 1 लोकल भा माध्यमात जय मध्यम उत्कृष्ट उपमा प्रमाण धनको 3 4) त्रिलोकसार गाथा १४ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ गाषा: १५ लोकसाभाल्याधिकार ३ प्रतिकालाका:-शलाका कुण्ड के एक एक वार पूर्ण भरे जाने पर प्रतिषालाका कुण्ड में एक एक सरसों डाली जाती है अर्थात् इस कुण्ड के द्वारा शलाका कुण्ड की शलाकाओंका बोध होता है । अत: इसका नाम प्रतिशलाका कुण्ड सार्यक है। ४ महासलाका कुण्ड:-प्रतिशलाका कुण्ड के प्रत्येक वार भर जाने पर इस मन्तिम कुण्ड में एक सरसों डाली जाती है। यह कुषष्ठ प्रतिशलाका कुण्ड की शलाकाओं की गणना बतलाता है, अतः इसका नाम महाशलाका कुण्ड है।। अप चतुर्णा कुण्डानां व्यासादिप्रतीत्यर्थमाह जोयण लक्खं वासो सहस्समुम्सेहमेत्य सम्वेसि । दुप्पहदिसरिसवेहिं अणवस्था पूरयेदव्वा ।।१५।। योजन लक्ष व्यास: सहनमुत्सेधः अत्र सर्वेषाम् । द्विप्रभृतिसर्षपैः अनवस्था पूरयितव्या ।। १५ ।। जोयण । योजनालशं व्यासः सहस्रमुस्सेषः स्यात् । प्रत्र सर्वेषां कुण्यामा विप्रतिसपरमवल्या पुरमितम्या ॥१५॥ अब चारों कुण्डों के ध्यास आदि की प्रतीति के लिए कहते हैं गाथा:-चारों कुण्डों का व्यास एक लाख योजन और उत्सेध एक हजार योजन प्रमाण है। इनमें से जिसके आदि में दो हैं ऐसे अनेकों सरसों से अनवस्था कुण्ड को भरना आहिये ॥१शा विशेषार्य :-अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका ये चारों कुण्ड गोल हैं। इन कुण्डों का व्यास १००००० योजन और उत्सेध १००० योजन है । इनमें से बनवस्था कुण्ड को दो आदि सरसों से भरना चाहिये। गोल वस्तु के बीच की चौड़ाई का नाम व्यास है । जैसे --मासन गोल वस्तु की गहराई या ऊंचाई का नाम उत्सेध है । जैसे Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मिलोकसार गाथा:१६-१७ द्विप्रभृतिभिरिति किमिस्याशङ्कामपनुदलाह एयादीया गणणा बीयादीया हति संखेज्जा । तीयादीणं' णियमा कदिचि सण्णा मुणेदब्बा ||१६|| एकादिका गणना व्यादिकाः भवन्ति संख्याताः । त्र्यादीनां नियमात् कृतिरिति मंज्ञा मन्तव्या ॥१६|| एया । एकालिका गणना गमाविका संख्याता भवन्ति यावीमा नियमाव कृतिरिति संज्ञा भातम्या । यस्य कृती मूलमपमीर शेषे नित वषिते' हा कृतिरिति । एकस्य दोश्च कृतिलारणाभावात एकस्य नोकृतिस्वं तयोरवक्तव्यमिति' कृतित्वं । व्यावीनामेव तलक्षणयुक्तस्वार कृतित्वं युक्तम् ॥१६॥ दो आदि सरसों क्यों कहे । इसका समाधान गावाचं :-एक को मादि लेकर गणना और दो को आदि लेकर संख्यात होता है, तथा नियम से तीन को आदि लेकर कृति संज्ञा होती है ।। १६ ।। विशेषार्थ :-गणना एक के अद्ध से प्रारम्भ होती है, यह एक की संख्या गणना होते हुये भी नोकृति है, क्योंकि एक संध्या का वर्ग करने पर वृद्धि नहीं होती, नथा जममें से वर्गमूल के कम कर देने पर वह निमूल नष्ट हो जाती है । जैसे :-१४१-१-१-० अतः एक का अङ्घ गणना होते हुये भी नोकृति है। संख्यात:-संख्यात दो के अङ्ग से प्रारम्भ होता है । अर्थात् २ का अजघन्य संख्यात है। यह दो का अङ्क अवक्तव्य कृति है, क्योंकि दो का वर्ग करने पर इसमें वृद्धि तो देखी जाती है, किन्तु इसके वर्ग में से मूल घटा कर वर्ग करने पर वृद्धि नहीं होती । जैसे :-२४२-४ वृद्धि तो हुई किन्तु ४-२२४२-४ यहां वृद्धि नहीं हुई, अत: दो का अक अवक्तव्य कृति है। कृति:-कृति तीन को संख्या को आदि लेकर होती है, बयोंकि जो राशि वर्गित होकर वृद्धि को प्राप्त होती है, और अपने वर्ग में से अपने वर्ग के मूल को घटा कर शेष का वर्ग करने पर दृद्धि को प्राप्त होती है, उसे कृत्ति कहते हैं। जैसे :--३ ४ ३ = १-३ मूल राशि-६४६ ३६ यहाँ वृद्धि हुई, अतः तीन का अङ्क कृति है। अथोक्तयोजनलक्षभ्यासकुण्डस्य समस्तक्षेत्रफल "ज्ञापनार्थमाह-- पासो तिगुणो परिही वास चउत्थाहदों दुखेसफलं । खेतफलं वेहगुणं खादफलं होइ मुम्वत्थ ॥१७|| १ तेमादीणं ( ५०)। २ मुगेयब्बा (ब)। ३ रद्धं ते ( ब० ५०)। ४ वयोग्वक्तव्यकृतित्व (ब.प.)। ५ क्षेत्र स्थूनफल ( 10 ) । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:१७ लोकसामान्याधिकार व्यासस्त्रिगुणः परिधिः ध्यासचतुर्थाहतस्तु क्षेत्रफलम् । क्षेत्रफलं वेधगुणं खातफलं भवति' सर्वत्र ॥१७॥ बालोण्यासत्रिगुणः परिधि, ग्यासचतुपाशहतस्तु क्षेत्रफल क्षेत्रफलं वेषारिणतं मातफलं भवति सर्वत्र कुलेषु ॥१ल. म्यासः ४३=३ ल. परिधि: । ०४३ ल. क्षेत्रफल । ३.x ०४१००० = जातफलं । जय व्यासखिगुण इत्यस्य वासना कम्पते। योजनलमव्यासवृत्तं १ल. मर्षीकृत्य सवर्ड पुनरप्यकृित्य मध्यममाण्डर यमेलने पद्धं स्यात् । पुमः परिधे. षष्ठानं गत्वाकृित्य एताईद्वयं प्रत्येकमर्षीकृस्य मध्यमानेखने गरेका सा गुनावि काग: gशं गत्वा तथाकृते षडानि भवन्ति । तेषां षण्णां मेलनेल. अपहते च व्यासस्त्रिगुण इत्यस्य वासना भवति । इवानी यासचतुर्याहत इत्यस्य वासना निक्षम्यते। शकुलीजासतवासकुण १ ल. कविता मध्यपर्यन्तं विस्था विरलम्पायत्रिकोणं संस्थाप्य पुनरपि मुखमूमिसमासाथ मध्यफलमिति मध्यफलं सापयित्वाल. तत्पर्यन्तमूविधः शिवा साडये पायतचतुरस्र ययामवति तथा कमहोनपावचंद्रये स्थापिते क्षेत्रस्य व्यासचतुर्याहतत्वं भवति ॥१७॥ अब पूर्वोक्त एक लास्त्र योजन व्यास वाले कुण्ड का समस्त क्षेत्रफल कहते हैं गाथार्ष:-व्यास के प्रमाण को तिगुणा करने से परिधि का प्रमाण होता है। व्यास के चतुर्थांश से परिधि को गुणित करने पर क्षेत्रफल तथा क्षेत्रफल को वेध से गुरिणत करने पर सर्वत्र खात ( धन ) फल प्राप्त होता है ।। १७ ॥ विशेषार्ष:-कुण्ड का व्यास १ लाख योजन है । इसे तिगुणा ( १ ल.४३ ) करने से परिधि ३ ल योजन प्राप्त होती है। व्यास के चतुर्थाशल से परिधि ( ३ ल ) को गुणित करने पर ३ लx १ले कुण्ड का क्षेत्रफल एवं क्षेत्रफल को १००० योजन वेध से गुरिणत करने पर इल x १x१००० सब कुण्डों का खातफल प्राप्त होता है। परिधि व्यास की तिगुणी होती है ? इसको बासना अर्थात् विश्वास को प्रतिपत्ति के लिये दृष्टान्त कहते हैं : एक लाख योजन व्यास वाला गोलाकार क्षेत्र है इसे आधा १ विश्वास प्रतिपत्त्ययं दृष्टान्तः कथ्यते । ( न प्रति ) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा:१७ कर एक.बार पुनः आषा १/२ करना चाहिये । इन चारों खण्डों Dems bipia ---- ......... में से मध्य के दो खण्ड मिला देने पर मध्य में अधक्षेत्र Ca ३ हो जाता है। परिधि के छठवें भाग जाकर पुनः आधा करने पर ये दो अर्ध भाग प्राप्त होते हैं, अब इनमें १५.०८-- प्रत्येक का अर्थ भाग करके मध्य के दो खण्ड मिला देना चाहिये । पुनः इसी प्रकार परिधि के छठवें भाग जाकर इस प्रकार करने पर छह IX अध X ) हो जाते हैं। इन छहों अर्ध भागों को मिलाने पर + + + + +, प्राप्त होते हैं। हर के २ से अषा के ६ को अपवर्तित करने पर ३ल प्राप्त होते हैं, अर्थात् व्यास से तिगुणी परिधि होती है यह सिद्ध हो जाता है Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:१७ लोकसामान्याधिकार अब वृत्ताकार क्षेत्र का क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिये व्यास के चतुर्थ भाग से गुणा क्यों किया जाता है ? उसकी वासना कहते हैं : कर्ण की गोलक सहश आकार का नाम शष्कुलि है ! इस कर्ण को गोलक सदश कुण्ड ( शकुलि) - - व्यास- 7 का व्यास एक लाख योजन है। एफलाम d. नीचे और मध्य से छेदकर फैलाने पर एक लम्बा इसी १ लान व्यास नारे तन को त्रिकोणाकार क्षेत्र बन जाता है । यथा ३लाख इसी आयत त्रिकोण क्षेत्र को मुख से भूमि तक आधा करने पर मध्य फल प्राप्त होता है, ' जिस मध्य फल का प्रमाण लाख योजन है । इसी क्षेत्र को ऊर्व से मध्यफल तक छेदने पर दो खण्ड हो जाते हैं । यया- मला स इलाम इन दोनों खण्डों का नाम कम से 'अ' और 'ब' है। अब इन दोनों खण्डों को अपः खण्ड 'स' के क्रम से घटते हुये दोनों पारवं भागों में स्थापित करने पर आयत चतुरस्र क्षेत्र प्राप्त होता है। इस आयत चतुरस्र क्षेत्र का क्षेत्रफल व्यास के चतुर्थांश(१) से गुणित करने पर प्राप्त हो जाता है। यथा लारन लाख सर ३लाख इसीलिये वृत्ताकार का क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिये परिषि को व्यास के चौथाई भाग से गुणित किया जाता है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : १८ गोल वस्तु के घनफल निकालने का नियम :- परिधि में व्यास की चौपाई का गुणा कर उसी में उसके वेध ( गहराई ) का गुणा करने से खातफल अर्थात् घनफल प्राप्त होता है । जैसे - मानली:व्यास र इन्न, परिधि ६ इन्च और गहराई ३ इंच है। अतः ६४३ x ३ = ९ धन इन्च धनफल हुआ । कुण्ड का क्षेत्रफल:- यहाँ अनवस्था कुद्ध का व्यास जम्बू द्वीप प्रमाण अर्थात् एक लाख योजन का है, और उसकी परिधि तीन लाख योजन की है। अत: ३ X ल ( व्यास की चौथाई ) = ३ल x रेल यह कुण्ड का क्षेत्रफल हुआ । २२ घनफल :- इलल क्षेत्रफल में सुदर्शन मेरु की जड़ प्रमाण कुण्ड की गहराई ( १००० यो० ) से गुणा करने पर धनफल प्राप्त होता है, अतः ३ x x १००० योजन यह कुण्ड का घनफल है । शेष तीनों कुण्डों का यही प्रमाण, यही क्षेत्रफल और यही घनफल है। स्थूल क्षेत्रफल माग्यो जनस्य व्यवहारयोजनादियां कुनाह धूलफलं वत्रहारं जोयणमचि सरित्रं च कादव्वं । चउरस्सरिसवा ते गवसोडस भाजिदा वट्ट || १८ || स्थूलफलं व्यवहार योजनमपि सपत्र कर्तव्यः । चतुरस्रमपास्ते नवपोश भाजिता वृत्तम् ॥ १८ ॥ फलं । स्थूलफलं ३ x १ x१००० एस। एकप्रमाणयोजनस्य पञ्चशतध्यबहार योजनानि । ईयां प्रमायोजनामा किमिति शशिकविधिना व्यवहारयोजनं कर्तव्यं । अपि शब्दात् पुनरवि राशिविधिमेष योजन प्र० १ क्रोश ४ । कोश १ दण्ड २००० । इण्ड १ हस्त ४ हस्त १ अंगुल २४ परस्पर गुनेनैव कृतं योजनांसानि ७६८००० सवश्च ८ कर्तव्यानि सर्वपश्च कर्तव्यः | 'घनराशे १ ल कारभागहारी धनरूपेण भवत' इति न्यायेन एते सर्वे गुएाकाराः घनरूपेण भवन्ति - x १ x १००० × ५००' x ७६८००' x ८' x ८' । एसे सर्वे चतुरस्रसवा भवति । एते नव षोडशो भक्ता वृतसपा । "हारस्य हारो गुरुकोशराराशेः" इति पोष्टशापि गुणकारो भवति । काकं द्विकरूपे विरलक्ष्य राशर पञ्चशतानि गुणयित्वा तत्र राशी स्थितानि सर्वारिण शून्यानि एकत्रिशत्संख्याकानि पृथक कर्तव्याति । पुनरप्येकाटक तथा विरलय्य संस्कृत्रिगुणयित्वा १६ १६ १६ प्राक्तमोक्षश सहित] चतुः षोडशान परस्परगुणने पप्पाट्ठि ६५५३६ गुलाङ्क ७६८७६६७६८ त्रिभिभवयित्वा २५६ × ३ × २५६ × ३ × २५६४३ सदगुरूने पणहिता, पण्योर्द्वयोर्गुणने बादाममृत । परस्परतित्रिकद्वयं प्रवशिष्टाष्टकेन भागहारचतुभिः समं चतुभिरपतितेन २ गुणयेत् । परत्रिकद्वयं संगुण्य भागहारेण नवभिः सममपयतंयेत् राशिभवति । ४२ - २५६ x ६x२ एकत्रिशत् शुभ्याः ॥ १८ ॥ ब० प० प्रती कर्तव्यानि नाम्ति । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८ लोकसामान्याधिकार स्यूल क्षेत्रफल स्वरूप प्रभाग योजनों के व्यवहार योजनावि बनाने लिये कहते हैं :___गाथार्ष:- स्थल क्षेत्रफल के व्यवहार योजन और व्यवहार योजन के सरसों बनाना चाहिये । तथा चौकोर सरसों में पर का भाग देकर गोल सरसों का प्रमाण निकलना चाहिये ॥ १८ ॥ विशेषार्थ :-तारतम्य विना स्थूल रूप से निकाले हुए क्षेत्रफल को स्थल क्षेत्रफल कहते हैं । यहाँ स्थूल क्षेत्रफल में ३ल ल ४१.०० प्रमाण योजन हैं, एक प्रमाण योजन के ५०० व्यवहार योजन होते हैं तो ल ल ४१००० प्रमाण योजनों के कितने व्यवहार योजन होंगे, इस प्रकार राशिक कर ध्यवहार योजन निकालना। विशेष ज्ञातव्य :-जो' द्रश्य, आदि मध्य एवं अन्त से रहित हो, एक प्रदेशी हो, इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य एवं विभाग रहित हो उसे परमाणु कहते हैं। इस प्रकार के अनन्तानन्त परमाणु-द्रव्यों से एक अवमन्नासन्न मन्त्प न्न होता है। ८ अबसन्नासन्नों का एक सन्नासन्न नाम का स्कन्ध होता है। ८ सन्नासन्नों ५५ युटिरेणु " " । ५ त्रुटिरेणुओं " . सरेण . . । ८ सरेणुओं , रथरेणु . . . । ८ रथरमुओं .. उत्तम भोग भूमि का चालान नामक स्कन्ध होता है। ५ उत्तम भोग भू० के दालानों का एक मध्यम भोग भूमि का वालाय नाम स्कन्ध होता है। मध्यम . . . . . " जघन्य " " " " ! ८ जयन्प "," . .. कर्म " " . " . ..। ८ कर्म , v » » » » लोक नामक स्कन्ध होता है। ८ लोकों का एक जू नामक स्कन्ध होता है। ८ जो " मूल H " " . अंगुल के मेद एवं लक्षण : अंगुल तीन प्रकार के है--उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल । उत्सर्षागुल -ऊपर जो ८ जौ का एक अंगुल बताया है वही उत्सेधांगुल व्यवहारांगुल या मूच्यंगुल कहलाता है । इस उत्सेषांगुल से देव, मनुष्य, तियन एवं नारकियों के पारीर की ऊंचाई का प्रमाण और चार प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है। प्रमाणागल :-पांच सी उत्सधांगुलों का एक प्रमाणांगुल होता है । यह प्रमाणांगुल अवसर्पिणी काल के ( प्रथम ) भरत चक्रवर्ती का एक अंगुल है। १ ति.प. भाग गापा ९८ से ११३ तक। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : १८ द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड या सरोवर, जगती और भरतादिक क्षेत्रों का माप अर्थात् प्रमाण इस प्रमाणांगुल से ही होता है । २४ प्रात्मगुल जिस जिस काल में भरतंरावत क्षेत्रों में जो जो मनुष्य हुआ करते हैं, उस उस काल में उन्हीं मनुष्यों के अंगुल का नाम आत्मांगुल है । झारो, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट, हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, वाण, नालि, अक्ष, चामर, दुदृद्धि, पीठ, छत्र मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यानादिकां का माप आत्मगुलों से होता है । गाथा से सम्बन्धित विशेषार्थ : ल ल उत्सेधांगुल के द्वारा ही व्यवहार योजन का माप उत्पन्न होता है। उत्सेधांगुल से मांगुल पांच सौ गुणा होता है, अतः प्रमाणांगुल में ५०० का गुणा करने से उत्सेधांगुलों का प्रमाण आता है । जैसे :- प्रथम अनवस्था कुण्ड का घनफल ३० x १ x१००० धन योजन प्रमाण है। इसको ५०० का गुणा करने से घनफल ३० x १ x१००० ४५०० ५०० हैं। इन व्यवहार योजनों के अंगुल, यव और सरसों बनाने पर जैसे :- एक योजन के चार कोश, एक कोश के २००० धनुष, एक धनुष के चार हाथ और एक हाथ के २४ अंगुल होते हैं, इन सबका परस्पर में गुणा करने पर एक योजन के सात लाख अहमठ हजार अंगुल होते हैं. इसलिये इल x १ x १००० x ५०० व्यवहार धन योजनों में ७६८०००' का गुणा करने से ३x १ x१००० x ५०० ४७६८००० प्रमाण व्यवहार घनांगुल प्राप्त होते हैं । ' घनराशि का गुणाकार व भागद्दार घनरूप ही होता है" इस सिद्धान्तानुसार यहां पर सर्व गुणकार घनरूप हो लिये गये हैं । ५०० घन व्यवहार योजन प्राप्त होते निम्नलिखित प्रमाण प्राप्त होता है । एक अंगुल के यत्र और एक पत्र के ८ चौकोर सरसों होते हैं, अन: उपयुक्त व्यवहार घनांगुलों के प्रमाण में ८' x ८' का गुखा कर देने से - ३ल x १ x १००० x ५००' x ७६८०००' x ८' x अनवस्था कुण्ड के चौकोर सरसों का प्रमाण प्राप्त होता है। इन समस्त सरसों के प्रमाण में का भाग देने से गोल सरसों हो जाते हैं। कारण कि चौकोर वस्तु के घनफल में दो का भाग देने से गोल वस्तु का प्रमाण प्राप्त होता है। भागहार का हार गुणाकार हो जाता है इस नियम के अनुसार यहाँ १६ श्री गुणकार हो जायेंगे । ३००००० X १००००० X १००० ४५००X००५००७६८०००X ७६८००० X ७६८०००X XXX XX६४१६ ९०४ अथवा - बादाल (४२) को २५६ और १८ से गुणा करके ३१ शून्य रखने पर गोल सरसों का प्रमाण प्राप्त होता है । जैसे-- ४२९४९६७२६ ( बादाल ) x २५६ x १ x १००००००bandassoonerecccccc०००ce इनका परस्पर गुणा करने से १९७९१२०९२९६६६८००००००DEODOCDCC00000०००० यह ४५ अङ्क प्रमाण Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया : १९ लोकसामान्याधिकार २५ संख्या गोल सरसों को प्राप्त हुई। यही गोल सरसों प्रथम अनवस्था कुण्ड में भरी जाती हैं। इसकी सिद्धि : निम्न प्रकार होती है : उपरिम अों में से एक का गुणन खण्ड करने पर २४२४२ प्राप्त होता है । ५०० का गुणकार तीनबार है, अतः प्रत्येक ५०० को २ से गुणा करने पर तीन स्थान पर १००० गुणकार प्राप्त होता है। प्रत्येक १००० में तीन तीन शून्य होते हैं. इसलिये तीन स्थानों पर एक एक हजार के ९ शून्य + एक हजार गहराई के ३ शुन्य तीन स्थानों पर स्थित ७६८००० के ९ शून्य + तीन लाख के ५ शून्य और + एक लाख के ५ शून्य इन सर्द शून्यों को मिलाने पर (+३+९+५+५ ) = ३१ शून्य प्राप्त हुए। इन्हें १६ × ३ × ७६८ × ७६८७६६६६६६६ संख्या के आगे रखना चाहिये । ९४४ 5 उपरि पाँच आठ (८८८८८) के अों में से एक के अक का गुणनखण्ड करने पर २x २२ प्राप्त होते हैं। इन तीन दो ( २ २ २ ) के अकों से उन्हीं उपरिम तीन आठ (८८) के अंकों को करने से ५२५४२ = १६ १६ १६ प्राप्त हुये। इन तीन १६ के अंकों का और उपरिम एक १६ के अंक का परस्पर गुग्गा करने ( १६ × १६ × १६×१६ = ६५५३६ प्राप्त होते हैं । प्रत्येक ७६० के २५६४३ गुणन होते हैं । अर्थात् ७६६ = २५६३, ७६० - २५६४३, ७६५ = २५६ x ३ : =२५६ X २५६२५६ ४ ३ ४ ३ ३ – ६५५३६४२५६४३४६ गुणनखण्ड हुए । प्रथम प्राप्त हुए ६५५३६ को इस ६५५३६ में गुणित करने पर बादाल ( ४२ = ) प्राप्त होता है। हर में दो ९ और अंग में ४ वार तीन ( ३, ३, ३, ३ ) हैं, अतः हर के ओर अंश के चारों ३, ३ के अंकों ( ३×३×३.४३_) का छेद करने से श्रंश में बार ३, ३ अर्थात् ९ प्राप्त होते हैं। हर के ४ से ऊपर अवशिष्ट बचे ८ का छेद करने से अश में (६) = २ का अंक प्राप्त होता है। उपर्युक्त समस्त प्रक्रिया से गोल सरसों का (४२ ( बादाल ) २५६ ४ ६ २ अर्थात् ४२ = २५६४१८ और ३१ शून्य) प्रमाण प्राप्त हो जाता है । अथ नवभाजिता वट्टमित्यस्य वासनारूपनिष्पन्न क्षेत्रफलमुच्चारयति - वासवणं दलियं णत्रगुणियं गोलपस्स घणगणियं । सब्वेसिपि घणाणं फलचिभागणिया सूई ||१९|| व्यासार्द्धघनः दलितः नवगुणितः गोलकस्य पनगतिम् । सर्वेषामपि घनानां फलविभागात्मिका सूची ॥ १९ ॥ वामद | व्यासार्धधनो ३४३४३ बलितः ३ x ३ x ३ + २ नवगुणित ३३ ३ ४ ३ गोलकस्य घन गरि सर्वेषां बनाना फलत्रिभागात्मकं सूचोकलं भवति । एषसोडसभाजिया वट्टमित्यस्य वासना नियते । एकपासकासगोलकमपकृत्यार्द्धमपहाय प्रवशिष्टाय पुनरपि सण्त्रयं कृत्या सत्राप्येकखण्डं गृहीत्वा तवप्यूर्ध्वानमविश्वा चतुरस्र यया तथा संस्थाप्य तत्र गोलकस्य' बहु १ इतिवृत्तक्षेत्रस्य ( ब० प० ) । ४ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाथा : ११ मध्यवेो विवक्षितस्थाने वेधडावेऽपि पावर्षेषु कमहानिसड्रावासमचतुरस्रकरणा होनापाने एतावत रणं निक्षिप्य समस्थले पति तवपि पुमस्तियग्मध्यं छिस्था उपरि संस्थाप्य समावेन ऋणमपनीय "भुजकोटी" इत्यादिना खातफलमानीय एकखडस्पतावति .xx. षण्णा लण्डा कि फलमिति सम्पास्यापवय xxxगणिते !xx३ गोलकस्य धनगुणितमेवं नव योगशमाजितपस्य वासना जाता ! नियतुर्भलामोशाय नं "मुस्मुमि मोग" इत्यारिला भुबकोही" इत्यादिना "वासो तिगुण" इत्याविना यपाकममानीय त्रिभिभ तसबीफस भवति ॥१६॥ नब के सोलहवें भाग का भाग देने पर गोल वस्तु होती है, इसके वासना रूप उत्पन्न हये क्षेत्रफल ( खातफल ) को कहते हैं : गाया :-व्यास के अर्ध भाग का घन करना चाहिये । उस धन का पुनः अर्ष भाग कर ९ का गुणा कर देना चाहिये । जो लब्ध प्राप्त हो वही गोलवस्तु का घनफरल है ! समस्त धनरूप क्षेत्रफल के तीसरे भाग प्रमाण सूचीफल अर्थात् शिखाफल होना है ।।१६।। विशेषाप: गेंद आकार व्यास १ है। ध्यास का अधं भाग और इस अर्धव्यास का धन Ex.x३ है । अचं व्यास के धन का आधा xsxsx है। इस धन को ९ से गुणा करने पर घनात्मक सर्व गोल वस्तु का घनफल होता है। और क्षेत्रफल का तीसरा भाग सूची का क्षेत्रफल होता है। ___गेंद सदृश घनात्मक गोल वस्तु का धनफल ( मम चतुरस्त्र धनात्मक के घनफल का) होता है, इसकी वासना का निरूपण किया जाता है : एक व्यास और एक खान ( गहराई ) वाले गेंद जैसी गोल बस्तु । (व्यास १) को आधा करके उसके एक अर्धभाग को छोड़ कर अवशिष्ट दूसरे अर्घ भाग .. .का परिम भाग जो कि पूर्ण वृत्त अर्थात् गोल - ...-...- है उसे ग्रहण करना चाहिये । इस Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १९ लोकसामान्याधिकार ग्रहण किये हुये अर्ध भाग के तीन खण्ड । करना चाहिये। इन तीनों बको ग्रहण कर खण्डों में से ब-म-स खण्ट को ग्रहण करना चाहिये । इस तृतीयांश रूप खण्ड ऊपर मे नीचे तक दो खण्ड । करके इस प्रकार रखना चाहिये कि चतुरन For क्षेत्र वन जाये। उस गोलक खण्ड के बहमध्य भाग में अर्थात् बीचों बोच यद्यपि वेध है तथापि दोनों पाव भागों में कम से होन। इस हीन स्थान में चतुर्षांश अर्थात आधे का चौथाई (३४३) होता गया है। ऋणरूप से निक्षिप्त करने पर '- - समस्थल हो जाता है । इमी समस्पल का तिर्यगरूप से छेद कर ऊपर रख देने .. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : २०-२१ एवं ऋण निकाल लेने पर [३-(३४३)=1x1] वैध ३४३ रह जाता है । अर्धगोलक के तीसरे खण्ड की भुजा ३ और कोटि का परस्पर गुगाा करने से { ३x;)क्षेत्रफल प्राप्त होता है। इस क्षेत्रफल में वेध (३३ -- है, अतः क्षेत्रफल को 1x1 ) बेध से गुणित करने पर xxअर्धगोलक के तीसरे भाग का घनफल (Ex.x। प्राप्त होता है । पूर्ण गोलक में इसी प्रकार के ६ भाग होते हैं । जबकि अर्ध गोल गेंद के एक त्रिभाग का धनफल Ex.x ) है तब पूर्ण गोल गेंद के ६ भागों का धनफल कितना होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर ६ भागों का घनफल xxxxx३४३= प्राप्त होता है। यही पूर्ण गोल का खातफल ( घनफल ) है । त्रिभुज क्षेत्र का क्षेत्रफल एवं घनफरल "मुखभूमिजोगदले" गाथा १६३ के अनुसार, चतुर्भुन क्षेत्र का क्षेत्र फल और धनफल "भुज कोडि" गा० १२२ के अनुसार तथा वृत्तक्षेत्र का क्षेत्रफल और थनफल "वासो तिगुणों परिहीं" गा० १७ के अनुसार प्राप्त करना चाहिये। सूची-येष को तिहाई से गुणित करने पर सुचीक्षेत्र का घनफा होता है । - अथ स्थूलफलराशिमुच्चारयति बादालं सोलमकदिसंगुणिदं दुगुणणक्समम्मन्थं । इगितीससुष्णसहियं सरिसबमाणं वे परमे ॥ २० ॥ बादालं पोडशकृतिसंगुगिगात द्विगुणनवसमभ्यस्तम् । एकत्रिंशत्गून्यमाहितं सर्पपमानं भवेत् प्रथमे ।। २० ॥ बावालं । बादल ४२ - पोस्वकृति २५६ संगुणितं द्विगुण नव १८ समभ्यस्त एकत्रिशक शून्यसाहित' सर्वपमानं भवेद प्रपमे कुण्डे ॥२०॥ अब स्थूल क्षेत्रफल में सरसों का प्रमाण कहते हैं :-- गाथा: बादाल (४२= ) को सोलह की कृति ( २५६ ) से गुणा करने से भी लब्ध प्राप्त हो उसमें दुने नब (१) का गुणा कर ३१ गुन्यों से सहित करने पर प्रथम अनवस्था कुण्ड के सरसों का प्रमाण प्राप्त होता है ।।२०।। विशेषा:-विशेष के लिये देखिये गाथा १८ का विशेषार्थ । अर्थतद्गुणितफलमुच्चारयति विधुणिधिणगणवरविणमणिधिणयणबल द्धिणिधिखराइत्थी। इगितीससुषणमहिया जंबुए लद्ध सिनत्था ।। २१|| Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २१-२२ लोफसामान्याधिकार विधुनिधिनगनवरबिनभोनिधिनयनबनिनिधिखरहस्तिनः। __एकत्रिशछुन्यसहिताः जम्बो लन्धसिद्धार्थाः ॥ २१ ॥ . विषु। एकनवसप्तनवढावाशून्यनदिमानवनवषयो एकत्रिशम्पसहिताः सम्यूद्रोपे लसपा: १९७६५२०९२९६६८००००००००००००००००००००००००००००००० ॥२१॥ इनको परस्पर गुणित करने से जो गुणनफल प्राप्त होता है, उसे कहते हैं गापा:-विधु. निधि, नग, नव, रवि, नभ, निधि, नयन, बल, ऋद्धि, निधि, खर और हाथी इनकी संख्याओं को ३१ शुन्यों से सहित करने पर जम्बूदोपसहण प्रथम अनवस्था कुण्ड के सरसों प्राप्त होते हैं ।। २१ ॥ विशेषार्थ :- विधु चन्द्रमा का नाम है अतः विधु १, निधि, नग (पर्वत) ७ ९, रवि ( सूर्य, राशि की अपेक्षा ) १२, नभ, निधि ६, नयन २, बल ( बलभद्र ) १, ऋद्धि , निधि ९, खर ६ तथा हाथी ( दिग्गज ) - इन समस्त संख्याओं को ३१ शून्यों से माहित करने पर निम्नलिखित प्रमाण प्राप्त होना है-१९७२१२०९२६९९६८000000०००००000000000000000000८. यह जम्बूद्वीप सदृश प्रथम अनवस्था कुपए के सरसों का प्रमाण है। सर्वेषां कुण्डानां सिद्धशिखाफलमुच्चास्यति-- परिणाहकारसम भागं परिणाहभागस्स | बग्गेण गुणं णियमा सिहाफलं मकुंडाणं ॥२२॥ परिणाहै कादशभागः परिणाहषष्ठभागम्य 1 बर्गेगा गुण नियमात शिताफलं सर्वकुण्डानाम् ॥२२॥ परिणा। परिषे ( ३ ) रेकायशो भागः (३स) परिधः षभागस्य बर्गरण ( ल ४ ला गणितो नियमात शिक्षाफ 'सकुष्माना भवति । प्रसिद्धफलस्य वासना समितिवेदाह । म्यासः त्रिगुणः परिधिः ( बल ) ग्यासचसुपहिसः (३ल x १ल) क्षेत्रफलं परिष्यकाशमाग (३)-वेषेम पुणित फल (इल ४१ल - ३ल) "फलतिभागप्पिय" इति मागतेन भागहारत्रिकेण सममुपरितनपरिषि त्रिकमपवायं श्ल व्यासचतुशमहाश्चतुष्कं विरलयिस्वा (इल x) गायोग्यारंणार्थमुपर्यवश्व विमिर्गुणिलं दृष्ट्वा परिणामकारसमेत्यायुक्त । एतत्स्यूलफलं (३ल ४३ल x ३ल) पूर्ववत व्यवहारमोजनाविक पार्सव्यं ॥२२॥ समस्त कुण्डों के सिद्ध हुए शिखाफल को कहते हैं : गाथा:-परिधि के ग्यारहवें भाग की परिधि के छठवें भाग के वर्गसे गुणित करने पर समस्त कुण्डी का शिखाफल प्राप्त होता है ।। २२ ।। १ च०, ५० प्रती 'भवति' नास्ति। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिलोकसार गाथा : २३ विशेषार्थ :- कुण्ड का व्यास १ लाख योजन का होने से परिधि ३ लाख योजन की हुई । परिधि का ११ वा भाग परिधि अथवा ३ल हुआ । इस ल को परिधि के छठवें भाग (परिघि ) के वर्ग से गुणित करना है, ३0 x ३ x ३ ल का परस्पर में गुणा करने से समस्त कुण्डों का शिक्षाफल प्राप्त हो जाता है; क्योंकि शलाका, प्रतिशलाका और महागलाका कुण्ड भी प्रथम अनवस्था कुण्ड के सदृश १ लाख योजन ब्याम बाले हैं. अतः समस्त कुण्डों की शिखा समान होगी। प्राप्तफल को वासना कैसे होती है ? उसे कहते है :-- व्यास से निगुनी परिधि (१ल. ४३ : ३ल हुई। इसको व्यास के चौथाई (ल) से गुरिणत करने पर ल x १ल क्षेत्रफल प्राप्त होता है। इसको शिखा की ऊंचाई ( घेघ । ३ल से गुणित करने पर ३ल ४१ल x ३ल लन्ध प्राप्त होता है । 'फलतिभागप्पिय गा० १९ के अनुसार इसका ( ३लx १ल ४३ल) एक तिहाई करने से ३ल x १ल-३0 x शिखा का घनफल प्राप्त होता है । तिहाई के तीन से परिधि के ३ का छेद कर देने पर ३ल x १ल ४३ल प्राप्त हुआ। के स्थान पर १४ करने से १लx१ल ३ल प्राप्त हुआ। के अंश व हर को ३ से गुणित करने पर ३0 x ३0 x ३ल अथवा (३ल)Pxaल हुआ। परिधि ३ल है, अतः ३ल के स्थान पर परिधि स्थापन करने से (परिधि) x परिधि अति परिधि के ११ वे भाग को परिधि के छठवें भाग के वर्ग से गुणा करने पर शिखा का घनफल प्राप्त होता है। यह स्थूल क्षेत्रफल है । पहिले के सदृश इनके भी व्यवहार योजन आदि बना लेमा चाहिये। अथ केषां के वेध परिध्येकादशभाग इत्याहु तिलसरिसवचल्लाहइचणयतसिकुलत्थ रायमामादि । परिणाहेक्कारसमो हो जदि गयणगो रासी ||२३|| तिलसर्षपबल्लाहकीचणकातसिकुलत्थराजमाषादेः । परिध्ये कादशो बेधो यदि गगनगो राशिः ॥ २३ ॥ तिल । तिलसर्षपयल्लाहकोचणकात सिकुलस्वराजमावाने परिष्येकावशो वेषो पवि गगनराशिः भवेत् ॥२३॥ किन किन वस्तुओं का वेध (ऊंचाई) परिधि के ग्यारहवें भाग प्रमाण होता है, उसे कहते हैं: गावार्थ :----आकाश को व्याप्त करने वाली तिल, सरसों, वल्ल, अरहड़ चना, अलसी, फलस्थ और उड़द आदि की शिखाऊ राशि परिधि के ग्यारहवें भाग प्रमाण होतो है ॥२३॥ विशेषाम:-तिल, सरसी आदि वस्तुओं के ढेर के मूल भाग की परिधि का जितना प्रमाण होता है आकाशगत ढेर का वेध ( ऊचाई ) उसका ग्यारहवा भाग होता है जैसे :- पृथ्वी पर लगी हुई तिल को राशि की परिधि का प्रमाण ग्यारह हाथ है, तो वह राशि पृथ्वी से एक हाथ ची होगी। -11 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४-२५-२६ लोकसामान्याधिकार अय गुणितराशिमुच्चारयति -- वेरुसदियां चमणा महारोहिं अणियं । तेचीमसुण्णजुसं हरमजिदं जंबुदीवसिहा ||२४|| द्विरूपतृतीयपञ्चमवर्गअष्टादशभिः संगुरिणतः । यस्त्रिंशच्छ्न्ययुक्त हरभक्तः जम्बूद्वीपशिखा ॥२४॥ बेव। विरूपवर्गधारातृतीय ( २५६ ) पश्चमवर्गः ( ४२- ) महादशभिः तंगुणित: त्रयस्त्रिंशाच-पयुक्त हर (एकाचवा ) भक्तवचेत जम्बूद्वीपशिखाफल श्यति ॥ २४ ॥ अब गुणित राशि को कहते हैं : नापार्ष:-द्विरूपवर्गधारा के तीसरे ( २५६ ) और पांचवें वर्गस्थान (बादाल) का परस्पर में गुणा करने से जो लब्ध प्राप्त हो उसको १८ से गुशित कर तेतीस शून्यों से सहित करना चाहिये । इन्हीं लन्धाकों में ११ का भाग देने से जम्बूद्वीप सदृश कुण्ड के ऊपर की हुई राशि के गिखाफल के गोल सरसों का प्रमाण प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ विशेवायं :- सुगम है। अथ सिद्धामुच्चारयलि इगिमगणरणवदुगणमणभट्टचउपणच उक्कपणसोलं । सोलसचीमजुदं हरहिदचउरो य पदमसिहा २५।। एकसप्तनवनवद्विकनभोनभोष्टचतुःपञ्चचतुष्क पञ्चषोडश । षोडशषत्रिशतं हरहितचतुष्कं च प्रथमशिखा ॥ २५ ॥ इगि । एकसप्तनवनातिकशून्यशुम्या चतुःपञ्चबलुकपञ्चषोडशषोडशवत्रिंशद्युतं' एकाबशभक्तचतुष्कं प्रथमकुण्डशिखाफलं भवति । १७६६२००८४५४५१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६ ३६३६३६३६ प ।। २५ ॥ अब गुणनफल द्वारा प्राप्त हुए अंकों का प्रमागा कहते हैं : गाथार्ष:-एक, सात, नव, नव, दो, शून्य, शून्य, आठ, चार, पांच, चार, पाच, सोलह और इसके आगे सोलह बार छत्तीम एवं चार का ग्यारहवां भाग प्रथम कुण्डकी शिखाके सरसों का प्रमाण है ॥२५॥ विशेषार्थ :-१७६९२००९४५४५१६३६३६३६३६३६३८३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६ अङ्क प्रमाण जम्बूद्वीप सदृश प्रथम अनवस्था कुमार की शिखाके सरसों होते हैं। अथ कुण्डशिखयोः फलं मेलयित्वोच्चारयति वासद्धकदी तिगुणा घेहगुसोक्कारसहिदवासगुणा । एयारस पविभत्ता इच्छिदकुण्डाणमुभयफलम् ।। २६ ।। १ हरहतचतुष्कं (10, प.)। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ त्रिलोकसार व्यासा कृतिः त्रिगुणा बेधगुणैकादशसहित व्यासगुणा । एकादशप्रविभक्ता इच्छित कुण्डानामुभयफलम् ॥ २६ ॥ X X इ वासद्ध | व्यासार्थवर्णः १ x १ त्रिगुणो १ x १ x ३ मे बरिलै कावा सहित कलमव्यास गुरण एकादशप्रविभक्त १ x १ x ५०० ईप्सितकुण्डानामुभयफलं भवति । तथा । "reeगुणपरिही" इत्यादिना कुएडफलमानीस ३ल x १ x १००० । “वासो" इत्यादि रिस्पा कारसमं वैषैन गुणित फल विभागप्पिय" इति सुख फलमानी ३ x x x पचाल कुफल शिखा फलयोः परिषि "बालकवी" इति गापोच्चारित फलप्रदर्शनार्थ त्रिभिः सम्मेल किमुभयत्र गुणकारकपेल संस्थाय १ x १ x ३ X १००० यथायोग्यमपव समवेनाङ्कस्याङ्क लकारस्य लकारं वयित्वा प्रधिकलक्षं इतराङ्क । ११००० ) मेलनें उभयफल' स्थात् । इदं दृष्ट्वा 'वासद्धकवयानि उक्त' । एतस्यूलफल ं व्यवहारयोजनाविकं कर्तव्यम् ॥ २६ ॥ गया : २६ Hd कुण्ड और शिखा दोनों के क्षेत्रफल को मिला कहते है :-- गाथार्थ :- व्यास के अर्धभाग का वर्ग कर उसको तिगुणा करना चाहिये, पुनः वेध को ११ से गुणित कर उसमें व्यास जोड़ना चाहिये। इस प्रकार प्राप्त हुई दोनों संख्याओं का परस्पर में गुणा करने से जो लब्ध प्राप्त हो उसको ११ मे भाजित करने पर विवक्षित कुपड और उसकी शिखा दोनो का सम्मिलित क्षेत्रफल प्राप्त होता है ||२६|| -- ल ल विशेषार्थ :- व्यास ( १७ ) के अर्ध भाग ( १ ) के वर्ग १ १ल की तिगुना करने से १ x १ x ३ प्राप्त होता है । कुण्ड की गहराई १००० योजन है, इसे ११ में गुणित ( १००० x ११ ११००० ) कर प्रयास में जोड़ देने पर १११००० प्राप्त होते हैं, इसमें १३ x १ x ३ को गुणित करने से १ल×१०×३×१११००० हुये । इन्हें ११ से भाजित करने पर कुण्ड और शिखा दोनों का सम्मिलित क्षेत्रफल १ल ×१७ x ×३४१११००० प्राप्त होते हैं । तद्यथा-मोतिगुणो परिही गा० १७ के अनुसार कुछ का क्षेत्रफल - ३ × १ x १००० प्राप्त होता है । "वासी" एवं गाथा २२ की टीकानुसार सूत्रफल ३ x १ x ३ [x] है । गाथा २६ के अनुसार खातफल को सिद्ध करने के लिये, कुण्डफल और शिखाफल इन दोनों में परिधि को ३ से छेद ल कर और ३ को गुणकार रूप से रखने पर कुण्डफल ( १ x १ x १००० x ३ ) और शिखाफल उ १ ( १ x १ x १ x ३ ) प्राप्त होता है। इन दोनों में १० x १०००, और शिखाफल में १००००० ) – १९१००० प्राप्त होते हैं। इस प्रकार कुण्ड व शिला इन दोनों का ११ १५ १ व्यासार्धकृतिस्त्रिगुणो ( ब०, प०, ) | ल x ३ समान हैं, तथा कुण्डफल में अधिक हैं। इन दोनों को जोड़ने पर ( १००० + १ल = ११००० + - तिफल Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 गाथा: २७-२८ लोकसामान्याधिकार (१ल ४३लx३) x ०० अर्थात् (१ल १ल x ३)x००० अर्थात् ( व्यास - व्यास ४३) x202800 अर्थात् व्यास का वर्ग x३x97800 प्राप्त होता है। इसके व्यवहार योजन, अंगुल, यव, एवं गोल सरसों बनाना चाहिये । शिखा सहित अनवस्था कुण्ड का चित्रण :-- अय राश्यमुच्चारयति वादालमट्टयण इगिहीण सहस्साहदं एगारहिदं । इगितीससुण्णसहियं जंबूदीघुभयसिद्धत्था ।। २७ ॥ बादालमष्टयनकहीनसहस्राहतं एकादशहितम् । एकत्रिशच्छून्यसहितं जंबूद्वीपोभयसिद्धार्थाः ।। २७ ।। पावाल । बाबालं ४२- प्रष्टधन ५१२ एकहीनसहलाat at माहत ४२-४५१२XESE एकादशहृतं ४२- ४५१२४६९ एकत्रिशच्यसाहित बमोपामितकुण्डशिक्षाफलयोः सिवाय ॥ २७ ॥ अब उपयुक्त उभयफल में सरसों राशि के अङ्क कहते हैं--- गापार्थ :-बादाल { ४२= ) को आठ के घन ( ५१२ ) एवं एक कम एक हजार ( ९९९ ) से गुणित कर ११ का भाग देने से जो लब्ध प्राप्त हो उसे ३१ शून्यों से सहित करने पर जम्बूद्वीप सहपा कुण्ड और उसकी शिखा, दोनों के क्षेत्रफल स्वरूप सरसों का प्रमाण प्राप्त होता है ।। २७ ।। विशेषार्थ:-सुगम है। अथ परस्परगुणिताङ्कमुच्चारयति इगिणवणवसगिगिगिदुगणवनिण्णहचउपणेक्कतिगिछक्कं । पण्णरछचीसजुद इरहिदचउरो य . पढसुमयं ॥ २८ ॥ एकनवनवसप्लेकैद्रिकनवत्रिमष्ट चातुः पञ्च कश्येकषट्कम् । पञ्चदशविंशानं हरहितचतुष्कं च प्रथमोमयम् ॥ २८ ॥ इगिरणव। एकमवमव सप्तककद्विकनपत्रिमचतुःपञ्चकत्येकवट्कम् पनवशषत्रिंगात हरहितचतुष्क प्रथमानवस्पोभमफलं स्यात् ॥ १९७११२९३८४५११६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६ ३६३६३६३६३६ ॥२ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार अब परस्पर गुणा करने से जो अ प्राप्त होते हैं, उन्हें कहते हैं। गापा :- एक नव नव सात, एक, एक, दो, नव, तीन आठ, चार, पाँच, एक, तीन, एक, छह पन्द्रह जगह छत्तीस और चार का ग्यारहवाँ भाग यह प्रथम कुण्ड के उभय क्षेत्रफल के अंकों का प्रमाण है ।। २८ । विशेषार्थ : - १९९७११२६३८४५१३१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६ यह प्रथम अनवस्था कुण्ड के उभय क्षेत्रफलों में सरसों के अद्धों का प्रभाग है । संख्या प्रमाण प्रारम्भ : १. जधन्यसंख्यात संख्यात दो से प्रारम्भ होता है, अत: २ जघन्य संख्यात है । २. मध्यम संख्या - जघन्य संख्यान में एकादि अ द्वारा वृद्धि को प्राप्त तथा उत्कृष्ट संख्यात से एक एक अक्क हीन तक के जितने विकल्प हैं वे सब मध्यम संख्यात हैं। ३. उत्कृष्ट संख्यात - जघन्य परीता संख्यात में से एक अङ्क होन करने पर उत्कृष्ट संख्यात की प्राप्ति होती है। अथ पहुदिरसह अग्वत्था पूरदेवा' इत्युक्त्वा तत्प्रमाप्रसक्त्यानतरसम्बन् निरूप्येदानीं प्रकृत मनुसन्दधाति - पुष्णा सहमणवत्था हृदि एगं रिवत्र सलागकुंडहि । तं मज्झिमसित्थे मदिए देवो व विचणं ।। २९ ।। दीवसमुद्दे दिये एक के परिसमध्पदे जत्थ | तो हिडिमदी अब कयगतो तेहिं भरिदन्त्रो ॥ ३० ॥ पूर्णा सदनवस्था इत्येकां क्षिपशलाकाकुण्डे तन्मध्यसिद्धार्थान् मत्या देवो वा गृहीत्वा ॥ २६ ॥ द्वीपसमुद्र दत्त एकैकस्मिन् परिसमाप्यते यत्र । नतः अधस्तनद्वीपोदधिषु कृतगतस्तैः भर्नव्यः ।। ३० ।। पुण्ला सह पूर्ण सकृदनवस्था इत्येकी क्षिप शलाकाकुण्डे तन्मध्यसक्षवान् मध्या देवो बा गृहीत्वा ॥ २६ ॥ दोष द्वीपे समुद्रे च ते एकैकस्मिन् स परिसमाप्यते यत्र तत् प्रारम्य द्यथस्तन सर्वद्रोपोवविषु प्रानवेप्रमाणेन ( १००० ) कृतः पुनः सर्वयः ॥ ३० ॥ ४. गाथा १६ से २८ तक गाथा १५ में कहे हुये "दुप्पहृदि सरिसवेहि भरणवत्था पूरयेदश्वा" के प्र में कथन किया गया है। अब उसी गाथा १५ के सम्बन्ध को जोड़ते हुये (जघन्य परीतासंख्यात को) कहते हैं -- r ņ गाथा : २९-३० गाथार्थ :- एक बार अनवस्था कुण्ड पूर्ण भर जाय तब एक सरसों शलाका कुण्ड में डालना चाहिये तथा अनवस्था कुण्ड के जितने सरसों हैं, उन्हें बुद्धि द्वारा या देयों द्वारा ग्रहण कर प्रत्येक एक . Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३१ लोकसामान्याधिकार एक द्वोप समुद्र में एक एक दाना डालते हुये जिस बीप या समुद्र पर दाने समाप्त हो जाय वहाँ से नीचे के अर्थात् जम्बूद्वीप पर्यन्त पहिले के सभी द्वीप समुद्रों के ( प्रमाण , बराबर एक कुण्ड बनाकर गोल सरसो से भरना वाहिथ ।। २५, ३० ।। विशेषार्ष:-मंख्या प्रमाण का ज्ञान कराने के लिये गाथा २०१४ में पार कुण्डों की स्थापना की थी। उनमें से जम्बू द्वीप बराबर ब्यास और सुमेरु की जड़ के बराबर गहराई बाले प्रथम अनवस्था कुण्ड को शिखा सहित गोल मरसों में पूर्ण भरकर एक सरसौं शलाका कुण्ड में डालना चाहिये तथा अनवस्था कुण्ड की सरसों बुद्धि द्वारा या देवों द्वारा उठाकर एक एक दाना एक एक द्वीप समुद्र में डालते हुए जिस द्वीप या समुद्र पर सरसों समाप्त हो जाय, वहीं से जम्बूद्वीप पर्यन्त व्यास वाला और १००० योजन गहरा दूसरा अनवस्था कुषद्ध बनाकर गोल सरसों से भरना चाहिये। अथ तस्य द्वितीय कुषस्य क्षेत्रफलानयनोपायभूतगच्छमाह : रिदिये पढम कुंडं गच्छो तहिए दु पढमविदियदुर्ग । इदि सव्वपुष्वगच्छा तर्हि तहि सरिसवा सज्झा ॥ ३१ ॥ द्वितीये प्रथम कुपडं गच्छः तृतीये तु प्रथमद्वितीयविकम् । इति सर्वपूर्वगच्छाः तः तैः सपंपाः साध्याः ॥ ३१ ॥ विधिये । द्वितीयकुण्डसपानपने प्रपमकुण्डसर्षपप्रमाणं गया, तृतीयकुण्डसर्षपानपने प्रथमद्वितीयकुणासपमानं गण्यः इति सपंपूर्वपूर्वगच्छास्ततः सर्षपाः बाध्याः गच्छं गृहीत्वा "ऊरणाहियपर" इत्याविना सूचीयासमानीय पश्चाए "वासो तिगुणो परिही" इस्यादिमा तत्र तत्र कुन्डे सर्वपाः वाध्याः इस्पर्णः।। ३१॥ दूसरे आदि अनवस्था कुण्डों का प्रमाण लाने के लिये गच्छ का प्रमाण कहते हैं : गाथा:-दूसरे अनवस्था कुण्ड के लिये प्रथम कुण्ड के सरसों पच्छ है। तीसरे अनवस्था कुण्ड के लिये प्रथन और द्वितीय कुण्ड के सरसों गच्छ हैं। इसी प्रकार जो पूर्व पूर्व के गच्छ हैं, उन उन के द्वारा उनरोत्तर अनवस्था कुण्डों की सरसों का प्रमाण साधा जाता है ॥ ३१॥ _ विशेषार्थ :- दूसरे कुण्ड्ड के सरसों का प्रमाण प्राप्त करने के लिये प्रथम कुण्ड के सरसों गच्छ स्वरूप हैं। तीसरे कुपड के सरसों के लिये प्रथम और द्वितीय कुण्डों के सरसों गच्छ स्वरूप हैं, तथा चौथे कुण्ड के सरसों के प्रमाण के लिये प्रथम, द्वितीय और तृतीय कुण्डों के सरसों का प्रमाण गच्छ है । इसी प्रकार सर्व पूर्व पूर्व गच्ट्री के द्वारा आगे के अनत्र स्था कुष्ठों के सरसों का प्रमाण माध्रना चाहिये, और जन उन गमलों को ग्रहण कर "रूक गाहियपद" गाथा ३०९ में कहे गये करणसूत्रानुसार द्वितीय आदि अनवस्था कुण्डों का सूची व्यास प्राप्त कर "वासोतिगुणोपरिधि" गा०१७ के करणसूत्रानुसार सूचीव्यास को ३ से गुणित कर परिधि का प्रमाण ज्ञात कर गाथा २६ के अनुसार धनफल निकाल कर सरसों का प्रमाण प्राप्त कर लेना चाहिये। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार माथा : ३२ अथ तत्कृतगर्ने भृते सति कि जातमित्यत्राह-- चिदिए वारे पुण् गहिदमिति सहा पुणरपि णिक्खि विदव्या अबरेगा सरिसवाण सला ।। ३२ ।। द्वितीये बारे पुणं अनवस्थितमिसि शलाकाकुपडे । पुनरपि निक्षेप्तव्या अवरका सर्वपाणां गलाका ॥ ३२ ॥ विदिए। विसोये वारे पूर्ण प्रमत्यिसकुण्डमिति शलाकागतं पुनरवि मिक्षेप्सम्या पपरका सर्वापारण शलाका ॥ ३२॥ दूसरा अनवस्था कुण्ड भरने के बाद क्या करना चाहिये १ उसे कहते हैं : गाथार्थ :-दूसरी बार बनाये हुये अनव स्थित कुण्ड को पूर्ण भरकर पुन: एक दूसरी शलाका स्वरूप सरसों शलाका कुण्ड में डालना चाहिये ॥ ३२॥ विशेषार्थ:-द्वितीय बार बनाये हमे अनवस्थित कुण्ड को पूर्ण भरकर पुनः एक दूसरी शलाका स्वरूप सरसों गलाका कुण्ड में डालना चाहिये । जैसे-मान लो ।-प्रथम अनवस्था कुण्ड १० सरसों से पूर्ण भरा गया था। एक एक द्वीप समुद्र में एक एक दाना डालने पर १० वें क्षीरवर समुद्र पर दाने समाप्त हो गये, अत: सुमेरु के पूर्व में जम्बूद्वीप का अर्घ भाग ३ लाख योजन+२ लाख लवण समुद्र+ ४ लाख धातको खण्ड+८ लाख कालोदक समुद्र+१६ लाख पुष्करवर द्वीप+३२ लाख मो० पुष्कर वर समुद्र + ६४ वारुणीवर द्वीप +१२८ लाख वारुणीवर समुद्र+२५६ लाख योजन क्षीरवर द्वीप+५१२ लाख योजन क्षीरवर समुद्र -- १०२२ लाख योजन सुमेरु के पूर्व में और १०२२३ लाख योजन हो सुमेरु के पश्चिम में है अत: सम्पूर्ण व्यास (१०२२३+१०२२३)-२०४५ योजन व्यास प्राप्त हुमा । जैसे: [ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये | Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ३२ लोकमामान्याधिकार क्षीरवर सागर क्षीरवर टीम गरिणीर सागर मागीवर द्वीप तुष्करबर हाय Home १६ १२. २५६ मास प्रालय इम क्षीरकर समुद्र का व्याम २०४५ लाग्न पोजन का है । व्यास की तिगुनी परिधि होती है, अनः २०४५ लाख ३६१३५ लाख योजन की परिधि हुई । परिधि ६१३५ लाख x २०४५ ला. व्यास का जीथाई =३१३६५१८७५........ वर्ग योजन क्षेत्रफल हुआ। तथा ६१३५ ला०४ २०४५ ला. ४.०२१ वेध -३१३६५१८७५००००००००००० घन योजन घनफल दूसरी बार बने हुये अनवस्था कुण्ड का प्राप्त हुआ । जैसे : [ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ पिलोकसार गाथा: ३३ गहराई १००० योजन है माना हुआ दूसरी वार बनवस्था कुण्ड: - ३१३६५१८७५........ वर्ग योजर र फल २०४५ लार यो-न्याह... १५........... धन योजन धनफल / प्रथम कुण्ड के सदृश इस कुण्ड की शिखा का भी क्षेत्रफल निकालना चाहिये, तथा इस पर को भी शिखा सहित गोल सरसों से भरना चाहिये । यतः दश नम्बर तक दूसरी वार बनवस्था कुण्ड बन चुका है, अतः ग्यारहवें नम्बर से एक एक दाना एक एक द्वीप समुद्र में डालते हये जहां सरसों समाप्त हो जाय वहाँ से जम्बूद्वीप पर्यन्त व्यास वाला और १००० योजन गहराई वाला तीसरा अनवस्था कुण्ड भर कर पालाका कुण्ड में तीसरा सरसों का दाना डाल देना चाहिये। अर्थवं कृतेपि किमित्यत्राह एवं सलामभरणे स्वं णिक्खिषदु पडिसलागम्हि । रितीकदेवि भारदे अवरेगं पडिसलागम्हि ॥ ३३ ॥ एवं शलाकाभरणे रूपं निक्षिपतु प्रतिशलाकायाम् । रिक्तीकृतेपि भृते अपरक प्रतिशलाकायाम् ।। ३३ ।। एवं। एवमेव ालाकाभरणे रूप ( एकं ) निक्षिपतु प्रतिशलाकाकुण्डे रिक्तीकृतेपि मृते सति अपरक निनिपतु प्रतिशलाका कुन्डे ॥३३ ॥ इतना कर लेने पर आगे क्या करना है, उसे कहते हैं : पापा:-इसी क्रम से बढ़ते हुए जब शलाकाकुण्ड भर जाय तब एक दाना प्रतिशलाका कुण्ड में डालना और शलाकाकुण्ड को खाली करके पूर्वोक्त प्रकार ही पुनः उसे भर कर प्रतिशलाका कुण्ड में दूसरा वाना झालना चाहिए ॥ ३३ ॥ विशेषार्ष:-इसी प्रकार बढ़ते हुये व्यास के माथ हजार योजन गहराई वाले उतने वार अवस्था कुपड बन जाय, जितने कि प्रथम अनवस्था कुण्ड में मरसों थे, तब एक वार झालाका कण्ड भरेगा। एक बार शलाका कुन भरेगा तब एक सरसों प्रतिशलाका कुण्ड में डालकर शलाका कुण्ड Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३४-३५ लोकसामान्याधिकार खाली कर दिया जायगा तथा जिस द्वीप या समुद्र को सूची व्यास सदृश अनवस्था कुण्ड बन चुका है उससे आगे के द्वीप समुद्रों में एक एक दाना डालते इये जहां सरसों पुनः समाप्त हो जायं वहाँ से लेकर जम्बूद्वीप पर्यन्त नवीन अनवस्था कुण्ड बना कर भरा जायगा तब एक दाना पालाका कुण्ड में डाला जायगा । पुन: उस नवीन अनवस्था कुण्ड के सरसों ग्रहण कर आगे आगे के द्वीप समुद्रों में एक एक दाना डालते हुए जहाँ सरसों समाप्त हो जाय, उतने व्यास वाला अनवस्था कुण्ड जब भरा आयगा तब शलाका कुण्ड में एक दाना और डाला जाता । इस प्रकार करते हुये जब पुनः नवीन नवीन वृद्धिंगत ध्यास को लिये हुये प्रथम अनवस्था कुण्ड को सरसों के प्रमाण बराबर नवीन अनवस्था कुण्ड बन त्रुकेंगे तब शलाका कुण्ड भरेगा, और दूसरा दाना प्रतिशलाका में डाला जायगा। अयैवं सत्याप किमित्यत्राह--- एवं मावि य पुण्णा एग णिविखव महासलागम्हि । एमात्रि क्रमा भरिदा बचारि मरति सकाले ।। ३४ ।। चरिमणद्विदकुंडे सिद्धन्धा जतिया पमाणं तं । अरपरीतमसंखं रूऊणे जैट्ट संखेज्जं ॥ ३५ ॥ एवं सापि च पूर्णा एक निक्षिप महाशलाकायाम् । पषापि क्रमामृता चत्वारि भ्रियन्ते तत्काले ॥ ३४ ।। चरमानव स्थितकुण्ड सिद्धार्थाः यावन्ति प्रमाणं तत् । अवरपरीनमसंन्यं रूपाने ज्येष्ठ संम्येयम् ।। ३५ ॥ एवं मा। एवमेव सापि च पूर्णति एक निक्षिपतु' महाशलाकाकुण्डे एषापि मामृता तस्मिनेष काले चत्वारि कुण्डानि भ्रियन्से ॥ ३४ ॥ परिम। परमानयमित सिमाः पावम्ति प्रमाणानि तस्वरपरीतासंख्यं । तत्र से कने म्ये संख्येयम् ॥ ३५ ।। इस प्रकार करते हुए क्या होगा ? उसे कहते हैं :-- गापार्य :-इस प्रकार जब प्रतिशलाका कुण्ड भी भर चुकेगा तब एक दाना महाशलाका कुण्ड में डाला जायगा । क्रम से भरते हुये जब ( जितने काल में । ये चारों कुणा भर जायेंगे तब अन्त में जो अनबस्थित कृण्ड बभेगा उसमें जितने प्रमाण सरसों होंगे, वही जघन्यपरीतासंख्यात का प्रमाण होगा, इसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ठ संख्यात का प्रमाण प्राप्त होता है ॥३४॥३५।। विशेषार्थ :-इस प्रकार बढ़ते हुये कम से जितने सरसों प्रथम अनवस्था कुण्ड में थे, उसके वर्ग प्रमाण जब अनवस्था कृषड बन चुकेंगे, तब शलाका कुण्ड उतने ही सरसों प्रमाण वार भरेगा तब एक बार प्रति शलाका कुण्ड भरेगा और एक दाना महाशलाका में डाला जायगा। इस प्रकार १ निक्षिप (२०); निक्षिप्य (प.)। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाय गाथा ३६-३७ क्रम से वृद्धिंगत होने वाला अनवस्था कुण्ड जब प्रथम अनवस्था कुण्ड की सरसों के घन प्रमाण बन चुगा तब प्रथम अनवस्था कुण्ड की सरसों के वर्ग प्रमाण वार शलाका कुण्ड भरे जायेंगे, तब प्रथम अनवस्था कुण्ड की सरसों प्रमाण वार प्रतिशलाका कुण्ड भरेंगे तब एक बार महाशलाका कृण्ड भरेगा । मान लो. :- प्रथम अनवस्था कुण्ड १० सरसों से भरा था, अतः बढ़ते हुये व्यास के साथ १० अनवस्था कुण्डों के बन जाने पर एक बार शलाका कुण्ड भरेगा तब एक दाता प्रतिशलाका कुण्ड में डाला जायगा । इसी प्रकार वृद्धिगत व्यास के साथ १० का वर्ग अर्थात् १०×१० = १०० अनवस्था कुण्डों के बन जाने पर १० बार शलाका कुण्ड भरेगा, तब एक वार प्रतिशलाका कुण्ड भरेगा, तब १ दाना महालाका कुण्ड में डाला जायगा। इसी प्रकार बढ़ते हुये व्यास के साथ १० के घन अर्थात् १० x १० X १० = १००० अनवस्था कुण्डों के बन जाने पर १० के वर्ग अर्थात् १०x१० - १०० बार शलाका कुण्ड भरेगा तब १० बार प्रतिशलाका कुण्ड भरेगा और तब एक वार महाशलाका कुण्ड भरेगा । जैसे : 1 पालाका १००० १०० मार् -මීඩ් १० बर भरेगा अनवस्था कुण्ड बनेंगे, भरेगा स्था अनव महा १ बार भरेगा इस प्रकार इस अन्तिम अनवस्था कुण्ड में शिवा सहित गोल सरसों की जितनी संख्या है, वह संख्या जघन्य परीतासंख्यात की है। उसमें से एक अङ्क कम करने पर उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण प्राप्त होता है अर्थतदेव धृत्वा संख्यातानन्तोत्पत्ति भेदप्रभेदं षोडशगाथमाह-व्यवरपरिचस्तुवरिं एगादीवढिये हवे मज | अवरपरितं विरलिय तमेव दादूण संगुणिदे || ३६ | मचरं जुतमसंखं आचलिसरिसं तमेव रूऊणं । परमिदवरमावलिकिदि दुगवारवरं विरूव जुत्तवरं ||३७|| Trutतस्योपरि एकादिवद्धिते भवेन्मध्यम । अवरपरीतं विरलय्य तदेव दत्वा संगुणिते ।। ३६ ।। अवरं युक्तमसंखं आवलिसदृशं तदेव रूपोनम् । परिमितवरं आवलिकृतिद्विकवारावरं विरूपं युक्तव रम् ॥३७॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३७ लोकसामान्याधिकार と प्रवर प्रवरपरीतस्योपरि एकादिके वृद्ध े सति भवेन्मध्यं जघन्यपरीतमेकैकरूपेण विश्सम्य सवेध जधन्यपरिमित रूपं प्रति दवा संगुलिते ॥ ३६ ॥ प्रवरं जघन्ययुक्तासंख्यं स्यात् । एतवेबायलिसदृशं । तवेष रूपानं परिमितासंख्तवरं प्रावसिकृतिः द्विकवाशसंख्यातजघन्य सदेव विगतरूपं बेत युक्तासंख्यातोत्कृष्ट स्यात् ॥ २७ ॥ अब इसी प्रमाण को मानकर असंख्यात और अनन्त की उत्पत्ति एवं उनके भेद - प्रभेदों को मोह गाथाओं द्वारा कहते हैं। : गावार्थ :- जघन्यपरीतासंख्यात के ऊपर एक आदि अङ्क की वृद्धि हो जाने पर मध्यमपरीतासंख्यात होता है। जधन्यपरीतासंख्यात का विरलन कर प्रत्येक एक अंक पर उसी जधन्यपरीतासंख्या को देय देकर परस्पर गुणा करने से जधन्ययुक्तासंख्यात प्राप्त होता है जो आवली सदृश है । अर्थात् आवली के समय जघन्ययुक्तासंख्यात प्रमाण हैं। इस प्रमाण में से एक अंक कम कर देने पर उत्कृष्टपनासंख्यात प्राप्त है। आवलो प्रमाण जघन्यमुक्तासंन्यास काय करने से जघन्य असंख्यातासंख्यात का प्रमाण आता है, और इसमें से एक अंक कम कर देने पर उत्कृष्टयुक्तासंख्यात प्राप्त हो जाता है ।। ३६ ।। ३७ ।। विशेषार्थ : -- ५. मध्यमवरीला संपात : - जघन्यपरीतासंख्यात से एक आदि अङ्क द्वारा वृद्धि को प्राप्त तथा उत्कृटपरीता संख्यात से एक अंक हीन तक के जितने विकल्प हैं, वे सब मध्यमपरीतासंख्यात है । ६ उत्कृष्टपरीता संपात : --- जघन्य युक्तासख्यात में से एक अंक कम कर देने पर उत्कृष्ट परीत संख्यात प्राप्त होता है । == ७ जघग्ययुक्तासंख्पात : - जधन्यपरीतासं ख्यात का विरलन कर प्रत्येक एक एक अङ्क पर जघन्यपरीतासंख्यात ही देय देकर परस्पर गुणा करने से जो लब्ध प्राप्त हो उतनी संख्या प्रमाण जघन्ययुक्तासंख्यात प्राप्त होता है, जो आवली सदृश है। अर्थात् जघन्ययुक्का संख्यात की जितनी संख्या है उतने समय की एक आवली होती है। जैसे - मानलो :- अंक संदृष्टिमें जघन्यपरीतासंख्यात: है, अतः जधन्यपरीता संख्यात (८) का विरलन कर उसी को देय देकर परस्पर गुणा करने से ( ६६६ १६७७७२१६ ) अन्ययुक्तासंख्यान का प्रमाण हुआ। अथवा -- जघन्यपरीतासंख्यात = जघन्ययुक्तासंख्यात । ( जघन्यपरीता संख्यात ) | . १ ܪ ܪ ܪ ܪ = ६ मध्यमयुक्का संख्यात:- जघन्ययुक्तासंख्यात से एक अधिक और उत्कृष्टयुक्तासंख्यात से एक कम करने पर जितने विकल्प बनते हैं वे सब मध्यमयुक्तासंख्यात हैं । ६ उरकृष्ट पुस्तासंख्या :- जधन्य असंख्याता संख्यात में से एक घटाने पर जो प्राप्त होता है, वह उत्कृष्टयुक्तासंख्यात का प्रमाण है । ६ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा ३८-३९-४० १० जबम पसंख्यातासंख्यात:-आवली जो अघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण है, उसकी कृति ( वर्ग ) करने पर जघन्य असंख्यातासंच्यात का प्रमाण प्राप्त होता है। ११ मध्यम पसंख्यातासंख्यात:-जना द्वारयातामात रे एनः म हारादि को प्राप्त तथा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात से एक अंक हीन तक के जितने विकल्प हैं, वे सत्र मध्यम असंख्यातासे झ्यात हैं। १२ उ मसंख्यातासंख्यात :-जघन्यपरोतानन्त में से एक अंक कम कर देने पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होता है। १३ जघन्यपरीतानन्त का स्वरूप : अबरे सलामविरलणदिज्जे विदियं तु विरलिदण तहिं । दिज्नं दाऊण इदे सलामदो 'रूवमबणिज्ज ।। ३८ ।। तत्युप्पण्णं विरलिय तमेव दाऊण संगुणं किया । अषणय पुणरवि रूवं पुचिल्लसलागरासीदो ।। ३९ ।। एवं सलागरासिं णिहाविय तत्थतणमहारासिं । किच्चा तिप्पडि विरलणदिजादी कुणदि पुच्वं च ।। ४० ॥ अवरे शलाकाविरलनदेये द्वितीय तु विरलय्य तस्मिन् । देयं दत्त्वा हते शलाकात: रूपमपनतव्यम् ॥ ३८ ॥ नत्रोत्पन्न बिरलग्य तदेव दत्वा संगुणं कृत्वा । अपनयेत् पुनरपि रूप पूर्वतनशलाकाराशितः ॥ ३९ ।। एवं शलाकाराशि निष्ठाप्य ततममहाराशिम् । कृत्वा त्रिःप्रति विरल नदेयादि करोति पूर्व व ॥ ४० ॥ प्रवरे। शिकवारासंख्यातजधन्ये शलाकाविरलनवीयमामरूपेण त्रिषा कृते तत्र द्वितीय विरलप्य तस्मिन् विरलिले देयं वस्वा अन्योन्यहमिति मालाकाराशित रूपमयतव्यम् ॥ ८॥ तस्थुप्परणं। समान्योन्याभ्यास्तं विरलय्य तदेव दत्वा संगुणं कृत्वा प्रपनयेत् पुनरपि रूपं पूर्वसनालाकाराशितः ॥ ३६॥ एवं सला । एवं शलाकाराशि मिष्ठाप्य तत्रतनान्योन्याभ्यस्तमहाशि वा विप्रतिबिरसन. देमावि पूर्वमिव शलाकात्रयनिष्ठापनं कुर्यात् ।। ४० ।। . गाथार्य :-जघन्य असंख्यातासंख्यात को शलाका. विरलन और देय रूप से स्थापन कर दूसरी विरलन राशि का बिरल न कर प्रत्येक एक एक अंक पर देय राशि देकर परस्पर गुणा करना, और शलाका राशि में से एक अंक घटा देना चाहिये। उपयुक्त देय राशि का परस्पर गुणा करने में १ रुवमवणेज्ज (ब.)। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसामान्याधिकार ४३ उत्पन्न हुई महाराशिका विरलन कर प्रत्येक अङ्क पर उसी को देय देना, और परस्पर गुणा कर शलाका राशि में से एक अङ्क घटा देना चाहिये । इस प्रकार शलाका राशि को समाप्त करने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसे पूर्वोक्त प्रकार विरलन, देय और शलाका के रूप में तीन प्रकार स्थापन करना चाहिये ।। ३८, ३६४० ॥ विशेषार्थ :- जघन्य असंख्याता संख्यान कोशलका, विरलन और देय राशि रूप से तीन जगह स्थापन करना चाहिये। विरलन राशि का एक एक अंक विरलन कर देय राशि उस प्रत्येक अंक के प्रति देव देकर परस्पर गुग्गा करने के बाद वालाका राशि में से एक घटा देना चाहिये । परस्पर के गुणन में उपन्न हुई राशि का पुनः विरलन कर उसी प्रकार देय देकर परस्पर गुणा करने के बाद शलाका राशि में से दूसरी बार एक अंक और घटा देना चाहिये । परस्पर के गुरगन से प्राप्त हुये लब्धको पुनः विरलन कर उसी को देय देकर परस्पर गुणा करने के बाद शलाका राशि में से तीसरी बार एक अंक घटा देना चाहिये। इसी प्रकार पुनः पुनः विरलन, देय, गुणन और ऋण रूप क्रिया तब तक करना चाहिये जब तक कि शलाका राशि समाप्त न हो जाय । ( यह एक बार शलाका राशि की समाप्ति हुई ) इस प्रथम शलाका राशि के समाप्त हो जाने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसे पुनः पूर्वोक्त प्रकार से चालाका विरलन एवं देय रूप से स्थापन करना चाहिये, तथा इस महाराशि का विरलन, देय, गुलन और ऋण रूप प्रक्रिया को पुनः पुनः तब तक करना चाहिये जब तक कि एक एक अंक घटाते घटाते शलाका रूप महाराशि की समाप्ति न हो जाय। (यह द्वितीयचार शलाका राशि की समाप्ति हुई ) इम द्वितीय शलाका राशि के समाप्त होने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसे पुनः जलाका विरलन और देय रूप से स्थापित कर तृतीयार उपर्युक्त विरलनादि क्रिया को तब तक करना जब तक कि एक एक अंक घटाते घटाते महाराशि स्वरूप शलकाराशि की परिसमाप्ति न हो जाय। ( यह तृतीय वार शलाकाराणि की समाप्ति हुई ) उपयुक्त समस्त क्रिया को गलाकायनिष्ठापन ( ममाप्ति । भी कहते हैं । एवं विदियमलागे तदियसलागे च णिहिदे तत्थ गाथा : ४१ से ४५ जं मज्झासंखेज्जं तहिमेदे पक्विवेदव्वा ।। ४१ ॥ धम्मम्मि मिजीवमलोगागासम्पदेसपतेया । तत्तो असंखगुणिदा पदिडिदा दप्पि रासीओ ||४२ ॥ तं कतिप्पडिगमिं विरलादि करिय पढमविदियसलं । तदियं च परिसमाणिय पुच् चा तत्थ दायन्वा ॥ ४३ ॥ कम्प ठिदिबंधपच्चपरसंबंध ज्वसिदा असंखगुणा । जोक्स विभागपच्छिदा विदियपकखेवा ॥ ४४ ॥ तं रासि पुन्यं वा तिप्पट विश्लादिकरणमेत्थ किदे । भवरपरिचमणं तं रूऊणम संख संखय रं ।। ४५ ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ मिलोकमार गाथा : ४१ से ४५ एवं द्वितीयश लाकायां तृतीयश लाकायां च निष्ठितायां तत्र । यत् मध्यासंख्यातं नस्मिन् एते प्रक्षेप्तध्याः ॥ ४१ ।। धर्माधर्मकजीवक लोकाकाशप्रदेशप्रत्येकाः । ततः असंख्यगुणिताः प्रतिष्ठिताः पडपि राशयः ।। ४२ ।। तं कृतांत्रःप्रति राशि बिरलादि कृत्वा प्रथमदिनीय शलाकाम् । तृतीयां च परिसमाप्य पूर्व वा तत्र दातव्याः ।। ४३ ।। कल्पस्थिनिबन्धप्रत्ययरसबन्धाध्यबसिता असंख्यगुणाः । योगोत्कृष्टाविभागप्रतिच्टेदाः द्वितीयप्रक्षेपाः ॥ ४४ ।। तं राशि पूर्व वा निः प्रति विरलादिकरणं अत्र कृते । अवरपरीतमनन्तं रूपोनमसंख्यासंध्यवरम् ॥ ४५ ॥ एवं । एवं द्वितीयशलाकायां तृतीयशलाकायां च निष्ठापितायो सत्यां तत्र यम्मध्यमासंख्यात जातं तस्मिन एसे प्रग्ने वक्ष्यमारणा राशायः प्रक्षेप्तव्याः ॥४१॥ धम्मा । पधिर्मकजीवलोकाकाशप्रवेशाः प्रप्रतिष्ठितप्रत्येकाः ततो लोकाकाशप्रवेशावसंख्यातपरिणताः = |ततोपि प्रतिष्ठितप्रत्येका पपरैकातल्यातलोकगुरिणताः =gx = छ। एते पापि रायः प्रक्षेप्याः ॥४२॥ . . संकय । तं कृतत्रिःप्रतिराशि विरलावि मा प्रथमशलाको द्वितीयशलाको तृतीयशलाका परिसमाप्य पूर्वमिव एते तत्र वातव्याः॥४३॥ कप्पठिरि। कल्पः संल्पातपल्यमात्र, ततः स्थितिबन्धप्रत्ययाः असंख्यातलोकगुरिणता: = स: रसबन्यायवसिताः प्रसंख्यातलोकगुणाः =gx = है, ततो योगास्कृष्टाविभागप्रतिच्छेवाः पक्ष्यात लोकगुणाः=gx =gx = 8| एते द्वितीयप्रक्षेपाः ॥ ४४ ।। तं रासि । त राशि पूर्वमिव निःप्रति कृत्वा विरलनाविकरणं विधाय पस्मिन् कृते भवर. परीतानन्त सत् कपोनं चेत् प्रसंस्पाताल्पातबरम् ।। ४५ ॥ ___ गाथा :-इसप्रकार द्वितीय शलाका और तृतीय शलाका का निष्ठापन होने पर (भलाकात्रय की परिसमाप्ति होने पर ) जो मध्यम असंज्यातासंख्यात स्वरूप रागि उत्पन्न हो उसमें ( असंण्यात प्रदेशी। ) धर्म द्रव्य (२) अधमंध्य ( ३ )एक जीव द्रव्य और ( ४ ) लोकाकाश । इन मबके प्रदेश तथा (५) अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवों का प्रमाण जो कि लोकाकाश के प्रदेशों से असंख्यात गूणा है। तथा (६) प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवों का प्रमाण जो कि अप्रतिष्ठित जीव राशि से असंख्यात गणा है । ये छह राशियां मिला देना चाहिये। - - -- -.-.- - -- ---- १ निःप्रतिक (०,५.)। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४६-४७ लोकसामान्याधिकार इस योग फल द्वारा मध्यम असंख्यातासंख्यात रूप जो महाराशि उत्पन्न हो उसको उपर्युक्त प्रक्रिया द्वारा शलाका पिरलन एवं देय रूपसे स्थापित कर पुनः पुनः विरलन देय, गुणन और ऋण रूप क्रिया के द्वारा प्रथम शलाका राशि, द्वितीय शलाका राशि और तृतीय शलाका राशि की पूर्ववत् परिसमाप्ति होने के बाद जो महाराशि उत्पन्न हो उसमें (१) उत्सपिणी अक्सपिणी स्वरूप कल्प काल ( जो संस्मात पल्य मात्र है ) के समयों का प्रमाण ( २ ) स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान जो कल्प काल के समयों से असंख्यातलोक गुणे हैं। (३) अनुभागबंधाध्यवसाय स्थान जो स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान से असंन्यात गुणे हैं। ( ४ ) योग के उत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेद जो अनुभाग बधाश्यवसाय स्थान से असंख्यात गुणे हैं । ये चार राशियाँ दूसरा प्रक्षेप है । अर्थात् पहिले छह राशियाँ मिलाई थी पुन ये चार राशियां मिलाई । ___ इन चारों राशियों को मिलाकर जो महाराशि प्राप्त हुई उसका पूर्वोक्त प्रकार शलाका, विरलन और देय रूप से स्थापन कर पुनः पुनः विरलन, देय, गुणन और ऋण रूप क्रिया करके शलाका श्रय निष्ठापन (समाप्त करना चाहिये । इम अन्तिम प्रक्रिया से जो राशि उत्पन्न हो वह जघन्य परीतानन्त का प्रमाण है। इसमें से एक अङ्क घटाने पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ४१ से ४५ ॥ विशेषार्थ:-गाथार्थ स्पष्ट है। भवरपरि विरलिय दाऊणेदं परोपरं गुणिदे । अबरं जुत्तमणतं अभव्यसममेत्य सऊणे ।। ४६ ।। जेद्वपरिचाणतं वग्गे गहिदे जहण्णजुत्तम्स ।। अवरमणताणतं रूऊणे जुत्तणंतवरं ॥ १७ ॥ अवरपरीत विरलय्य दरवा इदं परस्परं गुणिते। अबरं युक्तमनन्तं अभव्यसमं अत्र रूपोने ।। ४६ ।। ज्येष्ठपरीतानन्तं वगै गृहीते जघन्ययुक्तस्य । अवर अनन्नानन्तं रूपोने युक्तानन्तरम् ।। ४७ ।। प्रबरपरित । मनत्यपरिमितानन्त' विश्लम्म तवेव या तस्मिन राशौ परस्परं गुणिते मवरं युक्तानात प्रभष्यतमं । पत्र स्पोमेर सति ज्येवपरीतामस भवति । जघन्ययुक्तानन्तस्य वर्ग गृहीते प्रवरमनन्तानमा स्यात् । प्रारूपोते युक्तासन्तस्य परस्यात् ॥४६-१७॥ १४ मध्यमपरीतामन्त :- जघन्यपरीतानन्त से एकादि अंक द्वारा वृद्धि को प्राप्त तथा उत्कृष्ट परीतानन्त से एक अंक हीन तक के जितने विकल्प हैं। वे सब मध्यमपरीतानन्त हैं। १५ उत्कृष्ठपरीतासरत :-जयन्ययुक्तानन्त में से एक अङ्क कम कर देने पर उत्कृष्टपरीतानन्त प्राप्त होता है। १ जघन्यपरीतानन्तं ( म०, .)। २ रूप जने { २०, ५०)। ३ रूपे ऊने ( ब०, ५० )। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : ४८ से ५१ १६ जघन्ययुक्तामन्त का स्वरूप: गापापं :-जघन्यपरीतानन्त का विरलन कर प्रत्येक मंक पर जघन्यपरीतानन्त ही देय देकर परस्पर गुणा करने से जो लब्ध प्राप्त हो उतनी संख्या प्रमाण ( जघन्यपरीतानन्त ) जध० ५० अनन्त = अघन्ययुक्तानन्त होता है. जो अभव्य राशि के सदृश है। अर्थात् जघन्ययुक्तानन्त को जितनी संख्या होती है, उतनी संख्या प्रमाण अभव्य राशि है। इसमें से एक अङ्क घटाने पर उत्कृष्टपरीतानन्त होता है । तथा जघन्ययुक्तानन्त का वर्ग ग्रहण करने पर जघन्य अनन्तानन्त होता है, और इसमें से एक अङ्क घटा देने पर उत्कृष्टयुक्तानन्त प्राप्त होता है ।। ४६, ४७ ।। विशेषार्थ :- गाथा अयं स्पष्ट है। १७ मध्यमयुक्तानन्त :- जघन्य युक्तानन्त से एक अङ्क अधिक और उत्कृष्टयुनानन्त से एक अंक हीन करने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है, वह सब मध्यमयुक्तानन्त है। १८ उस्कृष्यतामत:-जधन्यअनन्तानन्त में से एक अंक घटाने पर जो लब्ध प्राप्त होता है. वह उत्कृष्टयुक्तानन्त है। १९ जषम्यनन्तामन्त :--ज धन्ययुक्तानन्त का वर्ग ( कृति) करने पर जघन्यअनन्तानम्न प्राप्त होता है। २० मध्यममनन्तानन्त:- जघन्यअनन्तानन्त से एक अंक अधिक और उत्कृष्ट अनन्तानन्त में एक अंक हीन तक के सभी विकल्प मध्यम अनन्तानन्त हैं। २१ उरकूष्टयनन्ता का स्वाप : अवराणताणतं तिप्पहि रामि करिच विरलादि । तिसलागं च ममाणिय लद्धदे पक्षिवेदव्या ॥४८॥ सिद्धा गिगोदसाहियवणम्फदिपोग्गलपमा अणंतगुणा । काल अलोगागासं कच्चैदेणंतपक्खेवा ॥४९।। तं तिण्णिवारव ग्गिदसंवगां करिय तत्थ दायब्वा । धम्माधम्मागुरुलघुगुणाविभागप्पडिन्छेदा ||५|| लद्धं तिबार बग्गिदसंबग्गं फरिय केवले गाणे । अपणिय तं पुण खिने तमणताणतमुकासं ।।५।। अवरानन्तानन्तं त्रिःप्रतिराशिं कृत्वा विरलनादि । विशलाकां च समाप्य लब्धे एते प्रक्षेप्तव्याः || ४ || सिद्धा निगोदसाधिकवनस्पति पुद्गलप्रभा अनन्तगुणाः । काल अलोकाकाशं पद चैते अनन्तप्रक्षेपाः ॥ ४९ ।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ४. कोणासन्यः चना तं त्रिवारवगितसंवर्ग कृत्वा तत्र दातव्याः । धर्माधर्मागुरुलधुगुणाविभाग प्रतिच्छेदाः ॥ ५ ॥ लब्ध त्रिवारं वर्गितसंवर्ग कृत्वा केवलज्ञाने । पनीय तं पुनः क्षिप्ते समनन्तानन्त मुस्कृष्टम् ।। ५१ ।। प्रवरा । प्रवरानम्तानात राशि निःप्रतिकं कृत्वा विरलनाविक त्रिशालाका समाप्य पत्र लब्ध एते प्रक्षेप्तव्याः ॥ ४ ॥ सिया। सिद्धरामिः ३ मोवराशे (१६) मातक भागः, सोनम्तगुणः पृषिम्मास्चितुष्टयप्रत्येकवनस्पतित्रसरातमिन्यूनसंसारिराशिरव १३ = निगोयराशिः, निगोदरायः सकाशात बनस्पतिराशि: प्रत्येकम साधिक: १३ = । ततो जीवराशेरनन्तगुणः पुगलराशि: १६ प ततोमन्सगुणः' कालराशिः १६ खस, ततोयनन्तगुणः प्रलोकाकाशराशिः १६ । पोते पनन्तश्यप्रक्षेपाः ॥४९॥ त तिमिण । त राशि त्रिवारगिलसंवर्ग कृपा विप्रति विरलनादिकं त्रिशालाकां च समाप्येत्यर्थः । तत्र रामौ वातव्याः षषिमंत्रव्यागुरुलघुगुरगाविभागप्रतिच्छेवा: । बस ॥ ५० ॥ ____सद्धं तिबार । लब्धं त्रिवार गितसंवर्ग कृस्ता पूर्वमिव त्रिप्रति पिरलमावि शिलाको च समाप्येत्यर्थः । एतदेव केवलशाने प्रपनीय तदेव तस्मिन् पुननिक्षिप्ते यो राशिवत्पद्यते । मन्तामन्त स्पोरकट जानोहि ॥ ५१ ॥ गापार्य:-जघन्य अनन्नानन्न रूप राशि का तीन बार पूर्वोक्त प्रकार विरलन, देश, गुणन और अगादि क्रिया को पृन पुनः करते हुये प्रथम शलाका, द्वितीयगलाका और तृतीय शलाका को पूर्वोक्त प्रकार से ममाप्त करने के बाद मध्यम अनन्तानन्त स्वरूप जो लन्ध प्रमाण प्राप्त हो उसमें (१) जो सम्पूर्ण जीव राशि के अनन्ला भाग प्रमाण है, ऐसी सिद्ध राशि । ( २ । (पृथ्वीकायादि चार स्थावर, प्रत्येक वनस्पलि और श्रस इन तीन राशियों से रहित संसार राशि प्रमाण, ऐम निगोद जीवीं के प्रमाण रूप ) निगोद राशि, जो कि सिद्ध राशि से अनन्त गुणी है। । ३) प्रत्येक वनस्पति सहित निगोद वनस्पत्ति राशि अर्थात् सम्पूर्ण वनस्पति । ( ४ ) जीव राशि से अनन्त गुणी पुद्गल राशि (५) पुद्गल राशि से अनन्नानन्त गुणी काल के ममयों स्वरूप कालराशि । ( ६ ) काल राशि से अनन्त गुणे प्रमाणवाली अलोकाकाश राशि । अनन्त स्वरूप ये छह राशियां क्षेपण कर देना चाहिये । छह राशियों को मिलाने के बाद जो लब्ध प्राप्त हो उस महाराशि को तीन वार गित संगित करना है स्वरूप जिसका ऐस विरलन, देय गुग्गन और ऋणादि क्रियाओं को पुनरावृत्ति द्वारा शलाका त्रय निष्ठापन कर जो विगद राभि उत्पन्न हो उसमें धर्म द्रश्य और अधर्म द्रव्य के अगुरुल घुगुण के अविभागी प्रतिच्छेदों का प्रमाण मिला देना चाहिये। १ नोऽनन्तानन्तगणः ( 1०, प.) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा: ५२ उपयुक्त प्र योग से जो राशि हो उन पुनः तीन वार वगित संगित करें, अर्थात पूर्वोक्त प्रकार से विरलनादि क्रिया द्वारा शलाका चय को समाप्ति कर जो महाराशि रूप लब्ध प्राप्त होगा वह भी केवलज्ञान के बगबर नहीं होगा, अतः केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में से उक्त महाराशि घटा देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको पैसे का वैमा उसी महाराशि में मिला देनेपर. केवलझान के अविभागप्रतिच्छदों के प्रमाण स्वरूप उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त हो जागा ॥ ४८ मे ५१ ॥ विशेषार्थ : - तीन गाथाओं का विशेपार्थ गाथार्थ सदृश ही है। ( गा० ५१ ) केवलजान के अविभागप्रतिच्छेदों की संख्या सर्वोत्कृष्ट है । वह संख्या मध्यमअनन्तानन्त स्वरूप जीय, पुद्गल, काल और आकाश के प्रदेशों एवं समयों को गुणा करने में अथवा वगित मंच गित करने से भी प्राप्त नहीं होती, अत: उस सर्वोत्कृष्ट संख्या को प्राप्त करने का मात्र एक यही उपाय है कि उममें से मध्यम प्रनतानन्तको घटा कर जो शेष रहे वह उसी मध्यम अनन्तानन्त में जोड़ देने से रस्कृष्अनन्तानन्त हो जाला है। जैसे :-५०० में से १०० को चटाने पर । ५..-१०.)= ४०० कोष रहते हैं। इस रोप ४०० को १८० में जोड़ देने से ( ४०० + १00)=५.० हो जाते हैं। केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद सर्वोत्कृष्ट अनन्तारान्त स्वरूप हैं, अत: केवलज्ञान में यह शक्ति है कि ऐसे अनन्तानन्त लोकालोक होते तो उनको भो जान लेता। किन्तु उम शक्ति की व्यक्ति उतनी ही होती है जितने कि जेय हैं । श्री कन्यकन्दाचार्य ने प्रवचनसार की गाथा मं० २३ में जो यह कहा है किया गेय पमाणं' अर्थात ज्ञान जय प्रमाण है वह केवलज्ञान को शक्ति की व्यक्ति की अपेक्षा कहा है। ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जो केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में अधिक हो, अतः केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों की संख्या को सर्वोत्कृष्ट अनन्तानन्त कहा है। संभ्या प्रमाण में इमसे बड़ा कोई प्रमाण नहीं है। अथ श्रुतज्ञानादीनां विषयस्थान निरूपयति जावदियं पत्रकावं जुगवं मुदओहिकेवलाण हये । तादियं संखेजमसंखमणेतं कमा जाणे ॥५२॥ यावत्कं प्रत्यक्षं युगपत् श्रुनावधिकेवलानां भवेत् । तावत्कं संख्येयमसंख्यमननं कुमान् जानीहि ॥१२॥ जाववियं । यावन्मात्र प्रत्यक्षं पुगपर धुतावषिकेवलज्ञानाना भवेत् तावमात्र संस्थालमसंख्यातमनन्तं कुमाजानीहि ॥५२॥ श्रतज्ञानादिकों के विषय रूप स्थानों का निरूपण: गावार्थ:-जितने विषय, युगपत् प्रत्यक्ष धृतज्ञान के हैं, अवधिज्ञान के हैं, और केवल ज्ञान के हैं, उन्हें कम से संख्यात, असंख्यात और अनन्त जानो ॥ ५२ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५३-५४ लोकसामान्यत्रकार विशेषापं:-जितने विषयों को शुतज्ञान पुगपत् प्रत्यक्ष जानता है, उसे संक्ष्यात कहते हैं । जितने विषयों को अवधिज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है, उसे असंख्यात कहते हैं । तथा जितने विषयों को केवलज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है, उसे अनन्त कहते हैं । इस परिभाषा के अनुसार 'अपुद्गल परिवर्तन भी अनन्त है, क्योंकि वह अवधिज्ञान के विषय से बाहर है, किन्तु वह परमार्थ अनन्त नहीं है, क्योंकि मपुद्गल परिवर्तन काल व्यय होते होते अन्त को प्राप्त हो जाता है अर्थात् समाप्त हो जाता है । आय के विना व्यय होते रहने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह राशि अक्षय अनन्त कहलाती है। अथ चतुदंशधाराणां नामानि निवेदयति धारेत्थ सव्वसमकदियणमाउगइदरबेकदीविंदं । तस्स पणाधणमादी अंतं ठाणं च सव्यस्थ ।।५३|| धारा: अव सवंसमकृतिघनमातृकेनरद्विकृतिवन्दम् । तस्य घनाधनमादि अन्नं स्थानं च सर्वत्र ॥ ५३ ॥ पारस्य । पाराः पत्र शास्त्रे निमप्यन्ते । सबंधारा, समपारा, कृतिधारा, बनवारा, कृतिमातृकापारा, घनमातृकापारा, समाविम्प इतरा विषमबारा, प्रकृतिवारा, पामारा, प्रकृतिमातृकापारा, प्रधनमातृकाधारा प्रति, विरूपवर्गवारा, विष्पधनधारा, हिपघनाघमपास पासामान्तरपामानि सर्वत्र धारासुकाध्यन्ते ॥५३ ॥ संख्यात असंख्यात और अनन्त की सिद्धि के लिये निम्नलिखित चौदह धाराओं का वर्णन किया जा रहा है :चौदह धाराओं के नामः गायार्य :-यहाँ धाराओं का वर्णन करते हैं । १सर्वधारा २ समधारा ३ कृतिधारा ४ बनधारा ५ कृतिमातृकाधारा ६ धनमातृका धारा तथा इनकी प्रतिपक्षी ७ विषम धारा ८ अकृति धारा, ९ अधन धारा, १० अकृतिमातृका धारा ११ अघनमातृका धारा १२ द्विरूप वर्ग धारा १३ द्विरूप धन धारा और १४ द्विरुप धनाधन धारा । ये चौदह धाराएं हैं। इनके आदि स्थान, अन्तस्थान और स्थान भेद धाराओं में सर्वत्र कहते हैं ।। ५३ ।। अथ सबंधारास्वरूप निरूपयति उत्चेव मन्त्रधारा पुथ्वं एमादिगा हवेज जदि । सेसा समादिधारा तत्थुप्पण्णेति आणाहि ।। ५४ ।। उक्तं व सर्वधारा पूर्व एकादिका भवेत् यदि ।। शेषाः समादिधारा: तत्रोत्पन्ना इति जानीहि ।। ५४ ।। उत्तेव । उक्तं सर्वधारा स्यात् । पूर्वमेकारिका भवेदि, शेषाः समाविषारा सस्तित्रोपमा हति मानीहि । प्रसाटो मातम्या "१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, के. १६" ॥ ५४॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ গিলামা गाथा :५८ समविषम धारा के स्थानों का प्रमाण और उन्हें प्राप्त करने की विधि : गाथा :- सम और विषम दोनों धारावों के स्थान केवलज्ञान के अचं प्रमाण ( केवलज्ञान से माघे ) होते हैं। क्योकि आदि और अन्त स्थान को शुद्ध करके ( अधिक प्रमाण में से होन प्रमाण को घटा कर ) वृद्धि चय का भाग देने पर जो लब्ध आवे उसमें १ अक मिलाने से स्थानों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ।। ५७ ॥ _ विशेषार्थ :- "आदीअन्तेसुद्ध, यडिहिदे इगिजुदे धारणा' इम करण सूत्रानुमार आदि और अन्न स्थान को शुद्ध करने अथति आदि और अन्त के प्रमाण में जो अधिक हो उममें से हीन प्रमाण घटाना चाहिये प्रत्येक स्थान पर दो की वृद्धि हुई है, अत: दो का भाग देकर जो लन्ध आवे उममें एक जोड़ देने से स्थानों की प्राप्ति हो जायगी। जैसे :-ममधारा का अन्तस्थान ६५५३६ और आदि स्थान दो है। प्रत्येक स्थान पर वृद्धिचय २ है, अत: ६५५३६-२-६५५३४ : २- ३२७६७ +१=३२७६८ ये केवलज्ञान के अर्धप्रमाण समधारा के स्थान हैं। इसी प्रकार :- विषमघाग का अन्तस्थान ६५५.३५ है और आदि स्थान १ है। वृद्धिचय २ है । अनः ६५५३५-१६५५३४५२-३२७६७+ १८. ३२७६८ ये विषम धारा के केवलज्ञान के अर्घप्रमाण स्थान हैं । अथ कृतिधारामाह : इगिचादि केवलंतं कद्री पदं तप्पदं दी अवरं । इगिहीण तप्पदकी हेष्टिममुकाम सम्वत्थ ।। ५८ ।। एक चत्वार्यादिः केवलान्ता कृतिः पदं तत्पदं कृतिः अबरं । एकहीनतत्पदकृतिः अधस्तनमुत्कृष्ट सर्वत्र ॥ ५८ ।। इगिवादि। एक स्वार्याणिः केवलज्ञानान्ता कृतिधारापात् । पदं ऋतिपारास्थानं तत्पदं रेवलनामस्य प्रमममूलमात्र संख्यातादीनां जघन्यं कृत्पात्मकमेव एकहोमस्यासंख्यातादोनो प्रथममूलस्य कृतिरेव सर्वत्रापस्तनायासनोकृष्टप्रमाणं भवति । पसंदृष्टी १, ४, ६, के १६॥ ५८ ।। ४, कृतिधारा का स्वरूप : जापार्ष:-एक, चार आदि केवलज्ञान पर्यन्त कृतिधारा होती है। केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल पर्यन्त जो वर्गमूल हैं उनका वर्ग करने से जो राशियां उत्पन्न होती है वे ही इस धारा के स्थान हैं । सर्वत्र जघन्य स्थान तो कृतिरूप हो हैं । जमाय स्थान के वर्गमूल में से एक पटाकर उसकी कृति करने पर अपने से अधस्तन का उत्कृष्ठ भेद प्राप्त हो जाता है ॥ ५८ ।। ___ विशेषार्थ :-- कृति नाम वर्ग का है, अतः जो संख्या वर्ग से प्रसन्न है अर्थात किसी भी संस्था का परस्पर में गुणा करने से उत्पन्न होती है वह कृतिधारा की संख्या है। जैसे :-१४१-१, २४२ -४, ३४३-६, ४४४=१६, २५, २६ ... ... ... ....( २५४ ) =६:४५१६, ( २५५ ,२= ६५०२५ और अन्तिम स्थान ( २५६ ) == ६५५३६ उत्कृष्ट अनन्तानन्त केवलज्ञान स्वरूप है। अर्थात् एक में प्रारम्भ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ५९ लोकसामान्याधिकार कर एक एक की वृद्धि करते हुये केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल तक के समस्त वर्ग स्थान इस धारा के स्थान है। कृतिधारा के स्थान को तत्मद कहते हैं, और वह पद केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल को संख्या प्रमाण है। इस धारा में जघन्य संन्यात (१) तो वर्ग रूप ही हैं । जघन्य असंख्यात ( १६ ) का वर्गमूल निकाल कर उसमें मे एक बटाना, जो अवशेष बचे उसकी कृति ( वर्ग ) करना । जो प्रमाण प्राप्त हो वह असंख्यात के अधस्तनवर्ता ( भरख्यात ) का कृतिधारा में उत्कृष्ट भेद है । वैसे-अंकसंदृष्टि :-मानलोजघन्य असंख्यात का प्रमाण १६ है, उसका वर्ग मूल ४ प्राप्त हुआ। चार में से एक घटाया (४-१=३) तीन रहे, ३ का वर्ग ( ३ ४३)९ प्राप्त हुआ। असंख्यात के नीचे जो संख्यात है, इस धारा में संख्यात का उत्कृष्ट ९ है । वैसे-अंक संदृष्टि में उत्कृष्ट संख्यात १५ माना गया है. और ९ के बाद १० को आदि लेकर १५ पर्यन्त सभी संख्याए १ के अंकमे बड़ी हैं। किन्तु वे किसी भी संख्याके वर्ग से उत्पन्न नहीं हई अतः उत्कृष्ट स्थान को प्राप्त नहीं हुई। ६ की उत्पत्ति ३ के वर्ग में हुई है, इसलिये इस धारा का उत्कृष्ट ९ ही है। इस धारा में जघन्य परोतासंख्यात, जघन्य युक्तासंख्यात, जघन्य-असंख्यातासंख्यात, जघन्य परीनानन्त. जघन्य युक्तानन्त, गधन्य अनन्तानन्त और उत्कृष्ट अनन्तानन्त हैं । किन्तु उत्कृष्ट संक्यात, उप परीतामख्यान, युक्तासमान, सरका सांगातासंभात उत्कृष्ट परीतानन्त और उत्कृष्ट युक्तानम्न नहीं हैं । इसलिये अपने अपने उत्कृष्ट से उपरितन जघन्य के वर्गमूल में से एक कम करके वर्ग करने पर कतिधारा में अपना अपना उत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होता है। अथाकृतिधारोच्यते दुप्पहुदिरूपवज्जिदकैवलगाणावसाणमकदीए । सेमविही विसमं वा सपणं केवलं ठाणं ।। ५९ ।। द्विप्रभृति रूपवजितकेवलज्ञानाबसातमकृतौ । शेषविधिः विषमा वा स्वपदोनं केवलम् स्थानम् ।। ५६ ॥ दुप्प । द्विप्रमृतिः रूप जितकेवलमानमवसानं प्रकृतिधारायां शेषविधिः संख्याताबीना जघन्यमुस्कृष्टं व विषमधाराक्त "जुबमवरमवरं बरं वरं होवि सम्वत्य" इति ज्ञातव्यमित्यर्षः। इतिस्पानरहितत्वात् स्वप्रथममूसोनं केवलज्ञानं स्थानं स्यात् । प्रसंदष्टौ २, ३, ५, ६, ७, ८, १०, ११, १२, १३, १४, के १५ ॥ ५ ॥ ५. अकृतिधारा का स्वरूप : गाचा :--दो को आदि लेकर एक कम केवलज्ञान पर्यन्त अकृति धारा है इस पारा की शेष विधि विषम धारा सदृश है । केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल से कम इस धारा के स्थान है। क्योंकि वर्गरूप संख्याएं इस धारा में नहीं हैं ।। ५९ ॥ विशेषार्थ:-जो संख्याएं स्वयं किसी के वर्ग से उत्पन्न नहीं होतीं वे संख्याएं अकृति धारा की हैं। कृतिधारा की संख्याओं के अतिरिक्त दो से प्रारम्भ कर एक कम केवलज्ञान पर्यन्त की सभी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार ५४ संख्याएं अकृति धारा को हैं । जैसे :- २, ३, ४, ६, ७, ८, १० २५४, २५५, २५७ ६५५३३, ६५५३४ और ६५५३५ इस धारा में वर्ग रूप अर्थात् कृतिधारा के स्थान नहीं मिलते। जैसे:१, ४, ६, १६, २५, ३६, ........-. ६५०२५ और ६५५३६ इस अकृति धारा में नहीं मिलेंगे, क्योंकि ये वर्ग रूप हैं। सबंधारा के स्थानों में से कृति धारा के स्थान घटा कर जो शेष रहते हैं. वे प्रकृति धारा के स्थान हैं। गाथा : ६० posining **4 इस धारा की शेष विधि विषम घारा सदृश है। अर्थात् जैसे विधम धारा के जघन्य असंख्यात और जघन्य अनन्त की उत्पत्ति समधारा के जघन्य असंख्यात और जघन्य अनन्त ( १६ और (२५६ ) में एक एक अंक मिलाने से हुई थी, उसी प्रकार यहाँ भी होगी। इस धारा में उत्कृष्ट संख्यात, उत्कृष्ट परीतासंख्यात, उत्कृष्ट युक्ता असंख्यात, उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात, उत्कृष्ट परीतानन्त और उत्कृष्ट युक्तानन्त आते हैं, शेष अर्थात् उत्कृष्ट अनन्तानन्त और संख्यात असंख्यात तथा अनन्त के सभी जघन्य नहीं आते । अथ घनधारा कथ्यते इपिर्दिकेवलदलमूलस्सुवरि चडिदठाणजुदे । तणमंतं बिंदे ठाणं आसष्णघणमूलम् ।। ६० । एकाष्टप्रभृति केवलदल मूलस्योपरि चटितस्थानयुते । तद्वनमंतं वृन्दे स्थानं आमन्नघनमूलम् ।। ६० । ६५ इति । प्रवश्यंते । एकाष्टप्रमृति १, ८, २७, एवममन्त्रानि षनस्थानानि गत्या केवल - बलस्य ३२७६८ घनरूपस्य यन्मूलं ३२ तस्मिन् लघुपरि ३२ चटितस्थानानां उपर्युपरिगतधनमूलमान ३३, ३४, ३५, ३६,३७,३८,३६,४०, संस्थाने ते सति तस्य ४० बमो मन्तो भवति ६४०००। तस्येति कथम् ? यस्मादात्मघनमूल ४० पाधिकस्य घनमूलस्य ४१ घने गृहीते ६८६२१ केवलज्ञानं व्यतिक्रम्पराविरुत्पद्यते तस्मात्तस्यैव ४० घन: ६४००० घरधारायामन्तो भवति । स एवासइस्युपले तन्मूलमेव चासन्प्रघनमूलमिति कथ्यते । स्थानं केवलज्ञानस्यासन्न घनमूल प्रमाणं क्या ॥ ६० ॥ ६. घनधारा का स्वरूप गाथार्थ :- एक और आय को आदि करके केवलज्ञान के अर्धभाग के घनमूल से ऊपर ऊपर जो घनमूलरूप स्थान प्राप्त हों, उनको केवलज्ञान के अर्धभाग के घनमूल में मिलाने से जो स्थान बनता है उसे आसन्न घनमूल कहते हैं । इस आसम्नघनमूल का घन ही इस धनधारा का अन्तिम स्थान है ॥ ६० ॥ संगुले भने गृहले ( ब०५०) 1 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | गाथा: ६१ लोकसामान्याधिकार विशेषार्थ :-किसी भी संख्या को तीन बार परस्पर मुणा करने से दो संख्या आती है, वह धनधारा की संस्न्या कहलाती है। जैसे-१x१x१ = १ २४२४२-८, ३४३४३-२० ४४४२४=६४: ५५५-५-१२५ आदि। इस प्रकार अनन्त स्थान आगे जाकर केवलज्ञान के अध भाग का घनमूल प्राप्त होता है। केवलज्ञान का अर्घभाग धनस्वरूप हो है । केवलज्ञान के अभाग का घनमूल निकाल कर उसके ऊपर एक एक स्थान चढ़ते हुए घनमूल के जो स्थान प्राप्त होते हैं उन्हें केवलज्ञान के अाग के घनमूल में जोड़ देने से आसन्नधन प्राप्त होता है । इस आसन्नघनमूल का घन करने से जो स्थान प्राप्त होता है, वही इस धारा का अन्तिम स्थान है । आसन्नघनमूल से यदि एक अंक भी अधिक ग्रहण किया जाएगा तो उसका धन केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक हो जायगा अतः आसन्नघनमूल से आगे ग्रहण नहीं करना चाहिये । अंकसंदृष्टि :-१.८, २७, ६४, १२५ .............. ... इस प्रकार अनंत धनस्थान आगे जाकर केवलज्ञान ( ६५५३६ ) के आधे ( का धनमार ( २ प्राप्त होगा। इसके कपर एक एक स्थान चढ़ते हुए ३३, ३४. ३५, ३६ ३७, ३८, ३९ और ४० इन आठ स्थानों को ३२ में जोड़ देने पर (३२.८ ) ४० घनमूल प्राप्त हुआ। यही आमनघनमूल कहलाता है । इसका धन ( ४०x४० ४०) ६४००० होता है। यह धनधारा का अन्तिम स्थान है। यदि (४० आसनघनमूल के आगे एक अंक अधिक ( जैसे ४१ ) ग्रहण कर लिया जाए तो उसका घन ( ४१४४१x१) ६८१२१ प्राप्त होगा जी केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक हो जाएगा; किन्तु ऐसा हो नहीं सकता अतः आसन्नघनमूल ४० का धन ६४००० ही धनधारा का अन्तिम स्थान है। ६४००० को आसन्नघन कहते हैं और इसके घनमूल (४० ) को आमनघनमूल कहते हैं। इस घनधारा के समस्त स्थान केवल जान के आसन्नघनमूल प्रमागा ही होते हैं। अथ केवल दलस्प धनात्मकत्वे उपपनि पूर्वार्धन दर्शयन्न तरार्धनाधनधारामाह समकदिसल विकदीए दलिंद घणमेस्थ विसमगे तुरिए । अघणस्स दु मन्च वा विषणपदं केवलं ठाणं ॥ ६१ ।। समकृतिवाला विकृती दलिते घनः अत्र विषमके तुरिये । अघनस्य तु सर्व वा विषनपद केवलं स्थानम् ॥ ११ ॥ समक। द्विरूपवर्गधारायां समकृतिशलाके वर्गराशी बलिते घनो जायते । यथा षोडशकारिक १६ । ६५ -- | १८-1 व धाराय विषमतिशलाके वर्गराको चतुर्भागे गृहीते घनो मायते । या चतुष्कादिक । ४ । २५६ । ४२ - । एवमुक्तयायेन केवलनानस्य वर्गशलाकामां समत्वातस्मिन् केवलनाने पलिते धनो भवतीति सिक्षम् । तत्समरवं कर्ष जायत इति विमुच्यते । केवलशामस्य वर्गालाकाराशेदिल्यवर्गधारापामेवोत्यम्मस्वाद । एतदपि कुत इति चेत् "मवरावाइयलीवासलागा तयो सगडमियो" इति पुरस्तावक्ष्यमाणत्वात् । अघनधारायाः सर्वकारावर प्रक्रिया अयं विशेषः, विधनपर्व धनम्यान Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ त्रिलोकसार गाथा : ६१ केवलज्ञानमात्रं स्यात् । रु रहित सबंधाविति प्राह्म ं । प्रस्वःस्थान प्रमाणं "काकाशगोल कश्यायेन" विधनपदं केवलं धनस्थानन्यू२, ३, ४, ५, ६, ७, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६ ॥ ६१ ॥ अव गाथा के पूर्वार्ध में केवलज्ञान का अर्धभाग घन रूप ही होता है, इसको दर्शाते हुए उत्तरार्ध में अघन धारा का स्वरूप कहते हैं। : गावार्थ:- द्विरूपवगंधारा में जिस वर्ग स्थान की वर्गशलाकाराशि सम होती है उस वर्ग - स्थान का अर्थ भाग नियम से घन रूप ही होता है तथा इसी द्विरूपवगंधारा में जिस वर्गस्थान की वर्गशलाकाएं विषम होती हैं उस राशि का चौथाई भाग घनरूप होता है। सर्व धारा में से घनधारा के स्थानों को कम कर देने पर केवलज्ञान पर्यन्त समस्त स्थान अघनधारा स्वरूप ही होते हैं ॥ ६१ ॥ 67 विशेषाचं : - द्विरूपवर्गधारा में जिस वर्ग स्थान (१६, ६५५३६, एकट्टो ) की वर्गशलाकाएँ" सम (२, ४, ६, ८ ) होती हैं उसका भाग नियम से घनरूप होता है। जैसे- द्विरुपवर्गधारा का द्वितीय स्थान १६ और चतुर्थ स्थान ६५५३६ है जिसकी वर्गशलाकाएं क्रमशः २ और ४ है जो समरूप ही हैं, अतः १६ का अर्धभाग ८ दो के छन ( २२x२ ) स्वरूप है और ६५५३६ का अर्धभाग ३२७६= बत्तीस ( ३२ ) के घन ( ३२४३२४३२ ) स्वरूप है । इसी प्रकार द्विरूपवर्गधारा में जिस वर्ग स्थान ( ४, २५६, बादाल ) की वर्गशलाकाए विषम ( १, ३, ५ ) होती हैं, उस वर्गस्यान का चतुर्थ भाग नियम से घनरूप ही होता है । जैसे :- द्विरूपवर्गधारा के प्रथम स्थान ४ ओर तृतीय स्थान २५६ की वर्गशलाकाऍ १ और ३ हैं जो विषम है, अतः प्रथम स्थान ४ का चौथाई (४) = १ प्राप्त हुआ जो एक के घन स्वरूप है और तृतीय स्थान २५६ का चौथाई ( १७ ) = ६४ प्राप्त हुआ जो ४ के घन स्वरूप है । उपर्युक्त न्यायानुसार केवलज्ञान की वर्गशलाकाएँ सम होने से केवलज्ञान का अर्थ भाग घनरूप ही होता है, यह सिद्ध हुआ । शंका :- केवलज्ञान की वर्गशलाकाओं का सममता कैसे जाना जाता है ? समाधान :- केवलज्ञान की वर्गालाकाएं द्विरूपवर्गधारा में ही उत्पन्न होती हैं, अतः सम रूप हैं । शंका :- केवलज्ञान को वर्गशलाकाएं द्विरूपवर्गधारा में ही उत्पन्न होती हैं यह कैसे ज्ञात हो १ समाधान :- आगे कही जाने वाली "अव राखाइयलद्धीवासलागा तदो सगद्धछिदि" गाथा ७१ से जाना जाता है । अर्थात् द्विरूपवर्गधारा में जो राशियां उत्पन्न होती हैं वे समरूप ही होती हैं, और केवलज्ञान की वर्गशलाकाएं द्विरूपवर्गधारा में उत्पन्न हुई हैं अतः समरूप हैं। इसीलिये केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों का अर्धभाग घन स्वरूप है । अघन धारा की सम्पूर्ण प्रक्रिया सबंधारा सहा है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सबंधारा के स्थानों में से घनधारा के स्थान घटा देने पर शेष समस्त स्थान अघनधारा रूप हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इन स्थानों का प्रमाण 'काकाश्च गोलक' न्यायानुसार है । अर्थात् जो स्थान घन स्वरूप हैं वे धन रूप ही हैं, अघन रूप नहीं और जो स्थान अघन स्वरूप हैं, वे Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ६२-६३ लोकसामान्याधिकार अधन रूप ही हैं; धन रूप नहीं । इसीलिये घनधारा के स्थानों को छोड़कर इस धारा के समस्त स्थान केवलशान पर्यन्त ही हैं। जैसे :-२, ३, ४, ५, ६..............२५, २६, २५, २९.............६२, ६३, ६५...............६३९९९, ६४००१, ६४००२.............६५.६६६, ६५, कोर, ललिान यान ६५५३६ है। अय वर्ममातृकधारामाह इह वग्गमाउमाए सबगधारन्य चरिमरासीदु । पढम केवलमूलं पहाणं चावि तब्धेम ।। ६२ ।। इह वर्गमातृकायां सर्वकधारा व घरमराशिस्तु । प्रथमं केवलमूल तत्स्थानं चापि तदेव ॥ ६२ ॥ इह पाइह वर्गमातृकधारामा सबंधारा बरमराशिस्तु वलमानस्य प्रथममूलं स्थानमपि साबने । प्रकाशे। १.२० के ४ ॥ ६ ॥ ८. वर्गमानकधारा का स्वरूप : गायार्थ :-इस वर्गमातृकधारा में स्थानादि की प्रक्रिया सर्वधारा सहश ही है। इसका अंतिम स्थान केवलशान का प्रथमवर्गमूल है। केवलज्ञान के प्रथमवर्गमूल प्रमाण पर्यन्त ही इस धारा के स्थान होते हैं ।। ६२ ॥ विशेषा :-जो सच्याए वर्ग को उत्पन्न करने में समर्थ हैं उन्हें वर्गमातृक कहते हैं। इस वर्गमातृक धारा के समस्त स्थान सर्वधारा सदृश हो होते हैं । इस धारा की अन्तिम राशि केवलज्ञान का प्रथम वर्ग मूल है। एक से प्रारम्भ कर केवलज्ञान के प्रथममूल पर्यन्त जितने स्थान हैं, उतने ही स्थान इस धारा के हैं । जैसे :-मानलो अङ्कसंदृष्टि में केवलज्ञान का प्रथम वर्गमूल २५६ है अतः इस धारा में १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८ ..................२५२..२५३, २५४, २५५ ओर मन्तिम स्थान २५६ है। यदि इसके आगे एक भी अंक अधिक ( २५७ ) ग्रहण किया जाएगा तो उसका वर्ग केवलझान से आगे निकल जाएगा। २१ प्रकार के संख्या प्रमाण में से इस धारा में मध्यम अनन्तानन्त का अन्तिम बहभाग और उत्कृष्ट अनन्तानन्त नहीं पाया जाता । शेष सभी संख्याए पाई जाती हैं। अधार्गमातृकधारोच्यते : मकदीमाउभ आदी केवलमूलं सरूचमतं तु । केवलमणेय मम मूलणं केवलं ठाणं ।। ६३ ।। अकृविमातृकामा आदि: केवलमूलं स्वरूपमन्त तु । केवलमनेक मध्यां मूलोनं केवलं स्थानम् ॥ १३ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिलीकसार गाथा : ६४ अादी । प्रकृतिमातृकचारायाः माविः केवमानस्य प्रथममूल अपसहित अन्तस्तु केबलनानं मध्याममेकविध तस्याः स्यामं स्वमूलोमकेवलनानमा । अंकसंघका ६.७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६ ॥१३॥ ९. अवर्गमातक धारा का स्वरूप :-- गाथा:-इस अवर्गमातृक धारा का प्रथम स्थान केवलज्ञान के प्रथमवर्गमूल से एक अङ्क अधिक है. अन्तिमस्थान केवलज्ञान है और मध्यम स्थान अनेक प्रकार के हैं। इस धारा के समस्त स्थान केवलज्ञान के प्रथमवर्गमूल से रहित केवलज्ञान प्रमाण है ॥ ६३ ॥ विशेषार्थ :- जिन संख्याओं का वर्ग करने पर वर्गसंख्या का प्रमाण केवलज्ञान से आगे निकल जाता है, वे सब सख्याएं इस अवर्गमातृकधारा में ग्रहण की गई है। इस धारा का प्रथम स्थान एक अधिक केवलशान का प्रथमवर्गमूल है। अन्तिम स्थान केवलज्ञान है, तथा मध्यम स्थान अनेक प्रकार के हैं। इस धारा के समस्त स्थान केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल से रहित केवलज्ञान प्रमाण हैं । असे :--२५७, २५८, २५९, २६०................. ६५५३४, ६५५३५ और अन्तिम स्थान ६५५३६ है । इम धारा में केवलज्ञान के अर्धच्छेद, वर्गशलाका और वर्गमूल आदि नहीं पाये जाते हैं। अथ धनमातृकधारामाह-- घणमाउगम्स सव्वाधारं का सम्वपक्लिमो गसी । आसपणबिंदमूलं तमेव ठाणं विजाणाहि ।।६४ ॥ बनमातृकायाः सर्वकधारा इव मर्व पश्चिमी राशिः। आसन्नवृन्दमूलं तदेव स्थान विजानीहि ।। ६४ ॥ घणमाउ। धनमातृकायाः सर्वधाराबत प्रक्रिया, मंकसंही प्रयत-१, २, ३, ४, ५, ६, ७, प्रावि : ४.1 प्रर्य तु विशेष: सर्वपश्चिमो राशिः। क इति धेत केवलज्ञानस्य ६५-पासनधन ६४००० प्रथममूलं ४० तदेव तस्याः धममातृकापा: स्थानमिति नामोहि ॥ ६४ ।। १०. धनमानकधारा का स्वरूप :-- नापार्थ :--धनमातृकंधारा की स्थानादि सम्बन्धी प्रक्रिया सर्वधारा सदृश होती है। इसमें इतनी ही विशेषता है कि इस धारा का अन्तिम स्थान केवलज्ञान के आसन्नघन के घनमूल प्रमाण है; अतः इस धारा के स्थान भी केवलज्ञान के आसन्नधन के घनमूल प्रमाण ही है।। ६४ ।। विशेषार्थ:-जो संस्थाएं धन उत्पन्न करने में समर्षे हैं उन्हें धनमातृक कहते हैं । केवलज्ञान के आसन्नघनमूल पर्यन्त तो सभी संख्याओं का धन हो सकता है किन्तु यदि इसमें एक अंक अधिक का भी वन किया जाएगा तो केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक प्रमाण हो जाएगा। इसलिए एक को आदि लेकर केवलज्ञान के आसन्नघनमूल पर्यन्त इस धाय के स्थान होते हैं । बंसे-१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६५-६६ लोकसामाग्याधिकार ६, १०.................... ३५, ३६, ३७, ३८, ३९ और ४०। केवलज्ञान का प्रमाण ६५५३६ है और आसन्नषन ६४००० है अतः इसका प्रथम घनमूल ४० है जो धनमातृकधारा का अन्तिम स्थान है। इस धारा में केवलज्ञान का द्वितीय वर्गमूल तो पाया जाता है क्योंकि उसका घन केवलज्ञान के प्रथमवर्गमूल से गुणित द्वितीयवर्गमूल होता है जो केवलज्ञान से कम है किन्तु केवलज्ञान का प्रथमवर्गमूल नहीं पाया जाता क्योंकि इसका धन केवलज्ञान से अधिक हो जाता है । अयाधनमातृकधारोच्यते सं स्वसहिदमादी केवलमवसाणमघणमाउस्म । आसपणषणपदणं केवलणाणं हवे ठार्ण ।। ६५ ।। तत् रूपसहितं आदिः केवलमबसानमधनमातृकायाः । आसन्नधनपदोनं केवलशानं भवेत् स्थानम् ॥६५॥ तं । अंकसंधी घममातृकामा मत: ४० स: रूपसहितश्चेत् ४१ प्रधनमातृकाया पारित मस्या प्रवासानं केवलमानमेव ६५=प्रस्था: स्पानं पुन: केवलमानस्य ६५- प्रासमधन १४००० मसो ४०० केवलज्ञानमेव ६५४६६ भवेत् ॥ ६ ॥ ११. अघनमातकधारा का स्वरूप : गापा:-धनमातृक धारा के अन्तिम स्थान में एक अंक मिलाने से अधनधारा का प्रथम स्थान होता है, यहां से प्रारम्भ कर केवलज्ञान पर्यन्त समस्त स्थान अपनधारा रूप ही हैं । इस धारा के स्थान आसन्नघनमूल रहित केवलशान प्रमाण होते हैं ॥ ६५ ॥ विवोषार्ष:- जिन संख्याओं का धन करने पर घन रूप संख्या का प्रमाण केवलज्ञान से आगे निकल जाता है, वे सर्व संध्याएं इस अघनमातृक धारा में ग्रहण की गई हैं । धनमातृफ धारा के प्रतिम स्थान । ४. ) में एक अंक मिलाने पर ( ४ ) इस धारा का प्रथम स्थान बनता है । इस प्रथम स्थान से लेकर केवलशान पर्यन्त सभी संख्याएं इस धारा के स्थान हैं। जैसे:-४१,४२, ४३, ४५, ४५, ४६, ४७, ४८..................६५५३४, ६५५३.५ और ६५५३६ । केवलज्ञान स्वरूप ६५५३६ में से आसन्नघन ६४००० का प्रथमघनमूल (४० ) घटाने पर इस धारा के ६५४९६ स्थान बनते हैं। इस धारा में अघन्य संख्यात से लेकर जघन्य अनन्तानन्त तक का कोई भी स्थान नहीं है। उत्कट अनस्तानन्त है, किन्तु मध्यम अनन्तानन्त भगनीय है। अम विरूपवर्गधारां गाथासप्तकेनाह : बेरूत्रबग्गधारा चउ सोलसपेसदसहियछप्पण्णं । पणट्टी बादालं एकई पुष्वपुबकदी ॥६६ ॥ द्विरूपवर्गधारा चत्वारः षोडश द्विशतसहितषट्पञ्चाशत् । पगट्ठी द्वाचस्वारिंशत् एकाष्टी पूर्वपूर्वकृतिः ॥ ६६|| Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : ६७ मेहं । द्विरूपवर्गधारा कथ्यते । चत्वारि ४ षोडश १६ द्विशतसहितषट्पञ्चाशत् २५६ वाडीपचसात्तीसा६५५३६ "बावालं उरणचवी छवि विहसरीयणउदी" ४२६४९६७२६६ "एकच घर सत्तयं च च यं सुवालससियसना । पुष्णं रगब परण पत्र एक छक्के की शुक्कं च ।।" १८४४६७४४०७३७०६५५१६९६ ॥ एकमुसलरराशि: पूर्वपूर्वस्य कृतिः ॥ ६६ ॥ १२. सात गाथाओं द्वारा द्विरूपवर्गधारा का कथन करते हैं : ६० गाथार्थ इसमें उत्तर उत्तर स्थान प्राप्त होते हैं। इस धारा का प्रथम स्थान ४ ६५५३६, बादाल (४२ = ) और एकडी प्राप्त होती हैं जो पूर्व -: पूर्व स्थानों का वर्ग करते हुए है । इसका वर्ग १६, फिर २५६, पूर्व का वर्ग है ।। ६६ ।। विशेषार्थ :- द्विरुपवर्ग धारा में २ का वर्ग ४ यह प्रथम स्थान है । १६ द्वितीय स्थान है । इसी प्रकार २५६ तीसरा ( पणडी पंचसया छत्तीसा ) ६५५३६ चौथा, (बादानं चउरसउदी छष्णनदी बित्तरीयछाउदी) ४२६४९६७९९६ ( बादाल ) पाँचवरं तथा । एफ्टु च वस्त्तयं च च य सुततियसत्ता । सुगं एव गाव पंच य, एक्के छक्क्कगो यक्कं च ।। ) १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ ( एकट्टो) छठा स्थान है इस प्रकार उत्तरोत्तर राशि पूर्व पूर्व राशि के कृति ( वर्ग ) स्वरूप होती है । तो संखठाणगमणे वग्गसलाम छेदपदमपदं । अवर परिचासंखं आवलि पदरावली य हवे ।। ६७ ।। ततः संख्यस्थानगमने वर्गशलाकार्यच्छेदप्रथमपदम् । अवरपरीतासंख्यं आवलिः प्रतरावली च भवेत् ॥ ६७ ॥ सो संठारण । ततः संख्यातस्थानामि गत्या वर्गशलाकाराशिरुत्पद्यते । ततः संख्पालस्थामानि मया रशिदस्पद्यते । ततः संख्यावस्थामानि पश्वा प्रथममूलमुत्पद्यते । तस्मिन्नेकवारं वर्णिते जघन्यपरीतासंख्या राशिरत्पद्यते । ततः "उप्पज्जवि जो रासो विरलियविलक्क मेरा" इस्याविना वर्णशलाकानिषिद्धत्वात् ततः संख्यात स्थानानि गत्या प्रावलिरेवोत्पद्यते । तत्संख्यास्थानमानं कमितिचेत् । वेयराशे परि बिलियर्धस्वमात्राणि वर्गस्थानानि गत्वा विवक्षितराशियत्पाते इति ज्ञातव्यं । तस्यामावस्यामेकवारं वनितायां प्रतरावलिभबेत् ॥ ६७ ॥ गावार्थ:- इसी प्रकार पूर्व पूर्व का वर्ग करते हुए संख्यात स्थान आगे जाकर जधन्यपरीता संख्यात की वर्गशलाका, अर्थच्छेद, प्रथमवर्गमूल जधन्यपरीता संख्यात की राशि, आवली और प्रतरावली की प्राप्ति होती है ।। ६७ ।। विशेषार्थ :- इसी प्रकार पूर्व पूर्व का वर्ग करते हुए संख्यात स्थान आगे जाकर (जघन्य परीक्षासंख्यातको) वर्गशलाका राशि उत्पन्न होती है। इससे संख्यात स्थान जागे जाकर उसी की अच्छेद 1 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था:६० लोकसामान्याधिकार (शि उत्पन्न होती है। इससे संख्यात स्पान आगे जाकर उसका प्रथम वर्गमूल उत्पन्न होता है । इस थम वर्गमूल का एक बार वर्ग करने से जघन्य परोता संख्यात राशि को उत्पत्ति होती है। इससे संरूपात धान आगे जाकर जघन्ययुक्तरसंख्यात प्रमाणु आकलो को उत्पत्ति होतो है । "जो राशि विरलन और त्य के विधान से उत्पन्न होती है, उस राशि को वर्गशलाकाएं और अर्धच्छेद उस धारा में नहीं मिलते" TI७३ इस नियम के अनुमार इस द्विरूपवर्गधारा में आवली की उत्पत्ति तो होती है किन्तु आवली की वर्गशलाकाए' और अर्धच्छेद राशियों की उत्पत्ति नहीं होती। शंका :-संख्यात स्थान आगे जाकर आवली उत्पन्न होती है। इसका क्या तात्पर्य है ? समाधान :-देय राशि के ऊपर विरलन राशि के जितने अधच्छ५ हों, अलने का पान आगे जाकर विवक्षित राशि उत्पन्न होती है । अर्थात् जघन्यपरीतासंख्यात का विरलन कर जघन्य परीतासंख्यात ही देय देने पर विरलन राशि ( जघन्यपरीता संख्यात ) के जितने अधिछेद हैं परीतासंख्यातसे उतने वर्ग स्थान आगे जाकर आपकी उत्पन्न होती है। अथवा--अधन्यपरीतासंध्यात का विरलन कर जघन्यपरीतासंख्यात ही देय देकर परस्पर गुणा करने से जघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण आवली उत्पन्न होती है । ( जघन्य युक्तासंख्यात की जितनी संख्या है, उतने समयों की एक आवली होती है । जैसे :-यहाँ विवक्षित राशि २५६ है । बिरलन राशि ४, विरलन राशि के अधच्छेद २ और देय राशि ४ है। अतः ४ का विरलान किया और. उसके ऊपर ४ ही देय दिया। विरलन राशि के अधुच्छेद दो हैं इसलिये दो वर्गस्थान [ (४४ -- १६ एक वर्ग स्थान ) (१६४१६= २५६ दूसरा वगं स्थान ) ] आगे जाकर विवक्षित राशि २५६ की प्राप्ति हो जाएगी। अथवा :-चार का विरलन कर उस पर ४ हो देय देकर परस्पर में गुणा करने में भी विवक्षित राशि २५६ को उत्पत्ति हो जाएगी। जैसे :-६६६ = २५६ विवक्षित राशि । इस आवली का एक वार वर्ग करने से प्रतरावली की उत्पत्ति होती है। प्रमिय असंखं ठाणं वग्गसलच्छिदीय पढमपदं । पल्लं च अंगुल पदरं जगसेविषणमूलं ॥ ६८ ॥ गत्वा असंख्य स्थान वर्गलाईच्छिदिश्य प्रश्रमपदम् । पल्यं च सूथ्यङ्गुलं प्रतरं जगच्छणिधनमूलम् ।। ६८ ॥ ममिम । ततः प्रसंपातल्यानानि गरकाशलाकाराशिः उत्पद्यते ततोऽसल्पातस्थानामि पाचा अर्थ छेवरा शिक्षपश्यते । ततोऽसंख्यातस्यानानि गावा प्रपममूलमुत्पयते । तस्मिन्नेकवारं गिते प्रदापल्यमुत्पद्यते । ततः विलितरावर्षच्छेरमात्राणि वर्गस्पानानि गयोत्पन्नवासवर्षन्छेस्स संख्यातरूपवादसंल्पातस्थानानि गवा सूध्यंगुलमुस्पयते । पत्र वर्गशालाकादीनामनुत्पत्तिः समिति वैत । विरलनदेय कमेणोत्पन्नस्य रायोः "अप्पजवि जो रालो" इत्यादिना पारावये वर्गशलाकादीनां - - - - - - १ऋमोत्पत्र राणे (प.प.)। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिलोकसार गाथा: ६९ निविसस्यात् स्यापि सूज्यंगुलस्य "पनविविमेतपर" स्मिारिमा विलनोपपरपादनत्वात् । तस्मिन्येकवार गितेप्रतरांगुलमुत्पद्यते। ततः पसंख्यातल्पामानि गत्वा जगणिधनमूलमुत्पद्यते ६८५ गाश:--प्रतरावलीसे असंख्यात स्थान आगे जाकर अढापल्य की वगंशलाकाए', अर्घच्छेद और प्रथममूल प्राप्त होता है । इसके आगे पल्य, सूर्यगुल, प्रतरांगुल और जगन्छणी का प्रथम घनमूल प्राप्त होता है ।। ६८ ॥ विशेषार्थ :--प्राली से असंस्था स्थान बागे प्राकर वारल्य की वर्गशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। उससे असंख्यात स्थान आगे जाकर उस. की अर्धच्छेदराशि उत्पन्न होती है । इससे असंख्यान स्थान आगे जाकर उसी के प्रथमवर्गमूल की प्राप्ति होती है । इस प्रथम वर्गमूल का एक बार वगं करने पर अदापल्य की उत्पत्ति होती है । अवापल्य से असंख्यात स्थान आगे जाकर सूभ्यंगुल उत्पन्न होता है । नयोंकि "विरलन राशि के अधषद प्रमाण वर्ग स्थान आगे जाकर यह राशि उत्पन्न होती है। यहाँ सूच्यं गुल का प्रमाण उत्पन्न करने के लिये देय राशि पल्य है, और विरलन राशि पस्य के अधच्छेद है । तथा "विरलन राशि के अर्धचछेद प्रमाण वगं स्थान आगे जाकर विवक्षित राशि उत्पन्न होती है" इस नियम के अनुसार विरलन राशि ( पक्ष्य ) के अर्धच्छेद के अबच्छेद असंख्यात हैं. अत: पल्य के अपर असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर सूच्याल प्रा होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। उप्पनदि जो राशि .......गाया ७३ के अनुसार इस द्विरूपवगंधारामें सूच्यं गुल की वगंधलाकाएं और अर्धच्छेद नहीं पाये जाते, क्योंकि सूच्यंगुल की उत्पत्ति देय एवं विरलन राशियों द्वारा हुई है। इस मूच्यंगुल का एक बार वर्ग करने पर प्रतरांगुल उत्पन्न होता है। प्रतरांगुल से असंख्यात स्थान मागे जाकर जगच्छ शी का धनमूल उत्पन्न होता है । (जगच्छ रणी के घनमूल का घन करने से जगमछेणी की उत्पनि होती है।) मोट:-जगच्छणी एनधारा में है, द्विरूपवगंधारा में नहीं। तिषिद जहण्णाणंतं वग्गसलादलछिदी समादिपदं । 'जीवो पोग्गल काला सेढी मागास तप्पदरम् ।। ६९ ।। विविघं जगन्यानन्तं वर्गशलादलच्छेदाः स्वकादिपदं । जीवः पुदगल: कालः श्रेयाकाशं तत्प्रतरम् ॥ १९ ॥ तिमिह । ततोऽसंहपातस्यानानि गरवा वर्गशलाकाः, ततोऽसंख्यातस्मानानि गत्या मण्येवा:, ततोऽसंभपातम्बामामि गत्वा प्रबममूलं, तस्मिन्नेकवार गित परिमितानन्तस्य, पयामुत्पद्यते । तस्मिन् को नियामे कसे विलितराष्पधन्येवमात्राणि वगंस्पानानि गत्वोस्पनगरवासवर्षन्छेवस्यासंख्यातस्परबासमवासस्थानानि गरवा युक्तानन्तस्य अधम्यमेवोल्पद्यते। तत्र प्रापबशनाकानीमा विषिशयात । तस्मिन्नेवारं वगिते दिकबासनातस्य अषभ्यमुत्परते, ततोऽनन्तायामानि गामा १ जीवा (प.)। २ परीसामन्लजषग्य (4०, ५.)। ३ कमेण (प.)। नियोजत्वात ( २०, प.)। -- Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ११ लोवामामान्याधिकार HEATकाः, ततोऽमस्तस्थानानि गत्या प्रधछेवा: अल्पाम्, ततोऽमन्तस्थामानि गत्या प्रथममूल, तस्मिन्मेकवारं वागते जीवराशिल्पयते । प्रत्र पर्गालाकानीनामुपलक्षणेमोक्तस्वाबुसात्र शशावपि ते वगंशलाकाइयोऽगस्तव्याः, ततोऽमस्थानानि गरवा पुगलराशिकरपद्यते, ततोऽनन्तस्थानानि वा काल समयराशिवत्पद्यते, ततोऽनन्तस्पानानि गत्वा याकावामुत्पद्यते, तस्मिन्नेकवारं बगिसे प्रसरकाशमुस्पद्यते ॥ ६ ॥ ___गाया :-जगच्छेणी के घनमूल मे असंख्यात स्थान असंख्यातस्थान आगे जाकर तीनों जघन्य मनन्तों में से जघन्यपरीतानन्त की वर्गशलाकाए', अर्घच्छेद, प्रथम वर्गमूल, जघन्यपरीतानन्स, जघन्ययक्तानम्त. जघन्य अनन्तानन्त, जीव, पुदगल. काल, आकाशगगी और आकाशतर की उत्पत्ति होती है ।। ६१॥ विशेषार्थ :-जगच्ट्रगी के घनमूल से असंख्यात स्थान आगे जाकर जघन्य परीताऽनन्त की वर्गशलाका राशि उत्पन्न होती है। इससे असंख्यात स्थान आगे जाकर उसीकी अघच्छेद राशि उत्पन्न होती है। उससे असंख्यात स्थान आगे जाकर उसी जघन्यपरीतानन्त का प्रथम वर्गमूल प्राप्त होता है। इस प्रथम वर्गमूल का एक वरर वर्ग करने पर जघन्यपरीतानन्त राशि की उत्पत्ति होती है। अधन्य परीतानन्त से असंख्यात स्थान आगे जाकर जघन्य युक्तानन्त उत्पन्न होता है। अर्थात "विरलन देय कम से उत्पन्न होने वाली राशि विगलन राशि के अर्घच्छेद प्रमाण बर्ग स्थान आगे जाकर उत्पन्न होती है.' इस नियम के अनुसार यहाँ जघन्ययुक्तानन्न का प्रमागा लाने के लिये देय राशि जघन्यपरीतानन्त है. और बिरलन राशि भी जघन्यपरीतानन्त ही है। विरलन राशि के अधुच्छेद असंख्यात है अतः असंख्यातवर्ग स्थान आगे जाकर जघन्य युक्तानन्त का प्रमाण प्राप्त होता है । यहाँ पर भी पूक्ति प्रकार से वर्गशलाकादि का निपेष है। __इस जघन्ययुक्तानन्त का एक बार वर्ग करने पर जघन्य अनन्तानन्त की उत्पत्ति होती है। इससे अनन्त स्थान आगे जाकर जीव राशि की वर्गशलाकाएं प्राप्त होती है । उससे अनन्त स्थान आगे जाकर उसी के अर्धच्छेद और उमसे अनन्त स्थान आगे जाकर उसी जीव राशि का प्रथमवर्गमूल प्राप्त होता है । इस प्रथम वर्गमूल का एक वार वर्ग करने से जीवराशि के प्रमाण की नत्पत्ति होती है । जीवराधि से अनन्त स्थान आगे जाकर पुदगल राशि की वर्गशलाकाए उससे अनन्त स्थान आगे जाकर उसी के अच्छद और उमसे अनन्न स्थान आगे जाकर उसी के प्रथम वर्गमूल की उत्पत्ति होती है। इस प्रथममूल कारक बार वर्ग करने पर पुद्गलराशि का प्रमाण उत्पन्न होता है। गुदगलराशि के प्रमाण से अनन्त स्थान आगे जाकरः काल के समयों की वर्गशलाकाएं, उससे . भनन्त स्थान आगे जाकर उसी के अधच्छेद, और उसमे अनन्न स्थान आगे जाकर उसी के प्रथमवर्गमूल की उत्पत्ति होती है। इस प्रथम वर्गमूल का एक बार वर्ग करने पर काल के जितने रामय हैं उनका .. प्रमाण प्राप्त होता है। कालसमय प्रमाण से अनन्त स्थान आगे जाकर श्रेणीरूप आकाश की वर्गशलाकाएं, उमसे अनन्त स्थान आगे जाकर उसीके अधच्छेद और उससे अनन्त स्थान आगे जाकर उसी आकाश थेणी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ५०-७१ ६४ त्रिलोकसार का प्रथम वर्गमूल प्राप्त होता है। इस प्रथम वर्गमूल का एक बार वर्ग करने से आकाशश्रेणी उत्पन्न होती है और आकाशश्रेणी का एक बार वर्ग करने से प्रतराकार उत्पन्न होता है। धम्माधम्मागुरुलधु इगिजीवागुरुलघुस्स होति सदो । सुहमणि अपूण्णणाणे बरे अविभागपरिछेदा ।। ७० ॥ धर्माधर्मागुरुल घोरेकजीवागुरुलधोः भवन्ति ततः । सूक्ष्म निगोवापूर्ण जाने अवर अविभागप्रतिच्छेदाः ।। ७० ॥ बम्माधम्म । ततोनन्तस्थानानि गत्वा धर्माधर्मागुरुलधुगुणाविभागप्रतिवाः, ततोनन्तस्थामानि गत्वा एकनीबागुवलपुरणाविभागप्रतिम्छेवा भवनिम, सतोतन्तस्थानानि वा सूक्ष्मनियोगमध्यपर्याप्तमपन्यमानाविभागप्रतिच्छेवा उत्पद्यन्ते ॥ ७० ॥ गाथा:-प्रतराकाश से उत्तरोत्तर अनन्त स्थान आगे आगे जाकर कमशः धर्म अधर्म न्य के अगुरुलघुगुण के अविभागप्रतिच्छेद और एकजीव के अगुमलघुगुण के अविभाग प्रतिच्छेदों की प्राप्ति होती है । पुनः अनन्त स्थान आगे जाकर सूक्ष्मनि गोद लमध्यपर्याप्तक जीव के जघन्य पर्याय नामक श्र तज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों की उत्पत्ति होती है ।। ७० ।। विशेषार्ष:--प्रतराकाश से अनन्त स्थान आगे जाकर धर्म अधर्म द्रव्य के अगुमलघुगुणके अविभागप्रतिच्छेदों की उत्पत्ति होती है। उससे अनन्तस्थान आगे जाकर एक जीव के अगुरुलधुगुण के अविभागप्रतिच्छेदों की उत्पत्ति होती है। उसमें अनन्न स्थान आगे जाकर सूक्ष्मनिगौदलाध्यपर्याप्तक जीव के पर्यायनामा जघन्य लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों का प्रमाण उत्पन्न होता है। भवरा खाइयलद्धी वग्गसलागा तदो सगचिदी । महसमलप्पणतुरियं तदियं विदियादि मूलं च ।। ७१॥ अवरा क्षायिकलब्धिः वर्गशलाका ततः स्वकाच्छि दिः । · अष्टसप्तषट्पञ्चतुरीयं तृतीयं द्वितीयादिमूलं च ॥ १ ॥ प्रवरा। ततोऽनम्तस्थानानि गवा तिग्गग्यसंयतसम्पाटो बघण्यक्षायिकसम्परवापलम्बे विभागप्रतिच्छेवाः ततोऽनन्तस्पानानि गरवा गंशलाकाः ततोऽनन्तापामानि गया अपवेदाः, ततोऽनन्तस्थानानि गरमा मममूलं, तस्मिन्नेवारं पगिते सप्तममूलं, तस्मिनोकबार गिते षष्टमसं, तस्मिन्मेकवारं वर्णिते पजाममूल, तस्मिन्नेवार गिते चतुर्षमूल, सस्मिन्नेकवारं गणिते कृतोपमूल, तस्मिनेकवारं गिते द्वितीयमूल, तस्मिन्नेकवारं वगिते प्रपममूल मोरपद्यते ॥१॥ गावार्थ :--तथा उससे अनन्त स्थान आगे जाकर जथन्यक्षायिकलब्धि की वर्गशलाकाए', मर्षच्छेद, आठवा, सातवाँ, छठा, पांचवा, बौथा, तीसरा, दूसरा और प्रथम वर्गमूल प्राप्त होता है ।।७॥ १ आग्रिकसम्यक्त्वरूपलव्धे। (ब०, ५० ) रूपलब्धिः जघन्मलब्धिः ( टि.)। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसामान्याविकार ६५ विशेषार्थ :- जघन्य लब्ध्यक्षर श्रमज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदोंसे अनन्त स्थान आगे जाकर तिर्यगति में असंयत सम्यग्दृष्टि जीव के जघन्य क्षायिक सम्यक्त्वधिके अविभाग प्रतिच्छेदोंके प्रमाणकी प्राप्ति होती है। उससे अनन्त स्थान आगे जाकर केवलज्ञानकी वर्गशलाकाओका प्रमाण उत्पन्न होता है। उससे अनन्त स्थान आगे जाकर उसी केवलज्ञानके अर्थच्छेदोंका प्रमाण प्राप्त होता है। उससे अनन्त स्थान आगे जाकर केवलज्ञानका अनुम वर्गमूल प्राप्त होता है । गाथा ७२ इस अष्टम वर्गमूलका एकबार वर्ग करने पर केवलज्ञानका सक्षम वर्गमूल प्राप्त होता है । इसका एकवार वर्ग करनेपर केवलज्ञानका षष्ठ वर्गमूल प्राप्त होता है। इस का एक बार वर्ग करनेपर केवलज्ञानका पंचम वर्गमूल प्राप्त होता है। इसका एकवार वर्ग करनेपर केवलज्ञानका चतुर्थ वर्गमूल प्राप्त होता है। इसका एकबार वर्ग करनेपर केवलज्ञानका तृतीय वर्गमूल प्राप्त होता है। इसका एकबार वर्ग करनेपर केवलमानका द्वितीय वर्गमूल प्राप्त होता है, और इसका एकबार वर्ग करने पर केवलज्ञानका प्रथम वर्गमूल उत्पन्न होता है । विवक्षित राशि वर्गमूलको प्रथम वर्गमूल कहते हैं । प्रथम वर्गमूलके वर्गमूलको द्वितीय और द्वितीय के वर्गमूलक तृतीय वर्गमूल कहते हैं। इसीप्रकार आगे आगे कहना चाहिये। जैसे :- एकट्टोका प्रथम मूल बादाल, द्वितीयमूल पराडी, तृतीयमूल २५६, चतुर्थ मूल १६, पंचममूल ४ और षष्टमूल दो है । समादिमूलबग्गे केवलमंतं पमाणजे मिणं । वरखयल द्विणामं सगवगमला हवे ठाणं || ७२ ॥ सकृदादिलवर्गे केवलमंतं प्रमाणजेष्ठमिदम् । वरक्षायिकलब्धिनाम स्वकवर्गशला भवेत् स्थानम् ॥७२॥ सह। सकृदेकवारं तयाविमूलस्य वर्गे गृहोते केवलज्ञानस्याविभागप्रतिदेशः । एतावदेव विधारायामन्तं इदमेव प्रमााज्येष्ठं, एस वेबोरकष्ट, आधिकलवित्रताम । प्रस्याः द्विरूपवर्गधारायाः स्थानं तस्य केवलज्ञानस्य वर्गशलाकाप्रमाणं भवेत् ॥७२॥ गावार्थ:केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूलका एकबार वर्ग करनेपर केवलज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण प्राप्त होता है। इतना मात्र ही द्विरूप वगंधाराका अन्तिमस्थान है। यही उत्कृष्ट प्रमाण हैं । इसीका नाम उत्कृष्ट क्षायिकलब्धि है । केवलज्ञानकी वर्गशलाकाओं का जितना प्रमाण है,. उतना ही प्रमाण द्विरूप वगंधाराके समस्त स्थानों का है || ७२ ॥ विशेषार्थ : - ( सातों गाथाओं का ) द्विरूपवगंवाराका सर्व जघन्य और प्रथमस्थान २ का वर्ग. चार है । तथा सबसे अन्तिम और उत्कृष्ट स्थान केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण है। इस धाराके मध्यम स्थानों में निम्नलिखित राशियों प्राप्त होती हैं ::- १ जघन्यपरीतासंख्यात २ जघन्य Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा: ७३ युक्तासंख्यात प्रमाणरूप आवली ३ जघन्य असंख्यातासंख्यातरूप प्रतरावली ४. अदापल्य ५ सूच्यंगुल ६. प्रतरांगुल सागीका पनसूल अपम परीताल ९. जघन्य युक्तानन्त (अभव्य राशि जघन्य युक्तानन्त प्रमाण है ) १०. जघन्य अनंतानंत ११. सम्पूर्ण जीवराशि १२. सम्पूर्ण पुद्गलराशि १३. सम्पूर्णकालके समय १४. श्रेणी आकाश १५. प्रतराकाश १६. धर्माधर्म द्रव्यके अगुरु लघु गुरणके अविभागप्रतिच्छेद १७. एक जीवके अगुरुलघु गुणके अविभागप्रतिच्छेद १८. सूक्ष्मनिगोदियाके लम्धक्षर पर्याय मुतज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद १९. असंयत तिर्यश्चके जघन्य क्षायिक सम्यक्त्व रूप जघन्य लब्धि के अविभाग प्रतिच्छेद और २०. केवलज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद । अथ धारात्रये सर्वत्राविशेषेण वर्गशलाकादिप्राप्तौ तन्नियममाह उप्पज्जदि जो रासी विरलणदिज्जक्कमेण तस्सेत्थ । बग्गसलद्धच्छेदा धारातिदए ण जायते ।।७३।। उत्पद्यते यः राशि: विरलनदेयकमेण तस्यात्र । वर्गशलाघच्छेदा धारात्रितये न जायन्ते ।।७३।। उपजवि । यत्र धाराया विरलनवेशामे गोत्पन्नो यो यो राशिरुत्पद्यते तस्य तस्य राशेवंगशलाका प्रपंच्छेवाच तव धारायां न जायन्ते । इयं व्याप्तितिरूपविधाराये। प्रसंशविरलमराशिः पल्यः १६ वेयराशिः १६ उत्पनराशिः १८ : तस्यायंच्छेदा: ६४ तस्य वगंशलाका ६ निरूपवर्षपारायो, जायन्ते ।।७।। द्विरूपवगंधारा, द्विरूपधनधारा विरूपधनाधनधारा - इन तीन धाराओं में पाई जाने वाली राशियोंकी वगंशलाकाओं एवम् अधच्छेदोंके सम्बन्धमें विशेष नियम : गापार्ष:-जो राशि विरलन और देय के विधानम जिस धारा में उत्पन्न होती है, उस धारामें उसकी वर्गशलाकाएं और अधच्छेद नहीं पाए जाने । यह नियम तीनों धाराओं में है ॥७३॥ विशेषार्म :-जिस धारामें विरलन देयक्रमसे जो राशि उत्पन्न होती है, उस राशिको . वर्गशलाका और अबच्छेद उसी धारामें नहीं प्राप्त हो सकते । जैसे :- मानलो, अङ्क संदृष्टिमें विरतन राशि १६ है और देय राशि भी १६ है । अतः १६ का एक एक विरलन कर प्रत्येक अङ्क पर १६ देय देकर परस्पर गुणा करने से एकट्ठी (१५=} का प्रमाण प्राप्त हुआ। इस एकट्ठीके अच्छेद ६४ और वर्गशलाकाएं ६ हैं जो इस विरूपवगंधारामें नहीं मिलेंगी, किन्तु एकट्ठी मिलेगी। यह नियम तीनों धाराओं के लिए है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा..७४-७५ लोकसामाव्याधिकार अथ धाराप्रये उपयुपरि राशावर्षछेदप्रमाणमाह -- वगादुपरिमनग्गे दुगुणा दुगुणा हवंति पद्धचिदी । धारातय मट्ठाणे तिगुणा तिगुणा परवाणे |७|| वर्गादुपरिमवर्गे द्विगुणा द्विगुणा भवन्ति अर्घकछेदाः । पारामा स्वस्थाने त्रिगुणाः त्रिगुणाः परस्थाने ॥७४।। वगा । दुपरिमवर्ग तिगुणा दिगुणा पसंख्शेवाः भवन्ति धारात्रये स्वस्थाने, विगुणास्त्रिगुणाः परस्थाने । इयं व्याप्तितिरूपवर्गाविधारात्रयेपि । द्विरूपवर्णधारायामसंडष्ठिः यमुशितोऽबसेवा ॥७॥ तोनों धाराओं में अपर ऊपर की राशिमें अधच्छेदोंका प्रमाण कहते हैं.... गाथा:-तीनों धाराओंके स्वस्थानमें वर्गसे ऊपरके बगंमें अर्धच्छेद दुगुने दुगुने और परस्थानमें तिगुने विगुने होते हैं ॥७४।। विशेषार्ष :-जहाँ निजधारा की अपेक्षा होती है उसे स्वस्थान कहते हैं तथा जहाँ परधाराकी अपेक्षा होती है उसे परस्थान कहते हैं। तीनों धाराओंके स्वस्थानमें वर्गसे ऊपर वाले वर्गमें अर्धच्छेद नियमसे दुगुने दुगुने होते हैं और परस्थानमें तिगुने लिगुने होते हैं । जैसे :--द्विरूपवगंधाराका प्रथम स्थान ४ है और इसके अर्घच्छेद २ है । इसके ऊपर दूसरा वर्गस्थान १६ है जिसके अधचच्छेद ४ हैं जो दो के दुगुने हैं। इसके ऊपर तीसरा स्थान २५६ है जिसके अर्धच्छेद ८ हैं जो ४ के दुगुने हैं। इसी प्रकार आगे आगे भी जानना चाहिए। ___ इसीप्रकार परस्थानापेक्षा - द्विरूपवगंधाराके प्रथम स्थान ४ के अर्थच्छेद २ है तथा द्विरूपघनधाराके दूसरे स्थान ६४ के अधच्छेद ६ हैं जो २ के तिगुने हैं। द्विरूपवर्गधारा के दूसरे स्थान १६ के अर्धच्छेद ४ हैं तथा द्विरूपधनधाराके तीसरे स्थान ४०९८ के अर्घच्छेद १२ है जो ४ के तिगुने हैं । इसी प्रकार परस्थानापेक्षा नीचे के स्थानसे ऊपर के स्थानके अच्छेद नियमसे तिगुने तिगुने होते हैं । यह नियम तीनों धाराओंमें जानना। अथ वगंशलाकादीनामाधिक्यादिभवनप्रकारमाह - . वग्गसला रूवाहिया मपदे परसम सवग्गालालमेचं । दुगमादमछिदी तम्मेत्तदुगे गुणे रामी ॥७४।। वर्गशला रूपाधिका: स्वपदे परस्मिन् समाः स्ववर्गशलामत्रम् । द्विकमाहतमधच्छेदाः तन्मात्रद्विके गुणे राशिः १७५।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. त्रिलोकसार गाथा: ७५ ar | वर्गशलाका रूपाधिकाः स्वस्याने स्वकीयधारायां परस्मिन् स्थाने परधारायां स्वसमानाः स्वस्थवर्णशलाकामात्रं द्विकं परस्पराहतं चेद राशेरच्छेवाः भवन्ति । इयं व्याप्तिद्विपवर्गपारायामेव म द्विरूपात द्विरूपघनाघनधारयोः सच्छेदमात्रे डिके परस्पर गुणिते सहित राशिभवति । इयं व्याप्तिरात्रयेऽपि ॥ ७५ ॥ 9 वर्गशकाओं की अधिकयता एवं साहय्यता का विधान ६८ पापा: स्वभावापेक्षा वर्गलाई एक सही होती हैं । 11 और परस्थानापेक्षा अपने (स्वस्थान ) अपनी वर्गशलाका प्रमाण दुवा रखकर परस्पर गुणा करने से अर्थच्छेद तथा रात्रिके जितने अच्छे हैं, उतने दुवा रखकर परस्पर गुग्गा करनेसे राशिकी प्राप्ति होती है ॥७५॥ विशेषार्थ :- वर्गस्थानसे ऊपर के वर्गस्थान को वर्गशलाकाएं स्वस्थानमें नियमसे एक अधिक होती हैं, तथा परस्थान में अपने सह ही होती हैं। जैसे :- द्विरूपवर्गधाराका प्रथम स्थान (२ का वर्ग) ४ है, दूसरा वर्गस्थान १६ और तीसरा वगंस्थान २५६ है । यहाँ प्रथम स्थान ४ की मंशलाका १, दूसरे स्थान की दो और तीसरे स्थानकी हैं, अर्थात् एक एक की वृद्धि को लिये हुए हैं। द्विपत्र गंधारा जैसे:-- दो के वर्ग ४ को १ वर्गगलाकर और ४ के वर्ग १६ की २ वर्गशलाकाएं होती है, उसीप्रकार द्विरूपधनधारा के घन ६४ की एक वर्गशलाका तथा ६४ के वर्ग ४०९६ की दो वर्गालाकाएं होती हैं । द्विरूपघनाघनधारा ५१२ के वर्ग २६२१४४ की एक वर्गका और २६२१४४ के वर्ग को दो काएं होती हैं । इसप्रकार परस्थान में वर्गशलाकाएं समान होती हैं । ८ अच्छेद निकालने का नियम :- जितनी वर्गशलाकाएँ हैं, उतनी बार २ लिखकर परस्पर में गुणा करने से उसी राशिके अर्धच्छेद प्राप्त हो जाते हैं । जैसे :- २५६ की ३ वर्गशलाकाएं हैं। अतः २x२x२=८ अर्धच्छेद प्राप्त हुए (२२६ के आठ अर्धच्छेद होते है) । यह नियम केवल द्विरूपवर्गधारा के लिए ही है, द्विरूप घनधारा और द्विरूपघनाघनधाराके लिए नहीं है । १ विके द्विके ( ब० ) । राशि निकालने का नियम :- राशिके जितने अच्छेद होते है, उनतीबार २ लिखकर परस्पर गुणा करने से विवक्षित राशि प्राप्त होती है । जैसे :- २५६ के = प्रच्छेद हैं, अतः बार ), २×२×१×२×२४२x२४२ == २५६ विवक्षित राशि प्राप्त हो गई। यह नियम तीनों धाराओके लिए है । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया : ७६ लोकसामान्याधिकार अथ वर्गशलाकादयोः स्वरूपमाह ૬૨ गवारा षमालागा रामिस्स अद्धछेदस्य / मद्धिदवारा वा खलु दलवारा होति मद्धविदी ।। ७६ ।। वर्गितवारा वर्गथलाका राशेः अर्द्धच्छेदस्य । अधितवारा वा खलु दलवारा भवन्ति अर्थच्छेदाः ॥७६॥ I बग्गव । शशेवेगितषारा वर्गशलाका, इयं व्याप्तिरपि पाराश्रये । प्रच्छेवस्य प्रतिवा वर्गशलाका, इयं व्याप्तिः विरुपवर्गपारायामेव । राशेवंनवारा प्रच्छेदाः भवन्ति इयं व्याप्तिरवि भाराश्रये ॥७६॥ वर्गशलाका और अर्धच्छेदका रूप गावार्थ : - राशिके वर्गिलवार अर्थात् जितने बार वर्ग करने से राशि उत्पन्न होती है, उतने बार वर्गशलाकाएं कहलाती हैं अथवा अच्छेद के अर्धच्छेद वर्गशलाकाएं कहलाती हैं। राशिके जितनी बार अर्थ करते करते एक अ रह जाए. वे वार अच्छेद कहलाते हैं ॥ ७६ ॥ -- विशेषार्थ :- दो के वर्ग से प्रारम्भ कर पूर्व पूर्व का जितनी दार वर्ग करने पर विवक्षित राशि उत्पन्न हो उस राशिके वे वर्गितवार वर्गशलाका कहलाते हैं। जैसे :- दो का एक वार वर्ग करने से चार (२x२ - ४ ) की उत्पत्ति हुई अतः ४ की एक वर्गशलाका कहलाई । १६ की उत्पत्तिके लिये दो वार वर्ग [ (२x२=४) ४४४ = १६ ) ] किया जाता है, अतः १६ को दो वर्गशलाकाएं हुई । २५६ के लिये तीन वार वर्ग ( ( २x२=४ (४४४ = १६) (१६४१६ - २५६ ) ] किया जायगा इसलिये २५६ की वर्गशलाकाएं ३ होंगी। यह नियम तीनों धाराओं में लागू होता है। विशेषता इतनी है कि द्विरूपधनधारा में दो के धन से प्रारम्भ कर पूर्व पूर्व का जितनी वार वर्ग किया जायगा उतनी वर्गशलाकाएँ होंगी। जैसे-दो का घन है, अतः ८८६४ (धन धारा का दूसरा स्थान) की एक वर्गशलाका और ६४x६४ = ४०९६ की दो वर्गशलाकाएं हुईं। कारण कि ८ घनरूप संख्या का दो वार वर्ग किया तब ४०९६ राशि को उत्पत्ति हुई है । इसोप्रकार धनाधन धारामें दो का घनाघन (२४२२४२४२४२४२x२ x २ ) = ५१२ है, जो इस धाराका प्रथम स्थान है । इस ५१२ का वर्ग (५१२४५१२) २६२१४४ हुआ । इसकी एक वर्गशलाका हुई, कारण कि घनाघन रूप ५१२ संख्या का एक बार वर्ग करने पर २६२१४४ राशि की उत्पत्ति हुई है । यह नियम तीनों धाराओंके लिए है । अथवा : - विवक्षित राशि अर्धयों के जितने अर्धच्छंद होते हैं, उतनी ही उस राशि को वर्गशलाकाएं होती हैं। जैसे- २५६ के अर्थच्छेद ८ और के अच्छेद ३ हृये मतः २५६ की तीन शलाकाएं हुई। यह नियम मात्र द्विरूप वर्गधारा में ही हैं। अन्य दो धाराओं में नहीं है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " त्रिलोकसार गाथा:७७ विवक्षित राशिको जितनी वार आधा करते करते एक अङ्क रह जाय उत्तने उस राशिक अर्धच्छेद कहलाते हैं। जैसे :-२५६ को ८ बार आधा आषा करने पर एक अङ्क रहता है अतः २५६ के ८ अर्थच्छेद हुए। यह नियम तीनों धाराओं के लिए है। अय गाया षटकेन द्विरूपचनधारामाई.. स्वनिदधारा अड़ चउसठ्ठी चरितु संखपदे । मावलि धनमावलिया फदिपिंदं चापि जायेज ||७७|| द्विरूपवृन्दधारा अष्ट चतुः षष्टिः चटित्वा संस्यपदानि । आरलिघन आवल्याः कृतिवृन्दं चापि जायेल ||१७|| देव । विरूपगंधाराराशीमा ये घनास्तेषां पारा: भg पतुः पाष्टः । एवं पूर्वपूर्ववर्ग' रूपेरण ४०९६ संख्यासस्थानानि गत्या जषम्पपरीतासंख्यातघनः ततो विलितराश्यसंस्थेव मात्रगप्पोत्पन्नत्वात् । संख्यात स्थामानि बटित्वा प्रावलि २ घन 5 उत्पद्यते । तस्मिन्नेकवार गिते प्रावल्या; कृतिघनश्चापि जायेत ॥७७॥ छह गाथाओं द्वारा द्विरूपचन घाराका निरूपण करते हैं :· गाथार्य:-द्विरूपचन घाराका प्रथम स्थान तथा दूसरा स्थान ६४ है । इससे संख्यात स्थान आगे जाकर आवली का धन और आवलोके वर्गस्वरूप प्रतरावली का धन उत्पन्न होता है |७|| विशेषार्ष:-द्विरूपवर्गधारामें जो जो वर्ग रूप राशि हैं, उन वर्गरूप राशियोंकी जो धनरूप राशि हैं, उनकी धारा को विरूप घनधारा कहते हैं। जैसे :--द्विरूप वर्गधाराका प्रथम स्थान २ है। इसी दो का धन (२x२x२) ८ हुआ, अत: द्विरूप धनधाराका प्रथम स्थान है। इसी प्रकार हिम्प वर्गधाराका दूसरा स्थान ४ और इस ४ का घन (४xxx४) ६४ हुआ अतः द्विरूप धनधाराका दूसरा स्थान ६४ है, जो द्विरूप धनधाराके प्रथम स्थान ८ के वर्ग (x2) स्वरूप भी है। इसीप्रकार द्विरूप वर्गधारा का तीसरा स्थान १६ और इस १६ का धन (१६४१६४१६) ४०६६ हुआ, अतः द्विरूपधनधारा का तीसरा स्थान ४०९६ है, जो द्विरूपधनधाराके द्वितीय स्थान ६४ के वर्ग (६४४ ६४} स्वरूप भी है । इसीप्रकार पूर्व पूर्व राशिका वर्ग करते हुए उत्तर उत्तर स्थान प्राप्त होता है, और संख्यात स्थान आगे जाकर जघन्यपरीतासंख्यात का धन प्राप्त होता है। इससे संख्यात स्थान आगे जाकर प्रावली का घन उत्पन्न होता है । "विरलन राणिक अछिंद प्रमाण वर्ग स्थान आगे जाकर विवक्षित राशि उत्पन्न होती है" इस नियम के अनुसार यहाँ बिरलन राशि जघन्यपरीतासंख्यात है और उसके अर्धच्छेद संख्यात हैं. इसलिये संख्यात स्थान आगे जाकर आवली का धन उत्पन्न हुआ है । मानलो - आवली ४ है . रूपेण तती (प.) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा! ७८ लोकसामान्याधिकार तो यहाँ ४ का धन ६४ उत्पन्न हुआ है । भावली (४)के धन (६४) का एक वार वर्ग करने से आवलो के वर्ग स्वरूप प्रतरावली (४४४ - १९) का घन (१६४१६४१६) =४०९६ उत्पन्न होता है। पन्लघणं बिंदंगुलजगसेढीलोयपदरजीवणं । तत्तो पढमं मूलं मन्यागासं च जाणेो ।१७८।। पल्मधनं वृन्दांगुलजगच्छुणीलोकप्रतरजीवधनम् । ततः प्रथमं मूलं सर्वाकाशं च जानीहि ||७|| पल्ल । Aaisसंख्यातस्थानानि गरवा वर्गशलाका, ततोऽसंख्यातस्थानानि परवा मधुच्छेवा, ततोऽसंख्यात स्थानामि गया प्रथममूलं तस्मिन्नेकवारं पगिते पल्पधनमुत्पद्यते । ततोऽसंख्यातापानानि पस्या धनागुलमुत्पद्यते । प्रा नववि को शामिमानिका गिलाद ससाकादीनाममावः । ततोऽसंख्यातस्थामानि गया जगण्ो, रिंगमस्पद्यते, प्रत्रापि उपज गीति निविधवात मार्गशलाकादीनामभावः । तस्यामेकवार वगितायां जगत्पतर उत्पद्यते । ततोऽनन्तपानानि गत्वा वर्गशलाकाः, ततोऽनन्तस्थानानि गया मण्येवाः, ततोऽनन्तस्थानानि गत्वा प्रथममूलं, तस्मिन्नेकवार गिते जीवराशेधन जस्पद्यते । उप्पअधोति निषियत्वापत्र वर्गशनाकापीनामभावः। सतोऽमन्तस्पानानि स्वा प्रथममूसं तस्मिन्नेकवार गिते सकिाशं व जामोहि ॥७॥ पापार्य :-प्रतरावलीके घनसे आगे आगे पल्य का घन, घनांगुल, जगपणी , जगत्प्रत र, जीव राशिका धन, सर्वाकागका प्रथमवर्गमूल और सब किाश की प्राप्ति होती है ॥७॥ विशेषार्थ :-प्रतरावलीके घनसे असंख्यात स्थान आगे जाकर पल्यको वर्गशलाकाओं का घन प्राप्त होता है। उससे असंख्यात स्थान आगे जाकर उसीके अपिछेदों का घन और उससे असंख्यात स्थान आगे जाकर उसी पत्यके प्रथम वर्गमूल का धन प्राप्त होता है। उस प्रथममूलके घनका एक वार वर्ग करने से पल्यका धन प्रान होता है। पल्यके घन से प्रसंख्यात स्थान आगे जाकर धनांगुलकी प्राप्ति होती है। उप्पजदि जो राशि -- ." सूत्रगाथा ७३ के अनुसार धनांगुलकी वर्गशलाकाएं और अश्छेिद इस द्विरूपधन धारामें नहीं मिलेंगे, क्योंकि यह राशि विरलन-देय विधान से उत्पन्न हुई है। घनागुलमे असंख्यात स्थान आगे जाकर जगच्छणीकी प्राप्ति होती है । उपयुक्त नियमानुसार जमरणीकी भी वर्गशलाकादि इस राशिमें नहीं मिलंगे । जगरणी का एक वार वर्ग करने पर जगत्तर उत्पन्न होता है। जगत्प्रतर मे अनन्तस्थान आगे जाकर जीवराशिकी बर्गशलाकाओ का घन, उससे अनन्तस्थान आगे जाकर उसी के अर्धच्छेदों का धन और उससे अनन्त स्थान आगे ज कर उसीके प्रथम मूलका धन प्राप्त होता है। इस प्रथममूल का एक वार वर्ग करने पर जीवराशिके घन की उत्पत्ति होती है । उपजदि जो रासि ......... (गा.७३ के) सूत्रानुसार सर्वाकाशके वर्गशलाकादिके घनका इस धारामें अभाव है, अत; जीवराशिके घनसे अनम्त Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ त्रिलोकसार गाथा : ७६-८० स्थान आगे जाकर सवकाश का प्रथम वर्गमूल प्राप्त होता है। इस प्रथम मूलका एक बार वर्ग:करने पर सर्वाकाशकी उत्पत्ति होती है । अर्थात् - लम्बे, चौड़े और ऊँचे ऐसे सबंधनरूप आकाशके प्रदेशोंका प्रमाण प्राप्त होता है। संखमसंखमण वग्गाणं कमेण गंतूण । संखासखाणताणुप्पत्ती होदि सव्वस्थ ॥७९।। संख्यमसंख्यमनन्तं वर्गस्थान क्रमेण गत्वा । संख्यासंख्यानन्तानामुत्पत्तिः भवति सर्वत्र ॥७९।। संखम । दिकवारासंख्यातबधम्पपर्यन्तं संख्यासवर्गस्थानानि गत्वा तदुपरि विकासमन्तजघन्य पर्यन्तमसंख्यातवर्गस्थानानि गत्वा तदुपरि केबलझानपर्यन मनन्तवर्गस्थानानि गया तत्र तत्र - बारायां पधासंख्यं संस्पातासंतानतामा शीतामुपसिभवति सर्वत्र ॥७९॥ गाषा :-तीनों धारामाम क्रम संख्यास, सास और जवर्ग स्थान आगे जाकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त की उत्पत्ति होती है ।।७९।। विशेषा:-जघन्य असंख्यातासंख्यातरूप राशि पर्यन्त तो संख्यात वर्गस्थान आगे जाते हैं; इसके ऊपर जघन्य अनन्तानन्तरूप राशि पर्यन्त असंख्यात वर्गस्थान आगे जाते हैं। इसके ऊपर केवलज्ञानपर्यन्त अनन्त वर्गस्थान आगे जाते हैं। उन उन वर्भधाराओं में यथाक्रम से संख्यात, असंख्यात और मनन्तरूप राशियों की उत्पत्ति होती है। यह नियम तीनों धाराओं के लिए है। जत्थुद्देसे जायदि जो जो रासी विरूपधाराए । घणरूपे तसे उपजदि तस्स तस्म घणो ||८०॥ पत्रोद्देशे जायते यो यो राशिः द्विरूपधारायां । घनरूपे तह शे उत्पद्यते तस्य तस्य घनः ।।८० अस्युह से । पत्रोद्देशे विरुपगंधारामा यो यो राशि यते इरूपचनपाराया तहशे तस्य तस्य मेधा उत्पते ॥an गापार्ष:--द्विरूपवर्गभारामें जिस स्थान पर जो जो राशि उत्पन्न होती है - द्विरूपधनधारामें उसी उसी स्थान पर उसी को घनरूपराशिकी उत्पत्ति होती है ।।८०॥ - विशेषार्थ:-द्विरूपवर्गधारामें जिस स्थान पर जो जो राशि उत्पन्न होती है दिरूपयनधारा में उसी उसी स्थान पर उसीकी घनरूप राणि उपलब्ध होती है। जैसे -- द्विरूपवर्गधारामैं २-४-१६ --२५६-६५४३६-बादाल-एकट्ठी हैं और द्विरूपवनधारामें ८-६४-४०१६–४०९६२-४०९६४ ४०९६-४०९६" हैं। अभिप्राय यह है कि द्विरूपवर्गपारामें जो जो राशियाँ हैं, उनके घनसे हो द्विरूपधनधारा की उत्पत्ति होती है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ६१-५२ लोकसामान्याधिकार एवमणतं ठाणं गिरंतरं गमिय केवलम्सेव । विदियपदविंदमंतं विदियादिनमूलगुणिदसमं ।।८।। एवमनन्तं स्थान निरन्तरं गस्वा केवलस्यैव । द्वितीयपदवृन्दमन्तो द्वितीयादिममूलगुरिणतसमः ।।८१॥ एकमवंत । एवं काशराशेरुपर्यनन्तस्थान निरन्तरं गया केवलज्ञानस्य द्वितीयमूलधन उत्पद्यते स एव हिरूपनारायामन्तः। तत् कियवित्युक्ते द्वितोपादिममूलयो; परस्पर गुरिणतरान्ति समः ॥५१॥ गापार्य :-इसप्रकार निरन्तर अनन्त स्थान आगे जाकर केवलज्ञानके द्वितीय वर्गमूलका धन उत्पन्न होता है । यही द्विरूपधनधाराका अन्तिम स्थान है। यह द्वितीय वर्गमूल और प्रथम वर्गमूलका परस्पर गुणा करने मे उत्पन्न हुई राशि बराबर है ।।१।। विशेषार्थ :-सर्वाकाश राशि के आगे निरन्तर अनन्तस्थान मागे जाकर केवल ज्ञानके द्वितीय धर्ममूलका घन उत्पन्न होता है। यही द्विरूपघनघाराका अन्तिम स्थान है। वह केवलज्ञानके द्वितीय वर्गमूल और प्रथम वर्गमूल का परस्पर गुणा करने से उत्पन्न हुई राशि के सदृश है । यथा- केवलज्ञान स्वरूप ६५५३६ के द्वितीय वर्गमूल १६ का घन ४०६६ है और ६५५३६ के प्रथम वर्गमूल २५६ में द्वितीय वर्गमूल १६ का गुणा (२५६ ४१६) करने से भी ४०९६ की प्राप्ति होती है । अर्थात् केवलज्ञानके द्वितीय वर्गमूलका घन = केवलज्ञानका प्रथम वर्गमूल x द्वितीयवर्गमूल है । एतदेवान्तस्थानं कथमित्याशङ्कायामाह - चरिमस्स दुचरिमस्स य व घणं केवलब्बदिक्कमदो । तम्हा विरूवहीणा मगवम्गसला इवे ठाणं ॥८२।। चरमस्य विचरमस्य च नैव घनः केवलव्यतिक्रमतः । तस्मात् द्विरूपहीना स्वकवर्गशला भवेत् स्थानम् ॥२॥ परिम। बरमराशेविचरमराशेश्च घनो नवान्तः । कुतः ? केवलमास्यतिकमो यस्माव। तस्मात्मानं पुनद्विरूपहोमस्वकोयवर्गशलाकामा भवेत् । अङ्कसंधिरम्यूह्या ॥२॥ केवलज्ञानका यही अन्तिम स्थान कैसे है ? गापा:-द्विरूपवर्गधाराकी चरम और द्विचरम राशिका धन, इस धारा का अन्तिम स्थान नहीं है । कारण कि इनका घन तो केवलज्ञानके प्रमाणसे अधिक हो जाएगा। इस धाराके समस्त स्थान, दो कम केवलज्ञान की वर्गशलाका प्रमाण हैं ॥२॥ . सर्बत्राकाशराणे (प)। . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ त्रिलोकसार गाथा :६३-६४ विशेषार्थ:-द्विरूपवर्गधाराको चरमराशि केवलज्ञान है, और द्विचरमराशि केवलज्ञानका प्रथम वर्गमूल है। इन दोनों राशियों के घनको ग्रहण कर इस धाराका अन्तिम (चरम) स्थान नहीं होता । अर्थात इन दोनों को यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है । कारण कि इनके घन को ग्रहण करने मे केवलज्ञानसे अधिक प्रमाण वाली राषिकी प्राप्ति होनेका प्रसंग प्राप्त होता है । जमे :-केवलज्ञान स्वरूप ६५५३६ का घन (६५५३६)' और ६५५३६ के प्रथम वर्गमुन्न २५६ का धन (२५३)। ये दोनों राशियों केवलज्ञानके प्रमाणको उल्लंघन करने वाली हैं। अत: द्विरूपचनधारामें इनका ग्रहण न करके केवलज्ञानके द्वितीय वर्गमूलका धन ग्रहण किया गया है। जैसे :- केवलज्ञान स्वरूप ६५५३६ का द्वितीय वर्गमूल १६ है, और इसका धन ०६६ है जो केवलज्ञानके भीतर है । यही इस धाराका अन्तिम स्थान है। इस द्विरूपधनधारा के समस्त स्यान दो कम केवलज्ञानकी वर्गशलाका प्रभागा है। इस धाग का आदि स्यान ८ और अन्त स्थान केवलज्ञान के द्वितीय वर्गमूलका धन है तथा द्विम्पवर्गधाराके सभी मध्यम स्थान धन स्वरूप होकर इस धारा के मध्यम स्थान बन जाते हैं । इदानी द्विरूपघनाघनधारां गाथाष्टकेनाह - सं जाण सिवाय धणाधणं अदुनिंदतब्बगां । लोगो गुणगारसला वग्गसलद्धच्छदादिपदं ।।८३।। तेउक्काइयजीवा वामलागतयं च कायठिदी । वग्गसलादिचिदयं ओहिणिबद्धं यरं खेत्तं ॥८४॥ तं जानीहि द्विरूपगतं धनाधनं अष्टबृन्दतद्वर्गम् । लोको गुणकारशला वर्गशलार्घच्छंदादिपदम् ॥३॥ तेजस्कायिकजोवा वर्गशलाकाश्यं च कायस्थितिः । वगंशलादित्रितपं अवधिनिबद्ध' वर क्षेत्रम् ।।८।। तंबाण । विरूपवर्गधारायां पो यो राशि: उक्तः तस्य तस्य घनाघन एवात्र पारायामित्यमु झम जानीहि । कथं बरतीति चेत् । प्राविरघन: ५१२ तदुपरि घनवर्गः २६२१४४ तदुपरि प्रसंख्यातस्यामानि गत्वा लोक उत्पद्यते । अस्य वर्गशलाकाविरत्रापतितस्वावनुक्त इत्यवतेयः । ततोऽसंख्यातस्यानानि गरबा गुणकारशलाकाराशिरस्पद्यते । स क इति वेद, लोकं विरलयिस्वा लोकमेव वस्था समस्त राशोनम्योम्यं गुणयित्वा एकवारं गुरिणत मिलि लोकमात्रशलाकाराशितो' रूपमपनये । पत्र गुणकारशलाका रूपोनलोकमात्रा भवन्ति । त पुनरप्यसंख्यात लोकमानं (=g) भन्योन्यारिणतराशिमेव विरलपित्वा तमेव दत्त्वा अन्योन्यं गुरिणतमिति प्राक्तनशलाकाराशिसः अपरं रूपमपनयेत् तत्र १ पूर्ववत् एकं (प.)। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामा': ८३-८४ लोकसामान्याधिकार गुणकारशालाका सपोमासंख्यातलोसमात्रा भवन्ति । () एवं सावधलाकाराशिसमाप्तिताबगुणकारशलाका वर्षात। Egg EEE एवं सत्येकवारशलाकामिडापन स्पात् । एवमाहटुवार शलाकानिधापने कृते यावत्यो गुणकारमालाकास्तावस्योऽत्र गुणकारालाका इत्युच्यते । ततोऽसंख्यातस्थानानि गत्वा वगंशलाकास्ततोऽसंख्यासस्थानानि गत्या प्रचंच्छेवास्ततोऽसंख्यातस्थानानि गत्वा प्रथममूलं तस्मिन्नेकवार वगिते ॥३॥ तेउ । तेजस्कायिकोषराशेः संस्था उत्पद्यते। सा पुनरावार शलाकामिलापने यो राशिसत्पद्यते तत्प्रमाणमित्यवसेयं । पस्य वर्गशलाकाया: प्रयो गुणकारशलाका तिकृतीति । कमिति घेत पडूसंहलो प्रदश्यते । बाबाले ४२ = ४२ = पायोग्य गुणिते एककटमुत्पद्यते १८-प्रम्य गुणकारशलाका एका वर्गशलाका पुन: पट्' ततस्सेजस्कामिकवर्गशलाकाया प्रषो गुणकारशालाका तितोत्यबसे । । पूनः पट - इताय ०' प्रतो निम्नास्तितः पाठोऽधिको बनतेततस्तेजस्कायिक, म क इनि चेत ? तेजस्कारिक जीवराशिप्रमाणानयनविधाने लोकानां परस्परगुणितवारा गुणकारशलाका उच्यन्ते । तद्यथा, सूदाविरोधेनाचार्य परम्परागतोपदेशेन वक्ष्यामि । एक लोकप्रमाण राशि पालाकारूपेण स्थापयित्वा तमेव विरलनदेयराशि कृत्वा (श = बि =दे.-) विरलनराशि विरलयिरवा रूपं प्रति देयराशि दत्त्वा वग्गितसंवर्ग कृत्वाज्योन्यमकवारं गणितमिति लोकमावणलाकाराणितो रूपमपनयेत । तदा एकाप्रोम्याभ्यस्तगुणकारशालाका लभ्यते । सन्नोत्पन्नराशेः पलितोपभासंख्यातकभागमात्रवर्गणमाका मन्ति । तत्कमिति चेत् ? देवराशेरुपरि विरलितगश्य छदमान वगंस्थानानि गस्वा पन्धराशिरुत्पते । इति पल्यामपानकभाग प्रमितलीका सदमाधवगंस्थानानि लोकम्योपरि गावा प्रकृतराशिरुत्पन्न इत्यर्थः । तम्य राशरद पदणलाकाः असंन्यातलोफमावा भवन्ति । राशिरप्यसंख्यातलोकमावोऽभूत् । पुनरपि तं तवोत्पन्नमहाराशि बिरलन ( देय ) गमि च कृत्वा ( वि = दे == 8 ) दिग्लनशि विरसयित्वा रूप प्रतिदेगराभि तमेव दत्त्वा गित संवर्ग कृत्वा पूर्वशलाकाराशिप्तो पर रूपमपनयेत . नान्योन्याभ्यस्तगुणकारशसाके तु भवतः । वर्गशलाका अदच्छेदशलाकारागिश्च प्रत्येकमसंख्यातलोकमान्ना भवन्ति । अनेन क्रमेण सोकमावणलाकाराशिपग्सिमाप्तिपर्यन्तं रेतब्य स्यात् । तदायोन्याभ्यस्तगुणकारशलाका. लोकमाना भवन्ति । अन्ये व्रयोऽपि राशयोsसमयातलोकमाना भवन्ति । पुनरपि तवोत्पत्रमहाराम्पि णलाकाविरलनदेमरूपण त्रिप्रतिकं कृत्वा (श : वि . दे - चिरलनराशि विरयित्वा रूपं प्रतिदेवराणि तमेव दत्त्वा विनिमत संवर्म कृत्वा द्वितीमबारशलाकाराणितः पाः = 8 रूपमपनयेत ... सदान्योन्याभ्यस्तगुणकारशालाकाः कपाधिझमात्रा भवन्ति ।। अन्ये वयो गणयः असरूपातलोकमाना भवन्ति । पुनरपि तत्रोपनराशि विरलनदेय राशीकृत्या विरनराशि वितयित्वा रूपं प्रतिदेयराशि तमेव दया वरिंगत संवग्गं कृत्वा द्वितीयशनाफाराशिनः अपरं रूपमपनयेन् । तदान्योन्याभ्यस्तगुणकारमानाका द्विरूपाधिक लोकमात्रा भवन्ति २ शेषवगंशलाका अर्ब च्यवणिरिति वयोऽप्यस्रख्यातलोकमावा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार ततोऽसंख्यात स्थानानिगत्वा वर्णशलाकास्ततोऽसंख्यातस्यानानि गत्वा मच्छेदास्ततोऽसंख्यातस्वानामि वा प्रथमसूल, तस्रिनेकवारं वर्णिते काय स्थितिप्रमाणमुत्पद्यते । सरको हनिति वेद प्रत्यकाबाबा तेजस्कायियेषूत्पन्न जीवस्यो कृष्टेन तेनामित्यथावस्थाका लि प्रपयामः । ततोऽसंख्यातथानानि गरवा वर्गशलाकास्ततोऽसंख्यातस्यानानि गत्वार्धवास्ततोऽसंख्यातस्थामानि गत्वा प्रथममूलं, मनेकवारं वगिते सर्वावधिनियस मुत्कृवृक्षेत्रमात्र 8 मुखद्यते । क्षेत्रस्य लोकमात्रत्वेऽपि शपत्यपेक्षयोक्तत्वात् घटते ॥८४॥ गाथा । ८३-२४ ७६ । १४. आठ गाथाओं द्वारा द्विरूपघनाघन धारा का निरूपण करते हैं :गायार्थ:- द्विरूपवर्गषारामें जो जो राशि वर्गरूप है उस प्रत्येक राशि का घनाघन (घन का घन ) इस धारा में प्राप्त होता है। इस धारा का प्रथम स्थान ८ का घन और द्वितीय स्थान आठ के घन का वर्गं जानो । उत्तरोत्तर आगे आगे जाकर लोक, गुणकारशलाका, वर्गालाका. अर्धच्छेद और प्रथम वर्गमूल की प्राप्ति होती है । ( इस प्रथम वर्गमूलका एक वार वर्ग करने पर ) तेजस्कायिक जीव राशि उत्पन्न होती है। उससे आगे आगे असंख्यात वर्गस्थान जाने पर क्रमश: तेजस्काम-स्थिति की 'वर्गशलाका, अच्छे व प्रथममूल उत्पन्न होते हैं। इस प्रथमभूलका एक बार वर्ग करने पर तेजस्काय स्थिति उत्पन्न होती है । पुनः असंख्यात असंख्यात वर्गस्थान आगे जाने पर क्रमश अवधिज्ञान के उत्कृष्ट भवन्ति । अनेन श्रमेण द्विरूपोनोत्कृष्ट संख्यातशलाका मावलोलाका यावदु भवन्ति तावन्नयेत् एतम्सिन्योन्या8 १.५ भ्यस्तगुणकारशलाकासु प्राक्तनविरूपाविकलोकमान्यन्योन्याभ्यस्त शलाकालाका मिलितासु = १६ चत्वारोप रामायो संख्यात लोकमात्रा आलापमात्रेण भवन्ति । एवं द्वितीयबार स्थापित शलाका रानिपरिसमाप्तिर्यात् तावयेत् । तथा चत्वारोप राजयोऽसंख्यात लोकमात्रा भवन्ति । पुनरपि तत्रोत्पन्नमहाराणि त्रिप्रतिमं कृत्वा ( बि= 8 दे = B ) विरलमराशि विरलयित्वा रूपं प्रतिदेयं तमेव वा गित कृत्वा तृतीयबारशलाकाराणितः रूपमपनयेत् श· तथा चत्वारोऽपि रामयोऽसंख्या लोकमात्रा: । एवं तृतीयारस्थापित शसाकारानिपरिसमाप्तिर्यावत् तावन्नयेत् । ताग्योन्याभ्यस्तगुणकार राणिवंगंशालाका राशिद ज्वराभिः लब्धरात्रिति चत्वारो राशयस्तद्योग्यासंख्यतिलोकमात्रा भवन्ति । पुनरपि तं तत्रोत्पन्नमहाराणि विप्रतिकं कृति कृत्वा (शवि दे g ) विरलनराशि विरलमित्वा रूपं प्रतिदेयं तमेव दस्वा वस्ति संमां कृत्वा चतुरंधाराला काराशितो रूप+ मपनयेत् । एवमेव पुनः पुनस्तावत्र्येन यावदनिकान्तान्योन्याभ्यरसगुणकारेशनाका परिक्षीण • चतुर्थवारितान्योन्याभ्यस्तगुणकारपालाका राशिपरिसमाप्तिर्भवति सदा तेजस्कायिक जीवराशिमा गणिरुत्पद्यते । एवमादार Refer कृते यावत्यो गुणकारमालाकास्तावत्वोऽत्र गुणकारशलाका इत्युच्यते । गुणकार नाकारायुत्पत्ति विवरणमिदम् | ● 'चतुर्थवार स्थापितान्योन्याभ्यस्तगुणकारशलाकाराशि' के स्थान पर 'चतुरंवा रस्थापितलाकाराशि होना चाहिए। यहाँ पर लेखक से अशुद्ध लिखा गया है, ऐसा प्रतीत होता है। तक्ष g Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा :३४ लोकसामान्याधिकार क्षेत्र की वर्गशलाका, अपच्छेद व प्रथमवर्गमूल प्राप्त होता है; जिसका एक बार वर्ग करने पर अवधिज्ञान के उत्कृष्ट क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त होता है ।।८३-८४॥ विशेषार्थ :-द्विरूपवर्गधारा में जो राशियां वर्गरूप हैं, उन राशियों का धनाधन ही इस धारा में प्राप्त होता है । धन के धन को हो घनाघन कहते हैं । जैसे:-द्विरूपवर्गधारा का प्रथम स्थान २ है । इस दो का धन (२४२४२) ही द्विरूपधनधाराका प्रथम स्थान ८ है, और इम ८ का घन (८४८४८) ही द्विरूपचनावन धाराका प्रथम स्थान ५१२ है। अर्थात् दो का घनाघन (२४२x२x२x२x२x २४२४२१ ५१२ है, जो द्विरूपच नाघन धाराका प्रथम स्थान है । इसी ५१२ का वर्ग (५१२४ ५१२) = २६२१४४ द्विरूपघनाधन धारा का दूसरा स्थान है, जो द्विरूपधन धारा के दूसरे स्थान ६४ के घनस्वरूप है और द्विरूपवधिाराके दूसरे स्थान ४ के घनाघन (४४४४४४४xxxxxx४४४ ) स्वरूप है। अर्थात २६२१४८ द्विरूपधनधाराके दूसरे स्थान ६४ का धन है और द्विरूपवर्गधाराके दूसरे स्थान ४ का धनाधन है। इससे ( २६२१४४ ) असंख्यात स्थान आगे जाकर लोकाफाश के प्रदेशों के प्रमाण स्वरूप लोक उत्पन्न होता है। इस लोक की वर्गशलाकादि इस घारा में नहीं आती अतः नहीं कही गई हैं, ऐसा जानना चाहिए। लोक के प्रमाण से असंख्यात स्थान आगे जाकर गुणकारशलाका राशि उत्पन्न होती है। शाङ्का:-गुरणकारशलाका किसे कहते हैं ? समाधान :-जगमणी के घन स्वरूप लोक को शलाका, विरलन और देय रूप से तीन जगह स्थापन करना चाहिए । लोक स्वरूप विरलन राशि का एक एक विरल न कर प्रत्येक एक अके ऊपर लोक देयरूप देकर परस्पर गुगणा कर देना चाहिए। यहाँ एक बार गुणा हुआ है अतः लोक स्वरूप शलाका राशिमें से एक अंक कम कर देना चाहिए। यहाँ गुरणकार शलाकाएं एक कम लोक प्रमाण होती हैं। [ यहाँ पर गुणकारशलाका राशि का प्रमाण एक कम लोकमात्र इसलिए है कि प्रथम देयारूप लोक को दूसरे देवरूप लोकसे गुणा करने पर एक गुणकार शलाका होती है। तीसरे देय रूप लोक से गुणा करने पर दूसरी गुणकार शलाका उत्पन्न होती है जो तीन से एक कम है। इमोप्रकार क्रमशः गुरिणत करते हुए अन्तिम देयम्पलोकसे गुगा करने पर एक कम लोक प्रमाण गुणकार शलाकाएं होती हैं। जैसे - मान लीजिए :- अङ्कसंदृष्टिमें लोक का प्रमाण ४ है, अतः शलाका राशि ४, घिरलन राशि ४ और देय राशि ४, इमप्रकार तीन जगह स्थापन किया । विरलान राशिका बिरसन कर उसके ऊपर देय राणि देय देकर परस्पर गुणा करने स ( १ १ -२५६ ) एक वार गुणा हुआ अप्त: शलाका राशि ४ मे से एक अङ्क घटा (४-१-३) दिया । यहाँ पर लोकस्वरूप चार का गुणा ३ वार ( xxxx४४४ ) ही हुआ है। अर्थात् ४x४=१६ एक बार, १६४४-६४ दूसरी बार और ६४४१=२५६ मह तीसरी बार गुणा हुआ, अतः गुणकार शलाकाएं एक कम लोक मात्र कही गई हैं। ] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकसार गामा:८३-४ परस्पर के गुरएन से उत्पन्न हुई असंख्यात लोकप्रमाण राशि का पुनः विरलन कर, तप्पा बसी को प्रत्येक विरलित अङ्क पर देय देकर परस्पर में गुणा करना चाहिए, तब शलाका राशि में से दूसरी बार एक मत घटा देना चाहिए । यहाँ पर गुणकार शलाकाएँ एक कम असंख्यात्त लोकमात्र प्रमाण होती हैं । इस प्रकार पुनः पुन विरलन, देय, गुणन और ऋण की क्रिया करते हुए जबतक लोक प्रमाण प्रथम शलाका राशि समान होती है तबतक गुणकार शलाका राशि वृद्धिङ्गत होती जाती है। इसप्रकारसे शलाका राशि समाप्त करने को एक बार शलाका निष्ठापन कहते हैं। इसी विघिसे साढ़े तीन वार शलाका निष्ठापन करने पर जितनी गुणकार शलाका राशि उत्पन्न होगी उस गुणकार शलाका राशि का यहां कथन किया जा रहा है, क्योंकि यह गुणकार शलाका राशि तेजस्कायिक जीव राशि प्रमाण है। इस गुणकार शलाका राशि से असंख्यात स्थान मागे जाकर तेजस्काय जीव रागिकी वगंशलाकाएं, उससे असंख्यात स्थान आगे जाकर उसीके अधच्छेद और उमसे असंध्यात स्थान प्रागे जाकर उसी के प्रथमवर्गमूल को उत्पत्ति होती है। इस प्रथममूल का एक वार वर्ग करने पर तेजस्कायिक जीव राशि की संख्या उपलब्ध होती है। साढ़े तीन वार शलाका निष्ठापन करने से जो राशि उत्पन्न होती है, उतना ही प्रमाण तेजस्कायिक जीव राशि की संख्या का जानना चाहिए । इस तेज़स्कायिक जीवराशि की वर्गशलाकानों से उसी की गुणकार शलाकाएं अल्प है। वर्गशलाकाओं से गुणकार शलाकाएं कम क्यों हैं ? इसको अङ्कसंदृष्टि द्वारा दशति हैं :-बादाल (४२) को चादाल में गुणा करने पर ( ४२= x ४२ -- ) एकट्टी ( १८= } उत्पन्न होती है। इसकी गुणकार शलाका १ है क्योंकि गुणा एक बार ही किया गया है; किन्तु वर्ग शालाकाएं ६ हैं, क्योंकि दो का उत्तरोत्तर ६ बार वर्ग करने से १८ = (इकट्ठः) उपन्न होती है। तेजस्कायिक जीव राशि का प्रमाग प्राप्त करने के विधान में लोक का जितनी वार परस्पर गुणा किया गया है उतनी गुणकार शलाकाएं कही गई है। सुत्र से अविरुद्ध तथा आचार्य परम्परा से पाए हुए उपदेशानुसार इसे कहा जाता है :--लोक शलाका रूप से स्थापित कर उसी लोक को विरलन एवं देय राशि रूप से भी स्थापित शलाका :विरलन =, देय = 1 करना चाहिए । विरलन राशि लोक को विरलित कर, प्रत्येय अङ्क के प्रति देय राशि लोक को देकर, वगित संगित द्वारा एक बार परस्पर गुणा करने पर शलाका रूप लोक राशि में से एक कम [ शलाका = --- १ ] कर देना चाहिए । इस प्रकार परस्पर गुणा करने से जो राशि उत्पन्न हो उसकी अन्योन्याभ्यस्त गुणकार शलाका तो एक होगी और वर्गलाकाएं पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण होंगी। क्योंकि देय राशि से आगे, विरजन राशि के अच्छे प्रमाण बर्गस्थान मागे जाकर बिरलन राशि उत्पन्न होती है। लोक स्वरूप चिरलन राशि के अधंसद पल्प के असंख्यात भाग प्रमाण हैं. अत: लोक रूप देय राशि से पल्य के असंख्यासवें भाग प्रमाण वर्ग स्थान आगे जाकर यह महान राशि उत्पन्न होती है। इस राशि की अघच्छेद शलाकाएं असंख्यात लोक मात्र हैं, तथा यह महान राशि भी असंख्यात लोक मात्र है। इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण जो महाराशि उत्पन्न हुई है. उसे विरलन और देय रूप से स्थापन करना चाहिए । [ विरलन राशि असंख्यात लोक प्रमाणा और Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ८३-८४ लोकसामान्याधिकार ७९ देय राशि भी असंख्यात लोक प्रमाण ] विस्लन रादा की विरलित कर प्रत्येक अ पर देय राशि देकर वर्गित संवर्गित करके पूर्व स्थापित लोक प्रमाण शलाका राशि में से पुनः एक कम [ शलाका राशि = -- २] कर देना चाहिए | अब इस राशि की अन्योन्याभ्यस्त गुणकार शलाका दो तथा वर्गशलाकाएँ और अर्थच्छेदशलाकाएं असंख्यात लोकमात्र हो जाती हैं। यही ( विरलन, देय, गुन एवं ऋण रूप ) क्रम लोक मात्र शलाका राशि को परिसमाप्ति तक जानना चाहिए। जब लोकमात्र शलाका राशि समाप्त होगी तब अन्योन्याभ्यस्त्र गुणकार शलाका तो लोकमान होंगी और अन्य दो अर्थात् विरलन राशि तथा देय राशि असंख्यात लोक मात्र होंगी । पुन: इसप्रकार उत्पन्न हुई महाराशि को गलाका, विरलन और देय इन तीनों रूप स्थापित करना चाहिए। शाका गणि असंख्यात लोक, विरलन राशि असंख्यात लोक और देय राशि असंख्यात लोक ] विरलन राशि को विरलित कर प्रत्येक अंक पर देय राशि देकर गित संगित करने पर दूसरी शलाका राशि (असंख्यात लोक ) में से एक कम [असंख्यात लोक १] कर देना चाहिये। इस महाराशि की अन्योन्याभ्यस्त गुणकार दालाका एक अधिक लोकमात्र [१] हैं, तथा अन्य दो अर्थात् विरलन और देय राशियां असंख्यात लोक मात्र हैं । पुनः इसप्रकार उत्पन्न हुई महाराशिको विरलन एवं देय रूप से स्थापित कर, विरलन राशि को विरलित कर प्रत्येक अंक पर देय राशि देकर वर्णित संगित करने पर दूसरी शलाका राशि में से पुनः एक कम कर देना चाहिये, अब दूसरी शलाका राशि का प्रयाग दो कम असंख्यात लोक [ ४-२ है, और अन्योन्याभ्यस्त गुणकार वालाका दो अधिक लोक [२] प्रमाण है, शेष वर्गशलाका एवं बच्छेद शलाका राशि असंख्यात लोकमात्र हैं। इस प्रकार तीनों राशियाँ ( शलाका राशि, वर्गशलाका राशि एवं अच्छे शलाका राशि) असंख्यात लोकमात्र हैं। इस क्रम को तब तक करते रहना चाहिए जबतक कि लोकशलाका दो कम उत्कृष्ट संख्यात वार [ = १५ - २ ।' न हो जाएँ। इतनी अन्योन्याम्यस्त गुणकार शलाकाओं में पूर्वोक्त दो अधिक अन्योन्याभ्यस्त गुणकारवालाकाएं और मिला देने मे अन्योन्याभ्यस्त, गुणकार शालाकाएं असंख्यात लोक [ १६ ] प्रमाण हो जाती हैं ऐसा आलाप करने से तब चारों ही राशियाँ ( गुणकारशलाका राशि, बलाका राशि, विरलन राशि एवं देय राशि) असंख्यात लोक प्रमाण हो जाती है। जबतक दूसरी बार स्थापित शलाका राशि समाप्त न हो जाए तब तक इसी प्रकार करते रहना चाहिए। तब भी न्दारों राशियों ( गुणकारशलाका राशि, शलाका राशि, विरलन राशि और देय राशि ) असंख्यात लोक प्रमाण रहती हैं। पुन: इस प्रकार दूसरी शलाका राशि की पर समाप्ति पर उत्पन्न हुई महाराशि तीन - — १ लोक का चिन्ह है और उत्कृष्ट संख्याल का चिन्ह १५ है । २ जघन्य असंख्यात का चिन्ह १६ है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० त्रिलोकसारा गाथा : ८३-८४ [असंख्यात लोक प्रमाण शलाका राशि, मसंख्याप्त लोक प्रमाण विरलन राशि और असंख्यात लोक प्रमाण देय राशि ] रूप स्थापित कर, विरलन राशि को विरलित कर, प्रत्येक अंक पर देय राशि देकर वगित संवर्णित करना चाहिए। तीसरी बार की शलाका राशि के समाप्त होने तक इसी (पूर्वोक्त ) प्रकार करते रहना चाहिए। तब अन्योन्याभ्यस्त गुणकार राशि, वर्गशलाका राशि, अर्धच्छेद राशि और उत्पन्न हुई महान राशि, ये चारों राशियां अपने अपने योग्य असंख्यातलोक प्रमाण हो जाती हैं। तृतीयबार शलाका राशि के समाप्त होने पर उत्पन्न हुई राशि को फिर भी तीन रूप . [असंख्यात लोक प्रमाण पालाका राशि, असल्यास को प्रमाण विरलन राशि एवं असंख्यात लोक प्रमाण देय राशि } स्थापित करके, विरलन राशि को विलित कर, प्रत्येक अंक पर देय राशि देकर कगित संगित करने पर चतुर्थ वार शलाका राशि में से एक कम करना चाहिए । इस प्रकार पुन: पुन: तब सक एक एक कम करना चाहिए जब तक कि अतिक्रान्त बन्योन्याभ्यस्त गुणकार शलाका मे होन यसुर्यवार स्थापित झालाका राशि समाप्त न हो जाए ( अर्थात् तृतीयशलाका निष्ठापन - परिसमाप्ति पर जो अन्योन्याभ्यस्त गुणकार शलाका राशि उत्पन्न हुई थी वह तृतीय शलाका राशि का उल्लंघन कर उत्पन्न हुई है, अतः अतिकान्त अन्योन्याभ्यस्त गुणकार शलाका राशि कहा गया है। इस राशि को स्तुर्थवार स्थापित शलाका राशि में से घटाने पर जो राशि अवशेष रहती है वही अर्धशलाका राशि मानी गई है। प्रत्येक बार वगित संगित करते हुए उस अर्धशलाका राशि में से एक एक कम करते रहना चाहिए। जब यह शेष ( चतुर्थ वार स्थापित शलाका राशि - अतिकान्त अन्योन्याभ्यस्त गुणकार पालाका राशि) अशलाका राशि समाप्त हो जाए, तव जो महान राशि प्राप्त होती है वह तेजस्कायिक जीव राशि के प्रमाण स्वरूप ही उत्पन्न होती है। इस प्रकार साढ़े तीन बार शलाका राशि स्थापित करने पर जितनी गुणकार शलाकाएँ उत्पन्न होती है उतनी ही यहां पर ,गुणकार शलाका कही गई हैं। यह गुणकार शलाका राशि का विवरण है। वर्गशलाका राशि से गुणकार शलाका राशि अल्प हैं ऐसा इस कथन से जानना चाहिए । - तेजस्कायिक जीवराशि की गुणकार शालाका राशि से असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर सेजस्कायिक जीव की कायस्थिति की वर्भशलाकाएँ प्राप्त होती है। वर्गशलाकाओं से असंख्यातवर्गस्थान ऊपर जाकर उसीको अर्धच्छेदशलाकाएँ प्राप्त होती हैं। अघच्छेद शलाकाओं से असंख्यात वर्ग स्थान ऊपर जाकर उसीका प्रथम मुल प्राप्त होता है। उस प्रथम वर्गमूल का एक बार वर्ग करने पर तेजस्कायिक जीव की कास्थिति का प्रमाण प्राप्त होता है। तेजस्कायस्थिति से क्या प्रयोजन है | पृथिवी जल मावि अन्य काम से आकर तेजस्कायिक में उत्पन्न हुए किसी एक जोब का उत्कृष्ट रूप से तेजस्कायिक पर्याय को छोड़े बिना उसी में अवस्थित रहने का जितना काल है अर्थात् उस काल के जितने समय हैं वह कायस्थिति है। तेजस्काय स्थिति से असंख्यात वर्गस्थान ऊपर जाकर सर्वावधि ज्ञान के उत्कृष्ठ क्षेत्र की वर्गशलाकाएँ प्राप्त होती हैं। वर्गशलाकामों से असंग्यात वर्गस्थान ऊपर जाकर उसी Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाश:८५-८७ लोकसामान्याधिकार क्षेत्र की अच्छे दशलाकाए प्राप्त होती हैं। अच्छद राशि से मसंख्यात्तवर्गस्थान ऊपर जाकर उसी क्षेत्र का प्रथम वर्गमूल प्राप्त होता है। उस प्रथम वर्गमूल का एक वार वर्ग करने पर सर्वावधि के विषय भूत उत्कृष्ट क्षेत्र [ = ] के प्रदेशों का प्रमाण प्राप्त होता है, जो असंख्यात लोक प्रमाण है। यद्यपि अवधिज्ञान रूपी पदार्थ को जानता है और रूपी पदार्थ लोक [ :- ] के बाहर नहीं हैं, अत: सदपिकान का लेस लोक पाय है । तथापि शाक्ति अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण क्षेत्र कहा गया है। (सर्वावधिज्ञान की योग्यता मात्र लोकाकाश के ज्ञेयों को जानने की ही हो, ऐसा नहीं है, किन्तु यदि असंख्यात लोक प्रमाण क्षेत्र में अवधिज्ञान का विषयभूत ज्ञेय होता तो सर्वावधि उसे भी जान लेता. ऐसी शक्ति सविधिज्ञान में है )। वासलागसिदयं वचो लिदिधपच्चयट्ठाणा । वगासलादीरसबंधात्रमाणाण ठाणाणि ।।८।। वासलागपहुदी णिगोदजीवाण कायवरमंखा । घग्गसलामादितयं गियोदकायट्टिदी होदि ॥८६॥ नतो असंखलोगं कदिठाणं चडिय वग्गसलतिदयं । दिस्संति सबजेट्ठा जोगस्मविभागपडिछेदा ||८७|| वर्गशलाकात्रितयं ततः स्थितिबन्धप्रत्ययस्थानानि । वगंशलादिरसबन्धाध्यवसानानां स्थानानि ।।५।। वगंशलाकाप्रभति निगोदजीवानां कायवरसंख्या। वर्गशलाकादित्रयं निगोदकायस्थितिर्भवति ॥८६|| ततो असंख्यलोकं कृतिस्थानं चटित्वा वर्गालात्रितयम् । श्यन्ते सर्वज्येष्ठा योगस्याविभागप्रतिच्छेदाः ।।७।। अगसला । ततोऽसंख्यासस्थानानि गत्वा वर्गशलाकाततोऽसल्यासस्थामानि पश्व घन्छवाहतोऽसंख्यातत्यानानि गरदा प्रयममूलं, तस्मिन् एकवार गिते जनावरणाविकर्मणां स्थितिबन्धकारमाकवायपरिणामस्पानास्युत्पद्यन्ते । तारिणामसंख्या इत्ययं । ततोऽसंहपातस्यानानि गत्या वर्गशलाकातितोऽसंखपातस्थामानि गत्वा प्रदन्छे रास्ततोऽसंख्यातापानानि गत्या प्रथममूलं तस्मिन्नेकवार गिते सति सामावरणानिकर्म तोवाविशक्तिलम परसबन्धकारणकषायपरिणामस्थानानि उत्पधन्ते ॥५॥ __ततोऽसंड्यासस्थानानि : गतवा वर्गशलाकास्ततोऽसंस्थातस्थानानि गत्वार्धच्छदात्ततो. ऽसंस्पातस्यानानि गरमा प्रथममूलं तस्मिन्ने वारं वगिते निगोदजोबाना सवंशरीराणामुत्कृष्ट संख्यो १. असंख्यातवर्गस्थानानि (५०) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ त्रिलोकमार गाथा : ८१-८ पद्यते 1 निपलानामनन्तसंख्याबलानां जीवाना गरे क्षेत्रं वदाति इति निगोवं कर्म तद्युक्ता जीवा निगो जीवा इत्युध्यन्ते । ततोऽसंख्यातस्यानानि गरबा वर्गशलाकास्ततोऽसंरूपातस्यानामि गरवा मर्षच्छे वास्ततोऽसंख्यातस्थानानि गत्वा प्रथममूलं तस्मिन्नेकवारं वर्गिते निगोदकावस्थितिर्भवति । सा कोदृशीति चेत् । प्रत्र निगोदकाय स्थितिरित्युक्त तावदेकजीवस्य निगो देवरकृष्टेन स्वस्थानकालो म गृह्यते तस्मातृतीयपरिवृत्तत्वात्। तहि कि गृह्यते ? निगोदशरीररूपेण परिणतपुद्गलानां तदाकार मस्योत्कृष्टेनावस्थान कालो गृह्यते ॥ ८६ ॥ तलो । तत उप संख्यात लोकमात्रकृतियानानि दिवा वर्गशलाकारसोऽसंख्यात लोकमात्रकृतिस्थानानि गत्वार्षच्छेय स्वतोऽख्यात लोक मात्र कृतिस्थानानि पटिया प्रथममूलं तस्मिन्नैकवारं थांगते सर्वज्योगोत्कृष्टा विभागप्रतिच्छेवा दृश्यन्ते । कर्माकर्षण शक्तिर्योगस्तस्याविभाग प्रतिदेशाः कर्माकर वाक्यविभागांशा इत्यर्थः ॥८७॥ गाथा :- सर्वावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र प्रमाण ] से असंख्यात असंख्यात वर्गस्थान आगे आगे जाकर स्थितिबन्ध में कारणभूत कषायपरिणामों के स्थानों की वर्गशलाकाएं, अर्धच्छेद, प्रथम मूल और उसी प्रथमवर्गमूल का एक बार वर्ग करने पर कषायपरिणामों के स्थानों का प्रमाण प्राप्त होता है । उसके आगे अनुभागवन्ध स्थान के कारण भूत परिणामों की वर्गशलाकाएं, अर्धच्छेद, प्रथमत्रगं मूल और उसी प्रथममुल का एक बार वर्ग करने पर अनुभागबन्ध योग्य बंधाध्यवसान स्थानों का प्रमाण प्राप्त होता है। उससे असंख्यात वर्ग स्थान मागे आगे जाकर वर्गशलाकादिकों के साथ साथ निगोद जीवों के शरीरों की उत्कृष्ट संख्या का प्रमाण प्राप्त होता है तथा उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे आगे जाकर वर्गशलाकादि तीनों के साथ साथ निगोदकाय स्थिति प्राप्त होती है। उससे असंख्यात लोक प्रमाण वर्ग स्थान आगे आगे जाकर वर्गशलाकादित्रय के साथ साथ योग के सर्वोत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण प्राप्त होता है ॥८५-८७॥ विशेषार्थ :- सर्वावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र प्रमाण से असंख्यात वर्ग स्थान आगे जाकर स्थितिबंध मैं कारणभूत कषाय परिणामों के स्थानों की शलाकाएं उत्पन्न होती हैं। उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर उसी के अर्धच्छेद और उससे असंख्यात वगंस्थान आगे जाकर उसी के प्रथम वर्गमूल की उत्पत्ति होती है। इस प्रथम वर्गमूल का एक वार वर्ग करने पर ज्ञानावरणादि कर्मों के स्थितिबन्ध के कारणभूत कषाय परिणामों के स्थानों की उत्पत्ति होती है। अर्थात् आठ कर्मों के स्थितिबन्ध के कारणभूत परिणामों का जितना प्रमाण है उतनी संख्या प्राप्त होती है। उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान की वर्गेशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर उसी के अच्छे और उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर उसी का प्रथम वर्गमूल प्राम होता है । इस प्रथम वर्गमूल का एक बार वर्ग करने पर ज्ञानावरणादि कर्मो के तीव्रादि वात लक्षण वाले अनुभाग बन्ध में कारणभूत कषाय परिणामों के स्थानों का प्रमाण प्राप्त होता है। उससे Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ८८ लोकसामान्याधिकार ५३ असंख्यात वर्ग स्थान आगे जाकर निगोद शरीरों की वर्गशलाकाएं उत्पन्न होती हैं उससे असंख्यान वर्ग स्थान आगे जाकर उसी के अर्धच्छेदों की उत्पत्ति होती है ओर उससे असंख्यात वर्ग स्थान आगे जाकर उसी के प्रथमवर्गमूल की प्राप्ति होती है। इस प्रथमवर्गमूल का एक वार वर्ग करने पर निगोद जीवों के समस्त शरीरों की उत्कृष्ट संख्या का प्रमाण प्राप्त होता है । अनन्त जीवों को जो क्षेत्र देता है। उसे निगोद कहते हैं । तथा निगोद कर्म से युक्त जीवों को निगोद जीव कहते हैं । निगोद शरीरों के प्रमाण से प्रख्यात वर्ग स्थान आगे जाकर निगोदकाय स्थिति की वर्गशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर उसी के अच्छेद उत्पन्न होते हैं और उससे असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर उसी का प्रथमवर्गमूल प्राप्त होता है। इस प्रथम वर्गमूल का एक बार वर्ग करने पर निगोदकायस्थिति का प्रमाण प्राप्त होता है । निगोदकस्थिति किस प्रकार है १ यदि ऐसा पूछते हो तो आचार्य कहते हैं कि यहाँ पर निगोदकाय स्थिति ऐसा कहने पर एक जीव का उत्कृष्ट रूप से निगोद में रहने का काल ग्रहण नहीं करना चाहिए कारण कि एक जीव इतर निगोद में भी ढाई पुद्गल परिवर्तन काल तक रहता है जी अनन्तकाला है। तो फिर किस्म करना चाहिए ? निगोद शरीर रूप से परिणत हुए मुद्गल परमाणुओं का उस आकार को छोड़े बिना उत्कृष्ट काल तक निगोद शरीरपने से अवस्थित रहने का नाम निगोदकाय स्थिति है। यहाँ निगोदकाय स्थिति से उस उत्कट काल के समयों का ग्रहण करना चाहिये । निगोदकाय स्थिति के प्रमारग से असंख्यात लोक प्रमाण वर्गस्थान ऊपर चढ़ कर सर्वोत्कृष्ट योग के उत्कृष्ट अविभाग प्रनिदों की वर्गशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। उससे असंख्यात लोक प्रमाण वर्ग स्थान आगे जाकर उसी के अर्थच्छेद प्राप्त होते हैं। तथा उससे असंख्यात लोक प्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर उसी कर प्रथम वर्गमूल उत्पन्न होता है। इसका एक बार वर्ग करने पर सर्वोत्कृष्ट योग के उत्कृष्ट विभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण प्राप्त होता है । कर्मा की शक्ति विशेष को योग कहते हैं । तथा कर्माकर्षण की शक्ति के अविभाग अंश को अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं । यह प्रमाण इसी योग के अविभागप्रतिच्छेदों का है। जो जो रामी दिस्सदि बिरूवर तद्वाणे तस्सरिसा घणाघणे सगिठाणम्हि | णवणवदिट्ठा ||८८ || यो यो राशिः ह्रयते द्विरुपवर्गे स्ववेष्टस्थाने । तत्स्थाने तत्सदृशा घनाघने नव नव उद्दिष्टाः ॥ जो पियारा स्वकीयेदृस्यामे विवक्षितस्थाने यो यो राशि इसे सस्थामे घनाघन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ त्रिलोकसार गाथा: बारायां तसहशा हिस्सवगंधारावानसहा राशमः शिरूपवर्ग धाराराशय एक नवनवणारं परस्पर गुरिणता सद्दिष्टा ॥८॥ जापार्ष:-द्विरुपवर्गपारामें अपने इष्ट स्थान पर जो जो राशि वर्गरूप दिखाई देती है द्विरुप घनाधनधाराके उसी उसी स्थान पर द्विरूपवर्गधारा के स्थान सदृश अर्थात् विरूपगंधारा की राशियों का हो नौ नी बार गुणा करने को कहा गया है ।।८।। विशेषा:-द्विरूपवर्गधारामें मभने विवक्षित स्थान पर जो जो राशियां वर्गरूप दिखाई देती है: द्विरूपधनाधनधारामें उसी उसी स्थान पर द्विरूपवर्गधारा के स्थान सदृश राशियों का अर्थात द्विरूपधारा को स्थानगत राशियों का ही परसर नौ नौ बार गुणा करने से द्विरूपधनाघनधारा के स्थानों को प्राप्ति होती है । जैसे :--- द्विरूपवर्गधारा में २-४ -१६ - २५६ - ६५५३६ राशियाँ हैं अतः विरूपधनाधनधारा में ५१२ - २६२१४४ - ६८७१९४७६७३६ -२५६-६५५३६५ राशियाँ प्राप्त होती हैं । अर्थात् द्विरूपवर्गधारा के प्रथम स्थान २ का धनाधन (२x२x२x२x२४२ x२x२x२) ५१२ द्विरूपचनापनधारा का प्रथम स्थान है और द्वितीय स्थान ४ का धनाघन २६२१४ द्विरूपचनापनधारा का दूसरा स्थान है; इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। चविणेवमणतं ठाणं केवलचउल्थपददि । सगवगागुणं चरिमं तुरियादिपदाहदेण समं ।।८९।। घटित्ववमनन्तं स्थानं केवल चतुर्थपदवृन्दम् । स्वकवर्गगुणश्चरमः तुरीयादिपदाहतेन समः ।।८।। पति। ततो योगोत्कृधानिमागप्रविन्छेबत उपर्यनन्तस्थानानि घटित्वा केवलहानस्य ६५ = चतुर्षमूलं २ 'पुनस्तस्पधनः ८ स्वकीयवर्ग ६४ पुरिणतो ५१२ धनाधनषारायाश्चरमः । स च तुर्षअपममूलयोः परस्पराहत्या समः ।।।। पापा :- [ सर्वोत्कृष्ट योग के उत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेदों के प्रमाण से ] अनन्त स्थान ऊपर जाकर केवल के पतुर्थवर्गमूल के घन को इसी चौथे वर्गमूल के धन के वर्ग से गुणा करने पर इस धारा का अन्तिम स्थान प्राप्त होता है। जो केवलज्ञान के चतुर्य और प्रथम वर्गमूल के परस्पर के गुणन से प्राप्त हुए लब्ध के सदृश है ।।८९॥ विशेषार्ष:-उपयुक्त उत्कृष्ट योग के उत्कृष्ट अविभाग प्रतिपदों के प्रमागा से अनन्त स्थान मागे जाकर केवलज्ञान (६५५३६) के चतुर्थवर्गमूल (२) के घन (८) को इसी चतुर्थवर्गमूल के धन के वर्ग (६४) से गुणा करने पर धनाधन धारा का अन्तिम स्थान प्राप्त है और वह स्थान केवल ज्ञान १ भूल २ पुनस्तस्य ८ तस्प वर्ग: पुनः तेन गुणितः स्वकीयवर्ग ६४ तेन गुणित: ( 40 )। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० लोक सामान्याधिकार के चतुर्थ और प्रथम वर्गमूल के परस्पर गुग्गन से प्राप्त हुए लब्ध के सहश है। जैसे :- केवलज्ञान ६५५३६ के चतुर्थ वर्गमूल २ का धन ८ और इसका अपना वर्ग ६४ है, अतः ६४ को से गुणित करने पर ५१२ की उत्पत्ति होती है। जो केवलज्ञान ६५५३६ के प्रथमवर्गमूळ २५६ को इसी के चतुर्थं वर्गमूल २ से गुणित करने पर लब्ध प्राप्ताङ्क ( २५६ x २ ) ५१२ के सदृश है। यही ५१२ घनाघन धारा का अन्तिम स्थान है | = प्रत्येषां चरमत्वं कथं न सम्भवतीति चेत् - चरिमादिचक्करूप य घणाघणा एत्थ क्षेत्र संभवदि । तुम्हा ठाणं हेदू भणिदो वाला || ९० ॥ EX चरमादिचतुष्कस्य च घनाघना अत्र नैव सम्भवन्ति । हेतुः भरिणतः तस्मात् स्थानं चतुर्होनवर्गशलम् ||१०|| खरिमा केवलज्ञानाश्चतु स्थानानां ६५ - २५६, १६. ४, घनाघना पत्र द्विपधनाधनबाराय मेव सम्भवन्ति । कुतः ? केवलज्ञानव्यतिक्रमस इति हेतुभंगितस्तस्मात् स्थानं केवलज्ञानस्य तुहीन वर्गशलाकाप्रमाणं स्यात् ॥०॥ अन्य स्थानों में चरमपना क्यों सम्भव नहीं है ? इसका समाधान : गाथार्थ :- केवलज्ञानके अन्तिम चार स्थानों का बनावन इम घनावन धारा में सम्भव नहीं । इसका कारण पहिले, कहा जा चुका है। अतः द्विरूपघनाघन घारा के समस्त स्थानों का प्रमाण चार कम केवलज्ञान की वर्गालाकाओं के बराबर है ॥९५॥ 1 विशेषार्थ :- केवलज्ञानको आदि करके नीचे के चार स्थान अर्थात् प्रथमवर्गमूल द्वितीय वर्ग मूल और तृतीय वर्गमूल तथा अन्तिम स्थान स्वयं केवलज्ञान। इन चारों स्थानों का घनाघन इस घनाघनधारा में सम्भव नहीं है। कारण कि इन चारों के घनाघन का प्रमाण केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक हो जाएगा। जैसे :- केवलज्ञान का प्रमाण ६५५३६ है । इसका प्रथम वर्गमूल २५६ दूसरा aiमूल १६ और तीसरा वर्गमूल ४ है । ये चारों स्थान द्विरूपगंधारा में हैं । अतः द्विरूपवगंधारा के - ४ १६ २५६ ६५५३६ ये वारं स्थान हैं। द्विरूपघनावन धारा के २६२१४४ १६९ २५६ ३ ६५५३६९ इन चारों स्थानों के घनाघन की प्रसारण केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक है। इसीलिए केवलज्ञान के चतुर्थ वर्गमूल के घन का इसी चतुर्थ वर्गमूल के घन के वर्ग से गुरणा (६४४ ८ ) करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसी (५१२) में घनाघन धारा का अमिता सम्भव है, अन्य स्थानों में नहीं, और इसीलिये घनाघन धारा के समस्त स्थानों का प्रमाण भी केवलज्ञान की चार कम बर्गशलाकाओं के बराबर है । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ प्रयोक्तानां वाराणां निगमनमाह त्रिलोकसाथ वारुवनगाणं धाराणं दरिसिदं दिसामेयं । बित्थरदो वित्थररुइ सिस्सा जाणंतु परियम्मे ||९१ ।। परिकर्मणि ॥ ९१ ॥ व्यवहारोपग्ानां धाराणां दर्शितं दिशामात्रम् । विस्तरतो विस्तरम् चिशिष्या जानन्तु बहाद। व्यवहारोपयोग्यानां बाराला विग्मार्थ दर्शितं परिकर्मणि जानन्तु ॥२१॥ विस्तरतो विस्तरतविशिष्या बृहद्धा इति संख्याप्रमाणं समाप्तम् । उपयुक्त चौदह धाराओं के प्रसङ्ग का उपसंहार करते हुए कहते हैं — गाया : ९१-९२ गावार्थ:- संख्या व्यवहार में उपयोगी उपयुक्त चौदह धाराओं के स्वरूप का यहाँ निर्देश मात्र किया गया है । विस्तार से जानने में रुचि रखने वाले शिष्यों को इनका विस्तृत स्वरूप 'वृहदधारापरिकर्म' शाख से जानना चाहिए ॥ ६१ ॥ विशेषार्थ :- उपयुक्त चौदह धाराएँ संख्या व्यवहार के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। जैसे कोई अंगुलि से पूर्वादि दिशा का दिग्दर्शन कराता है, उसी प्रकार इन चौदह धाराओं के स्वरूप का यहाँ संकेत मात्र किया गया है । विस्तार से जानने की इच्छा रखने वाले शिष्यों को इनका व्यापक वर्णन 'वृहदारापरिकर्म' नामक ग्रंथ से जानना चाहिए । , संख्या -प्रमाण प्रसङ्ग समाप्त हुआ । अथ संख्याप्रमाणविशेषाश्चतुर्दशधाराः सप्रपत्र प्रदश्यं इदानीं प्रकृतमुपमाप्रमाणाष्ट निरूपयति पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगखेडी | लोपपदरो य लोगो उपमपमा एवमदुविधा ||१२|| पश्यं सागरः सूत्री प्ररं च घनांगुलं च जगणी । लोकप्रतरश्च लोकः उपमाप्रमा एवमष्टविधा ॥९२॥ पहले । परमं सागर: सुभ्यंगुजं प्रतरांगुलं धर्मातुलं च जगच्छ्र े रिणः, जगत्प्रतरश्च घन लोक इत्येवमुपमाप्रमाणमकृवि स्यात् ॥१२॥ संख्या प्रमाण के विशेषभूत चौदह धाराओं का विस्तारपूर्वक वर्णन कर अब विवक्षित उपमाप्रमाण के आठ भेदों का निरूपण करते हैं। — Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ गाथा : ६३-६४ लोकसामान्याधिकार गापा:-पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगणी , जगत्प्रतर तथा लोक इस प्रकार उपमा प्रमाण आठ प्रकार का है ।।२।। विशेषा:-गाथार्थ सदृश ही है। अथ तेषां मध्ये पल्यभेदं स्वस्वविषयनिर्देशपूर्वकमाह - ववहारुद्धारद्धापन्ला विष्णेच हॉनि गायब्वा । संखा दीवसमृदा कम्मष्टिदि वण्णिदा जेहिं ।।९३। व्यवहारोद्धाराद्धापल्यानि त्रीण्येव भवन्ति ज्ञातव्यानि । संख्या द्वीपसमुद्राः कर्मस्थितयो वणिता यैः ।।१३।। क्यहार । व्यवहारोबाराडापल्यानीति पस्यामि कीयेव भवन्ति इति सातव्यानि । यः पल्यत्रयसपासण्यं संख्या द्वीपसमुत्राः कर्मस्थित्यावयाच परिणताः ॥३॥ अब अपने अपने विषयों के निर्देश सहित पल्य के भेदों का वर्णन करते हैं --- गाथार्य :-स्यवहार पल्य, उद्धार पल्य और अद्धा पत्य के भेद से पल्य तीन होते हैं। व्यवहार पल्य से संख्या का, उद्धार पल्य से द्वीप समुद्रों का और अज्ञापल्य से कमस्थिति का माप किया जाता है ॥१३॥ विशेषार्थ:-गाथार्थ सदृश ही है। अथ पत्यज्ञापनार्थमाह -- सप्तमजम्माषीणं सनदिणमंतरम्हि गहिदेहि । मण्णव सण्णिचिदं भरिदं बालग्गकोडीहिं ।।९४।। सत्तमजन्मात्रीनां सपदिनाभ्यन्तरे गृहीतः। संनष्टं संनिचितं भरितं बालाग्रकोटिभिः ।।१४।। सप्तम । सप्तमकम्मनामवीनो तविनाम्यन्तरे गृहीतंबालानकोनिभिः संनष्टं संविचितं भरित ॥४॥ पल्य का शान कराने के लिए कहते हैं - गाचार्य :-उत्तम भोग भूमि में जन्म लेने वाले मेमने (भेड-शावक) के जन्म से सात दिन के • भीतर तक के होमों को ग्रहण कर उनके अग्रभाग के बराबर खण्ड कर, सश्चित किए हुए करोड़ों रोमों से गडदा भरना चाहिए ।।१४।। . १ अतिशयेत मन सत्तमः उत्तमभोगभूमिः तत्र समुत्पन्नमेषाणा (टि., म.)। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाय गाथा : ६५-९६ विशेषार्ष :-जिसने उत्तम भोगभूमि में जन्म लिया है और जो मात्र सात दिन की आयु का है ऐसे मेमने के रोमों को ग्रहण कर रोम के अनभाग के बराबर टुकड़े करना चाहिए तथा करोड़ों की संख्या में सञ्चित हुए उन रोम-खण्डों से कुपद्ध भरना चाहिए। तत्किमित्याह - जं जोयणवित्थिपणं तत्तिउणं परिरयेण सविसेस । तं जोयणमुन्धिद्धं पन्नं परिदोवमं गाम ।।९।। यत् योजन विस्तीर्ण तत् त्रिगुणं परिधिना सविशेषम् । तन् योजनमुद्विद्ध': पल्यं पलितोपमं नाम ॥१५॥ जंजो । यद्योजनविस्तीर्ण सत त्रिगुणं परिबिना सविशेष सूक्ष्मकलापात् योजनमुनि तत कुण्डलोमप्रमाणं पस्योपमं पलितोपमं वा' इति संशा ॥५॥ वह कुण्ड कैसा है सो बताते हैं - पापा:-वह कुण्ड एक योजन विस्तीर्ण ( व्यासदाला) है; उसकी परिधि विस्तार के तीन गुने से कुछ अधिक है, उसकी गहराई भी एक योजन है ऐसे विशाल कुण्ड में भरे हुए रोम खण्डों का जितना प्रमाण है, उसे पक्य अथवा पलितोपम कहते हैं ॥१५॥ - विशेषार्प:-वह कुण्ड एक योजन गहरा और एक योजन व्यास वाला है। उसकी परिधि तिगुने से कुछ अधिक है । ऐसे कुण्ड में भरे हुए उपयुक्त रोमों का जितना प्रमाण है, उतने रोम प्रमाण हो पल्य अथवा पलितोपम होता है। अथ परिधेः सविशेष इति विशेषणार्थ ज्ञापयवाह - विक्खंभवग्गदगुणकरणी वट्टस्स परिरयो होदि । विक्खंभचउभागे परिरयगुणिदे हवे गणियं ॥९६।। - 'विष्कम्भवर्गदशगुणकरणिः वृतस्य परिधिः भवति । विष्कम्भन्नतुर्भागे परिधिगुरिणते भवेत् गणितम् ॥१६।। विम । विष्कम्भव! (बि १xवि१) शरिणतः ( वि १xवि १४१०) करगिलप्रहणयोग्यराशिवेथिति मूलं गृहीरमा (३६) समानछेन मेलयित (+-) एवं सति वृत्तस्य सूक्ष्मपरिनिर्भवति । विष्कम्भवतुर्माशे (1) परिधिमा (A) पुणिते (1) धन गुणिते व (३) समस्तसूक्ष्मक्षेत्रफलं भवेत। एतत् लक्म क्षेत्रफल व्यवहारयोजनादिकं तमं । का एकप्रमाणयोजमक्षेत्रस्य पश्चशतव्यवहारयोजने सति ५०० एतावदप्रमाणयोजनक्षेत्रस्य ७ किमिति सम्मात्य । ति (., ) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६६ लोकसामान्याधिकार प्र १५०० इ ३३ घनराः गुणकार माहारा घनात्मका भवन्ति ३३४५०० x ५०० ५०० । पुनरंगुल ७६८०००×७६८००० X ७६८००० य ८ तिल ८ शिक्षा कर्मभूमिजरोम जघन्य भोगभूमिजरोम मध्यमभोगभूमिवरोम उत्तमभोगभूमिजरोमादप्येवमेव क्रमेण राशिकं कृत्वा गुणयेत् । विष्कम्भस्य वासनां निरूपयति । एकयोजन वृचगुणा 'विवि १ विषि १ समास बि बि २' कर्णकृतिः तस्यामधितायां द्वितीयश: 'तस्त्रिषिते चतुर्थांश, मम खण्डं, सर्वकखण्डं गृहीत्वा भुलकोटयो: द्वाभ्यां समानखेवेन मेलनं कृत्वा एकखस्य एतावति फले प्रखण्डस्य कि सांराशे स्पकार भागहारी वर्गात्मको भवत इति न्यायेम इच्छाः वर्णरूपेण गुणकारी भवति । तयोर्गु कारभामहारयोर्वज्रावर्तने वशगुरि से विष्कम्भवासना अर्थात ॥६६॥ 11 पूर्व गाथा में परिधि का सविशेष" ऐसा विशेषण कहा गया है, अतः परिधि की सूक्ष्मता को जानने के लिए करण सूत्र कहते हैं : गाथार्थ :- व्यास के वर्ग को १० से गुणा करने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है उसी का वर्गमूल वृत्ताकार क्षेत्र की सूक्ष्म परिधि होती है। परिधि को व्यास के चौथाई भाग से गुणा करने पर गोलक्षेत्र का क्षेत्रफल होता है। इसी क्षेत्रफल में गहराई का गुणा करने से कुण्ड का धनफल प्राप्त होता है ।। ९६ ।। ८६ ( विशेषा:- विष्कम्भ ( व्यास ) के वर्ग वि १४ व १ को १० गुणा करने पर वि १ x वि १x१० लब्ध प्राप्त हुआ। जिसका वर्गमूल ३३ होता है, इसे समच्छेद विधान द्वारा जोड़ने पर *+१==--- वृत्ताकार क्षेत्र की सूक्ष्म परिधि होती है। यहाँ कुण्ड का व्यास १ योजन है. इसका वर्ग ( १ यो० x १यो० ) == १ वर्ग योजन हुआ | इसमें १० का गुणा करने से ( १ वर्ग यो० x १० ) १० वर्ग योजन हुए । १० वर्ग योजन का वर्गमूल ३ : ) योजन हुआ, यहीं परिधि का सूक्ष्म प्रमाण है । ३ योजन परिधि को व्यास के चौथाई भाग से गुणा करने पर (* x 7 ) = ३३ वर्ग योजन कुण्ड का सूक्ष्म क्षेत्रफल प्राप्त होता है। इस वर्ग योजन क्षेत्रफल को १ योजन गहराई से गुणित कर देने पर ( x १ यो० १ १३ घन योजन कुण्ड का सूक्ष्म घनफल प्राप्त होता है। यह सूक्ष्म क्षेत्रफल प्रमाण घन योजन स्वरूप है, अतः इसके व्यवहार धन योजन आदि करना चाहिए। व्यवहार योजन कैसे करना चाहिए ? उसे कहते हैं :- जबकि एक प्रमाण योजन क्षेत्र के ५०० व्यवहार योजन होते हैं, तब २१ प्रमाण योजनों के कितने व्यवहार योजन होंगे ? इस प्रकार राशिक करने पर प्रमा राशि १, फल राशि ५०० और इच्छा राशि ३४ हुई । 'घन राशि का गुगाकार या भागहार घनात्मक ही होता है' इस नियम के अनुसार को तीन बार ५०० से गुणा करने पर ५०० x ५००X अतः ४५०० ५०० व्यवहार वन योजन होते हैं। एक व्यवहार योजन में ७६८००० अंगुल होते हैं. १ पुनरप्यधितायां (प० - ) | १२ - Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा ९६ X५००×५०० व्यवहार योजनों में ३३४५०० X ५०० x ५०० ७६८००० X ७६८०००७६८००० गुल हुए। एक अंगुल के ८ व १ यव के ८ तिल, एक तिल को लीख, १ लीख के कर्मभूमिज रोम, एक कर्मभूमि रोम के मध्यम भोगभूमिज रोम और १ भोगभूमिज रोम के ८ उत्तम भोगभूमिज रोम होते हैं। इन्हें धनात्मक करने पर ८ को संख्या (७३) २१ बार प्राप्त हुई । जबकि एक घनांगुल में १ घांगुल x ८ ( २१ बार ) प्रमाण रोम हैं, तब उपर्युक्त घांगुल में कितने कितने रोम होंगे ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर कुपड के रामों का प्रमाण ५ ० X 20. XX**X S&5000 Xuf5000 × 6&5000 X=X5 X=XXXXXSXSXSXSX EX XXXX ६८८६ ( का परस्पर गुणा करने से जो महाराशि उत्पन्न होती है छतने प्रमाण ) है । विष्कम्भ की वासना का निरूपण करते हैं : X :-- ९० एक योजन व्यास वाला एक गोल वाळा समचतुरख भुजकोटि भित्र O विवि २ = क्षेत्र है। इसका एक योजन प्रमाण प्राझ है ) । एक योजन विष्कम्भ का चिन्ह ( संहतानो ) "वि १" मान लेने पर समचतुरस्र क्षेत्र की जि१. क्षेत्र बनाना चाहिए ( इस चित्र का केवल समचतुरस्र क्षेत्र हो बि? समान होती हैं। इस समचतुरस्र क्षेत्र के करण कृति का प्रभारण प नि सुजवर्ग + कौटि वर्ग अर्थात् वि १ वि १ + वि १ x वि - विवि १ + विवि १ = होता है ( इस चित्र को पफ पंक्ति विवि २ की ही सूचक है ) । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा । ९६ लोकसामान्याधिकार इस कर्णकृति को आषा करने पर उसके दो अंश हो जाते हैं। इन अाँशों के पुनः अर्ध भाग करने पर चतुर्थांश / X प्राप्त होता है । चतुर्थाश का भी आधा करने पर भाठमां गंध प्राप्त हो जाता है। BHk.. उसमें से एक अष्टमांश SH को अलग स्थापित करना पाहिए। इस मष्टमांश की भुजा वि वि २ है, और कोटि वि वि २ है। भुज पोर कोटि इन दोनों का समान छेद करने पर भुज वि वि२४२४२ हो जाती है, और कोटि वि वि २ रहती है। भुज और कोटि को अर्थात् वि विx२४२४२, वि दि २ को जोड़ने पर अष्टमांश का प्रमाण वि वि १० प्राप्त होता है । जबकि एक मष्टमांश का प्रमाण वि वि १० है, तब ८ खण्डों का प्रमाण कितना होगा ? इसप्रकार राशिक कर इच्छाराशि ८४८ को फल राशिवि वि १० से गुणित कर प्रमाण राशि १ मे भाग देने पर वि वि १०४३ प्राप्त होते हैं। इन्हें ८ से अपवर्तित करने पर वि वि १० को प्राप्ति होती है। प्रोन् १० गुणित वर्गात्मक विष्कम्भ का वर्गमूल वृत्ताकार की परिधि है । वर्गरूप राशि का Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा।९७-१८ गुणकार एवं भागहार वर्गात्मक ही होता है। इस न्यायानुसार ८ खण्डों में ८ के वर्ग अर्थात् ८४८ से गुणा किया गया है । इस प्रकार दश गुणित विष्कम्भ की वासना सिद्ध हुई। अथ सिद्धाञ्जमुच्चारयति - एकट्ठी पण्णट्ठी उणवीसट्ठारसेहिं संगुणिदा । विगुणणवसुण्णसहिया 'पन्लस्स दु रोमपरिसंखा ।।९७।। एकाष्टी पध्नषष्टी एकोनविंशावाद: संगुरिगता। द्विगुणनवशून्यसहिता एल्यस्य तु रोमपरिसंख्या ।।९७।। एकट्ठी । १८४४६७४४०७३७०६५५१६५६ x ६५५३६४१६४१८x१८ भूम्य इति सुगमं । परस्पर गुणन से प्राप्त हुए अङ्क बताते हैं -- गापार्ष:-एकट्टी, परणट्ठी, उन्नीस और अठारह का परस्पर गुणा करने से जो राशि उत्पन्न हो उसे १८ शून्यों से सहित करने पर पल्य के रोमों की संख्या प्राप्त हो जाती है ॥२७॥ विशेषार्थ:-गाथा ९६ की संख्याओं का संक्षिप्त गुणन-एकट्ठी (१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६) xपण्णट्ठी ( ६५५३६ ) ४ उन्नीस ( १६ ) x अठारह ( १८ ) इनका परस्पर गुणा करने से जो राशि उत्पन्न हो उसे १८ बिन्दुओं ( शून्यों ) से युक्त करने पर जो प्रमाण उत्पन्न हो वही प्रमाण पल्प के रोमों का है। अथ सुगम गुणितफलं दर्शयति - वटलवणरोचगोनगनजरनगंकाससमघधमपरकधरं । विगुणणवसुण्णसहिया पन्लास दुरोमपरिसंखा ॥९८॥ वट ...................... द्विगुणनवान्यसहिता पल्यस्य तु रोमपरिसंख्या ॥९८॥ पर पत्र कहपय' इत्यादिना संख्या कयित।। ४१३४५२६३०३०१२०३१७७७४६५१२१९२०० ०००००००००००००००० पल्यस्य रोमसंख्या भवति ॥॥ परस्परा के गुणन से उत्पन्न हुआ प्रमाण रूप फल दिखाते हैं : गाया:-- (१). ४ (१), ल (३), व (४), ए (५), र (२), च (६), ग (३), न (०), ग (३), म (०), ज (e), २ (२), न (०), ग (३), क (१), स (७), स {७), स (७), प (४), ध (९), म (५), १ पमिदीपम रोम परिसखा (ब०, ५०)। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ९९ लोकसामान्याधिकार प(१), र (२), क (१), ध (९), र (२) अर्थात् ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४६.५१२१९२ को द्विगुणनव अर्थात् १८ शून्यों से सहित करने पर पल्य के रोमों की संख्या प्राप्त होती है ॥१८॥ विशेषार्ष:-इस गाथा में पत्य के रोमों की संख्या निकालने क लिए मक्षर संज्ञा से अङ्क प्राप्त किये गये हैं। अक्षर संज्ञा का ज्ञान कराने के लिये निम्नलिखित गाथा सूत्र प्राप्त होता है :कटपयपुरस्थवणेवनपश्चाष्टकल्पितः कमशः । स्वरजन शून्यं संख्या, मात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यं ।। अर्थ :-क अक्षर से झ असर पर्यन्त (९ अक्षर), ट अक्षर से घ अक्षर पर्यन्त (६ अक्षर) तथा पवर्ग के ५ अक्षर और य से प्रारम्भ कर ह पर्यन्त ( आठ अक्षर ) अक्षरों में क्रम से जो अक्षर जितने नम्बर का हो वही अङ्क समझना चाहिए तथा अकारादि स्वर, आ, और न जहाँ हो उनका शुन्य ग्रहण करना चाहिए। तथा मात्राओं और संयोगी अक्षरों को छोड़ देना चाहिए। उपर्युक्त मूत्रानुसारं गाथा में उल्लिखित अक्षरों से अङ्ग ग्रहण कर तथा उन मकों को १८ विन्दुओं अर्थात् शून्यों से सहित करने पर चार, एक, तीन, चार, पांच, दो, छह, तीन, बिन्दी, तीन, बिन्दी, आठ, दो, विन्दी, तीन, एक, सात, सात, सात, चार, नव, पांच, एक, दो, एक, नौ और दो अर्थात् ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२ १९२०००००००००००००००००० पल्प के रोमों की संख्या प्राप्त होती है। अथ व्यवहारपल्यासमयं दर्शयसि - वस्ससदे वस्ससदे एक्कक्के अवाहिदम्हि जो काली । तत्कालसमयसंखा णेया वत्रहारपन्लस ।।१९।। वर्षयते वर्षशते एककस्मिन् अपहृते यः कालः । तत्काल समयसंख्या ज्ञेया ध्यवहारपल्यस्य ।।९९ः। पम्स । पर्वशते वर्षशते एकास्मिरोमिए प्रमह्ते तमपहरणपरिसमाप्तिनिमिस पावरकालसतावत्कालसमय संख्या व्यवहारपस्पस्प बातम्या । एकरोमापहतो वर्षशते १०. एतावनोमा ४१ = पाहतो कियान वर्ष इति सम्पास्य एवमेष दिनं ३६० मुहर्ता ३० श्वास ३७७३ संपालावलीन सम्पातगुणनेन यावान् समयः २२२ स पवहारपल्यायकाल: REET अथ व्यवहार पल्प के समयों का प्रमाण दशति हैं -- गापार्ष:-प्रत्येक सौ वर्ष बाद एक एक रोम के निकाले जाने पर जितने काल में समस्त रोम समाप्त हों, उतने काल के समय ही व्यवहार पल्प के ममयों की संख्या है ॥२९॥ विशेषार्ष:-कुड में भरे हुए उपयुक्त रोमों में से प्रत्येक सौ वर्ष बाद एक एक रोम के निकालने पर जितने काल में समस्त रोम समाह हों, उतने काल के समयों की संख्या ही व्यवहार पल्य के समयों की संख्या है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा: १००-१०१ एक रोम १०० वर्ष के बाद निकाला जाता है तो ४५ अङ्क-प्रमाण रोम कितने वर्षों में निकाले जाएंगे? इस प्रकार राशिक कर जो वर्षों का प्रमाण प्राप्त हो उसके निम्न प्रकार से समय बनाने चाहिए - एक वर्ष के ३६० दिन, एक दिन के ३० मुहूतं. एक मुहूर्त के ३७५३ उच्छ् वरम, एक सच्छ बास की संख्यात आवली और एक आवली के जघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण समय होते हैं तो अपर राशिक द्वारा प्राप्त हुए वर्षों के कितने समय होंगे? इस प्रकार राशिक करने से जो समयों का प्रमाण प्राम हो वही व्यवहार पल्य के समयों की संख्या का प्रमाण है। उदारपल्यकालं दर्शयति - ववहारेयं रोमं छिण्णमसंखेज्जयामसमयेहि । उद्धारे ते रोमा तकालो तत्तियो चेव ॥१०॥ व्यवहारंक रोम छिन्नं असंख्येयवर्गसमयः । उद्धारे सानि रोमारिण तत्कालः तावान् चवः ।।१००|| अव । व्यवहारकोमासंख्येयवर्षसमयः समं छिन्नं चेत् तवा तानि रोमाणि उद्धारपल्मस्प भवन्ति । सरपहरणकासन तावान् उद्धारपत्यारोमसमान एव । प्रतिसमयमेकंकरोमालियत इति भाषः ॥१०॥" अब उद्धारपल्य के काल का प्रमाण दर्शाते हैं - गाथार्य :-व्यवहार पश्य के रोमों में से प्रत्येक रोम के उतने खण्ड करने चाहिए जितने कि असंख्यात वर्षों के समयों का प्रमाण है। इन समस्त रोम खण्डों का समूह ही उद्धारपल्प के रोमों का प्रमाण है तथा जितना उद्धारपल्य के रोमों का प्रमाण है, उतना ही उद्धारपल्य के समयों का प्रमाण है। विशेषार्थ:-पसंख्यात वर्षों के जितने समय है उतने उतने ग्यण्ड व्यवहार पल्य के प्रत्येक रोम के करना । जब समस्त रोमों के खण्ड हो चुकं तब उद्धारपल्य के रोमों का प्रमारग प्राप्त होगा। जितना प्रमाग उद्धारपल्य के रोमों का है, उतना ही प्रमाण उद्धारपन्य के ममयों का भी है। अथवा -- एक एक समय में एक एक रोम निकालते हुए जिनने समयों में उद्धारपन्य के सम्पूर्ण रोम खण्ड़ समाप्त हो उतने ही ममयों का एक उद्धार पत्य होता है। .. अथादारपल्यं निदर्शयति - उद्धारेयं रोम छिण्णमसंख्येज्जवाससमये । अदारे ते रोमा पत्तियमेचो य तरकालो ।। १०१।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा: १०२-१०३ लोक सामान्याधिकार उद्धारक रोम छिन्नमसंख्येयवर्षसमयः । अद्वारे तानि रोमाणि तावामानश्च तत्कालः ॥१०॥ उवा । उमारेक रोमाऽसंख्यातवर्षसमयः समं छिन्नं चेतवा तानि रोमाणि प्रसार पल्पत्य मन्तिा तपहरणकालश्च लावाव ॥१०१॥ अब अज्ञापल्य के काल का प्रमाण दर्शाते हैं - पायाचं :-उद्धारपल्य के रोमों में से प्रत्येक रोम के उतने खण्ड करना जितने कि असंच्यात वर्षों के समयों का प्रमाण है। इन समस्त रोम खण्डों का समूह ही अज्ञापल्य के रोमों का प्रमाण है। जितना अद्वापल्य के रोमों का प्रमाण है उतना ही अापल्य के समयों का प्रमाण है ॥१०॥ विशेषायें :-उद्धारपल्य के सम्पूर्ण रोमों में से प्रत्येक रोम के असंख्यात वर्षों के समय प्रभाग खण्ड करने से मद्धापल्य के रोम खण्डों का प्रमाण प्राप्त होता है, तथा अद्धापल्य के रोम खण्डों का जितना प्रमाण है, उतने ही समयों का एक अद्धापल्य होता है 1 अथवा – एक एक समय में एक एक रोम खण्ड ग्रहण करते हुए जितने काल में प्रद्धापल्य के समस्त रोम समाप्त हो जाय, उतना ही काल पदापल्य का है। यहां पर मध्यम असंख्यात प्रयोजनीय है। अथ सागरोपमस्वरूपं सूचयति - एदेसि पन्लाणं कोडाकोड़ी इवेज्ज दसगुणिदा। तं सागरोवमस्स दु हवेज्ज एक्कस्स परिमाणम् ।।१०२॥ एतयोः पल्पयोः काटीकोटी भवेत् दशगुणिता। तत् सागरोपमस्य तु भवेत् एकस्य परिमाणम् ।।१०२।। एथे । एतयोरखाराजारपल्पयोवंशगुणिता कोटोकोटो भवेद्यपि तथा विवक्षितपल्यं विवक्षितस्य एकसागरोपमस्य प्रमाणं भवति ॥१२॥ अब सागरोपम का स्वरूप सूचित करते हैं - गाथा:-इन दोनों पल्यों में से प्रत्येक को दश कोडाकोड़ी से गुणा करने पर विवक्षित ( अपने, अपने ) एक एक सागर का प्रमाण प्राप्त होता है ।।१०२।। विशेषार्य :-उद्धार पल्य में दस कोड़ाकोड़ी का गुणा करने से एक उद्धार सागर होता है तमा अढा पल्य में दस कोड़ाकोड़ी का गुणा करने से एक अद्धा सागर होता है। अथ सागरोपमसंशाया अन्वर्थतादर्शनार्थमाह - लवणंबुद्धिसुकुमफले चउरस्से एकजोयणस्सेव । मुहमफलेणवहरिदे बट्ट मुलं सहस्सवेहगुणं ॥१.३।। १ भवेत् (ब०, प.)। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ त्रिलोकसार लवणाम्बुधिसूक्ष्मफले चतुरस्र एकयोजनस्यैव । सूक्ष्मफलेनापहृते वृत्तं मुलं सहस्रवेत्रगुणम् ॥ १०३ ॥ 材 न लवाल सूचि १ल जोगं ६ ल ड २ ल १ल गुशिल ६ ल ल दुप्प ६ ल ल ६ ल ल हिच्चातिगुणं १६ ल ल बहकर गिगुर ६ स ल x ६ ल ल x १० बादरहम फलं वलये " मूलं । "धनेनोक्त प्रकारेण लवणाम्बुधि सूक्ष्मफलं चतुरख कथमिति चेवस्य वासना वयंसे । लवणाम्बुविलयं ऊष्यं शिवा रुन्द्र र ल प्रभार वाईवाल" इि मुखसूक्ष्मफलं १ x १ ल१० मि सूक्ष्मफलं ५ ल ४ ५ ल ४ १० बानीय मुखमूम्पोसंस्थाध्य मुखमिसमासार्धमिति मध्यफलमानीय ६ल x ६ ल x १० मध्ये संस्थाप्य उपरितन भागे ऊर्ध्वं छि ६.१ ६ल १० ॥ ६.ल ६ १०, १२ १२ १ १० चतुरस्रार्थं धमत्ययासेन ६ ६ १० । ६ ६ १० ॥ समान वेदेन मेलनं कृत्वा प्रपतते एवं ६ ल ६ ल १० वा १ गुणिते सति वर्गराशे साकारभागहारावर्गात्मिका ।” एवं १ ल १ ल इति न्यायेन गुणिते सति चतुरस्र स्यात् । ६ ल ल ६ ल ल १० । एतावच्चतुरस्र सूक्ष्मफलस्य प्र १०xx एकयोजनस्य वृत्त कुर फ० १ एताच्चतुरस्वसूक्ष्मफलक्ष्य इ० ६ ल ल ६ ल ल १० किमिति । शशिक कमेरा। गते नंयोजनसूक्ष्मफलेन 1बहुते ऽपत्यं ६ ल ल ६ ल ल १० एवं "हारस्य हारो गुरुकोशरोरिति" गुणिते पद २४ ल ल २४ ल ल लवगंत कुण्ड कलशलाका स्यात् । मूलं २४ ल ल एलाव २४ ल ल सहायेधेन १००० गुणितं कर्ध्य २४ ल ल x १००० ॥ १०३ ॥ I अब सागरोपम संज्ञा की अन्ययंता दिखलाने के लिए कहते हैं: -- गावार्थ :- लवण समुद्र के सूक्ष्म क्षेत्रफल को चतुर्भुजाकार करके ( तथा उसका वर्ग करके } उसमें एक योजन वाले गोलकुण्ड के सूक्ष्म क्षेत्रफल ( के वर्ग ) से भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसके वर्गमूल को गहराई अर्थात् १००० से गुणा करने पर लवण समुद्र में एक योजन व्याम वाले व एक योजन गहरे कुण्डों का प्रमाण प्राप्त होता है || १०३|| १ अंजोग रुगुषित दुष्प किन्त्रा । सिगुणं दकरणिगुणं बावरसुमं फल बसथे । गा० ३१५ । २ वासनां दर्शयति ( च०१० ) । २ विपरीतेन विपरीतेन कि द्विक स्थाने चतुष्कं स्थापयिवा द्विकारस्य वेकवार १२ कृत्वा मेजनं क्रियते ६.२ ६. ल १० । १दा एवं जायते । पश्चादपवर्त्तनं क्रियते तदा एवं भवति ६६ × १० ( पाटिल ) ल 7 ६ ल * ६ ल -- ६ ल १० ६ १० । - गाथा : १०३ ६ ल ६ १२ ल --- १०नुप न १७ । १२ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा1१०३ लोकसामान्याधिकार विशेषार्थ :-"मन्तायि सूयि जोग, सदगुणित्तु दुप्पद्धि किया। तिगुणं दहकर रिण गुणं, बादर मुहम फलं बलमै" ॥१५॥ अर्थ :-अन्त की सूची और आदि की सूची को जोड़ने पर जो प्रमाण प्राप्त हो उसे इन्द्र भ्यास के आधे से गुणा करना चाहिए। इसका जो ध प्राप्त हो उसको दो स्थानों पर रख कर उनमें से एक को तीन से गुणा करने पर वृत्ताकार क्षेत्र का स्थूल क्षेत्रफल प्राप्त होता है और दूसरे को दश करणि (१० के वर्गमूल ) से गुणा करने पर वलयाकार का मूक्ष्म क्षेत्रफल होता है । अन्तरङ्ग एवं बाह्यादि सूची व्यास को दर्शाने वाला चित्रण : मान - १ लाख - १ इञ्च Tim ता---हा --| वाह्य सूची व्यास -- - --- लवण समुद्र ना बाह्यसुची ध्यास ५ लाख योजन है। लवण समुद्र का अन्तरङ्ग सूची व्याम १ लाख योजन है। लवण समुद्र का मध्यम सूची व्यास ३ लाख योजन है। लवण समुद्र की बाह्म परिधि ५ ला ४ ५ ला० x १७ का वर्गमूल है। । लवण समुद्र को अन्तरङ्ग परिधि १ ला० x १ ला० ४ १० का वर्गमूल है । लत्रण समुद्र की मध्यम परिधि ३ ला x ३ ला० x १० का वर्गमूल है । लवण समुद्र का कन्द सूची व्यास २ लाख योजन है। ५ल और १ ल को जोड़ने से (५.१) :: ६ ल प्राप्त होते हैं। रुन्द्र व्यास २ लाख योजन है जिसका प्राधा (२लx)= १ ल होता है । ६ ल को इस १ ल से गुणित करने पर ६४१ल Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर त्रिलोकमार गाथा:१०३ . ६ ल ल प्राप्त हुए । ६ ल ल को दो स्थानों पर ( ६ ल ल, ६ ल ल ) स्थापित करना चाहिए । इनमें से एक स्थान के ६ ल ल को ३ से गुणित करने पर लवण समुद्र का स्थूल क्षेत्रफल १८ ल ल प्राप्त होता है । दूसरे स्थान पर स्थापित ६ ल ल का बर्ग कर १० से गुणित करने पर ६ ल ल x ६ ल ल x १० प्रान हुए । इन चाओं म) परस्पर गुरु) करने में जो लेध प्राप्त हो उसका वर्गमूल ही लवण समुद्र का सूक्ष्म क्षेत्रफल है। लवण समुद्र का सूक्ष्म क्षेत्रफल चतुरन रूप से प्राप्त होता है। उसकी वामना कहते हैं :.. लवण समुद्र के वलय व्यास ):.. का ऊपर छद .. कर 3 1 .1... .. " फैला देने पर एक विषम चतुभुज बन जाना है। गाथा ९६ के अनुसार मुख का सूक्ष्म प्रमाण १ ल x १ल x १० का वर्गमूल और भूमि का सूक्ष्म प्रमागा ५ ल x ५ ल x १७ का वर्गमूल है तथा रुन्द्र व्यास सहा कोटि २ ल प्रमाण है। मुख और भूमि के प्रमाण का वर्ग जोड़ देने पर ५ ल x ५ ल ५ १० + १ ल x १ल x १० --- ६ ल . ६ ल ४१० होना है। इसका आधा करने पर ल ल ४.१० मध्य फल प्राप्त हुआ। इस मध्य २४२ ___ फल को मध्य .. .. ६८४ ६१..... में रखकर ध्वं भाग को मध्य से छपना - -- चाहिए । म विषय बनुज का चतुरन अर्थात् आयत चतुर्भुज बनाने के लिए ऊपर के दोनों खण्डों को विपरीत म से स्थापन करना चाहिए। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा :१०४ लोकसामान्याधिकार इस प्रायत चतुरस्त्र क्षेत्र के समस्त प्रमाण को समान छेद (हर) द्वारा जोड़ कर अपवर्तित करने से (६ ल ४६ लेx१०+१२ ल-१२ लx+ ६x६0 ४१.) - ६ ल ४ ६ ल x १० प्राप्त हुआ। यही ६ ल ४ ६ ल x १० आयत चतुरस्त्र क्षेत्र को भुजा का प्रमाण है । रुन्द्र २ ल के अर्थ भाग (१ल ) का वर्ग १ ल x १ ल होता है । यह आयतचतुरस्र क्षेत्र की कोटि का वर्ग है । भुजा (६ ल x ६ ल ४१०) और कोटि ( १ ल x १ल) का परस्पर में गुणा कर देने से पायत चतुरस्रक्षेत्र का क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है । वर्गात्मक राशि का गुणकार या भागहार बगरूप ही होता है, इसलिए { ( ६ ल ४ ६ ल ४ १ ) x ( ल ४१ ल ) -- ६ ल ल x ६ ल ल x १० } आयत चतुरस्रक्षेत्र का क्षेत्रफल ६ ल ल ४६ ल ल X१० प्राप्त हुआ। एक योजन वृत्ताकार क्षेत्र का क्षेत्रफल ध्यास - व्यास x V३० अर्थात् ' xx V१० होता है । इसका बग: x x १० है, तथा लवगण समुद्र के क्षेत्र के क्षेत्रफल का वर्ग ६ ल ल x ६ ल ल x १० है । जबकि x x १० बर्गात्मक क्षेत्रफल का १ योजन व्यास वाला एक कुण्ड होता है, तब ६ ल ल ४६ ल ल ४१० वर्गात्मक क्षेत्रफल के एक योजन व्यास वाले कितने कुण्ड होंगे ? इस प्रकार के पैराशिक में xt x १. प्रमाण राशि से ६ ल ल x ६ ल ल x १० को भाजित कर इन्द्रित राशि में गुणा करने पर २४ ल ल ४२४ ल ल प्राप्त होते हैं । अथवा -( ६ ल ल ४६ल ल x१० } : {2 x x १०) = ६ ल ल x ६ ल ल ४१० x x x = २४ ल ल x २४ ल ल प्राप्त होते हैं। २४ ल ल x २४ ल ल का वर्गमूल २४ ल ल होता है। इसको १.०० वेष से गुणित करने पर घनफल २४ ल ल ४ १००० प्राप्त होता है। अर्थात् लवण समुद्र के घनफल में १ योजन वाले तथा १ योजन गहरे कुण्डों का प्रमाण – २४ ल ल x १००० प्राप्त होता है । अथ गुणकारान्तरं दर्शयति - रोमहदं क्सजलोस्सेगे पणुवीससमयाचि । संपादं करिय हिदे केसेहिं सागरुप्पची ॥१४॥ रोमहतं पट केशजलोसे के पञ्चविंशसमया इति । मम्पातं कृत्वा हिते कैयौः सागरोत्पतिः ॥१०८।। रोम। प्रकुण्ड १ क रोम ४१. x x कुस २४ ल ल १००० इति श्रराशिकमागत रोमभिशितं २४ ल ल १०००, ४५ = x xx x पशजलोत्से के पविशतिसमयाश्चेत २४ ल ल १००१, ४१ - एतावद रोमजलोलेके किपन्तः सभया इति राशिकं कृत्वा प्रमाणीभूतषकेशरप Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा: १०४ हृस्यापवर्त्य २५, ४ ल ल, १०००, ४१ - एतावत्समयस्य एकस्मिन् पल्ये एतावत्समयाना किमिति २५ सम्पात्यापर्यातते सागरोपमोत्पत्तिर्भवति ॥ १०४ ॥ ४ ल ल १०००, ४१ अब अन्य गुणकार दिखाते हैं : = मावार्थ :- गाथा १०३ के अनुसार लवगा समुद्र में पल्यों ( कुण्डों ) का प्रमाण २४ ला X ला. १००० है । इस प्रमाण को ( गाथा हरु में कही गई । पल्य की ) रोम संख्या ४१ से गुणा करने पर लवण समुद्र में रोम सं० २४ ला बराबर जल निकालने में यदि २५ समय लगते निकालने में कितना काल लगेगा ? इस प्रकार संख्या से भाग देने पर एक सागर में पल्य हख्या की उत्पत्ति होती है। ला. १००० x ४१ = प्राप्त होती है। छह रोम के हैं तो लवण समुद्र की रोम संख्या बराबर जल राशिक करके जो लब्ध प्राप्त हो उसको पाल्य की रोम १०० -- X असं० विशेषार्थः :- व्यवहार पल्ध के रोमों का चिन्ह ४१ - है । व्यवहार पास से असंख्यात गुणे रोम उद्धार पल्य में हैं जिसका चिन्ह ४१ - ९ असं ० है । इनमे भी असंख्यात गुणे रोम अद्धापल्य में हैं जिसका चिन्ह ४१ = x असं० x असं० है । जबकि अापल्य स्वरूप एक कुण्ड में ४ x असं० रोम हैं, तत्र लवण समुद्र में प्राप्त २४ ल ल x १००० पल्यों ( कुण्डों में कितने रोम होंगे? इस प्रकार राशिक करने पर फलराशि ४१ = x असं० X असं० को इच्छा राशि २४ ल ल x १००० कुण्डों से गुणित कर प्रमाण राशि १ कुण्ड का भाग देने पर लवण समुद्र मत कुण्डों में रोमों का प्रमाण ४१ X असं असं० x २४ ल ल x १००० प्राप्त होता है ( एक कुण्ड में जितने रोम हैं उतने ही समय का एक पत्य होता है, अतः कुण्ड और पल्य में भेद नहीं कहा ) । जबकि ६ रोम जितने क्षेत्र को रोकते है उतने क्षेत्र का जल निकालने में २५ समय लगते हैं, तब ४१ = x असं x असं० x २४ लल X १००० रोमों से अवरुद्ध क्षेत्र का जल निकालने में कितने समय लगेंगे १ इम प्रकार वैराशिक करने पर समयों का प्रमाण - X असं० x असं० x २५ x २४ १००० ४.१ ६ D होता है । यहाँ प्रमारण राशि ६ से २४ को अपवर्तन करने पर ४१ = x असं० x असं० x २५ x ४ ल ल x १००० समय प्राप्त होते हैं। जबकि ४१ = x असं० x असं समयों का एक अढा पल्य होता है तत्र ४१ x असं० x असं० X २५४४ ल ल x १००० समयों में कितने अापल्य ४१ = x असं० x असं० x २५ X ४ ल ल x १००० - x असं० X असे ० rt होंगे ? इस प्रकार वैराशिक करने पर - अद्धापल्य प्राप्त हुये । यहाँ ४१ = x असं० x असं● को ४१ करने पर २५ X ४ ल ल ४ १००० अथवा ( २५X ४ ) १०० १००००० एक लाख ) ल ल ४ ल कोड़ा कोड़ी पल्यों का एक सागर होता है X असं० x असं० से अपरिवर्तित १०० ल ल x १००० अथवा ( १०८० X दश कोड़ा कोड़ो पल्य प्राप्त हुये । इस प्रकार दश Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : १०५ - १०६ लोकमामान्याधिकार अभ्यद्विरूपवर्गधारायां सागरोपमस्यानुत्पन्नत्वात्तस्याध च्छेद ज्ञापयन्नाह गुणयारद्धच्छेदा गुणिक्षमाणस्स मद्धछेदजुदा | लस्सद्धच्छेद भद्दियम्यच्छेदणा णत्थि ॥ १०५ ॥ गुणकाराचेच्छ्रेदा गुण्यमानस्यार्धं च्छेदयुताः । प्रस्यार्थच्छेदा अधिकस्य छेदना नास्ति ॥ १०५॥ | = पुरण | गुपकारा दशकोटोकोट पस्तासामर्षच्छेवाः संख्याताः, ते पुनर्गुष्यमानस्याद्धावस्थस्याच्छेदयुताः लम्भस्य सागरोपमस्यार्षच्छेवा भवन्ति । यतः प्रधिकरम देवना नास्ति ततः सागरोपमस्य शलाका नास्ति ॥१०५॥ G द्विरूपदर्गधारा में सागरोपम की उत्पत्ति नहीं है अतः सागरोपम के अच्छेदों को दिखाते हैगाथा :- गुणकार राशि के अर्धच्छेदों को गुग्यमान राशि के अर्धच्छेदों में मिला ( जोड़ ) देने से लब्धराशिके अच्छेदों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। यहाँ अधिक की छेदना नहीं है ॥ १०५ ॥ विशेषार्थ :- मान लीजिए, गुभ्यमान राणि १६ है और गुणकार राशि ८ है । १६ ८ = १२८ राशि प्राप्त हुई। यहां गुप्यमान १६४ और गुणकार राशि के अर्धच्छेद ३ हैं अतः ४ + ३ ७ अच्छे राशि १२८ के प्राप्त हुए। इस नियमानुसार गुण्यमान राशि पल्य और गुणकार राशि १० कोड़ा कोड़ी है अतः गुण्य को गुणकार राशि से गुणा (पल्य १० फोडा०) करने पर सागर की उत्पत्ति होती है। गुणकार राशि १० कोबा कोड़ी के अर्थच्छेद संख्यात हैं. इन्हें गुमानराशिपल्य के अर्धच्छदों में जोड़ देने से सागर के अर्धच्छेद प्राप्त हो जाते हैं । यहाँ अधिक की छेदना नहीं है इसलिए मागरोपम को वर्गशलाकाएं नहीं हैं। क्योंकि अर्धच्छेदों के अर्थच्छेदों का नाम ही शलाका है। - T. भाज्यस्याधच्छेदाहाराचं च्छेदनाभिः परिहीनाः । अच्छे दशलाका लब्धस्य भवन्ति सर्वत्र || १०६ ।। अथ गुण्यगुणकारयोः छेद प्रदर्शने प्रसङ्गाङ्गाज्यभाजकयोरपि खेदं प्रदर्शयतिभज्जस्सच्छेदा हारच्छेदनाहिं परिहीणा | अद्धच्छेदसलामा लद्धस्म हवंति सम्बन्थ ।। १०६ ।। भजन संदृष्टौ भाज्यस्य ६४ च्छेदः ६ हारा (४) १६ शलाका भवन्ति सर्वत्र ॥ १०६ ॥ - १०१ नाभिः २ परिहोना गुण्य और गुणकार के छेदों के प्रदर्शन में प्रसङ्गवश भाज्य भाजक के अच्छेदों का भी स्वरूप दिखाते हैं Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गांधा:१०७-१० पाथाप :-भाज्य के अधच्छेदों में से भाजक { हर ) के अर्धच्छेद घटाने पर लब्धराशि ( भजनफल ) के अर्घच्छेद प्राप्त हो जाते हैं ।। १०६।। विशेषार्थ :-जैसे - ६४ : ४ = १६ यहाँ भाज्य राशि ६४ के ६ अर्धच्छेदों में से भाजक राशि ४ के २ अर्धच्छेदों को घटा देने पर लब्धराशि (भजनफल राशि ) १६ के ४ अर्धच्छेद प्राप्त हो जाते हैं । यही नियम सर्वत्र जानना चाहिए। अथ सूच्यंगुलस्याधच्छेदं दर्शयन्नाह विरलिज्जमाणरासिं दिण्णसद्धचिदीहि संगुणिदे । अद्धच्छेदा हाँति हु सम्बत्थप्पण्णरा सिम्म ।।१०७१। विरल्यमानराशी देयस्याच्छिदिभिः संगुणिते । अर्थच्छेदा भवन्ति हि मर्वयोत्पनराशेः ॥१०॥ दिर । विरल्यमानराशि: पल्पच्छेवरतस्मिन् देयस्य पल्पस्याभोवः संगुणिते सत्युत्पन्नराशेः सुच्यंगुलस्याच्चेवा भवन्ति खलु सर्वत्र ॥१०॥ मूच्यं गुल के अच्छदों का उल्लेख करते हैं गाथा:-विरलन राशि में देय राशि के अघच्छेदों का गुणा करने से उत्पन्न ( लब्ध ) राशि के अच्छेद प्राप्त हो जाते हैं ||१०|| विशेषार्थ:-जैसे - विरलम राशि ४ और देय राशि १६ है । अत:+ -- ६५५३६ लन्ध राशि हुई। यहाँ पर विरलन राशि ४ में देय रागि १६ के ४ अपच्छेदों का गुणा ( ४ ४ ४ = १६ अर्घ० ) करने से लब्धराशि :६५५३६ के प्रघंच्छेद १६ की प्राप्ति होती है । उपयुक्त नियमानुसार - यहाँ पर विरलनराशि पत्य के अर्धच्छेद हैं। इसमें पल्य स्वरूप देय रानि के अर्धच्छेदों का गुणा करने पर सूच्यंगुल स्वरूप लन्धराशि के अधच्छेदों का प्रमाण प्राप्त होता है । जो पल्य के मच्छेदों के वर्ग प्रमाण है । यह नियम सर्वत्र जानना चाहिए। अय सूज्यंगुलस्य वर्गशालाकां वर्शयन्नाह विरलिदरासिच्छेदा दिण्णद्धच्छेदछेदसंमिलिदा । वग्गसलागषमाणं होति समुप्पण्णरासिंस्म ॥१०८|| विरलितराशिच्छदायाच्दन्छदसम्मिलिताः । वर्णशलाकाप्रमाणं भवन्नि समुत्पनराशेः ।।१८८।। विरलिव । मन्यंगुलाबच्छेवस्थापितबारा ११ व १ युताः व २ सध्यंगुलस्य वर्गशलाका भवन्ति । "वग्गानुवरिमवग्गे वुगुणा दुगुणा एवंति पछिको" इति न्यायेन डिगुणा: सूध्यंगुलाछेना । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ गाषा: १० लोकसामान्याधिकार छे थे २ प्रत गुलार्धच्छेवा भवन्ति । "अगसला पहिया" इति व्यापेन रूमाषिकसूचीवर्गवालाकाः २ प्रतर्रागुलवर्गशलाका भवन्ति । विरूपवर्गषारोस्पन्नस्य सूच्यंगुलस्य समानस्याने हिरूपधनपारायां धमांगुलस्योत्पन्नस्यात् । "तिगुणा सिगुणा परहाणे" इति न्यायेन त्रिगुणा:सूच्यंगुलाछेवाः धनागुलाधच्छेदा भवन्ति । "सपवे परसम" इति न्यायेन सूध्यंगुलवर्गशलाका एवं घनांगुलस्य वगंशालाका भवन्ति २। "विरलिज्ममालास वि " याविन्यास रिमाययछेवासंख्यातभागेषु (छ)धनांगुलच्छेदः (छे छे छे ३) गुणिलेषु (छे छे छे ३ ) सस्तु जगच्छण्याः छेवाः भवन्ति ॥१०॥ अब सूच्यंगुल की वगंगलाकाओं को दिखाते हुए कहते हैं : गापापं :--विरलन राशि के अर्धच्छेदों को देय राशि के अर्धच्छेदों के अर्घच्छेदों में मिलाने (जोड़ देने में विरलन एवं देय के द्वारा उत्पन्न हुई राशि की वगेशलाकाओं का प्रमाण होता है ||१६|| विशेषार्थ :-मान लीजिए - विरलन गशि ४, देय रागि १६ और उत्पन्न राशि ६५५३६ है । यहाँ विर लन गशि के अर्धच्छेद २ हैं, इन्हें देय राशि १६ के अच्छद ( ४ ) के अधुच्छेद अर्थात् ४ अधच्छंदों के अधच्छेद २ में मिला (२+२ = १) देने में उत्पन्न राति ६५५३६ को ४ वर्गशलाकाएं होती हैं। उपयुक्त दृष्टान्तानुमार यहां पर भी विरलन राशि पल्य के अर्थच्छेद हैं अतः विरलन राशि के अर्धच्छेद ही पल्प को वगंशलाकाएं हैं। ( क्योंकि अर्धच्छेद के अधच्छेदों का नाम वर्गशलाका है ।। देय राशि पल्य है. और देयराशि के अर्धच्छेदों के अर्धच्छेद भी पल्प की वर्गशलाकाएं हैं। इस प्रकार विरलन राशि के अर्धच्छेद = एल्य की वर्गशलाकाएं + देयगशि के अच्छेदों के अच्छंद --- पल्य की वगंगलाकाएँ = पल्य की दो अर्थात् दुगनी वर्गशलाकार प्राप्त हुई। यही वगंगलाकाएं सूच्यं गुल की वर्गशलाकाओ का प्रमाण है । ____ "बम्गादेवरिमवग्गे दुगुगा दुगुणा हवन्ति अद्धन्द्धिदी ( गा०७४ ) मूत्रानुसार सूच्यंगुल के अर्धच्छेदों से प्रतरांगुल के अच्छेद दून होते हैं। "वग्गसला रूव हिया" ( गाथा ७५ ) सूत्रानुमार मुख्यंगुल की बर्गशलाकाओं से प्रतरांगुल की वर्गालाका एक अधिक प्रमाण बाली होती है । द्विरूपगंधारा में जिम स्थान पर गुच्यं गुल उत्पन्न होता है, द्विरूपचनधारा में उसी स्थान पर थनांगुल की उत्पत्ति होती है। "तिगुगणा निगुग्गा परट्ठाणे' ( गाथा ८४ ) मूत्रानुसार मध्यंगुल के अपच्छेदों से धनांगुल के अनिछेद नियम से तिगुने होते हैं। "मपदे एरसम" ( गाथा ७५ ) भ्यायानुमार सूच्यंगुल और धनांगूल की वर्गशलाका वरावर ही होती हैं। "विररिणज्जमा रासि दिणस्म'' ( गाथा १०७ ) न्यायानुसार पल्य के अधुच्छेदों के असं. स्यात भाग स्वरूम विरलन गगि को, देय राशि स्वरूप घनांगुल के अच्छेदों से गुणा करने पर Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ त्रिलोकसार गाथा : १०६ जगणी के अच्छेद उत्पन्न हो जाते हैं। अर्थात् विरलन राशि x देय राशि के अर्धन्छेद - जगपणी के अचछेद। अपवा -- पल्य के अधच्छन्द - धनांगला के अर्धच्छेद - जगच्छणी के अर्धच्छेद अथवा - असंख्यात अथ जगन् ण्या वगंशलाकाप्रदर्शनार्थमाह दुगुणपरीनामखेणवहरिदद्धारपल्लवगामला । चिदंगुलबगगमलामहिया सेविस्स बग्गमला ।।१०।। द्विगुणपरीतासंख्येनापहृताद्वारपल्यवर्गशलाः । वृन्दांगुलवगंशलासहिता श्रेण्या वर्गालाः ॥१०९|| बुगुण। द्विगुणपरिमितासंख्यातजघन्येन १६५२ अपहृताद्वारपल्यवर्गशालाका वागुल ६ वर्गशलाका सहिता का + व २ जगण्या वर्गशलाका भवन्ति । द्विगुणपरिमितासंख्यातजधम्येनापहृतत्वे उपपत्तिच्यते । प्रवापल्यार्धकदेव (2) राशेरच्छेदाः () पल्पवर्गकालाकामात्रा: छेवराशेः प्रथममूलस्याधच्छेवाः पल्यवर्गशलाका भवन्ति । द्वितीयमूलस्या छेवास्तव, तृतीयमूलस्याम्छेपाच तवर्षम् । एवं प्रतिवर्गमूलमर्धवाः अधिझमेण तावद् गच्छन्ति यावच्छेद राशेरधस्तावर्गमूलानि जघन्यपरिमितासंख्यातस्य रूपाधिकाच्छेवमात्राणि गत्वा चरम यावर्गमूल तस्यान्चेवा द्विगुणपरिमितासंख्यातजघन्येनापहृताद्धारपल्यवर्गशलाकामात्रा जायन्ते। यथा उपयुपरिवर्षेषु पन्छेिवा विंगुणा द्विगुणा जायन्ते तथाधोऽवर्गमूलेखपच्छेवा अधिमात्रा जायन्ते इति पुक्त्या जघन्यपरिमितासंस्पातस्य रूपाधिकाच्छिरमात्रपूरणवर्गमूलण्याच्येवा रूपाधिकार्मच्छरमात्रशिकसंवर्गण द्विगुणपरिमितासंख्यातजघन्यप्रमाणेन विमताबारपल्यवर्गशलाकामा: _व_ । "विष्णउच्छेरछेवसमिलिवा" देयस्य धागुलत्य छेउछेयः वर्गकलाकास्तेषु सम्मिलिता: . + ५२।इवं समुत्पन्नराशेर्जगम्छे ण्या वर्गशलाकाप्रमाणं भवति । इदं सर्ण मनसि करमा "गुणपरिसासंखे" इत्यायुक्त' । “वरणानुवरिमागे” इत्यादिन्यायेन द्विगुणधेणीछेवा जगत्प्रतरछका छ छ छ ६ भवन्ति । "बागसला स्वहिमा" इति न्यायेन रुपाधिकश्रेणिवर्गशलाका ... + व २ + १ जगातरवर्गपालाका भवन्ति । "तिगुणा तिगुणा परदाणे" इति ध्यायेम त्रिगुणभेगोछेगा एवं छ छ छ६ घमलोकमा भवन्ति । "सपचे परसम" इति न्यायेन श्रेणिवर्गशलाका ए धनलोकबर्गशलाका भवन्ति ॥१०॥ १६x२ ४ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y गांमा1१०१ लोकसामान्याधिकार १.५ अब जगच्छेणी की वर्गशकाओं का प्रदर्शन करने के लिए कहते हैं : गायाप:-अखापल्य की वर्गशलाकाओं में जघन्यपरीतासंख्यात के गुणे का भाग देने पर जो सब्ध उपलब्ध हो उसमें घनांगुल की वर्गशलाकाओं को जोड़ देने से जगच्छणी की वर्गशलाकाएं प्राप्त होती हैं ।।१०६11 विशेषाय :- दुगुणपरीतासंख्यात से भाजित अद्धापल्य की बशिलाकाओं में धनागुल की वर्गशलाकाएं मिला देने पर जगच्छेणी की वर्गशलाकाएं प्राप्त हो जाती हैं। यहां दुगुणजघन्यपरीतासंग्ल्यात का भाग कसे दिया । उसे कहते हैं - अद्धापल्य की अच्छेिद राशि के अच्छेद हो पल्य की वर्गपालाकाओं का प्रमाण हैं । पल्प को अर्धच्छद राशि के प्रथमवर्गमल के अधुच्छेद पल्य को नाला अधि पक्ष के प्रमाण होने है। दूसरे वर्गमूल के अर्धच्छेद पत्य की वर्गशलाका अर्थात् पल्प के चतुर्थ (2) भाग प्रमाण होते हैं । तीसरे वर्गमूल के अच्छेद पल्य का वशालाका अर्थात् पल्य के अष्टम ( 2 ) भाग प्रमाण होते हैं। तथा पल्य की अन्छिद राशि के चतुर्थ वर्गमूल के अर्धच्छेद पज्य की वर्गशलाका अर्थात् पल्य के सोलहवें भाग प्रमाण होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक वर्गमूल के अर्धच्छेद तब तक अध अर्ध करना चाहिए जब तक कि अच्छेिद राशि के नीचे जपन्यपरीतासंख्यात के अच्छेदों से एक अधिका वर्गमूल प्राप्त न हो जाय । अन्त में जो वर्गमूल प्रास होगा उसके अच्छद दो जघन्यपरीतासंख्यात से माजित अवापल्य को वर्गशलाका प्रमाण होंगे। ___जिम प्रकार ऊपर ऊपर के वर्गों में अच्छेद दुने दूने होते है, उसी प्रकार नीचे नीचे के वर्गमूलों में { अच्च्छेद ) आधे आधे होते हैं। इस युक्ति से जिस नम्बर का वर्गमूल हो उतनी बार दो लिखकर परस्पर गुणा करने से अदापन्य की शलाकाओं का भागहार प्राप्त होता है। जैसे- चतुर्थ वर्गमूल है, अतः ४ बार दो का गुणा (२x२x२x२) करने से पत्य की कालाकाओं के भागहार १६ की उत्पनि हुई। इसी प्रकार यहाँ जघन्यपरीतासंड्याल के अच्छदों से एक अधिका वर्गमूल है, अत: जघन्यपरीतासंख्यात से एक अधिक अर्धच्छेद प्रमाण दो के अङ्क लिन कर परस्पर गुणा करने से अद्धापल्य को वर्गशलाकाओं के भागहार स्वरूप दो जघन्यपरीतामण्यात की प्राप्ति होती है, अत: अद्धापत्य को वशिलाका में दिपगाछेद वेद मंमिलिदा" (गाथा १०८ ) के अनुसार देय राम २ जघन्यपरीनासंगयान घनांगुल के अछेदों के अच्छेद अर्थात पनागुल, की वर्गणलाकाएँ मिला दन पर जगच्छणी की वर्गशलाकाएं उपलब्ध हो जाती हैं । यह सब मन में विचार कर आचार्य ने "दुगुणपरोतास" इत्यादि मूत्र कहा है । "वम्गादुवरिमनग्गे" ( गाथा ७४ के अनुमार जगणों के अच्छेदी से जगत्प्रतर के मच्छेिद दूने होते हैं । "वगसलामवाहिया" (गाथा ७५) के न्यायानुसार जगच्छणी की वर्गशलाकाओं १४ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलोजसाप गाथा : ११० १०६ से जगत्प्रतर की वर्गशलाकाएं एक अधिक होती हैं। "तिगुणा तिगुणा परट्ठाणे" ( गाथा ७४ ) के अनुसार जगच्छ्रेणी के अर्धच्छेदों से घनलोक के प्रच्छंद तिगुने होते हैं । "सपदेपरसम" ( गाथा ७५ . ) के अनुसार घनलोक की वर्गशलाकाएँ जगच्छ्रेणी की वर्गशलाकाओं के बराबर ही होती है । 'तम्मेतदुगे गुणे रामी" इति न्यायेनार्थच्छेदमात्रद्रिकानामन्योन्याहृतो राशिना भवितव्य - मित्यत्र साधिकछेदानां छे छे ३ कथमित्याह - विरलिदरासीदो पुण जेत्तियमेचाणि अहियरुवाणि । तेसिं अष्णोष्णहदी गुणगारो लद्धरासिस्य ।। ११० ।। विरचितराशितः पुनः पावन्मात्राणि अधिकरूपाणि । तेषां अन्योन्यहतिः गुणकारी लव्धराशेः ।। ११०।२ विर । विरलितराशितः पुनर्यात्मकरूपारिंग को को १० तासां देवाः तावन्मात्र द्विकानामन्योन्यहतिः को. को. १० लब्धपत्यराशे कारो भवति । प्रदृष्टो विरतिराशि: १६ परश्वः ४ तस्मादधिकरूपछेवः ३ तत्मात्रद्विकान्योन्यासी लब्धपत्य राशि: १६ गुणकारी भवति । १६ x ६ तयोः गुण्यगुणकारयोर्गुळे ते सागरोपमः १२८ स्यात् ॥११०॥ अब " तम्मेदुगे गुणे रासी" ( गाथा ७५) के न्यायानुसार अच्छेदों के प्रमाण बराबर दो के अ लिखकर परस्पर गुणा करने से मूलराणि उत्पन्न होती है। जो साधिक अर्धच्छे होते हैं वे कैसे होते हैं ? अर्थात् मूलराशि के अच्छे से अधिक अच्छेदों द्वारा किस राशि की उत्पत्ति होती है, उसे कहते हैं गायार्थ :- अर्थच्छेद स्वरूप विरलन राशि में जितने अच्छे अधिक हो उतनी जगह २ का अङ्क लिखकर परस्पर गुणा करने से जो लब्ध उत्पन्न हो यही लक्ष्य राधिका गुगाकार होता है ।। ११० ।। विशेषार्थ :- सागरोपम के अर्धच्छेदों का प्रमाण संख्यात अधिक पल्य के अर्धच्छेदों के प्रमाण बराबर हैं । यहाँ विरलन राशि पल्य के अर्धछेद है, इनसे जो संख्यात अच्छेद अधिक हैं, उतनी बार दो का अक रखकर परस्पर गुणा करने से दण कोड़ाकोड़ी का प्रमाण प्राप्त होता है और विरलन राशि प्रमाण दो का अङ्क रखकर परस्पर गुणा करने से पश्य के प्रमाग की उपलब्धि होती है। तथा इस पल्म के प्रमाण में उपर्युक्त दशकांड़ाकोड़ों का गुणा करने पर सागरोपम की उपलब्धि होती है। संदृष्टि मान लीजिये :- सागरोपम के अच्छेद ७ है, और विरलन राशि पल्योपम के अच्छे ४ हैं, इससे सागरोपम के अर्थच्छेद ७- - ४ } अङ्क रखकर ( २ × २ × २) परस्पर में गुणा करने से है । (१६) च्छेद (४) प्रमाणा विरलन राशि है, — ३ अधिक है । अतः ३ जगह दो का प्राप्त हुये जो देवकोटाकोड़ी के तुल्य न इतने बार (४ वार ) २ का अ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा १११-११२ लोकसामान्याधिकार १०७ लिखकर परस्पर में गुणा करने से पल्य का प्रमाण (१६) प्राप्त होता है । तथा पल्प ( १६ ) में दश कोड़ाकोली (८) का गुणा करने से { १६ x ८ = १२८) सागरोपम का प्रमाण प्राप्त होता है। अथ प्रसंगेन होनछेदानां किमित्याकांक्षायामाह' विरलिदरासीदो पुण जेसियमेचाणि वीणस्वाणि । नेमि अण्णोण्णहदी हारो उत्पण्णरासिस्स ॥१११।। विरलितराशितः पुनः यावन्मात्राणि हीनरूपाणि । तेषामन्योन्यहतिः हार उत्पनराशेः ।।१११॥ विलिय । अस्याः छायामात्रमेव ॥१११॥ अब प्रसङ्गवश हीन । कम } अर्धाच्छेदों का क्या विधान है ? ऐसी शक्का होने पर कहते हैं गाषा :-विवक्षित विरलन राशि के अच्छेदों से जितने हीन अच्छिंद हैं, उतनी जगह दो ( २ ) के अङ्क रखकर परस्पर गुगा करने से जो लब्ध प्राप्त हो वह उत्पन्न ( लब्ध ) राशि का भागहार होता है । १११॥ विशेषार्थ :-विरलनराशि पाट्टो के अछिंद १६ हैं और विवक्षित राशि के अस्छेिद १२ हैं, जो १६ से ४ कम हैं । अतः चार बार दो का अङ्क रखकर परस्पर गुणा करने से १६ को उपलब्धि हुई; जो विरलन राशि ( १६ ) प्रमाण २ का अङ्क रखकर परस्पर गुणा करने से ६५५३६ का भागहार है अर्थात ६५५३६ में उपर्युक्त १६ का भाग देने से विवक्षित राशि ४०६६ की प्राप्ति होती है। अर्थानरप्रकरणस्य पातनिकागाथामाह जग सेदीप बगो जगपदरं होदि नघणो लोगो। इदि मोहियसंखाणम्सेतो पगदं परूवेमो ॥११२।। जगण्यावर्ग: जगत्त्रतरी भवति तद्घनो लोकः। इनि बोधितसंख्यानस्य इतः प्रकृतं प्ररूपयामः ।।१:२॥ जग। जगच्छण्या वर्गः तत्पतरो भवति । तस्या: श्रेण्या धनो लोक इत्यस्माभिर्बोधित संख्यानस्य शिष्यस्य इत; परं प्रकृतं प्ररूपयामः ॥१२॥ अपमाप्रकरणं समाप्तम् । अब पूर्व प्रकरण के उपसंहार रूपनाथा कहते है : १ किमित्यामाकायामाह (ब.प.)। २ उपमाप्रमाः समाप्ता. (प.); उपमाप्रमाणं समाप्तम् (प.)। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा ११२ गावार्थ :-- जगच्छ्रेणी का वर्ग जगत्प्रतर और जगच्छ्रेणी का घन घनलोक होता है। इस प्रकार जिसे संख्या का ज्ञान हो गया है, उसके लिए प्रकरणभूत लोक का वर्णन करते हैं ।। ११२ ।। विशेष :-- आठ प्रकार के उपमा प्रमाण में से पल्य और सागर के प्रमाण का कथन समाप्त हो चुका है। तथा सूध्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल और जगच्छ्रेणी का वर्णन "जगच्छ्रेणी का घन प्रमाण लोक है" इस कथन के प्रसंग में किया जा चुका है । १०८ जगच्छ्रेणी के वर्ग को जगत्प्रतर और उसी के धन को घनलोक कहते हैं। पल्य के समयों का प्रमाण हो पल्य है । दश कोड़ाकोड़ी पल्यों के समूह को सागर कहते हैं। पल्य के जितने अर्धच्छेद है, उतनी बार पल्य रखकर परस्पर गुस्सा करके जो राशि उत्पन्न हो, वही सूच्यंगुल है । जो एक अंगुल लम्बे क्षेत्र में जितने प्रदेश हैं, उतने प्रमाण है। सूच्यंगुल का वर्ग प्रतरांगुल है । जो एक अंगुल लम्बे और एक अंगुल चौड़े क्षेत्र के प्रदेशों के प्रमाण है। सूच्यंगुल के घन को घनांगुल कहते हैं । जो एक अंगुल लम्बे, एक अंगुल चौड़े और एक अंगुल ऊंचे क्षेत्र के प्रदेशों के बराबर है। 1 पल्य के छेदों के असंख्यातवें भाग प्रमाण घनांगुल स्थापन कर परस्पर गुणा करने से जगच्छ्रेणी की प्राप्ति होती है। जो मध्य लोक से ऊ एवं अधोलोक पर्यन्त सात राजू के प्रदेशों के प्रमाण है। जंगच्छ्रेणी के वर्ग को जगत्प्रतुर कहते है, जो जगच्छ्रेणी प्रमाण लम्बे और चौड़े क्षेत्र के प्रदेशों के प्रमाण हैं । इसी जगली के धन को जगत् घन या घनलोक फहते हैं, जो जगच्छ्रेणी प्रमाण लम्बे चौड़े और ऊंचे क्षेत्र के प्रदेशों के प्रमाण है अर्थात् ३४३ घन राजू प्रमाण है इसी की सिद्धि के लिए नीचे क्षेत्रफल एवं दक्षिणोत्तर व्यास को दर्शानेवाला मानचित्र दिया जा रहा है । ऊपर जो आकाश क्षेत्र के प्रदेशों द्वारा सूच्यंगुल आदि का प्रमाण बनाया गया है उसमें केवल प्रमाण से प्रयोजन है, प्रदेशों से प्रयोजन नहीं है। इस प्रकार हमारे ( नेमिचन्द्राचार्य ) द्वारा जान लिया है संख्या का स्वरूप जिसने ऐसे शिष्य के लिये अब इससे आगे प्रकरणभूत लोक के प्रमाणादि को कहते हैं । लोक, जगच्छ्रेणी के घन स्वरूप है, इसकी सिद्धि करते हैं : [ सम्वन्धित चित्र पृष्ठ १०९ पर देखिये ] * t . ? Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ११२ . . लोकसामान्याधिकार १०९ -राज १. राज -शन - मधोलोक का क्षेत्रफल :-अधोलोक में भूमि ७ राजू, मुख १ राजू और उत्सेध ७ राजू है। भूमि व मुख का जोड़ (७+१)= 4 राजू होता है। इसका आधा ८ = ४ x ७ राजू उत्सेध - २८ वर्ग राजू अधोलोक का क्षेत्रफल हुआ। ऊर्व लोक का क्षेत्रफल:- भूमि १ राज ( मध्य लोक की ) मध्य में ५ राजू, ऊपर मुख एक राजू तथा उत्सेध ७ राजू है। अतः ५ + १ - ६ : = ३ x ७ राजू उत्सेध = २१ वर्ग राजू ऊर्ध्वलोक का क्षेत्रफल । ___ सम्पूर्ण लोक का घनफल :- २८ + २१ - ४९ वर्ग राजू जगत्प्रतर में दक्षिणोत्तर सर्वत्र ७ राजू का गुणा ( ४९ x ) करने से ३४३ घन राज् सम्पूर्ण लोक का क्षेत्रफल प्राप्त होता है। - उपमा प्रमाण का प्रकरण समाप्त हुमा -- Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाथा : ११३-११४ पूर्वगाथर्यवोक्ता पानिका उदयदलं आयामं वासं पुवावरेण भूमिमहे । सचेकपंचएक्क य रज्जू मजाम्हि हाणिचयं ॥११३॥ उदयदलं आयामः व्यास: पूर्वापरेण भूमिमुखे । सप्तकं पञ्चक च रज्जुः मध्ये हानि चयम् ॥११३।। उदय । उदय १४ बलं ७ प्रायामः पक्षिणोत्तरम्यास इत्यर्थः । पूर्वापरहानिचयकथनात चतुर्दशरसेषपर्यन्तमायाम: सर्वत्र सप्तरज्जुरेवेति ज्ञातव्यं । पूर्वापरेण ध्यासस्तु भूमो मुते च यथासंख्यं सप्तरजपः भू ७ एका रस्छुः मु१ पनरज्जवः मू५ एका रज्जुः मु१ तपोमुखमूम्योमध्ये हानिकयौ साध्यौ ॥११३॥ लोक पूर्व गाथा द्वारा ही कही हुई पातनिका :--- गापा:-लोक का उदय ( ऊंचाई ) १४ राजू प्रमाण है, उसका आयाम उदय का अर्धभाग - राजू प्रमाण है । अर्थात् दक्षिणोत्तर व्यास ७ राजू है। पूर्व पश्चिम व्यास भूमि मुख में मान, एक और पांच, एक राजू है । तथा मध्य में हानिचय स्वरूप है ॥११३।। विशेषार्थ:-लोक की ऊँचाई चौदह राजू प्रमाण है। इसका आधा (21) ७ राजू प्रमाण दक्षिणोत्तर आयाम अर्थात् चौड़ाई है। दक्षिणोत्तर दिशा में लोक के अधोभाग में ऊपर नौदह राजू ऊंचाई पर्यन्त लोक सर्वत्र ७ राजू चौड़ा है, कहीं भी होनाधिक नहीं है। पूर्व पश्चिम दिशाओं का व्यास अध व मध्य लोक में कम से भूमि ७ राजू, मुस्ख १ राजू तथा ऊर्ध्व लोक के मध्य में भूमि ५ राजू और मुख अषः एवं शिखर पर एक राजू प्रमाण है। इन दोनों ( मुख और भूमि ) के बीच में हानि और वृद्धि चय को साधना चाहिए। आदि प्रमाण का नाम भूमि, अन्त प्रमाण का नाम मुख तथा घटने का नाम हानि और क्रम से बढ़ने का नाम चय है। अथ तत्साधनप्रकारं कथयन्नाह मुहभूमीण विसेसे उदयहिंद भूमहादु हाणिचयं । जोगदले पदगुणिदे फलं घणो वेधगुणिदफलं ।।११४।। मुखभूम्योः विशेष उदयहित भूमुखतः हानिचयं । योगदले पदगुरिणते फलं घनो वेश्चमुरिणतफलम् ॥११४।। मुह । भूमौ ७ मुखं १ होनं कृत्वा ६ सप्तरज्जूदयस्य पदरज्जुहानी एकरज्जूतपस्य कियती हानिरिति सम्पात्य तवानि समावेनन सप्त रज्ज्यायामे, स्फेटयेत् । पुनस्तहानिमेव तत्रावशिष्ट Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाषा: ११४ लोकसामान्याधिकार एक रज्जुपर्यन्ते स्फेटयेत् । तरा तसवानिरहिता तत्र तत्र प्रायतिभवेत् ५, ३ । अवलोकाचयानयने मुख सुम्योः ५ विवोधे ५ सति ४ पाचावर्षचतुषस्य तुमचये ४ द्वितीयास्य * कियांश्चय इति सम्पास्यापवर्म गुणितराशौ १३ एकरज्जु १ समामटेन मेलने कृते सत्यद्वितीयस्य प्रथमचयस्तस्मिश्वये प्रामसमय ३ मेलने कृ उपरितना रितीपचयो भवति । पर्भवतुर्थस्य चतुश्चये ४ बलस्य ३ किमिति सम्पास्यापपर्य तरप्राक्तनबमे मेलयेत तबुपरितनमयः स्यात् । उपग्लिनोलोकहान्यानयनेऽपि प्रर्षचतुर्थय २ अतुतिौ ४ बलोवपस्य३ किमिति सम्पास्यागतहानि प्राक्तनवलचये ५ स्फेटयेता एवं सति उपरितनवलहानिफलं स्यात् । एवमुध्वंबलवुष्यहान्यानयोऽपि पूर्वपूर्वहानिफले . चतुः सप्तम हानिस्फेटने २७ सत्तडानिरहितायतिर्भवति २३ ।। बलोदयस्य एतावदानी : एकोक्यस्य १ किमिति सम्पात्य षष्ठलहामिफले ३७ स्फेटने एकरज्जुफलं स्यात् । प्रघोलोकक्षेत्रफलानयने मुखं १ भूमि ७ योग : वले ४ प ७ गुणिते २८ क्षेत्रफलं स्यात् । तदेव' वेधन ७ गुणितं घनफलं १९६ स्थात् ॥११४॥ हानि और स्ल के साधने का विधान कहते हैं : मायार्थ :- मुख और भूमि में जिमका प्रमाण अधिक हो उसमें से होन प्रमाण को घटाकर ऊंचाई ( उदय ) का भाग देने से भूमि मौर मुख की हानि तथा चय प्राप्त होता है । भूमि और मुख के योग को आधा कर पद ( अचाई ) से गुणा करने पर क्षेत्रफल की प्राप्ति होती है, तथा उसी क्षेत्रफल में वेध का गुणा करने से घनफल होना है ॥११४।। विशेषाय :-मात राजू भूमि में से एक राज मुख घटाने पर (५ -१ = ६ ) छह राजू अवशेष रहा । यतः ७ राज ऊंचाई पर ६ राज घटते हैं, तो एक राज ऊंचाई पर कितना घटेगा ? ऐसा राशिक करने से हानि का प्रमाण राज आता है। अतः प्रत्येक एक राज ऊपर जाने पर छह राज़ का सातवाँ माग घट जायगा । इसको सामच्छेद ( लघुत्तम ) विधान से घटाने पर ४३ राजू के ७वें भाग प्रमाणा व्यास रहेगा । जैसे :-::-: = ! राजू शेष रहा । अर्थात् सप्तम पृथ्वी के समीप पूर्व पश्चिम व्यास * गन प्राप्त होगा। इसी प्रकार प्रत्येक एक राज पर राजू घटा देने से :-छठवीं पृथ्वी के समीप का व्यास राजू , पाँचत्री पृथिवी के समीप : राज , चौथी पृथिवी के समीप २० तोमरी पृथियी के समीप - १ राजू , दूसरी पृथ्वी के समोप का व्यास राजू , तथा पहिलो पृथ्वी के अन्न में अति मध्य लोक के समीप (१) राज प्रमागा क्याम प्रा होगा । अप्रिमागा ऊध्यलोक का चय निकालने के लिये मध्य लोक के समीप मुख एक राज , ब्रह्म लोक के समीप भूमि ५ राज़ है, अतः भूमि ५ – १ राज मुख = ४ राज अवशेष रहा। मध्यलोक से ब्रह्मलोक साढ़े तीन राज को ऊंचाई पर है । और मौधौ युगल १ राजू की 'चाई पर है। : ३१ रा. की ऊंचाई पर ४ रा० को वृद्धि १ एतदेव (प.)। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : ११४ है, तो १३ राज पर क्या वृद्धि होगी? इस प्रकार वृद्धि का प्रमाण ( 3 xxx 1 ) = राजू प्राप्त हुआ। मध्य लोक के समीप ध्यास १ राजू का था, अत: +१३ - ४ राजू प्रमाण व्यास सौधर्मशान युगल के पास प्राप्त होगा। प्रथम युगल से दूसरा युगल भी १३ राज ऊंचा है, और डेढ़ राजू की वृद्धि का प्रमाण ११ राजू है, अतः १ + ए = राजू व्यास सानत्कुमार माहेन्द्र युगल के समीप प्राप्त होगा। इस दूसरे युगल से तीसरा युगल : (आधा) राज़ ऊंचा है, अतः जबकि ३३ राजू पर राजू की वृद्धि होती है तब अर्थ राजू पर कितनी वृद्धि होगी ? इस प्रकार राशिक करने से (xxx) - राजू वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है। इसे ३, में जोड़ने से ( + ) - राजू ध्यास तीसरे युगल के समीप प्राप्त होगा । तीसरे युगल से ऊपर की चौड़ाई का माप निकालने के लिये भूमि' ५ राजू , मुख १ राजू ( लोक के अन्त पर ) है, अतः -- १ = ४ राज अवशेष रहा । जबकि राजू की ऊचाई पर ४ राज़ की हानि होती है तब अर्थ राजू पर कितनी हानि होगी ? इस प्रकार राशिक करने से हानि का प्रमाण राजू प्राप्त होता है । तोसरे युगल से चौथा युगल आधा राजू ऊँचा है ( ३रे पुगल में ८वं यु. तक की ऊंचाई माधे आधे राजू की ही है।) अतः १ - = 3, राजू व्यास लान्तष कापिष्ठका, 3 = १४ राज ग्यास शुक्र महाशुक्र युगल का. ४ - = 3 राजू यात शतार सहलार युगल को - राजू आनत प्रारणत युगल का, - = " राजू ध्यास आरण अच्युत युगल का प्राप्त होगा। यहाँ म लोक का अन्त एक राजू ऊंचा है । यतः ३६ राजू की ऊंचाई पर ४ राजू की हानि है तब १ रा को ऊंचाई पर कितनी हानि होगी ? इस प्रकार राशिक करने से हानि का प्रमाण (: xx x १) = राजू प्राप्त होगा । अत: - -" अर्थात् एक राजू का व्यास लोक के अन्त भाग का प्राप्त हआ । इम प्रकार पूर्व पश्चिम की अपेक्षा लोक का ध्यास होनाधिकता को लिये हये है। अधोलोक का समस्त क्षेत्रफल:-मुख और भूमि को जोड़ कर आधा करना और उसमें पन्न योग मर्थात् ७ राजू ऊंचाई का गुणा करने से क्षेत्रफल प्राप्त होता है, और क्षेत्रफल में वेध अर्थात् मोटाई का गुणा करने से धनफल प्राप्त होता है । यहाँ अधोलोक के तल में व्यास ७ राज है, अतः भूमि सात राजू हुई, और मध्य लोक के समीप का एक राजू म्यास मुख है । पद ७ राजू और वेध भी मात राजू है, अत: भूमि + १ राजू मुख = ८ : २ = ४ x ७ राजू पद योग = २८ वर्ग राज क्षेत्रफल हा । २८ x ७ राजू ऊंचाई = १९६ राजू प्रमाण घनफल प्राप्त हुआ । यदि प्रघोलोक के एक एक राज प्रमाण लम्बे चौड़े और ऊ ने खण्ड किये जाय तो १९६ खण्ड हो सकते हैं। गाथा नं० ११४ के अनुसार सम्पूर्ण लोक के व्यास का चित्रण : [ सम्बन्धित चित्र पृष्ठ ११३ पर देखिये ] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा।११५ लोकसामान्याधिकार ११३ - - हतोऽधोलोकोऽधा भेदयति सामण्णं दो आयद जबमुर जवमज्म मंदरं दूसं । गिरिगडगेण विज्ञाणह भट्टवियप्पो अधो लोगो।।११।। सामान्य घायनं यबमुरजं यवमध्यं गन्दर दृष्यम् । गिरिकटकेनापि जानीहि अविफल्पः अधोलोकः ॥११५|| सामण्णं । सामान्यमूर्वायतं तिर्यमापतं यवमुरजं यवमध्यं मन्वर खूष्य निरिकटकेन सह प्रवृ. विकल्पो प्रषोलोक इति जानीहि । सामान्यनेत्रफलं "मुलभूमोजोगवले" त्याविना सुगमं । प्रषोलोकस्य मध्यं हित्वा भापतचतुरम यथा भवति तथा व्यरयासेन संस्थाध्य "भुनकोटिय" इत्यादिना गुरिगटे कापतक्षेत्रफलं स्यात् । अधोलोकस्य मध्यफलं "मुख भूमिसमास" याविनानीय ऊमा छिरवा तिर्यगायतचतुरस्र यया भवति तथा संस्थाप्य "भुजकोटिवधे" त्यादिना तियंगायतक्षेत्रफलमानयेत् ॥११५॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ त्रिलोकमार गाथा : ११५ अमोलोक के क्षेत्रापेक्षा आठ भेद करते हैं :- अर्थात् अधोलोक का क्षेत्रफल पाठ प्रकार से कहते हैं : गाथार्थ :-१. सामान्य २. ऊर्दायत ३. तिर्यगायत ४ यमुरज ५ यत्रमध्य ६ मन्दर ७ दृष्य और गिरिकटक । इस प्रकार अधोलोक के आठ भेद जानना चाहिये ।।११।। विशेषा:- सामान्य, ऊ यत, तिर्यगायत, यव मुरज, यवमध्य, मन्दर, दूष्य और गिरिकटक के भेद से अधोलोक आठ प्रकार का जानना चाहिये। १. सामान्य अधोलोक का क्षेत्रफल :-- "मुख भूमि जोग दले"............. इस सूत्रानुसार मुख और भूमि को जोड़कर उसका आधा करने से जो लब्ध प्राप्त हो उसमें पदयोग अर्थात ऊंचाई का गुणा करने पर मामान्य अधोलोक का शेषफल प्राप्त हो जाता है। जैसे :-भूमि ७ राजू मुख १ राजू और पद ७ राजू है, अत. ७ + : २ = ४ x ७ राजू ऊंचाई = २८ वर्ग राजू सामान्य अधोलोक का क्षेत्रफल प्राप्त हुआ।। २. उर्द्धायत अधोलोक का क्षेत्रफल :-- ___ ऊ र्था बार मौकार क्षेत्रफल को ऊयित क्षेत्रफल कहते हैं। अधोलोक की चौड़ाई के मध्य में अ और ब नाम के दो खण्ड कर ब खण्ड के ममीप अखण्ड को उल्टा रखने म आयतचतुरन क्षेत्र प्राप्त होता है। जैसे :-- परा - - : 2 - - - - - - क्षेत्रफल :-यह भायतचतुरस्त क्षेत्र ४ राजू चौड़ा और ७ राजू ऊंचा है। इसकी ऊपर नीचे की मुभा समान है, तथा आमने सामने की कोटि भी समान है, अत: कोटि ७ राजू x ४ राजू भुजा .- २८ वर्ग राजू ऊर्शयत अधोलोक का क्षेत्रफल है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.रा./ पापा : ११६ ३. तिर्यगायत अधोलोक : जिस क्षेत्र की लम्बाई अधिक और ऊंचाई कम हो उसे तियंगायत क्षेत्र कहते हैं। अधोलोक सात राजू ऊंचा है। भूमि ७ राजू और मुख १ राजू है । ७ राजू ऊंचाई के बराबर बराबर दो भाग करने पर नीचे ( नं० १ ) का भाग ३३ राजू ऊंचा, और ७ राजू भूमि तथा ४ राजू मुख वाला हो जाता है। ऊपर के भाग की चौड़ाई की अपेक्षा दो भाग करने पर प्रत्येक भाग ३३ राजू ॐधा, २ राजू भूमि और राजू मुख वाला हो जाता है। इन दोनों ( नं० १ और २) भागों के नीचे वाले ( नं० १) भाग के दाईं बाईं ओर उलट कर स्थापन करने से ३३ राजू ऊना और राजू लम्बा तिर्यग् आयत क्षेत्र बन जाता है। जैसे : ३ -४ राजू १ लोकसामान्याधिकार ७ राजू २ राज् वाज ४.२ राज् ३ १ ७ राजू ११५ क्षेत्रफल :- यह आयत क्षेत्र ८ राजू लम्बा और ३३ राजू कोटि समान है। तथा आमने सामने की भुजा भी समान है, अतः गुणा ( ऊंचा है। इसकी ऊपर नीचे की राजू कोटि को ३३ राजू भुजा मे ३ ) करने पर २८ वर्ग राजू नियंगायत अधोलोक का क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है । अथ यवमुजक्षेत्रफलमानयति रज्जुतसोमरसत्तुभो जदि हवेज्ज एक्केसे । किमिद कदे संपादे एक्कजउस्सैहमाणमिणं ।। ११६ । । रज्जुनयस्य पसरणे सप्तोदयो यदि भवेत् एकस्याम् । किमिति कृते सम्पत एकययस्योत्सेधमानमिदम् ।। ११६ ॥ रज्जु 1 रज्जुत्रयस्यावसरणे सप्तोदयो यदि भवेत् एक अवसर कियानुदयइति संपते कृते Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ त्रिलोकसार गाथा:११६ मागसमेकबोरसेषप्रमाणमिव । एकयषस्य १ मत्युग्ये प्रयास किमिति सम्पाते गर्भपबोरसेपमानं स्यात् । पश्चावयवक्षेत्रफलं "मुखभूमिजोगबले (मु० भूमि १ जो १दले ३ ) त्यादि मानीय एकायियस्य । इयति र फले महायशास्य किमिति सम्पास्य पनिरपवतिते म यवक्षेत्रफलं स्यात् । मुख भूमि ४ जोग ५ वले पदे गुरिणते पवन होवोत्य मुरणक्षेत्रफलमानीयापुरजस्यतावतिफले एकमुरजस्य किमिति सम्पापवयं ३५ एतपयक्षेत्रफले ३. संयोज्य भाजिते २५ यवमुरजकोत्रफलं भवति । यबमपत्रस्ययवान् सर्वान गुणयित्वा २४ पूर्ववश्व - पवोत्रफलमानीय र पुमयिवस्था : एतावति १ एकयवस्य किमिति सम्पास्यापतिते एक यवक्षोत्रफलं है स्यात् । एकयवस्य एतावति फले चविंशतियवाना किमिति सम्पास्य षभिरपतिते पबमध्यक्षेत्रफल २८ भवति ॥११॥ यवसुरज अधोलोक: गाथार्ष:--जबकि एक और ३ राजू के घटने पर ७ राज़ की ऊंचाई प्राप्त होती है, तब एक राज घटने पर कितनी ऊँचाई प्राप्त होगी? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर एक यव की राज ऊंचाई प्राप्त होगी ।।११।। विशेषार्ष:- अधोलोक को मुरज । मृदङ्ग) य यव (जो अन्न ) के आकार में विभाजिन करने का नाम पवमुरजाकार है। उपयुक्त गाथा में यवमुरज आकार द्वारा अधोलोक का क्षेत्रफल ज्ञात करने की मुमना दी गई है। जैसे : अधोलोक नीचे ७ राजू चौड़ा है। दोनों ओर क्रम से ( समान अनुपात में ३, ३ राजू ) घटते हुये मध्यलोक के समीप एक राजू की चौड़ाई अवशेष रहती है, अतः जबकि ( एक ओर ) ३ राजू धटने १ मानं स्यात् (...)। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ११३ लोकराजाधिकार ११७ पर ७ राजू ऊँचाई प्राप्त होती है, तब एक राजू घटने पर कितनी ऊंचाई प्राप्त होगी। इस प्रकार राशिक करने से राजू ऊँचाई प्राप्त हुई । यही ? राजू एक यब की ऊंचाई है । अकि एक यव को ऊँचाई राज है तब अर्धायव की कितनी होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर अर्धयव की ऊँचाई है राज प्राप्त होती है । अर्धयों का क्षेत्रफल :-अधोलोक के दोनों पाश्व भागों में १८ अर्थायव हैं। एक अर्थायव की भूमि १ राज , मुख० और उन्सेध ! राजू है । ''मुखभूमि जोगदले" सूत्रानुसार १ + = १. : २-- 2x = १ राजू एक अधीयव का क्षेत्रफल प्राप्त हुआ । जबकि एक अर्शयव का क्षेत्रफल राज है, तब १८ अर्धयवों का कितना होगा? इस प्रकार राशिक कर ( x )बह से अपवर्तित करने पर १८ अऽयिवों का क्षेत्रफल अर्थात् १०३ वर्ग राजू प्राम हुआ। मुरज का क्षेत्रफल :- दोनों पारवं भागों के १८ अपिय अलग कर देने के बाद अधोलोक का आकार एक मुरज मदश अवशेष रहता है। इसे ऊंचाई में से प्राधा कर देने पर दो अर्धमुरज होते हैं। एक अर्धमुरज का मुख १ राज और भूमि ४ राजू है । दोनों का योग { ४ . १ ) == ५ राज हुआ। इसे आधा करने पर (५ २) राजू हये, इनको ३३ राजू उत्सेष से गुणित करने पर (५४) - राजू पद धन होता है । जबकि अर्ध ( 3 ) मुरज का क्षेत्रफल १ राजू है, तब एक मुरज का कितना होगा ? इस प्रकार राशिफ करने पर ( २ ४ ) = ३५ अर्थात् १७३ राजू सम्पूर्ण मुरज का क्षेत्रफल प्राप्त हुआ। इस प्रकार १८ मयिवों का क्षेत्रफल १०३ राजू और सम्पूर्ण मुरज का क्षेत्रफल १५३ रा है, अत: १७३ + १०१ = २८ वर्ग राज यव मुरज अधोलोक का क्षेत्रफल प्राप्त होता है । यबमध्य अधोलोक: अधोलोक के सम्पूर्ण क्षेत्र में यवों की रचना करने को यवमश्य कहते हैं। जिम प्रकार यवमुरज के दोनों पाव भागों में अयिव की रचना की थी उसी प्रकार सम्पूर्ण अधोलोक में यव को रचना करने से २० पूर्ण यव और ६ अर्धयन प्राप्त होते हैं। इन ८ अर्धायवों के ४ पूर्ण पत्र बनाकर मम्पूगां अधोलोक में २४ पूर्ण यवों की प्राप्ति हुई। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलोकसार माथा: ११७ क्षेत्रफल :-जबकि ३ (अ) यव की ऊंचाई : राज है | नो एक यव को कितनी होगी इस प्रकार राशिक करने से एक यब की ऊँचाई राज प्राप्त हुई। प्रत्येक यव की बीच की चौड़ाई । राजू और ऊपर नीचे की चौड़ाई शुन्य है । अतः १ - ० = १ राज , इसका आधा ( १ ) राज प्राप्त हुआ। इसमें राज ऊंचाई का गृणा करने से ( x ) = वर्ग राज एक. यव का क्षेत्रफल प्राप्त हुआ। सम्पूर्ण यव ( २०+) = २४ हैं । अतःx - २८ वर्ग गज प्राप्त हुआ । यही २८ वर्ग राजू क्षेत्रफल यवमध्य अधोलोक का है । अथवा :- (१ + o = १ २ .. 1 x उ.) = यम राज अर्धी यत्र का क्षेत्रफल है, तो एक यव का क्षेत्रफल १ x 7 - वर्ग राज होता है। जबकि १ यव का १ वर्ग राज है तब २४ यवों का क्षेत्रफल १ २४ - २८ वर्ग राम हुआ। यही २८ वर्ग राज़ क्षेत्रफल यवमध्य अधोलोक का है। अथ मन्दर क्षेत्रफलानयन प्रकारं दर्शयति-- अद्धं चउत्थभागो सगवारसमं विदालबारमो। मुगवारंस दिवढं रज्जुदो मंदरे खेचे ॥११७|| अर्धा चतुर्थभागः सप्तद्वादश त्रिचत्वारिंशत्वादशांशाः । मप्तद्वादशाणा द्वयर्धा रज्जू दयो मंदरे क्षेत्रे॥११॥ प्रचंपई ३ असुशिः लयो. ' मेलमे है सप्तद्वारशांशा त्रिचत्वारिंशत द्वावशांशा पुनरपि सप्तद्वादशांशपर्णमितीयांशा ३ रम्दयामबरोत्रे भवन्ति । मुखं । ममीण ७ बिसेसे इति हानिमानीय ६ सप्त रज्जूवयस्य ७ षड्ढानौ ६ त्रिचतुर्थ रज्जूवयस्य कमिति सम्पास्य द्वाrut तिरंगपवार्य ३ गुणिते पडे समानचिन्न सप्तरज्या १ केटते त्रिचतुर्थोत्रीपरितनायामः स्यात् । सप्तरज्जूरयस्य षबढानौ ६ सप्तद्वादश और रज्जूवयस्य किमिति सम्पात्यापवर्ष गुणिते । पूर्वस्मिनाया स्फेरिते ६ उपरिसनायाम: स्यात् । सप्तरज्जूवयस्य षड्ढानौ ६ चित्वारिंशद्वादश ३३ रम्जूवयस्प किमिति सम्पात्यापयत्यं गुरिगते । पूर्वस्मिनायामे १३ स्फेरिते। उपस्तिनायाम: स्यात् । सप्तरज्जूवयस्य ७ षड्ढानो ६ मतद्वादश रज्जूवयस्य किमिति तपा गुरिएते मन्नायामे ३५ स्फेरिते ३१ उपरितमायाम: स्यात् । सप्तरज्जूवयस्य ७ षड्ढानी ६ प्रद्धितीय ३ रज्जवयस्य लिमिति गुणिते : समानछेदेन प्रस्ताव ३३ स्फेटने कृते १४ उपरितनापाम: स्यात् । चूलिकामयमा सप्तद्वादशोषयक्षेत्रद्वयमायतचतुरस्कृत्वा तत्तन्मुख ६३ तस पोस्फे टयित्वा सप्तभिरपवयं खणद्वयस्य २ एताबति : एकलण्डस्य किमिति सम्पातितं एकसस्य मूमिः । तेष्वेकलगभूमि : मुपरितनं कृप्या झण्डनयभूमियोगमधस्तनभूमि कृत्या सप्त१ तयोरदं चतुर्थाशयों ( २०, प०)। २ इति जाल ( ब०, ५० ) । ३ समानछेदेन (३०, प.)। ४ स्फेटने कुनै ( 4.4)। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ११५ लोकसामान्याधिकार हादशोक्यो उलिका कुर्यात् । पश्चाविषमवत क्षेत्रकलं मुसभूमिमोगरलेस्याविनानीय प्रायतचतुराक्षेत्रफलं भुजकोटिवेषाविण्याविनानीय पणा फलानां च त्रिवि २ द्वि २ षट् ६ चतुरंश भि: समानछेवेन मेलनं कृत्वा हृते च मन्दरक्षेत्रफलं भवति २८। राजुतयस्लेत्यादिनायबोलेषमानीय समामछिन्न सप्सरज्या ३ स्फेटने सतरम्जुभूमेमुखं स्यात् । तत्रैव पुनरपबोरसेषस्फेटने ३६ सप्तरस्य मुखं स्यात् । एवं पूर्वपूर्वमुखे पुनः पुनः पर्धापबोरसेषस्फेटमे तसतरोत्तरस्य मुलं स्यात् । मुखभूमिजोगेत्यादिना या क्षेत्राएो फलमानीय मेसयित्वा ५३ हुस्वा २१ सप्सरजूमेलने २८ वष्योत्रफलं भवति । रज्जूतयेत्याविनायवक्षेत्रफलमानीय र एकसणस्तावति । अमावारिशत्सवाना किमिति सम्पात्य द्वादशभिरपवयं भक्त्वा ४ गुणिते २८ गिरिकटकशेत्रफल भवति ॥११७॥ मन्दर मघोलोक : पाषार्थ :- अधालोक में नीचे से ऊपर आधे राज में चौथाई राज़ मिला देने से (३ + 2) पौन राज होता है। राज मेर राज़, इसमें १३ राज , इससे १२ राज और इससे ३ राज कपर, ऊपर जाकर जिस आकार का निर्माण होता है, वही मन्दराकार का क्षेत्र बन जाता हे ॥११७|| विशेषार्थ :-अधोलोक में मृदर्शन मेक के आकार को रचना कर क्षेत्रफल प्राप्त करने को मन्दर क्षेत्रफल कहते हैं। __ अधोलोक ५ राज ऊंचा है। उममें नीचे से ऊपर की ओर : राजू ) राज का पहिला भाग बनाया है । जो ५०० योजन के स्थानीय है, क्योंकि मन्दर मेरु ( दर्शन मे) पर नन्दन बन तल भाग (भद्रशाल वन ) से ५.०० योजन ऊपर जाकर है। राजू क्षेत्र का उपरितन आयाम :-भूमि ७ राज और मुख १ राज़ है। भूमि में से मुख घटा देने पर ( -१) - ६ राज अबणेप रहा । अतः जबकि ७ राज की ऊंचाई पर ६ राज को हानि होती है. नबराज पर कितनी हानि होगी ? इस प्रकार राशिक करने से {xt) = राज की हानि प्राप्त हुई। इसे ७ राज़ आयाम में से घटा देने पर 2-1 = * = ६ राज आयाम राज की ऊंचाई के उपस्तिन क्षेत्र वार है। राज से ऊपर के राज अंचे जाकर दूसरा खण्ड है । जो नन्दन वन के स्थानीय है । इसका परितन आयाम : जवकि ७ राजू की ऊँचाई पर ६ राज को हानि होती है, नत्र म राज की ऊँचाई पर कितनी . . . - . -- - २ अथ दूप्रोन्नस्वरूपमाह (न, ५० ) । १ चतुरस्रस्य क्षेत्रफलं ( २०, प.)। ३ ममानवेन ( म०, ५०)। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार १२० हानि होगी ९ इस प्रकार वैराशिक करने पर ( ४ राजू आयाम में से घटा देने पर (१४) क्षेत्र का है। = दूसरे ( ५२ ) खण्ड के ऊपर तीसरा खण्ड ३ राजू ऊँचा है। जो ६२३ हजार योजन के स्थानीय है, क्योंकि नन्दन वन से सौमनस बन साढ़े बासठ (६२३ ) हजार योजन ऊँचा है। गा १७ ) राख की हानि प्राप्त होती है । इसे * राजू का आयाम नन्दनवन के उपरितन = राजू का उपरितन आयाम :-- जबकि ७ राजू को ऊँचाई पर ६ राजू की हानि होती है, तब ३३ राजू की ऊँचाई पर कितनी हानि होगी ? इस प्रकार वैराशिक करने पर ( ३ ) 23 राजू की हानि प्राप्त होती है। इसे ३ राजू आयाम में से घटा देने पर ( राज का आयाम ३ राजू ऊंचे क्षेत्र के उपरितन माग का है । 5 ( 3 ( राजू ऊँचा है। जो सौमनस् वन स्वरूप है । तीसरे खण्ड के ऊपर चौथा खण्ड सौमनस वन के उपरितन क्षेत्र का आयाम : - जबकि ७ राज की ऊँचाई पर ६ राजू की हानि होती है, तब राजू की ऊँचाई पर कितनी हानि होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर ४ राजू की हानि प्राप्त होती है। इसे ३ राजू आयाम में से घटा देने पर राजू आयाम सौमनस वन के उपरितन क्षेत्र का है । ) 52 चौथे खण्ड के ऊपर पांचवां खण्ड ३ राजू ऊँचा है। इसके ऊपर पाण्डुक वन है- जो मौमनस बन से ३६ हजार योजन ऊँचा है । अधोलोक ऊपर में एक राजू चोदाई वाला है; जो पाण्डुक बन के स्थानीय है । = राजू की ऊँचाई पर कितनी हानि होगी ? हाति प्राप्त हुई। इसके अर्थात् राजू को अर्थात् १ राजू आयाम पाण्टुक वन का है । पाण्डुक वन का आयाम : - जबकि ७ राजु की ऊँचाई पर ६ राजू की हानि होती है, त इस प्रकार के त्रैराशिक से (६× ३ ) - राजू की राज् आयाम में से घटा देने पर (१३ - १६) पाण्डुक बन के ऊपर चूलिका है। अतः अधोलोक के ऊपर भी चूलिका बनाने के लिये कहते हैं : नन्दन वन और सौमनस वन पर सुदर्शन मेरु सोधा अर्थात् आयत चतुरस्त्र स्वरूप है । अङ्क संदृष्टि में इन दोनों वनों की ऊंचाई पर राजू प्रमाण है। इन दोनों वनों की आयतचतुरस्त्र स्वरूप करने के लिये निम्नलिखित विधान है :- नन्दन वन की भूमि ( ) में से मुख (६ घटाने पर ६) अर्थात् राजू प्राप्त होता है। इसी प्रकार सौमनस बन की भूमि ( ३३ ) में से मुख (३) घटा देने पर ( ३१ R) अर्थात् राज प्राप्त हुआ । जबकि दो खण्डों पर ! राजू प्राप्त होता है, तब खण्ड पर क्या प्राप्त होगा ? इस प्रकार वैराशिक करने से ( ( १ २x२ = = Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:११७ लोकसामान्याधिकार १२१ राज प्राप्त हुआ। एक खण्ड का भाग प्राप्त हुमा, अत: दोनों वनों के चार कोनों के चार खण्ड। राजू भूमि, • मुख और राजू ऊचाई वाले प्राप्त हुये। इन चारों ( 1 2 ) खण्डों में से एक खपल की भूमि ऊपर और मुख नीचे करके, तथा तीन खण्डों की भूमि नीचे और मुख ऊपर करके स्थापन करने से तल भाग में राजू आयाम, नोदी पर राज आयाम और राजू चाई वाली चूलिका प्राप्त हो जाती है। अधोलोक में मुदर्शन ( मन्दा ) मेरु की रचना : -- - ANM -- - - --- - शान् इस उपयुक्त चित्रण में दो आयतचतुरन और चार विषम चतुर्भुज बने हैं । विषम चतुर्भुजों का क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिये मुख और भूमि को मिलाकर आत्रा करना चाहिये ( पुनः उत्सेध से गुणा करना चाहिये )। तथा आयतचतुरस्न का क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिये भुजा और कोटि का परस्पर में गुणा करना चाहिये। इन छहों क्षेत्रों के क्षेत्रफलों को क्रम से ३, २, १, २, ६ बीर १४ से गुणा करने पर समान छेद ( ३३६ ) प्राप्त होता है । यथा - ४१४३ - 3 ३३ ५ - १३:३१ x १ .x१६ - १३ प्राप्त हो । १६ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ३३६ ३३६ त्रिलोकसार पाथा : ११७ इन्हें परस्पर में जोड़ने पर 18 + 8 + ५४१ + Y: + hit + : अर्थात् ... १६६३ + ११४८ + ५२०३ + ४४८ + ९२८ + १८ = १४ = २८ वर्गराजू मन्दर अधोलोक का क्षेत्रफल प्राप्त होता है। विशेष विवरणयुक्त मन्दर मेरु का क्षेत्रफल :-- १. प्रथम खण्ड का क्षेत्रफल :-प्रथम खण्ड की भूमि ७ राज , मुम्ब ६५ राजू और उन्मेष राजू है। प्रतः +९१ = राजू हुआ। इमका आधा५ x = x : ॐ = स. अर्थात् ५५२ वर्ग राजू प्रथम खण्ड का क्षेत्रफल होता है । २. दूसरे पक्ष का :- दूसरे खपड की भूमि व मुख दोनों ६२ राजू हैं, नथा उत्सेध : राज़ है। अतः ६३ ४ ५ = १ अर्थात् ३, वर्ग राज दूसरे खण्ड का क्षेत्रफल । ३. तीसरा खण्ड :- तीसरे खण्ड को भूमि ६ राजू, मुख राजू और जूमध ३ राज़ है । ____ अतः ६४ + २४ = .. राजू हुआ। इसका आया २२.१x १२. राज । राजू उत्सेध - ५३६. अर्थात् १५१ वर्ग राजू तीसरे खण्ड का क्षेत्रफल । ४ चौथा खण्ड :- चौथे खण्ड की भूमि व मुख दोनों राजू, और उसंध : राज है । अतः ३. ४. = F अर्थात् ११ बर्ग राजू चौथे खण्ड का क्षेत्रफल । ५. पांचवां खण्ड :--पांचवें खण्ड की भूमि ३२ राज, मुख १ राजु और उन्सेध : राजू है। अत: १६+ ( अर्थात् १ राजू ) = x आधा किया -४।२३ ४ ३ उम्मेध = ३६ वगं राज पांचवें खण्ड का क्षेत्रफल २१ वर्ग राजू है। चूलिका :-चूलिका की भूमि राजू, मुम्ब : राजू और उनमेध राज है। अतः + : = १ राजू । १४:( आधा किया) - 3 1 उरमेध = ". वर्ग राज जूनिका का क्षेत्रफल प्राप्त हुआ। इन छहीं खण्डों का योगफल :१२ - +5173 -/- + ३५ + १६८३ + ११४८ + ५२०३ + ४४८ --- ८२८ 1. १८ - ९४०८ ... - नगरान २८ वर्ग राजू मन्दर अधोलोक का क्षेत्रफल प्राR हुआ। ३३६ दृष्य अधोलोक : दूष्य का अ डेरा [ TENT ] होता है। अधोलोक के मध्य क्षेत्र में देरी की रचना करके क्षेत्रफल निकालने को दूष्य क्षेत्रफल कहते हैं । यह रचना निम्नांकित चित्र द्वारा स्पष्ट हो जाती है :-- Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ११७ लोकसामाभ्याधिकार १२३ शन -- रान - ३१ राजू -- एर २राज hits -१४ राजू १ महान मन नगरपन इस दूष्य क्षेत्र में प्रथम क्षेत्र आयतचतुरस्र है, जिसकी भुजा ७ राजू और कोटि १ राज है। दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें और छटवं क्षेत्र विषम चतुरन हैं, तथा इन सबकी कोटि एक एक राज़ है । अन्तिम सातवां क्षेत्र त्रिकोण है जिसकी ऊंचाई राजू तथा आधार एक राज है। गाथा ११६ में अर्घयव का उत्सेध राज कहा गया है। इसको समान छेद के द्वारा ७ राजू में मे घटाने पर (४३ -2) - 14 राजू अवशेष रहता है। अर्थात् प्रथम' चतुर्भुज को भुमि ७ राज, मुख २५ राजू है । उस राजू में से अवयव का उत्संघ है राजू घटा देने पर :- ) : राज दूसरे विषम चतुभुज का मुख प्राप्त होता है । इमी प्रकार पूर्व पूर्व के मुख में से पुनः पुन: अधयन का उत्सध राजू घटाने पर उत्तर उत्तर विषम चतुर्भुज का मुख प्राप्त होता है । मुख और भूमि को जोड़ लब्ध को आधा कर कोटि से गुणा करने पर विषमचतुर्भुज का क्षेत्रफल प्राप्त होता है । सातों क्षेत्रों का क्षेत्रफल : नं. १ का क्षेत्रफल :-७४१ - ७ वर्ग राज नं. २ का :-( + ) ४.४१ = वर्ग राजू नं० ३ का:-(३+%)x x१-१३ वर्ग राजू नं. ४ का:--(३. + 1 x 1 x १ = ६५ वर्ग राजू नं० ५ का :-( 2 + 2) x 1 x 1 = ३१ वर्ग राजू Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ : नं. ६ का ( x 3 x ? प्राप्त हुआ । = + ¥ ) x 1 x ! वर्ग राजू है । +++++ २१ वर्ग राज २१ + ७ वर्गे राजू नं १ का २८ वर्ग राजु दृष्य अधोलोक का सम्पूर्गा क्षेत्रफल 1 कटक सम त्रिलोकसार गाया : ११७ येथे वर्ग राजु तथा नं० ७ का क्षेत्रफल :- + « } -- ८. गिरिकंटक अधोलोक :-- गिरिकटक - गिरि पहाड़ी को कहते हैं। पहाड़ी नीचे से चौड़ी और ऊपर सकरी अर्थात् चोटी युक्त होती है। कटक इससे विपरीत अर्थात् नीचे सकरा और ऊपर चौड़ा होता है । अधोलोक में गिरिकटक की रचना करने से २७ गिरि और २१ कटक प्राप्त होते हैं। जैसे : क सह राज MP4 २० एक करवा कस ४ फोन कटक फरक कटका चार कटक कटक) करला 191 उपारर्स भारत जाह कटक कटक कटक करक छाल नो दस १ चार का चा कटक) 12.07 जी — करक tha I *20% कटक जाजू क्षेत्रफल :- प्रत्येक गिरि व कटक का क्षेत्रफल - भूमि १ राजू, मुख० और उसे राजु है। भूमि १ + मुख १ राजू | इसका आधा (१३) राजु प्राप्त होता है । इसे राजू उत्सेध से गुणा करने पर (x) = वर्ग राजु क्षेत्रफल एक गिरि व एक कटक का प्राप्त हुआ । अधोलोक के क्षेत्र में २७ गिरि-पर्वत हैं। अतः जबकि एक गिरि का क्षेत्रफल वर्ग राजु Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:११८ लोकसामान्याधिकार १२५ है, तो २५ का कितना होगा | इस प्रकार राशिक कर 2x- मर्याद १५१ वर्ग राजू गिरि का क्षेत्रफल प्राप्त हुआ। इसी प्रकार पुनः राशिक करना चाहिये कि --१कटक का वर्ग राजू क्षेत्रफल है, तो २१ कटक का कितना होगा ? इस प्रकार २४ + = - अर्थात् १२३ वर्ग राजू कटक का क्षेत्रफल हुआ। १५१ वर्ग राजू + १२, २० रा० = २८ वर्ग राजू गिरि-कटक अधोलोक का क्षेत्रफल प्राप्त हुआ। अथवा - गिरि कटक दोनों की संख्या ४८ है। जबकि एक खण्ड का क्षेत्रफल २ वर्ग राजू है, तो ४८ खण्डों का कितना होगा ? .४४ प्राप्त हुआ। यहाँ १२ से ४८ को अपवर्तित करने पर ४ प्राप्त हुए जिसे ७ से गुणित कर देने पर गिरिकाटक अधोलोक का क्षेत्रफल २८ वर्ग राजू प्राप्त होता है । इदानीमूर्ध्वलोकक्षेत्रभेदमाह मामण्णं पत्तयं अद्धत्य तह पिण्णट्ठी । एदे पंचपयारा लोयकावेतम्हि णायवा ।।११८।। मामान्यं प्रत्येक अर्ध स्तम्भ नर्थव पिनष्टिः। एते. पञ्चप्रकारा लोकोत्रे ज्ञातव्याः ॥११॥ तामणणं । समीकृतं प्रत्येक पद्धस्तम्भं तथैव पिनष्टिः एते पञ्चप्रकारा अबलोकक्षेत्रे ज्ञातव्याः । भुल १ भूमि ५ जोग ६वले ३ इत्यादिना समीकृतोचलोकाधक्षेत्रफल ३ x ३ मानोय एकस्पताधति ३ ५५ द्वयोः किमिति सम्पात्यापवयं गुणिते सामान्यक्षेत्रफलं २१ भवति ।' भूमी ५ मुखं १ शेषपिरवा ४ प्रवितुर्पोवयस्म । भतुश्चये ४ मििद्वतीयो : दयस्य किमिश्यपवार्य सम्पातितं ३ समानछिन्न करज्ज्वां मेलने कृते अहितीयोपरितनन्यास: :' तत्सम्पात र मेसने २० तदुपरितनध्यासः । चतुर्थोदयस्य चतुश्च ४ प्रोक्यस्य ३ किमियपवार्य सम्पातित प्रस्ताव मेलने उपरितमध्या: । एवमर्धोक्यस्य चय : मेत्र तत्तव मो स्फेटने : उपयुपरि व्यास स्यात यावत्पञ्चवलं २ २४ । अर्थचतुर्कवयस्य : चतुश्वये ४ एकोषस्य १ किमिति सम्पातितं अधस्ताव स्फेटने लोकाग्रव्यास: स्यात् । मुख भूमिजोगदलेत्याविना अद्वितीयोवयाविक्षेत्रफलमानीय सर्वेषां मेलने कृते २१४ प्रत्येकक्षेत्रफल भवति २१ । प्रस्तम्भयोः क्षेत्रफलं सुगम । मुह १ भूमीण ५ विसेसे ४ उदहिये : त्यादिना विवड्वायुपरितनमवभूमिध्यासमानीय 3 १७२४२२११ विबढोपरितनम्यासे १० समच्छेदेन मध्यमै करज्जु स्केटरित्या उभयभाग १ अथ प्रत्येकक्षत्र स्वरूप निरूपयति ( व . )। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ त्रिलोकसार गाथा:११८ स्यतावति एकमागस्य सिमिति राषिक कुत्या प्रक्षित । प्रधोदिक्तसशत्रिभुजभूमिः प्रपोविषड्ढोपरिमण्यासं : समछिन्नविरज्यो , स्फेटविश्वा उपाधते : बहिः सूचीभूमिः ॥११॥ ऊर्ध्व लोक के क्षेत्रफल गमारने की अमेणा देवगरे :- गायार्थ : - सामान्य अवलोक, प्रत्येक ऊर्चलोक, अर्धस्तम्भ ऊज़लोक स्तम्भ ऊवलोक और पिनष्टि अध्वंलोक, इस प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा कम्लोक के पांच भेद जानना चाहिये ।।११।। विशेषार्थ :--सामान्य को समीकृत भी कहते हैं। १. समीकृत २. प्रत्येक ३. अर्धास्तम्भ ४ स्तम्भ और ५. पिनष्टि क्षेत्र की अपेक्षा ऊर्ध्वलोक के पाँच भेद जानने चाहिए। १. सामान्य ऊर्ध्वलोक :-- जिस छात्र को हीनाधिक चौड़ाई को समान करके क्षेत्रफल निकाला जाता है उसे सामान्य क्षेत्रफल कहते हैं । ऊध्र्वलोक के अर्धा भाग की भूमि ५ राज , मुख एक राज और ऊँचाई ३. राजू है । भूमि और मुख को जोड़ कर माधा करने से (५ । १ = ६ - २) == ३ राजू प्राप्त हुआ। इसमें ऊंचाई का गुणा करने से (x). वर्ग राजू प्राम होता है। जबकि १ अर्धा क्षेत्र का क्षेत्रफल ३१ वर्ग राजू है, तो दो अर्धा क्षेत्रों का क्षेत्रफल कितना होगा । इस प्रकार राशिक करने पर (२०४३) = २१ वर्ग राजू सामान्य ऊन लोक का क्षेत्रफल प्राम हुआ। जैसे : २. प्रत्येक ऊर्ध्वलोक :-- __ भिन्न भिन्न युगल का क्षेत्रफल निकालने को प्रत्येक क्षेत्रफल कहते हैं । बहालोक के मागीप भूमि ५ राजू मुस १ राजू और ऊँचाई ३३ राजू है । तथा प्रथम युगल की ऊँचाई ११ राजू है । भूमि ५-१मुख - ४ राजू अवशेष रहा । जवकि राजू पर ४ राजू को वृद्धि होती है, तो १६ राजू पर कितनी वृद्धि होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर (5xx ३) = १२ राजू वृद्धि प्राप्त हुई । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 1 ११८ लोकसामान्याधिकार १२७ इसे । राजू व्यास में जोड़ने से (३+३) = 3 राजू व्यास प्रथम युगल के समीप है। रा युगल भी प्रथम युगल से १३ राजू ऊंचा है, अत: +३ = वगं राजू प्रमाण व्याम सानत्कुमार माहेन्द्र युगल के समीप है । यहाँ से ब्रह्मलोक ३ राजू ऊंचा है । अतः जबकि राजू की ऊँचाई पर ४ राजू की वृद्धि है, नब : राजू पर कितनी वृद्धि होगी। । ४ x 1) = राजू वृद्धि हुई । इसे १. वर्ग राजू में जोड़ने से (3. + ) = १५ या ५ वर्ग राजू व्यास ३ रे युगल के समीप है । इसके आगे प्रत्येक युगल राजू ऊंचा होने से हानि का प्रमाण भी राजू ही होगा। अतः १५ - = 3 वर्ग राज व्यास लान्तर कापिष्ट युगल के समीप, - - वर्ग राजू व्यास शुक्र महा शुक युगल के समीप, ५. -3 - 33 वर्ग राजू ज्यास सतार-सहस्रार युगल के समोप, - - वर्ग राजू व्यास आनत-प्रागात युगल के समीप और -3 = १ वर्ग राजू ग्यास प्रारण-अच्युत युगल के समीप है । यहाँ से लोक के अन्त तक को ऊँचाई एक राज है, अतः ३६ को ऊँचाई पर राज की हानि है, तब एक राज की ऊंचाई पर कितनी हानि होगी? इस प्रकार राशिक करने पर हानि का प्रमाण (Fxx.)- राजू प्राप्त हृया। इसे " वर्ग राजू में से घटाने पर (१५.-) = ; अति १ राजू का व्यास लोक के अन्त भाग का है। इस प्रकार पूर्व पश्चिम की अपेक्षा लोक का व्यास होनाधिकता को लिये हुये है। जिसका चित्रमा निम्नप्रकार है : मुखभूमिजोगदले सूत्रानुसार क्षेत्रफल :-- [ सम्बन्धित चाट अगले पृष्ठ पर दलिये ] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ बिलोकसार गाथा:११८ - | अर्धा | मुख योगफल भाग फल युगलों के समीप | भूमि ऊंचाई | क्षेत्रफल | = क्षेत्रफल + लान्तय का + | सौधर्मशान के समीप + १ वर्गराज सानत्कुमार मा० ॥ ब्रह्मब्रह्मोतः ॥ * + | -"x I = x 2 = | |- २६१ लास्तव का० . |+ | - | x x :: = = २ शुक्र महा० ...+ !... | ५५ ३३६x || - | 2: - २ सतार मह० - ३३.१ ३७. - ! - ४ .३ = १४ - १ भानत प्रा० . +९१-७४ :=1x | ३ = = १: आरण अच्युत , | 3+ ||:- | "x . ३='x' : - I | १३४ उपरिम क्षेत्र - 1 | 14 । २२४ १७ + या ४ : २१ वर्ग राज - ---- अथवा :- ++ + + + + + + ५३ _ ३९ + ७५ + ३३ - ३३ :- २० - २५ -|- २१ + १७ + २२ _ २६४ वर ...' x xxxxxxxx . + = २१ वर्ग राजू प्रत्येक ऊर्ध्व लोक का क्षेत्रफल। ३. अर्धस्तम्भ ऊर्बलोक : __ ऊर्वलोक के आकार को मध्य से छेद कर निम्नप्रकार स्थापन करने में जो आकार विशेष बनता है, उस अस्तिम्भ कहते हैं। बस नाड़ी को चौड़ाई के रूप से वो खपत करने पर राज. चौड़े. ७ राज ऊंचे 'अ' और ब' नाम के दो अहसम्म प्राप्त होते हैं। इन दोनों को एक दूसरे से २ राजू की दूरी पर स्थापित करना चाहिये । शेष क्षेत्र को क ब च प्रौर छ इन चार भागों में विभाजन कर ख को उलट कर हर को दाई Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना SAR गाथा: ११५ लोकमामान्याधिकार १२८ और एवं क को उलट कर च की दाई मोर स्थापन करने से ७ राज ऊँचा और २ राज चौड़ा आयतक्षेत्र बन जाता है। इसको उपयुक्त दोनों अर्धस्तम्भों ( अ ब ) के बीच में रखने से अर्धस्तम्भाकार बन जाता है; क्योंकि 'अ' 'ब' अर्धस्तम्भ है । अयांत सम्भस्वरूप लोक नाड़ो के अर्धा भाग हैं । जैसे:-- क्षेत्रफल :- 'म' एवं 'छ' दोनों अर्षस्तम्भों का क्षेत्रफल :- राजू ऊंचाई : राजू चोड़ाई 11 :/= राजू एक अर्धस्तम्भ का क्षेत्र है। x =७ वर्ग राजू क्षेत्रफल दोनो अस्तिम्भो का हुआ । आयताकार क्षेत्र ७ राजू ऊंचा और २ राजू चौड़ा है । अतः ७ - २ = १४ वर्ग गज क्षेत्रफल हुआ। १४ वर्ग राजू + ७ वर्ग राजू = २१ वर्ग राज अस्तिम्भ ऊर्ध्व र लोक का क्षेत्रफर प्राप्त हुआ । म्तम्भ क्षेत्रफल :--- ऊध्यलोक मध्य में ५ गज चौड़ा है। जिसमें एक गण चोडी त्रस नाड़ी है, इस त्रस नाही के दोना और दो दो रान क्षेत्र अवशेष रहता है। अस नाही में दोनों और एक एक राजू हट कर कम्यअध: : राज लम्बी रेखा द्वारा खपड करने पर दोनों ओर दो दा लण्ड हो जाते हैं। इसमें में बाह्य की ओर बाले प्रत्येक खण्ड को मध्य में पूर्व-पश्चिम रेखा द्वारा खण्ड करने से दो दो खण्ठ हो जाते हैं । यथा : स्त्रिनं. निन खंडन-२ बंडन.२ खंडन F N * * * इस उपयुक्त चित्र नं. २ के अनुसार प्रम नाहो को लम्भ के मध्य भाग रूप से स्थापन कर इसके दोनों पावों में दोनों अन्नरङ्ग बण्ड नं.१ व २ को स्थापन करना चाहिये। बस नं. १ के १७ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकगार भाषा:११८ ऊपर तथा नीचे खण्ड नं. ३ एवं ४ को पलट कर रखना चाहिये। नया इसी प्रकार पडतं. के ऊपर-नीचे खण्ड ने. ५ व ६ को पलट कर रखने से ३ राजू चौड़ा और राज ऊँचा पूर्ण स्तम्भ बन जाता है, जिसका क्षेत्रफल ३ x ७ = २१ वर्ग राज प्रान होता है। पिनष्टिः सर्वलोक :-- पिनादि का अर्थ :-पिनष्टि का अर्थ पड करना है । अतः अलोक में खड़ी की रचना द्वारा क्षेत्रफल ज्ञात करने को पिनष्टि क्षेत्रफल कहते हैं। पिनष्टि की रचना !-मध्व लोक में मर्वप्रथम स्वर्ग युगलों की रचना वारस खट्र करना चाहिये । पुनः अस नाड़ी से बाहर पूर्व व पश्चिम को और एके एक राजू जाकर ऊपर-नीचे की ओर व करने से उन्हीं स्वर्ग युगल खण्डों के पूर्व दिशा की ओर त्रिकोणादि आकार वाले ११ खण्ड तथा समकोण आयताकार पार खण्ड हो जाते हैं । इमी प्रकार इतने ही खण्ड पश्चिम दिशा में भी हो जाते हैं। ऊध्व लोक की भूमि ५ राजू और मुख एक राज है। भूमि में में मुख घटाने पर । राजू अवशेष रहते हैं, इसमें ऊँचाई आदि का गुणा करने में अवलोक की उपरितन नौ भूमियों का व्यास कमश: ,३ ,७,२३, "और है। -- artan -- राज +-- 7 . Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया। लोकसामान्याधिकार १३१ ज्यास में से १ राजू पटा देने पर ( -1) - १३ राज़ शेष रहा। दो पाव भागों की चौड़ाई : राज है, अतः एक भाग का (२४)राजू प्राप्त हुआ। यह प्रथम स्वर्ग के समीप 'स' त्रिभुज की चौड़ाई है। प्रथम स्वर्ग के उपरितन ध्यास को ३ राज ( २ ) में से घटाने पर (.-.)- राजू शेष रहा । इमका प्राधा (२-३ - राजू बहि सूची क्षेत्र की भूमि हुई। अथ त्रिभुजोदया गाथाद्वयमाह ज्जुिद्गहाणिठाणे माह दो जदीह एक्किम्से । किमिदि तिरामियकरण फलं दलूणं विबादमओ ।। ११९।। रज्जुद्विकहानिस्थाने अर्धचतुर्थोदयो यदीह एकस्य । किमिति राशिककरणे फलं दलोन त्रियाहृदयः ।।११।। रज्जु । रज्जुहिक २ हानिस्याने अर्धचतुर्थोक्यो : यदि तदस्य १ किमिति राशिककरणे फल । बलविवड़योः : ३ प्रएिविक्षेत्रत्रयोक्य: सत्फलं समछि नवलन्यून सिहा. त्रिधाहवयः ॥११॥ अब दो गाथानों में त्रिभुज को ऊंचाई बताने हैं गावार्थ :- ऊध्वंलोक मध्य में ५ राजू चौड़ा है, और नीचे १ राजू है अतः राजू पर एक ओर २ राजू की हानि होती है, तब १ राजू की हानि (x) - राजू पर होगी। इसमें से राजू घटाने पर ( -३) = * राजू त्रिभुज की ऊँचाई है ।।११।। नोट :-चित्र में राजू 'क' त्रिभुज की ऊंचाई है। विशेषार्थ :- राजू की ऊंचाई पर २ गज की हानि होती है, तो (:-:) राजू की ऊंचाई पर १ रा को हानि होगी। : -: = : राजू 'क' त्रिभुज की ऊंचाई हुई। निभुजदयूणुइयुच्चं सूईग्वेक्षम्म भूमिमूह सेसे । भूमीतप्कलहीणं चउरमधगफलं सुद्ध ।।१२० ।। त्रिभुजोदयोन मुभयोच्चं मूवीक्षेत्रस्य भूमि मुखगेपे। भुमितत्फल ही चतरमधराफल शुद्धम् ॥१२०।। सिधु । त्रिभुजोबन : अन: समुन्निविवड्वोधयः बहिः सूचीक्षेत्रस्पोमयः भूमिमुखयो Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ त्रिलोकमार गाथा : १२० पोषभूमिः । तत्फलहीनं शुश चतुरस्रषराफलं भवति । समच्छिन्नविरम्जु, द्वितीयदिवोपरितनम्यासे अपनीय प्रवशिष्टे अषिते । मन्तस्त्रिभुणभूमिः तत्र तत्र म्यासे २५३११ सत्रिशु .. मपनीय १४ : 'धिते सत्रिभुजभूमिः। एजुड़गेन्याविना अंशिकफलमानीय , तत्र समच्छिानविल , न्यूने । उपरितनान्तःसूच्युदयः । तदुक्ये : सचिबमवलोक्ये ३ अपनीते प्रवशिष्टे : उपरितनबहिःसूरपुरलेषः । तदुपरितनध्यासं . समध्छिन्नविरवा २' मपनीय प्रवशिष्टे प्रधिते बहिः सूत्रोभूमिः । पुनरपि तयासे 3 एक. समछिन्नरज्जु : मपनीय अवशिष्टे अषिते ; उपरितनविभुजभूमिः । एतदुपरितनम्यासे, एकराजु मपनीय अवशिष्टे धिते । अप्रसूचीभूमिः । मुख ० भूमि : जोगवलेत्याविना मघउपसानमहिःसूचीक्षेत्रफलमानीय सत् योरस क्षेत्रफले भुज ३ कोटि धेत्याविना मानीते ३ : मष्टाविंशत्या: समच्छिन्ने १३६ स्फेटयित्वा एकक्षेत्रस्येतावति यो: किमिति सम्पात्यापतिते ३१अषस्तनोपरितनबहिः सूरूपन्त क्षेत्रफलं भवति । इतरेषा क्षेत्राणां फलं पुसभूमिजोगवलेत्यादिमानीय चतुभिः समानछेवं कृत्वा परस्पर मेलयिस्वा भक्ते घशरज्जव: मध्यसप्तरज्जवः पावलानां धतूरज्जवः। एवं सर्वेषां मेलने पिनष्टि क्षेत्रफल २१ भवति ॥१२॥ गाथा :-मानस्कुमार गुगल की ऊंचाई ३ राज है, इसमें मे त्रिभुज 'क' की '; रान ऊँचाई घटाने में सूची क्षेत्र की ऊँचाई (३-") - राजू हई । भूमि मुख में अवशेष भुमि त्रिकोन क.' है, हसका क्षेत्रफल दूसरे युगल की प्रसनाड़ी के बाद भाग के क्षेत्रफल में में घटाने पर शेष चरनक्षेत्र का क्षेत्रफला वर्ग राजू होता है ।।१२०।। विशेषार्थ :-मानत्कुमार युगल की राज ऊँचाई में में 'क' त्रिभुज को " राजू ॐनाई घटाने पर (३ -:):- ३ राजू बानन सूची क्षेत्र की ऊदाई प्राप्त होती है । ( एक राज ) भूमि में म गन मुख कम कर देने पर शेष : राजू बाह्य सूत्री क्षेत्र की भूमि रह जाती है । शुद्ध चतुरस्त क्षेत्र ( ३ राजू ऊँचे और १ राजू चौड़े ) के क्षेत्रफल में से बाहा सूची क्षेत्र ( राजू ना, रानू चौड़े ) या कोरपन कम कर देने से 'व' क्षेत्र का क्षेत्रफल प्राप्त होता है। राज (२.) को दूसरे युगल के ध्याम में से घटाकर अवशिष्ट का आधा करने पर अन्नम त्रिभुज प्रर्थात् 'क' त्रिभुज की भूमि प्राप्त होती है । जैसे : -- - ४.३ = राज ( 'क' ) त्रिभुज को भुमि, न – २ x : - राजू 'ग' क्षेत्र की भूमि, . - २ = x ३ - राजू 'घ' क्षेत्र की भुमि, , . x; - राजू 'च' क्षेत्र की भूमि, और, - '-x=3 राजु 'छ' क्षेत्र की भूमि है । गाथा . १ अवशिष्टे (२०, ५०)। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: १२० लोकमामाभ्याधिकार १३३ ११९ में राशिक फल से प्राप्त हुये है में से ३ अर्थात् कम करने पर (:- )- : राजू उपरितन अन्तः सूची क्षेत्र 'छ' की ऊंचाई प्राप्त होती है । ऊंचाई ३ राजू में से राजू घटाने पर (३-१)= राजू उपरितन बहिःसूची वाले क्षेत्र का उत्पध प्रारहा। उपरितन व्यासको ३ राजु । ) में से घटाने पर (33-3 -3 राजू शेष रहा । इसका आधा ( -1)= 3 राजू बहिःसूची की भूमि हुई । पुनः उसी राजू व्यास में से रान घटाने पर { १ -3) ... राजू हुआ तथा आधा करने पर 3 x = ! 'र' त्रिभुज की भूमि हुई। उपरिलन व्यास :" में से १ राज (:) घटाने पर (:"-:) : राजु अवशेष रहा। इसका आधा (5 2) - : राजू 'य' क्षेत्र की भुमि प्राप्त हुई। 'मुखभूमिजोगदाले' सूत्रानुसार नीचे और ऊपर के बहि सुची क्षेत्र का क्षेत्रफल -: भूमि + ० मुख = x आधा किया ) = १२ में : राज ऊंचाई से गुणा करने पर ( x): वगं राज् नीचे और ऊपर की बाह्य सूचियों का क्षेत्रफल है। इन दोनों मूचियों का अन्तः क्षेत्रफल जो कि भुज क्रांटि धादि मुबानुसार प्राप्त हुआ है, वह 'व' क्षेत्र का और 'ल' क्षेत्र का ३ है । इस २८ से गुरिगल करने पर ओर प्राप्त होता है । अन्तः सूची क्षेत्रफल और 8 में मे बहिःसूची क्षेत्रफन और घटा देने पर ( -1)-4 'क' का क्षेत्रफल, नथा। - राज 'ल' का क्षेत्रफल प्राप्त हुआ। एक एक क्षेत्र का राजू और राज है, तब दो दो क्षेत्रों का कितना होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर (६३ ४३) = एवं ( x) -- २६ राजु अधः और उपरितन बहिःमुचो एवं अन्तरङ्ग क्षेत्र का क्षेत्रफल दृमा । अर्थात् ६ दो वक्षेत्रों का और दो 'ल' क्षेत्री का क्षेत्रफल प्राप्त हुआ। 'मुखभूमिजोगदले' सूत्रानुसार अन्य अंगों का क्षेत्रफल भी निम्न प्रकार है : [सम्बन्धित चार अगले पृष्ठ पर देखिये ] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ क्रमाङ्क क्षेत्रों के नाम १ क २ ख ३ ग ४ घ ५. च ७ द 28 य र • + 5 = | = = 3 + 3=| + 0 = SWAP - + 봄시 3+ | 양씨ᅧ +j = 3 × | = 3 x 143 5 +! - छ appy C x x امو ¥× ३=| 3×| #> x=x }= 3x 3 x | २=| xx ? = 3x ६. स्त्र १० व ११ स १२ आयता १+१= २ x ३ कार १३ स नाड़ी १ + १ = २४ = त्रिलोकसार X := x 7 ३= 3x ३= 1 + 3 = $ x 3 x = । क्षेत्रफल x दोनों भागों के ११, ११ क्षेत्रों के क्षेत्रफल का + + + + + + २५ + २४ + २४ १४ १४ ९ 3×1 ३ × १ = १ x ३ ! X ६६ x दो क्षेत्र हैं || ७ × ३६ क्षेत्र ४ ३× ६क्षेत्र hr योग : ३५ वर्ग बाजु दोनों ओर का १ ० 19 सम्पूर्ण क्षेत्रफल "1 SP " 27 H P # " गाया : १२० + + + 3 T ॐ B M 10 # 11 * 1F 39 १६ + १ + १६ +२०+२७ + ०३ - ३६ २८ राजू अर्थात् दोनों भागों के ११ ११ क्षेत्रों का क्षेत्रफल १० राजू + दोनों भागों के ४, ४ आयताकार का क्षेत्रफल ४ राजू + मध्य की नस नाही का क्षेत्रफल ७ राजू राजू । पिनष्टि लोक का सम्पूर्ण क्षेत्रफल २१ वर्ग राजू प्राप्त हुआ । २१ वर्ग = Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसामान्याधिकार अतो लोकस्य पूर्वापरेण दक्षिणोत्तरेण च परिषि दर्शयन्नाहपुरुषावरेण परिही उगुदाल साहियं तु रज्जुणं । दपिखणउत्तरदो पुण पादाल होंति रज्जूर्ण || १२१ ।। पूरे परिधिः एकोनचत्वारिंशत् साधिकं तु रज्जुनाम् । दक्षिणोत्तरतः पुन: द्वाचत्वारिंशत् भवन्ति रज्जूनाम् ॥ १२१ ॥ गाथा १२१ पुरुषः । पूर्वापरेण परिभिः एकोनमिशस् ३० साधिका स्वारिशद भवन्तिनाम् ॥१२१॥ विशेषाचं :- लोक की पूर्व पश्चिम परिधि ३९६२४ राजू तथा दक्षिणोतर परिधि ४२ लोक की पूर्व पश्चिम और दक्षिणोत्तर परिधि को दर्शाते हुए कहते हैं गावार्थ :- लोक की परिधि पूर्व पश्चिम अपेक्षा ३९६६३ राजु है तथा दक्षिणोत्तर ४२ राजू है ।।१२।। राजु है; कारण कि लोक दक्षिणोत्तर सर्वत्र ७ राजू चौड़ा है। ( ऊपर भी ७ राजू चौड़ा है और नोचे भी ७ राजू चौड़ा है ) लोक की ऊँचाई १४ राजू है अतः ऊपर नीचे की सात सान राजू चौड़ाई और दोनों पार्श्व भागों की १४, १४ राजू ऊँचाई जोड़ने से (७+७ + १४+ १४ ) ४२ राजू दक्षिणोत्तर परिधि होती है । दक्षिणोनर परिधि का चित्रण: ४ राज् ७२७ राज् १.श. ७ राज १रा. राजू देवराजू रा जुना, सिलोसरतः पुन १३५ ७ राजू त आजू Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकमार गया : १२२ साधिकरवं कथमिति चेदाह भुजकोरिकदिममासो कण्णकदी होदि मरासिम्स । गुणयारभागहारा वर्गाणि होति णियमेण ||१२२॥ भुजको टिकृतिममास: कागति. अति गरायो । गुणकारभागहारो वगो भवन नियमेन ॥१२२।। मुज । भुज ७ कोटि ३ कृति YEE समास: ५८ कर्णकृतिभवति । एकपात्यताति ५ वयोः पायोः किमिति वगराशेगुणकारभागहारो वर्षात्मको भवतः ८२२ नियमेन । एतत संगुण्य २३२ मुले होते १५ प्रबोलोकस्य साधिकरवमभूत् । भृज कोटि २ कृति ॥ ४ चमिस्सम छेडेन समासे कर्णकृतिः एकपाश्यस्येतावति चतुर्णाम् ४ सिमिति सम्पत्यापवयं गुणायित्वा २६० य मूले गृहीते १ मध्यसोकस्य साधिकायमभूत् । मिलितोमयपरिधि १५ + १६ रज्जुषु ३१ प्रपोलोकाषः परिधि: ७ । ऊध्वंलोकपरिधेश्च १ मेलने ८ एकोनचत्वारिंशत् ३६ प्रधिकोभयहारा ३०३२ वर्षीकृत्य १५०१६ सान्यामन्योन्यमंशको FATHIोधमाको १६४७ १५४ गुणपिया . सम्मेस्य १६४३० १५४३२ पतुभिरपरतने उभयलोकाधिक्यं स्यात् । पक्षि गोसरपरिधिः सुगम: ॥१२२॥ पूर्व पश्चिम अपेक्षा { लोक की ) परिधि साधिक ३१ राज़ कैसे है ? उसे ज्ञात करने के लिए करणसूत्र कहते हैं :-- गाथा :-भुजा और कोटि के वर्ग को परस्पर जोड़ने में करण का वर्ग होता है । वर्ग पशि का गुणकार व भागहार नियम से वर्गरूप ही होता है ।।१२२।। विशेषार्थ :--अधोलोक में बस नाड़ी के दोनों और अ और ब दो समकोण त्रिभुज है। प्रत्येक त्रिभुज की भुजा ७ राजू और कोटि ३ राजू है । अत: दोनों का वगं अर्थात् (७) + (5) - करण का बर्ग ( ४६ वर्ग गजू + १. वर्ग राजू ) - ५८ वगं गन प्राप्त हुआ । एक पार्श्व भाग का ५८ वर्ग गजू है तो दोनों एवं भागों का कितना होगा ? ऐसा पूछने पर २ के वगं ( २ (२)= 1 का गुणा करना चाहिए क्योंकि वर्ग राशि का गुणकार वर्गमम हर होता है, अतः ५८ ४ ४ -- २३२ वर्ग राजू हुआ। २३२ का वर्गमूल -मोटा मोटि ---- राज------ १५१ राज है। यही अधोलोक के दोनों त्रिभुजों के करों का परिधि है। -- Siday --:जा हवंति (म.)। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक सामान्याधिकार १३७ राजू और कोटि २ राजू + ( २ ) * **+ - राजू है, तो ४ त्रिभुज में (४ x ४ ) अध्यलोक में स नाड़ी के अतिरिक्त क ख ग और ध ये चार समकोण त्रिभुज हैं। प्रत्येक त्रिभुज की भुजा है । अतः प्रत्येक त्रिभुज के करण का वर्ग (5) र्व "राजू हुआ। एक त्रिभुज का का कितना होगा? इस प्रकार वैराणिक कर = १६ का गुणा करना चाहिए, क्योंकि वर्गराशि का गुणकार वर्गरूप ही होता है, अत. ६५ x २६० वर्ग राजू प्राप्त हुआ। २६० का वर्गमूल १६५ ५ लोक के चारों करों की परिधि है । लोक ऊपर १ राजू चौड़ा और नोचे ७ राजू चौड़ा है, अतः ७+ १ = ८ राजू हुआ। क एवं अधोलोक की साधिक (ॐ) परिधि के बिना शेष परिधि ( १५ + १६ ) ३१ राजू में ३९ राजू होते हैं। साधिक दोनों राशियों (ॐ ≠ है । कर इन्ही साविक राशियों के अंशों से समच्छेद करने पर जिनका गुणनफल ( ओर ( राजू है। जो = = के राजू मिलाने से (१५ +१६+ ८ ) (३०, ३२ को आधा ( १५, १६ ) XXप्राप्त होते हैं, है। इन दोनों का जोड़ है। इसे ४ से अपवर्तित करने पर राजू दोनों लोकों के अधिक का प्रमाण प्राप्त होता है । इस प्रकार लोक की परिधि पूर्व पश्चिम अपेक्षा राजू प्रमाण है । अलोकपरिवेष्टितत्रायुस्वरूपादिनिर्मायार्थमाह गाथा १२३ वर्ग गोमुचाणाणावणाणवणंधुघणतगुण हवे । बादाणं वलयतयं रुक्खम्य तयं व लोगस्स ।। १२३ ।। गोमुत्रमुद्गनानावर्णानां घनाम्बुधनतनूनां भवेत् । वातानां वलयत्रयं वृक्षस्य त्वगिव लोकस्य ॥ १२३ ॥ = गोमुल। गोमूत्र मुगमानाबानां धनोबंधिधन वाततवातानां वलयत्रयं लोकस्य भवेद वृक्षस्य स्वमिव ॥ १२३॥ लोकको परिवेष्टित करने वाली वायु के स्वरूपादि का निर्णय करने के लिए कहते हैं -- गाथार्थ :- जिस प्रकार वृक्ष स्वच् (छाल) से वेष्टित रहता है, उसी प्रकार लोक तीन वातवलयों से वेष्टित है। तीन तहों के सदृश नर्वप्रथम गोमूत्र के वबाला घनोदधिवातवलय है । उसके पश्चात् मूंग के वाला घनत्रातवलय है और उसके पश्चात् प्रनेक वर्णों वाला वनुदातवलय है ।।१२३॥ ૮ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ त्रिलोकसार गाथा : १२४-१२५० ____ विशेषार्थ :-वृक्ष की छाल जिस प्रकार सम्पूर्ण वृक्ष को वेषित किए होती है उसी प्रकार सम्पूर्ण लोक को वेष्टित करने वाले तीन वानवलय हैं। १. धनोदधिवात बलय २ धनवातवलम और ३. तनुवातब लय । घनोदधिवानवलय गाय के मूत्र महा वर्णवाला है। धनवातवलय मूग ( अन्न ) के मइश वर्गवाला है और ननुवान वलय अनेक प्रकार के रङ्गों को धारगा किए हुए है। अथ नदायूनां बाहुल्यनिर्णयाश्रमाह जोयणवीमसहम्मं बहलं वलयनयाण पत्तेयं । भृलोयतले पासे हेडादो जाब रज्जुत्ति ||१२४।। योजनविधमहन बाहान्यं वल यत्रयाणां प्रत्येकम् । मुलतले - जबता 1 जुनि १२४ जोपण । योजनविशतिसहस्र माहत्यं बलपत्रमाण प्रत्येकम भवेत् । कुत्र कुहिये। भुगी तले लोकताले पार्वे प्रस्तावाववेका रज्जुस्तापत ॥ उन वातवलयों के बाहल्य का निर्णय करने के लिए कहते हैं : गायाप:-लोकाकाश के अधोभाग में, दोनों पावभागों में नीचे से लगाकर एक राजू की ऊँचाई पर्यन्त तथा आठौं भूमियों के नीचे तीनों वातवलय (प्रत्येक ) बीस बीस हजार मोटाई वाले हैं ॥१२४॥ विशेषार्थ :-लोकाकास के अघोभाग में, दोनों पार्श्व भागों में नीचे में एक राजू ऊंचाई पर्यन्त अर्थात नियाद स्थान तक एवं आठों भूमियों के नीचे नीनों वातवलय बीस बीस हजार मोटे है । अथोपरिमवायुबाहुल्यनिर्णयाधमाह सचमखिदिपणिधिम्हि य मग पणचचारिप णचउकतियं । तिरिये बम्हे उड्ढे अचमतिरिए च उचकमं ॥१२॥ सप्रमझिलिप्रणिधौ च सन पद्ध चतुष्क पश्च चतुटकं त्रिकम् । निरश्चि ब्रह्मे ऊः सप्तमतिरश्चि च उक्तनमः ।।१२५।। सत्तम । सतमक्षितिसमीपे च वायुबयाणां यथासंख्येन सप्त ७ पक्ष ५ ष्क शल्यं, तिर्यकशितिपरिणको पंच चतुष्क त्रिकं बाहुल्यं । ब्रह्मलोकोऽयंलोकमरिणषो पुर: सप्तमतिक्षितो उक्तकमः । इवानों सप्तममितिमारभ्य तिरंगभूमिपर्यन्तं मध्यमितोमा हानि - मुह १२ भूमोरा १६ विशेसे ४ उसय ६ हृतेत्याविना हानि मानीय मूमौ १६ एकं निहास्य १५ समधिने तस्मिन् तवानि इफेट १ बाहस्पं ( म०)। २ महम क्षितिसदृशे ( म.)। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न गाथा : १२५ लोकमामान्याधिकार यिरवा पतिले षष्ठभूपरिणधिवायुवाहुल्यं स्यात् १५३तक १ गृहीत्वा तयानमेव तथा स्फेटविश्वा पवर्य : प्रासन विभागमेलने पंचभूषायुवाहल्यं स्यात् १४ । एवमेव सियालोकपर्यन्त पायुहा निबाहुल्यं भातम्यं १४।१।१२।१२ । इत अबलोकवायुचयं मुख १२ भूभ्योः १६ विशेष कृस्वा ४ माटोवपस्य चतुश्चये ४ अद्वितीयोदयस्प कियानुवय इति सम्पास्मानीय तद एताब मुझे १२ समयेदेन संयोज्य भक्त १३३ विबारिणधिवाघुबाहुल्यं स्यात् । एवमेव तत्र तत्र पृथक पृयाशिकविधिना उपस्तिनततायुवाहानिबाहुल्यमानयेत् ॥१२॥ . . अब उपरिम बायु के बाहल्य का निर्णय करने के लिये कहते हैं :: गापार्ष:-दोनों पाश्वं भागों में एक राजू के ऊपर सप्तम पृथ्वी के निकट धमोदधिवातवलय सातयोजन, धनवातवलय पाँच योजन और तनुवातवलय चार योजन मोटाई वाले हैं । इस सप्तम पृथ्वी के ऊपर क्रम से घटते हुए तिर्यग्लोक के समोर तीनों वातवलय क्रम से पांच, चार और तीन योजन | बाहुल्य धान धा यह नोट नाम से बने इए, सप्तम पृथ्वी के निकट सरश सात, पांच और चार योजन बाहृल्य वाले हो जाते हैं तथा ब्रह्मलोक से क्रमानुसार हीन होते हए तीनों दातवलय ऊधलोक के निकट तिर्यग्कोक सहश पाँच, चार और नीन योजन बाहुल्य वाले हो जाते हैं ॥१२॥ __विशेषार्थ:-तोनी वातवलय यथाक्रम सप्तम पृथ्वी के निकट सात, पांच और चार योजन बाहुल्य वाले, तिर्यग्लोक के निकट पचि, चार और तीन योजन बाहुल्य वाले, ब्रह्मलोक के निकट सात, पांच और चार योजन बाहल्य वाले तथा ऊर्वलोक के निकट मध्यलोक सहश पांच, चार और सीन योजन बाहुल्य वाले हैं। ___सप्तम पृथ्षो से नियंग पृथ्वी पर्यन्त मध्यम पृध्वियों के वातवलयों का प्रमाण :- सप्तम पृथ्वी के निकट तीनों पत्रनों के बाहुल्य का प्रमाण १६ (७ + ५ + ४ ) योजन है, यह भूमि है । तथा तियेगलोक के निकट १२ (५ + ४ + ३ ) योजन बाढल्य है यह मुख है। भूमि में से मुख घटाने पर (१६-१२) = ४ योजन अबशेष रहे । सालबी पृथ्वी से तिर्यगलोक ६ राजू ऊंचा है, अतः अवशेष रहे ४ योजनों में ६ का भाग देने पर ( ४ :- ६ ) = 1 योजन प्रतिप्रदेश क्रम से एक राजू पर होने वाली हानि का प्रमाण प्राप्त हुआ। १६ भूमि में से एक निकालकर उम एक को भिन्न स्वरूप करने में (x) हुये । इममें से योजन हानि घटाने पर (-) = ३ योजन शेष रहे। इन्हें २ से अपतित करने पर हुआ, इसको । १६ – १) = १५ में मिलाने से १५६ योजन होता है. अत. षष्ठ पृथ्वी के निकट १५६ मोज न तोनो पवनों का बाहुल्य है । पुनः १ निकाला, उस एक को समुकिछन्न ( )कर योजन हानि घटाने पर योजन को प्राप्ति हुई, इसे पूर्वोक्त विभाग में मिलाने में (+3 ) = योजन हये । अर्थात् १५४ - १ = १४३ + 3 = १४३ योजन हुये, अत: पञ्चम पृथ्वी के निकट पवनों का बातृस्य १४३ योजन है । पुनः १४ में में एक निकाला और उम एक में से हानि घटाने पर (-) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकमार गाथा :१.५ - अर्थात् शेष रहा । इसे पूर्वक्ति में मिलाने से (+)- ३ अर्थात् ! मान हुआ, अनः चतुर्थ पृथ्वी के निकट तीनों पचनों का बाहुल्प ( १३ + १)- राजू प्रमाण है। पून: १४ में में निकाला और उस एक मैं में हानि का प्रमाण घटाने पर :- ).. ३ अर्थात् शेष रहा । इम : को (१४ - १) = १३ में मिलाने पर तृतीय पृथ्वी के निकट तीनों पवनों का बाहुल्य १३, योजन है । पुनः पूर्वोक्त क्रिया करने से शेष रहे । इन्हें उपयुक (१३१ -१) -- १२% के ? में मिला देने में ( 3+ :) = : प्राम हुये, अत: द्वितीय पृथ्वी के निकट तीनों पर नों का माहप १२३ योजन है । पुन: सोया करने शेष रहे, इन्हें ३ में मिलाने से (६.) अर्थात १ प्राप्त हुआ. अत: मध्य लोक के निकट तीनों भवनों का बाहुल्य (११+१) - १२ भोजम प्रमाण है। __ अथवा :-- मातम पृथ्वी के निकट तीनों परनों का बाहुल्य (७+५+ ४) = १६ योजन था; अतः १६ योजन में से हानि का प्रमाण घटाने पर निम्न बाहल्य प्राप्त हुआ - - - १४ - १ योजन ! अर्थात् ६०वीं पृथ्वी के निकट तीनों पवनों का बाहुल्य १५, योवन है। - * ¥ योजन । अर्थात् ५वीं पृथ्वी के निकट तीनों पवनों का बाहुल्य १४३ पोजन है । "- = ६५ = योजन । अर्थात स्थो पृथ्वी के निकट तीनों पवनों का बाहुल्य १४ योजन है । 4- = = १ योजन । अर्थात ३री पृथ्वी के निकट तीनों पवनों का बाहत्य १३२ योजन है। - * = * योजन । अर्थात् ररी पृथ्वी के निकट तीनों पवनों का बाहुल्य १३३ योजन है । "- - - * योजन । अर्थात् १लो पृथ्वी के निकट तीनों पवनों का बाहुल्य १२ योजन है। इभी प्रकार अध्यलोक में भूमि १६ योजन भौर मुख १२ योजन है । अतः १६ - १२ = ४ योजन की वृद्धि अवशेष रही। प्रथम और द्वितीय युगलों की ऊंचाई १३ ( देत ) राजू की है, तथा शेष ६ युगलों की ऊँचाई आधा आधा (4) रात की है, अतः जबकि ३६ राजु की ऊँचाई पर ४ बोगम की कृद्धि होती है. सब १३ राजू पर कितनो वृद्धि होगी ? और आधे (1) राज पर कितनी वृद्धि होगी। इस प्रकार दो राशिक करने पर पृधि का प्रमाणु क्रमशः . राजू और : राज प्राम होता है। मेमतल मे ऊपर सौधर्म युगल के अधोभाग में वायु का बाहुल्य १४ अर्थात् १२ योमन {५ + ४ + ३) है, तथा सौधर्मशान के परिम भाग में +3 = योजन अर्थात् १३५ योजन ( बाहुल्य ) है । सानरकुमार माहेन्द्र के निकट " + २ = योमन अर्थात् १५३ योजन का बाहुल्य है । अब प्रत्येक युगलों की ऊंचाई आधा आधा राजू है। जिसकी वृद्धि एवं हानि का प्रमाण । है । अत: +8+ = योजन अर्थात् १६ योजन ब्रह्म ब्रह्मोतर पर पवनों का बाहुल्य है । 13 - २० योजन अर्थात् १५३ योजन बाहुल्य लान्सव कापिष्ट युगल का है। 29 - = 18 योजन अर्थात् १४५ योजन बाइख्य शुक्र महाशुक्र युगल का है। 18 - = 1 योजन अर्थात् १४० योजन बाहुल्य मतार सहनार युगल का है। - -: योजन PAARAN Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १२६-१२७ लोकमामान्याधिकार अर्थात् १३३ योजन वाइल्य मानत प्रारणल युगरा : पु.. गग गर्गत ३: शेलन बाहुल्य आरण अच्युत मुगल का है। ए-1 = भोजन अर्थात् १२० योजन बाहुल्य गैबेयकादि का है। --- योजन अर्थात १२ योजन बाहल्य सिद्धक्षेत्र का है। অথ তাকাবানু শীমান্থ— कोसाणं दुगमेक्कं देसूक्क न लोयमिहरम्मि । ऊणधणूण पमाणं पणुवीसज्महियचारिसयं ।।१२६।। कोशामा द्विकमेकं देशोन के च लोकशिखरे। ऊनधनुषां प्रमाणं पञ्चविणाधिकचतुः शतम् ॥१२६॥ कोसाणं । होशामा हिकमेकं देशोनक १५७५ धनुष व लोकशिशारे अनपतुषां प्रमाणे । किमियुक्त पर्यावास्यधिकचतुः शतमिरयुक्तम् ४२५ ॥१२६॥ लोक के उपरिम भाग में पवनों का बाहुल्य प्रकट करते हैं पापा:-लोक के शिखर पर पवनों का प्रमाग क्रमशः २ कोश. १ कोश और कुछ कम एक कोश है। यहां कुछ कम का प्रमाण ४२५ धनुष है ।।१२६।। विशेषाय:-लोक के अग्रभाग पर घनोदधि वातवलय को मोटाई २ कोश, धनवातवलय की १ कोश और तनुवातवलय की कुछ कम एक कोश है। यहाँ कुछ कम का प्रमाण ४२५ धनुष है। अर्थात २००० धनुषों में से ४२५ धनुष कम कर देने पर (२००० - ४२५ = ) १५७५ धनुष शेष रहने है । पही तनुवातवलय का बाहुल्प ( मोटाई) है। अम लोकाधस्तन वायुक्षेत्रफलमानयनाह लोयतले वादनये वाइम्लं सटिजोयणसहस्सं । सेटिजकोडिगुणिदं किंचूर्ण राउवेलफलं ।।१२७।। लोकतले बातये बाहुल्य पष्ठियोजनमहस्रम् । श्रेणिभुजको टिगुग्गिातं किञ्चिदूनं वायुक्षेत्रफलम् ॥१२७॥ लोपतले । लोकतले वातत्रये बाहुल्यं पनियोजनसहन ६००००, अंरिणभन कोटि ७ गुणित == ६०००० पूर्शपरेण समचतुरन्त्रत्वाभावात निश्चिम्यूनवेर्ष वायुक्षेत्रफलं - ६०००० स्यात् ॥१२७॥ लोक के नौने तीनों पवनों से अब मद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिए कहते हैं माया :लोक के नीचे तीनों पवनों का बाहल्य ६०००० योजन तथा लम्बाई और चौड़ाई जगणी प्रमाण है । पवनों को यही लम्बाई और चौदाई जगन्छेणी की भुजा एवं कोटि है अतः Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकमार गया : १२५ जगणी प्रमाण भुजा और कोटि का परस्पर गुणा करने से कुछ कम जगत्प्रतर गुणित ६० हजार योजन क्षेत्रफल प्राप्त होता है ।। १२७ । १४२ विशेषार्थ :- -लोक के नीचे तीनों पवनों का बाहुल्य ६० हजार (२०+२० | २० हजार ) योजन है। इनको लम्बाई चौड़ाई जगच्छं रणी प्रमार है। जगच्छ्रेणी की दक्षिणोत्तर चोड़ाई का नाम भुजा तथा पूर्व पश्चिम चोड़ाई का नाम कोटि है। भुजा और कोटि ( जगच एणी x जगच्छ्रेणी ) का परस्पर गुणा करने से जगत्तर की प्राप्ति होती है । लोक की दक्षिणांतर चौड़ाई (भुजा) सर्वत्र ७ राज है अतः भुजा तो होन नहीं है किन्तु पूर्व पश्चिम चौड़ाई ( कोटि ) में हानि होने से कोटि में कुछ हीनता है, इसलिए जगत्प्रतर कुछ कम है । इस कुछ कम जगत्प्रतर की ६० हजार योजनों से गुणित करने पर लोक के नीचे तीनों पवनों में अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल, कुछ कम जगत्तर ६० हजार योजन प्राप्त होता है । अयं तदुपरि वायुक्षेत्रफलनयनमाह किंणरज्जुवामोजमसेदीदीहरं हये बेहो । जोणससह सत्तमखिदिध्वरे ६ ।। १२८|| किचिडून रज्जुव्यासः जगच्छू णिदेयं भवेत् वेधः । योजनसह सप्तमक्षितिपूर्वपरे च ।। १२५ ।। किए। किञ्चिन्यूमरज्जुपासः १ जगच्छ्राखि ७ वंध्यं भवेत् । वेधः योजनवहि सप्तमपृथिया: पूर्वापरद्वयोः क्षेत्रयोः फलं । भुजकोटियमेत्यादिना एकभागस्यताति । ६०००० दुर्भागयोः किमिति सम्मान वापम् ॥ १२८ ॥ अधोलोक के एक राजू ऊपर तक वायुरुद्ध पार्श्वभागों में पवनों का क्षेत्रफल - गाथार्थ :- तीनों पवनों का व्यास (चौड़ाई) कुछ कम ( ६० हजार योजन कम ) एक राजू है । उनकी लम्बाई जगच्छ्रसी (७ राजू ) प्रमाण है तथा सप्तम पृथ्वी पर्यन्त पूर्व पश्चिम ६० हजार योजन वेध ( मोटाई । है । १२८ ॥ विशेषार्थ :- प्रधोलोक के एक राजू ऊपर के पार्श्व भागों तक दोनों पवनों की चौड़ाई कुछ कम एक राजू प्रमाण है । दीर्घता ( लम्बाई ) जगच्छ्रेणी प्रमाण ( ७ राजू ) है | वेध ( मोटाई) पूर्व पश्चिम सप्तम पृथ्वी पर्यन्त ६० हजार योजन है । इसका क्षेत्रफल निकालने के लिए भुजा ( जगच्छ्रेणी ७ राजू ) को कोटि ( १ राजू ) से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें वेध ( ६० हजार योजन ) का गुणा करने में एक पाद भाग का क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है। एक पार्श्वभाग का क्षेत्रफल इतना है तो दोनों पाव भागों का कितना होगा ? इस प्रकार वैराशिक करना चाहिए । a = Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : १२९-१३० लोकसामान्याधिकार १४३ - इतः परं सिद्धफलमाह जगपदरसरभाग सद्विसहस्सेहि जोयणेहि गुण । विगगुणिमुभयपासे बाद फलं पुषवरे य !,१२९।। जगत्प्रतरसप्तभागः पछिसहस्र : योजने गुगणः । द्विकारिणतः अभयपावें वातफळ पूर्वापरयोः च ॥१२६|| जा। जगप्रसारसप्तभागः ७ षष्ठिसहस्र ६००००योजनगुणित: विक २ गुलितः उभयपार्षे पातफलं पूर्वापरयोः ॥१२॥ उपयुक्त किया करने से प्राप्त हग सिद्धफल का कथन करते है पापाचं :-- जगत्प्रतर के मातवें भाग (४) को ६० हजार योजन से गुणा करने पर जो लम्ध प्राप्त हो, उसमें दो का गुणा करने से पूर्व पश्चिम दोनों पायें भागों का क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है ॥१२९ विशेषार्ष:- अधोलोक के एक राजू ऊपर के पाव भागों तक तीनों पवनों की चौड़ाई (पास) १ राजू अर्थात् 'राजू है। लम्बाई जगच्छणी प्रमाण अर्थात् राजू है। यही भुजा और कोटि हैं। 'इनका परस्पर गुणा (: x) करने से जगत्प्रतर का सातवा भाग अर्थात् ' वर्ग राजू प्राप्त हो जाना है। इस { ४१ ) को ६० हजार योजन (वेध ) से गुणा करने पर ( १९४ ६० हजार ) एक पार्व भाग का क्षेत्रफल प्राप्त होता है । एक पार्थ भाग का क्षेत्रफल जगत्प्रतर - ६०००". है तो दोनों पार्श्वभागों का कितना होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर जगत्प्रतर ४६०००० ४ ७ २ अर्थात जगत्प्रतर x १२०००० क्षेत्रफल प्राप्त होता है। यहाँ ४९ जगत्प्रतर के स्थानीय है। अप दक्षिणोत्तरवातक्षेत्रफलानयनप्रकारमाह-- उदयमुहभृमिवेहो रज्जुसमचमबरज्जुसदी य । जोयणमद्विसहस्सं सत्तमखिदिदक्षिणुत्तरदो ॥१३.।। उदय मुखभूमिवेधाः रज्जुसमप्तमपज्जुश्रेण्यः च । योजनषष्टिसहन मप्तममितिदक्षिणोत्तरतः॥१०॥ ग्गय । उपमुखभूमिवेधाः यथासंग्घ्यं रणु • ससप्तमषा 5 मेग्या योजना महन' । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . त्रिलोकसार गाथा: १३१ ६०००० सप्तमक्षितिबक्षिणोत्तरत: । दुखभूमिजोगवलेस्याविना प्राग्वत राशिकविपिना घानेतन्यम् ॥१३०॥ दक्षिणोनर दातवालयों का क्षेत्रफल प्राप्त करने हेतु नियम कहते हैं मापार्य :-- दक्षिणानर अपेक्षा लोक के नीचे से सप्तम पृथ्वी पर्यन्त पवनों का उदय ( ऊंचाई १ राज , सप्तम पृथ्वी के ममीप मुख ( चौड़ाई ) ६ राजू, भूमि जगच्छंणी प्रमाण अर्थात् ७ गजू तथा वेष ( मोटाई) ६० हजार योजन है ॥१०॥ विशेषार्थ :-लोक के नीचे की चौड़ाई का प्रमाण ७ राज है, यही भूमि है। सातवी पृथ्वी के निकट लोक की चौड़ाई का प्रमाण ६ राजू है, यही मुख है । लोक के नीचे से सप्तम पृथ्वी पर्यन्त उदय (ऊंचाई 1 राज़ अर्थात् १ राजू है तथा यहीं पर पवनों का वेध ( मोटाई ) ६० हजार योजन है । इन सबका क्षेत्रफल निम्नलिखिन प्रकार म होगा भूमि राज + राजु मुख - १९५४३ ... ९३ राजू प्राप्त हुआ। इसका आधा ( १९ ४३) राजू हुआ। पाय भाग है अत: दूना करने से ) = g राजू हुआ। इस राजू को उदय ( ऊंचाई ) से गुणा करने पर (T x अर्थात् १ राज् प्राम हुआ। इसमें ६० हजार योजन मोटाई का गुणा करने से -- x xpe क्षेत्रफल प्राप्त होता है । यहाँ ( 1 ) पर ऊपरवाला ( ग्रंश स्त्ररूप ) ४९ जगत्प्रतर स्वरूप है । अत: जगत्प्रप्तर x ६२ ४६०००० क्षेत्रफल प्राप्त होता है। ४९४७ अथे तत्फलमुराचारयति तस्स फलं जगपदरो सविसहस्सेहि जोयणेहि दो। पाणउदिगुणो समयणसंभाजिदो उमयपासम्हि ।।१३१।। सस्य फलं जगत्प्रतः वष्टिसहन : पोजनः इतः।। द्वानवतिगुणः समधन साभक्त: उभयपार्चे ।।१३१।। तास । छायामात्रमेवाः ॥१३॥ उपयुक्त क्रिया का फल कहते हैं :-- गाथा:-जगतर को ६०००० योजन स एवं ९२ से गुणा कर के धन (३४३ राज) का भाग देने पर दोनों पात्र भागों का क्षेत्रफल प्राप्त होता है ।१३।। विशेषाभ :--सप्तम पृथ्वी पर्यन्त दोनों पार्श्व भागों का दक्षिणोत्तर ( पवनों से रुद्ध ) क्षेत्र का क्षेत्रफल इस प्रकार से होगा. जगत्तर- ६००००४ ९२ . जगत्प्रतर x ५५२०००० Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधा : १३२-१३३ लोकसामान्याधिकार १४५ सेढी छरज्ज पोदसजोयणमायामवासमुस्सेहं । पुचबरपासजुगले सचमदो तिरिपलोगोत्ति ||१३२।। श्रेणी षट्रज्जु चतुदर्शयोजनं मायामव्यासोत्से घम् । पूर्वापरपावंयुगले सप्तमतः तिर्यग्लोकान्तम् ॥१३२। सेही । भणी ७ ७ षट्रज्जु उ ६ चतुशा १४ पोजनानि मायामयासोरसेषाः पूर्वापरपावंयुगले सप्तमतस्तियंग्लोकपर्यन्त । भुमकोटोत्यादिना हिस्पो भयपाश्वयि हाय संगुष्यानेतग्यम् १३२॥ सप्तम पृथ्वी से मध्यलोक पर्यन्त पूर्व पश्चिम दिशा में वातवलयों का प्रमाण कहते हैं पापा:-सप्तम पृथ्वी से नियंग्लोकपयंन्त पूर्व पश्चिम पारवंयुगलों में पवनों का आयाम श्रेणी ( ७ राजू ।, यास ( चौड़ाई ) ६ राज़ और उत्सेध । मोटाई ) १४ योजन प्रमाण है ॥१३२॥ विशेषाय :-सप्तम पृथ्वी के पास पवनों को मोटाई १६ योजन (७+५+ ४) और तिर्यग्लोक के पास १२ (५ + ४ + ३ ) योजन है। औसत मोटाई (१६ + १२ = २८:२) १४ योजन प्राप्त ई 1 सप्तम पृथ्वी से तियंग्लोक पर्यन्त पवनों का आयाम ( लम्बाई ) श्रेणी अर्थात् राजू है। जिसे भुत्रा कहते हैं । नोचे से मध्यलोक पर्यन्त ६ राजू व्यास है जिसे कोटि कहते हैं । दोनों वातबलयों का वेध १० योजन है, अत: xxyx (दूना किया )। यहाँ भी ४९ जगत्प्रतर के स्थानीय हैं । अतः _जगत्प्रवर X १४ १५ x २ प्रा. हुआ। नीचे के ७ से ऊपर के १४ को अपवर्तित कर देने पर २ प्राप्त होते हैं अतः जगत्पतर x ६ x २ x २ = जगत्प्रतर x २४ लाध प्राप्त होता है। ... अथ तस्य सिद्धफलमुच्चारयति--- तवादरुद्धखे जोयणचउवीसगुणिदजगपदरं । उभयदिसासंजणिदं गादब्वं गणिदसलेहि ।।१३।। तदातदक्षेत्र योजनचतुर्दिशतिगुणितमगतरम् । उभयदिशासज्जातं ज्ञातव्यं गणितकालः ।।१३३॥ म्याद । तदातापमंडावं पोजनधनुर्विशतिगुणितजयघातरं उभयविशालयात माती गणितकुशलः ॥१३३॥ दोनों पात्र भागों का सिफल कहते हैं पाषा:-उपयुक्त दोनों दिशाओं के वायुक्त क्षेत्र का क्षेत्रफल जगप्रतर x २४ है । ऐसा गरिणत-निशेषज्ञों द्वारा जाना गया है ॥१३॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ त्रिलोकसार गाथा: १३४-१३५ विशेषार्ष:-गाथा १३२ में कहे गए वायुरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल गणित विशेषज्ञों के द्वारा जगत्तर - २४ जाना गया है। अथ दक्षिणोत्तरपाश्ववातफलमानयति उदयं भृमुह बेहो छरज्जु सत्तमचरज्जु रज्जू य । जोयण चोइस सचमतिरियोचि हु दकिवणुसग्दो ॥१३४।। उदयः भूमुखं वेधः षडरज्जवः सक्षमपद रज्जवः रज्जुश्च । योजनचतुर्दश सप्तमस्तिर्यगन्तं हि. दक्षिणोत्तरतः ।।१३४।। उमये । उायः ६ ३मुखं ७ मा १४ बामपः ससप्तमपदमव: एकरम्जुः योगमचतुर्वशसप्तमतस्तिकपर्मत खस्नु दक्षिणोत्तरतः मुन्नभूमीत्येकधारमपवयनितव्यम् ॥१४॥ दक्षिणोत्तर पार्वभागों में पवनों से अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल पापा:-दक्षिणोत्तर अपेक्षा सप्तम पृथ्वी से मध्यलोक पर्यन्त पवनों का उदय ( ऊंचाई ) ६ राज, भूमि ६६ राजू, मुख १ राजू मोर वेध ( मोटाई । १४ योजन प्रमाण है ।।१३४।। विशेषा:-सक्षम पृथ्वी के निकट पवनों की चौड़ाई ६ अर्थात् राजू है, यह भूमि है। तिर्यग्लोक के निकट पवनों की चौड़ाई १ राजू अर्थात् राजू है, यह मुख है । भूमि और मुख को जोर कर माधा करने पर जो लाध मावे उसमें सप्तम पृथ्वी से मध्य लोक पर्यन्त पवनों की ऊंचाई ६ राजू से गुणा करना चाहिए तथा लब्धाङ्कों को पुनः पवनों की मोटाई ( वेध ) १४ योजन से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो, वह एक पारवं भाग का क्षेत्रफल होगा। दोनों पाश्वभागों का क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिए २ से गुणा कर दुगुना कर लेना चाहिए। जैसे - भूमि + मुख अर्थात " +3= आधा करने पर ११ राजू लन्ध आया। ५ x x x - २५ x ६४ १४ x २ =६०० योजन क्षेत्रफल दोनों पाश्र्वभागों में वायुरुद्ध क्षेत्र का प्राप्त हुआ। अथ तसिद्धफलमुच्चारयति तस्थाणिलखेषफलं उमः पासम्हि हो. जगपदरं । छस्मयजोयणगुणिदं पविभतं भवग्गेण ।। १३५॥ तत्रानिलक्षेत्रफलं उभयस्मिन् पाश्व भवति अगाप्रतरः । घट छत्तयोजनगुणितः प्रविभतः समवगेण ।।१३५५ तस्या । छायामानमेवार्यः ॥१३५॥ प्राप्त हुए सिवफल को कहते हैं Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा । १३६ लोकसामान्याधिकार १४७ गायार्थ :-वहाँ (दक्षिणोत्तर में सप्तम पृथ्वी से मध्यलोक पर्यन्त ) दोनों पाश्र्व भागों का क्षेत्रफल जगत्पतर को ६०० योजनों से गुणित कर ७ के वर्ग (R) से भाग देने पर प्राप्त हो जाता है ॥१३॥ विशेषार्थ:-उपयुक्त गाथा में । २५ । २५ x ६ x १४ X २ ६०० योजन क्षेत्रफल प्राप्त हुआ था। इसे जगत्त्रतर घरूप बनाने के लिए ४९ मे गुणा कर ४९ से हो भाग देना चाहिए । अर्थात् ४६x६०० हुश्रा । यहाँ ४९ जगरप्रनर के स्यानोय है क्योंकि ७ x ७ = ४९ वर्ग राजू = जगातर होता है । अतः जगत्प्रतर ४ ६०० क्षत्रफल दोनों पाश्वभागों का प्राप्त हया। अथोप्नलोकपिरन्ननु चागुकानयाभार: माउड्ढरज्जुसेढी जोयणचीहस प वासभुजवेहो । घम्होति पुनभवरे फलमेदं चद्गुणं सब्बं ।।१३६।। अधं चतुर्थरज्जुश्रेरिणः योजनचतुदंश घ व्यासमुजवेधः । ब्रह्मान्तं पूर्वापर फलमेतत् चतुगुणम् मर्वम् ॥१३६।। पाउड्ढ़ । अर्धवसुध : रज्जुश्रेरिण ७ योजनधतुर्दश १४ च ग्यासमवेषा ब्रह्मलोकपर्यन्त पूर्वा. परे फलमेतमजनुगुणं सर्व भुजकोटोत्यानेयम् ॥१३६॥ पूर्व पश्चिम अपेक्षा अवलोक के चारों पाश्वभागों के वातवलयों से व क्षेत्र का क्षेत्रफल गाया :-तियरलोक से ब्रह्मलोक पर्यन्त पवनों की ऊँचाई ३३ राजू है । इसीका नाम व्यास है। यहा इपे कोटि भी कहा है । श्रेणो अर्थात् ७ राजू को भुजा है और पत्रनों की मोटाई १४ योजन प्रमाण है । इन तीनों का परस्पर गुणा कर, फिर ४ से गुणा कर देने पर ( चार क्षेत्र ) अध्व लोक में पूर्व व पश्चिम वातवलयों से रुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है ।।१३६।। विशेषार्थ :-ऊव लोक पूर्व और पश्चिम की ओर मच ७ राजू है। यह भुजा है। मध्यलोक में अर्ध ऊध्र्वलोक (ब्रह्म स्वर्ग ) पर्यन्त ३६ राजू ऊंचा है। यह कोटि है। तीनों वातवलय लियंग्लोक के समीप १२ (५ + + ३ ) योजन और ब्रह्म स्वर्ग के समीप १६ (७ + ५ + ४ ) योजन मोटें हैं । वातवरलयों की मोटाई का औसत ( १६ + १२ = २८ : २ च १४ १४ योजन है अत: x x V =४९ ४७ अर्थात् ४९ वर्ग राजू x ७ राजू प्राप्त हुआ। क्योंकि ४१ जगत्प्रतर स्वरूप है अत: अर्घ अवलोक के एक दिशा के वाजवलय का क्षेत्रफल जगत्पतर x ७ प्राप्त होता है, इसलिए दोनों दिशाओं के पूर्ण ऊर्वलोक ( चारों भागों ) के वातवलयों से बद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल - जगत्प्रतर x x x = जगत्प्रतर x २८ प्राप्त होता है । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निलोकमार गाथा: १३७-१३ अयोध्द लोकदक्षिणोत्तरचतुःपाश्ववायुफल माह पंचाहुटिगिरज भूतुंगमुहं बिसत्तजोयणयं । घेहो में उगाणे संपलं दाखवरदो ॥१३७|| पश्चाधचतुर्थंकरज्जवः भूतुङ्गमुवं द्विसप्तयोजनकः । वेषः तच्चतुगुणितं क्षेत्रफलं दक्षिणोत्तरतः ।।१३७।। पंवा । पञ्चा५ चतुर्थे । क त्रवः स्तुङ्गमुखानि रिसात १४ योजनों देशः तरबगुणित क्षेत्रफलं पक्षिणोत्तरतः मुखमूमोत्यानेलम्यम् ॥१३७॥ दक्षिणोत्तर अपेक्षा अवलोक के चारों पाश्वं भागों के बानवलयों से रुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल गाथा:-ब्रह्मस्वर्ग पर ऊर्ध्वलोक ५ राजू चौड़ा है यही भूमि है 1 तियेग्लोक से ब्रह्मस्वर्ग ३३ राजू केंचा है। तियंग्लोक पर कवलोक १ राजू चौड़ा है। यही मुख है। द्विमान अर्थात १४ योजन वेष अर्थात् वातवलयों को मोटाई १४ योजन है। इन चारों का परस्पर गुणा करने से जो लब्ध प्राप्त हो, उसे पुनः ४ से गुणित करने पर अबलोक की दक्षिणोत्तर दोनों दिशाओं के चारों भागों का क्षेत्रफल प्राप्त होता है ।।१३७|| विशेषामे :-ऊध्वंलोक ब्रह्मस्वर्ग के पास ५ राजू चौड़ा है, अर्थात भुमि . राजू है । तियंगलोक पर राजू चौड़ा है अर्थात मुख १ राजू है, इस प्रकार भुमि + मुख ५ : १ = ६ राजू । इसका आधा (x) ३ राजू व्यास हुआ। यही भुना है। राजू को ऊँचाई कोटि है और १४ योजन मोटाई है, अतः x xy = ७ x ७ x ३ वर्ग राजू अथवा ४९ ५३ वर्ग राजू = जगत्पनर x३ यह अर्ध अवलोक की एक दिशा के वातवलयों से भद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल है । जगत्प्रलर x ३ को ४ से गुणा करने पर जगत्प्रतर ४१२ यह पूरगं अवलोक की दोनों दिशाओं में बातबलयों में गत क्षेत्र का क्षेत्रफल प्राप्त होता है। अथ लोकाग्र वायुफलमानयति वासुदयमुजं रज्जू इमिओयणवीमतिमदखंडेसु । सतितिसदं सेढी फलमीमिपमान्यरि दंडयाऊणं ।।१३८।। ध्यासोदयभुजा रज्जुः एक योजनविशविशाखपढेषु । सत्रिविणतं श्रेणिः फलमीपरप्राग्भारीपरि चण्डवायूनाम् ॥१३॥ चालु । व्यासोक्यभुमार * १ एकयोजनविशत्युत्तरत्रिशत ३२० खण्डेषु मत्रित्रिगत ३०३ - परिण ७ एतोषप्रारभारोपरि दशवापूनां फलं । गोसतिलदखण्डेसु सहि तिलव ३४ पित्याप बीजमुच्यते । दण्जीकृततिक्रोश ४.४० एकक्रोश २००० पंचविशत्यधिकचतुशल: शतहीनकोशाम १५७५ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । १३८ लोकसामान्याधिकार मेलनं कृमा ७५७५ एतावता दण्डानाम् । ८००० एखयोजने प्र ००० फ। एतावता ७५७५ किययोजनमिति सम्पात्य पंचविशतिमिरपवर्तने कृते १३ सदासमाबीजं स्यात् । भुमकोटीतिफल = x ११ मानेतण्यम । लोकारवायफल = x 1 मुषत्वा इतरेषां पायुफलाना = x ६०००° , - १२०००० . = ५५२०००० - २४ , - ६००, = २८ , " १२ सप्तघन हसवर्ग ---। १४३ । । - । सप्तधन तवा सप्सघन सप्त RET RAः सापकोई दुधा: 088052 + = ४०० + = ५५३९०५३ + ३३३ + १०० -- ===Yx + L मेलमं विधाय = १९९१५५ एतत्सम विशंस्युत्तरत्रिशतेम ३0 x सप्तवर्गमक्तमाणितोपरितनवायुफलेन सह समस्येवं करवा = RAT८४ प्रमयोर्मेलने ==8333६४३४९. सवंबाताविषयक्षेवफल भवति ॥१८॥ लोक के मन भाग पर वायुरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल : गापा:-(पूर्व पश्चिम अपेक्षा लोक के ध्यास सदृश ) वातवलय का व्यास १ राजू, उदय (ऊंचाई ) योजन और श्रेणी ( दक्षिणोत्तर ७ राजू चौड़ाई = श्रेणी) प्रमाण भुजा है । इन तीनों ( ३ x ३. x 8) का परस्पर गुणा करने से ईपत् प्रागभार पृथ्वी के ऊपर वायुरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल प्राप्त होता है ।।१३०॥ विशेषाय :- राजु व्यास ४ योजन उदय ( मोटाई) x भुजा ( श्रेणी स्वरूप राजू की भुजा ) इनके गुणनफल को ईषत्प्रागभार पृथ्वी के ऊपर पवनरुख क्षेत्र का क्षेत्रफल कहा है। यहाँ १ योजन के ३२० खण्डों में से ३०३ खण्ड प्रमाण तीनों पवनों की मोटाई कही है, उसका बीज कहते हैं : ८.०० ( आठ हजार ) धनुष का एक योजन होता है. और २००० धनुष का १ कोष होता है। लोक के अग्र भाग पर घनोदधि वातवलय दो कोश मोटा है। इसके ४००० धनुष हुए । घनवात एक कौश मोटा है, इसके २००० धनुष हाप और तनुवात ४२५ धनुष कम १ कोश मोटा है । अर्थात् १५७५ धनुप मोटा है । इन तीनों का योग ( ४.०० + २००० + १५७५.) = ७५७५ धनुष होता है । जबकि ८.०० धनुष का एक योजन होता है तब ७५७५ धनुष के कितने योजन होंगे। इस प्रकार त्रैराशिक करने से इe: 2:46." = ३५४ योजन मोटाई लोक के अप्रभाग को कही गई है। एक राजू श्रेणी का सातवा भाग है, अत: १ राजू - श्रणी हुआ यह कोटि है । भुजा स्वरूप प्रेणी ( ७ राजू ) का और कोटि ( अणा ) का परस्पर गुणनकर पुनः ३१३ योजन उदय से गुणित करने पर क्षेत्रफल प्राम होता है। जैसे :- श्रेणी x श्रेणी - ३.३ ... जगतप्रतर । . १ ७ ३२० १३. योजन क्षेत्रफल लोक के शिखर पर पत्र नों द्वारा हर क्षेत्र का प्राप्त हुभा । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाब पाषा:१५८ सम्पूर्ण क्षेत्रफलों का योग :--- १. लोक के नीचे तीनों परनों से अवरुद क्षेत्र का क्षेत्रफल - जगतप्रतर x ६० हजार २. लोक के १ राजू ऊपर पूर्व पश्चिम में अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल - जगत्पतर - १२०००० ३. लोक के १ राजू ऊपर दक्षिणोत्तर में अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल -- जगत्प्रतर ४ ५५२०००० ४. ७वीं पृथ्वी से मध्यलोक तक पूर्व प० अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल - जगत्प्रतर x २४ ५. ७वीं पृथ्वी से मध्यलोक तक दक्षिणात्तर में अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल - जगत्तर X ६० ६. ऊर्ध्वलोक के चार पाच भागों का पूर्व प० में अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल - जगत्प्रतर ४ २५ ७. ऊबलोक के चार पाश्र्व भागों का दक्षिणोत्तर में अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल- जगतप्रतर ४ १२ ८ लोक के अग्न माग पर वातवलयों से अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल - जगत्प्रतर x ३०३ ३२० यहाँ लोक के अग्रभाग के क्षेत्रफल को छोड़कर शेष समस्त क्षेत्रफलों का योग निम्नप्रकार है: यहाँ पर जगतप्रतर का चिन्ह 'ज' है। अतः न x ६०००० + 5 x 3g: + ज x ५५3830 + ज x २४ + x 2 + ज x २८ + x १२ का ममच्छेद विधान द्वारा मिलाने के लिए जही भागहार नहीं है। वहाँ ७ के घन ( ३४३ ) से, जहाँ भागहार ७ है, वहाँ ७ के वर्ग (४६ ) से, जही भागहार ३४३ है, वह१ से, और जहाँ भागहार ४६ है यहाँ ७ से गुणा करना चाहिए। इस समच्छेद विधान में जिस गुणकार के गुणा करने पर हारों को समानता होती है, उसी गुणकार से अंशों में गुणा करना चाहिए। इस प्रकार की क्रिया से :-- जx (२०४११०० + ५६१० + ५५३१११° + + + + ) = ज - १२९१४१५२ क्षेत्रफल प्राप्त होता है। अथवा - जx { १०० + १२३००० + १५३११०० + Y+ + ३ + ) - २०५८०० ० + ५८८०००० + ५५२०००० - ८२३२ + ४२०० + ६६०४ + ४११६ - ज x ३२888१५२ अर्थात् जगत्प्रतर x तोन करोब बीस लाख छह हजार एक सौ बावन, भाजित तीन सौ वेतालीरा प्राप्त होते हैं । गाथा १३५ में लोक के अग्रभाग पर वायुरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल जगतार x ३०३ ३२० बतलाया गया है, इसे उपयुक्त क्षेत्रफल में जोड़ देने से सर्व लोक का क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है । जैसे:ज x ३२००६१५२ + ४.३०३ यहाँ पर भागहार ३२० को - से गुणित करने पर २२४० प्राप्त ७४३२० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३८ हुए. अतः धनराशि की संख्या २२४० को गुणित करने पर ज प्राप्त हुए। पूर्वोक्त राशि ज x 0 के हर और श 375 को भी ३२० से गुसित करने पर के वर्ग (४९) से ज X 103YALIYO क हुए. तथा इन दोनो [ ज १०१४१५६०४० ' + १४८४७ प प्राप्त - ] को जोड़ने से ज x ०२४१७८३४८० क्षेत्रफल प्राप्त बब्व७५० होता है। अथवा - ज x ज x ३०३ + ७ × ३२० ३२००६१५२ 373 - ज x १०२४१९६०६४० + १४८४० १०३७६० ज x १०२४११८३.४८७ १०० समस्त पदनों से रुद्ध क्षेत्र का क्षेत्र फल है । छोक के सम्पूर्ण वायुमल का चित्रण :--- लोकसामान्याधिकार हुई। इसका समच्छेद करने के लिये भंश ३०३ और हर ज ४ ३०३ २२४० ... मोकाकाश वाट्स एप म नराधमा 22. मम्माम पर्वत/भार आना.... स ह 1 समाचार SIMET 40. आकाश चमटी भी 2000 आकाश आकाश साकार सप्तम महतो महरम प्रभा - रोमेनि लोकाकाश ... पेटवल नि त्यः नि। गो द ܀ १५९ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ एतत्सिद्ध फल मुच्चारयति त्रिलोकसार सचासीदिच दुस्सदसदस्सतेसी दिलख उणवीसं । चीसहियं फोटिसहस्सगुणियं तु जगपदरं ॥१३९ ।। सीसच स हि वय सहस्से गलनखमजियं तु । समयं वादारुद्धं गणियं मणियं समासेण ॥ १४० ॥ साशीतिचतुः शतसहस्रत्र्यशी तिलक्षैकोनविंशम् । चतुर्विद्याधिकं कोटिसहस्रगुणितं तु जगत्प्रतरम् ॥१३९२ । षष्टि सप्तशः नवकसह कलक्षभक्त तु । सर्व वाताचं गणितं भणितं समासेण ॥ १४० ॥ पापा : १३९-१४१ सत्तासी साशीतितुः शतसहस्रत्रयशी तिकोनविंशतिचतुविशतिसहितकोटिसहस्रतिजगात फलं भवति ॥ १३६ ॥ ॥ सट्ठी | छायामानमेवार्थः ॥ १४०॥ वातवलयों द्वारा रुद्ध समस्त क्षेत्रों के क्षेत्रफलों का योग - गावार्थ :- सम्पूर्ण वातवलयों से रोके हुए क्षेत्रों के क्षेत्रफलों की जोड़ने पर एक लाख नौ हजार सात सौ साठ से भाजित जगातर गुपित एक हजार चौबीस करोड़ उन्नीस लाख तेरासी हजार चार सौ सत्तासी प्राप्त होता है। यह गरिगत संक्षेप से कहा गया है ।।१३६ - १४० ।। विशेषार्थ :- लोक के जितने क्षेत्र को तोनों पवनों ने रोका है उस समस्त क्षेत्र के क्षेत्रफलों का योग करने पर ज x प्राप्त होता है । १०३० अथ सिद्धानां जघन्यो ष्टेना रगाह क्षेत्रमाह पारसकखा सयाण खंडाणमेयखंडादि । सिद्धाणं तपुत्रादे जहणकस्मयं ठाणं ॥ १४१ ॥ नवदशलक्ष शतानां खण्डानामेकखण्डे । सिद्धानां तनुवाते जघन्यमुत्कृष्टं स्थान ॥ १४१ ॥ गव । नवलक्षपक यशशतयोजन ६००००० १५०० खण्डानां मध्ये एकस्मिन अण्डे सिद्धा समुवाले जघन्यमुकुटं च स्थानम् ।।१४१ ॥ लोक के अग्रभाग पर तनुत्रात वलय में विराजमान सिद्ध परमेष्ठी की जघन्योत्कृष्ट अवगाहना द्वारा रुद्ध क्षेत्र कहते हैं Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: १४२ लोकसामान्याधिकार पापा:-तनुवातवलय के बाहुल्य के नव लाख खण्ड करने पर एक खप में अषन्य प्रवगाहना वाले मिच परमेष्ठी हैं और उसी बाहुल्य के पन्द्रह सौ खण्ड करने पर उसके एक खण्ड में उत्कृष्ट अवगाहना वाले सिद्ध परमेष्टी विराजमान हैं ॥१४॥ अथ नदवगाहं व्यवहारं कुर्वन्नाह पणसयगुणतणुवादं इच्छियउगाहणेण पविभत्र । हारो तणवादस्स य सिद्धाणोगाइणाणयणे ।।१४२|| पञ्चशतगुणतणुवातः इच्छितावगाहनेन प्रविभक्तः । हारस्तनुवातस्य च सिद्धानामवगाहनानयने ॥१४२।। पण । पञ्चशत ५०० गुरिणत ७८७५०० सनुपात: १५७५ ईप्सितावगाहनेन प्रविभक्त हारस्सनुवातस्य च सियामामवाहनानयने । एतावत्सरहानां ६०००० एतावासु ७८७५०० ग्यवहारवशेष एकस्य कियातो वा इति सम्पास्य एतावता ११२५०० अपवर्तने जघन्याबगाहः एषमुस्कृष्टावगाहो मासण्यः । उभयत्र चतुर्गापवर्तनविषिश्व नातव्यः ॥१४॥ उस अवगाहना को ध्यबहार रूप करने के लिए -- गापा:-तनुवातवलय के वाइल्य को ५० से गुणा कर इच्छित ( जघन्योत्कृष्) मवगाहना का . भाग देने पर जो लन्ध प्रान हो उसका तनुवातवलय के बाहुल्य में भाग देने पर सिद्धों की इच्छित अवगाहना प्राप्त हो जाती है ।।१४२॥ विशेषार्थ:- तनुबातवलय का बाहुल्य नो प्रमाणाड गुल की अपेक्षा है, और सियों की अवगाहना व्यवहाराङ गुल अपेक्षा है. अतः तनुवात वलय के बाहल्य ( मोटाई) १५७५ धनुष को ५०० से गुणित करने पर ( १५४५ x ५.. ) सात लाख सत्तासी हजार पांच सौ (७८७५०० ) व्यवहार धनुषों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । इसमें जघन्य अवगाहना धनुष का भाग देने पर ( ७१७५० प्रति ५८१५2x5 ) ३०००.० खाट प्राप्त होते हैं। जबकि ९०.००० खण्डों में ७८७५०० व्यवहार धनुष होते हैं, तब १ खण्ड में कितने धनुष प्राप्त होंगे? इस प्रकार राशिक कर 8882 को ११२५०. से अपवर्तित करने पर व्यवहार धनुप प्रमाण सिद्धों की जघन्य अवगाहना प्राप्त होती है। मिद्धों की जघन्य अवगाहना ३१ हाथ की होती है, नथा ४ हाथ का एक धनुष होता है, मत! जब कि ४ हाथ का १ धनुप होता है, तब ३३ हाथ के कितने धनुष होंगे ? इस प्रकार राशिक करने पर (ix) धनुप प्राप्त होंगे। जबकि ७८०५०० धनुष के ६००००० खण्ड प्राप्त होते हैं, तब धनुष के कितने खण्ड प्राप्त होंगे ? इस प्रकार पुन, त्रैराशिक कर (8288x2) अपवर्तित करने पर १ मण्ड प्राप्त होता है, अतः जघन्य अवगाहना वाले सिद्ध परमेष्ठी तनुवातवलय के भाग में बिराजमान हैं, यह बात सिन्च हुई। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाय।।१४३-१४४ उस्कृष्ट अवगाहना:-सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष की होती है, तथा तनुपातवलय की मोटाई १५७५ धनुष है. जिसके ७८७५०० च्यवहार धनुष होते हैं । जबकि ५२५ धनुष का खण्ड होता है, तब ७८७५०० धनुष के किनने खण्ड होंगे? इस प्रकार राशिक करने पर ( UN = १५०० खण्ड प्राप्त हुए । जबकि ७८७५०० नुष के १५७७ ग्राण्ड होते हैं, तब ५२५ धनुष के कितने खण्ड होंगे? इस प्रकार पुनः राशिक करने पर ( १९५५) १ खण्ड प्राप्त हुआ, अत: सिद्ध हुआ कि उस्कृष्ट अवगाहना वाले सिद्ध परमेष्ठी तनुवातघलय के पय भाग में रहते हैं। अथ असनालोस्वरूपमाह लोयबहुमज्झदेसे सखे सारच रज्जुपदरजुदा । बोइसरज्जुन गा तमणाली होदि गुणणामा ।।१४३।। लोकबहमध्यदेशे वृक्षे सार इव रज्जुप्रतरयुता। चतुर्दशरज्जत्तुङ्गा त्रमनाली भवति गुणनामा ॥१४३।। लोय । लोकबहुमध्यवेशे पृचे सार घ रजुप्रतरमुता चतुवंशरज्जूतजा समालो भवति गुरणमामा । सुनकोटीयाविना सरफलमानैतव्यं - ॥१४३॥ श्रस नाली का स्वरूप.--- गामा:-लोकाकाश के बहुमध्य प्रदेशों में ( बीच में ) वृक्ष के मध्य में रहन वाले सार भाग के सहश, तथा एक राजू प्रतर से सहित चौदद्द राजू ऊंची और सार्थक नाम वाली अस नाही है ||१४३॥ विशेषाय:-लोक के बहमध्य प्रदेशों में प्रसनाली उसी प्रकार विद्यमान है जिस प्रकार वृक्ष के र छाल आदि तो उपरिम भाग है । मध्य में सारभून लकड़ो विद्यमान रहती है । यह त्रसनाली। राजू लम्बी एक राजू चौड़ी और १४ राजू ऊंची है । यहां १ राजू लम्बाई भजा और १ राजू चौड़ाई कोटि है, तथा १४ राजू ऊंचाई का नाप उत्सेध है । इन १ राजू भुजा, १ राज कोटि और १४ राजू ऊंचाई का परस्पर गुणा करने से ( १x१४१४ ) त्रस नाली का क्षेत्र फल १४ पन राजू प्रमाण प्राप्त होता है। लोक, ३४३ घन राजू प्रमाण है, उसमें मात्र १४ घन राजू प्रमाण में बस नाली है अर्थात् प्रस जीव पाये जाते हैं, शेष ३२९ घन राजू में मात्र स्थावर जीव ही प्राप्त होते हैं, बस नह मारणान्तिक एवं केलि समुद्धात वाले यस जीवों के आश्म प्रदेशों का सत्व अवश्य ३२९ घन राज में पाया जाता है किन्तु उसकी यही विवक्षा नहीं है। अथ मनाल्यवस्थभूमेदादिमाह मुरबदले सचमही उवरीदो ग्यणसरकरावालू । पंका धूमतमोमहनमप्पहा रज्जुस्तरिया ।।१४४।। मुरज बले सप्तमाः उपरितो रस्नशकरा बालुः । पला धूमतमामहातमप्रभा रर्वतरिता ११४४।। पपाद, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया। कोकसामान्याधिकार मुरष । पुरनले ससमझः उपरित प्रारम्य रलशकरा वालुकापडपातमोमहातमः प्रभास रवंतरिताः। पत्र प्रभाशरदः प्रत्येकमभितम्बरण्यः ॥१४॥ इस १४ घन राजू प्रमाण क्षेत्र से बाहर अस जीव नहीं पाये जाते इसीलिये इसका अस नाली नाम सार्थक है। त्रस नाली के अपोभाग में स्थित पृध्यिमों के शव आदि महा:--- गावार्थ:-अर्घ मृदङ्गाकार में सात पृथ्वि यो है। सबसे ऊपर (1) रनमा फिर (२) पारा प्रभा (३) बालुका प्रभा (४) पक प्रभा (५) धूम प्रभा (६) तमः प्रभा ओर (७) महातमः प्रभा है। प्रत्येक पृथ्वी एक एक राजू के अन्तर मे है ।।१४४।। विशेषा --लोक का प्राकार वेद मृदङ्ग के सदृश कहा गया है । जिसमें अमृदङ्गाकार में अषो लोक है । इसी अर्धमृदङ्गाकार में ही रत्नप्रभा आदि सात पृध्वियां हैं। ये सातों पृध्वियों सार्थक नाम वाली है, क्योंकि इनमें क्रम में रल, मिश्री, रेत, कादा(कीचड़ ) घुमा, अन्धकार और महा मंधकार के सदृश प्रभा पाई जाती है। ये सातों पृध्वियो एक एक राजू के अन्तर से स्थित हैं । मध्य लोक और प्रथम पृथ्वी के बीच में कोई अन्तर नहीं है अर्थात् प्रथम पृथ्वी का उपरिम भाग मध्य लोक है । (मध्य लोक के तल भाग से स्पर्शित ही प्रथम पृथ्वी है ) । प्रथम पृथ्वी से एक राजू के अन्तर पर दूसरी पृथ्वी है। इसी प्रकार तीसरी आदि पृध्वियां एक एक राजू के अन्तराल से हैं। यहां प्रभा शब्द प्रत्येक भूमि के साथ लगा लेना चाहिए। अथ तासां संशान्तराग्याह घम्मा रंसा मेघा अंजपरिहा य हावि मणिउन्मा | छट्ठी मघवी पुढवी समिया माधवी गामा ॥१४५।। घर्मा वंशा मेघा अञ्जनारिष्टा च भवन्ति अनियोध्याः । षष्ठी मधवी पृथ्वी समिका माधवी नाम ॥१४॥ घम्मा । धर्मशा मेघा पानारिहा भवन्ति पमियोध्या पाविनामाम: बडी मषबी पृथ्यो सप्तमी माधवो माम ॥१४५॥ जन पृथ्वियों के नामान्तर कहते हैं गाथार्ष:- धर्मा २ वंशा ३ मेघा ४ अञ्जना ५ अरिया ६ मघवी, और ७ माधवी ये सात पृश्चिमा अनियोध्या अर्थात् अधरहित नाम वाली हैं ॥१४॥ विशेषा:-सातों नरक पृथ्वियों के घर्मा, वंशा, मेघा, मचाना, अरिष्टा, मषनी पौर माघी घे अनादिरूढ़ पर्यायान्तर नाम हैं । इन नामों का कोई अर्थ नहीं है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलोसार पाथा:.१४-१४८ मय तत्र प्रपमपृथिवीभेवमाह रयणप्पहा तिहा खरमागा पंकापबहुलभागाति । सोलस चउरासीदी सीदी जोयणमहस्सराहन्ला ||१४६॥ रत्नप्रभा त्रिधा खरभागा पापबहुलभागा इति। षोडश चतुरशीतिः अशीतिः योजनसहस्र बाहल्या ॥१४६।। एम। रत्नप्रभा निषा सारभागा पङ्कभागा अपहलमापा चेति योग्य तुरशीति बशीतिबोबसवाया ॥१४६॥ प्रथम पृथ्वी के भेदः जापा:---रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन भाग हैं-खरभाग, पङ्कभाग और अपबहुल भाग । इन तीनों का बाढल्य क्रमषाः सोलह हजार, चौरासो हजार और अस्सी हजार योजन है ॥१४६।। विशेषा:-प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी खरभाग, पनुभाग और अबहुल भाग के भेद से तीन प्रकार की कही गई है। इनमें खरभाग नाम का प्रथम भाग सोलह हजार ( १६००० ) योजन मोटा, द्वितीय भाग चौरासी हजार ( ८४००० ) योजन मोटा और तृतीय भाग अस्सी हजार ( ८०...) पोजन मोटा है। घोडशभुवां संज्ञा गाथाय नाह चिचा बज्जा वेलुरियलोडिदखा ममारगल्लवणी । मोमेदा य पवाला जोदिग्सा अंजणा गवमी ।।१४७॥ अंजणमूलिय अंका फलिहा चंदण सवत्थगा बकुला । सेलक्खा य सहम्मा एगेगा लोगरिमगया ॥१४८।। चित्रा वाचा वैडूर्या लोहिताच्या मसारकल्पावनिः । गोमेशा च प्रयाला जोतिरसा अजना नवमी ।।१४७।। बञ्ज नमूलिका अङ्का स्फटिका चन्दन। सर्वार्थ का बकुला। शलाख्या च सहस्रा एकका लोकचरमगता ॥१४८।। चित्ता। चित्रा बच्चा बडा लोहिताख्या मसारस्पानिः गोमेवा च प्रवाला ज्योतिरमा सम्ममा नवमी ॥१४॥ अंजण । प्रालिका प्रडा स्फटिका चन्दना सपिंका बकुला शेलारूपा च सहनमिता । एकेका लोकवरमगता; ॥१४॥ --- . ... - .-.- -. बाहमया (०)। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसामान्याधिकार रभाग में १६ पृथ्वियां हैं। उनके नाम दो गाथाओं द्वारा कहते हैं गावार्थ:- १ चित्रा २ वा ३ वैडूर्या ४ लोहिता ५ मतारकल्पा ६ गोमेदा ७ वाला ज्योतिरसा ९ जना १० अञ्जनमूलिका ११ अड्डा १२ स्फटिका १३ चन्दना १४ सर्वार्थका १५ वकुला और १६ शैला ये एक एक हजार योजन प्रसाद बाहुल्य वाली सह पृथ्विया है की लोक के अन्त तक गई है ।।१४७- १४८ ।। गाथा : १४०-१५० विशेषार्थ:- खरभाग सोलह हजार योजन मोटा है। उसमें एक एक हजार योजन मोटी चित्रा आदि सोलह पृथ्वियां हैं; इनके बीच में किसी प्रकार का अन्तराल नहीं है। जैसे किसी अपेक्षा पर्वत के भाग कर लिए जाते हैं, उसी प्रकार यहां खर भाग के सोलह भाग किए गए हैं। ये सोलह पृथ्वियाँ लोक के अन्त तक फैली हैं अर्थात् इन पुत्रियों को लम्बाई चौड़ाई लोक के समान है । अथ द्वितीयादीनां बाहुल्यमाह बसीसमवीसं चडवीसं बीस सोलसड्डाणि । मढवीणं सहस्यमायेदि बाहुलियं || १४९|| द्वात्रिंणदष्टाविंशतिः चतुविशतिः विशति षोडणाष्टौ । अधस्तन षट् पृथ्वीनां सहस्रमानै बाहुल्यम् ॥ १४९ ॥ प्रतीस । द्वात्रिंशदष्टाविशतिः चतुविंशतिः विंशतिः षोडशाष्टौ प्रथस्तनषपृथ्वीमा योजनसहस्रस्यम् नेयम् ॥ १४६ ॥ द्वितीयादि नरक पृथ्विमों का बाहुल्य कहते हैं गाथा: शर्करा पृथ्वी को आदि लेकर नीचे को छह पृथ्वियों की मोटाई क्रमशः बत्तीस हजार, (३२००० ) अट्ठाईस हजार ( २८०००) चौबोस हजार ( २४००० ), बीस हजार (२०००० ), सोलह हजार १६००० ) और बाठ हजार ( ८००० ) योजन प्रमाण है || १४९ ।। १५७ विशेषार्थ - द्वितीय शर्करा पृथ्वी की मोटाई ३२००० योजन, बालुका की २५००० योजन, प प्रभा की २४००० योजन, धूमप्रभा की २०००० योजन, तमः प्रभा की १६००० योजन और महातमः प्रभा की ८००० योजन मोटाई है। अथ तासु स्थितपटलानां स्थानान्याह -- सप्तमधिज्मे बिलाणि सेसासु अव्यबहुलोति । हे वरं च सहस्सं वज्जिय पडलक्कमे होति ॥ १५० ॥ सममिति बहुमध्ये बिलानि शेषासु अन्बहुलान्तम् । उपरि च सहस्र वर्जयित्वा पटलकमेण भवन्ति ।। १५० ।। ܒܝ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : १५१-१५२ ससम । सप्तमक्षिसिबहुमध्ये बिलानि शेषातु पाइलमागपर्यन्तं प्रय परिप सहनयोजन बर्जविस्वा पटलक्रमेण भवन्ति ॥१५॥ उन पृवियों में स्थित पटलों का स्थान कहते है - गापार्ष:-सप्तम पृथ्वी के बहमध्य भाग में दिल हैं तथा अवशेष पांच पृध्वियों एवं प्रथम पृथ्वी के अब्बहल भाग पर्यन्त नीचे व ऊपर एक एक हजार मोजन छोड़कर पटलों के कम से बिल पाए जाते हैं ॥१५॥ विशेषार्थ:-सातवीं पृथ्वी आठ हजार योजन मोटी है । इसमें ऊपर और नीचे बहत मोटाई छोड़कर मात्र बीच में बिल है। किन्तु, अन्य पाँच पृध्वियों में और प्रथम पृथ्वी के मब्बहल भाग में नीचे ऊपर की एक एक हजार योजन मोटाई छोड़कर बीच में जितने जितने पटल बने हैं, उनमें अनुकम से बिल पाए जाते हैं । अथ प्रथमादीनां बिलसंख्यामाह. सीसं पाणुवीमं पण्णरसं दम तिपिण पंचहीणेक्कं । लक्खं सुद्धं पञ्च य पुढत्रीसु कमेण णिरयाणि ॥१५१।। त्रिशत् पञ्चविंशतिः पञ्चदश दश त्रीणि पञ्चहीनेकम् । लक्ष शुद्ध पञ्च च पृथ्वोपु क्रमेण निरयाणि ।।१५।। तोस । त्रिशात पविशतिः पञ्चश श त्रीणि पञ्चहीमेक एतत्सर्व समं शुग पञ्च पृथ्वी कमेण निरमारिण विलानि इस्पर्थः ॥११॥ प्रथमादि पृध्वियों में बिलों की संख्या - गाघार्थ:-छह पृश्चियों में क्रमश: तीम दाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दश लाख, तीन लाख और पांच कम एक लाख बिल है नथा सातवी पृथ्वी में शुद्ध अर्थात लक्ष विशेषण रहित केवल पाँच दिल ही हैं ॥१५॥ विशेषा:-प्रथम नरक में ३०००।००, दूसरे में २५०००००, सीमरे में १५०००००, चौधे में १००००००, पाँच में 1000००, टेमें पाँच कम एक लाख और सातवें नरक में पांच बिल है। अथ तास्वतिशीतोष्णविभागमाह रयणप्पहपूढधीदो पंचमतिचउत्थओचि पदिउण्डं । पन्धमतुरिए छह सत्चमिए होदि भदिनीदं ॥१५२।। रत्नप्रभापृथ्वीतः पञ्चमतिघउत्थ मोत्ति अदिउन्ह । पञ्चमतुरीये षष्ठयां ससम्मा भवति अतिणीतम् ॥१५॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया। १५२ . जोकमानास्माधिकार १५ पण । एमप्रमापृथ्वीमारभ्य पञ्चमभुवः शिचतुषमागपत प्रामुष्णं पञ्चमभुवाच मागे पाषा सप्तम्या व भुवि भस्थतिमीतम् ॥१२॥ उन पृथिवयों में अति शीत और अति उष्ण का विभाग कहते हैं : गायार्थ:-रत्नप्रभा पृथ्वी से पांचवीं पृथ्वी के तीन चौथाई भाग पर्यन्त अति उष्ण वेदना और पांचवीं पृथ्वी के शेष एक चौथाई भाग में तथा छठी और सातवीं पृथ्वोमें अतिशय शीतवेदना है ॥१५२।। विशेषा:- रस्नप्रभा पृथ्वी से पाचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के तीन वटे चार भाग (209080x4 ) अर्थात् ३७००००० + २५०७४.०+१५००००० + १०००.००+२२५००० = २२५०.० ( बयासी लाख पञ्चीस हजार ) चिलो पर्यन्त अति उष्ण वेदना है और पांचवीं पृथ्वी के शेष एक बटे चार भाग ( 42940x2 ) से सातवी पृथ्वी पयन्त अर्थात् ७५.०० + ९९९९५+५=१.७५००० (एक लाख पिचहत्तर हजार । बिलों में अत्यन्त शीतवेदना है। अथ मास्चिन्द्रकश्रेणीबद्धसंख्यामाह तेरादि दुहीणिदय सेढीबद्धा दिसासु विदिसासु । उणवण्णडदालादी एककेकेणूणषा कमसो ।।१५३॥ त्रयोदशाद्या विहाना इन्द्रकाः भणीनदा दिशासु विदिशासु । एकोनपश्चाशदष्टचत्वारिंशादि एकैकेन न्यूना: क्रमशः ॥१५॥ तेरावि । प्रयोगशाखा लिहीना इन्धकाः घणीवया विज्ञासु विदिशासु यथासंपमेकीनपशाशयपचारिशवावि पटलं पटलं प्रत्येक केन पूनाः क्रमशः ॥१५३॥ उन पृथ्विया के इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलों को संख्या कहते हैं गाथा:- तेरह को आदि करके प्रत्येक पृथ्वी में उत्तरोत्तर दो दो हीन इन्द्रक विल है तथा श्रेणीबद्ध बिल दिया और विदिशा में कमशः ४६ और ४८ से प्रारम्भ होकर प्रत्येक पटल प्रति एक एक हीन होते गए हैं ।।१५३॥ विशेषार्थ:--प्रथम पृथ्वी में सर्व इन्द्रक बिल तेरह है । शेष छह पृथ्वि यों में वे क्रमशः दो दो हीन होते गये हैं । ११.९,७,५, ३, १ । । इस प्रकार सर्व इन्द्र र ४६ हैं । एक एक पटल में एक एक इन्द्रक बिल हैं, अत: पटल भी ४९ ही हैं। प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल की एक एक दिशा में उनचास उनचास ( ४९, ४९ ) श्रेणीबद्ध बिल, और एक एक विदिशा में अड़तालोस, अक्षतालोस ( ४८, ४८ ) श्रेणीव बिल हैं, तथा द्वितीयादि पटल से सप्तम पृथ्वी के अन्तिम पटल पर्यन्त एक एक दिशा एवं विदिशा में क्रमशः एक एक घटते हुए श्रेणीबद्ध बिल है, अतः सप्तम पृथ्वी के पटल की दिशाओं में वो एक एक श्रेणीबद्ध है किन्तु विदिशाओं में उनका प्रभाव है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : १५४-१५५ प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशामें ४९ और विदिशा में ४८ श्रेणीबद्ध है। प्रथम पृथ्वी के अन्तिम पल की दिशा में ३७ और विदिशा में ३६ श्रेणीबद्ध हैं । द्वितीय पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशा ३६ और विदिशा में ३५ श्रेणीबद्ध हैं । द्वितीय पृथ्वी के अन्तिम पटल की दिशा में २६ और विदिशा में २५ श्रेणीबद्ध हैं। तृतीय पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशा में २५ और विदिशा में २४ श्रेणीबद्ध हैं। तृतीय पृथ्वी के अन्तिम पटल को दिशा में १७ ओर विदिशा में १६ श्रेणीबद्ध हैं । चतुर्थं पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशा में १६ और विदिशा में १५ श्रेणीबद्ध हैं । चतुथं पृथ्वी के अन्तिम पटल की दिशा में १० और विदिशा में ६ श्रीबद्ध है। पंचम पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशामें ९ और विदिशा में गीबद्ध हैं। पंचम पृथ्वी के अन्तिम पटल की दिशा में ५ और विदिशा में ४ श्रेणीबद्ध हैं । ष्ठ पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशा में ४ और विदिशा में ३ श्रेणीबद्ध हैं । पद्म पृथ्वी के अन्तिम पटल की दिशा में २ और विदिशा में १ श्रीबद्ध हैं । समम पृथ्वी में एक ही पटल है, और उसको एक एक दिशा में एक एक ही श्र ेणीव बिल हैं, तथा विदिशाओं में श्री गीबद्ध बिलों का अभाव है। 5 १६० अथ ताविन्द्रक मंज्ञां गाथापट नाह . सीमंत गिरवतुमंद्रियाय संतो तदोष असंतो वीतो मम तत्थो || १५४ ॥ afrat Tehara होदि अवकतणाम विक्कंती | पढमे तदगो बणगो मणगो खड़ा खडिगा || १४५ ।। जिकमा जिभिगमण्णातो लोलिगलोलवत्थथणलोलो । चिदिए तो तविदो तो तावणणिदाहा य ।। १५६ ।। उज्जलिदो पज्जलिदो संजलिदो संपजलिदणामा य । नदिए भारा मारा नारा चच्चाय तमगी य ॥ १५७ ॥ घडाघडा चन्थे तमगा भ्रममा य मग अंद्धिदा । तिमिसाय पंचमे हिमवलललगित ॥ १५८ ॥ मीमन्तनिर रौरव भ्रान्तोदभ्रान्तेन्द्रकाः च सम्भ्रान्तः । ततोऽपि असम्भ्रान्तः विभ्रान्तः नवमः स्तः ।। १५४ ।। त्रसितो व क्रान्ताख्यः भवति अवक्रान्तनाम विक्रान्तः । प्रथमायां ततः स्तनकः वनकः मनकः खड़ा खटिका || १५५१ | जिह्वा जिह्निसंज्ञा ततो कोकिलोलवतास्तनलोलाः । द्वितीयायां तमः नपितः तपनः तापननिदाघ च ॥ १५६ ॥ ↓ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १५१ लोकसामान्याधिकार उज्ज्वलित: प्रज्वलितः सवलित: सम्प्रज्वलितनामा च । तृतीयायां मारा मारा तारा चर्चा च तमकी च ॥१५७।। घाटा घटा चतुर्थ्यां तमका भ्रमका चशषणा अन्धेन्द्रा। सिमिना च पञ्चम्यां हिमवादलिलल्लकत्रितयं षाधाम् ।।१५८|| सीमंत । सोमन्तानिरयौरवभ्रान्तोद्धान्तेन्द्रमा: 1 सम्भ्रान्तः ततोऽपसम्भ्रान्तः विधातः मनमः अस्तः ॥१४॥ तसिवो। त्रसितो वहाताख्यातो भवति पातमाम विकान्तः प्रथमपृथिव्या १३ ततकKARE TRE: ममका खाडिका ॥१५॥ स्मिा। शिक्षा मिहिकसंजा तो लोलिकलोलघरसस्तमलोलाः द्वितीयाय ११ ससस्तपितस्तपनस्तापननिवाघौ च ॥१५॥ उस्म । अज्ज्वलित: प्रज्वलितः सम्वलित: सम्प्रज्वलितमामाच तृतीयायां मारामारा तारा वर्षातमको प॥१५७।। पामा । घाटा घटा चतुष्ा ७ तमका धमक्षाब मवका प्रम्धेमा तिमिस्रा च पञ्चम्या ५ हिमवासिलल्लल्यः इति त्रयं षष्ठपाम् ॥१५८॥ इन्द्रक बिलों के नाम छह गाथाओं द्वारा कहते हैं गाचार्य:- १ सोमन्त २ निरय ३ रौरव ४ भ्रान्त ५ उद्घान्त ६ सम्भ्रान्त . असम्भ्रान्त ८ विभ्रान्त ९ त्रस्त १० सिन ११ वक्रान्त १२ अवकान्त और १३ विक्रान्त, ये तेरह इन्द्रक बिल प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी में हैं । १ ततक २ स्तनक ३ वनक । मनक ५ खड़ा ६ खडिका ७ जिह्वा ८ जितिक ९ लोकिक १० लोलवत्स और ११ स्तनलोला, ये ग्यारह इन्द्रक बिल द्वितीय शकंराप्रभा पृथ्वी में हैं । । तर २ तपित ३ तपन ४ तापन ५ निदाघ ६ उज्ज्वलित ७ प्रज्वलित ८ सज्वलित र सम्प्रज्वलित, . ये नो इन्द्रक बिल तृतीय बानुकाप्रभा पथ्वी में है । १ आरा २ मारा ३ तारा ४ पर्चा ५ तमकी ६ घाटा और ७ घटा, ये सात इन्द्रक बिल चतुर्थ पङ्कप्रभा पृथ्वी में हैं । १ तमका २ भ्रमका ३ अषका ४ अन्धेन्द्रा और ५ तिमिनका ये पांच इन्द्रक विल पञ्चम धूमप्रभा पृथ्वी में हैं तथा १ हिम २ वालि और । लल्लकि, ये तीन इन्द्रक बिल छठी तम:प्रभा पृथ्वी में हैं ।।१५४-१५८।। विशेषार्थ:-सुगम है। भोहिडाणं घरिमे तो सीमंतादिसेदिविलणामा । पुवादिदिसे फंखापिवास महकख मइपिवासा य ॥१५९।। अप्रतिस्थानं चरमै ततः सीमन्तादिश्रोणिबिलनामानि । पूर्वादिदिशायाँ काङ्क्षा पिपासा महाकाङ्क्षा अतिपिपासा च ॥१५९॥ कान्तापो (म.)। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाषा: १५० पोहि । स्पिानं प्रतिक्षितम्पानं वा रमेचरमायो । ततः सौमन्तारिणिबिलनामामि। धर्माया: पूर्वादिविशायो काक्षा विपासा महाकाक्षा प्रतिपिपासा ॥१५॥ नामा:--सप्तम महातम प्रभा पृथ्वी में अवधि स्थान ( अप्रतिष्ठित ) नामका एक ही इन्द्रक विल है । सीमन्तादिक इन्द्रक सम्बन्धी पूर्वादि दिशाओं में जो चार चार श्रेणीबद्ध बिल हैं उनके नाम १. कांक्षा, २ पिपासा. ३ महाकाक्षा, और ४ महापिपामा हैं ॥१५९।। विशेषा-नरक पश्चियां सात हैं। इनमें जीवों की उत्पत्ति स्थानों के इन्द्रक, मणीवद्ध और प्रकीर्णक ये तीन नाम हैं। जो अपने पटल के सर्व बिलों के ठोक मध्य में होता है, उसे इन्द्रक कहते हैं, इस इन्द्रक बिल को चारो दिशाओं एवं विदिशाओं में जो बिल पंक्ति रूप से स्थित हैं, उन्हें वेणीबद्ध, तथा जो श्रेणीबद्ध बिलों के बीच में बिखरे हुए पुष्पों के ममान यत्र तत्र स्थित है, उन्हें प्रफीक कहते हैं । प्रत्येक नरक में कम से १३.११.१,७,५,३ और १ ( इस प्रकार ४६ ) इन्द्रक बिल हैं । गाथा नं. १५४ मे १५८ तक तथा गाथा १५९ के पूषिं में इन ४९ इन्द्रक विलों के नाम साये गये हैं। प्रत्येक पथ्वी के प्रथम इन्द्रक की चारों दिशाओं में जो श्रेणीबद्ध बिल हैं, उनमें से चारों दिशाओं के प्रथम प्रथम श्रेणीबद्ध बिलों के नाम दर्शाये जाने के लिए गाथा १५६ के उत्तराध में प्रथम धर्मा पृथ्वी के प्रथम सामन्त इन्द्रक बिल को चारों दिशाओं में जो ४६,४९ श्रेणीबद्ध बिल हैं, उनमें से बारों दिशाभों के प्रथम श्रेणीबद्धों के कम से कांक्षा, पिपासा, महाकांक्षा और महापिपासा ये नाम कहे गये हैं। - प्रथोत्तराघस्य पात निकां गर्भीकृत्य गाथात्रयमाह पंसतदगे अणिच्छा अविज्ज महणिच्छ महमविज्जा य । तचे दुक्खा वेदा महदुक्ख महादिवेदा य ॥१६॥ वंशाततके अनिच्छा अविद्या महानिच्छा महाऽविद्या च । तप्त दुःखा वेदा महादुःस्खा महादिवेदा च ॥१९॥ वंस । वंशावाततकेाके मनिया विधा महानिच्छा महाविणा । मेधायाः तप्तेन्द्र कुमा बेवा महाबुःला महाका ७१६०॥ शेष २४ श्रेणीबद्ध विलों के नाम तीन पायाओं द्वारा कहते हैं: गापार्षः-शा पृथ्वी के तत इन्द्रक बिल की चारों दिशाओं में कम से अनिच्छा, अविद्या, महानिच्छा और महाविद्या नामक चार प्रथम श्रेणीबद्ध बिल हैं । मेधा पृथ्वी के तम इन्द्रक को चारों दिशाओं में दुःखा, वेवा, महादुःखा और महावेदा नामक चार बिल हैं ।।१६.1 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : १६१-१२ छोकसामान्याधिकार १३ विशेषा:-द्वितीय वंशा पृथ्वी के तत नामक प्रथम इन्द्रक बिल को चारों दिशाओं में क्रमशः ३६.३६ श्रेणोबद्ध बिल हैं। उनमें से प्रथम प्रथम श्रेणीबद्धों के कम से अनिच्छा, अविद्या, महानिच्छा और महाविद्या नाम है, तथा तृतीय मेघा पृथ्वी के तप्त मामक प्रथम इन्द्रक को चारों दिशाओं में २५, २५ प्रेणीबद्ध हैं। उनमें से प्रथम प्रथम श्रेणीबद्धों के कम से दुःखा, वेदा, महादुःखा और महावेदा नाम हैं। आराए दु णिसिहागिरोहअणिसिहमहणिरोहा य । समग णिरुद्धविमद्दण महपृथ्वणिरुद्धमहविमद्दणया ॥१६१॥ आरायां तु निगृष्टा निरोधा अनिसृष्टा महानिरोधाप। तमके निवद्धविमदनअतिपूर्वनिरुद्धमहाविमर्दनाः ।।१६१॥ पारराए । मम्मनापा: मारेन के तु निसृष्टा निरोधा अनिस्टा महानिरोषा । परियामा समोनके नियषिमन प्रतिनियमहाविममहाश्च ॥१६१० पापा:---आरा इन्द्रक की चारों दिशाओं में क्रमश. निसृष्टा, निरोधा, अनिसृष्टा और महानिरोषा नामक घणीबद्ध हैं । तथा तमका इन्द्रक को चारों दिशाओं में प्रमशः निरुव, विमर्दन, अति निकल और महाविमर्दन श्रेणीबद्ध बिल हैं ।।१६१।। विशेषाय-- चतुर्थ अॅना पृथ्वी के आरा नामक प्रथम इन्द्रक की चारों दिशाओं में क्रमशः १६,१६ श्रेणीबद्ध हैं, उनमें प्रथम प्रथम श्रेणीबद्धों के क्रम से निसृष्टा, निरोधा, अनिसृष्टा और महानिरोधा नाम है । पखम अरिष्टा पृथ्वी के तमका नामक प्रथम इन्द्रक की चारों दिशाओं में ९,९ श्रेणीबद्ध बिल हैं, उनमें प्रथम प्रथम श्रेणीबद्धों के क्रम से निरुद्ध विमर्दन, अतिनिबद्ध और महा विमर्दन नाम है। हिमगा णीला का महणील महादिपंक सत्तमये । पढ़मो कालो रउरवमहकालमहादिग्उरषया ||१६२।। हिम के नीला पड़ा महानीला महादिपक्षा सप्तम्याम् । प्रथमः काल. रोरवमहाकालमहादिरोरवाः ॥१६॥ हिममा । मघध्याः हिमकेन्द्र के नौला पङ्का महानीला महापसा च । सप्तम्या प्रथमः काल: रोरबमहाकासमहारथाः ।।१२।। पायार्थ:-हिम इन्द्र क बिल की चारों दिशाओं में नीला, पङ्का, महानीला और महापका श्रेणीबद्ध है । तथा सप्तम पृथ्वी के अवधिस्थान इन्द्रक की चारों दिशाओं में क्रमश: काल, रौरव, महाकाल और महारौरव नाम के श्रेणीबद्ध बिल हैं ॥१२॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार भाषा । १३ विशेषा-प मा पृथ्वी के हिम नामक प्रथम इन्द्रक बिल को चारों दिशाओं में ४,४ श्रेणीबद्ध बिल हैं। उनमें प्रथम प्रथम श्रेणीबद्ध बिलों की क्रमशः नीला, पङ्का, महानोला और महापका संज्ञाएं हैं । सप्तम माषत्री पृथ्वी में अयधिस्थान नामक एक ही इन्द्रक बिल है और इसकी चारों दिशाओं में क्रमशः काल, रौरव, महाकाल और महारौरव नाम के कुल ४ ही श्रेणीबद्ध बिल हैं । अथ प्रतिपृथ्वि प्रथमपटलधन धृत्वा चरमपटलधनमानेत चरमपटलधनं घृका प्रथमपटलधनमानेतु' वा गाथामाह वेगपदं चयगुणिदं भूमिम्हि मुहम्मि रिणधनं च कर । मुहभूमीज़ोगदले पदगुणिदे पदवणं होदि ।।१६३।। व्येकपर्व चयगुणितं भूमौ मुखे ऋणं धनं च कृते । मुखमियोगदले पदगुणिते पदघनं भवति ।। १६३।। वेगपर्व । प्रथमपटल विग्विागत मेंरिणब Te+४८ मेलपिस्या १७ सतुभिः सह गुरिणते ३८८ भूमिभवति । चरमपटल विग्विदिग्गतषेरिणबद्ध । ३७+३६ मेलयित्वा ७३ चतुभिगुंरिणते २९२ मुखं स्यात् । सत्र मूमौ ३८८ मुखे घ २९२ यथासंख्येन विगतकपर्व १२ सय ८ गुणितं ९६ ऋणे बने पकृते २९२२३८८ मुखभूमी स्यातां । तयोोंगे ६८० वलिते ३४० पट १५ गुणिते ४४२० प्रथमपृथ्वीश्रेरिणबहसलिलपवनं भवति । यकसहितमेवामानेत यं ४४३३ । समस्तपृथ्वीमेणोक्शानयने येवमेवानेतन्यम् । तत्र मुखं ५ भूमिः ३८६ ॥१३॥ अब प्रत्येक पृथ्वी के प्रथम पटल का धन रखकर अन्तिम पटेल का धन लाने के लिए तथा अन्तिम पटल का धन रख कर प्रथम पटल का धन लाने के लिए कहते हैं पावार्थ:-- एक कम पद का चय में गुणा कर जो लब्ध प्राप्त हो उसे भूमि में में घटा देने पर मुख की प्राप्ति होती है तथा मुख में जोड़ देने से भूमि की प्राप्ति होती है। मुख और भूमि को जोड़कर आधा करने से जो लब्ध प्राप्त हो उसमें पदका गुणा करने में पद धन की प्राप्ति हो जाती है ।।१६३।। __विशेषार्थः-स्थान को पद' या गच्छ कहते हैं । अथवा जिन स्थानों में समान रूप से वृद्धि या हानि होती है, उन्हें पद या गच्छ कहते हैं । अनेक स्थानों में समान रूप से होने वाली वृद्धि अथवा हानि के प्रमाण को धय या उत्तर कहते हैं। आदि और अन्त स्थान में जो हीन प्रमाण होता है उम मुख या प्रभव तथा अधिक प्रमाण को भूभि कहते हैं । पद में से एक घटाकर चय से गुरिणत कर जो लम्ध आवे उसे मुख में जोड़ने से भूमि और भूमि में से घटा देन पर मुख का प्रमाण प्राप्त होता है। प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशा विदिशा के श्रेणीबद्ध बिलों को ओड़कर चार में गुर। करने पर भूमि होती है। जैसे : ४९+४८-९७xx=३८८ ( भूमि ), तथा इसी पृथ्वी के अन्तिम पटल की दिशा विदिशाओं के श्रेणीबद्ध बिलों को जोड़कर चार से गुगिन करने पर मुख प्राप्त होता Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोकसामान्याधिकार है। जैसे :-३७+३६-७३४४-२९२ मुख हमा। पदमें से एक घटाकर चय से गुणित कर जो रूप आवे उसे मुग्न में जोड़ने से भूमि और भूमि में से घटा देने पर मुख का प्रमाण प्राप्त होता है । जैसे:१३-१=१२४८ चय-१६ । भूमि ३८५-९६२९२ मुख और मुख २९२+९६-३८८ भूमि प्राप्त हुई। भूमि पौर मुख को जोड, बाधा कर उसे पद से गुणा कर देने पर सङ्कलित पद धम प्राप्त हो जाता है। जैम: भूमि मुख ३५०+२९२=६८०-२=३४.४ १३ = ४४२० प्रथम पृथिवी के थेणीबद्ध बिल। २८४ + २०४=४८८:२=२४४४११ - १६८४ द्वितीय पृथिवी के श्रेणीबद्ध बिल । १६६+१३२=३२८ २=१६xx = १४७६ तृतीय पृथिवी के श्रेणीबद्ध मिल। १२४+ ७६-२००-२=१००४ ७-५०० चतुर्थ पृथिवी के घेशीवज बिल 1 ६८+ ३६ - १०४+२= ५२४ ५=२६० पत्रम पृथिवी के अंणीवद्ध बिल । २८+ १२= ४०:२- २०४ ३८ ६. षष्ठ पृथिवी के श्रेणीबद्ध बिल । = ४ समम पृथिवी के भणीबद्ध बिल। इन्द्रक सहित घणीबद्ध बिलों की संख्या भी इसी प्रकार निकाल लेना चाहिए । प्रथम पृथ्वी के इन्द्रक एवं धरणीबद्ध ४४३३, द्वितीय पृथ्वी के २६९५ इत्यादि । ___ सातों परिवयों के इन्द्रक और श्रेणीचड़ों की सामूहिक संख्या निकालने के लिए मुख ५ और भूमि ३८६ है, अतः ३८९+५= ३९४-२=१९७४४ - ९६५३ इन्द्रक+ गीबद्ध । इन्द्रकोणाबद्धप्रमाणानयने सङ्कलितसूत्रमाह पदमेगणबिहीणं दुमाजिदं उतरेण संगुणिदं । पभवजुदं पदगुणिदं पदगणिदं तं विज्ञाणाहि ।।१६४|| पदमेकेन विहीन विभतं उनरेगा सच गुरिएतं । प्रभवयुत परिणतं पदगणितं तत् विजानीहि ॥१६४।। पद । प १३ एकेन विहीन १२ द्वाभ्या भल' ६ उत्तरेण - समलित प्रभव २९२ पुतं ३४० १५ १३ गुणितं ४४२० तसङ्कलितपनगणितमिति विजानीहि । एवं विसीयावि सर्वपृथिव्यामानेत यम् ॥१६४ ।। इन्द्रक और श्रेणीबद्ध विनों का प्रमाण निकालने लिए करण सूत्र कहते हैं--- पापा:-पदमें से एक घटाकर दो का भाग देने पर जो लम्ध्र प्राप्त हो उसमें उत्तर अर्थात चम से गुणाकर प्रभव अर्थात् मुख में जोड़कर पद से गुणा करने पर पद धन प्राप्त होता है ||१६|| Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाया। १६५ विशेषाः -पद १३ है, इसमें से १ घटाने पर १२ अवशेष रहते हैं, उन्हें २ से भाजित करने पर ६ रघ प्राप्त हुआ । इस ६ को उत्तर अर्थात् चय (८) से गुरिणत करने पर ४८ प्राप्त होते हैं । इनको बादि धन २९२ में जोड़ने पर मध्य धन ( २९२ + ४८ )=३४० प्राप्त हुआ। इसे पद (१३) से गुणित करने पर ( ३४०४१३ )=४४२० प्रथम नरक के कुल बिलों की संख्या प्राप्त होती है। इसी प्रकार दिलोयादि विषयों में भी जानना चाहिये । यथा. पृथिवियो-पद-१ = २-४ चय- + मुख- ४ पद = श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण प्रथम पृ०-१३-१-१२२-६४-४८ + २६२ = ३४०४१३-४४२० घणीव बिलों का प्रमाण दि० पृथिवी-११-१-१०-२-५xt=४०+२०४-२४४४११=२६८४श्रेणीबद्ध बिलोका प्रमाण तृतीय पृथिवी-९-५ =८:२-४४८-३२+ १३२१६४ ५ ६ = १४७६ श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण चतुर्थ प्रथिवी-७-१-६२-३४८- २४ +७६=१००४७=७०. श्रणीबद्ध बिलों का प्रमाण पश्चम पृथिवी-५-१= २-२४=१६१ -५२५-२५ बिलों का सामान षष्ठ पृथिवी-३-१=२-२=1x८०+१२ = २० x ३= ६. श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण सप्तम पृथिवी-१ श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण अथ प्रकारान्तरेण सहुलितानयनमाह पुढविदयमेगूण अद्धकयं वगियं च मूलजुदं । अद्वगुण चउसहितं पुरविंदपताडियं च पुढ विधण ॥१६५ पृथ्विीन्द्रकमेकोन अकृतं वगितं च मूलयुक्तम् । अष्टगुणं चतुः सहितं पृथ्वीन्द्रकताडितं च पृथ्वोधनम् ।।१६५।। पुढवि। पृथ्वीनकसंख्या १३ एकोना १२ संस्थाप्य अनेन हानिपुरधोरभावाद प्रथमपटले पयशलाका प्ररूपिता। प्रवकर्य म कृता यशलाका ६८ स्थापयेत् । प्रनेन सवंत्र पटलेषु पोनगमकाधमात्राचयालाकाः समीकृता जाता इति पढमायमित्युक्त । वग्गियं च पत्र गितेषु सर्वत्र रूपचतुष्यमपनीय पूथक संस्थाप्य अपमोतदिग्विदिग्गतसंख्या ३६८ सर्वत्र समाना। इसमेवादिधनं । एवं सर्वत्र सदृशमेवावतिते। इवं दृष्ट्या गितं घेत्युक्त । मूलजुदं माविषनवर्गमूल प्रमाणा चयशलाकया ६८ युतं प्रातिपनं ३६।८ गुणकारयोः साम्यात माविधने ३६ चयशलाका ६ संयोग्या ४२ मदुगुणं विग्यिविगतगुणकारा केन पयशलाकायुताबि ३६६ भनं ४२ गुरपयेत् ३३६ । पत्र पाउसाहिब पूर्व पृथस्थापितविगताधिकरूपचतुष्टयं मेलये। ३४० पुठविवयताबियं पइवं समीकरपणात सर्वषु पाटलेषु समानमिति कृत्वा एकस्मिन् पटले । एतावन्ति पिण्वानि पनि स्युः ३४० तथा प्रयोगमा Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा। १६५ सोशसामान्याधिकार १५७ पटलेषु १३ कियम्ति स्युरिति राशियन समुत्पन्मगुणकारेण पृथ्वीनाप्रमाणेन तारते पुढविषणं पृष्धोगतमणीयममारणं स्यात् ४४२०॥ एवं हितोयाविषु पृथ्वीविभरिगवडप्रमाण मानेतम्यम् ॥१५॥ अन्य प्रकार से समूलन धन निकालने का विधान: पापा:-विवक्षित पृथिवी के इन्द्रक विलों की संख्या में से एक घटा कर आधा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसका वर्ग कर उसमें उसीका वर्गमूल जोड़ देना चाहिये, तथा आठ से गुणा कर पुनः ४ जोड़ने पर जो लम्प प्राप्त हो उसे इन्द्रक विलों की संख्या से गुणित कर देने पर विवक्षित पृथ्वी का सङ्कलित धन प्राप्त हो जाता है ।।१६।। वि.बाप:--प्रथम पृथ्वी में १३ इन्द्रक हैं। एक कम करने पर ( १३-1 ) १२ प्राप्त हुए। प्रथम पटल में हानि वृद्धि का अभाव होने से ! कम करके चय की शलाका १२ ली गई है। चय शलाका १२ के माधे (३४)-६ हुए । प्रत्येक पटल में ८,८ श्रेणीबद्ध बिलों की हानि है, अतः चय का प्रमाण ६४८ होता है । इस प्रकार एक कम पटल संख्या के आधे में चय शलाकाओं का जोड़ प्राप्त होता है, ( यह चय धन है)। इसलिये गाया में "पद्धकयं" 'आधा किया गया' ऐसा कहा गया है। यही पर दिशाओं में से सर्वत्र चार विमान कम करके पृथक् स्थापित करने चाहिए । इस प्रकार चारों दिशाओं में से एक एक विमान कम करने पर प्रथम पृथ्वी के अन्तिम पटल की प्रत्येक दिशा व विदिशा में विमानों की संख्या ३६ प्राप्त होती है । जो १२ के आधे ६ का वर्ग ) दिशा विदिशा माठ है, अत: सर्व दिशाओं और विदिशाओं में ३६४८ विमान संख्या प्राR होती है । यह आदि धन है ) । सर्वत्र अर्थात प्रत्येक दिशा व विदिशा में ३६.३६ समान संख्या को देख कर गाथा में "वग्गिय च" अर्थात् १२ के आधे ६ का वर्ग किया गया, ऐसा कहा गया है। आदि धन ( ३६ ४८ ) में, ३६ के वर्गमूल (६) को चय शलाका प्रमाण करके अर्थात् ६ को से गुणित करके, [ ६४६ ( चयं धन ) ] जोडना चाहिए । आदि धन ( ३६ ४८ ) में गुणकार है और चयं शलाका ( चय धन ) ६४८ में भी गुणकार ८ है, अत. आदि धन के ३६ में चय गलाका के ६ जोड़ देने से ( ३६+६)-४२ हो जाते हैं । दिशा--विदिशा ४.४ अर्थात् ८ हैं, अत: आठ गुणकार कहा गया है। घय शलाका ( चय बन) ६x८ को आदि धन ३६४८ में जोड़ने पर ४२ का गुणकार = प्राप्त होता है. अत. से ४२ को गुणित करने पर दिशा विदिषामों में श्रेणीषव बिलों की संख्या (४२४८)- ३३६ प्राप्त होती है। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ त्रिलोकसार पापा : १५ दिशाओं में बिल संख्या चार अधिक होने के कारण पूर्व में जो पृथक स्थापित किये गये थे, उन को मिला देने पर ( ३३६४४ )-३४० श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या प्राप्त होती है। ( यह मध्य धन है ) समीकरण ( सर्वत्र समान ) करने के अभिप्राय से सर्व पटलों में अंबद्ध बिलों को समान संख्या मान ली गई है। यदि १ पटल में ३४० श्रेणीबद्ध बिल हैं, तब १३ पटलों में कितने होंगे? इस प्रकार राशिक द्वारा ३४० को प्रथम पृथ्वी के इन्द्रक विमानों की संख्या १३ से गुणा करने पर ( ३४.४१३ ) - ४४२० प्रथम पृथ्वी के श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या प्राप्त हो जाती है। नोट:-प्रथम पृथ्वी में १३ पटल हैं। प्रत्येक पटल में एक एक इन्द्रक बिल है, अत: इन्द्रक बिल भी १३ हैं । १३ से गुणा करने के लिए इन्द्रक बिल प्रमाण से गुणा करने के लिए कहा गया है। इसी प्रकार वित्तीयादि पध्वियों में भी श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या प्राप्त कर लेना चाहिए । प्रथम पृथ्वी के प्रथम एवं अन्तिम पटछ के इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक मिलों का चित्रण प्रथम पृथ्वी के प्रथम इन्द्र का परिवार प्रथम पृथ्वी के अन्तिम इन्द्र क का परिवार २ .. ३६....... 19:२४ ..... : EDIAS KARO -: PhD/CH 6.8yean2- 11 विक्रान्त इन्द्रका 73 लाख S ... . . . . HT.. . ५५लाख 1 - .......... A . 14............SEI EE........... . . : . : 070 : ०९:MOD Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पृथ्वी के प्रेणीबद्ध बिलों की संख्या सिद्ध करने के लिए यन्त्र । मिद हुए प्रथम पृथ्वी के श्रेणीबद्ध बिचों को संश्या का स्पष्ट विबरण माथा: ५५ कमांक इन्द्रक नाम दिग्गंत विदिग्गत दिशाओं में से एक कम करने पर किया हमा प्रमाण दोनों का मिला कर अधिक धन मादिघन पय धन ALLIA . सोमन्त |४. x xxt-१४८४४१४,४४८१४४३६x ERRECECRE३६% निरय | ४ x ४/४५४४४-१=.४४१४] ४७xcrxx४/३६४८EEEEEEEEEEE |E0/ RE: IEEEEE८४ रौरव |४.४४ ४६४४४-१=४६x४tx४] ४६४८१४४४३६४८EREEEEEE६८ पE८४ ४६x४४५४४४६-१=४५४४१४४ | ४५४८१४४४३६ x = [RRENE= ३६- | ८८८८८८ उद्धान्त ४५४४४४४४४५-१४५४४१४४|४४४८१४४४३६४ - ECREERE १६८ | VERSEE संभ्रान्त | ४९x४,४३४४४४-१४३४४१४४ | ४३ ४२४४४३६४८८८८ | REE असंभ्रांत | ४३४४, ४२४४४३-१-४२४४१४४ | ४२४४४४४३६४८ ८८८८८ CERCE विभ्रात| ४२४४४१४४४२-१-४१४४१४४४१x१४४४४३६४८८ ६८ त्रस्त ]४१४४४०४४४१-१=४०४४१४४|४२४८१४४४३६xe CIEEEER असित [४०x४३६x४४.--१=uxxx ४ | ३६४१४४४३६४८८ ३६- | ८८८८८८ ११ वक्रान्त | ३६x४३८४४३६-१=३८४४१४४ | ३८४६१४४४३६४८८ ३६८६८८ १२) अवका. ८४४३७४४३८-१-३७४४१४४ | ३०xxx ४३६x7F ३६- IEEEEE|४ १३ विक्रान्त | ३७४४ ३६४४३७-१-३६४४१४४ | ३ix१४४४३६x २६. ८ERY पोग फल ( ३६xc+Ex६+४) ४१३४.४१३४० कोकसामान्याधिकार Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. त्रिलोकसार पाथा:१६५-१६७ भय' प्रकीर्णकसंख्यानयनमाह सेढीणं विच्चाले पृष्फपदण्णय इव डिया णिरया । होति पदण्णयणामा सेटिंदयहीणरासिसमा ॥१६६।। श्रेणीमा अन्तराले पुष्पप्रकीर्णकानि इत्र स्थितानि निरपारिण । भवन्ति प्रकीर्णकनामानि श्रेणीन्द्रकहीन राशिसमानि ॥१६६५ मेवाणं । श्रेणीमा विद्याले अन्तराले पुष्पाणि प्रकीर्णकानीव स्वितानि निरवाणि भवन्ति। प्रकोएंकनामानि गीत २०१३ होनराशि ३०००००० समानानि २६६५५६७ । एवं पृथ्वी पृथ्षों प्ररयानेलण्यम् ॥१६॥ प्रकीर्णक बिलों की संख्या निकालने के लिए कहते हैं : गाया:-धेणीबद्ध बिलों के बीचों बीच बिखरे गालों के माता यम तत्र किन बिल को प्रकीर्णक कहते हैं । विवक्षित पृथ्वी के सम्पूर्ण बिलों की संख्या में से इन्द्रक और अंगीबद्धों की संख्या घटा देने पर प्रकोणक बिलों की संख्या प्राप्त होता है ॥१६६।। . विशेषा:-दिशा और विदिशामें स्थित श्रेणीबद्ध त्रिलो के अन्तराल में पंक्ति रहित पुष्पों के सहा पत्र तत्र बिखरे हुए बिलों को प्रकीराक बिल कहते हैं । प्रत्येक पृथ्वी के सम्पूर्ण बिलों की संख्या में से इन्द्रक और श्रेणीबद्धों की संख्या घटाने पर प्रकीर्णक बिलों को संख्या प्राप्त होती है । जैसेः - सर्व विल-घेणीबद्ध +इन्द्र) = प्रकोणक ३००००००-( ४४२० + १३ ) -- २६६५५६७ प्रथम पृथ्वी के प्रकीकों की संख्या। २५.००.०–(२६८४+११) - २४९७४०५ द्वितीय पृथ्वी के प्रकीर्णकों की संख्या । १५०००००-(१४७६+ ९) १४९८५१५ तृतीय पृथ्वी के प्रकोणकों की संख्या । १०.0000-( ५००+ .) = ९९९२९३ चतुर्थ पृथ्वी के प्रकोणकों की संख्या । ३०००००- २६०+ ५) = २९९७३५ पञ्चम पृथ्वी के प्रकोण को की संख्या । ९९९९५-( ६०+ ३) - १९९३२ षष्ठ पृथ्वी के प्रकोपर्गको की संख्या। ५-( +) = • सप्तप पृथ्वी में प्रकीर्णको का अभाव है। अथ नरकबिलानां विस्तारप्रतिपादनाथमाह पंचममागपमाणा णिरयाणं होति संखवित्धारा । सेसचउपंचभागा असंखवित्थारया णिरया ॥१६७।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा१५७ कोकसामान्याधिकार पञ्चममागप्रमाणा निरयाणां भवन्ति संख्यविस्ताराः। शेषचतुः पञ्चभागा असंख्मविस्ताराणि नरकाणि ॥१६॥ पंचम । पञ्चमभागप्रमाणा ३०००००० मरकाणां भवन्ति संख्येयविस्सा १००००० तच्छेवतुः पञ्चभाषाः २४००००० मसंख्येयविस्तारारिण मरकारिण संभोयविस्तारेषु ६०.... नाकापनयने १३ कृते ५EEL८७ अपशिष्ठामि संख्येयविस्तारप्रकीर्णकानि भवन्ति । मसंख्येयविस्तारेषु २४००००० भेलाबडा ४४२० पनयने कृते २३६५५६० शेषाणि घसंध्येयविस्तारप्रकोपकानि भवन्ति प्रत्येक द्वितीयादिवि समस्ते च धनमेवमानेतन्यम् ॥१६॥ नरक बिलों का विस्तार: पापा:-प्रत्येक पृथ्वी के सम्पूर्ण बिलों के वे भाग प्रमाण बिल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, और शेष भाग प्रमाण असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ॥१६७ । विशेषाम:-३०००.०० का - ६००.०० संख्यात यो वि० वाले इन्द्रक+प्रकीर्णक तथा शेष भाग अर्थात् ३०००... का - २४००००० असंस्थात पो. वि. वाले श्रेणी + प्रकोएंक बिलों की प्रथम पृथ्वी की संख्या है। इन ६००,००० में से १३ इन्द्रक घटा देने पर ५९९९९८७ संख्यात योजन विस्तार वाले प्रकीर्णक शेष रहते हैं। तथा २४ लाख में से ४२० श्रेणीबद्ध घटा देने पर २३६५५८० असंख्यात योजन विस्तार वाले प्रकोणक बिल शेष रहते हैं । द्वितीयादि पृश्चियों को संख्या भी इसी प्रकार निकाल लेनी चाहिए । जैसे: २५००००.x= ५०००००-११ = ४९९९८९ द्वितीय पृथ्वी के संख्यात यो. वि. वाले प्रकोएंक २५०००.0x=२०००.००-२६८४=१९९७३१६ द्वितीय पृथ्वी के प्रसंख्यात यो• वि.वाले प्रकीर्णक १५००.०.x= ३०००००–९ = २९९९९९ तृतीय पृथ्वी के संख्यात यो• वि. वाले प्रकोणंक १५००.००x४=१२०.०००-१४७६=११६८५२४ तृतीय पृथ्वी के असंख्यात यो वि.वाले प्रकीर्णक १००००००४- २०००००-० = १९९९९३ चतुर्थ पृथ्वी के संख्यात यो० वि० वाले प्रकीएफ २००००००x= ८५००००-७. = ७९९३०० चतुथं पृथ्वी के असंख्यात यो वि० वाले प्रकीर्णक ५८०००.४६= ६.०००-५ - ५९९९५ पञ्चम पृथ्वी के संख्यात यो• वि. वाले प्रकीर्णक ३००००.x¥= २४००००-२६० -२३९७४० पञ्चम पृथ्वी के असंख्यात यो. वि. वाले प्रकीएक १९९९५४ = १९९९९-३ - १९९९६ षष्ठ पृथ्वी के संख्यात यो० वि• वाले प्रकोर्णक ६६९९५४- १९९६-६० = ७९९३६ षष्ठ पृथ्वी के असंख्यात यो० वि० वाले प्रकोएंक ५४- १-१ - सप्तम पृथ्वी के संख्यात यो. वि. वाले प्रकीर्णक ५x= • सप्तम पथ्वी के असंख्यात यो० वि० वाले प्रकीर्णक Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकमार पापा: -१६ भा संख्यातायातयोनिपत प्रदर्शनात इंदयसेढीबद्धा पदण्णयाण कमेण वित्थारा । संखेज्जमसंखेज उभयं च य जोयणाण हवे ॥१६८।। इन्त कोणी बचप्रकीर्णकानां क्रमेणा विस्ताराः । संख्येयमसंख्येयमुभयं च च योजनानां भवेत् ।।१६८॥ इंदय । छायामात्रमेवार्थः ॥१६॥ बिलों में संख्यात और असंख्यात का नियतपना दिखाने के लिए कहते है: गाषा:-इन्द्रक, अंगीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों का विस्तार क्रम से संख्यात योजन, असंख्यात पोजन और संख्यात एवं असंख्यात अर्थात् उभयरूप होता है 1११६८| विशेषार्ष:--इन्द्रक बिल संख्यात योजन विस्तार वाले ही होते हैं। श्रेणीबद्ध पिल प्रसंख्यात योजन विस्तार शले ही होते हैं । तथा प्रकोणंकों में कुछ प्रकीर्णक संस्थान योजन और कुछ असंख्यात मोजन विस्तार वाले होते हैं । जैसे:-~सानों पश्वियों के ४६ इन्द्रक बिल और १६७९९५६ प्रकीर्णक डिल संख्यात योजन विस्तार वाले ही है; तथा ९६०४ धेणीबद्ध और ६७१०३६६ प्रकीर्णक बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले ही हैं। इस प्रकार सम्पुर्ण बिल ( ६७१.३.६ + १६७५५५१+१६०४+) -८४.०..प्रमाण हैं। अपेन्द्रकगतकन्द्रत्वं विशेषयति माणुसखेसपमाण पढमं चरिमं तु जंघुदीवसमं । उपयबिसेसे सऊणिंदयमजिदम्हि हाणिचयं ।।१६९।। मानुषक्षेत्रप्रमाणं प्रथम चरम त जम्बूद्वीपसमम् । उभयविशेषे झपोनेन्द्रकभक्तं हानिचयं ॥१६॥ माणुस । मानुषत्रप्रमाणं ५००००० प्रमेन्द्रकाप्रमाणे परमेम्क नम्बूद्वीप १००००० मं उभयोविशेषे शोधने ४४00000 रूपन्यनेन्द्रक ४८ भक्त शेषे वयोशभिरपतिते ६१६६६३ शामिचर्य ज्ञातव्यं । एतजामिचयं पञ्चचत्वारियल स्फेटने कृते ४४०८३३३१ हितोयेन्द्रकायामप्रमाणं स्यात् । एवमुपपरीमकायामप्रमाणे ४४०३३३३ तवनिमेव ६१६६६ । केटयित्वा पशिलमयो ७ एणकायामप्रमाणं यात ॥१५॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा! १६९ लोकसामान्याधिकार १७३ इन्द्रक दिलों का विस्तार दिखाते हैं: गाया-प्रथम इन्द्रक बिल का विस्तार मनुष्य क्षेत्र प्रमाण तथा अन्तिम इन्द्रक का विस्तार अम्बूद्वीप प्रमाण है । दोनों का शोधन कर, एक कम इन्द्रकों के प्रमाण का भाग देने पर हानि चय प्राप्त होता है ।।१६। विशेषार्थः- प्रथम सोमन्त इन्द्रक बिल का विस्तार मनुष्य क्षेत्र सदृश अर्थात् ४५०.००० योजन प्रमाण है. और अन्तिम अवधि स्थान इन्द्रक बिल का विस्तार जम्बूद्वीप सदृश अर्थात् १०... योजन प्रमाण है । इन दोनों का शोधन करने पर ( ४५०...---१००...) =५४ लाख योजन शेष रहे । इनमें एक कम इन्द्रकों का अर्थात् ४६-१-४८ का भाग देने पर ६१६६६ २६ अर्थात् । योजन प्रत्येक इन्द्रक का हानि चय है । इस हानि चय को ४५००... ( ४५ लाख ) में से घटा देने पर दूसरे निरय इन्द्रक का ( ४५......-६१६६६३) =४४०८३३३३ योजन प्रमाण प्राप्त होता है। ४४०१.६६३ ३ योजना में से १९५६६३ पटा देने पर तीसरे रोरव इन्द्रक का ४३१६६६६ योजन प्रमाण प्राप्त होता है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर हानि चय घटाते हुए निम्नलिखित प्रकार विस्तार प्राप्त होगा :-- । चार बगले पृष्ठ पर देखिये ) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पृथ्वी | विस्तार योजनों में द्वितीय पृथ्वी इन्द्रक 12 विस्तार योजनों मं लोलक ४८३३३३ वक्रांत ३५८३३३३ स्तन- २३६ १६६६ लोला अव ३४६१६६६३ विक्रा०] २४००० तृतीय पृथ्वी चतुषं पृथ्वी पञ्चम पृथ्वी षष्ठ पृथ्वी विस्तार इन्द्र विस्तार इन्द्रक बिस्तार इन्द्रक विस्तार सीमन्त ४५००००० यो० तत्र ३३०८३३३. तप्त २३०००००यो बारा निरव ४४०८३३३३, स्तनक ३२१६६६६ तपित २२०८३३३ मारा रोरव ४३१६६६६,, वनक ३१२५००० तपन २११६६६६ तारा १२६१६६६३ अपका ६५०००० घान्त ४२२५००० १) मनक ३०३३३३३ तापन २०२५००० चर्चा १२००००० अवेन्द्रा ४५८३३३३ चद्रांत ४१३३३३३, बड़ा २६४१६६६, निदाघ १६३३३३३ तमकी ११०८३३३३३, तिमि ४६६६६६ सत्रांत ४०४१६६६० २८५०:०० उज्व- १८४१६६६ घाटा १०१६६६६ ६२५०० असं• ३६५०००.,, जिल्ला २७५.८३३३३ .. [ प्रज्य ११७५०००० विना, ३८५८३३३३ कि २६६६६६६, गंज्य १६५८३३३५ वस्त ३७६६६६६, लोकि. २४७४००० ,, संप्रज्व नसित ३६७५००० इन्द्र क 5, विटा १४७५००० यो तमका ८३३३३३ यो. हिम २०५००० यो १३८३३३३, श्रमका ७४९६६६३, बाई ०२८३३३३ लल्लक ९६२६६६ M १०% सप्तम पुथ्वी छन्द्रक अवधिस्थान विस्तार १००००० विछोकसार पाथा : १६६ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा।1९७० धोकसामान्याधिकार १७५ अपेन्द्रकादित्रयाणां बाहुल्यं प्रमाणपति छक्कडचोइसादिसु पडिपृढविमुखद्धसहियकोसेतु । छहिं मजिदेसु पहन्लं इंदय सेढीपदण्णाण ॥१७॥ पानाष्टानामानि पशिएनीमुम्नाधसहितकोशेषु । षद्भिः भक्तपु गहल्य इन्द्रकश्रेणीप्रकीर्णानाम् ॥१७०॥ धक्कट्ठ । घटना ६४८ चतुवंशम् १४ प्राविषु प्रथमपृथ्वीनकारिषु षभिर्भर प्रपमक्षितोनकादिबाहुल्यं स्यात् । द्वितीयावि प्रतिपृश्चिमुखार्ष ३४७) सहितेषु तेषु ६८।१४ कोभेषु ६ १२२२१ १२॥१६२८ छ १५।२०।३५ छ १८५२४॥४२॥ छ २११२८४८ छ २४।३२- पद्भिभलए राई इत्यादि बाहुल्यं बनाकशोरवपकीर्णकानाम् ॥१७०॥ ट्रकादि तीनों विलों के बाहुल्य का प्रमाण कहते हैं : गापाम:- प्रत्येक पवियों के इन्द्र कादि विलों का बाहुल्य निकालने के लिए आदि अर्थात् मुख छह, आठ और चोदह में मुख (६.८.१४ ) का आधा ( ३,४,७ ) जोड़कर छह का भाग देने से क्रमशः इन्द्रक, श्रेणीचच और प्रकीर्णक विलों का बाहुल्य प्राप्त होता है ।।१७०।। विशेषार्ष:-प्रथम पृथ्वी का आदि अर्थात् मुख ६, और १४ है। इसमें दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी पर्यन्त उत्तरोत्तर इसी आदि अर्थात् मुख के अंधं भाग को जोड़कर जो लन्ध प्राप्त हो उसमें ६ का भाग देने पर क्रमशः इन्द्रक, श्रेणीब। और प्रकीर्णक बिलों का बाहुल्य प्रार हो जाता है। जैसे - मुख आदि+ अर्ध मुख का= | प्रमाण | प्रमाण योग फल भाग इन्द्रक विलों का ग्रंणीवदों का बाहुल्य बाहुल्य प्रकीर्णकों का बाहुल्य ६,८,१४-- ०.०,०-६,८.१४-६१ कोश बाहुल्य १३ कोश बाहुल्या २३ कोश बाहुल्य ६,८,१४ +1 ___३,४.७ -- ६,१२,२१:६-१३ ॥ ३ ६,१२,२१+ ३,४,७=१२,१६,२५| ६-२ . , ..२ ४ १२,१६,२८ + ३.४,७८-११५,२०,३५ = | ६८-२३ . , ३} ५ १५,२०,३५+| ३,४,७-१८,२४,४२, ६-३ ॥ १८,२४,४२+| ३,४,७-२१,२८,४६६-३, , .४३ | २१,२८.०+ ३,४,०=| २४.३२,०+1 =४ , , Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ त्रिलोकसार । पापा : १७१-१५२ अथ पुनरपि तबाहुल्यं प्रकारान्तरेणाह- . रूबहियपुढपिसंखं तियचउसनेहि गुणिय छन्मजिदे । कोसाण बेलियं . इंदयसेढीपदण्णाण ॥१७१।। पाधिकाथ्वीसंख्या त्रिकचतुःसप्तभिः गुणयित्वा षडभते । कोशाना बाहल्यं इन्द्रकणीप्रकोर्णानाम् ॥१७१।। पाल्पापितपृथ्वीरूपा । छ ३।३।३ छ ४।४।४ छ स्यादि विपतुः ४ सप्तभि७ गुणपिरया ६८।१४ च ६१२॥छ १२।१६।२८ इत्याशि प्रत्येक पमिर्भागे कृते ।।१।१२। इत्यादि कोशानां सहस्य त्रिकोणीयज्ञप्रकोपेकानाम् ॥१७॥ अन्य प्रकार से इसी बाहुल्य को कहते हैं: गाया:- एफ अधिक पृथ्वी संख्या को तीन, चार और सात से गुणित कर छह का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतने कांश प्रभाग क्रमशः इन्द्रक, श्रगोबद्ध पर प्रकीर्णक बिलों का बाहुल्य होता है ।१७१। विशेषार्थ:- नारक पत्रियों की संख्या में १.१ घम करके तीन जगह स्थापन कर क्रमशः तीन, पार और सात का गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें ६ का भाग देने से इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीकों का बाहुल्य ( ऊँचाई ) प्राप्त होता है । जैमे:--- इन्द्रकों का बाहुल्य । मंगीबद्धों का बाहुल्य । प्रकोण कों का बाहुल्प। प्रथम प.-१+१=२४३६.६-१ कोश २ x ४ = ६ - १ कोशर ४७ = १४ : ६२°कोश द्वितीयप.-२+१=३ x ३=8: ६=१३कोश३४४-१२-६२ ,३४७- २१ : ६ =३." तृतीय प - ३+१-- ४ ४ ३ = १२:६-२ -४४४=१६:६-२ ४x७ - २८६-४" चतुर्थ प.-४+१-५४ ३=१५ =२* ५५४-२०६="५४७= ३५६-५१, पश्चम पृ-५+१-६४३= १ ६=३ ॥६x४-२४, ६=४ ५६४७ - ४२-६- . षष्ठ प-६+ १ =७४ ३=२१+६=३३.७४४-२८-६ ७ x ७ = ४६-६-.. सप्तम प.--७+१-८४ ३ = २४-६-४ -८x४ = ३२.६५ प्रकीराकों का अभाव है। अथेन्द्रकप्रभृतीनां व्यवधानप्रमाणमाइ पदराहय बिलबहलं पदरद्विदभूमिदी विसोहिला । रूऊणपदहिदाए बिलंतरं उड्ढगं तीए ।।१७२।। प्रतराहत बिलबाहल्यं प्रतरस्थितभूमिसः विशोध्य । रूपोनप हतामा बिलान्तरं अवगं तस्याः ॥१७२॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथाः। १७२ लोकसामान्याधिकार १७७ पदर । प्रतरा १३ हतं बिलबाहुल्यं इन्तक १ घेणीवप्रकोणकाना दातुल्य १३।। चतुः कोशाना एकयोजने इपता कोशानो किमिति सम्मात्य योजनं कृत्वा ।३।१ प्रतरस्थितनूमित: उपयंत्रः सहस्रसहस्रयोजनहोना शीति सहस्र ७८००० तपा होनबत्तीस ३०००० महावीसादि २६००० सहस्र समानछेदेनापनोप १९४७ धेरणीवर चतुभिरपचपनीय ३३४. प्रकीरणकं समच्छेवेनापनीय ५५१११ रुपम्यूनपद १२ हतायां सस्य 318 | २3318 | १३११ तत्पृषिष्यां' ऊध्वगं बिलासरं भवति ॥१२॥ इन्द्रकादि बिलों के अन्तराल का प्रमाण कहते हैं: गावार्थ:-प्रत्येक पृथ्वी में बिलों के बाहृज्य को पटलों के प्रमाण से गुणित कर तथा प्रतर स्थित भूमि में से घटा कर, एक कम प्रतरों { पटलों) के प्रमाण का भाग देने पर चाई में इन्द्रकादिक बिलों का अन्तर प्राप्त होता है ॥१७२।। विशेषाय:-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों के पृथक् पृथक् बाहुल्य को विवक्षित पृथ्वी के पटलों ( प्रतरों ) की संख्या से गुणित कर प्रतर स्थित भूमि ( अर्थात् नीचे ऊपर की एक एक हजार योजन भूमि छोड़ कर जितनी भूमि में बिल स्थित हैं उस ) में से विशोध्य अर्थात् घटाकर एक कम प्रतर प्रमाण से भाजित करने पर ऊँचाई में बिलों का अन्तराल प्राप्त होता है । जैसेः- प्रथम पृथ्वी के इन्द्रक का बाहुल्म प्रमाण १ कोश, धेणीबद्धों का कोश, और प्रकोणंकों का कोश है, अतः १४ १३=१३, १४ १३ - और x १३= को प्रतर स्थित भूमि में मे अर्थानु यहा अब्बल भाग की मोटाई व से ८० हजार योजन है किन्तु ऊपर नीचे एक एक हजार योजन में विल नहीं है। अत: प्रतस्थित भूमि मात्र ७०० हजार योजन में से घटाने के लिए कोश के योजन बनाने पड़ेगे । ४ कोश का एक योजन होता है. तो २५ और कोशों के कितने योजन होंगे ? इम प्रकार राशिक करने पर १.१३ और योजन प्राप्त होते हैं अतः ( 9:°-2): १३.५३1048:-3)xt=31१६ = ६४६६ योजन प्रथम पृथ्वी के इन्द्र: बिलों का अन्तराल है। (१८५५०-५३) =( -५३)४११-431° ६४६६३६ योजन या ६४६६ योजन २" कोश प्रथम पृथ्वी में श्रेणीबद्ध बिलों का अन्तराल है। (sapg"-43) ( 91-88) x = ० ६४६६५३ योजन या ६४६६ योजन १३६ कोश प्रथम पृथ्वी में प्रकोणक बिलों का अन्तराल है। द्वितीय वंशा पृथ्वी की मोटाई ३२००० पो है।-२००० यो०=३०००० योजन अवशेष रहे -- 3022°-(xix) =(300°°-3)xt=२६६५, योभन या २७ कोश वंशा पृथ्वी में इन्द्रक बिलों का अन्तराल है। १ तमिष्याः (म.)। . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१७८ त्रिलोकसार पापा।१७२ 300:0-(३xx1) = ( 3288°-2)x::= *=RREE योजन पा कोश या ३६०० दण्ड श्रेणीबद्ध वित्तों का अन्तराळ है। ११ - 1५४१४} += ( 3200- 3x+ - २३१२१ = २९६ यो० या कोश या ३०० दण्ड वंशा पृथ्वी में प्रकीर्णक बिलों का अन्तराल है। - तृतीय मेघा पृथ्वी को मोटाई २८०.० योजन है- २००० यो =२६००० योजन अवशेष रहे२.१००-३४६४१) = ( २०१००-३) x2-12 = ३२४६११ योजन या, कोश या ३५०० वाट मेधा पृथ्वी में इन्द्रक बिलों का अन्तराल है। 2012-[ xix) - ( २५,००-1 1-२५१२४- ३२४६३ योजन या । कोश या २००० दण्ड मेधा पृथ्वी में श्रेणीबद्ध बिलों का अन्तराल है । २५०००-( ४१-):- ( 2429-' x:-":2=३२४६ योजन या " कोश या ५५०० दण्ड मेधा पृथ्वी में प्रकीर्णक बिलों का अन्तराल है । चतुर्थ अञ्जना पृथ्वी की मोटाई २४००० यो है - २७०० योजन - २२००० योजन अवशेष रहे-२३०००-(%xx.)+= ( २२११०. - 341x1-1.4"= ३६६५१ योजन या कोश या ७५०० दण्ड असना पृथ्वी में इन्द्रक बिलों का अन्तराल है। ___ 2300-3°xx} = ( २५१५०-१५) : - ११५= ३६६५ ३१ योजन या कोश या ५५५५१ दण्ड असता पृथ्वी में थे गोबद्ध बिलों का अन्तराल है। २२००० -(24x.x) - २३१-२५१४ - ५३४४?"= ३६६४३११ योजन या ३ कोश या '५०० दण्ड अञ्जना पृथ्वों में प्रकाशक बिलों का अन्तराल है। पांचवीं अरिष्टा पृथ्वो को मोटाई २७००० योजन है -२००० योजन = १८००० योजन अवशेष रहे-१६००°--ixix) - ( 42° -:)-- १४ = ४४६६ योजन या कोश या ५० दण्ड ( धनुष ) अरिष्टा पृथ्वी में इन्द्रक बिलों का ऊवं अन्तराल है। १५१-(Exix) - ( 1:0-1x:- 49334= ४४६८ योजन या ३ कोश या ६००० दण्ड अरिष्टा पृथ्वी में श्रेणीबद्ध बिलो का अवं अन्तराल है। १६:0-1¥xix) = 490°- ३' ) x = 124=४४६७४ योजन या ३१ कोश या ६५०० दण्ड ( धनुष ) अरिष्टा पृथ्वी में प्रकोणांक बिलों का ऊवं अन्तराल है। छठी मघवो पृथ्वी की मोटाई १६००० योजन है-२००० योजन = १४००० योजन अवशेष रहे१४०°-1:४३४) - (02-0x128 = ६६EE77 योजन या २४ कोश या ५५०० दण्ड मघवी पृथ्वी में इन्द्रक बिलों का ऊवं अन्तराल है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा: १७३ छोकसामान्याधिकार Iue xge -(yxx1) = ( 1290०-11x=18- ६६६८, पोजन या १ कोश या २००० ६४ मघवी पृथ्वी में श्रेणीबद्ध बिलों का ऊध्वं अन्तराल है। ___x-(ixx1) -(22) x = १११६९९६ योजन या व कोश या ७५०० दण्ड ( धनुष ) मघवी पृथ्वी में प्रकीर्णक बिलों का ऊर्ध्व अन्तराल है। सातों पृश्वियों के बिलों का ऊर्च अन्तराल क्रमांक | पृथ्वियां इन्द्रक बिलों का अध्र्व | श्रेणीबद्ध बिलों का ऊवं | प्रकीर्णक बिलों का गर्व अन्तर अन्तर अन्तर धम्मा वंशा मेधा ६४६६ योजन REET योजन ३२४६ योजन ३६६५ २ योजन ४४६६ योजन ६६६८ योजन ६४६६ योजन REET योजन ३२४६ ३ योजन ३६६५३१ योजन ४४९८३ योजन ६६६८ ३ योजन ६४९९ १ योजन २६६६६. योजन ३२४९ १ योजन ३६६४ ३ योजन ४४६७१ योजन ६९९६ १ योजन अजना अरिणा मघवी माधवी अथोपरिमाधस्तनपटलयोरन्तर निरूपयति उपरिमपच्छिमपहला हिडिमपदमिन्लपत्थरंतरयं । रज्जू तिम्रहस्मणिदधम्मा वंसुदयपरिहीणा ॥१७३।। उपरिमपश्चिमपटलात अधस्तनप्रथमप्रस्तरान्तरका। रज्जुः त्रिसहनोनितघर्मा वंशोदयपरिहीना ॥१३॥ जरिम । उपरिमपश्चिमपटलाव अषस्तनप्रषमपटलान्तरमा रक्यु: सा कपम्मूता ? धर्मोपरिममित्राप्तम्बसधर्मापश्चिमपटलापस्तमसहन' बंधाप्रथमपालोपरितनसहसमिति त्रिसहनोनितधर्मा १०००. शो ३२००० ६५ २१२००० परिहीमा मात - २०६००० ॥१३॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पहली पृथ्वी के अन्तिम पटल और दूसरी पृथ्वी के प्रथम पटच का अन्तराल: गाथार्थ: - ऊपर की धर्मा पृथ्वी के अन्तिम पटल से नीचे की वंशा पृथ्वी के प्रथम पटल तक का अन्तर तीन हजार कम धर्मा और वंशा पृथ्वी के बाहुल्य से हीन एक राजू प्रमाण हैं ।। १७३२ १८० पापा । १७४ विशेषार्थ:- प्री की सोई दिलीय पृथ्वी की मोटाई ५२००० मोजन प्रमाण है । इन दोनों का योग २१२००० योजन प्रमाण है। इसमें से प्रथम पृथ्वी के ( दो हजार ) २००० योजन और द्वितीय पृथ्वी के १००० योजन इस प्रकार कुल तीन हजार योजन ( २००० ) कम कर देने चाहिए, क्योंकि चित्रा पृथ्वी की मोटाई एक हजार योजन है, जो कि प्रथम पृथ्वी को मोटाई में सम्मिलित है, किन्तु उसको गणना उध्वंलोक की मोटाई में की गई है। अतएव १००० योजन चित्रा पृथ्वी के और प्रथम पृथ्वी के नीचे तथा द्वितीय पृथ्वी के ऊपर एक एक हजार योजन में बिल नहीं हैं, अतः २००० + १००० = ३००० योजन हुए। इन्हें २१२००० योजन बाहुल्य में से घटाने पर (२१२००० - ३००० ) २०९००० योजन प्राप्त होते हैं। इनको एक राजू में से घटा ( १ राजू२०९००० योजन ) कर जो अवशेष रहे वही प्रथम पृथ्वी के अन्तिम पटल से द्वितीय पृथ्वी के प्रथम पटल के बीच का अन्तराल है । अथ ततोऽप्यsunset भूनोनां पटलयोरन्तरं निरूपयति कमसो बिसहरनियमेघादीणं च वेहपरिक्षीणा | चरिमे बितिमागाद्दियजोयणनिसहरुमपरिवज्जा ॥ १७४॥ | म सिहोनिनमेघादीनां च मेधपरिहीना । चरमे द्वित्रिभागाधि कयोजनविसहस्रपरिवज ।। १७४।। कमसो । क्रमशोद्विसहस्रोतिमेधाबीन व वेत्र २८०००-२००० । २४०००-२००० | २००००२००० । १६०००-२००० परिहोना परमान्तरानयने द्वित्रिभागा टु बिरुयोजनात्रिहरू परिवजिला' जुः । वितिभागाहीय इत्यादेर्वासनोपते । सप्तम पृथ्वीबाहुल्ये ८००० गोटवाध्यं प्रपतत श्रेणीबद्ध बाहुल्यं समन २४०० प्रपनीय ३३ प्रकृत्य भरवा ३६६ पट्टभिश्यपस्तनपटलाधः सहस्रमत्र मेलयिषा ४६६६ ] हवं सप्तम पृथ्वीबाहुल्ये ८००० हटने ३००० तहासना भवति ॥१७४॥ मोमीकृत्य अत्र नीचे नीचे की पृथ्वियों के व्ययदि अन्त पटलों के अन्तर का निरूपण करते हैं- : गावार्थ:- अनुक्रम से मेघादि पृथ्वियों के आदि अन्त पटलों का अन्तर २००० यीजन में हीन प्रत्येक पृथ्वी के बाहुश्य से कम एक राजू प्रमाण है तथा असिम पृथ्वी के आदि अन्त पटलों का अन्तर ३०००३ योजन कम एक राजू प्रमाण है ।। १७४ । । १. परिवर्धा (म० ) । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गामा १७४ चौकसामान्याधिकाय - विशेषार्थ:- मेघा पृथ्वी की मोटाई २८००० योजन है। वंशा पृथ्वी योजन + मेघा पृथ्वी के ऊपर का एक हजार योजन ( १००० + १००० ) २८००० योजन वेध में से कम कर देने पर ( २८०००-२००० ) = २६००० इन्हें एक राजू में से घटा देने पर ( १ राजू - २६००० मौजन ) जो अवशेष रहे, अन्तिम पटल से मेघा पृथ्वी के प्रथम पटल का अन्तराल है । अन पृथ्वी की मोटाई २४००० योजन है, अतः २४०००-२००० २२००० योजन कम एक राजू ( १ राजू - २२००० योजन ) प्रमाण अन्तराल मेघा पृथ्वी के अन्तिम पटल और अखना पृथ्वी के आदि पटल के बीच का प्राप्त होता है । १८१ नीचे का १००० दो हजार योजनों को योजन अवशेष रहे । वही वंश पृथ्वी के aft पृथ्वी की मोटाई २०००० योजन है, बतः एक राजू ( १ राजू - १८००० योजन ) अञ्जना के अन्तिम अन्तराल है । मघवी पृथ्वी की मोटाई १६००० योजन है, अतः राजू प्रमाण अरिष्टा के अन्तिम पटल और मनवी के आदि पृथ्वियों में ऊपर नीचे एक एक हजार योजन में बिल नहीं है, अतः दो हजार योजन तो ऊपर नीचे पृथ्वी है और बोच में पोल है । अतएव क्षेत्र में से २००० योजन घटाकर अवशेष लब्ध को एक राजू में घटा देने पर अन्त आदि विलों के बीच का अन्तर प्राप्त होता है । २०००० - २०००= १८००० योजन कम पटल और अरिष्टा के प्रथम पटल का १६००० - २००० = १४००० योजन कम पटल के बीच का अन्तराल है। सभी मघवी पृथ्वी के अन्त पटल से माधवी पृथ्वी के आदि पटल का अन्तर ३००० १ योजन कम एक राजू प्रमाण है। इसकी वासना निम्न प्रकार है : ८००० मोटाई में से घटाने पर ( (2) सप्तम पृथ्वी की मोटाई ८००० योजन और श्रेणीबद्धों का बाहुल्य ' कोश है। ' कोश के १३ योजन हुए। इन्हें ४ से भाजित करने पर योजन श्रोषद्ध बिलों का बाहुल्य प्राप्त हुआ । इसे *1999_* } = 235 योजन अवशेष रहा इसका योजन अर्थात् ३९९९ योजन प्राप्त हुआ । यही सप्तम पृथ्वी के पटल की उपरिम भूमि की मोटाई है। छठी मघवी पृथ्वी के अन्तिम पटल के नीचे भी १००० योजन मोटाई वाली भूमि है, अतः दोनों को मिलाने से ( १०००+ ३९९९ 3 ) = ४९९९ १ योजन प्राप्त हुए, इन्हें सक्षम पृथ्वी के बाहुल्य में से घटाने पर ( ८००० - ४९९९ ) ३००० भोजन अवशेष रहे । इन्हें एक राजू में से घटा देने पर ( १ राजू -- ३००० से ) जो अवशेष रहे वही मघत्री पृथ्वी के अन्तिम पटल से माधवी पृथ्वी के अवधि पटल के बीच का अन्तराल है । अथ बिलानां तियंग्रन्तरं गाथाद्वयेन निरूपयति = - Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ त्रिलोकसार पाषा: १५-१७६-१७७ संसासगिरर चरिछ भारं जहाभण । इगिजोपणमद्धजुदं जोयणतिदयं हवे जेह ।।१७।। जोयणसत्तसहस्सं मसंखवित्थारजुत्त णिरयाण । अंतरमवरं णेयं जेट्टमसंखेजजोयणयं ॥१७६।। संख्यातव्यासनिरये तरश्चमन्तरं जघन्यमिदं । एकपोजनमधंयुत्त योजनत्रितयं भवेत् ज्येष्ठम् ।।१४५॥ योजनसमसहन असंख्यविस्तारयुक्तनिरयाणाम् । अन्तरमवरं ज्ञेयं ज्येष्ठमसंख्य योजनकम् ॥१७६|| संखेन । संख्यातव्यासनरकारले प्रकोणके तिर्यगम्तरं जघन्यमि एकयोजनमयुतं । पोजना भवति ज्येष्ठम् ॥१७॥ बोयण । पोजनसप्ससहस्र प्रसंख्यातविस्तारयुतारका तिर्यगन्तरमबरं वं ज्येष्ठमसंस्मेययोजनकम् ॥१६॥ बिलों का तिर्यक अन्तराल दो गाथाओं द्वारा निरूपित किया जाता है गावार्थः-संख्यात योजन न्यास वाले नरक बिलों का जघन्य तियम् अन्तर १३ योजन और उत्कृष्ट तिर्यग् अन्दर ३ योजन है ॥१७॥ असंख्यात योजन व्यास वाले नरक बिसों का जघन्य तिर्यग् अन्तर सात हजार योजन और उत्कृष्ट नियंग अन्तर मसंस्थात योजन प्रमाण है ।।१७६|| विशेषार्थ:-सुगम है। प्रय तेषां बिलानां संस्थानादिकं निरूपयति . वजणमिचि भागा वकृविचउरंसबहुविहायारा । णिरया सयावि भरिया सविदियदुक्खदाईहि ॥१७७।। वजपनभित्तिभागा वृत्तत्रिचतुरस्ररहविधाकाराः। निरयाः सदापि भृताः सर्वेन्द्रियदुःखदायिभिः ॥१७॥ पज । बन्धनभितिभागा पुतश्यलचतुरस्राइविषाकारा निरयाः सदापि भृताः सन्द्रिपदुःखबाधिभिव्यः ॥७७।। -...'-..- -. -. --..---- - १. असंचय ( म.)। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ गाथा । १७८-१७६ छोकसामान्याधिकार बिलों के आकारादि का निरूपण करते हैं-- गावार्थ:-जिनकी दीवारें (भीत ) वन के समान सघन हैं, ऐसे गोल, तिकोन, चौकोर आदि अनेक प्रकार के आकार वाले नरक बिल हैं । ये हमेशा सभी इन्द्रियों को दुःख देने वाली सामग्री से भरे रहते हैं ॥१७॥ विशेषाया-मुगम है। अथ तवस्थदुर्गन्धं दृष्टान्तमुखेन निर्दिशति मज्जारसाणस्परखरवाणरकरहहत्यिपहुदीण । कुहिदादइदुग्गंधा णिग्या णिच्चंधयारचिदा ॥१७८|| माजरिश्वमकरखरवानरकरभहस्तिप्रभृतीनाम् । कुथितादतिदुर्गन्धा निरया नित्यान्धकारचिताः ॥ १५८)। प्रबार । छायामात्रमेवायः॥१८॥ नरकबिलों को दुर्गन्ध के बारे में दृष्टात दाता कहते ई-. गाथा:-बिल्ली, कुत्त, सूअर, गदहे, बन्दर, ऊंट और हाथी आदि के सड़े हुए मह एवं फलेवर की दुर्गन्ध से भी अत्यधिक दुर्गन्ध नरक बिलों में है तथा वहां सर्वदा अन्धकार ही व्याप्त रहता है ॥१७८॥ विशेषायः-सुगम है। अथ तवोत्पद्यमानजीवान तदुत्पत्तिस्थान च निर्विशति उप्पज्जति तहिं बहुपरिग्गहारंभसंचिदाउस्सा | उद्दादिखायारेसुवरिन्लुववादठाणेसु ॥१७९।। उत्पद्यन्ते तेषु बहुपरिग्रहारम्भस चितायुष्याः। उष्ट्रादिमुखाकारेषु उपरितनोपपादस्थानेषु ॥१७९॥ पति । वत्पद्यन्ते तेषु बहुपरिप्रहारम्भसञ्चिलमरकायुषाः सदाविमुक्षाकारेषु उपरितनोपपावस्थानेषु ॥१६॥ नरकबिलों में उत्पन्न होनेवाले जीवों तथा उनके उत्पत्ति स्थानों के बारे में बताते हैं गायार्थ:-अधिक आरम्भ और परिग्रह के कारण नरकायु का पन्ध करने वाले जीव हो नरकविलों में जन्म लेते हैं। इनके उपपाद स्थानों का प्राकार र भादि के मुख सहश होता है, तथा ये उपपाद स्थान ऊपर होते हैं ॥१७९।। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : १८०-१८१ विशेषार्थ:- नारकियों के उपवाद स्थान नीचे की भूमि पर नहीं हैं। ऊपर के भाग में ऊंटादि की तरह संकरे होते हैं। अविक आरम्भ और अधिक परिग्रह नरकायु के बन्ध का प्रधान कारण है । इस अवस्था में जो आयुबन्ध करते हैं, वे जीव व जन्म लेकर घोरातिघोर दुःख भोगते हैं । के मुख अथ तेषामुपपादस्थानानां व्यासबाहुल्ये कथयति १८४ इगितिकोसोवास जोयणमवि जोयण' सयं जेडु | उडादीनं महलं सगदित्थारेहिं पंचगुणं ॥ १८० ॥ एक द्वित्रिकोश: व्यासः योजनमषि योजनशतं ज्येष्ठम् । उष्ट्रादीनां बाहुल्यं स्वकविस्तारेभ्यः पतगुणम् ॥१८०॥ इविवि । एकद्वित्रिकोश व्याप्ता योजनमपि एकद्वित्रियोजनानियोजनानां शतं । एतानि सप्तपृथ्वीनां यथासंख्येन ज्येप्रध्यासप्रमारणानि उष्ट्राद्य पपादस्थानानां बाल्यं स्वक विस्तारेभ्यः पचगुरणम् ॥१८०॥ उन उपपाद स्थानों का व्यास एवं बाहुल्य कहते हैं गाथार्थ:- ऊंट आदि आकारवाले उपपाद स्थानों का उत्कृष्ट व्यास ( चौड़ाई) क्रमश: एक कोस, दो कौस, तोन कोस, एक योजन, दो योजन, तीन योजन और सी (१००) योजन प्रमाण है तथा बाहुल्य (ऊंचाई) अपने अपने प्रमाण से पांच गुना है ।। १८०३। विशेषार्थ :- पहली पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक के उपपाद स्थानों का उत्कृष्ट व्यास ( चौड़ाई क्रमशः एक कांस, दो कोस, तीन कोस, एक योजन, दो योजन, तीन योजन ओर सो योजन प्रमाण है। तथा बाहुल्य अपनी अपनी शरीर अवगाहना मे पाँच गुणा है। अथोपपदस्यानेयुत्पक्षाः ककुर्वन्तीत्यत आह तोताले तदो चुदा भूतलम्हि तिक्खाणं । सत्याणमुपरि परिीय पुणोवि विडंति || १८१ ॥ अन्तमुत्तं काले ततश्च्युता भूतले दीक्ष्णानाम् । शस्त्राणामुपरि पतित्वा उड्डीय पुनरपि निपतन्ति ॥ १५१ ॥ अंतो । छायामात्रमेवार्थः ॥ १८९॥ उपपादस्थानों में उत्पन्न होने वाले जीव क्या करते है ? उसे बताते हैं पार्थ:- नारकी जीव अन्तर्मुहूर्त्त काल में उपपाद स्थान से च्युत हो नरक भूमि के तीक्ष्ण शस्त्रों पर गिरकर ऊपर उछलते हैं और पुनः उन्हीं पर गिरते हैं ।। १८१ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८२-१३ लोकसामान्याधिकार विशेवा:-नारको जीव नरक बिलों के उपपाद स्थानों में जन्म लेकर एक अन्तमुहत में पर्याप्तियो पूर्ण कर उपराद स्थान से च्युत हो नरक भूमि के तीक्ष्ण शनों पर गिरकर ऊपर उछलते हैं बोर पुनः उन्हीं शस्त्रों से व्याप्त पृथ्वी पर आ पड़ते हैं। अथ कियदुष्डीयन्ते इत्यत आह पणपणजोयण माणं सोलहिदं उप्पाउंति रहया । घम्माए वंसादिसु दुगुणं दुगुणंति णादब्वं ।।१८२।। पञ्चधनयोजनमानं षोडशहलं उत्पतन्ति नरयिकाः। पर्यायां बंधादिषु द्विगुणं द्विगुणं इवि ज्ञातम्यम् ॥ १२॥ पण । पञ्चधमयोजनमानं पोग्शतं अस्पतति नरयिकाः धर्मायो शारिषु पुननिगुणं दिगुणमिति तातम्यम् ॥१२॥ नारकी जीव कितने ऊचे उछलते हैं ? ऐसा पूछने पर कहते है : गावार्थ:-पांच के धन को सोलह से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतने योजन प्रमाण प्रथम धर्मा पृथ्वी के नारकी उचलते हैं. तया द्वितीयादि पृष्धियों के नारकी इनसे दूने दूने उचलते हैं। ऐसा पानना चाहिए ।।१२।। विशेषार्ष:-पाच के धन १२५ को १६ से भाजित करने पर योजन प्राप्त हुआ। इसका दूना १५३ योजन, इसका दूना ३१० योजन ....... इत्यादि । अर्थात् धर्मापृथ्वी के नारकी ७ योजन ३३ कोश, वंशा पृथ्वी के १५ पोजन २, कोश, मेघा के ३१ योजन १ कोश, अजना के ६२ योजन २ कोश, अरिष्टा के १२५ योजन, मघवी के २४, योजन और माधवी पृथ्वी के नारकी ५०० योजन ऊंचे उछलते हैं। अथ तत्रस्थाः पुराणनारका उड्डीय पतितान् कि कुर्वन्ति इत्यत आह पौराणिया नदा ते दट्टणइणि रारवागम्म । खीचंति णिसिंचंति य वयेसु बहुखारवारीणि ॥१८३|| पोरा पौराणिका नारकास्तवा तान् नूतनाम् दृष्ट्वा प्रतिनिष्ठुरावा पागम्य मन्ति निविधति वरणेषु बहमारवाणि ॥१३॥ वहां रहने वाले नारकी, नछल कर गिरने वाले नारको के प्रति क्या करते है ! गावार्थ:-पुराने नारकी नये नारकियों को देखकर अति कठोर अन्य करते हुए पास भाकर उन्हें मारते हैं और उनके घावों पर अति खारा जल सींचते हैं ॥ १३॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ त्रिलोकमार पाथा : १८४-१८५ विशेषार्थः-पुराने नारको नवीन नारकी को देखकर अति कठोर शब्द बोलते हुए उसके पास माकर उसे मारते हैं । मारने से तथा शस्त्रों पर गिरने से जो घाव हो जाते हैं उन पर वे अत्यन्त खारा अल सींच सींचकर पोडा पहुँचाते हैं। अथ ते नुतनाः किं कुर्वन्तीत्यत आह तेवि विहंगेण तदो जाणिद पुन्दावगरिसंबंधा। मसुंहापुहविक्किरिया इणंति हण्णंति वा तेहिं ॥१८४॥ तेपि विभङ्गने तत: जातपूपिरारिसम्बन्धाः । अशुभापृथग्विक्रिया मन्ति हन्यन्ते वा तः १८४॥ तेवि पि विभङ्गन सतः परं जातपूपिरारिसम्बन्धाः पशुभापृथग्aिiran सन्ता नन्ति परान् मयं हन्यन्ते या सरन्यैः ॥१४॥ नवीन नारको क्या करते हैं ? ऐसा पूछने पर कहते हैं-- पाया:-विभङ्गशान से पूपिर के वर का सम्बन्ध जानकर चे नवीन नारकी भी अशुभ और अपृथक् विक्रिया द्वारा उन्हें मारते हैं और उनके द्वारा स्वयं मारे जाते हैं ॥१४॥ विशेषार्थ:-नरकों में पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद कुअवधिज्ञान हो जाता है जिससे नए नारकी पूर्वापर का वैर दानकर पूर्वनारकियों को मारते हैं और उनके द्वारा स्वयं भी मार स्वाते हैं। अथापृथग्वि क्रियाकरणाप्रकारमाहु वयवग्यपूगकागहिविच्छियभन्लूकगिद्धसुणयादि । मुलग्गिकोतमोग्गरयहुदी मगं विकृवान ।।१८।। कव्याघ्रघूककाकाहिवृश्चिकभल्लूक गृध्रशुनकादि । पूलाग्निनु तमुद्गरप्रभृति स्वान वि कुर्वन्ति ।।१८।। गय । छापामानमेवाः ॥१५॥ ....... अपक्.विक्रिया करने का विधान कहते हैं गाथा:-मारकी जीव अपने ही शरीर में भेडिया, व्याघ्र. घुग्घू, कोमा, सर्प, बिच्छु, रीछ, गिद्ध, कुत्ता आदि रूप तथा त्रिशूल, मग्नि, बरछी, मेल, मुद्गरादि रूप विक्रिया करते है ॥१५॥ ; : विशेषा:-नारकी जीव परस्पर दुःख देने के लिए अपने पारीर का व्याघ्रादि रूप सथा त्रिशूलादि रूप परिणमन कराकर नाना प्रकार के दुःख दूसरों को देते हैं और स्वयं भोगते हैं। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1CU पाषा: १८६-१८७-१८८ छोकसामान्याधिका पथ क्षेत्रगतपदायक्रौर्य गाथाद्वयेनाह घेदालगिरी भीमा जंतसयुक्कडगुहा य पडिमामी। लोहणिहग्गिकणड्ढा परमछुरिगासिपचवणं ॥१८६।। कूडा सामलिरुक्खा पयिदरणिणदीउ खारजलपुण्णा । पूयरुहिरा दुगंधा दहा य फिमिकोडिकुलकलिदा ॥१८७|| बेतालगिरयः भीमा यन्त्रशतोत्कटगुहाश्च प्रतिमाः। लोहनिभाग्निकणायाः परशुरिकासिपत्रवनम् ॥१६॥ पनि वृक्षाः दरणिनद्यः सारजलपूर्णाः । पूयरुधिरा दुर्गन्धाः हृदाश्य कृमिकोटिकुलकलिताः ॥१७॥ बेबाला । तालाकृतिगिरयः भीमाः पत्रिशतोकटगुहा सत्रापाः प्रतिमा तोहनिमाग्निकरणाढ्या वनं च परशुछुरिकासिपत्रकमम् ॥१६॥ कूडा। कटा: पसम्पा: शाल्मलिकुमाः बतरण्याख्या गण: मारनपुर्णाः पूपिरा दुर्गा हाथ कृमिकोटिकुलकलिताः ॥१८॥ क्षेत्रगत पदार्थों की करता का वर्णन दो गाथाओं द्वारा करते हैं पाथार्य-उन नरकों में वेताल सरश भीमाकृति पर्वत हैं । दुःखदायक सैकड़ों यारों से भरी गुफाएं हैं। वहां स्थित प्रतिमाएं लोहमयी है एवं अग्निकणों से ज्याप्त है । फरसी, छुरिकावि या महश पत्रों से युक्त असिपत्र वन हैं। मिथ्या शाल्मलि वृक्ष हैं । वहाँ की वैतरणी नामकी नदियों मार नालाय खारे जल म भरे है, दुर्गन्धित पोप, खून से युक्त हैं तथा उनमें करोड़ों की भरे हैं ॥१८६-१९७।। विशेषापं.-सुगम है। अप तथाविधनदीमाप्य कि भवन्तीत्यत बाई भग्गिमपा धावता मण्णता पीयलंति पाणीयं । . ते बदणि पविलिय खारोदयदडूढसञ्चंगा ॥१८॥ अग्निभयानावत: मन्यमानाः शीतलमिति पानीयं । ते पैतरणी प्रविश्य भारोदकदग्धसर्वाङ्गाः ॥१ममा पनि । अग्निपात मावन्तः मन्यमानाः शीतलमिति पानी से समनारका तरणी विस्य भारोग्यसङ्गिाः सन्त: १८॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ त्रिलोकसार पापा : १८१-१९० ऐसी नदी को प्राप्त कर क्या होता है ? उसे कहते हैं--- गाथा:-अग्नि के भय से दौड़ कर पाने वाले नारकी यह शीतल जल है ऐसा मानकर जब उस नदी में प्रवेश करते है तो पार जल से उनका सारा शरीर जल जाता है ॥१५॥ विशेषा:-नवीन नारकी जीव अग्नि के भय से दौड़कर पाते हैं और वैतरणी नदी के जल को शीतल मानकर शीतलता की कामना करते हुए उसमें प्रवेश कर जाते हैं किन्तु शीतलता मिलने के स्थान पर, नदी के खारे जल से उनका सर्वाङ्ग दग्ध हो जाता है । अथ ते पुनः किं कुर्वन्तीत्यत आह - उद्विय गेण पुणो असिपचवणं पयांति चामेति । तासिसत्तिजटिहिं छिज्जते बादपडिदेहि ।।१८९।। उत्पाय वेगेन पुनः प्रसिपत्रवन प्रयान्ति छायेति । कुन्तासिशक्तियष्टिभिरिङ्गद्यन्ते वातपतितः ॥१६॥ उद्विय । तति शेष: छायोमानमेवायः ॥१८॥ उसके बाद वे नारकी क्या करते हैं ? उसे कहते है - नामा- नारकी शीघ्र ही वहाँ से उठकर 'यहाँ छाया है ऐसा मानते हए असिपत्रवन में प्रवेश करते हैं किन्तु वहाँ वायुसे गिरने वाले सेल, तलवार, शक्ति और लकड़ी आदि के सरश पत्रों से उनके शरीर छिद जाते हैं ।।१८९|| बिनोवा:-नारको जीव अग्नि से तप्त हुए वैतरणी में प्रवेश करते हैं, वहाँ खारे जलके कारण उनकी वेदना और बढ़ जाती है । उस भयङ्कर वेदना से प्रारण पाने के लिए वे शीतल छाया की कामना करते हुए वन में प्रवेश करते हैं तो वहाँ भी बाणों के समान तीखे पत्तों से उनके शरीष छिद भाते हैं । अथ तेषां बहिदुखसाधनमाह लोहोदयभरिदाओ कभीमो तसबहुकडाहा य । संतच लोहफासा भू सूईसदुलाइणा ॥१९॥ लोहोदकरिताः कुम्भ्या तप्तबहकटाहारण । सन्तमलोहस्पी भूः सूचीशाइवलाकीर्णा । ":"-. कोहो । छायामात्रमेवार्यः ॥१० भब नारकियों के दुःख के बाह्म साधन कहते है Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : १९१-१९२ लोकसामान्याधिकार पाया:-उन नरकों में ( पिघले हुए ) गर्म लोहे के समान जल से भरे कुम्भी हैं, अत्यन्त गर्म कढ़ाह है। वहां की भूमि गर्म, तपे हुए लोहे के समान स्पर्शवाली और सूई के समान पेनी दूब से ध्यान है ।।१९०। विशेषाय:-जिस प्रकार यहाँ हडिया प्रादि में रखकर भोजन पकाते हैं तथा कसाही के गर्म तेल आदि में भोज्य पदार्थ तलते हैं, उसी प्रकार नरकों में नारकी जीव एक दूसरे को कुम्भी में रखकर पकाते हैं और गर्म कढ़ाहों में डालकर तलते हैं। अथ क्षेत्रस्पर्शजदु:खं दृष्टान्तमुवेनाह विच्छियसहस्सवेयणसमधियदुक्खं धरिचिफासादो। कुक्खरिखसीसरोगमधतिसगयवेयणा तिष्वा ॥१९१॥ वृश्चिकसहस्रवेदनासमधिकदुःख परिधीस्पर्शाद । कृत्यक्षिशीषरोगगक्षुधातृषाभय वेदना तीवाः ॥११॥ kfreय । स्याविति शेषः । छायामात्रमेयायः ॥१९॥ वहाँ की भूमि के स्पर्श से होने वाले दुःख दृष्टान्त द्वारा कहते हैं गावार्थ:-हजार बिच्छुओं के एक साथ काटने पर जो वेदना होती है, उससे भी अधिक वेदना वहाँ की भूमि के स्पर्श-मात्र से होती है। उन नारकियों को उदर, नेत्र एवं मस्तक आदि के रोगों से उत्पन्न तीव्र वेदना तथा भूख, प्यास, भय आदि की तीव्र बाधाएं होती हैं ।।१९॥ विशेषापं:- सुगम है। अथ ते कि भुजते इत्यत आह मादिकहिदातिगंध सणिमपं मट्टियं विभुजंति । पम्ममवा वंसादिसु मसंखगुणिदासुई तचो ॥१९२॥ स्वादिषितातिगन्धामशनरल्पां मृत्तिको विभुजते । धर्मभवा वंशादिषु असंख्यगुणिताशुआं ततः ॥१९२।। सारि। स्वारिकुपितापलियामशनरम्पो मृतिका गिते पर्ममा वारिषु तसः अमक्यगुणिताशु मृत्तिको विभुजते ॥१९२॥ नारकी जीव क्या खाते हैं ? उसे कहते हैं Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = त्रिलोकसार बाया : १६३-१९१४ गाथार्थ:- प्रथम धर्मा पृथ्वी में उत्पन्न हुए नारको जीव वानादि निकुष्ट प्राणियों के सड़े हुए फलेवरों की दुर्गन्स से भी अधिक मिट्टी खाते हैं। वह दुर्गन्धित मिट्टी भी उन्हें अपनी भूख- प्रमाण नहीं मिलती अर्थात् अल्प मात्रा में हो मिलती है, जिससे क्षुधा शांत नहीं होतो | वंशादि पृथ्वियों के नारको इससे असंख्यातगुणित अशुभ मिट्टी का भक्षण करते हैं ।१९२।। विशेषार्थ:- सुगम है । १९० अथ तथाहारदुःखकरणसामर्थ्यं वर्णयति पदमासनमिह खिसं कोसद्ध गंधदो विमारेदि । कोसद्धद्धविराद्वियजीचे पत्थरक्कमदो || १९३ ।। प्रथमानमिह क्षिप्त' कोशाधं गन्धतो विमारयति । कोशाधिकधरास्थितजीवान् प्रस्तरक्रमतः ॥ १९३॥ पहा | प्रथम पृष्बोप्रथम पटलानं छह मनुष्यक्षेत्रे क्षिप्तं चेतु क्रोशाषं गम्बतो बिमारयति । कोशाधिरास्थितान् जीवान् मतः परं प्रस्तरतः विमारयति । नारकियों के उस आहार में कितना दुःख देने की क्षमता है। उसे कहते हैं: गाथार्थ :- प्रथम नरक के प्रथम पटल के नारकियों के भोजन की वह दुर्गन्धमय मिट्टी यदि मनुष्य क्षेत्र में डाल दी जाय तो वह अपनी दुर्गन्ध से आधे कोस के जोवों को मार डालेगी। इसी प्रकार प्रत्येक पटल के बहार की मिट्टी कम से आधा ग्राधा कोस अधिक पृथ्वी स्थित जोदी को मारने की क्षमता वाली है ॥ १६३॥ विशेषार्थ::- प्रथम नरक के प्रथम सीमन्त नामक पटल के नारकी जिस मिट्टी का आहार करते हैं, वह मिट्टी अपनी दुर्गन्ध से मनुष्य क्षेत्र के अर्ध कोस में स्थित जोवों को मार सकती है। द्वितीय निरय पटल के आहार की मिट्टी एक कोस के तथा तृतीय रौरव पटल के आहार की मिट्टी अपनी दुर्गन्ध से १३ कोल में स्थित जोवों को मारने की सामध्यं वाली है। इसी क्रम से प्रति पटल बाधा आषा कोस वृद्धिगत होते हुए सप्तम पृथ्वी के अवधिस्थान नामक ४६ में पटल के नारकी जिस मिट्टी का आहार करते हैं, वह मिट्टी अपनी दुर्गन्ध से मध्यलोक में स्थित साढ़े चोवीस ( २४३ ) कोस के जीवों को मारने की सामध्यंवाली है । अथ एते दु:ख साधने प्रियन्ते किमित्याशङ्कायामाह - पण मरंति ते भकाले महत्सखुचोवि दिण्णसन्दंगा | गच्छति तस्स लवा संघादं हृदम सेव || १९४ ॥ ॥ प्रियन्ते ते अकाले सहस्रकृस्त्रोऽपि त्रिसर्वाङ्गाः । गच्छन्ति तनोः लखाः सङ्घातं सूतकस्येव ॥ १९४ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया। १९५-१९६ .. लोकसामाश्याधिकार मर्हति । छायामात्रमेवार्थः ॥१४॥ इतने दुःख साधनों द्वारा नारकी जीव क्या मरण को प्राप्त होते हैं ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं :-- गाथा – सम्पूर्ण शरीर को हजारों बार छिन्न भिन्न कर देने पर भी उन नारकी जीवों का काल में मरा नहीं होता। पारे के करणों के सदृश नारकी जीवों के शरीर के टुकड़े भी संघात को प्राप्त हो जाते हैं । अर्थात् पुनः पुनः मिल जाते हैं ।। १९४ ।। विशेषा:- जिस प्रकार पारे के कहा भित्र भिन्न नहीं रह सकते आकर एक हो जाते हैं, उसी प्रकार नारकियों के शरीर खण्ड खण्ड हो जाने जाते हैं। आयु पूर्ण हुए बिना उनका सरण नहीं होता, चाहे कितना ही दुःख दु:खसाधनैः सर्वदा सर्वे दुःखमाप्नुवन्ति किमित्यत्राह - ९९१. शीघ्र ही चारों ओर से पर भी मिल कर एक हो क्यों न हो । तित्ययरसंतकसूत्रसणं णिरए निवारयति सुरा । छम्मासागसेसे मग्ने अपलाणमालको ।।१९५ ।। तीर्थंकर सत्कर्मोपसर्ग निरये निवारयन्ति मुराः । मासायुकशेषे स्वर्गे अम्मालाङ्कः ॥ १९५ ॥ जोवानामुपसर्ग निरये निवारयन्ति सुराः षण्मासाः शेषे स्वर्ग विश्व | ती इलाममालाङ्क १॥१६५॥ इन दुःख साधनों के द्वारा क्या हमेशा सर्व नारकी दुःखको प्राप्त होते हैं ? इसका समाधान:पार्थ - नरक में जिन नारकी जीवों के तीर्थंकर नाम कर्म सतामें है, उनकी प्रयु के माह शेष रहने पर देवगण उन नारकियों का उपसर्ग निवारण कर देते हैं, तथा स्वर्ग में भी तीर्थक प्रकृति की सत्ता वाले देवों की बायु छह माह शेष रहने पर माला नहीं मुरझाती ॥ १९५ ।। विशेषार्थ:- तीर्थङ्कर प्रकृति की सभा वाले नारकियों की आयु छह माह शेष रहने पर देव उनके उस दूर कर देते हैं तथा इसा प्रकृति की सत्ता वाले देवों को छह माह वायु शेष रहने पत्र माला नहीं मुरझाती । अथ तेषां विलनप्रकारमह अव गाउ पुणे वादाहदब्भपडलं था | रयाणं कायां सच्चे सिग्धं विलीयंते ॥। १९६ ।। अपवर्त्यश्वायुष्ये पूर्ण वाताहताभ्रपटलमिव । मेरयिकारणां कायाः सर्वे शीघ्र विलीयन्ते ।।१९६ ।। "'" Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. बिलोकसार बाथा : १९७-१९८ पणषट्ट । खायामात्रमेवा:मरण के उपरान्त नारकियों के देह विलय का विधान कहते हैं : गापा:-अपनी अनपवायु के पूर्ण होते ही नारकियों का सम्पूर्ण शरीर उसी प्रकार विलय को प्राप्त हो जाता है, जिस प्रकार पवन मे साड़ित मेध पटल विलय हो जाते हैं ।।१९६॥ विशेषाय:-जिन जीवों की भुज्यमान मायु का कदली घात नहीं होता अर्थात् जहाँ अकाल मरण नहीं होता, उसे अनपवायु कहते हैं । जिस प्रकार वायु से आहत मेघ पटल विलय को प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार अनपवत्र्य आय समाप्त होते ही नारकियों का सम्पूर्ण शरीर विलय हो जाता है। अथ तैरनुभूयमानदुःखभेदानाह खेचजणिदं प्रसादं मारीरं माणसं च मसरकयं । भुजंति जहावसरं भवद्विदीचरिमममयोचि ॥१९७|| क्षेत्र नितं असातं शारीर मानसं च असुरकृतम् ।। भुञ्जते यथावसर भवस्थितेश्चरमसमयान्तम् ॥१९॥ खेत । पन्सम पर्यन्तम । छायामात्रमेवाः ॥१६॥ नारकियों के अनुभव में आने वाले विविध प्रकार के दुःख गापा:-नारकी जीव भय स्थिति के चरम समय पर्यन्त यथावसर क्षेत्रनित, मानसिक, शारीरिक और असुरकन प्रसाता भोगने हैं ।। १९७॥ विशेषार्थ:-नरकों में मुख्यतः बार प्रकार के दुःख हैं। क्षेत्रसम्बन्धी, मानसिक, शारीरिक और असुरकृत । नरक क्षेत्र के सम्बन्ध से सत्पन्न आतापादि दुख क्षेत्रजनित हैं संक्लेश परिणामों से उत्पन्न आत द्रावि ध्यान मानसिक दुःख है। शरीर में उत्पन्न नाना प्रकार के रोगादि से उत्पन्न होने वाली वेदना शारीरिक दुःख है तथा तृतीय नरक पर्यन्त असुरकुमार जाति के भवनवासी देवों द्वारा धादि से उत्पन्न घेदना भसुरकत दुःख है । इसके अतिरिक्त परस्पर उदीरित दुःख को भी वे नारको भोगते हैं। अथ प्रतिपटल तदायुधन्योत्कर्घ गाथात्रयेणाह- . पदमिदे दसणउदीवाममहस्साउगं जहपिणदरं । तो गउदिलक्ख जेढ असंखपुष्वाण कोडी य ॥१९८॥ प्रथमेन्द्र के दशनवतिवर्षसहस्रायुष्कं जघन्येतरत् । ततः नवतिलक्ष ज्येष्ठ असंख्यपूर्वाणां कोट्याश्च ॥१९८|| Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाच।। १६६-२०० धोकसामान्याधिकार पक्ष । प्रथमेन्द्र के वश १८... नवति to... वर्षसहस्रायुष्यं अभ्यमितरत तव उपरिक्ष्यमा सर्व ज्येष्ठ नवतिलशं पसंख्यपूरणा कोरचा ॥१९८!! प्रत्येक पटल की जघन्योत्कृष्ट आगु तीन गाथाओं में कहते हैं पापा:- प्रथम पृथ्वी के प्रथम सीमन्त बिल के नारकियों की जघन्य भायु दस हजार वर्ष (१००.०) और उत्कृष्ट आयु नब्बे हजार वर्ष । ६.०००) प्रमाण है। दूसरे निरय पटल की उत्कृष्टापु नम्बे लाख वर्ष (९०...00 ) तथा रौरव पटल को उत्कृष्ट आयु असंख्यातपूर्व कोटि प्रमाण है ११९८॥ विशेषाव:-उपयुक्त गाथा में प्रथम पटल की जघन्यायु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट मायु नम्बे हजार वर्ष कही गई है। इससे आगे कही जाने वाली आय उत्कृष्ट ही समझनी चाहिए; जैसेनिरय पटल की नब्बे लाख और शेरव पटल की असंख्यातपूर्व कोटि प्रमाण उत्कृष्ट आय है । सायरदयमं तुरिये सगसगचरमिदयाम्हि इगि ति पिण । मस दसं सत्तरस उपही बावीस नेसीसं ।।१९९।। मादी अंतविसेसे रूऊणशाहिदम्हि हाणि चयं । उपरिम जट्ट' समयेणहियं इंटिमजहष्णं तु ॥२०॥ सागरदशमं तुरीये स्वकस्वकचरमेन्द्र के एक पौरिण। सन दश सप्तदश उनधयः द्वाविंशति: त्रयस्त्रिगत ।।१९९॥ आदिः अंत विशेष रूपोनाद्धाहित हानिचयं । उपरिमं ज्येष्ठं समये नाधिकं अधस्तनज धन्य तु ।।२०।। सायर । तुरीये चतुर्षे, उवषयः सागरोपमाणि इत्यर्णः । शेषं छायामात्रमेवाणः ॥१६॥ प्रायो । पारिः सागरशमांशाधिक १०१।२२ मते एकसागरोपमायो । १।१७।२२।३३ यथायोग्यं समच्छेवेन स्फेटिते तसापृथ्वीनां हानियो स्यातां ॥४॥३७११ कषितायुः प्रमाणपटल त्रयं मुवस्वा प्राक्तनपटालसहितरूपोनसतस्पटलाना ६११५३१ प्रतिष्यि एतावदेतावनायुश्खये २४३७।५।११ एकाविपटला कियदायुरिति सम्पास्य ययायोग्यमपक्रम पुरिणते तसत्पदलामामायुश्चयं भवति । एतरुपये प्राक्तमप्रास्तास्पिती संयोभिते तसरपरसानामुकमायुः प्रमाणं स्यात् । उपरिमज्ये १००.. इत्यादि समयेनाषिक व प्रपस्तनापत्तनम स्यात् ॥२०॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ त्रिलोकसा पाप।। १९९-२०० .. पापाणः --चतुर्थ भ्रान्त पटल को उत्कृष्टाय एक सागर के दसवें भाग प्रमाण है । अर्थात् मागर है, तथा अपने अपने अन्तिम इन्द्रक की उत्कृष्टायु प्रमशः एक सागर; तीन सागर. मान सागर,दशसागर, मन सागर, बाईस सागर और तंतीस सागरोपम प्रमागाहै। आदि प्रमाणको अन्नप्रमाण में से पटाने पर जो हो हो एक माम गाभाग देने पर प्रति पटल का हानि चय प्राप्त होता है । ऊपर के पटलों की जो उस्कृष्ट आयु है, उसमें एक समय अधिक करने पर वही नीचे के पटलों की जघन्यायु बन जाती है ।।१६६-२००। विशेषाः - प्रथम पटल के चतुर्थ भ्रान्त पटल की सागर आयु से प्रारम्भ करने पर आदि का प्रमाण क्रमशः १, ३, ७, १०, १७, और २२ सागर है, तथा अन्त का प्रमाण कमशः १, ३, ७, १०, १७, २२, और ३३ सागरोपम है। अन्त प्रमाण में से आदि प्रमापा घटाने पर क्रमशः । २, ४, ३, ४, ५, और ११ सागरोपम दोष रहते है। पूर्व मे नान पटली को पायु का प्रमाण कह चुके हैं तथा चतृयं पटल की भी आयु कह चुके हैं, अत: प्रथम पृथ्वी के तेरह पटलों में से चार पटल कम कर देने पर ( १३-४) ९ प्राप्त होता है । गच्छ का प्रमाण श्रमशः ३, ११, ६, ७, ५, ३ और १ है । जब कि ९ पटलों पर सागरोपम की हानि होती है, तब १ पटल पर कितनी हानि होगी? इस प्रकार सभी पटलों का राशिक निकालने से कमशः .. और हानि घय प्राप्त होता है । इसे पूर्व पूर्व पटलों की आयु में मोड़ने में मागे आगे के पटलों की उत्कृष्ट आयु प्राप्त होती जाती है । जैसे :- चतुर्थ भ्रान्त पटल की उकृष्टायु के सागर है, इसमें पर चय जाड़ने से (+6) = सागर उद्घान्त इन्द्र क को उत्कृष्ट आयु प्राप्त हुई । इसी प्रकार ६, संभ्रात ( + ) = सागर, ७ असंभ्रान्त .८ विभ्रान्त , ९ त्रस्त १. असित ११, ११ व कात १२ अवक्रांत और १३ विक्रांत इन्द्रक की उत्कृष्टायु २९ अर्थात् १ सागर प्रमाण है। द्वितीय शर्करा प्रभा पृथ्वी का हानि चय* मागर है अतः तेरहवें विक्रांत इन्द्रक को १ सागर वायु में मिलाने से (+ ) अर्थात् १ सागर १, सतक इन्द्रक की उत्कृष्टायु प्राप्त हुई। इसी प्रकार २, स्तनक ( 1 ) सागर, ३ वनक, ४ मनक , ५ खडा ३५, ६ खडिका १६, ७ जिह्वा २७ ८ जिह्विक ९ लौकिक ३१, १० लोलवास ३२ और ११ स्तनलोला । अर्थात ३ सागर प्रमाण उत्तष्टायु है। तृतीय बालुका प्रभा पृथ्वी का चप सागर है । इसे ३ सागर में जोड़ने से (A+) AR इन्द्रक की २ तपित ( +) -१, ३ तपन ३, ४ तापन , ५ निदाघ , ६ बज्वलित १,७ प्रज्वलित ५५, ८ संज्वलित , और । संप्रज्वलित है, अर्थात ७ सागर उत्कृष्टायु है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा।६०१ फोकसामान्याधिकार चतुर्थ पङ्क, प्रभा पृथ्वी का हान चप सागर है, अत: (+) आरा १२ मारा (3+1) -- ५५,३ तारा, ४ चर्चा ७.५ तमको ४६ घाटा और ७ घटा इन्द्रक की उत्कृष्टायु " अर्थात् १० सागरोपम प्रमाण है। पनम धूम प्रभा पृथ्वी का हानि माय: सागर है 1 हो:. सागर में मिलाने पर { +) = १ तमका १, २ भ्रमका , ३ झषका, ४ अनन्द्रा और५ तिमिश्रका इन्द्रक की उत्कृष्टायु " अर्थात् १५ सागर प्रमाण है। षष्ठ तमः प्रभा पृथ्वी का हानि चयः सागर है, अतः १ हिम (+1) = " सागर २ वालि ; ३ लल्लकि । अर्थात् २२ सागर प्रमाण उत्कृष्टायु है। राम महातमः प्रभा पृथ्वी का हानि च है, अत: अवधिस्थान नामक अन्तिम पटल की उत्कृष्टायु । २३+) =३३ मागगेपम प्रमाण है । ऊपर ऊपर की उत्कृष्टायु हो एक समय अधिक करने पर नीचे नीचे के पटलों की जघन्यायु हो जाती है। अथ तेषां नारकाणां पटलं प्रत्युत्मेघमाह पढमे मत्त नि छक्क उदयं घणुरयणि अंगुल सेसे | दुगुणकर्म पदमिदे ग्यणिनियं जाण हाणिचयं ॥२.१।। प्रथमे सप्तत्रिषटक उदयः धनूरन्या गुलानि शेषे । द्विगुण क्रम प्रथमेन्द्र के रलित्रयं जानीहि हानिचयम् ॥२०॥ पहमे । प्रथमपिण्याचरमपटले सप्तत्रि ३ षट्क ६ सवयः धनुरग्यङ्गुलामि । द्वितीयादिपृष्ण्याचरमपटले दिगुण कम, प्रथमपृष्ध्या; प्रथमेन्द्र के परिमंत्रयं । एतस्मृत्वा हानिधर्म सामोहि । हामियम साधन कमिति चेत्, प्रावि ३ मन्ते ए हस्त ३ अंगुल ६ शोधयिावा हस्तस्याने स्फेटयिया ७६ रूपोनाबहुते याही भागो भवेदण्ड हस्ताहिकं कृत्वा भक्त हस्तः २ शेषमडगुलं कृत्वा । सत्र प्राक्तनागुलं मेलविरवा का भक्त लम्पमङ्गुलं ८ शेषे षड्भिरपबतिते अगुलं : एतत्सर्व प्रपष्पा हानिमयं वंश अंभावं उपरितमत्वस्वजातो मेलयिस्वा दण्डा पृयकृतेषस्तनपटलवेहोत्सेषः १२८ भात पुनस्तद्धानिधर्म दारा मेलने १।३.१७० सरपस्तानदेहोत्सेषः । एवमेव सर्वत्र पटले योज्य: । एवं वितोयादि पृषिष्या हानिधयरसेपश्चानेतन्यः ॥२०॥ प्रत्येक पटल के नारकियों के शरीर का उत्सेध कहते हैं : गाषाण:-प्रथम पृथ्वी के अन्तिम पटल के नारकियों के शरीर को ऊंचाई ७ धनुष तीन हाथ और छह अंगुल प्रमाण है। शेष द्वितीयादि पृध्वियों के अन्तिम पटल में रहने वाले नारकियों कर उत्सेध क्रमशः दना दूना है। प्रथम पृथ्वी के प्रथम इन्द्रक में रहने वाले नारकियों का उत्सेध तीन हाथ प्रमाण है । इमे ही हानि चय जानो ॥२.१|| Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ii...:-- त्रिलोकसार गाथा। २०१ विशेषा:-प्रथम पृथ्वी के चरम ( अन्तिम ) पटल में सप्त धनुष तीन हाथ और छह अंगुल उस्सेध है । दितीयादि पृध्वियों के अन्तिम पटल का उरसेघ दूना दूना होता गया है। प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल का जत्सेध तीन हाथ प्रमाण है, इमे रखकर ही हानि चय जानो। हानि चय का साधन क्या है। उसे कहते हैं :-आदि प्रमाण तीन हाथ को अन्तिम प्रमाण सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल में से घटाने पर ( ७-३-६-०-३-०) पर ७ धनुष • हस्त ६ अंगुल शेष रहते हैं। इसमें एक कम गच्छ ( १३-१=१२) का भाग देने पर और भाग होते है। अर्थात ७ धनुष में १२ का भाग जाता नहीं इसलिये उसके अट्ठाईस हस्त बनाये, १२ का भाग देने पर दो हस्त प्राप्ठ हए और ४ शेष के 11 इन्हें गले के बालों में 7 देने पर +11)-१११ हए । बारह का भाग देने पर लध आय। ६ शेष रहे ( अपवर्तन करने पर ३ अंगुल हुआ। इस प्रकार प्रथम पृथ्वी का हानि चय २ हाथ गुल हुआ। इस उपरिम पटल के उस्सेध में अपनी अपनी हस्तादिक जाति के कम में मिलाने पर या इस्तादि बना लेन पर मुसंध प्राप्त होता है। प्रथम पृथ्वी के प्रथम सीमन्त पटल का उसेघ हाथ था। हाथ ८३ अनल च य मिला देने पर ( ३ ह० + २ हाथ ८ ०) दूसरे निरय पटल का १ धनु० १३. घ. उत्सष प्राप्त हया। इसमें पुन, चय मिलाने पर (११०,१६०८३०+२०५०)-१३० ३१०१७ तीसरे गैरव पटल का उत्सेध प्राप्त हुआ। इसी प्रकार प्रत्येक में चय जोड़ने में आगे आगे का उत्सव प्राप्त होता जाता है। जैसे:-(४) भ्रान्त २ घ० २ ह. भ. । (५) उदभ्रांत ३५० १. नं० । (६) संभ्रान्त ३ घा, २ ह. १८६०। (७) असंभ्रान्त ४ ध० २७ प्र० । (८) विभ्रान्त ४५०, ३ ह, १२ प्र.। (९) त्रस्त ५०, १०, २० अं.1(१०) त्रसित ६५.४३ अंगले । (११) यकान्त ६०, २., १३ अं । (१२) सबकान्त ५५. २१३ अं । और (१३) विक्रान्त पटल का उत्सेध ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगल प्रमाण है। द्वितीय पृथ्वी का चय लाने के लिए--अन्त उस्सेध १५५० २ १० १२. अं० में रो आदि उत्सेध ७५० ३ ह.६० घटाने पर ७ घ. ३ ह० ६ ० शेष रहे । इनमें गच्छ ११ का भाग देने पर (स )=२ हाथ २० प्र० हानि चय प्राम होता है । इमै ऊपर ऊपर के उत्सव में जोड़ने में क्रमशः (0 .२ ह.३५ ०। (२) ६ .२२ .(३) ९७०, ३ ०.१८ । (४) १.५०, २ ह., १४१५ मं० । (५) ११५०, १०, १. .। (६) १२ प. अंगुल । (७) १२ ० ३ ०, I.1(८) १३ ५०, १०, २३ मं० । (1) १४३०, १९ अं.। (१०) १४ १०,३ ह.१५२ . और (११) स्तनलीला पटल का उत्से १५० २ ह.१.५० प्रमाण है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया । २०२-२०३ छोकसामान्याधिकार १६७ तृतीय पृथ्वी का हानि चय उपयुक्त रीति से निकालने पर । घ०२ . २२३० प्राप्त होता है । (१) १७५० ३४३ अंक। (२) १६० ० । (३) २०१० ३ १०८ 01 (४) २२ १०, २१, ६३० । (५) २४ घ० १ ० ५४ अं०1१६) २६ ध०४ अं० । (७) २७ ध०, ३ ह. २ ०। (८) २६ ध. २हन, १७ अं| (E) ३१ ध० १ हाथ प्रमाण है। चतुर्थ पृथ्वी का हानि चयः-४ धनुष । हात २०४० प्राप्त होगा । अत:-(१) ३५ घ. २६, २०१०। (२) ४. ध.१७ अं०। (३) ४४ ध०,२, १३०। (४) ४६ घ. .। (३) ५३ घ०, २६०, ६६ प्र० । (६) ५८ घ०३३ अं० । और (७) २२५० २ हस्त प्रमाण उत्सेध है। पञ्चम पृथ्वी में हानि वृद्धि चयका प्रमाण १२ १०२ हाथ प्राप्त होगा । अत:-१) ७५.५० (२) ८७ प. २ ह. (३) १०० १० (४) ११२५०२ ० (५) १२५ १० प्रमाण उत्सेध-होगा। षष्ठ पृथ्वी में हानि-वृद्धि का चय-१.२ १६ अंक प्राप्त होगा । अतः-(१) १६६ ध.२० १६ अं०। (२) २०८ घ.ह.. और (३) २५० ५० प्रमाप उत्सेध है । सक्षम पृथ्वी के अवषि स्थान नामक अन्तिम पटल के नारकियों का उत्सेध ५०० धनुष प्रमाण है। अथ नारकाणामधिक्षेत्रमाह--- रयणप्पामुदनी चलो कोमा ग भोहिग्लेन तु । तेण परं पडिपढवी कोसद्ध विवलियं घोदि ॥२०२।। रानप्रभाधिव्याश्चत्यारः क्रोशाश्चावधिक्षेत्रं तु । ततः परं प्रतिपृथ्वि क्रोशाविवजितं भवति ।।२०२॥ यण । छायामात्रमेवानी। नारकियों के अवधि क्षेत्र का प्रमाण कहते हैं: गामार्थ:-रत्नप्रभा पृथ्वी का अवधि क्षेत्र चार कोस प्रमाण है । इसके बाद प्रत्येक पृथ्वी में आषा आषा कोस हीन होता गया है ।।२०२।। विशेषाध:-रलप्रभा पृथ्वी के नारकी जीव अपने अवधिज्ञान से ४ कोस सक मानते हैं। गरा प्रभा के ३३ कोस, बालुकाप्रभात । कोस, पङ्क प्रभा के २३ कोस, धूमप्रभा के २ कोस, तमःप्रभा के १३ कोस और महातमप्रभा के नारकी जीव मात्र १ कोस वक ही अपने अवविज्ञान से जान सकते हैं, इसके भागे नहीं। अथ नरकात्रि:मृतस्य जीवस्पोत्पत्तिनियममाह-- णियादो णिस्तरिदो णरतिरिए कम्मसग्णिपजचे । गम्भभवे उत्पादि सत्तमपुचीद तिरिए व ॥२०३।। निरयानिःसृतः नरतिरश्चीः कमसजिपर्याप्त । गर्भभवे उत्पथते मप्तमपृथिव्यास्तु तिरश्चि एव ।।२०३।। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . त्रिलोकसार पापा २०४ बिरया। निरयानिःसतः मरतियोगत्योः कर्मभूमो संमिनि पर्याप्त नभवे सत्पद्यते । सरतमपूपिण्यास्तु मिर्गसस्ताहग्वितिरां गतो जस्पद्यते ॥२०॥ नरक से निकलने वाले जीवों की उत्पत्ति का नियम कहते है: गाथार्थ:- नरक से निकला हुआ जीव मनुष्यगति और तिपंचगति में कमभूमिज, संजी, पर्यातक और भंज ही होता है, तथा सप्तम पृथ्वी से निकला हुआ जीव कर्मभूमिज, संत्री, पर्याप्तक और गर्भज तिर्यश्च होता है ॥२॥३।। विशेषार्थ:-प्रथम पृथ्वी से घष्ठ पृथ्वी ज़क के नारको जोब नरक से निकल कर मनुष्य गति और तियश्च गति में कमभुमिज, संजी, पर्याप्तक और गर्भज होते हैं। भोग भूमिज, असंजी, सध्याप्तिक और सम्मूच्छन नहीं होते, तथा सम्म नरक के नारकी उपयुक्त विशेषणों सहित मात्र तियश्च गति में जन्म लेते हैं, मनुष्य नहीं होते । अथ रणरतिरिए इति नियमे तत्रापि कि सनत्रेत्याशङ्कायामाच गिरपचरो गस्थि हरी बलचक्की तुरियपहदि णिम्सरियो । तित्थचरमंगसंजद मिस्सतियं गन्थि णियमेण ॥२.४।। निग्यघरो नास्ति हरिः बलकिगो तुरीयप्रभृतिनिःसृतः । तीर्थचरमाङ्गसंपत्ताः मित्रत्रय नास्ति नियमेन ॥२०४। गिरनरपरो मास्ति हरि: बलचक्रिणो सुर्यप्रतिनि:सतः ययासंख्य तीर्थकरघरमाणसंयता विषत्रया मिषायतवेशसंयता म सन्ति नियमेम । प्रसंयत्तस्वनिषियवारसासाबमस्वस्याप्यभाव एक ॥२०॥ उपयुक्त नियमानुसार क्या वे बीच सर्वत्र उत्पन्न होते हैं ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं: गाया:-नरक से निकला हुआ जीव नारायण, बलभद्र और चक्रवर्ती नहीं होता। चतुर्थादि पृथ्वी से निकला हा जीव तीर्थकर, पश्चमादि से निकला हा चरम शरीरी, षष्ठ आदि से निकला हमा सकल संपमो पोर मप्तम पृथ्वी से निकला हुआ नारको जीव नियम से मम्यग्मिध्याष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और देश संयमी नहीं होता ।।२०४॥ विशेषार्थ:-नरक से निकले हुए मारकी जीव नारायण, बलभट और चक्रवर्ती नहीं होते। तथा चतुर्थादि पृध्वियों से निकले हुए जीव यथाक्रम तीर्थङ्कर, घरमशरीरी, सकलसंयमी और मिश्रश्रय ( सम्यग्मिध्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और देशसंयम ) में उत्पन्न नहीं होते। यह असंयत सम्पदृष्टि का निषेध करने से ऐसा जानना चाहिए कि सातवीं पृथ्वी से निकला हा जीव सासादन सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो सकता, मात्र मिथ्यापि ही होता है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा: २०५ लोकसामान्याधिकार अथ नरक गल्छता जोबानां पृथ्वी प्रति नियमाह ममणसरिसपविहंगम फणिसिंहित्थीण मच्छमणुवाण । पढमादिसु उप्पत्ती अडयारादो दु दौण्णिवारोसि ॥२०॥ अमनस्कसरीसृपविहङ्गमरिमिझोणा मत्स्य मनुष्याणाम् । प्रथमादिपु उत्पत्तिः अष्टवारतस्तु, द्विवार इति ॥२०५।। प्रमए । प्रमकसरीसपविहगमरिणसिहस्त्रीय मान्यमनुष्याला प्रथमादिषु यथासंस्था पुरस : सिरससरं समिति, पत: REET द्विवारपर्यन्त प्रमनकः प्रथमनरकं गत्वा ततो निर्गस्य संशो मूत्वा मृत्वा पुनरवानी सम्भूय मृत्वा प्रथममरकं गाति । इवमेकबारे । एवमसंजिमोटवारं निरन्तरं योजयेत् । निरन्तरासम्भवेन एकमन्सरं गृलोया, नवं सरोसपाविषु । मस्य: सप्तमनरकं गत्वा ततः प्रत्युत्म नियंग्जोयो भूत्वा मृत्वा मरस्यः संभूय मृत्वा सप्तममरकं गच्छति । नरस्येवं निरन्तरं दिवार योजयेत् ॥२०॥ नरक जाने वाले जीवों का प्रत्येक पृथ्वी में उत्पत्ति का नियम कहते हैं: पाया:--असंज्ञी, सरीसृप, पक्षी, सपं, स्त्री तथा मत्स्य और मनुष्य प्रथमादि वृध्वियों में अनुकम से आठ वार से प्रारम्भ कर दो बार पर्यन्त उत्पन्न हो सकते हैं ।।२०५।। विशेषार्थ:-असंशी जीव प्रथम पृथ्वी पर्यन्त, सरीसृप द्वितीय पृथ्वी, पक्षी तृतीय पृथ्वी, सर्प चतुर्थ पृथ्वी, सिंह पश्चम, नो षष्ठ पौर मत्स्य एवं मनुष्य सप्तम पृथ्वी पर्यन्त ही जाते है । उपयुक्त सातों पृथ्वियों में क्रमानुसार वे असंजी आदि जीव उत्कृष्ट रूप से यदि निरन्तर उत्पन्न हों तो बाउ, मात, छह, पांच, चार, तीन और दो बार ही उत्पन्न हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं। निरन्तर कैसे उत्पन्न होते हैं। ऐसा पूछने पर कहते हैं:-कोई असंही जीव मरकर प्रथम नरक गया। वहां से निकल कर उमने मंज्ञो पर्याय प्रान की पुनः मरकर प्रसजी हुमा । तथा मरकर पुन: प्रथम नरक गया। यह एक बार हुआ। 'पुन. वहां से निकल, संशी होकर मरा और असंज्ञो पर्याय प्रान कर मरण किया तथा पुनः नरक चला गया यह दूसरी बार हुआ । इस प्रकार अधिक से अधिक आठ बार उत्पन्न हो सकता है. इससे अधिक नहीं। नरफ से निकला हुआ गोव असंभी नहीं होता इसलिए उसे बीच में संजी पर्याय प्राम करनी पड़ी। इसी कारण यहां बीच में एक पर्याय का अन्तर होते हुए भी निरन्तर कहा है। सरीसृप, पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्री के लिए ऐसा नियम नहीं है, वे बीच में अन्य किसी पर्याय का अन्तर हाले बिना ही उत्पन्न हो सकते हैं। मत्स्य सप्तम नरक जाकर वहा से निकल कर पहिले गभंग होगा फिर मत्स्य हो मरण कर सप्तम नरक जाएगा। क्योंकि नरक से निकला जीव सम्मुच्छंन नहीं होता । इसी प्रकार मनुष्य मरकर सप्तम नरक गया, मरकर गर्भज तियेच हुमा फिर मनुष्य हो मरकर पुनः सप्तम नरक जाएगा। क्योंकि सप्तम नरक का जीव मनुष्य नहीं होता। इसी कारण इन दोनों जीवों के बीच में एक पर्याय का अन्तर होते हुए भी निरन्तर कहा है । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा: २०६-२०७ अथ प्रथमाविपृथिव्या उत्कृष्टेन जननमरणयोरन्नरमाह चउचीमाहुत्तं पुण ससाई पक्खमेक्कमासं च । दुगचदुलम्मासं च य जम्मणमरणंतरं णिरये । २०६|| चतुर्विशतिमुहूर्ताः पुन: सप्ताहानि पक्षा एक मासश्च । द्विकचतुःपण्मासान च जननमरणान्तरं निरये ॥२०॥ चवीस । यथासंख्य इति शेषः । छायामात्रमेवार्थः ॥२०६॥ प्रथमादि पृधियों में उत्कृष्ट रूप से जन्म मरण का अन्तर कहते हैं गाभार्थः- प्रथमादि पृथ्वियों में जन्म मरण के अन्तर का प्रमाण क्रमश: चौचीस मुहत, सान दिन, एक पक्ष, एक माह, दो माह, चार माह और छह माह है ॥२०६।। विशेषार्थ:-कोई भी जीव यदि प्रथमादि पृथ्वि यों में जन्म मरण न करे तो अधिक से अधिक यथाक्रम २४ मुहूतं, ७ दिन, १ पान, १ माह, २ माह, चार माह और छह माह तक न करे, इसके बाद नियम से जन्म मरण होगा ही होगा। लेपां दुःखप्रागलम्यमाह मच्छिणिमीलणमेचं गस्थि सुहं दृषखमेव भगुषद्धं । णिया परायाणं अहोणिसं पच्चमाणाणं ॥२०७।। अशिनिमीलनमा नास्ति सुखं दुखमेव अनुबद्धम् । निरये नैरयिकाणा अहनिश पच्यमानानाम् ॥२०॥ पग्छि । छापामानमेवाः ॥२०॥ इति मरक स्वरूपामरूपम् । नारकियों के दु:खों की अधिकता कहते हैं गावार्थ:-नारकी मोवों को नेत्र की टिमकार मात्र भी सुख नहीं है, वे सर्वदा दुःख में ही अनुबद्ध हैं । रात विन दुःख रूपी अग्नि में ही जलते रहते हैं ।।२०।। विशेषा-अनेक पापों के फलस्वरूप जीव नरक में जाकर निरन्तर दुःखरूपी अग्नि में जलता रहता है। नेत्र की पलक झपकने में जितना समय लगता है, उतने समय के लिए भी उसे वहाँ सुख नहीं मिलता। नरक स्वरूपनिरूपण समाप्त हुमा | इम प्रकार श्रीनेमि चन्द्राचार्य विरचित 'त्रिलोकसार' ग्रंथ में 'लोकसामान्यापिकार' नाम प्रथम अधिकार पूर्ण हुआ ॥१॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनाधिकारः *PPEDX अथ लोकस्य सामान्य वर्णनां कृत्वा "भववितर" इत्यादिगाथासूचितपश्चाधिकाराणां मध्ये तथंव भवनाधिकार प्रकममाणस्तदधिष्ठानभूतां रत्नप्रभा तत्सहचरितां शराप्रभादिभूमि सद्गतन रकप्रस्तरान् तद्गतनारकायुरादिक च प्रासङ्गिक सर्व व्याख्याय प्रकृतं भवनाधिकार प्रवक्तुकामस्तदादी भवनलोकचैत्यालयान वन्दमान इद मङ्गलमाह भवणेसु सत्तकोही वाहत रिलक्ख होति जिणगेहा । भवणामरिंदमाहिया मरणसमा ताणि बंदामि ॥२०८|| भवनेषु सप्तकोट्यः द्वासप्ततिलक्षारिण भवन्ति जिनगेहाति। भवनामरेन्द्र महितानि भवनसमानि कानि वन्दे ॥२०॥ भवणे । भवनेषु सप्तकोस्यः दासप्ततिलमाणि भवन्ति जिनगेहानि । भवनामरेनामहितानि सेषां भवनसमामानि तानि बन्वे ॥२०॥ लोक का सामान्य वर्णन करने के अन्तर 'भवयितर' इत्यादि दो गाथासूत्रों में पांच अधिकारों की जो सूचना दी गई थी, उनमें से अनुकम प्राप्त भवनाधिकार प्रारम्भ करने के लिए भवनों को आधारभूत रत्नप्रभा पृथ्वी और उसकी सहचारिणी शर्करा आदि छह पृध्वियों का, उनके पटलों का और पटलों में रहने वाले नारकी जीवों की आयु आदि सभी प्रासङ्गिक बातों की व्याख्या करके भवनाधिकार का वर्णन करने की इच्छा रखने वाले प्राचार्य सर्वप्रथम भवनलोक सम्बन्धी चैत्यालयों की वन्दना करने के लिए मंगलसूत्र कहते हैं गाया:-भवनों में भवनकामी देव और उनके इन्द्रों से पूजित, भवनों की संख्या सहा सात करोड़ बहत्तर लाख जिन-मन्दिर है । मैं ( नेमि चन्द्राचार्य ) मनकी वन्दना करता हूँ ॥२०॥ विशेषार्थ:-भवनों में सात करोड़ बहत्तर लाख जिन-भवन है । ये जिन-भवन मवनवासी देवों और भवनेन्द्रों से पूजित हैं। जितने भवन हैं उतने ही जिनमन्दिर हैं। उन सब जिनमन्दिरों को मैं ( नभिचन्द्राचार्य) नमस्कार करता है। २६ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ त्रिलोकसाथ अथ भवनवासिनां कुलभेदं तेषामिस्वनामानि च गाथायेणाहू वाचा : २०९-२१०-१२१ असुराणामसुवण्णादीषोद हि विज्जुणिद दिसगी । वादकुमारा पढमे चमरो बहरोड़ो हंदी || २०९ ।। असुरो नागपो द्वीपोदधिविद्य रस्तनितदिगग्नयः । वादकुमारा प्रथमे चमरो वैरोचन इन्द्रः ॥ २०६॥ प्रसुरा । प्रसुर: भागसुपर्णो द्वीपोदधिविद्य एस मिलविनमयः वातकुमारः । कुमारशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते । प्रथमे कुले चमरो वंशेजनश्चेति द्वाविन्द्र २०६॥ अब भवनवासी देवों के कुल-भेद और उनके इन्द्रों के नाम तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं- गाथार्थ:- असुरकुमार, नागकुमार, सुपकुमार द्वीपकुमार उदधिकुमार, विद्यत्कुमार स्तनितकुमार, दिवकुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार भवनवासी देवों के ये दस कुल है। इनमें से प्रथम असुरकुमार कुल में चमर और वैरोचन नामके दो इन्द्र है ॥२०६ विशेषार्थ:- सरल है । भृदाणंदो धरणाणंदो घेरा य वेधारी य । पुण्णव सिद्ध जल जलकंतो घोसमहघोसो || २१०॥ इरिसेणी हरिकंतो अमिदगदी अमिदवाद्दणग्निसिही अग्गीवाहणणामा बेलंच भंजणा सेसे ॥ २११।। भूतानन्दो घरमानन्दः येणुश्च वेणुधारी च । पूर्णवशिष्टी जलप्रभः जलकान्तः घोषमहाघोषो ॥२१॥ हरिषेण: हरिकान्तः अमितगतिः अमितवाहनः अग्निशिखी अग्निबाहनामा वेलम्बप्रभवनों शेषे ॥ २१४॥ भूवा शेषे नागादिकुले इत्यर्थः । शेषस्य छापामात्रमेवार्थः ।। २१०-२११॥ गावार्थ:--'शेष' अर्थात् नागादिकुलों में भूतानन्द धरणानन्द; वेणु-वैणुधारी; पूर्ण-वशिष्ट जलप्रभ-जलकान्त घोष-महाघोष हरिषेण हरिकान्स अग्निवाहन; लम्ब और प्रभञ्जन इन्द्र हैं ||२१०-२११।। अमितगति-अमितवात अग्निशिखी विशेषार्थः -- नागकुमारों के कुल में भूतानन्द और वरानन्द नामक दो इन्द्र हैं। सुपर्णकुमारों में वेणु और गुधारो द्वीपकुमारों में पू ओर वशिष्ट उदधिकुमारों में जलप्रभ और जलकास्तः 1 1 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा 1 २१२-२१३ मत्रनाधिकार २०३ विद्य तकुमारों में घोष और महाघोष, स्तनितकुमारों में हरिण और हरिकान्त; दिक्कुमारों में अमितगति और अमितवाहन, अग्निकुमारों में अग्निशिखी और अग्निवाहन तथा वायुकुमारों में वैलम्ब और प्रभखन नामके दो दो इन्द्र होते हैं। ये सब मिल कर बीस होते हैं । अथ तेषां परस्परस्पर्धास्थानमाह ९.मरो सोहम्मेण य भृदाणदो य वेणुणा तेसिं । विदिया बिदियेहि समं ईसंति महावदो णियमा ॥२१२।। चमर: सौधर्मेण च भूतानन्दश्न वेणुना सेषां । द्वितीया द्वितीयः सम ईष्यन्ति स्वभावतो नियमात् ॥२१२॥ धमरो। छायामात्रमेवार्यः ॥२१२॥ उन इन्द्रों के परस्परस्पर्धास्थान का कथन करते हैं गायार्थ:-चमरेन्द्र सौधर्मेन्द्र से, वैरोचन ऐशानेिन्द्र से, भूनानन्द बेणु से और धरणानन्द वेणुधारी से स्वभावत: नियम से ईष्या करते हैं ।।२१२।। विशेषार्थ:- द्वितीया का अर्थ वरोचन और धरणानन्द तथा द्वितीयः का अर्थ ऐशानेन्द्र और वेणुघारी है। अथ ते पाममुरादीनां चिह्नमाह चूडामणिफणिगरुई गजमयरं बढमाणगं वक्ष । हरिकलसस्सं चिह्न मउले चेचहुमाह धया ||२१३।। ___ चूडामणिफरिणगरुडं गजमकर वर्घमानक वज्ज। हरिकलशापवं चिह्न मुकुटे चैत्य व मा अथ ध्वजाः ।।२१३।। पूरा । तेषां चिह्नाः इति शेषः । छायामात्रमेवार्थः ॥२३॥ असुरादि कुलों के चिह्न गापा:-असुरकुमारादि भवनवासी देवों के मुकुंटों में क्रमशः चूड़ामणि, सर्प, गरुड़, हाथी, मगर, वदमान (घड़ा ), बच्च, सिंह, कलश और अश्व के चिह्न है। चंदयवृक्ष और ध्वजा भी इनके चिह्न हैं ॥२१॥ विशेषार्थ:-सरल है। अध तच्चस्यवृक्ष भेवानाह Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ त्रिलोकसार पाया : २१४-२१५-२१५ अस्सस्थसत्तसामलिजमुवेतसकदंबकपियंग | सिरिस पलासरायदुमा य असुरादिचेल तरू ||२१४।। अश्वत्थसप्तच्छदशाल्मलिजम्बूबेतसकदम्बकप्रियङ्गवा । शिरीषः पलाशराजद मौ व असुरादित्यतरवः ॥२१॥ अस्स । छायामात्रमेवाच। ॥२१४॥ उन स्थवृक्षों के भेद कहते हैं गाषा:--अश्वत्थ ( पीपल ), सप्तपणं, शाल्मलि, जामुन, वेस, कदम्ब, प्रियंगु, शिरीष, पक्षाश और राजद्रुम ( चारोली का वृक्ष ) ये दस चैत्यवृक्ष क्रम से उन अमुरादिक कुलों के चिह्न स्वरूप होते हैं ॥२१४।। वियोवार्थ:--सरल है। अथ चैत्यद्रमाणामन्वर्थतो समर्थयते चत्ततरूणं मूल्ने पसंयं पडिदिसम्हि पंचेच | पलियंकठिया पहिमा सुररिचया ताणि वदामि ।।२१५॥ चैत्यतरूण मूले प्रत्येक प्रतिदिश पत्र व । पर्यङ्कस्थिताः प्रतिमाः मृराचिताः ताः वन्दे ॥२१५।। खेत । छायामात्रमेवाः ॥२१॥ चैत्यवृक्षों की सार्थकता का समर्थन करते हैं नापार्ष:- चत्यवक्षों के मूलभाग को चारों दिशाओं में पल्यामन से स्थित तथा देवों द्वारा पूज्य पाच पाच प्रतिमाएं हैं, उन्हें मैं ( नेमिचन्द्राचार्य ) नमस्कार करता हूँ ॥२१॥ की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पद्मासन से स्थित मौर देवों द्वारा पूज्य पांच पांच जिन प्रतिमाएं विराजमान है, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। अथ तरपतिमामस्थमानस्तम्भस्वरूपमाह पडिदिसयं णियसीसे सगसगपडिमाजुदा विराजति । तुगा माणस्थंभा रयणमया पहिदिसं पंच ।।२१६।। प्रतिदिश निजशीर्षे सप्तमतप्रतिमायुता विराजन्ते । नुङ्गा मानस्तम्भा रलमय्यः प्रतिदिशं पञ्च ॥२१॥ परि । छायामात्र वार्षः ॥२१॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ गाथा : २१७-२१८ भवनाधिकार उन प्रतिमाओं के सामने स्थित मानस्तम्भों का स्वरूप कहते हैं गाथा:-जन प्रतिमाओं के आगे प्रत्येक दिशा में रत्नमयी उत्तुङ्ग पांच पाप मानस्तम्भ विराजमान हैं। वे अपने उपरिम भाग में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में सात सात प्रतिमाओं पहित हैं ॥ २१६ ॥ विशेषार्थ।- प्रत्येक दिशा की पांच पांच जिनप्रतिमाओं के आगे अट्ठाईस अट्टाईस जिनप्रतिमाओं सहित रत्नमयी पच पच मानस्तम्भ विराजमान हैं। अथेन्द्राणा भवनसंख्या शापयत्राह चौतीसं चउदालं महसीसं छसुवि ताल पण्णासं । चउचउविहीण ताणि य इंदाण मवणलक्खाणि ॥२१७|| चतुखिशचतुश्चत्वारिंशदाविशत् पट्स अपि चत्वारिंशत् पश्चाशत् । चतुश्चतुविहीनानि तानि च इन्द्राणां भवनलक्षाणि ॥२१॥ चोत्तीस । चतुस्त्रिशस्वचत्वारिंशत् अष्टाविंशत् षट्सु स्थानेषु परवारिक पञ्चाशत्तरेबान प्रति धनुषयविहीनामि तानि इमाणां भवनलमाणि ॥२१७।। भवनवासी इन्द्रों के भवनों की संख्या गाथा-दक्षिणेन्द्रों के क्रमशः चौतीस लाख, चबालीस लाख, मदतीस लाख, छह स्थानों में चालीस लाख और इसके आगे पचास लाख भवन है तथा उत्तरेन्द्रों के क्रमशः उपयुक्त प्रमाणों में से चार चार हीन भयनों की संख्या है ।।२१७।। विशेषाः - चमरेन्द्र के ३४ लाख, भूतानन्द के ४४ लाख, घेणु के अड़तीस लाख, पूर्ण के ४० लाख, जळप्रभ के ४. लाख, घोष के ४० लान, हरिषेण के ४० लाख, अमितगति के ४० लाख, अग्निशिखी के ४० लाख, और वेलम्ब के ५० लाख भवन हैं। इसीप्रकार उत्तरेन्द्रों में-वैरोचन के ३. लाख, धरणानन्द के ४० लाख, वेणुधारी के ३४ लाख, वशिष्ट के २६ लाख, जलकान्त के ३६ लाख, महाघोष के ३६ लाख, हरिकान्त के ३६ लाख, अमितवाहन के ३६ लाख, अग्निवाहन के ३६ लाख और प्रभखन के ४६ लाख भवन है। अथ तेषां भवनानां विशेषस्वरूपमाह ससुगंधपुष्फसोहियरयणधरा रयणभित्ति णिच्चपहा । सबिदिय सुइदाहहि सिरिखंडादिहि चिदा मवणा ।।२१८।। ससुगन्धपुष्पशोभितरत्नघरा रत्नभित्तयः नित्यप्रभाः । सर्वन्द्रिय सुखदायिभिः श्रीखण्णादिभिरिचता भवनाः ।।२१८|| Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ त्रिलोकसार पाथा: २१९-२२० ससुगन्ध । छायामात्रमेवार्थः ॥२१॥ उन भवनों का विशेष स्वरूप कहते हैं पायार्थः- भवनबासो देवों के भवन उत्तम सुगन्धित पुष्पों से शोभायमान हैं और उनकी भूमि रत्नमयी है। उनकी दीवारें भी रत्नमयी हैं । वे भवन सतत प्रकाशमान रहते हैं तथा सर्वेन्द्रियों को सुख देने वाली चन्दनादि वस्तुओं से सिक्त हैं । विशेषार्थ:-गाथार्थ की भांति है। अथ तत्रत्यदेवानासंदवथ माह अट्ठगुणिढि विसिट्ठा णाणामणिभूसणेहि दिरंगा । भुजति भोगमिट्ट सगपुष्यतवेण तत्व मुरा ।।२१९।। ___ अष्टगुणाधिविशिष्टाः नानामणिभूषणं; दीमाङ्गाः।। भुजते भोगमिष्ट स्त्रकपूर्वनपसा लत्र सुराः ।।२१।। पट्ट । छायामात्रमेयार्थः ॥२१॥ भवनवासी देवों का ऐश्वयं-- गावार्थ:-जाना प्रकार की मणियों के आभूषणों मे दीप्त तथा अगुण ऋतियों से विशिष्ट वे भवनवासी देव अपने पूर्व तपश्चरण के फलस्वरूप अनेक प्रकार के इष्ट भोग भोगते हैं ।। २१६॥ विशेषाः -जो जीव मनुष्य पर्याय में तपश्चरण कर पुण्य सनय करते हैं और जिनके देवायु का यन्ध हो जाता है तथा जो बाद में सम्यक्त्वादि स च्युत हो जाते हैं, वे जीव अनेक गुण नियों से युक्त भवनवासी देव होकर मनोहर इष्ट भोग भोगते हैं। अथ तेषां भवनानां भूगृहोपगानानो व्यासादिकमाह जोयणसंखासंखाकोडी तदिन्थडं तु चउरस्सा । निसयं बहलं मझं पहि मयतुंगेकर्ड च ||२२० ।। योजनसंख्यासंख्यकोट्यः तद्विस्तारस्तु चतुरस्राः । त्रिशतं बाहल्यं मध्यं प्रति शततुङ्गककूटरच ॥२२० ।। जोयण । धन्येम योजनानां संख्यातकोटधः उत्कर्षेप असंख्यातकोटघातविस्तारस्तु चतुरना। विशतयोजनबाहल्यं । तत्र प्रतिमध्ये शततुङ्ग कटस्सदुपरि चैत्यालयश्च ॥२२०॥ भूमिगृह की उपमा को धारण करने वाले भवनों का व्यासादि कहते हैं: Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा। २२१ भवनाधिकार २०७ गावार्थ:-भवनों की लम्बाई चौड़ाई का जघन्य प्रमाण संख्यात करोड़ योजन और उस्कट प्रमाए असंख्यात करोड़ योजन है । वे समस्त भवन चौकोर हैं, तथा उनका बाहुल्य (ऊँचाई तीन सो योजन है। प्रत्येक भवन के बीच में सौ योजन ऊषा एक एक पर्वत है और उन पर्वतों के ऊपर चैत्यालय हैं ।।२२०॥ विशेषार्ग:-भवनों का जघन्य विस्तार संख्यात करोड़ योजन और उत्कृष्ट विस्तार असंख्यात करोड़ का है। रोहै। बाई पनि सौ योजन है प्रत्येक भवन के ठीक मध्य में सौ योजन ऊंचा एक पर्वत है, और प्रत्येक पर्वत पर एक चैत्यालय है। शंका:-भवनों को भूमिगृह की उपमा फ्यों दी गई है ? समाधान:--में यहां मकान में पृथ्वी के नीचे जो कमरा बनाते हैं, उसे तहखाना तलघरा मा भूमिगृह कहते हैं, वैसे ही भवनवासियों के भवन रत्नप्रभा पृथ्वी में चित्रा पृथ्वी के नीचे खर भाग और पङ्क भाग में हैं, अतः इन्हें भुमिगृह को उपमा दी गई है। शंका:-तरक बिल भी इसी प्रकार रस्तप्रभा पृथ्वी में चित्रादि पृष्चियों के नीचे मबहुल भाग में बने हुए हैं, फिर उन्हें भवन संशा न देकर बिल संज्ञा क्यों दी गई है ? समाधान:-जिस प्रकार यहाँ सपाधि पापो जीवों के स्थानों को मिल कहते हैं, और पुण्यवान् * मनुष्यों के रहने के स्थानों को भूमि ग्रह मादि कहते हैं, उसी प्रकार निःकृष्ट पाप के फल को भोगने वाले नारको जीवों के रहने के स्थानों की संज्ञा बिल है और पुण्यवान देवों के स्थानों को संज्ञा भवन है। अथ तेषां भवनावस्थितस्थानानि गाथाद्वयेनाह-- चतर मप्पमइड्ढियमज्झिमभवणामगण भवणाणि । भूमीदोधो इगिदुगवादालसइम्सइगिलक्खे ॥२२१॥ व्यन्त राणा मल्पमधिकमध्यमभवनामरायो भवनानि । भूमितोषः एकदिकद्वाचत्वारिंशत्सहस्रएकलक्षाणि ॥२२१।। बतर । व्यस्तराए। भल्पषिमहधिकमध्यमधिभवनामराणां च भवनानि चित्राममिता घोषः एकसहमतिसहस्रवाचवारिंशसाहबएफलक्षारिणयोजनानि गरवा भवन्ति ।।२२१॥ अब उन भवनों में स्थित स्थानों का वर्णन दो गाथाओं में किया जाता है गावार्थ:-चित्रा पृथ्वी से एक हजार योजन नीचे व्यन्तर देवों के आवास हैं । दो हजार योजन नीचे जाकर अल्पऋद्धि के धारक मवनवासी देवों के विमान हैं । बयालीस हजार योजन नीचे जाकर महाऋद्धि के धारक भवनवासी देवों के पवन है तथा एक लाख योजन नीचे जाकर मध्यम ऋद्धिधारक देवों के भवन हैं ।।२२।। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिलोकसा पाया:२२२-२२३ विशेषा:-ज्यन्तर देव तथा अल्पवि, महद्धिक और मध्यम ऋद्धि के धारक भवनवासी देवों के आवास और भवन क्रमशः चित्रा पृथ्वी के नीचे नीचे एक हजार, दो हजार, बयालीस हजार और एक लाख योजन जाकर हैं । यावास मोर भवन में अन्तर:- रमणीक तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिक के ऊपर स्थित निवासस्थानों को आवास कहते हैं तथा रत्नप्रभा पृथ्वी में स्थित निवासस्थानों को भवन कहते हैं। रयणप्यहवंकड्ढे भागे असुराण होति भावासा । मौम्मेसु रक्ससाण अवसेमाण खरे भागे ।।२२२॥ रत्नप्रभापडावाघे भागे असुराणां भवन्ति आवासाः । भौमेषु राक्षसाना अवशेषाणां स्वरे भागे ॥२२२॥ रमण । भौमेषु यसरेषु, मवशेषाणा नापायीकास्यर्थः । शेषे छायामात्रमेवार्थ: ।।२२२॥ पापा:-रलप्रभा पृथ्वी के पङ्कभाग में असरकुमारों के भवन है; भौमेष अर्थात् व्यन्तरों में केवलराक्षसों के आवास पङ्कभाग में हैं, बशेष भवनवासी एवं व्यन्नरों के बावास खरभाग में है ॥२२२।। विशेषार्थ:-रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रधानतः तीन भाग हैं। पहले खर भाग में नागकुमारादि नो प्रकार के भवनवासियों के भवन तथा राक्षसों के अतिरिक्त शेष सात प्रकार के व्यस्तरों के आवास है। यह भाग १६००० योजन मोटा है । दूसरा पद्धभाग ८४००० योजन मोटा है और इसमें मसूरकूमारों के भवन और राक्षस देवों ( ध्यन्तर ) के आवास है 1 तीसरा, अन्बहल भाग ८०००० योजन मोटा है, इस भाग में नारको जीव हैं। इदानीमिन्त्रादिभेदमाह इंदपछिंददिगिदा तेचीससुरा समाणतणुरक्खा । परिसचयआणीया पद्दण्णगमियोगकिन्धिसिया ||२२३।। इन्द्रप्रतीन्द्रदिगिम्दाः त्रयस्त्रिशासुराः सामानिकतानुरक्षको। परिषस्त्रयानीको प्रकीर्णकाभियोग्यविधिका॥२२३।। एवं । छायामात्रमेवार्गः ॥२२॥ अब इन्द्रादिक के भेद कहते हैं - पापा:--इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र, नायस्त्रिशदेव, सामानिक, तनुरक्षक, तीन प्रकार के परिषद, अनीस, प्रकीर्णक, भाभियोग्य और किल्विषिक, देवों के ये दस भेद होते हैं ॥२२॥ विषार्थ:-सरल है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : २२४-२२५ भवनाधिकार २०६ अथ इन्द्रादिपरवीना दृष्टान्तमाह रायजुवतंतराए पुत्तकलचंगरक्खवरमज्मे | अवरे तंडे सेणापुरपरिजणगायणेहि समा ॥२२४॥ राजयुवतन्त्र राजः पुत्रकछत्राङ्गरक्षवरमध्येन । अवरेण तण्डेण सेनापुरपरिजनगायकः समाः ।।२२४॥ राम | Nagar पुकसाक्षरसी परेण मध्येन पपरेण - तरेण प्रदलगेन सेनापूरपरिजमगायकः समाः ।।२२४॥ अब इन्दादिक पदवियों का दृष्टान्त कहते है गावार्थ:- ये उपयुक्त देव राजा, युवराज, सेनापति, पुत्र, कलत्र, अङ्गरक्षक, उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार के सभासद, सेना, प्रजाजन, परिजन ( दास ) और गायक के सहश होने हैं ॥२२॥ विशेषार्गः- उपयुक्त देवों में से इन्द्र राजा के सदृश, प्रवीन्द्र युवराज सदृश, दिगिन्द्र तन्त्रराज ( सेनापति ) सहरा, श्रास्त्रिशदेव पुत्र सदृश. सामानिक देव पनी सदृश, तमुरक्षक अङ्गरक्षक सहश, तण्द्रेण अर्थात् तीनों प्रकार की परिषद् राजा की बाल, मध्यम और अभ्यन्तर समिति के सदृश, अनीक मेना सदृश, प्रकोणक व्यापारी सदृशा, आभियोग्य दास सदृश और किरिवषिक पा बजाकर माजीविका चलाने वालों के सहश होते हैं। अथ चतुनिकायाम रेलिंब द्रादीनां सम्भव प्रकारमाह वैतरजोयिसियाणं तेचीससुरा ण लोयपाला थे । भवणे कप्पे सध्चे हवंति अहमिदया नसो ।।२२५॥ व्यन्तरज्योतिरकाणा प्रयस्त्रिशसुरा न लोकपालाः च । भवने कल्पे सर्वे भवन्ति अहमिन्द्रका नतः ।।२२। तर। प्रसरज्योतिषका प्रयस्त्रिशरसुरा म संत लोकपालाच अवमे कल्पे व सन्ति तत: परमहमिन्द्राः ॥२२॥ अब घारों प्रकार के देवों में पाए जाने वाले इन्दादिक ( सम्भव ) भेदोको कहते है-- गावार्थ:-उपन्त रवासी मौर ज्योतिषी देवों में बायस्त्रिंशत् और लोकपाल ये दो भेद नहीं होते । भवनवासी और कल्पवासी देवों में सभी भेद होते हैं तथा कल्पातीत देवों में कोई भेद नहीं है, वे सभी अहमिन्ट है ।।२२५॥ २७ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार चाचा । २२६-२२५-२२८ विशेषार्थ:- :- भ्यन्तर और ज्योतिषी देवों में प्रायस्त्रिश और लोकपाल ये दो भेद नहीं होते, शेष नौ भेद होते हैं । भवनवासी और कल्पवासियों में सभी ग्यारह भेद होते हैं। कल्पातीतों में सभी अहमिन्द्र हैं. समान विभूतिवाले हैं, होनाधिक नहीं हैं। १९० अथ भावनेनिद्रादिपरिषत्रयान्तानां संख्या गाथायेणाह -- इंदसमा हु पटिंदा सोमो यम वरुण ग्रह कुवेरा य । पुण्वादिलोयवाला तेवीससुरा हु तेतीसा || २२६ || चमरतिये सामणियतपुरकखाणं पमाणमणुकमसो | मडसोलक दिसहस्सा चउसोलसह स्सहीणकमा || २२७॥ पण्णसहस्स बिलक्खा सेसे तट्ठाण परिसमादिन्लं । महत्र्वीसं छच्चसहस्स दुसइस्परढिकमा ।। २२८|| इयं हि एवं इत्यर्थः । शेषं छापामाश्रमेवार्थः ॥ २२६ ॥ चमचमत्रिके सामानिकतानुरक्षाणां प्रमाणमनुक्रमशः प्रष्टकृष्टिषोड़शकुतिसारण चतुः सहस्रशसहस्रहीनः क्रमशः २२७॥ इन्द्रसमाः खलु प्रतीन्द्राः सोमो यमां वरुणस्तथा कुबेरश्च । पूर्वादिलोकपालाः श्रयस्त्रिसुराः हि श्रमस्त्रियत् ॥२२६॥ चमरात्रि के सामानिकतनुरक्षा प्रमाणमनुकमशः । अष्टषोड़शक तिसहस्राणि चतुः षोडशसहस्रहीनकमा || २२७|| पञ्चाशत्सहस्राणि द्विलक्षे शेषे तत्स्थाने परिषदादिमा । अष्टषविशेषट्चतुः सहस्राणि द्विसहस्रवृद्धिक्रमः ॥२२६॥ पाशहारिण दिलसे शेषे मागाविषु तरस्थामे चमत्रिणशेषस्थाने प्रावि परिषदट्टाविंशति सहस्राणि वितिसहस्राणि षट्सहस्राणि चतुःसहस्राणि मध्यमबाह्यपरिषदोस् उक्तसहस्रष्वेव द्विसहस्र वृद्धि कम नासण्यः ॥२२८॥ भवनवासी देवों में इन्द्र से प्रारम्भ कर तीन प्रकार के पारिषद, देव पर्यन्तं देवों की संख्या तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं -- गाथार्थ:- - इन्द्र समान ही प्रतीन्द्र हैं अर्थात् एक इन्द्र है और एक ही प्रतीन्द्र है। पूर्वादि दिशाओं के सोम, यम, वरुण और कुबेर ये चार लोकपाल है । तथा प्रायस्त्रिशदेव तैंतीस होते हैं। चमरत्रिक १क्रमः प० ) । · i Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया | २९ भवमाधिकार २११ मैं सामानिक और अङ्गरक्षकों का प्रमाण क्रम से आठ का वर्ग = ६४ हजार, सोलह का वर्ग - २५६ हजार, ४ हजार और १६ हजार होन होन क्रम से जानना अवशेष सत्रह इन्द्रों में से सामानिक पचास हजार, तनुरक्षक दो लाख, इन्हीं स्थानों की आभ्यन्तर परिषद् में चमरेन्द्र के २० हजार, बंरोचन के २६ हजार, भूतानन्द के छह हजार तथा अवशेष के ४ हजार हैं। आभ्यन्तर परिषद से मध्य परिषद् का प्रमाण दो हजार अधिक है, तथा मध्य से बाह्य परिषद् का प्रमाण दो हजार अधिक है । ॥२२५,२२७,२२८।। विशेषार्थ:- प्रत्येक कुल में इन्द्र और प्रतीन्द्र एक एक ही होते हैं, तथा उपयुक्त बीस इन्द्रों में से प्रत्येक के प्रास्त्र देव तैंतीस और पूर्वादि दिशाओं में स्थित एक एक लोकपाल अर्थात् लोकपाल कुल चार चार ही होते हैं । चमरत्रिक का प्रयं है चमरेन्द्र वैरोचन और भूतानन्द । सामानिक देवों की संख्या:- चमरेन्द्र के ६४ हजार सामानिक देव, वैरोचन के चार हजार कम अर्थात् ६० हजार, भूतानन्द के ( ६० ह० - ४ ६० ) २६ हजार तथा शेष सत्रह इन्द्रों के ५०, ५० हजार सामानिक देव है । the तनुरक्षक देवों का प्रमाण:- चमरेन्द्र के दो लाख ५६ हजार ( २५६०००), वैरोचन के १६ हजार कम अर्थात् दो लाख ४० हजार, भूतानन्द के ( २४००००-१६००० ) दो लाख २४ हजार, तथा शेष सत्र इन्द्रों के बीस बीस हजार तनुरक्षक देव हैं। मादि पारिषद देवों का प्रमाण :- चमरेन्द्र के २८००० हजार, वैरोचन के २६०००, भूतानन्द के ६००० और शेष सत्रह इन्द्रों के चार चार हजार ४०००) पारिषद देव हैं। मध्य परिषद देवों का प्रमाण :- घमरेन्द्र के ३००००, वैरोचन के २८०००, भूतानन्द के ५००० और शेष सत्रह इन्द्रों के छह छह ( ६००० ) हजार पारिषद देव हैं। परिषद देवों का प्रमाणः-- अमरेन्द्र के ३२०००, वैरोचन के ३०००० भूतानन्द के १०००० और शेष सत्रह इन्द्रों के आठ माठ हजार ( ८०००) पारिषद देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् से मध्यपरिषद में प्रत्येक इन्द्र के पारिषद देव दो दो हजार अधिक होते हैं, तथा मध्यपरिषद् से बाह्य परिषद के दो दो हजार ( २००० ) देव अधिक होते हैं । अथ परिमाणां विशेषाभिधानमाह पढमा परिसा समिदा विदिया चंदोचि णामदी होदि । दिया जदुअहिषाणा एवं सम्ये देवेसु || २२९ ॥ प्रथमा परिषत् समित् द्वितीया तृतीया जत्वभिधाता एवं चन्द्रा इति नामतो भवति । सर्वेषु देवेषु ॥ २२९ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ त्रिलोकसार पाया । २० पढमा । छायामात्रमेवार्यः ॥२२६॥ अप तीनों परिषदों के विशेष नाम कहते हैं गायार्थः-सर्वदेवों की सभाओं में प्रथम परिषद् का नाम समिद, दूसरी का नाम चन्दा तथा तीसरी का नाम जतु है ॥२२९।। विशेषायः-सरल है। इदानीमानीकभेदं सरसंक्ष्यां चाह सशेव य आणीया पत्त्यं सच्चसमकक्खजुदा । पदम ससमाणसम तद्गुणं चरिमकाखेति ॥२३०।। सप्तव व मानीकाः प्रत्येक सप्तसप्तकक्षयुताः । प्रथम स्वमामानिकसम तदति गुणं चरमकक्ष इति ।।२३० ।। ससेव। सप्तवामीकाः प्रत्येक सप्तसतशयुताः प्ररमानी बसामामिकामं तपरिपूरणं परमकरं पावतु ॥२३०॥ - मनीक देवी के भेद और उनकी संख्या कहते हैं: पाया:-अनीक देव सात ही होते हैं। उनमें अलग अलग सात सात कक्षाएँ ( फौजें ) होती हैं, उनमें से प्रथम कक्षामें संख्या की अपेक्षा अपने सामानिक देवों के बराबर देव रहते हैं आगे वे अंतिम कक्षा तक नतरोत्तर दुने दूने होते गये हैं ।।२३०॥ विशेषार्थ:-एक एक इन्द्र के पास सात सात अनीक ( कोज या सेना ) होती हैं । प्रत्येक बनीक की सात सात कक्षाएं होती हैं । प्रथम कक्षा का प्रमाण अपने सामानिक देवों की संख्या के बराबर होता है, इसके आगे का प्रमाण दूना दूना होता गया है । जैसे-भवनवासियों का प्रथम कुल असुरकुमार का है, और असुरकुमारों में, महिष, घोड़ा, रथ, हाथो, पादचारी, गन्धर्व और नतंकी ये सात अनीक है । असुरकुमारों के समरेन्द्र के पास ६४.०, सामानिक देव हैं, अतः इसके प्रथम अनीक महिषों की संख्या भी ६४००० ही है । द्वितीय कक्षा के महिषों की संख्या १२८ हजार, तृतीय कक्षा के २५६ हजार, चतुर्थ कक्षा के ५१२ हजार, पंयम कक्षा के १.२४०.०, षष्ठ कक्षा के २०४८०.. और सम कक्षा के महिषों की संख्या ४०६६००० है । इस प्रकार चमरेन्द्र के पास सातों कक्षाओं के कुल भैसे ८१२८००० है, तथा इतने ही अश्वादि है। अभ गुणोसरक्रमेणागतसमानीकधमानयने प्रयुक्तमिदं गुणसंकलितसूत्रम् Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा। २१ २१३ भवनाधिकार पदमेरो गुणयारे अण्णोणं गुणिय रूपपरिहीणे | रूऊणगुणेणहिए महेण गुणियम्मि गुणगणियं ॥२३१।। पदमात्रान् गुणकारान् अन्योन्यं गुणयित्वा रूपपरिहोणे । रूपोनगुणेन हृते मुखेन गुणिते गुणगणितम् ।।२३१।। पर । परमात्रगुणकारान रारारारारा२।२ पन्योभ्यं सगुण्य लब्धे १२८ रुपेण परिहोणे १२७ रूपोनगुरणेन ते मुखेन ६४००० गुणिले पति ८१२८००० गुणसङ्कलितपममायाति । एतस्मिन सप्तभिगुपिते ५६८९६.०० सप्तानीकसमस्तधनमायाति । एवं रोचनागिषु मातम्यं । पस्य करणवल्य पासना उबाहरणान्तरेण पश्यते । मावि २ गुणोसर ५ गच्छ ४ । मल्य न्यासा २xxxxkxt+ २xxxx१+२४५४१+२४१स्प समस्तष पदमेशत्यानीतं ३१२ । ऋगन्याप्तः २४५४५४५ x३+२४५४५४३+२४५४३+२४४ । तनपा । श्रावेरात्मप्रमाणे एकस्मिन रूपे २४१ रूपोन. गुणोत्तरगुरिगतमादिमात्र [ २४४ ] ऋणप्रक्षेपणे मनुस्याङ्कसदृशं वर्शपिस्खा ARस्थाने मेसयेव [२४५] । वं द्वितीयधने योगने प्रस्माखुस पयित्वा यसष्टशल्याने मेलयेत् २४५] । उपरितनारमप्रमाणेकरूपे प्रस्तमारमप्रमाणेकरूपं युज्यात [२४५४२] । अत्र विल्मोनगुणकारगुणितगुरगनमावि [२४५४३] ऋणं निक्षिप्य [२४५४५] व उतीयषने ययाल [२xxx५४२ ] पत्र टिपोनगुणनगुणकारवगंगुणितमाथि [२४५४५४३ ] करणं निमिप्य [२४५४५४५] इवं चतुयधने युज्यात [२४५४५४५४२] । प्रत्र हिरूपोनगुरगनगुणकारधन गुणितमादि [२४५४५४५४३ ] ऋणं निक्षिपेत [ २४५४५४५४५] । एवमुपरि सर्वत्र विरूपोनगुन पोनगच्छमात्रगुणकारश्च गुणितमावि ऋणं निक्षिपेत् । तथा च सति प्रतिषने प्रावणेच्छमात्र गुणकारा भवन्ति । एतत्स मनास कृत्य "परमेते गुणयारे अण्णोपणं गुणिये" स्युक्त। एवमिपच्छमात्रेषु गुणकारेषु अन्योन्यं गुणितेष्वेवं [२४ ६२५ ] । ऋणसहितं धनं । पत्र प्राग्निक्षिप्तऋणापनयने तावत्प्रथमें ऋणे एकरूपगुणितमावि [ २४१] उधृत्यापनयेत । हवमेवावषाय "वपरिहोणे" इत्युक्त । मपनीतशेषमिदं [२४६२४ ] । अत्र सर्व रणसंकलितमि [ २४६२४४३] रूपोनगुणेन समन्वोकृते पस्मिन् [ २ x ६२४४३] अपनयेत । अपमोते सत्येवं [ २४६२४४३] इवं मनसा सम्प्रषायं "रूऊरणगुणेरणहिये" इति । पुनश्पक्त्यं माविमा गुणिते गुणसंकलितपनमागति [ ३१२ ] । इदं विचार्य "मुहेरा गुरिणयम्मि" इत्युक्त । एवं सत्र शुरणराशिः कपोनगुणकारविभक्तसमस्तराशेहभागप्रमाणो मायते । शुखधमराशिस्तु तदेक भागो जायते इति व्याप्ति: सर्वत्र योज्या ॥२३१॥ .--. - - -- . ... --- -- -- - --- - .- - ...--. -.- -. -- . - - १ पुज्यते । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ अब उत्तरोत्तर सद्दश गुणकार के क्रम गुण संकलन करण सूत्र को कहते हैं. — त्रिलोकसाथ पाया : २३१ प्राप्त सातों अनीकों के धन को प्राप्त करने के लिए गावार्थ:- पद का जितना प्रमाण है, उतनी बार गुगुकार का परस्पर में गुणा कर प्राप्त गुग्गुन फल में से एक घटा कर एक कम गुणकार से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसका मुख में गुरम। करने से गुण संकलित धन का प्रमाण प्राप्त होता है ॥२३१॥ विशेषार्थः- स्थानों के प्रमाण को गच्छ या पद कहते है, तथा प्रत्येक स्थान पर जितने का गुणा किया जाता है उसे मुगाकार कहते हैं। यहाँ गच्छ ( पद ) का प्रमाण ७ है । गुणकार २ ( प्रत्येक कक्षा का प्रमाण दुगुना दुगुना है, इसलिए गुणकार का प्रमाण दो कहा गया है) और मुख ६४००० है । पद बराबर गुणकारों का परस्पर में गुग्गा करने में ( १x२४२२२४२x२) १२८ फल प्राप्त हुआ। इसमें मे १ घटा कर एक कप गुणकार का भाग देने से [ १२८- १ = १२७÷ (२- १ ) } = ३७ लब्ध प्राप्त हुआ। इसका मुख से गुणा करने पर ( ३४००० X १२७) ८१२८००० गुणसंकलित धन प्राप्त होता है। इसमें सात का गुसा करने से ( ८१२८०००७) ५६८९६००० सातों अनीकों का समस्त धन प्राप्त हो जाता है । यह चमरेन्द्र की अनीकों का सघन है। वैरोचन का : - २४२ × २x२× १४२४२ - १२८ - १ = १२७ (२-१) - १- १३० मुख ६०००० x १२७ = ७६२०००० यह पृथक् पृथक् अनीकों का संकलित घन है और ( ७६२०००० ४७ ) ५३३४०००० सातों अनीकों का सामूहिक मन है । भूतानन्द का : - २४२४२x२४२४२४२ - १२६-११२७ (२-१) - १२७५६००० मुख ४१२७ = ७११२००० भिन्न भिन्न अनीकों का धन है, तथा ७११२००० ७७६४००० घार करोड़ सत्तानवे लाख चौरासी हजार प्रमाण सातों अनीकों का सर्व संकलित घन है। शेष सत्रह इन्द्रों का :- २४२x२४२x२४२x२ = १२६ - १ = १२७ (२-१)= १२७ मुख ५०००० X १२७६३५०००० - त्रेसठ लाख पचास हजार शेष सत्रह इन्द्रों में से प्रत्येक के प्रथम अनोक का प्रमाण धन है । ६३५००००४७ - ४४४५००००. चार करोड़ चवालीस लाख पचास हजार यह शेष सत्रह इन्द्रों में से प्रत्येक के सातों अनीकों का संकलित घन है। : उपर्युक्त करण सूत्र उदाहरण द्वारा सिद्ध किया जाता है : आदि (मुख) २ है, उत्तरोत्तर गुणकार ५ है, गच्छ ( पद ) ४ है, अतः इसका प्रथम स्थान २ दूसरा स्थान २५, दीसरा स्थान २४५४५, चौथा स्थान ५ x ५ x ५ x ५ है । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा । २३.. · मरमाधिकार २१५ इसका न्यास इस प्रकार है:-२४ (५४५४५४५-१)। इसमें से ऋण धन २४ (१+५+५४५+५४५४५) ४३ को घटा देने पर ३१२ समस्त धन प्राप्त होता है । अर्थात् २४ ( ६२५-१)-२४ (१+५+२५+१२५) ४३-१४६२४-२४१५६ ४ ३=१२४८९३६- ३१२। यह प्रण धन इस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है:-प्रथम स्थान २४१ है, इसको एक कम गुणाकार ( ५-१=४ ) से गुणा करने पर चार आदि स्थान अर्थात् २४४ प्राप्त होते हैं । इस २४४ ऋण धन को आदि स्थान २४१ में प्रक्षेप करने ( जोड़ने ) से (२xx ) + (२xt)= ५५ प्राप्त होते हैं, क्योंकि २का अद्ध दोनों में साक्ष है. तथा१वका अज असहश होने से इनको जोड़ने पर ४+३=५ प्राप्त होते हैं । इसको (२४५ की एक संख्या को दूसरे स्थान को एक संख्या २४५ में जोड़ने से २xxxt+xzx१=२४५४२ प्राप्त होते हैं । इसमें दो कम गुणाकार (५-२-३ ) से गुरिणत मुगवन अर्थात् ऋण का दूसरा स्थान (२४५४३) निक्षेप करने ( जोड़ने । से २४५४२+२४५४३ = २४५ x ५ होते हैं । इसको तीसरे स्थान २४५४५ में जोड़ने से २ x ५४५४१+२ x ५४५४१=२५५४५४२ प्राप्त होते हैं । इसमें दो कम गुणोत्तर गुणकार (५-२-३ ) से गुणित गुणकार का वर्ग ( ५४ ५ ) गुणित आदि (२) अर्थात २४५४५४३ को जोड़ने से २४५४५४२-२४५४५४३= २४५४५४५ प्राप्त होते हैं । इसको चतुर्थ स्थान के धन xxx५४ ५ जोड़ने से २४५४५४५४१+२४५४५४५४१=x५४५४५४२ प्राप्त होते है। इसमें दो कम गुणोसर गुणकार (५--२-३) से गुणित गुणकार का धन ५४५४५ गुणित आदि २ अर्थात् २४५४५४५४३ ऋणधन को निक्षेप करने ( जोड़ने ) पर २Xxx५४५४२+२४५ x५४५४ ३= २४५४५४५४५ प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सबसे ऊपर दो कम गुणकार १५-२-३) से गुणित एक कम गच्छ (४-१-३) प्रमाण गुणकार ( ५४५४५) गुरिणत आदि (२) अति ( ३४५४५४५४२) निक्षेप किया ( जोड़ा गया है। ऐसा करने से अन्तधन में बादि ।२) का गच्छ प्रमाण (४) गुणकार (५) होते है। पर्या अन्तधन - २४५४५४५४५ होता है । यह सर्व विचार कर गाथा में 'पद ( गच्छ ) प्रमाण गुणकार को परस्पर गुणा करना चाहिए' ऐसा कहा गया है। इस प्रकार गच्छ प्रमाण ( ४ ) गुणकार को परस्पर गुणा करने से ५४५४५४५ = ६२५ प्राप्त होते हैं । इसमें आदि ( २ ) का गुणा करने से २४६२५ यह ऋण सहित धन प्राप्त होता है । पूर्व में जो ऋण धन निक्षेप किये गये हैं, उनमें से प्रथम ऋण २४४ है, इसमें से एक गुणित आदि २४१ को ग्रहण कर २४६२५ में से घटाना चाहिए । इसी का अवधारण कर गाथा में 'रूवार होणे' अर्थात् एक कम करना चाहिए-ऐसा कहा गया है इस २४१ को घटाने पर ( २४ ६२५ ) - (२४१) =२x६२४ प्राप्त होते हैं। प्रथम ऋण (२४४-२४१)-२४३, दुमरा ऋण २४५ x ३, तीसरा ऋण २४५४५४३ चौथा ऋण २४५४५४५४३ इन चारों ऋणों में २४३ सहश है, अत: इन चारों ऋणों का संकलित धन( २४३ }४ ( १+५+५ x ५+५ x ५४५ )=(२xx (+५४ २५ + १२५ )=२xx Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाया : २३२-२२३ १५६=१४३ x १५१४४-२४३४१२४-२४६२४४ होता है! २४ ६२४ को एक कम गुणकार (2.-.-४) से बच्चे कान पर २६ होते हैं । इसमें से २४ ६२४४ को घटाने से २४६२४४-२४६२४४-२४६२४४ प्राप्त होते हैं । इसको मन में धारण कर गाथा में 'अणगुणेण हिये अर्थात् एक कम गुणकार से भाजित' ऐसा कहा गया है । पुनः ६२४ को ४ से अपवर्तन करने पर 3-- १५६, इसको आदि ( २ ) से गुणा करने पर १५६ x २-३१२ गुण संकलित धन प्राप्त होता है। ऐसा विचार कर गाथा में 'मुहेणगुणियम्मि' अथति मुख से गुणा करना चाहियेऐसा कहा गया है । लौकिक परिणत में भी इस कारण सूत्र को इस प्रकार दर्शाया गया है:-- s- (R-!) इस प्रकार सर्वत्र समान राशि को एक कम गुणकार से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें से बहुभाग अर्थात् एक कम गुणकार तो ऋण राशि होती है और एक माग शुद्ध राशि होती है। यह व्याप्ति सर्वत्र लगा लेनी चाहिए। इदानीमानीकभेदस्वरूपं गाथाद्वयेना - मसुरस मदिसतुरगरथेमपदाती कमेण गंधया । णियाणीय महत्तर महचरी छक्क एक्का य ||२३२।। गावा गाडिममयरं करभं खग्गी मिगारिसिवियस्सं । पढमाणीयं सेसे सेमाणीया ए पुन्वं च ।।२३३।। असुरस्य महिपतु स्गर थेभपदातयः क्रमेण गन्धर्वः । नृत्यानीकं महतरा महत्तरी पट एका च ॥२३॥ नोगहडेभमकरं करभः खङ्गी मृगारिशिविकाश्वम् । प्रथमानीकं शेषे शेषानीकास्तु पूर्व इव ॥२३३।। प्रसुर । सुरस्य माहियपुरमरपेभपातयः कमेण गम्पः नत्यानीक प्रथमा षट् महस नृत्यानी कमेकं महत्तरी ॥२३२॥ रणावाशेषे नागावो इत्यर्थः । अन्यछायामात्र ॥२३॥ अब बनीकों के भेद एवं स्वरूप दो गाथाओं द्वारा कहते हैं: मापार्थ:-असुरकुमार ( भवनवासी ) देवों के महिष, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नत्यको ये सात अनीक ( सेना ) देव होते हैं । इनमें से आदि की वह अनीकों में छह महत्तर । प्रधानदेव ) और अन्तिम मनीक में एक महत्तरी ( प्रधानदेवी) होती है। शेष नागकुमारादि नौ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया : २३४-२३४ भवनाधिकार २१७ भवनवासी देवों में क्रम से नाव, गरुड़पक्षी, हाथी, मगर, कोट, खड्गी, सिंह, शिविका और अश्व ये प्रथम अनीक होते हैं। शेष ( द्वितीयादि) प्रनी पूर्ववत् मर्षात् असुरकुमारों के ही समान होती है ।। २३२, २३३ ॥ विशेषार्थ:-दशों भवनवासी देवों में निम्न लिखित अनीकें होती हैं: १. असुरकुमार महिष, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धवं और नृत्यको । २. नागकुमार : नाव, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धवं और नृत्यकी । ३. सुप कुमार : गरुड़, घोड़ा, रथ, हाथी, क्यादे, गन्धवं और नृत्यकी । ४. द्वीपकुमार हाथी, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धवं और नृत्यको । ५. उदधिकुमार मगर, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धयं और नृत्यकी । ६. विद्यतकुमार ऊंट, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नृत्यकी । ७. स्तनितकुमार खड्गी, घोड़ा, रथ, हाथी, पयारे, गन्धर्व और नृत्यकी ८ दिनकुमार सिंह, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धवं और नृत्यकी । ५. अग्निकुमार शिविका, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नृत्यकी । १०. वायुकुमार : अश्व, घोड़ा, रथ, हाथी, पयादे, गन्धवं और नृत्यकी । : प्रकीरकादिदेवानाम संख्यातत्व मनुक्तमप्य व गन्तव्यमिति अथ भवन देवानाम संख्यतत्यात् तत्प्रमाणमनुक्या साम्प्रतमसुरादिदेवीनां संख्यां गावाद्वयेनाह असुरतिए देवीओ लपण्णसहस्स तत्थ बन्लभिया । मोलesi Braसहस्सेरगुणक्कमो होइ ॥ २३४ ॥ । बीस व महस्सा सेसे पण पण मजे देवीओ | विसृ भट्ट बम्सहस्सं विद्युव्वणा मूलतसहियं ॥ २३५ ॥ असुरत्रिके देव्यः पाशत्सहस्राणि तत्र बल्लभकाः । षोड़शसहस्राणि षट्सहस्र गोनक्रमो भवति ॥२३४॥ द्वात्रिंशत् सहस्राणि शेषे पञ्च पञ्च स्वज्येष्ठदेव्यः । त्रिषु अश्रु षट्सहस्रं विकु णामूलत नुसहिताः || २३५ ।। सुरत तासु वेषीषु इत्यर्थः । शेषं छायामात्रं ॥ २३४॥७ बशीष । शिरसहस्राणि ह े सहस्र शेषे द्रोपदी तासांमध्ये पच पच ज्येवेश्यः प्रसुरादिदीपाने शेषे च ज्येवेभ्यः षट्सहस्रविकुर्बा मूलत नुसहिताः ॥ २३५॥ २८ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोक साथ पापा: २३६ भवनवासी देव असंख्यात हैं, अतः प्रकीरकादि शेष चार प्रकार के देव भी असंख्यात ही हैं, ऐसा माथा में बिना कहे ही जाना जाता है। इसीलिए उनका प्रमाण नहीं कहा गया अब यहाँ असुरकुमारादि देवों के इन्द्रों की देवियों की संख्पा दो गाथायों द्वारा कहते हैं: २१८ L गाथार्थ:- असुरत्रिक में से असुरकुमारों के इन्द्र चमरेन्द्र की छप्पन हजार ( ५६००० ) देवियों होता है। उनमें से सोलह हजार उसकी प्राण बल्लभाएँ हैं। शेष दो (नागकुमार, सुपकुमार ) की देवियों क्रम से हजार कम होती है शेष दीप कुमारादिकों के इन्द्रों की बत्तीस बत्तीस हजार देवांगनाएँ होती है जिनमें दो दो हजार प्राण बल्लभाएँ हैं । इन उपयुक्त देवांगनाओं में पांच पांच अपनी अपनी ज्येष्ठ प्रर्थात् १ट्टरानी सहृदा महादेवियां होती है। असुरत्रिक इन्द्रों को ज्येष्ठ देवियाँ मूलशरीर सहित आठ आठ हजार और शेष द्वीपकुमारादि इन्द्रों की ज्येष्ठ देवियाँ मूलवारी सहित छह छह हजार विक्रिया करती हैं ।। २३४,२३५ ॥ विशेषार्थ:- असुरत्रिक का अर्थ है- अरकुमार, नागकुमार और सुपकुमार । बल्लभाएं + परिवारदेवि कुल इन्द्र अग्रदेवि कुल संख्या - मूलशबी ५ + १६०० + ३९९९५ ३६००० ४. + + ३९९९५= tr ५ + १००००+ ३९६६५ ५००० १. असुर कु० मरेन्द्र रोचन भूतानन्द २. नाग कु० घरणानन्द- वेणू ३ सुषां कु०वेणुषा शेष ७ कुलों के इन्द्रों की ५ + ५ + 1 ५ + " १०००० + ३६६६५= ४०००+ ३९९९५ - ४४००० Y F अथ धमरवे रोचनयो: पट्टदेबीना संजामाह- 17 " 1 सहित, विक्रिया शक्ति ८००० ४०००+ २००० + २९९९५ - ३२००० ( प्रत्येक की ) ६००० 13 "1 " 17 ト किve सुमेधसुकड्ढा स्यणि य जेडित्थि पउम महपउमा । पउमसिरी कणयसरी कणयादिममाल, चमरदुगे ।। २३६ || कृष्णा सुमेधा सुकाया रत्नी च ज्येष्ठा स्त्रियः पद्मा महापद्मा । पद्मश्रीः कनकश्री कनकादिमाला चमरद्विके ।।२३६ ॥ किन्ह। कृष्णा सुमेधा सुहा प्रख्या रस्नी च जेास्त्रियः पद्मा महापद्मा पद्ममी: कनकभी, कमकमाला एताश्च मरद्विके ॥२२६॥ अब चमर और वैरोचन इन्द्रों की पट्ट देवियों के नाम कहते हैं : Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा । २३७-२३-२३ भवनाधिकार २१६ गाषा - चम रद्विक में कम से ज्येष्ठ देवियां कृष्णा, सुमेघा, सुका, आया और रली तथा पद्मा, महापद्मा, पद्मश्री, कनकधी और कनकमाला हैं ॥२३६।। ___ विशेषार्थ:-कृष्णा, सुमेधा, सुका, आढपा और रत्नी ये पांच पट्टदेवियों चमरेन्द्र की है । तथा पना, महापधा, पद्मश्री, कनकधी और कनकमाला ये पाच पट्टदेवियर्या वरोचन इन्द्र की हैं ।।। अथेन्दादिपञ्चानां देवीमानं समानमित्यनुपस्वा इतरेषां कान्ता निरूपयति गाथात्रय ए अड्ढाइज्जं तिसयं पण्णापूर्ण क्रमं तु चमग्दुगे । पारिसदेवी गागे चिसयं तु समद्वितालमयं ।।२३७।। गरुडे सेसे सोलस चउदस दससंगुणं तु वीणा । सयमय देवी पेधामहचराणंगरकखाणं ॥२३८॥ सेणादेवाणं पुण देवीयो सस्स अपरिमाणं | सम्वणिगिट्ठसुराणं बत्तीमा होति देवीओ ।।२३९।। अघतृतीयं त्रिशतं पञ्चाशदूनः क्रमस्त चमरद्विके । रारिषव्य नागे द्विशतं तु सष्टिचस्वारिशच्छतं ।। २३७॥ गहहे शेषे षोडशचतुर्दश दशसा गुणाः तु विशोनाः। शतशतदेव्यः पृतनामहत्तरागा अङ्गरक्षाणाम् ।।२३८।। सेनादेवानां पुनः देव्यः तस्य अधपरिमाण । सर्वनिकृष्टम राणां वात्रिंशद्भवन्ति देव्यः ॥२३६॥ मता । प्रतृतीयं शतं त्रिशतं पश्चाशनमस्तु मातम्याचमके पारिवण्यः । मागे तु द्विशतं सष्टिशतं चत्वारिशम्छतं ॥२७॥ गबजे । गक शेषे दशसगुणा: षोडश शप्तगुणाचतुर्दश। तत्रैव मध्यबाहापरिषदाविशत्यूनाः शतशतदेव्यः पृतनामहतराणा मङ्गरक्षाणाम् ॥२३॥ सेरणा । तस्प तस्य सेनामहत्तस्य ५० इत्यर्थः । शेषं छायामात्रं २३॥ इन्द्र, प्रतीन्द्र, लोकपाल, त्रास्त्रिशद और सामानिक देवी की देवांगनाएं, बल्लमाएँ एवं विक्रियाशक्ति आदि इन्द्र के हो सदृश हैं, इसलिये नहीं कहो गई । शेष देवों की देवांगनाओं का प्रमाण तीन गामाओं द्वारा कहते हैं : गाषा:--हाई सो और तीन सौ में से कम से पचास पचास कम उमरदिक के पारिषद देवों को देवियो का प्रमाण है ( २५०, २००, १५० तथा ३००, २५० और २०० ), तथा नागकुमार Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० त्रिलोकसार पाषा : २४० देवों के पारिषद् देवों को देवियां कम से दो सौ, एक सौ साठ जोर एक सौ चालीस हैं । गरुड़ देवों के पारिषद देवों को देवियां सोलह में देश का गुणा और बीस बीस कम अर्थात् १६०, १४० और १२० हैं, तथा शेष देवों के पारिषदों की देवियां कम से चौदह में दश का गुणा और कम से बीस बीस अलग, in हैं : नाति अनीकों के प्रधान देवों की एवं अङ्ग रक्षकों की सौ सौ देवांगनाए है । अनीक देवो की देवियां उसके अर्थ प्रमाण अर्थात् ५० हैं. तथा सब निःकृष्ठ देवों के बत्तीस देवांगनाएं होती है ॥२३७,२३८,२६९ । विशेषार्थः-पारिषद देवों को देवांगनाओं का प्रमाण अभ्यन्तर परिषद मध्यम परिषद बान परिषद अमरेन्द्र के २५० वैरोचन केनागेन्द्रों के २०० १६० गरुक्षेन्द्रों के १४० शेष इन्द्रों में प्रत्येक के २०० २०० अनीकों के प्रधान देवों की ओर अङ्गरक्षकों की १००, १. देवांगनाए है, अनीक देवों की ५० और निकृष्ट देवों को ३२ देयांगनाएं होती हैं। इनसे कम किसी भी देव की नहीं होती। अथ भवनवासिनाम ग्रे वक्ष्यमाणज्यतराणां च जघन्योत्कृष्टमायुराचई अमुरादिनदुसु सेसे मौम्मे सायर तिपल्लमाउम्स । दलहीणझमं जगु दसवाससहस्समबरं तु ॥२४॥ असुरादिचतृषु शेषे भौमे सागर त्रिपल्यं आयुष्यम् । दलहीन क्रमः जोष्टं दशवर्षसहस्र अबरं तु ॥२४०।। प्रसुरा। मसुरादिषु चतुषु शेषे ६ मौमे पायपासंख्य सागरोपमं त्रिपाय वायुष्य बलहीनाक्रमः। एतत्सव ज्येष्ठं अपरं स्वायुवंशवर्षसहन १२४०॥ भवनवासी देवों की तथा आगे कहे जाने वाले व्यन्तरदेवों की जघन्योत्कृष्ट आयु कहते हैं पापा:-असुरफुमारादि पार कुलों के इन्द्रों की, शेष भवनवासियों की और भ्यन्तरदेवों को उत्कृष्टायु क्रम से एक सागर, तीन पल्प तथा आधा भाषा पल्य कम है, तथा जघन्यायु दस हजार वर्ष है ।। २४० ।। अथोक्तानामेव सविशेषेणायः कथयन तदेवायत्रेति निरूपयति Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया। २४१ भवनाधिकार मसुरचउक्के सेसे उदही पन्लत्तियं दलूणकर्म । उपरवाहियं सरिस इंदादिपंचण्इं ॥२४१॥ असुरचतुष्के शेषे उदधिः एल्पत्रिक दलोनक्रमः। उत्तरेन्द्राणामषिक सरशं इन्द्रादिपश्चानाम् ॥२४॥ अपुर। मारपतुष्के शेषे उवषिः पल्यत्रिक पलोमनमः । एतदेवोत्तरेकाणां साधिक सहमिन्दाविषञ्चालाम् ॥२४॥ पूर्वोक्त असुरकुमारादि पार और शेष भवनवासियों में दक्षिणेन्द्रों की आयु विशेष कहते हुए उत्तरेन्द्रों एवं इन्द्रादिकों की आयु का निरूपण करते हैं--- गापा:-असुरकुमारादि चार की, और शेष भबनवासी देवों की आयु कार एक सागर, तीन पल्प, तथा आधा आधा पल्य हीन कही है, वह दक्षिणेन्द्रों की है । उत्तरेन्द्रों की वायु अनसे कुछ अधिक होती है. तथा इन्द्रादि पांचों ( इन्द्र, प्रतीन्द्र, लोकपाल, प्रायस्विशत् और सामानिक ) की आयु सदृश ही होती है ॥२४॥ _ विशेषाः -असुरकुमारादि देव) को उत्कृष्ट आयु: १. चमरेन्द्र ( दक्षिणेन्द्र )) एक सागर की उस्कृष्टायु है। 1. असुरकुमार: २ वैरोचन ( उत्तरेन्द्र ), एक सागर से कुछ अधिक है। ३. भूतानन्द ( दक्षिणेन्द्र), तीन पल्म उत्कृष्टायु । : नागकुमार: ४. धरणानन्द (उत्तरेन्द्र), तीन पल्य से कुछ अधिक। ५. वेणु (दक्षिणेन्द्र), अटाई पल्य । ६. वेणुधारी ( उत्तरेन्द्र } } अढाई पल्य से कुछ पधिक । ७. पूर्ण ( दक्षिणेन्द्र ), दो पल्प । ४. द्वीपकुमार: ८. वसिष्ठ (उत्तरेन्द्र ), दो पल्य से कुछ अधिक शेष बारह इन्द्रों में से प्रत्येक दक्षिणेन्द्रों की उत्कृष्ट आयु ( १ )देव पल्म तथा प्रत्येक सत्तरेन्द्रों की कुछ अधिक डेन पन्योपम प्रमाण है। इन्द्र, प्रतीन्द्र, लोकपाल, श्रास्त्रिश और सामानिक इन पांच देवों की आयु सदृश ही होती है। व्यन्तरों की उत्कृष्टापु एक पल्म को तथा उपयुक्त सभी देवों को जघन्यायु दश हजार वर्ष की श्रोधी है। ३. सुपर्णकुमार: Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ त्रिलोकसार बाया : २४२-२४३ अथ तदेव सादृश्यं विशेषेण निरूपयति आऊपरिपारिड्ढीविक्किरियाहि पडिदयादि वऊ । सगसगईदेट्विं समा दहमछचादिसंजुचा ।।२४२|| आयुः परिवारधिविक्रियाभिः प्रतीन्दादयः पवारः । स्वकस्व केन्द्रः समा दभ्रछात्रादिसंयुक्ताः ॥२४२।। पाक । किन्तु बभ्र' हवं तेन छत्रादिना संयुक्ता इत्पर्यः । शेषं छायामात्र ॥२४२॥ उपयुक्त पांचों देवों को समानता दिखाते हैं पावार्थ:-प्रतीन्द्र, लोकपाल, प्रायस्त्रिश और सामानिक देवों की आयु, परिवार, ऋद्धि और विक्रिया अपने अपने इन्द्र के समान ही होती है। ये इन्द्र से केवल कुछ हीन छत्रादिक के धारक होते हैं ।। २४२ ॥ विशेषार्थ:-सरल है। असुरादीन्द्रदेवीनामायुः प्रमाणमा अड्ढाइअतिपन्लं चमरदुगे णागगरुडसेसाणं । देवीणममं पुण पुवावस्साण कोडितयं ।।२४३।। अर्धतृतीयत्रिपल्य चमरद्विके नागगरुडोषाणां । देवीनामष्टमं पुनः पूर्ववर्षाणां कोटि त्रयम् ॥२४॥ प्रता । अतृतीयं पल्यं त्रिपल्यं चमाविक वेगाना भागगरशेषाणा देवीना पपासंवयं पल्याएमभागः पुनः पूर्वकोटियं वर्षाणां कोस्त्रियं नातव्यं ॥२४३॥ असुरकुमारादि इन्द्रों की देवांगनाओं की आयु कहते हैं: गाथार्थ:-चमरेन्द्र की देवियो को आयु अढाई (२३) पल्य, वैरोचन इन्द्र की देवियों को सीन पल्य, नागकुमार की देवियों की आयु पन्य के आठवें ( 2 ) भाग, गरुडेन्द्र की देवियों की आयु तीन पूर्व कोटि की तथा शेष इन्द्रों की देवाङ्गनाओं को आयु तीन करोड़ ( ३००००००० ) वर्षे प्रमाए। होती है ।। २४३ ।। ___ विशेषापं:--वमरेन्द्र और वैरोचनेन्द्र की देवाङ्गनामों की आयु क्रम से अढ़ाई पल्य और तीन पल्य की होती है, तथा नागकुमार, गण्डेन्द्र और शेष इन्द्रों की देवाङ्गनामों की आयु कम से पल्य के भाठवें भाग, तीन पूर्वकोटि और तीन करोड वर्ष की होती है । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयनाधिकार अङ्गरक्षकसेनामहत्तरानीक वाहन परि त्यागामायुष्यं गाधाचतुष्केाहूरंगसेामराणा हने पल्लं | गाथा : २४४ - २४५ - २४६ - २४७ साणीकवाहणाणं दलं तु वइरोयणे महियं || २४४ ॥ फणिमरुडखेसयाणं तडाणे पुव्ववस्सकोडी य । वरसाण कोडि लक्ख लक्खं च तदद्धयं कमसो || २४५ || मरदुगे परिमाणं अड्ढाइ तिपन्लमद्ध णं । * जागे बहुमभागं सोलस बचीसमागं तु ॥ २४६ ॥ गरुडे सेसे कमसो तिमदुगमेक्कं तु होदि पुव्वाणं । साणं कोडीओ परिसानन्तरादीणं ॥ २४७ ॥ चमराङ्गरक्षसेनामह्त्तराणामायुष्यं भवेत् पत्यं । सानोकानानां दर्द तु वैरोचने अधिकम् ॥ २४४॥ फणिगरुडशेपाणां तत्स्थाने पूर्ववर्ष कोटि च । पण कोटिः लक्षं लक्षं च तदर्धकं काशः ॥ २४५॥ चमर परिषद अर्धतृतीय त्रिपल्यमर्धीनम् । नागे अष्टमभागं षोडशद्वात्रिंशद्भागंतु ॥ २४६ ॥ गरुडे शेष क्रमशः दिन े एका तु भवति पूर्वाणाम् । वर्षाको पारिषदानां अभ्यन्तरादीनाम् ॥२४७॥ २२३ चमरं । चमराङ्गरक्षसेनामहसराणामायुष्यं भवेत्पत्यं प्रानोक: प्राोहकः तेन सहितान वाहनानां बलं अपत्यं एतदेव वंरोधने साधिकम् ॥ २४४ ॥ फरि । कािसा ७ तचाने अङ्गर असे नामहसरामीकवाहन स्थाने पूर्वकोटि winter वर्षाfort कोटि : वर्षाणां लक्षं सक्षं च तवर्द्धक क्रमशः ॥ २४५ ॥ चमर । चमरद्विके परिषश्या पतृतीयं पश्यं त्रिपत्थं । मध्यमबाह्य परिषदोर पस्योनं 1 मागे पल्यातुमभागं पल्पषोडशमा पत्याद्धिगमायुः ।।२४६ ॥ गखे । गरुडे शेषे च क्रमश: तिखः तु एका तु भवति पूर्वाणां कोटयः तथा वर्षाला कोटयः पारिववामामभ्यन्तरादीनाम् ॥ २४७ ॥ अङ्गरक्षकों ओर तीनों परिषद देवों की आयु चार गाथाओं द्वारा कहते हैं- गाथार्थ:- चमरेन्द्र के अङ्गरक्षक देवों की एवं मेना महत्तरों की आयु एक एल्य की है, तथा wats ( आरोहक ) देवों सहित वाहन देवों की आयु आधा ( ३ ) एल्य की है। वैरोचनेना के Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ त्रिलोकसार पापा:२४८ अङ्गरक्षक, आरोहक एवं वाइन देवों की आयु उपयुक्त प्रमाण से कुछ अधिक होती है । नागकुमार, गरुड़कुमार और शेष इन्द्रों के उपयुक्त पदधारो देवों की आयु क्रम से एक पूर्वकोटि, और एक करोड़ वर्ष, एक करोड़ वर्ष और एक लाख वर्ष, एक लाख वर्ष और अध लाख वर्ष प्रमाण होती है। चमरद्विक इन्द्रों के तीनों पारिषद देवों की आयु क्रमशः अढ़ाई पल्प और तीन एल्य, दो पत्य और अढ़ाई पल्य, तथा हेद पल्य और दो पल्प होती है 1 नागकुमार के पारिषद् देवों की कम से पल्य के आठवें भाग (६)पश्य के सोलहवें ( 1 ) भाग और पल्म के बत्तीसवें () भाग प्रमाण आयु होती है। गरुड़कुमारेन्द्रों के अभ्यन्तरादि तीनों पारिषदों की एवं शेप इन्द्रों के तीनों पारिषद देवों को आयु कम से तीन पूर्व कोटि, दो पूर्व कोटि और एक पूर्व कोटि तथा तीन करोड वर्ष, दो करोड़ वर्ष और एक करोड़ वर्ष मात्र होती है ।।२४४-२४७।। विशेषा:-अंगरक्षकादि देवों की उत्कृष्टायु निम्न प्रकार है - | अङ्गरक्षकों की सेनामहनरों की प्रारोहक और वाहन आयु । आयु । की आयु अभ्यन्तर मध्य प. बाझप. प.की आयु | की आयु | की आयु १चमर एक पल्य एक पल्य २पक्ष्य अचं पल्य २३ पल्य ३ पल्य २ रोचन कुछ अधिक ? | साधिक साधिक ,, , पल्य १ भूतानंद एक पूर्व कोटि एक पूर्व कोटि ! करोड़ वर्ष | पल्य का : भाग | भाग ४ धरणानंद साधिक र पूर्व को साधिक , , . साधिक ! " " साधिक : भा० सा. सा. ५ वेणु एक करोड़ वर्ष | १ करोड वर्ष १ लास्म वर्ष । पूर्व कोटि २ पूर्ण कोटि पूर्व कोटि ६ वेगुपारी साधिक १ करोड सा० १ करोड़ स:धिक १ लाख वर्ष साधिक ३ .. .. सा. ...., सा ," ७ शेष इन्द्र एक लाख वर्ष | १ लाख वर्ष | अर्ध लाब वर्ष | ३ करोड़ वर्षे २ करोड़ वर्ष १ करोड वर्ष वर्ष लास वष असुरादीनामुच्छ वासाहारक्रम कथयति-- मसुरे तितिसु सासाहारा पकावं समासहस्सं तु । सहुचदिणाणद्धं तेरस पास दलूण? ।२४८।। असुरे त्रिस्त्रिा श्वासाहारी पक्षं समासहस्त नु। ममुह दिनयोः अध त्रयोदश द्वादश दलोनाम ॥२४८ । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : २४९ पवनाधिकार २२५ मसुरे । अपुरे विस्थिषु च उच्छ वासाहारी पक्षे एकवारं समासहने व एकवारं समुहूर्तरिनयोरर्धत्रयोदश द्वादशे बलोनामे भागे एककवारं ॥२४८।। असुरकुमारादि देवों के उच्छ्वास एवं आहार का कम कहते हैं: पाथाय:-असुरकपारों में एवं मागे शेष तीन तीन कूलों में माहार एवं श्वासोच्छ्वास क्रमवाः एक हजार वर्ष और एक पक्ष, १२३ दिन ओर १२३ मुहूतं, १२ दिन और १२ मुहून तथा ३ दिन और ७ मुहूर्व में होता है ॥२४८।। ___ विशेषायः- असुरकुमार देव १००० वर्ष में माहार ग्रहण करते हैं, और १ पक्ष में श्वासोच्छ वास लेते हैं । नागकुमार, सुपर्णकुमार और द्वीपकुमार १२: दिन में आहार ग्रहण करते हैं, तथा १२% मुहूर्त में उच्च वास लेते हैं । उदधिकमार स्तनितकुमार और विद्य तकमार १२ दिन में आहार ग्रहण करते हैं, एवं १२ मुहूर्त में श्वासोच्छवास लेते हैं, तथा दिक्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार देव ७३ दिन में आहार ग्रहण करते हैं, और ७३ मुहूर्त में श्वासोच्छवास लेते हैं । अथ भवन त्रयाणामुरसेधमाह पणवीसं असुराणं सेसकमाराण दसधणू चेत्र । वितरजोइसियाण दसमत्त सरीरउदयो दु ।।२४९॥ पञ्चविंशतिः असुराणां दोपकुमाराणो दशधनुषां चंब । क्यन्तरज्योतिषकयोः दशसम शरीरोदय: तु ॥२४६॥ पगबोसं। पश्चविंशतिः पराणां धनुषामुश्यः शेषकुमाराणो वाषनुषा बयोग्यः । पन्तरण्योतिष्कयोः वशतप्तधनुः शरोरोक्यस्तु ॥२४६।। भवनविक देवों का उत्सेव कहते हैं: पायार्थ:-असुरकुमार देवों के शरीर का उदय ( ऊंचाई ) पच्चीस धनुष, शेषकुमारों का दस धनुष, ब्यन्तर देवों का दस धनुष और ज्योतिष देषों का सात धनुप प्रमाण है ।।२१९॥ विशेषार्थ:-असुरकुमार देवों के शरीर की ऊंचाई २५ धनुष है। शेष नागकुमारादि नवप्रकाय के भवनवासी एवं व्यन्तर देवों के शरीर की ऊंचाई दस धनुष तथा ज्योतिष देवों के शरीर की ऊंचाई “धनुष प्रमाण है। इति श्री नेमिचन्द्राचार्य विरचिते त्रिलोकसारे भवनलोकाधिकार: ॥२॥ इस प्रकार श्री नेमिचन्द्राचार्य विरचित बिलोकसार में भवनलोकाधिकार सम्पूर्ण हुआ ।।२।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यन्तरलोकाधिकारः *arhath+hunx इदानी व्यस्तरलोक निरूपयितुमनास्तावत्तालोकस्थित चैत्यालयानां प्रमाणपूर्वक नति वितनोति निपिणसयजोयणाणं कदिहिदपदरम्स संग्ख मागमिदे । भौमाणं जिणगई गणणातीदे णमंमामि ||२५०॥ त्रिशतमोजनानां कृतिहृतप्रतरस्य संख्यभागमितान् । भीमाना जिनगेहान् गणनातीतान् नमस्यापि ॥२५०।। तिष्णि । 'मंगुलसूरुपंगुलीकृत विशतयोजना कृतिहतप्रतरस्य संख्यातभागमितान् भोपानां जिमगेहान् गणनातीतान् ममस्यामि । त्रिशतयोजनस्य कृति गृहोस्वा १०००० एकपोजमस्य १ एतावत्सु ७६८०.० अंगुलेषु सासु इuat योजनाना Lose किमिति राशिकविषिनागुलानि कर्तव्यानि । बर्गराशेगुणकार भागहारी वर्गहपेण भवत इति न्यायेन गुणकारोऽयं वर्गात्मको भवति २=७६८००० ४७६८००० तवमंगुलाङ्क त्रिभिभवपिरषा २५६ ४ ३४ २५६ ४ ३ गुण्यगुण नारस्थितशूम्याशकं पृथक हत्या बेसवछप्पण्णवयपरस्परगुरणने' पण तिर्जाता ६५५३६ । परस्परणितत्रिकायेन प्रातमनयन' १ परस्परगुरिंगते एकावाति ८१ रमूव । पुनरमु राशि ६५= ४८१४ १००००..1000 अंगुलपं । एकत्यांगुलस्य एकस्मिन सम्यगले २ सति इunt foमिति सम्पात्य सूच्यंगुलं वर्गीकृत्य ४ गरायेद । पुमरनेन नगरप्रसरे भक्त = = ( ४४६५ - १४१००००००००..) व्यन्तरपरिमारणं स्यात् । सदुक्त - "तिण्णिमयजोपणाणं बेसबछप्पण्ण अंगला छ । कविहिदपार तरणोतियार परिमाणं ॥" इति । पुन संख्यातवेवानां प्र. एकस्मिन् जिागेहे फ. १ मतां = (४४६५८१४ १००००००००००) किमिति सम्पात्य संख्यातेन जगप्रतरे भक्त = (४४६५-१४ १०००००००.00}यतराणा जिनगेहप्रपाणं स्यात् ।।२५०।। १ अंगुला सूष्यंगुतीकृतः (प.) । २ पपणढय गुणने ( प. ।। ३ प्राक्तन नवके (प.)। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यन्तर लोकाधिकार अब व्यन्तर लोक का निरूपण करने की इच्छा रखने वाले प्राचार्य व्यन्तरलोक में स्थित चैत्यालयों का प्रमाण बतलाते हुए नमस्कार करते हैं: गाथा:-तीन सौ योजन के वर्ग का जगत्प्रतर में भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो इसके संख्यात भाग प्रमाण व्यन्तर देवों के असंख्यात जिन मन्दिरों को मैं ( नेमिचन्द्राचार्य ) नमस्कार करता है॥२५०।। विशेषाप:-तीन सो योजन की कृति के अंगुल बनाकर जगत्तर में भाग देने पर जो लन्ध प्राप्त हो उत्तनी संख्या प्रमाण व्यन्तर देव हैं। तथा उनके संख्यातवें भाग प्रमाण चैत्यालय हैं जो गणनातीत अर्थात असंख्यात हैं। उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। तीन सौ योजन का वर्ग ( ३०० ४३०.) = ९.०० वर्ग योजन होता है । एक योजन में ७६६.०० अंगुल होते हैं तो १०००० वगं योजनों में कितने अंगुल होंगे ? इस प्रकार राशिक विधि द्वारा अंगुल निकाल लेना चाहिए । “वर्ग राशि का गुणकार एवं भागहार वर्गरूप हो होता है" इस नियम के अनुसार अंगुल स्वरूप गुणकार वर्गात्मक ही होगा । अत: ७६८०.४ ३०.४७६८००.x ३०० प्राप्त हुआ। गुग्यमान और गुणकार राशियों के दसों शून्य भिन्न स्थापित करने पर ७६८४३४ ७६८४ ३ होते हैं। इसमें मे ७६८४७६८ अंगुलों को तीन से भेद देने पर २५६ ४ ३ ४ २५६४३ प्राप्त हुआ। २५६ को २५६ में गुणित करने पर पणट्ठी ( ६५५३६ ) तथा ३ को ३ से गुणा करने पर ९ प्राप्त हए । इस ६ को पूर्वोक्त ६ से गुणित करने पर ८१ लन्ध आया। अतः ६५५३६, ८१ और १० शून्य प्रतरांगुल स्वरूप प्राप्त हुए। एक सूच्यंगुल का चिन्ह २ और सूच्यंगुल के वर्ग का चिन्ह २४२-४ होता है । ६३५३६४१४ १०००००००००० प्रतरांगुलों से जगत्तर में भाग देने पर पन्त र देवों का प्रमाण प्राप्त होता है। कहा भी है कि-२०० योजन के वर्ग का जगन्नार में भाग देने पर व्यन्तर देवों का प्रमाण प्राप्त होता है, और जगत्प्रतर में २५६ अंगुल के वर्ग का भाग देने पर ज्योतिष देवों का प्रमाण प्राव होता है । यदि संख्यात देवों के प्रति एक जिन चैत्यालय है, तो ६५५३६४८१४ १०००००००००० से भाजित जगप्रतर के प्रति कितने जिन रयालय प्राप्त होगे? इस प्रकार ६५५३६ x६१x१०००००००००० प्रतरागुल अथवा ३.० याजन के वर्ग से भाजित जगत्प्रतर के संख्यातवें भाग व्यस्वर देवों के जिन चैत्यालयों का प्रमाण प्राप्त होता है । अर्थात् जगत्प्रतर को ३७. के वगं Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ पिलोकसार पाया । २५१-२५२ ( ९.०० 1 से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो वह व्यन्त र देवों का प्रमाण है, अतः व्यन्तर देवों के प्रमाण को संख्यात से भाजित करने पर जिन घस्यालयों का प्रमाण प्राप्त होता है। अथ व्यन्तराणां कुलभेदं निरूपयति किंणरकिंपरिसा य महोरगगंधय्द जक्खणामा य । रक्खसभ्यपिसाया अहविद्या चतरा देवा ॥२५॥ किनकिम्पुम्पो च महोरगगन्धर्वयक्षनामानः च । राक्षसभूतपियााचाः अष्टविषा व्यन्तरा देवाः ।।२५१।। किरणर । छायामात्रमेवार्थः ॥२५॥ अब व्यन्तरों के कुलभेदों का निरूपण करते हैं गाया:-व्यन्तरदेव आठ प्रकार के हैं-किन्नर, किम्पुरुष, महोग, ग्धवं, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ।।२५१॥ अथ तेषां शरीरवणं निरूपति तेसि कमसो वष्णो पियंगुफलधवलकालयसियामं । हेमं तिसुवि सियाम किलं बहुलेवभूसा य ||२५२।। तेषां क्रमशः वर्णाः प्रियंगुफलधवलकालघयामाः । हैम: विष्वपि दयामः काण: बहलेपभूषा च ।।९५२।। तसि । तेषां क्रमशः पारीरबाः प्रियंगुफलपवलकालश्यामा हेमवर्षस्त्रिम्बषि श्यामवर्ण कृष्णवर्णः । ते देवा बालेपभूषणाः ॥२५२॥ व्यन्तरों के शरीर के वणं का निरूपण करते हैं पापा:-इन व्यन्तरदेवों के शरीर का रंग मशः प्रियंगुफल, धवल, काला श्याम वर्ण, स्वर्ण तथा तीन का श्याम वरणं ओर अन्तिम व्यस्तरों का वर्ण काला होता है । ये सभी देव लेप एवं बाभूषणों से सहित होते हैं ।।२५२॥ विशेषार्थ:-किन्नर नामके व्यन्तरदेवों के शरीर का वणं प्रियंगुपुष्प सदृश, किम्पुरुषों का वणं धवल, महोरगों का काला या श्याम, गन्धवों का स्वर्णसदृश कान्तिमान, यक्ष, राक्षस और भूत जाति के देवों के शरीर का रंग श्याम तथा पिशाच पाति के व्यतर देवों का वर्ण काला होता है। ये देव बहुत से लेप और आभूषणों से विभूषित होते हैं । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ गाथा । २५३-२५४-२५५ ध्यन्त रलोकाधिकार अप तेषां चैत्यतरुभेदमाह तेसि ममोयचंपयणागा तुंबुरुवहो य कंटतरू | तुलसी कदंरणामा चेत्ततरू होति हु कमेण ||२५३॥ तेषां अशोक चम्पकनागा: तुम्बुरुवटारच कन्टतमः । तुलसी कदम्बनामा त्यसरवो भवन्ति स्खलु कमेण ॥२५३।। तेसि । नागा नागकेसर इत्यर्थः । दोषं छायामात्रम ॥२५३॥ ध्यन्तरदेवों के चैत्यवृक्षों के भेद गावार्थ:-यन्तरदेवों के क्रमशः अशोक, चम्पा, नागकेसर, तुम्बरु, वट, कण्टतरु, तुलसी और फदम्ब चैत्यक्ष होते हैं ।।२५३।। अथ तच्चैत्यत रुग्लस्थजिनप्रतिमादिमाह तम्मूले पलियंकगजिणपडिमा पडिदिसम्हि चत्तारि । घउतोरणजुसा ते भवणेसु च जंबुमाणद्वा ||२५४॥ तन्मूले पल्याङ्कगजिनप्रतिमा: प्रतिदिश चतयः । चतुस्तोरणयुक्तास्ताः भवनेषु च जम्बूमानार्थः ॥२४॥ तमूले । जसमामाषाचैत्यतरवः जम्मूमपरिकरप्रमाणार्थ इत्यर्थः । ये घामामात्रमेव ॥२५॥ उन चैत्यवृक्षों के मूल में स्थित जिनप्रतिमादि का कथन करते हैं गावार्थ:--चैत्यवृक्षों के मूल की प्रत्येक दिशा में चार चार तोरणों से युक्त, पल्यासम पार चार जिन प्रतिमाए हैं । ये चैत्यवृक्ष भवनवासी देवों के वृक्षों के सदृश ही हैं । इनका प्रमाण आगे कहे जाने वाले जम्बूवृक्ष के परिकर के प्रमाण से आधा है ॥२५४॥ अथ सदस्यमानस्तम्भं सविशेष निरूपति परिपरिमं एक्शेरका माणत्वंभातिषीढसालजुदा । मोचियदामं सोडा घंटाजालादियं दिव्वं ॥२५५।। प्रतिप्रतिमां एफका मानस्तम्भाः त्रिपाठशालयुताः। मौक्तिकदाम गोभते घण्टानालादिकं दिव्यम् ॥२५५।। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा । २५६ परि । प्रतिप्रतिमा एकका मानस्तम्भाः त्रिपाठविशालयुताः । तत्र मौक्तिक राम धोभते विध घन्टाबालादिक च ।।२५५।। उन प्रतिमाओं के आगे स्थित मानस्तम्भ का विशेष निरूपण करते हैं गाथार्थ:-प्रत्येक प्रतिमा के आगे एक एक मानस्तम्भ है जो तीन पीठ के ऊपर स्थित है और सोन शाल अर्थात् कोटों से सहित है तथा नाना प्रकार के मोतियों को मालाओं व दिव्य घण्टामाल आदि से शोभायमान हैं ।।२५५।। विशेषार्थ:-त्रिपीट पर स्थित प्रत्येक जिनप्रतिमा के अग्रभाग में एक एक मानस्तम्भ है। यह तीन कोटों से घिरा हुआ है तथा मोतियों की मालाओं और दिव्य घण्टाजाल आदि से शोभायमान है। अथ अष्टविधयन्त राणां प्रतिकुलमवान्तर भेदमाह किंगरचउ दसदसधा सेसा पारमममत्तचोदसधा । दो दो इंदा दो दो बन्लभिया युह सहस्सदेविजुदा ।।२५६।। किन्नरचत्वारः दशदशधा शेषाः द्वादशसप्तचतुर्दशधा । द्वौ द्वौ इन्द्रो दे दे बल्ल भिके पृथक सहरदेवीयुते ॥२५६।। किर । किनरावयः वस्वारः बाबा बापा भिन्ते शेषाः पक्षावयः द्वावशषा सप्तया' सप्तधा सर्वशषा । प्रत्र द्वौ द्वौ इन्द्रो तयो बल्लभि पृषक पृयक सहस्रवेवोयुते ॥२५६।। व्यन्तर देवों के मुख्य आठ कुलों के अवान्तर भेद कहते हैं पाथार्थ:-किन्नरादि प्रथम चार कुल तो दस दस प्रकार के हैं, शेष बारह, सात, सात और चौदह भेद वाले है । प्रत्येक कुल के दो दो इन्द्र, प्रत्येक इन्द्र को दो दो वल्लभा और प्रत्येक वल्लभा की एक एक हजार परिवार देवांगनाएं होती हैं ॥२५॥ विशेषा:-किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व इन चार कुलों के दस दस अवान्तर भेद हैं, यक्ष बारह प्रकार के, राक्षस सात प्रकार के, भूत सात प्रकार के और पिशाच चौदह प्रकार के हैं। प्रत्येक फल के दो दो इन्द्र होते हैं अतः । कुलों के १६ इन्द्र हुए। प्रत्येक इन्द्र की दो बल्लभा होतो है मत: १६ इन्द्रों की ३२ बल्लभा देवांगनाएं हुई और प्रत्येक देवांगना एक एक हजार परिवार देवियों से युक्त होती है अत: पाठों कुलों की कुल देवियाँ बत्तीस हजार हुई। १ घण्टादिकं ( ५० ।। २ दादशधा (प.)। सप्तसप्तधा (प.)। * किन्नरफिम्पुरुष पृथक सहसदेवीपुते ( ५.)। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचा । २५५-२५८-२५९-२६. म्यन्तरलोकाधिकार अथ तेषां संज्ञां षोडशगाथाभिनिरूपयति किंपुरिसकिंणराधि य हिंदयंगमगा प रूपपाली य । किंणरकिणरऽणिदित भणरम्मा किंणरुतमगा ॥२५७।। रतिपियजेट्टा इंदा किंपुरिसाकिणरवतं सा है। केतुमती रतिसेणा रतिप्पिया होति बन्लमिया ।।२५८|| किम्पुरुषभिन्न रावपि च हृदयङ्गमश्च रूपपाली च । किन्नरकिन्नरः अनिन्दितः मनोरमः किन्नरोत्तमः॥२५॥ रतिप्रियज्येष्ठौ इन्द्री किम्पुरुषकिन्नरी अवतंसा हि। केतुमती रतिसेना रतिप्रिया भवन्ति वल्लाभकाः ॥१५८।। foपुरिस । थायामात्रमेवार्यः ।।२५७ ॥ रतिषिय । रतिप्रियज्येष्ठौ १. तनी किम्पुरुषकिन्नरो सपोरवता तुमतीरतिसेनारतिप्रिया: भवन्ति बल्लभिकाः ॥२५८।। देवों और उनकी वल्लभाओ के नाम सोलह गाथाओ में कहते हैंकिलर कुल के इन्द्रों और उनकी वल्लभाओं के नाम गापा-(१) किम्पुरुष, (२) किन्नर, (३) हृदयंगमा (४) रुपमाली, (५) किन्नर किन्नर, १६) अनन्दित, (७) मनोरम. (८) किन्नरोत्तम (E) रतिप्रिय (१०) ज्येष्ठ-ये दस प्रकार के किस व्यस्तरदेव हैं। इनमें किम्पुरुष और किन्नर ये दो इन्द्र हैं। इनकी क्रमशः (१) अवसा (२) केतुमती ओम (१) रतिसेना (२) रतिप्रिया, ये दो दो वल्लभा देवांगनाएं हैं ।।२५७-२५८।। पुरुमा पुरुसुत्तमसप्पुरुतमहापुरुसपुरुमपदणामा । अतिपुरुमा माओमरुदेवमरुप्पहजसोवंतोः ।।२५९।। सप्पुरुसमहापुरुसा किंपरिसिंदा कमेण वल्लमिया । रोहिणया णवमी हिरि पुष्फवदी य इयरम्स ॥२६०।। पुरुषः पुरुषोत्तमसत्पुभवमहापुरुषपुषप्रभनामानः । मतिपुरुष: मरुमरुदेवम सत्प्रभयशस्वन्तः ।।२५९।। ससुरुपमहापुरुषी किम्पुरुपन्द्री क्रमेए। वल्लभिकाः । रोहिगी नवमी हो गृष्पवती च इतरस्य ॥२६॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ त्रिलोकसारा पापा : २६१-१६२ पुरुसा । छायामात्रमेवार्थः ।।२५६n सप्पुस । सत्पुरुषमहापुरुषो किम्पुरुषेन्नौ । कमेण बलरिकाः रोहिणी नवमी देवो पूर्वन्तस्य ह्री पुष्पवती चेतरस्य ।।२६०॥ किम्पुरुष व्यन्तर देवों के नाम, इन्द्र और उनकी वल्लभाए गायार्थः-(१) पुरुष (२) पुरुषोत्तम (३) सत्पुरुष (४) महापुरुष (५) पुरुषप्रभ (६) अतिपुरुष ७) मरु (८) मरदव (६) मरुत्प्रभ (१०) यशस्वान-ये दस प्रकार के किम्पुरुष व्यन्तरदेव हैं। इनके सत्पुरुष और महापुरुष व दो इन है मिलनश: रोहिणी और नवमी तथा ह्री और पुष्पवती ये दो दो वल्लभा देवांगनाए हैं ॥२५९-९६०।। महोरगदशभेदंपति मुजगा भुजंगसाली महकायतिकाय खंधसाली य । मणहर असणिजवक्खा महसरगंभीरपियदरिसा ।।२६१।। महकायो भतिकायो महोरगदा हु भोग भोगवदी। इदरम्स पुप्फगंधी अणिदिता हॉति बम्लभिया ।।२६२।। भुजगः मुजंगशाली महाकायो अतिकायः स्फन्धशाली । मनोहरः अशनिज वामन्यः महेश्वर्यगम्भीर प्रियदथिनः ॥२६१॥ महाकायो अतिकायो महोरगेन्द्रो हि भोगा भोगवती। इतरस्य पुष्पगन्धी अनिदिता भवतः वरक्षभिके ||२६२॥ भुजगा। छायामात्रमेवाः । महकायो। महाकापोऽतिकायाचेति महोरणेनो हलु । भोपा भोगवती पूषस्य, इतरत्य पुष्पगन्धी प्रनिविता भवतः बल्लभिजे ॥२६॥ महोरग म्पन्तरदेवों के अवान्तर नामादि पाषा:--(१) भुजंग (२) भुजंगशाली (३) महाकाय (४) अतिकाय (५) स्फन्त्रणाली (0) मनोहर (७) प्रशनिजव (८) महेश्वर्य (९) गम्भीर और (१०) प्रियदर्शन, ये बस प्रकार के महोरग व्यन्तरदेव हैं । इनके इन्द्र महाकाय और अतिकाय हैं । इनकी क्रमशः भोगा और भोगवती तथा पुष्पगन्धी और अनिन्दिता ये दो दो वल्लभा देवांगनाएँ हैं ।।२६१-२६२॥ . (प.)। १ बर्मानाः (प.)। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया । २६३-१६६ व्यभ्तरलोकाधिकार हाहा हू णारयतुंबुरुक कदंबवावकरयाय । महसर गीतरतीब य गीतयसा दवता दसमा ||२६३|| गीतरती गीतजसो गंधव्विदा हवंति वल्लमिया | सरसति सरसेणावि य दिणि वियदरिखिणादेवी ॥१२६४|| 9 ( 90 ) 1 हाहा हूहू नारद बुक कदम्बवासवारूपाश्च । महास्वरो गीत रतिः अपि च गीतयशा देवता दशमः ।।२६३॥ गीतरस: गोवा गन्धर्वेन्द्रौ भवतः वस्ल भिकाः । सरस्वती स्वरसेनापि च मन्दिनी प्रियदर्शनादेवी || २६४ ॥ हाहा । छायामात्रमेवार्थः ।। २६३ || गीतरसी। वल्लभकाः तयोरिति शेषः । सभ्यछायामानं ॥ २६४ ॥ गन्धवं व्यन्तरदेवों के अवान्तर नामादि- गावार्थ:- (१) हाहा (२) हूहू (३) नारद (४) नुम्बुरु (५) कदम्ब (६) वासव ( ७ ) महास्वर (८) गौतरति (६) गोतयशा और (१०) दैवत - ये दस भेद गन्धवं व्यन्तर देवों के हैं । गीतति और गीला ये दो प्रधान इन्द्र हैं। इनकी वल्लभा देवांगनाएँ क्रमशः सरस्वती और स्वरसेना तथा नन्दिनी और प्रियदर्शना है || २६३ - २६४।। अथ यक्षद्वादशधा कथयति' - मणिपुलोमा मदग्गा सुभदा य । तह सव्वमद्द माणूस घणपाल सुरूवजक्खा य ।। २६५ ।। जक्खुमा मनोहरणामा तह माणिपुण्णभहिंदा | कुंद बहुपुच देवी तारा पुण उसमा देवी || २६६॥ २३३ अमलिमतोभद्राः भद्रकः सुभद्रः च । तथा सर्वभद्रः मानुषः धनपालः सुरूययक्षश्च ॥ २६५ ॥ ॥ यक्षोत्तमो मनोहरनामा तत्र माभिन्द्रो । कुन्दा बहुपुत्रदेवी तारा पुनरुत्तमा देवी ॥ २६६॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकमार माथा । २६७-२६८ मह । अप मारिण मारांभोलभमनोभद्राः भागः सुभाष तथा सर्वभाः मानुषः पनपाल: सुरूपयक्षध ।।२६।। अक्छु । यक्षोत्तमो मनोहरनामा १२ सत्र मारिणभनपूर्णभद्राचिन्द्रौ । तयोर्वेभ्यः कुम्मा महपुत्रवेषो तारापुमरुत्तमा देवी ॥२६६३ यक्ष दवा के अवान्तर नामादि गाथा:-- (१) माणिभद्र (२) पूर्णभद्र (३) शैल भद्र (४) मनोभद्र (५) भद्रक (६) मुभद्र (७) सर्वभद्र (क) मानुष (९) धनपाल (१०) सरूपयक्ष (११) यक्षोत्तम और (१२) मनोहर-ये बारह प्रकार के यक्ष व्यन्तरदेव हैं। इनमें से मणिभद्र और पूर्णभद्र ये दो इन्द्र हैं। इनकी कुन्दा और बहुपुत्रा तथा तारा और उत्तमा ये दो दो वलभा देवांगनाए हैं ।१२६५-२६६।। मथ राक्षगाः सप्तविधा भवन्ति । तेषां भेदान कथयति'--- भीममहभीमविग्धविणायक तह उदकरक्खसा य तहा । रक्खसरक्खस तह बम्हरनखसा होति सत्तमया ।।२६७।। भीमो य महामीमो रक्खसइंदा हवंति बन्लभिया । पउमा वसुमित्नावि य स्यणड्ढा कणयपह देवी ।।२६८।। भीमो महाभीमः विघ्नविनायकः तथा उदकः राक्षसश्च तथा। राक्षस राक्षसः तथा या राक्षसः भवन्ति सप्तमकः ।।२६७।। भोमश्च महाभीमो राक्षमन्द्री भवतः वङ्गभिका। पद्मा ब पुमित्रापि च रत्नाड्या कनकप्रभा देवी ॥२६८।। भीम । छायामात्रमेवार्थ: ॥२६७।। भीमो । बालमिकाः तयोरिति शेषः । अन्यमायामात्रं ||२६८।। राक्षस व्यन्तरदं त्रों के अवान्तर भेदादि गावार्थ:-- (१) भीम (२) महाभीम (३) विघ्नविनायक (४) उदक (५) राक्षस (६) राक्षसराक्षस और (७) ब्रह्मराक्षस-ये राक्षस घ्यन्तरदेवों के प्रकार हैं। भीम ओर महाभीम राक्षसद वों के इन्द्र हैं । इनकी दो दो बल्लभा देवांगनाए क्रमशः पया और वसुमित्रा तपा रलाया और कनकप्रभा हैं ॥२६७-२६८॥ अथ भूताः समविधा भवन्ति, तेषां नामानि कथयति Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ पाथा: २६६-२७२ ध्यन्तरलोकाधिकार भृदाणं तु सुरूपा पडिरूवा भूदउत्तमा तत्तो। पहिभूद' महाभूदा पहिलपणागासभूद इदि ॥२६९।। इंदा य सुपडिरूवा बन्लभिया तह य होदि रूवषदी । बहरूबा य सुमीमा सुमुहा य हचंति देवीयो ॥२७॥ भूतानां तु सुझपः प्रतिरूपः भूनोत्तमः ततः । प्रतिभूतः महाभुतः प्रतिछत्रः आकाश भून इति ।।२६६॥ इंद्री च सुप्रतिरूपी वलभिकाः तथा च भवन्ति रूपवती । बहरूपा च सुपीमा सुमुखा च भवन्ति दं ध्यः ।।२०।। मूदाएं । छायामात्रमेवार्थः ॥२६॥ इंचाची व सुरूपनतिरूपी तपोलिभिका सपा भवन्ति रूपवतो बहुरूपा च सुषीमा समुखा प एता वेम्पो भवन्ति ॥२७॥ भूत व्यन्तर देवों के प्रकारादि-- गापार्ग:-(१) सुरूः रतिरूप ३भूटोत्तम प्रतिभा () महाभूत (६) प्रतिछिन्न और (७) आकाराभूत-ये सात प्रकार के भूत ध्यन्तरदेव हैं । सुरूप और प्रतिरूप भूत व्यन्तर देवों के इन्द्र हैं। रूपवती और बहुरूपा तथा सुसीमा और सुमुखा-इनको ये दो दो वल्लभा देवांगनाएं हैं ॥२६९-२५ || मथ पिशाचाः चनुदंशधा भवन्ति, तेषां नामानि कथयति कुम्भंड रक्ख जक्खा संमोहो तारका मचोक्खा य । काल महकाल चोक्खा सुतालया देह महदेहा ।।२७१।। तुहिय परयणणामा इंदा तेसि तु कालमहकाला । कमलकमलप्पाहप्पलसुद रिसणा होति वल्लभिया ।।२७२।। कूष्माण्डो रक्षोयक्षः सम्मोहः तारकः अशुचिश्च । वाल: महाकाल: शुचि: सतालक: देहः महादेहः ॥२७॥ तूष्णीकः प्रवचननामा इन्द्रो तपा तु कास महाकालो। कमलाकमलप्रभोरमलासुदर्शना भवन्ति बहभिकाः । २७२।। कुभं । धायामात्रमेवार्थः ॥२७॥ तुहिय । तूष्णोकः प्रवचननामा १४ इन्नो तेषां तु कालमहाकाली कमला कमलप्रभा उत्पला सुदर्शन। एतास्तयोलभिकाः ।।३७२।। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ त्रिलोकसार पाथा: २७३-२७६ पिशाच ध्यन्तरदेवों के प्रकारादि गाचा:- (१) कूष्माण्ड (२) राक्षस (३) यक्ष (४) सम्मोह (५) तारक (६) अशुचि (७) काल (८) महाकाल [९] शुचि (१०) सतालक (१११ देह (१२) महादेह (१३) तूष्णीक और (१४) प्रवचन, ये चौदह प्रकार के पिशाच व्यन्तर देव हैं। इनमें काल और महाकाल ये दो इद्र हैं। इनकी कमला और कमलप्रभा तथा उत्पला और मुदर्शना ये दो दो वल्लभा देवांगनाएँ हैं ॥२७१-२७२।। अथ पुनरिन्द्रसंज्ञाम व पृथगृहाति गाथाद्वये नाह किंपुरुस किंणग मप्पुरुसमहापुरुसणाममा कमसो । महकायो मतिकायो गीतरती गीतयमणामा ।।२७३।। तो माणिपुण्णभद्दा भीममहामीमया सुरूवा प । पहिरूवी काल महाकालो भोम्मेसु जुगलिंदा ।।२७४।। किम्पुरुषः किन्नरः सत्पुरुष:महापुझपनामा क्रमशः। महारायः नि . गोतरतिः गीतयशोनामा 1॥२७३।। ततो मारिणपूर्णभद्रो भीममहाभीमो सुरूपश्च । प्रतिरूपः कालः महाकाल: मोमेषु युगलेन्द्रा ||२७४।। किंपुरुस । छायामात्रमेवारीः । हो। ततो माणिभद्रः पूर्ण भाः भीमः महाभीमः सुरूपश्च प्रतिरूपः कालो महाकाल: एहे सर्वे मोमेषु युगलेना ॥२७॥ दो गाथाओं द्वारा पुनः इंद्रों के नाम पृथक से कहते हैं गापार्श:--किम्रुप, किन्नर; सत्पुरुष, महापुरुषः महाकाय, अतिकाय; गीतरति, गीत यशा; मारिणभन, पूर्णभद्र; भीम, महाभीम; सरूप, प्रतिरूप और काल, महाकाल-ये व्यन्तरदेवों के क्रमशः एक एक कल के दो दो इन्द्र होते हैं ।।२७३-२७४।। मथ किम्पुरुषादीन्द्राणां गणिकामहत्तरीयाचतुष्टयेन कथयति--- मणिकामहत्तरीयो इंदं पडि पन्लदलठिदी दो हो। मधुरा मधुरालाका सुस्सर मउभासिणी कमसो ।।२७५।। पुरिसपिया घुकता सोमा पुंदरिमिणी य भोगक्खा । मोगवदी य भुजंगा भुजमपिया तो सुघोस विमलेति ।।२७६।। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । २७७-२७८ व्यन्तरलोकाधिकार सुम्सर मणिदिदक्खा मह सुमदाय मालिनी होंति । मादिमालिनीविय तो सच्चरि सुष्वसेयेति ॥ २७७ || रुख रुददरिसिण दादीकंद भृद भृदादी । दच महाभुज अंबा काल सुलसा सुदरिसणया ||२७८ || ॥ २७८ ॥ गणिकामन्तर्य इंद्र प्रनि पन्यवलस्थितयः द्वे द्वे । मधुरा मधुरालावा सुस्वरा मृदुभाषिणी क्रमशः ।। २७५. ।। गुरुप्रियाता सौम्या पुदर्शिनी च भोगाख्या । भोगवती च भुजंगा भुजगप्रिया ततः सुघोषा विमला इति ॥ २७६ ॥ सुस्वरा अनिन्दिताख्या भद्रा सुभद्रा च मालिनी भवन्ति । पद्मादिमानी अपि च ततः शर्वरी सर्वसेना इति ॥ २७७ ॥ error neर्शना भूतादिकान्ता भूता भूतादि । दत्ता महाभुजा अम्बा कराला सुरसा सुदर्शनका ॥ २७८ ॥ मलिका । पुरिस | सुस्वर छायामात्रमेवार्थः ॥२७५-२७७।। दश । भूतादिकान्ता भूतकान्ता इत्यर्थः । भूतादिवसा सूतवता इत्यर्थः । शेषं छायामात्रं ९३७ चार गाथाओं द्वारा १६ इन्द्रों को गरिएका महतारी के नाम कहते हैं गाथार्थ:- प्रत्येक इन्द्र के पास अर्थ ( २ ) पत्य प्रमाण आयु को घारगा करने वाली दो दो गणिका महत्तरी होती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं १ किन्नरः मधुरा, मधुरालापा किम्पुरुषः सुस्वरा, मृदुभाषिणो ४ गीत रतिः सुघोषा, विमला गोतयशाः सुस्वरा, अनिन्दिता ७ सुरूपः भूतकान्ता, भूता प्रतिरूपः भूतवत्ता, महाभुजा २ पुरुषः पुरुषप्रिया, पुकारता ३ महाकायः भोगा, भोगवती महापुरुषः सौम्या, पुदर्शिनी अतिकाय: मुजङ्गा, भुजगप्रिया ५ मणिभद्रः भद्रा, सुभद्रा ६ भीमः शर्वरी (सर्व धी), सर्वसेना पूर्णभद्रः मालिनी, पद्यमालिनी महाभीमः मद्रा रुद्रदर्शना ८ कालः अम्बा, कराधा ( कला ) महाकालः सुरसा सुदर्शना, or fergoपादन्द्राणां सामानिकादीनां संख्याभवमाह Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ त्रिलोकसाब इंदसमा ह पहिंदा समाणुतसुरकखपरिसपरिमाणं । चडमोलसहस्सं पुण अट्टमयं विमदवकिमो || २७९ ।। इन्द्रसमाः खलु प्रतीन्द्राः सामानिकतसुरक्षपारिषदप्रमाण । चतुः षोडशसहस्रं पुनरष्टशतं द्विशतवृद्धिक्रमः ॥ २७९ ॥ पाया: २७९-१८० इंदसा | इन्द्रसमाः खलु प्रतीन्द्राः सामानिकतनुरक्षपारिषवप्रमाणं चतुः सहस्र सत्र पुनरशतं मध्यमवापरिषदोः द्विदृद्धिक्रमः ॥२७६॥ किम्पुरुषादि इन्द्रों के सामानिकादि देवों को संख्या कहते है गायार्थः प्रतीन्द्र इन्द्र के सहश हैं अर्थात् एक इन्द्र के पास एक ही प्रतीन्द्र होता है। सामानिक देव चार हजार, तनुरक्षक सोलह हजार तथा पारिषद देव आठ सौ है, आगे दो दो सौ की वृद्धि होती गई है || २७६ ॥ विशेषार्थ:- प्रत्येक इन्द्र के परिवार में प्रतीन्द्र सामानिक, तनुरक्षक, तीनों पारिपद, मातों अनीक, प्रकीरंक और आभियोग्य देव होते हैं । एक इन्द्र के परिवार में प्रतोद्र एक ही होता है। सामाजिक देव ४०००, तनुरक्षक १६०००, आभ्यन्तरपारिषद देव ८०० मध्यपारिषद देव १००० तथा बाह्यपारिवद देव १२०० प्रमाण होते हैं। अय तेषां सप्तानीकं कथयति- कुंजरतुरयपदादीरगंधा यनवसति । सत्तेवर आणीया पत्तेयं सत सत कक्खजुदा ||२८० ।। कुञ्जरतुरगपदातिरथगन्धवत्र नृत्य वृषभाविति । सप्तव अनीकाः प्रत्येक सप्त सप्त कक्षयुताः ||२०|| कुंजर | छायामात्रमेवार्थः ॥२८० सातों अनीकों के नाम एवं भेद गापार्थ:- हाथी, घोड़ा, पैदल, रथ, गन्धवं नृत्यकी और वृषभ - प्रत्येक इन्द्र की ये सात सात अनीक ( सेनाएं ) हैं तथा एक एक अतीक सात सात प्रकार की कक्षा एवं फौज से सहित होती है ।। २८० ॥ अथ तत्सेना महत्तरभेदमाह - Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८१-२५२ व्यन्तरलोकाधिकार सेनामहचरा मुज्जेड्डा सुग्गीवविमलमरुदेवा | सिरिदामा दासिरी सत्तमदेवो विसालखी || २८१ || सेना महत्तराः सुज्येष्ठः सुग्रीवविमलमरुदेवाः । श्रीदामा दामश्रीः सप्रमदेवो विशालाक्यः ॥ २८१ ॥ लेगा | वायामात्रमेवार्थः ॥ २८१ ॥ सात अनीक देवों के महत्तरों के नाम गाथार्थ:- हाथी आदि सात प्रकार की सेना के प्रधान देवों के नाम क्रमश: सुज्येष्ठ सुग्रीव. विमल, मरुदेव, श्रीदामा, दामश्री और विशाल है ॥२१॥ अथ तदानीकसंख्यामाह - अठ्ठावीसarti पढमं दुगुणं कमेण चरिमोचि । सदा सरिसा पण्णयादी असंखमिदा || २८२|| अष्टाविशसहस्राणि प्रथमं द्विगुणं क्रमेण चरमान्तम् । सर्वेन्द्राणां सद्दशः प्रकीर्णकादयः असंख्यमिताः ॥ २६२ ॥ २३६ पट्टाबीस । प्रष्टावितिः सहस्राणि प्रथमं प्रमाणं हमेसा द्विगुणं परमं यावत् । सर्वग्रा सहा: मानीसंख्याः चतुशिकायेषु प्रकोरांकावयः प्रसंख्यात मिताः ॥२६२॥ अनीक और प्रकीर्णकादि देवों की संख्या गाथा - प्रथम कक्ष अट्ठाईस हजार प्रमारा है तथा अन्त तक क्रमशः दूना ठूला प्रमाण प्राप्त होता है। अनीकों का प्रमाण समस्त व्यस्तर इन्द्रों के समान ही है। प्रकीएकाधिकों का प्रमाण संख्यान है || २८२ ।। विशेषार्थ:- गाथा २३१ के अनुसार जितना गच्छ का प्रमाण हो उतने स्थान में २ का अ रखकर परस्पर गुणा करने से जो लब्ध प्राप्त हो उसमें से एक (१) घटाकर दोष में एक (१) कम गुणकार का भाग देने पर जो लब्ध आवे, उसका मुख में गुणा कर देने से सङ्कलित धन का प्रमाण प्राप्त होता है । यहाँ पद प्रमाण ७ और मुख का प्रमारण २८००० है, अतः २८००० x || ८२४२४२४२ ३५५६०००, एक अनीक की सात कक्षाओं का प्रमाण करने पर ( ३५५६००० X ७ ) २४८६२००० मानों × २x२ x २ ) - १) - ( २ – १ ) ] प्राप्त हुआ। इसको सात (७) से गुणा अनीकों का प्रमाण प्राप्त होता है । न Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० त्रिलोकसार पाया : २-३ अथवा कक्षाएं हाथी | घोड़ा । पैदल _रथ गन्धवं । नृत्यकी बल प्रथम (२८... २८३०० २८००० २८००० २८००० २८००० २८.०० द्वितीय ५६००० | ५६००० ५६००० [५६००० | ५६००. ५६००० ५६००० तृतीय १९२००० चतुर्थ २२४००० २२४.०० पश्चम ११२००० २१२००० | ११२००० ११२०७० ११२००० २२४००० | २२४००० | २२४००० २२४००० | २२४०.० |४४८०.. |४४६००० . .. ४४८००० ४४८०.. ४८.०० ८९६००० | E९६०.०८६६०००८९६००० | | ८९६००० ८९६००० १७६२०००/ १७९२.०० १७९२०००५७६.२००० १७९२००० १७९२०००। ४४८.०० पष्ठ ६६०.. सहम १७९२००० योग ३५५६००० ३५५६००० ३५५६००० ३५५६००० ३५५६००० ३५५६... ३.५६००० सातों अनीकों का सवं धन २४८९२०. यह धन २५८६२... एक इन्द्र की अनीक का है । कुल इन्द्र सोलह हैं-सभी समान धन के स्वामी हैं अतः २४८९२००० ४ १६ = ३६८२७१००० सम्पूर्ण वमन्तर देवों की सेना का सर्वधन प्राप्त हुआ। चतुनिकाय रूप सम्पूर्ण देवों के प्रकोणक, आभियोग्य और किल्विष देव असंख्यात होते हैं। मतान्तर से इन देवों का प्रमागा निरूपण करने वाला उपदेश नष्ट हो चुका है। मथ व्यन्तरेन्द्रागा नगराश्रयद्वीपसंज्ञामाह-- मञ्जणकवजधाउकसुवण्णमणोसिलकवजाजदेसु । हिंगुलिके हरिदाले दीये भोम्भिदणयराणि ।।२८३।। मजनकवनधातुकसुवर्णमनः शिलबजरजतेषु । हिगुलिक हरिताले द्वीपे भीमेन्द्रनगराणि ॥२८३॥ मंगणक । छायामात्रमेवार्थः ॥२३॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यन्त श्लोकाधिकार अब व्यन्तरदेवों के नगरों के आश्रयरूपद्वीपों के नाम कहते हैं- गायार्थः– अञ्जनक, वज्रधातुक, सुवर्ण, मनः शिलक, वस्त्र, रजत, द्विगुलक और हरिताल इन आठ द्वीपों में क्रमशः किम्पुरुषादिक व्यन्तरेन्द्रों के नगर हैं ||२३|| गाय । २८४ २४१ विशेषार्थ :- जिन इन्द्रों का नामोच्चारण पहले किया जाता है वे दक्षिणेन्द्र है और जिनका नामोच्चारण बादमें किया जाता है, वे उत्तरेन्द्र कहलाते हैं । आय व्यन्तर कुलों के आठ द्वीप - अञ्जनक द्वोप की दक्षिण दिशा में किम्पुरुष और उत्तर दिशा में किन्नर इन्द्र के नगर हैं । वष्यधातुक द्वीप को दक्षिण दिशा में सत्पुरुष और उत्तर दिशा में महापुरुष इन्द्र के नगर हैं । सुत्रगं द्वीप को दक्षिण दिशा में महाकाय और उत्तरदिशा में अतिकाय इन्द्र के नगर हैं । मनःशिलक द्वीप की दक्षिण दिशा में गोतरति और उत्तर दिशा में गीतयशा इन्द्र के नगर हैं। वज्र द्वीप की दक्षिण दिशा में माणिभद्र और उत्तर दिशा में पूर्णभद्र इन्द्र के नगर है । रजत द्वीप की दक्षिण दिशा में भीम और उत्तर दिशा में महाभीम इन्द्र के नगर हैं । हिंगुलक द्वीप को दक्षिण दिशा में सुरूप और उत्तर दिशा में प्रतिरूप इन्द्र के नगर हैं । हरिताल द्वीप की दक्षिण दिशा में काल और उत्तर दिशा में महाकाल इन्द्र के नगर हैं । अथ तन्नगरसंज्ञामायामं चाह - मोदिकं मज्मे पदकतावचम चरिका । पृव्वादिसु युममा पणपणणयराणि सममाने ॥ २८४॥ भद्रा' मध्ये प्रभकान्तावर्तमध्याः चरमाङ्काः । पूर्वादिपु जंबूसमानि पच पच नगराणि समभागे ॥ २८४ ॥ भोमिदं । भमेाः किन्नरस्तदेवाङ्क मध्ये पुरि प्रभकात्वावर्तमध्याः । भीमेन्द्रा घरमाङ्काः पूर्वाविषु जम्बूद्वीपसमानि पञ्च पञ्च नगराणि समभागे ॥ २६४ ॥ अब उन नगरों के नाम और आयाम कहते हैं गाथार्थ - समभूमि में व्यन्तर इन्द्रों के पाँच पाँच नगर होते हैं। पुर मध्य में होता है और प्रभु, कान्त, आवतं एवं मध्य नगर पूर्वादिक दिवााओं में होते हैं, सबके साथ इंद्र विशेष का नाम जुड़ा रहता है। इन नगरों का आयाम जम्बुद्वीप' सहा है ।। २८४|| विशेषार्थ:- जिस प्रकार जम्बुद्वीप समतल भूमि पर है, भूमि के नीचे या पर्वत के ऊपर नहीं है, उसी प्रकार व्यन्तर देवों के नगर समतल भूमि पर बने हुए हैं। प्रत्येक इन्द्र के पाँच पाँच नगर होते १ राजधाम्य: पिणाचानां पन्च प्रोक्तास्तु नामतः । जम्बुद्वीपप्रमाणामच चतुर्वन विभूषिताः ॥ ६९ ॥ ९ विभाग ( लोक विभाग ) ३१ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ त्रिलोकसार पापा ! २८५ हैं। मध्य के नगर का नाम इन्द्र के नाम से अंकित होता है तथा पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः नाम के अन्त में प्रभ, कान्त, आवतं और मध्य जुड़े होते हैं, जैसे-- इन्द्रनाम मध्यनगर पूर्वदिशा दक्षिण दिशा | पश्चिम दिशा | उत्तर दिशा १ किम्पुरुष २ किन्नर किमुरुपपुर । किम्पुरुषप्रभ किन्नरपुर किन्नरप्रभ किम्पुरुषकान्त | किम्पुरुषावर्त | किम्पुरुषामध्य किन्नरकान्त | किनरावर्त । किन्नरमध्य इसी प्रकार शेष चौदह इन्द्रों के नगर भी जानना चाहिए । इन नगरों का आयाम जम्बूद्वीप के समान है। अथ तश्नगरप्राकारद्वारयोमदयादिभेदमा तपायारुदयतियं पणहत्तरिपण्णवीसपंचदलं । दारुदभो विन्धारी पंचधणद्धं तदद्धं च ।।२८५।। तत्प्राकारोदयत्रयं पञ्चसप्ततिपञ्चविंशतिपञ्चदळम् । द्वारोदयो विस्तारः पञ्चघनाधं तदधं च ॥२८५।। सप्पाया। तत्प्राकारोक्यत्रयं पञ्चसप्ततिवलं १५ पञ्चविंशतिवलं ३५ पञ्चातं तदारोक्यो विस्तारपत्र पञ्चधना १२५ तव ध१॥२५॥ अब उन नगरों के कोट तथा दरवाजों की ऊंचाई आदि कहते हैं गाथार्थ:-उन नगरों के कोट की ऊंचाई, चौडाई और मोटाई क्रमशः पचहत्तर (७५) पच्चीस (२५) और पांच (५) की आधी ग्राधी है। द्वार की ऊंचाई पांच के घन की आधी और चौड़ाई ऊंचाई से माधी है ॥२५॥ विशेषार्थ:-नगर के कोट की ऊंचाई पचहत्तर की आधी ( १५ ) अर्थात् साढ़े तीस योजन, चौड़ाई पच्चोस की आधी ( २५ ) अर्थात् साढ़े बारह योजन और मोटाई पाँच की आधी (2) अर्थात् हाई योजन है । इसी प्रकार द्वारों की ऊंचाई पाव के धन की आधी (५४५४५- १) अर्थात् माढ़े वासठ ( ६२३ ) योजन और चौड़ाई ऊंचाई को आधी ( १ ) अर्थात सवा इकतीस (३१) योजन है। अथ तदुपरिमप्रासादस्वरूप निरूपयति Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा। २०६-२८७ व्यन्तरलोकाधिकार तस्सुवरि पासादो पणहतरितुंपमो सुधम्मसहा । पणकदिदल तद्दल णव दीहरवासुदय कोस' ओमाहा ।।२८६॥ तस्योपरि प्रासादः पञ्चसापतितुङ्गः सुधर्मसभा। पञ्चकृतिदलं तद्दल नव दीर्घव्यासोदयाः कोशः अवगाहः ॥२८६॥ तस्सुव । तस्योपरि प्रासावः पञ्चसप्ततितुङ्गः स एष सुधर्मसमा इत्याख्यायते । पञ्चतिरलं ३५ तहल १५२६ एते यासंख्यं वीर्घव्यासोश्या: तबगाढः कुट्टिमा भूमिः एककोशः ॥२६॥ अब द्वारों के ऊपर स्थित प्रासादों के स्वरूप का निरूपण करते हैं गाणार्थ:-द्वार के ऊपर पचहत्तर (७५) योजन ऊचे प्रासाद हैं। इनके भीतर सुधर्मा नामा सभा है जिसको दीर्घता ( लम्बाई ), व्यास ( चौड़ाई ) और उदय ( ऊंचाई ) कमशः पांच को कृति ( वर्ग ) का आधा, लम्बाई का आषा और ६ योजन प्रमाण है । इस सभा का अवगाढ़ ( अधिष्ठान ) एक कोस है 11२८६॥ विशेषाप:- द्वार के ऊपर ७५ योजन ऊँचे प्रासाद हैं । प्रासादों के भीतर सुधर्मा नामा सभा है जो पांच की कृति की बाधी ( ५४५-२० ) अर्थात साढ़े बारह ( १२५ ) योजन लम्बी है । लम्बाई से आधी ( ११४३ ) अर्थात् सवा छह (६३) योजन चौड़ी और ई योजन ऊँची है । इसकी नींव भूमि में 'एक कोस नीचे तक स्थित है। मथ तप्रासादस्य द्वारोदयादीनिरूपयति तिस्से दारुदो दुगहगि वासो दक्खिणुचरिंदाणं । सम्वेसिं गगराणं पायारादीणि सरिसाणि ||२८७|| तस्या द्वारोदयः द्विकमेकं व्यासः दक्षिणोत्तरेन्द्राणाम् । सर्वेषां नगराणां प्राकारादीनि सदृशानि ॥२८॥ तिरसे । तस्याः सुधर्मसभाया: चारोषयः नियोजन एकपोजमण्यासः । दक्षिणोत्तरेचा सबंधी मारा प्राकारादीनि सहशानि ।।२८७॥ अब उन प्रासादों के द्वारों की ऊंचाई आदि का निरूपण करते हैं गाथा:- उस सुधर्मा सभा के द्वार का उदय ( ऊँचाई ) दो योजन और व्यास ( चौड़ाई ) एक योजन है । दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र इन समी इन्द्रों के नगरों के प्राकारादिकों का प्रमाण समान । ही होता है ।।२८॥ १ कोस द गाढो (प.)। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ त्रिलोकसार वाचा : २८८-२८९ विशेषार्थ:-सुधर्मा सभा के दरवाजे की ऊँचाई दो योजन और चौड़ाई एक योजन है। दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र सभी इन्द्रों के नगरों के प्राकार, प्राकार के भीतर स्थित सुधर्मा सभा तथा उस सभा के दरवाजों आदि का प्रमाण समान ही है। अथ तनगरबा वनस्वरूपं निरूपति--- पुरदो गंतूण बहिं चउदिसं जोयणाणि विसहस्से । इगि लक्खायद तहलबासजुदा रम्मवणसंडा ।।२८८।। पुराद्गत्वा बहिः चतुर्दिशं योजनानि द्विसहस्र।। एफलक्षायता: तहलव्यासयुताः रम्यवनसाः ॥२८॥ पुरवो । पुरागत्या बहिश्चल विधातु योजनानि विसहसं कलक्षायताः तदर्धभ्यासत्ता रम्यबनवण्या: ॥२८॥ नगरों के बाहर स्थित वनों का स्वरूप गाथा:-नगर मे दो हजार योजन बाहर जाकर चारों दिशाओं में एक लाख योजन लम्बे और लम्बाई के अघं भाग ( ५० हजार ) प्रमाण चोड़ाई वाले रमणीक वनखण्ड हैं ।।२८८॥ . विशेषार्थ:-नगर से दो हजार योजन दूर चारों दिशाओं में सुन्दर रमणीक बनखण्ड है। इनकी लम्बाई एक लाख योजन और चौड़ाई पत्रास हजार योजन है।। अथ तद्वनस्थितगणिकानगरविस्तारसंख्यादिकं निरूपयति तस्थेव य गणिकाणं चुलसीदिसहस्मविउलणयगणि | सेमाणं भोम्माणं अणेयदीचे समुद्दे य ॥२८९।। तत्रैव च मरिण कानां चतुरशीतिसहनविपुलन गरागि। शेषाणां भीमानां अनेकद्वीपे समुद्रे च ।।२८९।। तत्व । सब बने परिणकानो चतुरशीतिलाहविपुलनगराणि शेवारणा भोमाना पनेकडोपे पोकसमु च नगराणि ॥२८॥ अपने अपने इन्द्र के वनों में स्थित गरिणका महत्तरियों के नगरों का प्रमाण एवं संन्यादि का निरूपण करते हैं गाथार्थ:-अपने अपने इन्द्रों के वनों में स्थित गणिकाओं के नगरों की लम्बाई और चौड़ाई दोनों ५४००० योजन प्रमाण है। शेष श्यन्तर देवों के नगर अनेक दीपों एवं अनेक समुद्रों में हैं ॥ २८ ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा । २६०-२६१-१९२ व्यन्तरलोकाधिकार ૨૪૫ विशेषार्थ:-- सोलह इन्द्रों के आठ द्वीप हैं और बत्तीस गणिका महत्तर ( प्रधानमणिकाएं ) हैं । एक एक द्वीप पर दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र दो दो इन्द्र रहते हैं। उनके अपने अपने वनों में अपनी अपनी गणिकाओं के नगर बने हुए हैं, जो ८४००० योजन लम्बे और ६४००० योजन चौड़े हैं। शेष व्यन्तरदेव अनेक द्वीपों और अनेक समुद्रों में रहते हैं। अथ कुल विशेषमवलम्ब्य निलयभेदमाह- भृदाण रक्खाणं चउदस सोलस सहस्स भवणाणि । मेसाण वाणपेंसरवाणं अरि गिलवानि ॥२६६६ भूतानां राक्षसानां चतुदंश षोडश सहस्र भवनानि । शेषाणां वानभ्यन्तरदेवानां उपरि निलयानि ॥ २९० ॥ भूवारण | भूतानां तरभागे राक्षसानां पभागे चतुवंश षोडशसहस्र भवनानि शेवाण वानभ्यन्तरदेवानां उपरि मध्यलोके निलयानि संति ॥ २६० ॥ अब कुल भेद की अपेक्षा निलय ( भवन ) भेदों का निरूपण करते हैं गावार्थ:- भूतों और राक्षसों के भवन क्रमश: चीदह और सोलह हजार हैं और कमशः खरभाग और पङ्कभाग में हैं। शेष वानव्यन्तर देवों के भवन पृथ्वी के ऊपर हैं ||२६|| विशेषार्थ :- रत्नप्रभा पृथ्वी के बर भाग में भूत व्यन्तरदेवों के १४००० भवन हैं तथा पङ्कभाग में राक्षसों के १६००० भवन हैं। शेष जो छह किश्वरादि कुल हैं उनके भवन पृथ्वी के ऊपर मर्थात् मध्यलोक में है । अर्थ नीचोपपादादित्र्यन्तरविशेपान् गाथाद्वयेनाह इत्थपमा विवादादिगुवासि अंतरणिवामी । कुंभंडा उध्यण्णा पुष्पण प्रमाणया गंधा ||२९१ ।। महगंध जग पीदिक मागासुत्रवण्णगाय उक्रुवरि । तिसु दसहत्थ सदस्सं बीससह संतरं सेसे ॥२६२॥ हस्तप्रमाणे नीचोपपादाः दिग्वासिनः अन्तर निवासिनः । कूष्माण्डाः उत्पन्ना मनुत्पन्नाः प्रमाणुका गंधाः ॥२६२॥ महागन्धा भुजगाः प्रीतिका आकाशोत्ववादच उपयुपरि । त्रिषु दशहस्तसहस्राणि विश्वतिसहस्रान्तरं शेषे ।। २९२ ।। पायामात्रमेवार्थः ॥२४१४ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २९४-२२४ व्यन्तरलोकाधिकार नीचोपपाद व्यन्तर देवों को आयू का प्रमाण दस हजार वर्ष, दिग्यासी का बीस हजार, अन्तरवासी का तीस हबार, कृष्माण्ड का चालीस हजार, उत्पन्न का पचास हजार, अनुत्पन्न का साठ हजार, प्रमाणक का सत्तर हजार, गन्ध का अस्सी हजार, महागन्ध का चौरासी हजार, भुजल देवों का पल्य के आठवें भाग, प्रीतिक का पल्य के चतुर्थ भाग प्रमाण और आकाशोत्पन्न देवों की आयु का प्रमाण पल्य के अर्धभाग प्रमाण है। अथ ध्यन्त राणा निलयभेदमाह वितरणिलयतिपाणि य भवणपुरावासमवणणामाणि । दीवसमुद्दे दहगिरितरुम्हि चिचावणिम्हि कमे ।।२९४॥ व्यन्तरनिलपत्रयाणि च भवनपुरावासभवननामानि । द्वीपसमुद्रे द्रगिरितरी चित्रावन्या क्रमेण ॥२६४।। वितए । उपन्तराणा निलययाणि च भवनपुरावास पनि मानि । इह फुत्र कुति वेत् । दीपसमुद्रे ह्रगिरितरो चित्रावत्या च मेण भवन्ति ॥२६४।। स्यम्तरदेवों के निलय भेद पामार्थ:----व्यन्तरदेवों के निवास स्थानों के तीन नाम हैं:--भवनपुर, भावास और भवन । ये * सोनों क्रमशः द्वीपसमुद्र, तालाब पर्वत और चित्रा पृथ्वी में स्थित हैं ॥२६४।। विशेषार्थ:--व्यन्तरदेवों के निवास स्थान तीन प्रकार के हैं-भवनपुर, आवास और भवन । भवनपुर द्वीप समुद्रों में स्थित है । आवास तालाब, पवंत और वृक्षादि पर तथा भवन चित्रा पृथ्वी के नीचे स्थित हैं। अथ निलय त्रयं विवृणोति उड्ढगया आवासा अधोगमा वितरण भवणाणि । भवणपुराणि य मज्झिमभागगया इदि तियं णिलयं ॥२९शा ऊध्वंगता; आवासा अधोगता अन्तराणा भवनानि ।। भवनपुराणि च मध्यमभागमतानीति अयं निलयम् ॥२९॥ उड्ढगया। छायामाप्रमेवार्थः ॥२९॥ तीनों प्रकार के निलयों का वर्णन करते हैं पाथार्य:-व्यन्तरदेवों के जो निवास स्थान मध्यलोक की समभूमि पर है, उन्हें भवनपुए कहते हैं। जो स्थान पृथ्वी से ऊँचे हैं उन्हें आवास तथा जो स्थान पृथ्वी से नीचे हैं, उन्हें भवन कहते हैं ॥ २६५ ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० त्रिलोकसार गाया । २९६ - ९६७ सर्वेषां व्यन्तराणां यथासम्भवं निवासप्रदेशमुपदिशति - चितवइरादु जानय मेरुदयं तिरियलोयवित्थारं । मोम्मा इति भवणे भवणपुरावासगे जोगे ।। २९६ ।। चित्राव ज्यातः यावत् मेरुदयं तियंग्लोक विस्तारं । भोमा भवन्ति भवने भवनपुरावास के योग्यं ।। २९६ ।। दिस। विश्रावयामध्यावारभ्य यावत्मेरुदयं यावलियं ग्लोक विस्तारं तावति क्षेत्र भौमा भव लि स्वस्दयोग्य भवने भवनपुरे घावासे च ।। २६६ ॥ अब यथासम्भव सभी व्यन्तरदेवों के निवासक्षेत्र कहते हैं गायार्थ:- चित्रा और यत्रा पृथ्वी की मध्य सन्धि से प्रारम्भ कर मेरु पर्वत की ऊंचाई पर्यन्त तथा तिर्यग्लोक के पर्यन्तन्तर अपने अपने योग्य पुरों में भवनों में और आवासों निवास करते है || २६॥ विशेषार्थ:-- चित्रा और त्रखा पृथ्वी की सन्धि से प्रारम्भ कर मेरु पर्वत की ऊंचाई तक के तथा मध्यलोक का विस्तार जहाँ तक है वहाँ तक के समस्त क्षेत्र में व्यन्तरदेव यथायोग्य भवनपुरा, आवासों एवं भवनों में रहते हैं। अथ निलय संक्रममावेदयति भवणं भवणपुराणि य भरण पुरावा मयाणि केसिंपि । मरणाम रेसु असुरे विहाय केसिं तियं णिलयं ।। २९७ ।। भवनं भवनपुरे च भवनपुरावासकानि केषांचित् । भामरेषु असुरान् विहाय केषां त्रयं निलयम् ||२९७॥ भषणं । केषांचित भवनमेष, केषांचिद्भवनभवनपुरे च भवतः, केषांविभवमभवन पुरावासकानि च भवन्ति । भवनामरेषु प्रसुरान् विहाय केषां चित् त्रयं मिलयम् ॥ २९७॥ अब तिलयों का क्रम कहते हैं माषार्थ :- कुछ व्यन्तरदेदों के मात्र भवन ही हैं, कुछ के भवन और भवनपुर हैं तथा कुछ के भवन, भवनपुर और आवास ये तीनों हैं। भवनवासी देवों में असुरकुमारों को छोड़कर शेष में किन्हीं किन्हीं के भवन, भवनपुर और आवास, ये तीनों होते हैं ।। २६७ विशेषार्थ:- व्यन्तर देत्रों में से कोई कोई व्यन्तरदेव मात्र भवनों में रहते हैं; कोई भवन और भवनपुर इन दोनों में रहते हैं तथा कोई कोई भवन, भवनपुर और आवास- इन तीनों में रहते हैं । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया।२६८-२९९-३०. क्यन्तरलोकाधिकार २४१ भवनवासी देवों में असुर कुमारों को छोड़कर शेष में से किन्हीं किन्हीं के तीनों प्रकार के निवास स्थान है। अथ निलयत्रयाणां व्यासादिकं गाथात्रयेण कथयति जेडावग्भवणाणं बारसहस्सं तु सुद्ध यणवीसं । बहलं तिसय तिपादं बहलतिभागुदयकूडं च ।।२६८।। ज्येष्वावरभवनयोः द्वादशसहस्र तु शुद्धपश्चविंशतिः । बाहुल्यं त्रिशतं त्रिपाद बाहुल्यत्रिभागोदयफूटं च ।। २६८ ॥ जेट्ठा । ज्येष्ठजघन्यभवनयोनिस्तारो द्वावशसहस्रयोजनानि शुसा पविशतिः, तयोहिल्य त्रिशसयोअमानि त्रिपादोजनं तयोर्मको पल्लाहल्यत्रिभागोमय सास्ति ॥ ३८ ॥ तीन गाथामों द्वारा सीनों निलयों का ध्यासादि कहते हैं: पापार्य-उत्कृष्ट और जघन्य भवनों का विस्तार क्रमशः बारह हजार ( १२००० ) और शुद्ध पच्चीस योमन मात्र है तथा उनका बाहुल्य तीन सो और तिपाद प्रति पौन (३) योजन है। बाहुल्य के तीसरे भाग प्रमाण ऊचे कूट हैं ।। २९८ ।। विशेषार्ष:-भवनों का उत्कृष्ट विस्तार बारह हजार योजन और बाहुल्य तीन सौ योजन हैं। जपन्य विस्तार मात्र २५ योजन और बाहुल्य अर्थात पोन योजन ( तीन कोस ) है। भवनों के मध्य में बाइल्य के तीसरे भाग ( ३००४) अर्थात १०० योजन एवं एक कोस ऊंचे कुट हैं। जेद्वभषणाण परिदो वेदी जोयणदलुच्छिया होदि। भवराणं भवणाणं दंडाणे पण्णुवीसुदया ।। २९९ ।। ज्येष्ठभव नानां परितः वेदी योजनदलोच्छिता भवति । सवराणां भवनानां दण्डाना पञ्चविंशत्युदया ।। २६६ ।। जेष्टु । देवी का द्विषारं सम्बध्यते । मन्यत् छायामावमेवार्थः ॥ २९६ ॥ गाथा :--उत्कृष्ट भवनों के चारों ओर आघायोजन ॐत्री वेदी है तथा जघन्य भवनों के चारों ओर पच्चीम धनुष ऊँची वेदी है ।। २९६ ॥ पट्टादीण पुराणं जोगणलक्खं कमेण एव च | आवासाणं विसयाहियबारसहस्सय तिपादं ।।३०० । वृत्तादीनां पुराण योजनलक्ष क्रमेण एक न। आवामानां द्विशताधिषद्वादशसहनाणि च विपादम ॥३०॥ बट्टा। वृत्तादीना पुराणा योजनसामुस्कृष्टविस्तारः कमेण अघन्यमेकयोमा । वृतादीनामावासानां द्विशताधिकद्वादशसहस्राण्युत्कृयविस्तार: जघन्य त्रिपायमोजन ॥ ३० ॥ ३२ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० त्रिलोकसार गाथा : ३०१ गायार्य :-गोल आदि भवनपुरों का उत्कृष्टादि विस्तार कमशः एक लाख योजन और एक योजन है । आवासों का उत्कुष्टादि विस्तार कमश: बारह हजार दो मौ ( १२२०० योजन और पोन योजन है ।। ३०० ।। _ विशेषार्थ :- गोलादि आकार वाले भवनपुरों का उत्कृष्ट विस्तार एक लाख योजन और जघन्य विस्तार एक योजन प्रमाण है। इसी प्रकार गोल मादि आवासों का उत्कृष्ट विस्तार बारह हजार दो मो। १२२०० ) योजन तथा जघन्य विस्तार पौन योजन अर्थात् तीम कोस है। श्रय निलयत्रयाणां विशेषस्वरूपं भौमाहारोच्छ बासं च कथयति : भवणावासादीर्ण गोउरवायारणच्चणादिधग । भोम्माहारुस्सासा साहिएपणदिणमुहुत्ता य ।। ३०१ ।। भवनावासादीनां गोपुरपाकारनतनादिगृहाणि । भौमाहारोच्छन ।सो साधिकपश्चदिनानि मुहूर्ताश्च ॥३.१।। भषणा । भषमावासावीना गोपुरप्राकारमसंनादिगृहाणि मवन्ति । भौमाहारोच्छवासो पषाहमेण साधिकपञ्चविनानि साधिकपञ्चमुहताश्च ॥ ३०॥ तीनों प्रकार के निलयों का विशेष स्वरूप और व्यन्तरदेवों के आहार एक उच्छवास का निरूपण करते हैं : गाथार्य :-- व्यन्तरदेवों के भवनों एवं मावासादिको में द्वार, कोट तथा नृत्य मादि के लिए घर भी होते हैं। व्यन्तरदेवों का आहार और उच्छ्वास क्रमशः कुछ अधिक पांच दिन में और कुछ अधिक पांच मुहूर्त में होता है ॥ ३.१ ।। विशेषार्थ :- व्यन्तर देवों के भवनों और आयासादिकों में दरवाजे, प्रासाद एवं नृत्यगृह आदि भी होते है। जिन व्यन्तरदेवों की आयु पल्य प्रमाण है वे पांच दिन के अन्तर से आहार लेते हैं और पांच महनं वाद उच्छ्वास लेते हैं । तथा' जिन व्यन्त रदेवों की आयु मात्र दस हजार वर्ष है, उनका आहार दो दिन बाद और श्वासोच्छवास सात पाणापारण { श्वासोच्छवास ) पश्चात् होता है ।। इति श्रीनेमिचन्द्राचार्यविरचिते त्रिलोकमारे व्यन्तरलोकाधिकारः ॥३॥ इस प्रकार श्री नेमिचन्द्राचार्य विरचित त्रिलोकसार में यस्तर लोकाधिकार सम्पूर्ण हुआ। हि.५० अधिकार गाथा ८६-१ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KIXXXXXXXXxxxx XXXXXXX . ज्योतिर्लोकाधिकारः XxxxxxxXXXXXXXX अथ व्यन्तरलोकाधिकार निरूप्य तदनन्तरोद्दे शभा ज्योतिर्लोकाधिकारं निरूपयितुकामस्तदादी ज्योतिबिम्ब संख्याप्रदर्शनगर्भ ज्योतिर्लोकचैत्यालयवन्दनालक्ष मङ्गलमाह बेसदकम्पपर्णगुलकदिहिदपदरस्स संखभायमिदे । जोइसजिणिंदगेहे गणणातीदे णमंसामि || ३०२ ।। द्विशतषट्पञ्चाशदङ्ग लकृतिहतप्रतरस्य संख्यातभामितान् । ज्योतिष्फजिनेन्द्रगेहान् गणनालीतानस्यामि ॥ ३०२ ।। देसक । छायामात्रमेवाः ॥ ३०२ ॥ व्यन्तरलोकाधिकार का निरूपण करके उसके अनन्तर उद्देश्य को प्राप्त ज्योतिर्लोकाधिकार के निरूपण की इच्छा रखने वाले आचार्य सर्व प्रथम ज्योतिषदेवों के विम्बों की संख्या दिखाने के लिए ज्योतिर्लोक के चैत्यालयों को नमस्कार करने रूप मंगल कहते हैं : गाथा :-जगत्मतर को दो सौ छप्पन ( २५६ ) अंगुलों के वर्ग ( २५६ ४२५६= ६५५३६ ) का भाग देने पर ज्योतिष देवों का प्रमाण प्राप्त होता है। ज्योतिष देवों के संख्यात भाग प्रमाण ज्योतिबिम्ब एवं चैत्यालय हैं, जो असंख्यात है। उन्हें मैं (नेमि चन्द्राचार्य ) नमस्कार करता विशेषार्प :-दो सौ छप्पन अंगुलों का वर्ग करने से ( २५६ ४ २५५ )६५५३६ वर्ग मंगुल अर्थात् पण्णाट्ठी प्राप्त होती है, अता जगत्प्रतर : ६५५३६ वर्ग अंगुल- ज्योतिष देवों का प्रमाण । ज्योतिषटेन संख्यात=ज्योतिबिम्ब और चैत्यालय, जिनकी संख्या असल्यात है, उन्हें मैं नमस्कार करता है। पप तगेहपज्योतिष्कदमाह Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ त्रिलोकसार गाथा।३.३-३०७ चंदा पुण याइच्चा गह णक्खता पइण्णतारा य । पंचविहा जोइगणा लोयंतषणोदहिं पुट्ठा ।। ३०३ ।। चन्द्राः पुनः आदित्या ग्रहा नक्षत्राणि प्रकीर्णकताराश्च ।। १श्वविधा ज्योतिर्गणा लोकान्तघनोदधि स्पृष्टवन्तः ॥ ३०३ ॥ चंचा । छायामात्रमेवार्यः ॥ ३० ॥ बिम्त्रों में स्थित ज्योतिपी देवों के भेद कहते हैं गाथार्य :-चन्द्र, सूर्य ग्रह, नक्षत्र और प्रकोणक तारा, इस प्रकार ज्योतिष देवों के समूह पांच प्रकार के हैं। ये पांचों लोक के अन्त में घनोद धिवातवलय का स्पर्श करते हैं ।। ३०३ ।। विशेषार्ष:-पूर्व पश्चिम अपेक्षा घनोदधि वातवलय पर्यन्त ज्योतिषी देवों के बिम्ब स्थित हैं। अथ द्वीपसमुद्रनिरूपण मन्तरेण ज्योतिर्गणनिरूपणासम्भवात् तदाधारद्वीपसमुद्रान गाथाचतुष्केण निरूपयति जंबूधादकिपुक्खरबारुणिखीरघदखोदवरदीयो । गंदीसररुणवरुणन्मासा वर कुडलो संखो ।। ३.४ ।। तो रुजगभुजगकुसगयकोंचबरादी मणस्सिला तचो । इरिदालदीवसिंदुरसियामगंजणयहिंगुलिया ।। ३०५ ।। रूप्पसुयण्णयबजयवेलुरिययणागभूदजक्खवरा।। तो देवाइिंदवरा सयंभुरमणो हवे चरिमो || ३०६ ।। लवणंबुद्धि कालोदयजलही तत्तो मदीवणामुबही । सम्वे अढाइज्जुदारुव हिमेतया होति ।। ३०७ ।। जम्बूधातकिपुष्करवाणिक्षीर धृतोद्रवरद्वीपाः । नन्दीश्वरामग्णाहणाभासा वराः कुण्डलः शङ्कः ॥ ३०४ ॥ ततो रुचकभुजगकुशगकौंचव रादयः मनःशिला ततः । हरितालीपसिन्दूरश्यामकाजनहिंगुलिकाः ॥ ३०५ ।। रूप्यसुवर्णकव नकवडूयंकनागभूतयक्षवराः । ततो देवाहिद्रवरौ स्वयम्भूरमणो भवेत् परमः ॥ ३०६ ।। लवणाम्बुधिः फालोदकजलधिः ततः स्वदीपनामोदधयः । सर्वे अधंतृतीयोद्धारोधिमात्रा भवन्ति ।। ३०७ ।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ पापा: १०४-३०७ अंबू । जम्बूद्वीयः धातकीखण्डीकरवर पालियर मध्य घृतयः सौत्रवरः नन्वीश्वरवरः परुणवर: भरणा भासवर: कुण्डलवरः शङ्खवः ॥ ३०४ ज्योतिर्लोकाधिकार तो। ततो रुचकारः भुजगवरः कुशगवर काँचवरादयः । एते प्रभ्यगारषोडशद्वीपा तल उपरि प्रसंख्यातद्वीपसमुद्रान् त्यक्त्वा प्रत्यषोडसोपानाह - ततो मनः शिलाद्वीपः हरितालद्वीप: सिन्दूरवर: श्यामवरः सञ्जनकवर: हिंगुलिचवरः ॥ ३०५ ॥ हृप्प। रूप्यवरः सुवरगंवरः वज्रवरः वंदर: नागवरः भूतधरः यक्षवरः ततो देववरः प्रोस्टवर: स्वयभ्रमणो वेन्चरमः ॥ ३०६ ॥ लव लवणाम्बुधिः कालोदकजलधिः ततः स्वस्थद्वीप नामोदषयः सर्वे द्वीपसमुद्राः कियन्त इति वेत, तृतीयारसागरोपममात्रा भवन्ति ॥ ३०७ ॥ द्वीप समुद्रों के निरूपण बिना ज्योतिष्क देवों का निरूपण असम्भव है, अतः ज्योतिषी देवों के आधारभूत द्वीप समुद्रों का निरूपण चार गाथाओं द्वारा करते हैं गाथार्थ :- ( १ ) जम्बूद्वीप ( २ ) घातकी खण्ड ( ३ ) पुष्करवर ( ४ ) वारुणिवर (५) क्षीरवर ( ६ ) घृतवर ( ७ ) क्षौद्रवर (८) नन्दीश्वरवर (६) अरुपावर (१०) अरुणाभासवर (११) कुण्डलवर ( १२ ) शङ्खबर ( १३ ) रुचकवर ( १४ ) भुजगवर ( १५ ) कुशगवार को (१६) कोवर (आदि ये अभ्यन्तर के सोलह द्वीप है । इसके बाद असंख्यात द्वीप समुद्रों को छोड़ कर अन्त के १६ द्वीपों के नाम ) ( १ ) मनःशिला द्वीप ( २ ) हरिताल द्वीप (३) सिन्दूरवर (४) श्यामवर ( ५ ) अञ्जनवर (६) हिंगुलिकवर ( ७ ) मध्यवर ( ८ ) सुवर्णवर ( ९ ) वध्र्वर ( १० ) वैडुयंवर ( ११ ) नागवर (१२) भूतवर ( १३ ) यक्षवर ( १४ ) देववर ( १५ ) अहीन्द्रवर और अन्तिम (१६) स्वयम्भूरपण द्वीप है । ३०४ ।। ३०५ ।। ३०६ ।। गाथार्थ :- लवण समुद्र और कालोदक समुद्र के अतिरिक्त अन्य समुद्रों के नाम अपने अपने द्वीपों के नाम सदृश ही है। हाई उद्धार सागर का जितना प्रमाण है, उतना ही प्रमाण सर्वद्वीप समुद्रों का है ।। ३०७ || विशेषार्थ :- सर्व समुद्र एक एक द्वीप को वेष्टित किए हुए हैं। सर्व प्रथम जम्बूद्वीप को वेष्टित करने वाले समुद्र का नाम लवण समुद्र है। दूसरे घातकीखण्ड द्वीप को परिलक्षित करने वाले समुद्र का नाम कालोक समुद्र है। इसी प्रकार एक एक समुद्र एक एक द्वीप को घेरे हुए है। इन दो समुद्रों के अतिरिक्त अन्य समुद्रों के नाम द्वीपों के नाम सहता ही हैं। सर्व द्वीप समुद्रों का प्रमाण ढाई उद्धार सागर के प्रमाण बराबर है। दश कोडा फोड़ी उद्धार पल्य का एक उद्धार सागर होता है। ऐसे कई उद्धार सागर के जितने रोम है, उतनी ही द्वीप समुद्रों की संख्या का प्रमाण है । इदानीं तेषां विस्तारं संस्थानं च निरूपयति Page #297 --------------------------------------------------------------------------  Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:३०९ ज्योतिलोकाधिकार २५५ वासना। अपस्योपस्य समुदस्य वा बलगण्यासं उभयविगतमेलनात हिगुणं स्थापयित्वा १६ला तपा ततोर्वाचीनानां बीपप्तमुबारा चलय म्यासं सगुणं द्विगुणं स्थापयेक्ष ८० लसम्प त्य विग्वयाभावावात्मप्रमाण मेय एल. स्थापयेत् । ततः व्यासान न्यासः । १६... ल... ल. गुणसङ्कलनार्थः। पत्र द्वितीयस्थाने शून्ये लक्षद्वयमृणं प्रक्षिपेव १६ल, दल, स०, ल०, १ला। एवंकृते साक्षिकगन्छोरपति भवति । सम्पधार्य रूपाहियपबदुगं संबगे" इत्युक्त । अत्र "परमेसे गुण्यारे" इत्यनेन पुगसङ्कलनसूत्रेण रूपाविरुपयमात्र विकसंवर्गणोल्पनराशा ३२ वेकरूपं प्राक् प्रक्षिप्त ऋणद्वयं बापनयेत । इयमेवावधायं तिलसविहोणे" स्युक्त। एवं कृते इष्टस्याने सूचीमासप्रमारणमुत्पद्यते ॥ ३०९ ॥ इच्छित द्वीप व समुद्र का सूची व्यास एवं वलय व्यास लाने के लिये करण सूत्र कहते हैं : गाथा - गच्छ के प्रमाण को एक जगह एक मङ्क ( गच्छ-१) होन और एक जगह एक अङ्ग अधिक ( गच्छ+t) कर स्थापित करने पर जो प्राप्त हो उतनी बार दो का संवर्गन कर अर्थात् उतनी बार दो का अङ्क रख कर परस्पर गुणा कर उसे पुनः एक लाख से गृणित करे, जो जो लम्ध प्राप्त हो उसमें से प्रथम स्थान के लब्ध में से शुन्य और द्वितीय स्थान के लन्ध में ले ३ लाख घटाने पर क्रम से वलय व्यास और सूची व्यास का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ।। ३०६ ॥ विशेषार्थ :- जम्बूद्वीप से कालोदक समुद्र चौथा है, और यही पार हमारा इष्ट गच्छ है । इसे एक हीन और एक अधिक कर स्थापित करना चाहिये । यथा वलय ध्यास =कालोदक समुद्र पर्यन्त द्वीप समुद्रों की संख्या ४-१ =३ सूची व्यास-कालोदक समुद्र पर्यन्त द्वीप समुद्रों की संख्या ४ + १-५ वलय व्यास-२२४ लाल-. अर्थात तीन का विरलन कर प्रत्येक एक के अङ्क पर दो दो दय देकर परस्पर गुणा कर जो लब्ध प्राप्त हो उसे एक लाख से मुणित कर लब्ध में से शून्य घटाने पर वलय व्यास का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। जैसे-१३ २०६४ १ लाख ८००००० &0000० - ६००००० ( आठ लाख ) बलम व्यास का प्रमाण प्राप्त हुआ। इसी प्रकार सूची व्यास :- ( पाँच का विरलन ) २२१३२-३२४१ लाख = ३२०८०-३००००० = २९००००० ( अन्तीस लाख) अथात् ११६०००००००० मील सूची व्यास का प्रमाण प्राप्त हुआ। वलय प्यास लाने के लिये वासना :--जम्बूद्वीप का व्यास एक लाख योजन प्रमाण है। इसके मागे लवणासमुद्रादि का ब्यास दूने दूने प्रमाण वाला है, इसी कारण एक कम गच्छ प्रमाण दो के अङ्ग स्थापित कर परस्पर में गुणा करने से जो लान प्राप्त हो उसको जम्बूद्वीप के व्यास से मुणिच Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ त्रिलोकसाथ गाथा ११० प्राप्त हो जाता है। इसीको मन में रख कर करने पर उस उस इष्ट स्थान का वलय व्यास गाथा में "ऊणपदमिद दुगसंवगे" ऐसा कहा गया है। सूचीव्यास प्राप्त करने के लिये वासना : ६ष्ट द्वीप या समुद्र के वलय व्यास को दुगुना करने से दोनों ओर का सम्मिलित वलय व्यास प्राप्त होता है । जैसे— कालोदधि के वलयष्यास ८ को द्विगुणित करने पर दोनों ओर का वलयव्यास ८x२= १६ लाख योजन प्राप्त होता है। इष्ट द्वीप या समुद्र से पूर्ववर्ती द्वीप या समुद्र के दोनों ओर के वलय-व्यास को प्राप्त करने के लिये उनका वलय व्यास भी दूना करना चाहिये। जैसे— कालोदधि से पूर्ववर्ती को खण्ड के या योजन का ना ४x२=८ लाख योजन ( दोनों ओर का वलयव्यास ) होगा। इसी प्रकार लवण समुद्र का दोनों ओर का वलयव्यास २९२ - ४ लाख योजन होगा। जम्बू द्वीप सबके बीच में है, उसके दो दिशाओं ( दो ओर के वलय व्यासों ) का अभाव है, श्रतः उसका व्यास १ लाख योजन ग्रहण करना चाहिये। इसके व्यास को दो से गुणित नहीं किया गया। दूसरे स्थान पर शून्य (०) रखना प्रातः कालोदधि के दोनों छोर तक का सूचीध्यास इस प्रकार है - १६ला० +९ला० + ४ला०++ १० = २६ ला योजन हुआ। द्वितीय स्थान पर शून्य के स्थानीय २ लाख ऋण रखना चाहिये, ऐसा करने से एक अधिक गन्न प्रमाण स्थान हो जाते है । ऐसा विचार कर गाथा में "हवाहि पद दुगंसवगे" अर्थात् एक अधिक गच्छ प्रमाण दो के अड़ों को परस्पर गुणा करना चाहिये ऐसा कहा गया है । "पदमेते गुग्गु मारे" इस गाथा २३१ के गुण सङ्कलन सूत्रानुसार, एक अधिक गच्छ प्रमाण दो के अङ्कों को परस्पर गुग्गा करने से जो राशि उत्पन्न हो उसमें से एक तथा पूर्व में ऋणरूप से रखे हुये २ अर्थात १ला० + २ला० = १ लाख को कम करना चाहिये । ऐसा निश्चय करके गाथा में "तिलवखविहीगां" अर्थात् तीन लाख कम करना ऐसा कहा गया है । उपयुक्त प्रकिया करने से विवक्षित द्वीप या समुद्र का सूची व्यास | प्राप्त हो जाता है । तथाभ्यन्तरमध्यमाह्मसूच्यानयने द्ददं करणसूत्रम्- लवणादीणं वासं दुगतिमदुगुर्ण तिलक्खूणं । बादिममज्झिमबाहिरम्हसि भणति भादरिया || ३१० ॥ लवणादीर्ना व्यासं द्विकफि चतुः सङ्गणं त्रिलक्षोनम् । मादिममध्यमासूची इति भरान्ति आचार्याः ॥ ३१० ॥ लवरा । लवण समुद्रादीनां मध्ये इष्टस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा वलयव्या द्विसङ्ग गं कृत्वा तत्र लक्षये शोषिते पम्यम्स र सूचीप्रमाणं भवति । तथाहि । विवक्षित वलय यास उभयविषसमनितः Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ३१. ज्योतिर्लोकाधिकार अर्वाचीनानां द्वीपसमुदाणा उभयविक्सअनिलवलपव्यासयुतेः सकाशात त्रिलक्षाधिको यतस्तत: विलक्षोन: उभयदिवस अनितो। विवक्षितवलयम्पास: प्रम्बसरसूचीप्रमाण मित्यभिप्रायः । विक्षितवलयव्यासं त्रिप्तगुणं कृत्वा तत्र लक्षत्रये शोषिते मध्यमसूचीप्रमाणं भवति । तथाहि। विवक्षितस्य दीपस्य समुद्रस्य वा वलयच्यासो द्विगुणितस्त्रिलोनश्चेत् सवा सदभ्यन्तरसूचोप्रमाणं भवति यतस्तत: कारणाव स्मिनभ्यन्तरसूचीप्रमाणे विवक्षिसयलयब्यासमध्यात्तस्य विदयगतस्य विषक्षितवलयव्यासप्रमाणस्याम्यधिकत्वात् मध्यमसूचीप्रमाणं त्रिगुणितविलक्षोनविवक्षितवलपम्यासप्रमिसमिति भावः । विषक्षितवलयव्यासं चतुर संगुणं कृत्वा पत्र लक्षत्रये शोषिते वाह्यसूचीप्रमाणं भवति । सपाहि । यतो निगुशिसत्रिलोनविवक्षितवलयव्यासप्रमिते प्रम्यन्तरसूचीप्रमाणे विवक्षितवलयन्यासस्य बिग्यासस्य प्रक्षेपणात बाह्यसूत्रीप्रमाणमुत्पद्यते ततः कारणाद पतुरिणतत्रिलक्षोनविवक्षितषलमपासप्रमिता बाह्यसूचीत्याचार्याभिप्रायः ॥ ३१० ॥ अभ्यन्तर मध्य और गाह सूजी प्राप्त करने के लिए काम :-.. गाथार्य :-लवण समुद्रादि द्वीप समुद्रों के घलय व्यास को दो, तीन और चार से गुणित करने पर जो जो लब्ध प्राप्त हो उसमें से तीन तीन लाग्न घटा देने पर जो जो अवशेष रहे वही कम से सम्यन्तर, मध्य और बाह्य सूची के व्यास का प्रमाण होता है, ऐसा प्राचार्य कहते हैं ।। ३१० ॥ विशेषार्ष:-लवरण समुद्रादि में से जिस द्वीप या समुद्र का सूचीव्यास ज्ञात करना इश हो उस के वलयव्यास को दो से गुणित कर प्राप्त लब्ध राशि में से ३ लाख घटाने पर मभ्यन्तर सूचीव्यास का प्रमाग प्राप्त हो माना है। विवक्षित द्वीप या समुद्र के बीच में, विवक्षित द्वीप या समुद्र से पूर्ववर्ती जितने भी द्वीप या समुद्र हैं, उन सबके दोनों ओर के वलयच्यासों को जोड़ने से जो प्रमाण प्राप्त होता है, उससे विवक्षित दीप या समुद्र का दोनों ओर का वलयव्यास तीन लाख योजन अधिक होता है, इसलिये दोनों ओर के विवक्षित वलयन्यास में से तीन लाख योजन कम करने से अम्पान्तर सुचीन्यास का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। विवक्षित वलयव्यास को तीन से गुरिगत वर तीन लाख घटाने पर मध्यम सूचीव्यास का प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि विवक्षित द्वीप या समुद्र के वलयव्यास को दुगुणा करके तीन योजन घटाने से अभ्यन्तर सूची व्यास होता है, उस अभ्यन्तर सूचीव्यास में दोनों दिशाओं के विवक्षित बलयब्यास के अधं प्रधं भाग को मिलाने से एक ओर का सम्पूर्ण वलयल्यास अधिक हुआ, अतः विवक्षित वलयव्यास को तिगुना करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें से ३ ला० योजन घटा देने पर विवक्षित मध्य चलयभ्यास का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। विवक्षित वलयव्यास को चार से गुणित कर तीन लाख योजन घटा देने पर बाह्य सूचीव्यास का प्रमाण प्राप्त होता है । तथा-विवक्षित वलयभ्यास के दुगुने में से तीन लाख यो घटा देने पर Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५.८ त्रिलोकसार गाचा । ३११ अस्पश्वर सुचीव्यास होता है, उस अभ्यन्तर सूची में दोनों दिशा सम्बन्धी वलयव्यास अथवा दुगुना वलय व्यास मिलाने से बाह्य सूची का प्रमाण होता है, इसीलिये विवक्षित वलयव्यास के चौगुने में से तीन लाख योजन घटा देने पर बाह्य सूचीत होता है आचार्य का ऐसा अभिप्राय है । अर्थात् अभ्यन्तर सूची ( २४ वलयन्यास - ३ ला० + २ बलयव्यास, बाह्य सूची व्यास के बराबर है । अथवा ४ x वलय व्यास - ३ लाख बाह्य सूचोज्याम जैसे :- कालोदधि का वलयच्यास ८ लाख योजन है। इसको दो से गुणित करने पर ( २ ) = १६ लाख प्राप्त हुये, मत: १६ ला०- ३ ला०- १३ लाख फालोदधि का अभ्यन्तर सूची व्याम हुआ । ८ लाख ४३ लाख = २४ लाख - ३ला० = २१ला• कालोदधि का मध्यम सूची ब्यास हुआ और ८ लाख × ४ लाख = ३२ लाख - ३ला० = २९लाख कालोदधि का बाह्य सूची व्यास हुआ। अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य परिधि का चित्रण अथोक्तसू दोश्यासमाश्रित्य तत्त क्षेत्रवाद र सूक्ष्मपरिधि तत्तद्वाद रसूक्ष्मक्षेत्रफलं चानयति तिगुणियवासं परिही दद्दगुणवित्थारवग्गमूलं च । परिद्दिदवासतुरियं चादर सुहूमं च खेत्तफलं ।। ३११ ।। त्रिगुणितव्यासः परिधिः दशगुण विस्तारवर्गमूले च परिधितव्यामतुरीयं बादरं सूक्ष्मं च क्षेत्रफलम् ॥ ३११ ।। १ x १ x१० सिलिय । त्रियुपिलध्यासो वावरपरिषिः ३ ल० वशगुणविस्तारवर्गः तस्मिन् मूले गृहीते सूक्ष्मपरिषिः योजन ३१६२२७ तच्छेष योजनभागं ४८४४७१ चतुभिः संगुष्य कोश कृत्या १९३७८८४ पूर्वमाहारेण ६३२४५४ भागे कृते हो० ३रकोश शेषं ४०५२२ सहस्रमेन २००० संगुष्प वण्डान् विधाय ८१०४४००० प्रातन भागहारेण भक्त तस्मिन् वण्डाः स्युः १२८ तद्दण्यशेषं चतुभिः हस्ते कृते ३५१५५२ भागाभावास चतुविशश्वंतुसं कृत्वा ५६२९२४८ प्राक्तन हारे भक्त तस्मिन् गुलानि स्युः १३ सवंगुलशेषं ४०७३४६ यावद्रभागेन प्रपर्यात साबिक साव मागेत समारोप ६३२४५४ प्रत्यपवर्त्यते चेत् द्वे भवतः । एवं सति साधिका भवति । तत् योजनादिकं सर्व + सूक्ष्मपरिधिः स्थूलपरिषिता ३ ल० ग्यास १ ल० चतुमशिन २५००० हतो ७५०००००००० जम्बूद्वीपस्य बादरक्षेत्रफलं स्यात् । इवानों योजनरूपसूक्ष्मपरिधि ३१६२२७ व्यासचतुर्थांशेन २५००० गुणयित्वा ७६०५६७५००० प्रत्रंव कोशलक्षएसूक्ष्मपरिषि क्रो० ३ सेमेव २५००० संगुण्य ७५००० चतुर्भागित : : 4 I ! 1 1 | Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ३११ ज्योतिलोकाधिकार २५३ योजनं कृत्वा १८७५० मेलयेत् ७९०५६९३७५. भव पुनर्वण्डलक्षणसूक्ष्मपरिषि १२८ सेमव २५००० संगुष्य ३२००००० प्रष्टसहस्रभागेन योजनं कृत्वा ४०० मेलयेव ७६०५६६४१५० मंगुललाएं सूकम्परिधि १३ई समच्छेवनान्योन्यं मेलपिबा वाम्यां सियंगपतितपञ्चविंशतितहरण २५०० गुणमित्या ३३७५०० तस्मिन् कोषांगुलेन १९२००० भक्त लामिकक्रोशो भवति । एतरसव जम्बूद्वीपस्य सूक्ष्मक्षेत्रफल स्थाव। एवमेव सर्वेषो दोपसमुदाणां च स्थूलसूक्ष्मक्षेत्रफले चानेतध्ये ॥ ३११ ॥ पूर्वोक्त सुचीव्यास का आश्रय करके उस उस क्षेत्र की बादर सूक्ष्म परिधि और बादर सूक्ष्म क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिए करण सूत्र कहते हैं: ___ गाथाभ :-चादर परिधि, व्यास की निगुनी होती है। न्यास का वर्ग कर उसको दश से मुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसका वर्गमूल निकालना चाहिए। वर्गमूल स्वरूप प्राप्त अंक ही सूक्ष्मपरिधि का प्रमाण है। बादर परिधि को बाह्य सूची व्यास के चोथाई (1) भाग से गुरिणत करने पर बादर क्षेत्रफल होता है, और सूक्ष्म परिधि को बाह्य सूची व्यास के चौथाई भाग से गुणित करने पर सूक्ष्म क्षेत्रफल होता है ।। ३११ ॥ विशेषाय :-बादर परिधि. व्यास की तिगुनी होती है। जम्बूद्वीप का व्यास एक लाख योजन प्रमाण है, अतः १ लाख ४३ = ३ लाख जम्बूद्वीप की बादर परिधि का प्रमाण है । सूक्ष्म परिधि :-व्यास का वर्ग कर दश से गुणित करना, तथा उसका वर्गमूल निकालना जो लब्ध प्रा हो वही सूक्ष्म परिधि का प्रमारण है । जैसे:-जम्बुद्वीप का ध्यास १ लाख योजन है, अतः १ ला.'- एक हजार करोड़ वर्ग योजन अर्थात् १००.००x१०००००-१००००००००० एक हजार करोड़ या दा अरब वर्ग योजन हुआ। इस एक हजार करोड़ योजन में १० का गुणा करने पर (१०००००००००० x १० = १००००००००००० दश हजार करोड़ ) अथवा एक खरब वर्ग योजन प्रार हुआ। इस एक खरब वर्ग योजन का वर्गमूल निकालने पर ३१६१२७ योजन प्राप्त हुए, और ४८४४७१ योजन शेष रह । इनको चार से गुणित करने पर ( ४८४४७१४४)=१९५७८८४ कोश प्राप्त हुए इसमें पूर्व भागहार का भाग देने पर (१९३७८८४६३२४५४) =३ कोश प्राप्त हुए और४०५२२ शेष रहे। इन ४०५२२ को २००० से गुणित करने पर ( ४०५२२४२०००)=८१.४४००० धनुष या दण्ड प्राप्त हुए । इनमें पूर्वोक्त भागहार का भाग देने पर (१.४४००. ६३२४५४ )=१२८ दण्ड लब्ध आया और ८६८८८ धनुष शेष रहे। इन ८९८८८ को चार से गुणा करने पर ( ८६८६x४)३५९५५२ हाथ प्राप्त हुए। इनमें पूर्वोक्त भागहार का भाग नहीं जाता, अतः २४ का गुणा करने पर { ३५९५५२ ४२४ )=८६२९२४८ अंगुल हए । इनमें पूर्वोक्त भागहार का भाग देने पर ( ८६२९२४८ ६३२४५४ )=१३ अंगुल हुए और ४००३४६ अंगुल अवशेष रहे। इन ४०७३४६ अंगुल भाज्य को ३१६२२७ संख्या मे अपवर्तित करने पर साधिक एक अङ्क पाता है और ६३२४५४ भाजक को Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० त्रिलोकसाच पाथा : ३१२ ३१६२२७ संख्या से अपवर्तित करने पर २ अस झाते हैं, शामिया ३ प्रात मा ( साधिक १३३)। जम्बुद्रोप की राक्षम परिधि ३१६२२७ योजन ३ कोश १२८ धनुष साधिक १२: अंगुल प्रमाण हुई। स्थल क्षेत्रफल :-स्थल परिधि को व्यास के चौथाई से गुणित करने पर स्थूल क्षेत्रफल होता है । जम्बूद्वीप को स्थूल परिधि तीन लाख योजन को व्यास के चतुर्थ भाग अर्थात् २५००० से गुणित करने पर ( ३००.०० ४ २५०००)= ७५.००...... सात सौ पचास करोड अर्थात् सात अरब पचास करोड़ वर्ग योजन जम्बूद्वीप का स्थल क्षेत्रफल प्राप्त हुआ। सक्ष्म क्षेत्रफल :--सक्षम परिधि में व्यास के चौथाई का गुणा करने से सूक्ष्म क्षेत्रफल प्राप्त होता है। जैसे :- सूक्ष्म परिधि ३१६२२७ योजन, ३ कोश, १२८ घनुष, साधिक १३, अंगुल x २५.०० यो० ( व्यास का चतुथं भाग)। ३१६२२७ ४ २५००० योजन= ९.५६७५००० योजन । ३ कोश x २५००० योजन =७५००० कोश + ४ = १८७५० योजन । १२८ दण्ड ४२५००० योजन = ३२०००.० २०००=१६०० कोश : ४= ४०० योजन १३३ अर्थात् ३१४ २५००० ---३३७५०० अंगुल = कोश १५१५ धनुप २ हाथ और १२ अं० अथवा ३३७५०० - १९२०.० अंगुल = साधिक १ कोश । ७९०५६७५०००+१२५०+४०० =७९०५६९४१५० योजन १ कोश १५१५ घनुष, २ हाथ और १२ अंगुल जम्बूद्वीप का मम क्षेत्रफल हा। इसो प्रकार सर्व द्वीप समुद्रों का स्यूल और सूक्ष्म क्षेत्रफल निकाल लेना चाहिए। मथ जम्बुद्वीपस्य सूक्ष्मपरिधे। सिद्धाङ्कमुच्चारयति जोयणमगदुदु बक्किमि तिदयं तिक्कोममगि दंडो। अहियदलंगुलतेरस जंबुए सुहुमपरिणाहो ॥ ३१२ ।। योजनानां सप्ततिति षडेक त्रयं त्रिकोशा अष्टद्वयं के दण्डाः। अधिकदलांगुल त्रयोदश जम्बो सूक्ष्मपरिणाहः ॥ ३१२ ॥ जोमण। योजनानां सप्ततितिषलेकत्रया त्रयः कोशाः मष्टाय के दण्डाः पषिकदलानि प्रयोदशगुलानि एतत्सर्व जम्बूद्वीपस्य सूक्ष्मपरिषिप्रमाणं भवतियो० ३११२२७, को-३, २०१२८, ० १३५ ॥ ३१२ ॥ जम्बूद्वीप की सूक्ष्म परिधि के सिद्धाङ्क कहते हैं गाथार्ष :-( सप्त ) ७ (द्वि) २ (द्वि) २ ( षड ) ६ ( एक ) १ ( त्रयं ) ३ अर्यात ३१६२२४ योजन, ३ कोश, १२८ धनुष और साधिक १३६ पंगुल जम्बूद्वीप की सूक्ष्मपरिधि का प्रमाण है ॥३१२।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा। ३१५-३१४ ज्योतिलॉकाधिकार २५१ अथ तरक्षेत्रफलस्य सिद्धांक मुझचारयति पण्णासमेक्कदालं णव छप्पण्णाससुण्णणयसदरी । साहियकोसं च हवे अंबदीपस्स सुहुमफलं ।। ३१३ ।। पञ्चाशदेकत्वारिशन्नवपट् पञ्चाशच्छ्न्यं नवसप्ततिः । साधिकको शश्च भवेजम्बूद्वीपस्य सूक्ष्मफलम् ॥ ३१३ ।। पएणशावामागी ... १४२५ मालिक कोश १ ॥ ३१३ ॥ इसो जम्बूद्वीप के मक्ष्म क्षेत्रफल के सिद्ध हुए अंक कहते हैं : गाथार्थ :-७९०५६९४१५० योजन और साधिक एक कोपा जम्बुद्वीप के सूक्ष्म क्षेत्रफल का प्रमाण है 1॥ ३१३ ॥ अथ जम्बूद्वीपस्य परिधिमाधार कृत्वा विवक्षितपरिध्यानयने करणसूत्रमिदम - जंग उभयं परिही इच्छियदीउवहिसह संगुणिय । जंववासविभत्ते इच्छियदीउवहिपरिही दु ।। ३१४ ॥ जम्बूभयं परिधो इच्छितद्वीपोदधिसूच्या सगुण्य । जम्बूब्यासविभक्त ईप्सितद्वीपोदधिपरिवी नु ॥ ३१४ ॥ जंबू । जम्बूद्वीपस्योभमपरिधी म्यूल ३ ल. सूक्ष्म पो. ३१६२२७ को०३० १२८ पंगुल १३ भादप्सितदीपोरधिसूच्या लवणे ५ ल० धातकोखणजे १३ ल. संगुष्य १५ ल. ल. स्पू० १५८११३६ ल.ल. सूक्ष्मजम्बूग्यासविभक्त १५ ल०। १५८११३६ ल• ईप्सितद्वीपोध्योः परिधी भवतः ॥३१४ ॥ जम्बूद्वोप की परिधि का आधार करके विवक्षित परिधि लाने के लिये करणसूत्र :-- गापार्ष:--जम्बद्वीप की स्थूल एवं सूक्ष्म परिधि को विवक्षित द्वीप अथवा समुद्र के सूचीव्यास से गुणित कर जम्बूद्वीप के व्यास का भाग देने पर विवक्षित द्वीप एवं समुद्र को स्थूल एवं मुक्ष्म परिधि होती है ॥ ३१४ ।। विशेषाएं :-जम्बद्वीप की स्थूल परिधि तीन लास्न योवन और सक्षम परिधि ३१६२२७ योजन, ३ कोश, १२८ धनुष और साधिक १३३ अंगुल है, तथा लवणसमुद्र और धातकी खण्ड विवक्षित समुद्र एवं दीप हैं। लवण समुद्र का सूची व्यास ५ लाख योजन है, अतः ३ ला.४५ ला १५ ला ला योजन हये, इसमें जम्बद्वीप के व्यास का भाग देने पर { १५ ला ला.१लाख )- १५ लाख योजन लवए Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ त्रिलोकसार गाथा । ३१५ समुद्र की स्थूल परिधि का प्रमाण हुआ। जम्बाप की सूक्ष्मपाराध ३१६२२७ यो० ३ कोश १२८ घ० १३३ अंगुल ४५ ला० लवणसमुद्र का सूची व्यास : १ लाख जम्बूदीप का व्यास=१५८११३८ योजन ३ कोश ६४० धनुष, २ हाथ और १९३ अंगुल लवण समुद्र की सूक्ष्म परिधि का प्रमाण प्राप्त हृमा । धातको स्पष्ट का सूची व्यास १३ ला है, अतः ३ ला १३ ला १ लाख = ३९ लाख घातकी म्वण्ट की स्थूल परिधि का प्रमाण हा 1 जम्बूद्वीप की सूक्ष्म परिधि ३१६२२७ यो०, ३ कोश. १२८ धनुष, १३३ अंगुल ४ १३ लाख (घातको खण्ड का सूची व्यास ): १ लाख जम्बद्वीप का व्यास ४११०६६. योजन ३ कोश १६६५ धनुष ३ हाथ और ७, अंगुल घातको खण की सूक्ष्म परिधि का प्रमाण प्राप्त हुआ। इदानीमुभयक्षेत्रफलमानयति अंताइइजोगं कंदद्ध गुणित्त दुप्पडि किच्चा। तिगुण दमकणिगुणं बादरसुहमं फलं वलये ।।३१५।। प्रतादिसूचियोग रुद्रार्धेन गुणयित्वा द्विः प्रति छत्वा । त्रिगुणं दशकरणि पुग्णं बादरसूक्ष्मं फलं बलये ॥ ३१५ ॥ - अंताइ । लबरणमालाविसूच्योः ५ ल० १ ल. योगं ६ ल० जनार्धन १ ल. गुणयिस्वा ६ ल० ल. द्विप्रति कृत्वा ६ ल. ल., ६ ल० ल०, एक विगुणितं १८ ल. ल०, अपरं दशकररिणगुरिगत चेत ६ ल. ल.६ ल० स० १ बावरसूक्ष्मकले भवतः । स्थूल १८ ल. ल. सूक्ष्म १८६७३६६५६६१० घलएवृत्त क्षेत्रे ॥ ३१५ ॥ स्थूक और सूक्ष्म क्षेत्रफल लाने के लिए करण सत्र :--- गाथार्थ :-अन्त मची और मादि सची को जोड कर अधरुन्द्रन्यास से गुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसे दो जगह स्थापित कर एक स्थान के प्रमाण को तिगुना करने से बादर क्षेत्रफल का प्रमाण प्राप्त होता है, तथा दूसरे स्थान के प्रमाण का वर्ग कर जो लक्ष्य प्राप्त हो उसको दश से गुणित कर गुणनफल का वर्गमूल निकालने पर जो लब्ध प्राप्त होता है वह सूक्ष्म क्षेत्रफल का प्रमाण है ।। ३१५ ।। विशेषाम् :-लवण समुद्र की अन्तसूची पति बाह्य सपोव्यास ५ लाख योजन है, और बादि सूची अर्थात् अम्यन्तर सत्री व्यास १ लाख योजन है, इन दोनों का जोड़ (५१-६ लाख योजन हुआ । लवण समुद्र का सन्द्रव्यास दो लाख योजन का है, इसका आधा { २x६)=१ लाख योजन हुआ। इस १ लाख मे ६ लाख को गुरिणत करने पर ( ६ लाख १ लाख)-६ लाख लाख Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाष।। ३१६ ज्योतिर्लोकाधिकार २६३ प्राप्त हुए। इसे ६ लाला , ६ ला ला इस प्रकार दो जगह स्थापित कर एक जगह के प्रमाण को तिगुना करने से ( ६ ल x ३ ) - १८ ला ला अर्थात् १५ हजार करोष्ठ योजन लवए समुद्र के बादर क्षेत्रफल का प्रमाण प्राम हुआ। मूक्ष्म क्षेत्रफल :-दूसरे स्थान के प्रमाण ६ ल ल का वर्ग करने पर ६ ल ल ४६ ल ल हुए। इन को १० मे गुणित करने पर ६ ल ल ४६ ल ल x१. अर्थात् ३६ कोडाकोड़ी करोड़ ( ३६०००००००००००.०.0000000 ) योजन प्राप्त हुए । इनका ( V३६ कोडाकोडी करोड़) वर्गमूल १८९७३६६५६६१० योजन अर्थात् अलारह हजार नौ सौ तिहत्तर करोड़ छयासठ लाख, उनसठ हजार छह सौ वश योजन लवर समुद्र के सूत्र क्षेटफ होता है। अब जम्बूझोपप्रमाणेम लवणसमुद्रादीनां खण्यापानति बाहिरसूईवग्गं यन्मंतरमूइयग्गपरिडीण। जंववामविभच तत्तियमेत्ताणि खण्डाणि ||३१६|| बाह्य सूचीवर्गः अभ्यन्तरसूचियर्गपरिहीनः । जम्बूव्यासविभक्तः तावन्मात्राणि खण्डानि ॥ ३१६ ।। बाहिर । बाह्यसूचीवर्गः २५ लाल, पम्यन्तरसूची १ ल• वर्गः १ ल. १ ल• परिहीन २४ ल. ल. जम्ब्यासेन वर्गराशिस्वात्मिकेन १ ल.स. विभक्ताचवागतानि ताम्मात्रलामि २४ ॥ ३१६ ॥ लक्रासमुद्रादिकों के जम्बद्वीप प्रमाग वण्ड लाने के लिये करणसत्र : पाया। बाद मची व्यास के वर्ग में से अभ्यन्तर सनी व्यास का वगं घटाने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें जम्बू द्वीप के व्यामा के वर्ग } का भाग देने पर जो प्रमाण प्रा होता है, लवण समुद्र के जम्बद्वीप सदृश उतने ही खण्ड होते हैं ।। ३१६ ।। विशेषार्थ :--लवण समुद्र को बाह्य सूची का प्रमाण ५ लाख योजन है, इसका वर्ग (५ लाख ४५ लाख )=२५ ला ला योजन होता है। इसी समुद्र की अम्यन्तर सूची १ लाख योजन है. जिसका वर्ग । १ लाx१ ला)- १ ला ला योजन होता है, इसे बाह्य सूची व्यास के वर्ग में से घटा देने पर ( ९५ ला ला ला ला )- २४ ला ला अवशेष रहे। "वर्ग राशि का गुणकार एवं भागहार वगं स्वरूप ही होता है" इस नियम के अनुसार जम्बूद्वीप के १ लाख योजन ध्यास का वर्ग (१ लाxt ला )=1 ला ला होता है । इसका उपयुक्त प्रमाण ( २४ ला ला ) में भाग देने पर Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ( त्रिलोकसाथ पाया : ३१७ 1-) मात्र २४ लब्ध प्राप्त होता है, अतः सिद्ध होता है कि यदि लवण समुद्र के जम्बूद्वीप २४ ला ला १ लाला बराबर टुकड़े या खण्ड किये जाय तो २४ खण्ड होंगे । अथ प्रकारान्तरेण खम्मानमने गाथात्ममाह रूऊणसला बार मसलागगुणिदे दुबलय खंडाणि | बाहिर लागा कदी तदंताखिला खंडा || ३१७ ॥ रूपोनशला द्वादशशलाकगुणितास्तु वयखण्डानि । बालिका कृतेः तदन्ताखिलानि खण्डानि ।। ३१७ ।। करण लयव्यासलवारा: ur शलाका इत्युच्यन्ते । लवले तसपोणशलाका: १ द्वादशभिः १२ शलाकाभ्यां च २ गुणिता २४ वलयखण्डामि। बाह्यसूचीशलाका कृतेरेव २५ तवन्ताखिलानि खण्डानि स्युः ॥ ३१७ ॥ अब प्रकारान्तर से लण्ड करने के लिये दो गाथाए कहते हैं : गायार्थ :- एक कम शलाका के प्रमाण को बारह से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको पालाका के प्रमाण से गुणित करने पर जम्बूद्वीप सहा गोल खण्ड प्राप्त होते हैं, तथा बाह्य सूची शलाका का वर्ग करने पर जो लब्ध प्राप्त होता है वहीं सम्पूर्ण ( जम्बूद्वीप से प्रारम्भ कर लब समुद्रपर्यन्त) खण्डों का प्रमाण होता है ।। ३१७ ॥ विशेषार्थ : - विवक्षित द्वीप या समुद्र का वलयध्यास जितने लाख योजन होता है, उतना ही उसकी शलाकामों का प्रमाण कहलाता है । लवग् समुद्र का बलबव्यास दो लाख योजन प्रमारग है, अतः लवणसमुद्र की दो शलाकाएं हुई। एक कम शलाका में १२ का गुणा कर गलाकाओं का गुणा करना है, अतः २–१= १x१२ = १२x२ शलाकाएँ " = २४ लवण समुद्र के जम्बूद्वीप बराबर २४ स्वण्व होते हैं । बाह्य सूची क्यास का प्रमास जितने लाख होता है, उतना ही उसकी सूची शलाकाओं का प्रमाण होता है । लवण समुद्र की बाह्य सूची वालाकाओं का प्रमाण ४ है, इसका वर्ग ( ५×५ ) = २५ हुआ । जम्बूद्वीप से लवण समुद्र पर्यन्त क्षेत्र के यही २५ खण्ड होते हैं । इनमें एक खण्ड स्वरूप जम्बूद्वीप है, और २४ खण्ड ( अम्बूद्वीप के बराबर । लवण समुद्र के हो सकते हैं । अन्यत्र भी ऐसा ही जानना Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ३१८-३१९ ज्योतिर्लोकाधिकार बाहिरसई वलयच्या सूना चउगुणिवासहदा | इगिलगभजिदा जंबूममवलयखंडाणि | | ३१८ ।। बाह्यसूची वलयभ्यासोना चतुगु रितेिष्टव्या सहता । एकवर्गमा जम्बूसमवलयखण्डानि ॥ ३१८ ॥ बाहिर । सतवाह्यसूची ५ ल, बलवध्यासो ( २ ) नाइल, चतुर्भुते (मल) व्यावहता २४ ल० ल० एक लक्ष वर्ग १ ल० स० भक्ता २४ जम्बूसमबलयखण्डानि एवं घातकीखण्डादिषु सर्वत्र प्राक्तमगाथापक विधानं ज्ञातव्यम् ॥ ३१८ ॥ ३४ गवार्थ:- बाह्य सूची व्यास के प्रमाण में से वलयन्यास का प्रमाण घटा कर शेष प्रमाणु को चोगुने बलयव्यास से गुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें एक लाख के वर्ग का भाग देने पर जम्बूद्वीप के प्रमाण बराबर गोल खण्डों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ।। ३१८ ॥ २६५ विशेषार्थ :- विवक्षित द्वीप या समुद्र को बाह्य सूची में से उसीके वलयव्यास का प्रमाण चटाकर चोगुने वलयध्यास से गुणित कर १ लाख के वर्ग का भाग देने पर उसी विवक्षित द्वीप या समुद्र के जम्बूद्वीप सदृश गोल खण्ड प्राप्त हो जाते हैं। जैसे :-- लवण समुद्र विवक्षित है। इसका बाह्य सूचीव्यास ५ लाख योजन और वळयव्यास दो लाख योजन है । ५ लाख - २ लाख ३ लाख योजन शेष रहे। चौगुना व्यास अर्थात् २४४८ लाख का गुणा करने पर ( ३३४८ ल ) = २४ लx ल अर्थात् चौबीस हजार करोड़ प्राप्त हुये। इसमें एक लाख के वर्ग (१ल x १३ ) - १० x अर्थात् एक हजार करोड़ का भाग देने पर (१४ खण्ड प्राप्त हो जाते है। अथवा ३ ला ला÷ १ लल) १ ला × १ ला (२४) २४ प्राप्त हुये । लवण समुद्र में जम्बूद्वीप सहा २४ खण्ड प्राप्त होते है । इसी प्रकार बातकी खण्ड आदि में सर्वत्र पूर्वोक्त ५ गायामों द्वारा कथित विधानानुसार ही खण्ड करना चाहिये | २४ व ल अमोदधीनां रसविशेषमाह - वर्ण वारुणितियमिदि कालदुगंतिमसयंभुरमण मिदि । पचेयजलवादा अवसेसा होंति इच्छुरसा || ३१६ ।। लवणं वारुणित्रयमिति कालद्विकमन्तिमस्वयम्भूरमणमिति । प्रत्येकजलस्वादा अवशेषा भवन्ति इक्षुरसाः ॥ ३१९ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ त्रिलोकसार गाया : ३२० लवणं । लवणसमुद्रः वारुणिवरक्षीरवरघृतवरा इति त्रयश्चेति चत्वार: कालदेवकपुष्करवशन्तिमस्वयम्भूरमण समुद्रा इति प्रयश्च यथासंख्येन प्रत्येकजलस्वावयः स्वनामानुगुणस्थावव इत्यर्थः जलस्वावथः । श्रवशिष्टाः प्रसंख्यातसमुद्रा क्षुरसस्वादयो भवन्ति ॥ ३१६ ।। समुद्रों के रस विशेष गुड़ों कहते हैं। गाथा :- लवण समुद्र और वारुणी वर आदि तीन समुद्रों के जल का स्वाद अपने अपने नाम सदृश है । कालोदक आदि दो और अन्तिम स्वयम्भूरमण ( इन तीन ) समुद्रों के जल का स्वाद जल सहश है, तथा अवशेष समुद्रों के जल का स्वाद इक्षु रस के स्वाद सदृश है ।। ३१६ ।। विशेषा:- प्रथम लवण समुद्र, चतुर्थ वारूणीवर समुद्र, पांचवां क्षीरवर और छठव घृतवर समुद्र इन चार समुद्रों के जल का स्वाद अपने अपने नाम के अनुसार ही है। फालोदक ( दूसरा ), तीसरा पुष्करवर और अन्तिम स्वयम्भूरमण इन तीन समुद्रों के जल का खाद जल सहया है, तथा शेष समुद्रों के जल का स्वाद इक्षुरस के सदृश है । अथ तेषु जीवानां सम्भवासम्भव सकारगामाह- जलयरजीवा लवणे काले यतिमभूरमणे य । कम्ममोपविण हि सेसे जलयरा जीवा || ३२० ।। जलचरजीवा लवणे कालेऽन्तिमस्वयम्भुरमणे च कर्म महीप्रतिबद्ध न हि शेषे जलचरा जीवा ।। ३२० ।। जलयर। जलचरजीवा लवणसमुझे कालोबकसमुद्र प्रतिमस्वयम्भूश्मलसमुद्र कर्ममहो प्रतिबद्धत्वादति । शेषेषु न हि जलचरा जोषाः ॥ ३२० ॥ समस्त समुद्रों में जलचर जीवों का सम्भव असम्भवपना कारण सहित कहते हैं :--- गाथायें :- लवण समुद्र, कालोदक समुद्र और अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र में जलचर जोच पाये जाते हैं, क्योंकि ये तीन समुद्र कर्मभूमि सम्बन्धी हैं। शेषं समुद्रों में जलचर जीव नहीं होते ।। ३२० ।। विशेषार्थ : – कर्मभूमि से सम्बन्ध होने के कारण लवण समुद्र, कालोदक समुद्र और अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र में जलचर जीव पाये जाते हैं। भोग भूमि में जलचर जीव नहीं होते और शेष समुद्र भांगभूमि सम्बन्धी है, अतः उनमें जलचर जीव नहीं पाये जाते । झं Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया । ३२१ ज्योतिर्लोकाधिकार अथ स्थाननिर्देशेन समुद्रश्रयावस्थितमत्स्यानां देहावगाहनमाह - १ लवणदुर्ग तमुद्दे नदी हुब हिम्हि दीड व दुगुणं । दुगुणं पणसय दुगुणं मच्छे वासुदयमद्भकमं ।। ३२१ ।। द्विकान्यसमुद्र नदीमुखोदषों दध्यं नव द्विगुणं । विपन्ये व्यासोदयो अर्धक्रमी ।। ३२१ ।। २६७ लव लव लवरकालोकयोः पन्यसमुद्र व नवोप्रवेशमुखे उदधीच समुद्रमध्ये च यथासंख्यं लवगोवके मरस्यवैध्यं नवयोः सद्विगुणं १८ कालोद के तथोद्विगुणं १८ । ३६ स्वयम्भुरमले पतं ५०० तद्विगुणं १००० महस्वस्यासोदयो तत्तवर्षार्धक्रमो भवतः ॥ ३२१ ॥ अब स्थान का निर्देश करके तीन समुद्रों में रहने वाले मत्यों के शरीर को अवगाहना कहते हैं : गायें - लवण समुद्र, कालोदक समुद्र और अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्रों के नदी मुख पर और मध्य में मत्स्यों के शरीर की लम्बाई क्रम से नव योजन और द्विगुणं अर्थात् अठारह योजन है । अठारह योजन और छत्तीस योजन है, तथा ५०० योजन और हजार योजन है । लम्बाई का अर्ध प्रमाण चौड़ाई (व्यास) और चौड़ाई के अर्थप्रमाण उदय ( ऊंचाई ) है ॥ ३२१ ।। विशेषार्थ :- नदी प्रवेश करने वाले समुद्रतट को नदीमुख कहते हैं। लवण समुद्र, कालोदक समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्रों में रहने वाले मत्स्यों के शरीर की अवगाहना :- लवण समुद्र के तट ( नदीमुख ) पर रहने वाले मत्स्यों के शरीर की लम्बाई ९ योजन ( ७२ मील), चौड़ाई ४३ योजन ( ३६ मील), और ऊंचाई २ योजन ( १८ मील) प्रमाण है, तथा लवण समुद्र के मध्य में रहने वाले मत्स्यों के शरीर को लम्बाई १८ योजन ( १४४ मील), चोड़ाई ९ योजन ( ७२ मील), और ऊंचाई ४३ योजन (३६ मील ) है | लोक समुद्र के तट पर रहने वाले मत्स्यों के शरीर की लम्बाई १८ योजन ( १४४ मील ), चौड़ाई ९ योजन ( ७२ मील) और ऊंचाई ४३ योजन ( ३६ मोल ) है । इसी समुद्र के मध्य में रहने वाले मरस्यों की लम्बाई २६ योजन (२८० मील), चोड़ाई १८ योजन ( १४४ मील) और ऊंचाई ९ योजन ( ७२ मोल ) हैं । स्वयम्भूरमण समुद्र के तट पर रहने वाले मत्स्यों के शरीर की लम्बाई ५०० योजन (४००० मोल ), चौड़ाई २५० योजन (२००० मील) और ऊंचाई १२५ योजन (१००० मील ) है । इसी समुद्र के मध्य में रहने वाले मरस्यों के शरीर की लम्बाई १००० योजन ( ८००० मील ), चोड़ाई ५.०० योजन ( ४००० मोल ) और ऊँचाई २५० योजन ( २००० मील ) है | Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ त्रिलोकसार गाथा : २२-३२३ साम्प्रतं मनुष्यक्षेत्रतरविभागस्य कर्मभोगभूमि विभागस्य च सीमानमानयलोः पर्वतयोः स्वरूपं निरूपयन तद्विभागमेव समर्थयित गायात्रयमाह पुक्खरमयंभुरमणाणद्वे उत्तरमयंपदा सेला । कुंडलरुचगद्ध वा सच्चं पुण्यं परिक्खिधा ।।३२२।। पुष्करस्वयम्भुरम गयोरर्धे उत्तरस्वयंप्रभो शैली । कुण्डल रुचकाध वा सर्वे पूर्व परिक्षिप्ता: ।। ३५२ ।। पुरसर । पुष्कराचे स्वयम्भूरमरणार्धे च यथासंख्यं मानुषोसरस्वयंप्रभी शैलौ भवतः कुण्ठलरुचकामिव कुण्डलपिरिः बसका चकपिरियथेस्यर्थः । एते सबै पर्वता: पूर्व स्वस्थाम्यातरदोपसमुद्रान् परिमिप्य सिन्ति ॥ ३२२ ॥ छाब मनुष्य क्षेत्र और इतर क्षेत्र के विभाग का, कर्मभूमि और भोगभूमि के विभाग का तथा मर्यादा (सीमा) को प्राप्त कराने वाले पर्वतों का स्वरूप निरूपण करते हुए, उन्हीं के विभाग को रतु करने के लिए तीन गाथाएं कहते हैं . गाथार्य :-जिस प्रकार कुण्डलवर द्वीप के अधभाग ( मध्य ) में कुण्ड लगिरि तथा चकवर द्वीप के मध्य में रुचकगिरि है, उसी प्रकार पुष्करवरद्वीप के वलयध्यास के बीच में मानुषोत्तर पर्वत है और अन्तिम स्वयम्भूरमा द्वीप के बल यन्यास के अधंभाग में स्वयम्प्रभ पर्वत है। ये सब पर्वत अपने अपने अभ्यन्तर द्वीप समुद्रों को घेरे हुए हैं ।। ३२२ ।। विशेषार्थ :- जिस प्रकार कुण्डलवर द्वीप के अधंभाग में कुम्हलगिरि और रुचकवर द्वीप के अर्धभाग में पचकगिरि हैं, उसी प्रकार पुष्करवरद्वीप के अर्धभाग में मानुषोत्तर पर्वत और स्वयम्भूरमण द्वीप के अधंभाग में स्वयंप्रभगिरि हैं। ये पर्वत अपने अपने अभ्यन्तरवती सर्व द्वीप समुद्रों को घेरे हुए हैं। मणुसुत्तरोत्ति मणुसा मणु सुत्चरलंघसत्तिपरिहीणा । परदो सयंपहोत्ति य जहण्णभोगावणीतिरिया ।। ३२३ ।। मानुषोत्तरान्त मनुष्याः मानुषोत्तरल शक्तिपरिहीनाः । परतः स्वयम्प्रभान्तं च जघन्यभोगावनितियश्चः ।। ३२३ ।। मातु । मानुषोसरपर्वतपर्यन्तं मनुष्याः मानुषोत्तरलमशक्तिपरिहोणाः । अस्माव परत: स्वयम्नमाचलपर्यम् जायभोगायोतिर्यश्वो भवन्ति ॥ ३२३ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया । ३२४-३२५ ज्योतिकासिकाय २६६ गाथा :- मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त ही मनुष्य हैं, जो मानुषोत्तर पर्वत को उल्लङ्घन करने की शक्ति में हीन हैं। मानुषोत्तर पर्वत से आगे स्वयंप्रभ पर्वत पर्यन्त जघन्य भोगभूमियां तियं रहते हैं ।। ३३३ || शेषार्थ :- मनुष्यों में मानुषोत्तर पर्वत को उल्लङ्घन करने की शक्ति नहीं है। अतः मनुष्य मानुषोत्तर पर्यन्त ही है। पर्वत पर्यन्त जघन्य भोगभूमि के तियं ही पाये जाते हैं। कम्माणपविद्धो बाहिरभागो सुपहगिरिम्स 1 वओगाइणजुत्ता नसजीवा होति तत्थेव || ३२४ ।। कर्माविनिप्रतिबद्धो वाह्यभागः स्वयम्प्रभगिरेः । वशवगानयुक्ताः श्रमजीवा भवन्ति तथैव ॥ ३२४ ॥ कम्माथ | छापामात्रमेवाऽर्थः ॥ ३२४ ॥ गाथायें :- स्वयंप्रभ पर्वत का बाह्य भाग कर्मभूमि सम्बन्धी है, और उत्कृष्ट अवगाहना वाले बस जीव यहाँ ही होते हैं ।। ३२४ ।। विशेषार्थ :- असंख्यात द्वीपों में स्वयम्भूरमण अन्तिम द्वीप है, इस द्वीप के वलपन्यास के बीचों बीच एक स्वयंप्रभ नामक पर्वत है। इस पर्वत के बाह्य भाग में कर्मभूमि की रचना है, और उत्कृष्ट अवगाहना वाले यस जीव वहीं पाये जाते हैं । अथैतद्गाथापराक्तोत्कृष्टावगाहन मेकेन्द्रियावगाह्नपुरस्सर माह 3 अधिसहस्से वारस तिचउत्थेक्कं महत्स्यं परमे । संखे गोम्ही भमरे मच्छे बरदेहदीहो दु || ३२५ ।। अधिकमस्र द्वादश त्रिचतुर्थमेकं सहस्रकं पद्मं । सङ्घ ग्रंध्ये भ्रमरे मत्स्ये वरदेहृदीर्थं तु ।। ३२५ ।। मयि । साविक सहस्रयोजनानि द्वावशयोजनानि योगमत्रिचतु एकयोजन सहस्रयोजनं यथासंख्येमधे शङ्ख मे सहस्रपद्यात्यत्र सविशेषे इत्यर्थः अमरे, महस्ये वरदेवध्य · स्वाद ।। ३२५ ।। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० त्रिलोकसा पाया : ३२६ उपयुक्त माथा के उत्तराध में जो उत्कृष्ट अवगाहना कही है, उसे एकेन्द्रियों को उत्कृष्ट अवगाहना के साथ कहते हैं गापार्थ :-साधिक हजार योजन, बारह योजन, शैन योजन, एक योजन और हजार योजन कम से कमल, शङ्ख, प्रम (चींटी), भ्रमर और महामरस्य के शरीर की उत्कृष्ट लम्बाई है ।। ३२५।। विशेषार्थ :-केन्द्रयों में कमल के शरीर की उत्कृष्ट लम्बाई कुछ अधिक एक हजार योजन ( कुछ अधिक ८००० मील), द्वीन्द्रियों में शव की उत्कृष्ट लम्बाई १२ योजन (९६ मील), श्रीन्द्रियों में श्रेष्म ( चींटी ) की लम्बाई पौन ( ३ ) योजन अर्थात ३ कोश ( ६ मील ), चतुरिन्द्रियों में भ्रमर के शरीर की लम्बाई १ योजन ( ८ मील ) और पञ्चन्द्रियों में महामत्स्य के शारीर की उत्कृष्ट लम्बाई १००० योजन ( २००० मील ) प्रमाण होती है। अय तेषामेत्र व्यासोदयौ कथपति वासिमि कमले संख महदमो चउपचचरणमिह गोम्ही । वासुदयो दिग्धमतद्दलमलिए तिपाददलं ।। ३२६ ।। व्यास एक कमले पाले मुखोदयौ चतुः पञ्चचरणं इह ग्रेष्मे । व्यासोदयो दीर्घाष्टमतद्दल मलौ त्रिपाद दलम ॥ ३२६ ॥ पासिगि । व्यासः एक योजनं कमालनाले तदाहुल्यं समवृत्तस्वासावदेव शमुखोक्यो पवारि पोजमानि एव भवन्ति घरखा। चतुर्षांशा योजमस्म । इह मे व्यासोक्यो दोध्या (३)मभागशीघषोडशभागो र भ्रमरे व्यासोरमो प्रयाचारणा योजनस्य दलं च पातामर्धयोगामित्यर्थः । "वासी तिगुणो परिहो" इत्याविना कम लस्य सर्वक्षेत्रफल ७५० मानयेत् ।। ३२६ ॥ इन्हीं उपयुक्त जीवों के शरीर को चौड़ाई और ऊंचाई कहते हैं !.. गाथार्थ :--कमल का न्यारा ( चौड़ाई ) एक योजन, राल का मुख व्यास और ऊंचाई श्रम से ४ योजन और सवा योजन, मंष्म ( चींटी ) का ध्यास और उदय क्रम से लम्बाई के आठवें भाग और सोलहवें भाग प्रमागा, तथा भ्रमर का व्यास और उदय क्रम से पोन योजन और अर्थ योजन प्रमाण है ।। ३२६ ।। विशेषार्थ:-कमल नाल की चौड़ाई १ योजन ( ८ मील ) प्रमाण है, जो समान गोल आकार वाली है. अतः उसका बाहुल्य ( मोराई ) भी उतना ( १ यो० अर्थात् ८ मील) ही जानना । शङ्ख का मुख व्यास ४ योजन ( ३२ मील ) और ऊँचाई पचचरण अर्थात् सबा (१) योजन (१० मील) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा: ३२७ ज्योतिलोकाधिकार २७१ है। प्रेम ( चींटी ) का व्यास, दीर्घता ( ३ यो । का आठवाँ भाग अर्थात् योजन (मील ), तथा ऊंचाई, दीर्घता का सोलहवाँ भाग अर्थात् १ योजन ( ३ मील ) है। भ्रमर का व्यास त्रिपाद अर्थात् पौन ( 1 ) योजन ( ६ मील ) तथा ऊँचाई अधं ( है। योजन ( ४ मील ) प्रमाण है। "वासो तिगुणो पहि" गाथा १७ के नियमानुसार कमल का क्षेत्रफल निम्न प्रकार है:कमलनाल का व्यास १ योजन है, अतः परिधि (१४३)-३ योजन हुई। इसको व्यास के चतुर्थ (४) भाग से गुणित करने पर (३४१)- योजन क्षेत्रफल प्राप्त होता है। इस क्षेत्रफल को कमल, की ऊंचाई १००० योजनों से गुरिंशत करने पर ( x १००० )=७५० योजन कमल का सम्पूर्ण क्षेत्रफल { पन प्रास ही in है । अपदि मल का क्षेत्रफल ७५० योजन है। अथ वासनारूपेण बलस्य मुरजक्षेत्रफलमानयति-- आयामकदी मुदलहीणा मुहवास अद्धवग्गजुदा । विगुणा बेहेण हदा संखादत्तस्म वेत्तफलं ॥ ३२७ ।। आयामकृतिः मुखदल होना मुग्न व्यास अवगंयुता । द्विगुणा बेधेन हृता सङ्खारनस्थ क्षेत्रफलं ।। ३२७ ।। मायाम । एतावदुक्प १२ मुमच्याले ४ शङ्ख एसायमा ऋणे विक्षिप्त सम्पूर्णमुरजाकारो मबत्ति । मुखायामसमासार्घ ४+१२ मध्यफलमिति कृते एवं भवति । सपउद्वये कृते एवं अकखणस्य क्षेत्रफलमानीयते । खतियाबिमर्थ पृणं [] भवति । विश्वंभवमाधहगुणकरणी वट्टस्स परियो होबी इस्यनेम एकखण्डस्य मुल ४ मम्मो वर्गमूलमने क्षेत्रखण्डनानुगुणेन गृहीत्वा १२५। २४३६ मुखमूलशेषे महभिरपवतिते में भूमिमूलशेषे षोडशमिरपतिते । तयोः मूक्ष्मपरिधी स्यातां । इदं क्षेत्रबाहल्यं ८ मध्य ४ पर्यन्तं खाडयावा प्रसारित परिधिप्रमाणेन तिति । सत् क्षेत्रं पुनः मुख . भूमि ४ समासा मध्यफल मिति वेषरूपमध्यफलं साधयित्वा तात्योभयारस्थितक्षेत्रं गृहोत्या चतुरस्ररूपेण सन्धिते एवं [१] । तत्र सातपूरणा कोणतस्थितयोरेककरूपं गृहीत्वा शून्यस्थाने निक्षिप्तेऽपि सम्पूर्ण न भवतीति एतापति ऋणे [] निक्षिप्ते सम्पूर्ण भवति । पास्वंद्वयतित्रिकोणक्षेत्ररहितशेषचतुरस्रक्षेत्र एकस्योपरि एकस्मिन् विपर्यासरूपेण निक्षिप्ते एवं। तस्योपरि पूर्वमानीते क्षेत्रे निक्षिप्ते एवं। पनत्यतृतीक्षिं पृथक स्थापयित्वा त्रिषा खटिते सत्येवं । पस्मिन् खण्डवये एकमुजरूपेण सम्बिते सत्येवं । तदितियंभूपेण दलयित्वा पाश्र्व संस्थाप्य सन्धिते एवं। ते पुनरपि तिर्ष पेण बलयित्वा पृषक स्थापिते क्षेत्रद्वये एवं। अकक्ष दितीयवाणेन Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ त्रिलोकसार गाथा : ३२७ : 말 समानमिति लक्ष् पातयं त्रिभागरहितहरक्ष ेत्र नियंत्र पेण वलयित्वा पादवें संस्थाप्य सन्धिते एवं । तदपि पुनस्तिर्य पेण वलयिश्वा ऊभागे ६ सन्धिते सत्येवं । एवं समभुअफोटो सत्य मायामीत्युक्त सामी १४४ वेधस्य चेषं वर्शया क्षेत्र प्रसवते हेो: मुलहीनेरयुक्त । अत्र मुखवलसमऋऋणहीनराणौ १४२ ऋणाय दत्वा प्रवशिष्टक्षेत्रफल ४ वेधसमं वर्शयित्वा श्रधुना संयुष्यत इति कृत्या "मुहवास घडवग्गजुवा" इत्युक्तं । तत्र मुखडपासार्धवर्गयुक्तराशि: १४६ एक मुक्तकखण्डस्तावति १४६ द्वयोस्तथा खण्डयोः किमित्यागतेन गुणकारद्वयेन गुण्यत इति दृष्टषा "बिगुला" प्रयुक्त । एष द्विहतराशिः २४२ बेघेन चतुभिरपततेन ७३५ हन्यत इति " बेहेण हवा" इयुक्त एस फलं ३६५ भवति । श्रोत्रियचतुरिन्द्रियन्द्रियाणां खातफलं "भुजकोटि बधा विदयाविना मेतभ्यं । एकेन्द्रियाशित फलानां परपयप्रदेशस्वज्ञापनार्थविमुच्यते 1 ताप श्रीत्रियतफलं एकयोजनस्यैतावत्स्वसेषु ७६८००० एतावतः मिति सम्पात्य घनरूप शिवा सद्गुराकारमपि घनरूपेव संस्थाध्यांगुलं कृत्वा द 1 ७६८००० | ७६८००० / ७६८००० तथेयंका गुलस्य सूच्यङ्गुलप्रवेशे एताश्वं गुलानां किमिति सम्पश्तेन सूच्यंगुलं कृत्वा सूच्यंगुलस्य प्रमाण गुलत्वात् व्यवहाररूपप्राक्तनां गुला ७६८००० ७६८००० ७६८००० प्रमाण गुलकरला पल ५०० व्यवहारांगुलानामेकस्मिन् प्रमाणांगुले एतावदुव्यवहारांगुलान पेर ७६८०८० । ७६८००० । ७६६००० किमिति सम्पास कृत्वा पहशतगरावट्शून्यानि अंगुलषट्शून्यं स्वयं तवं गुलानि ६ त्रिभिः सम्मेल ३५४ | ३ पर िनथ च कृत्वा तावातफलहारे १२ पट्टम पञ्चघनेन १२५ अवशिष्टांगुले ७६८.०० मतले एवं ६१४४ एषां २७१८ ६१४४६ पस्ने धनाहगुलम्य ६ गुणकारी भवति । प्रश्य मुरणकारं सर्वं एकसंख्यातं कृतवन्तः ६ । एवं चतुरिन्द्रियखातफलस्य कर्तव्य । तावता ६१४४ सह सत्रस्य भावहारे मतृभिरपवलिते एवं ७६० एव गुणकारः ६५५३६ । ७६६।९।३ त्रीन्द्रियगुगकारात्संख्याताधिकमितिधनांगुलस्य संख्यासद्वय गुणकारं कृतवन्तः ६ । एवं डीन्द्रियस्थ संख्यातत्रय' एकेन्द्रिवस्य संख्यात चतुष्टय पञ्चेन्द्रियस्य संख्यातपञ्चकं घांगुलस्य गुरणकारं कृतवन्तः ॥ ३२७ ॥ द अब वासना रूप से शंख का सुरज क्षेत्रफल निकालते हैं गावार्थ :- लम्बाई के वर्ग में से सुख व्यास का अर्थ प्रमाण घटा देने पर जो अवशेष रहे उसमें अर्धमुखन्यास के वर्ग का प्रमाण मिला देना चाहिये, जो लब्ध प्राप्त हो उसे द्विगुणित कर से गुणित करने पर शंखावर्तक्षेत्र के क्षेत्रफल का प्रमाण प्राप्त होता है || ३२७ ॥ नोट :-आकृतियों के मध्य में जो संख्या लिखी जा रही है वह उन आकृतियों की मोटाई, वेध या खात की सूचक है । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्लोकाधिकार २७३ विशेषार्थ :- (असंख्यात द्वीप समुद्रों के अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र है, जिसमें उत्कृष्ट गाया । ३२७ पाहता वाला यंत्र है ) वह शंख भू-मा Een १२ योजन लम्बा है, तथा उसके वृत्ताकार मुख का व्यास ४ योजन है। वह शंख पूर्ण मुरजाकार नहीं है, अतः उसमें []] ऋण तिक्षेषण करना चाहिये, जिससे वह पूर्ण मुरजाकार हो जाता है। मुख ४ और आयाम १२ को जोड़ ( ४+१२= १६ ) कर आधा ( १६ x ३ ) करने से ८ योजन ( मध्य व्यास ) प्राप्त होता है। इस मुरजाकार शंख के मध्य में से दो खण्ड A4 चाहिए। इन दो खण्डों में से एक खण्ड को ग्रहण कर क्षेत्रफल प्राप्त किया जाता है। करने मुरजाकार शंख के मध्य में से उपयुक्त को खण्ड करने पर उपयुक्त ऋण ) मी प्रत्येक खंड में आषा []]] हो जाता है | ( प्रत्येक खण्ड का मुख व भूमि गोलाकार है ) । एक खण्ड के मुख का व्यास २ ४ योजन और भूमि व्यास ८ योजन है । गाथा १७ के अनुसार मुखव्यास ४ योजन के वर्ग ( ४४४ ) १६ योजन को और भूमि व्यास योजन के वर्ग ( ८x८ ) ६४ योजन को १० गुणा करने पर १६० १६० योजन और ६४४१०= ६४० योजन प्राप्त होते हैं। क्षेत्रगुणानुखण्ड द्वारा वर्गमूल ३५ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ त्रिलोकसार गाथा: ३२७ प्राप्त करने पर मुख की परिधि १२३४ और भूमि की परिधि २४१ योजन होती है । मुख के वर्गमूल में से शेष को ८ से अपवर्तित करने पर प्राप्त होता है इसी प्रकार भूमि वर्गमूल के अवशिष्ट भाग को १६ से प्रपतित करने पर प्राप्त होते हैं। इस प्रकार मुख को सक्षमपरिधि का प्रमाण १२१ योजन और भूमि की सूचर परिधि का प्रमाण २४३ योजन होता है। यहां पर क्षेत्र बाहुल्य ८ को मध्य ४ तक चीरकर फैलाने से परिधि प्रमाण क्षेत्र । इस प्रकार प्राप्त हो जाता है । इस क्षेत्र के कोनों पर वेध ० है, किन्तु वह क्रम से वृद्धिङ्गत होते हये मध्य में ४ योजन हो जाता है ।। वेध के मुख ० को और भूमि ४ योजन को जोड़कर ( 0+४-४ ) आषा करने पर (४४६) वेध का मध्यफल २ योजन प्राप्त होता है। उस वेध को प्रगट करने के लिये मुख को दो खण्डों में विभाजित करने पर अ, ब, स और द नाम के चार खण्ड हो जाते हैं। इस क्षेत्र के दोनों पारवं भागो में स्थित अ और द त्रिकोण क्षेत्रों को इस प्रकार स्थापित करना चाहिये जिससे च, छ, झ और ज नाम के एक चतुर्भुज । क्षेत्र की प्राप्ति हो जाय ( इस चतुर्भुज क्षेत्र के च और ज क्षेत्रों के कोणों का वेध २. २ योजन तथा छ और क क्षेत्रों के कोणों पर वेध का प्रमाण • है ) 1 खात पूर्ण करने के लिये घ और छ क्षेत्रों के कोनों में स्थित २, २ योजन क्षेत्र में से यदि एक एक योजन ग्रहण कर शून्य स्थान च, झ क्षेत्रों पर निक्षित कर दिया जाय तो भो खात ( हीन स्थान ) पूर्ण नहीं होता अर्थात् वेष सवंत्र एक एक योजन नहीं होता । उस हीन स्थान को पूर्ण करने के लिये इतना ऋण १] निक्षेपण करना चाहिये, इसे निक्षेपण करने से खात पूर्ण हो जाता है । अर्थात् च, छ, ज ओर स इन चारों कोणों का वेध सर्वत्र एक एक योजन हो जाता है। दोनों पार्ववर्ती अ और द त्रिकोण क्षेत्रों से रहित शेष चतुमुज क्षेत्र ब और स को विपर्यास रूप से एक ( ब ) के ऊपर दूसरे (स ) को स्थापित करने से य र ल और ब नाम का एक क्षेत्र प्राप्त हो जाता है [ य कोण पर ब क्षेत्र का मुख वेध • और स क्षेत्र का भूमि वेध मिलाने से ( • +४= ) ४ योजन हो जाता है। र कोण पर ब क्षेत्र का मुख वेघ २ तथा स क्षेत्र का भूमि वेध २ मिलाकर ( २+२) = ४ हो जाता है । ल कोण पर ब क्षेत्र का भूमि येध ४ और म क्षेत्र का मुख वेष . मिलकर (४+0)- हो जाता है । व कोण पर ब क्षेत्र का भूमि वेध २ तथा स क्षेत्र का मुख वेध २ मिलकर (२+२)=४ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा! ३२७ ज्योतिलौकाधिकार २७५ हो जाता है। इस प्रकार य र ल और व क्षेत्रों में सर्वत्र वेध ४ योजन प्राप्त करने के लिये व क्षेत्र पर स क्षेत्र को विपर्यास रूप से रखा है ] । इस य र ल और व क्षेत्र के ऊपर पूर्व प्राप्त क्षेत्र च छ ज और H को स्थापित कर देने से १६' यह क्षेत्र प्राप्त हो जाता है । ( क्षेत्र य र ल व का सर्वत्र बेघ ४ था और क्षेत्र च छ ज प्र का सर्वत्र वैध १ था। एक क्षेत्र पर दूसरे क्षेत्र को स्थापित कर देने से सर्वत्र वेष (४+१)=५ हो जाता है।) इस क्षेत्र को भुजा ६ योजन में से तृतीय अंश को | स्थापित करने से शेष क्षेत्र, ५' रह जाता है । पृथक किये हुये तृतीय अंश || के तीन खण्ड करना चाहिये । इन तीनों पक्षों को एक भुज स्वरूप | | | स्थापित करने से [५] ( भुजा++3=१ योजन, कोटि २ योजन और वेष ५ योजन वाला ) इस क्षेत्र की प्राप्ति होती है । इस क्षेत्र [१]२ को तियंगरूप अर्थात् मोटाई में से आधा आधा कर पास पास स्थापित करने पर इस प्रकार के क्षेत्र ३/५/२ को प्राप्ति होती है । ( इस क्षेत्र का वेध ( ५ का आधा ) ३ और भुवा १+१=२ योजन हो गई किन्तु कोटि २ योजन ही रही।) उपयुक्त क्षेत्र २ को पुनः तियंग रूप अर्थात् मोटाई (1) में से आधा कर पृथक् पृथक स्यापित करने पर 'प' 'फ' नाम के दो क्षेत्र (१) (क) | ५ | बन जाते हैं। (जिनमें से प्रत्येक का वेध योजन का आधार योजन और भुजा एवं कोटि पूर्ववत् दो दो पोजन है )। इनमें से प क्षेत्र [J२ दूसरे ऋण [३] के बराबर है, अता एक क्षेत्र दितीय ऋण को दे देना चाहिये। विभाग ( अ यो. ) रहित जो बड़ा क्षेत्र (५५ है. उसको तिमंग रूप अर्थात् मोटाई (५) में से आधा (3) करके पास पास | । २ रखना चाहिये। इनमें से [] क्षेत्र को फिर भी Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाषा1३२७ तिर्यग् रूप अर्थात् मोटाई ( यो०) में से आधा (यो.) कर ऊवं रूप से जोड़ने पर एक समचतुरझा | . | ११ क्षेत्र की प्राप्ति होती है [ जिसका वेध यो० तथा भुज व कोदि दोनों बारह बारह योजन अर्थात् समान हो जाती है। अथवा शंख के आयाम १२ योजन के समान भुज व कोटि हो जाती है। इस १२ भुज और १२ कोटि का परस्पर में गुणा करने मे एक खण्ड का क्षेत्र (१२४१२) - १४४ वर्ग योजन प्राप्त होता है। शंख के मायाम १२ की कदी अर्थात् वर्ग भी ( ५२४१२ । = १४४ वर्ग योजन होता है । इस समचतुरस्त्र क्षेत्र की भुज। १२ योजन और कोटि भी १२ योजन है। अर्थात् भुज कोटि आयाम के बराबर हो जाने के कारगा ही गाथा में 'मायाम कदी' ऐसा कहा गया है। यहाँ आयाम का वर्ग १२४ १२ = १४४ बर्ग योजन है। विधाय" अर्थात प्रथम अचं ऋण का वेध है तथा समचतुरस्रक्षेत्र का वेष भी है. इस प्रकार दोनों का वेध समान देख कर समचतुरस्रक्षेत्र के क्षेत्रफल में से प्रथम प्रधंचरण के क्षेत्रफल (२४१) को घटाने के लिये गाथा में "मुहदल हीना" अर्थात् मुझ ४ के आधे २ को कम करने के लिये कहा गया है। समचतुरस्र क्षेत्र के क्षेत्रफल १४४ में से मुखाध के पराशर ऋण राशि २ को कम करने पर ( १४४-२)=१४२ प्राप्त होते है। द्वितीय ऋण में १ क्षेत्र देने के पश्चात् क क्षेत्र २ बचता है, जिमका क्षेत्रफल (२२)४ वर्ग योजन होता है । इस फ क्षेत्र का वेध है और समचतुरस्र बड़े क्षेत्र का वेध भी है, इस प्रकार समान वेष देखकर १४२ में ४ जोड़ने के लिये गाथा में "मुहवासबद्धवगजुदा' कहा गया है । अर्थात् मुम्बव्यास ४ का प्राधा २ और २ का वर्ग ( २४२)=४ जोड़ने को कहा गया है। मुख व्यासाचं का वर्ग ४ जोड़ने पर ( १४२ +४) १४६ वर्ग योजन हो जाते हैं। जबकि एक मुरबखण्ड का क्षेत्रफल १४६ वर्ग योजन है तब दोनों खण्डों का कितना होगा ? यहाँ गुणकार दो है । अर्थात् दो में गुणा करने के लिये ही गाथा में 'बिगुणा' कहा गया है। दो से गुणा करने पर ( १४६ ४ २ ) २९२ वर्ग योजन प्राप्त होते हैं। इन २९२ को वेष : के हर । ४ ) से अपतित करने पर ७३ आते हैं और ७३ को वेध के अंश ५ में गुणित करने पर (७३ ४ ५ = ) ३६५ धन योजन प्राप्त होते हैं। अत: गाथा में "हेण हदा" अर्थात् वेष से गुणा करना चाहिये ऐसा कहा गया है । इस प्रकार शंखावतं सर्व क्षेत्रफल (घनल ) ३६५ घन योजन प्राप्त होता है । त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पचेन्द्रिय जीवों को सस्कृष्ट अवगाहना का धनफल भुजकोटि को गुणित कर प्राप्त कर लेना चाहिये । एकेन्द्रिय मावि जीवों के ( शरीरों के ) घनफकों के Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्लोकाधिकार २७७ अल्पप्रदेशों का कथन किया जाता है। यहाँ श्रीन्द्रिय का घनफल २७ घन योजन है जो सबसे एपहर अल्प है । गाथा ३२७ -ZTE जबकि एक योजन के ७६८००० अंगुल होते हैं तब २७ घन यो० के कितने अंगुल होंगे ? इस प्रकार राशिक करना चाहिये । "धन राशि का गुणकार एवं भागहार घनरूप ही होता है" इस न्यायानुसार २७ घन ०४७६८००० ७६८०००७६८००० घनांगुल होते हैं। शरीरों की देवहर गाना का माप व्यवहार अंगुलों से होता है और ५०० व्यवहारांगुलों का एक प्रमाणांगुल होता है, अतः दक X ७६८००* X७६८००० x ७६८००० को ५०० के घन से भाजित करने पर ट *ke xex प्राप्त होते हैं। इसमें भागाहार के ६ शून्यों को अंश के ६ शुन्यों से अपवर्तित कर देने पर २७४७६८००० × ७६८ × ७६८ प्राप्त होते हैं। घंश के ७६८ x ७६८ को ३ से *५*५ x ५ ण्डित करने पर २५६ x ३४२५६४३ अर्थात् ६५५३६४९ प्राप्त होते हैं । =१९२ से ६५५३६ को अपवर्तित करने पर और ५ x ५ x ५ १२५ से ७६८००० को अपवर्तित करने पर ६१४४ प्राप्त होते हैं। इस प्रकार अंश संख्या २७ ६१४४८९९ प्राप्त हो जाती है। इनका परस्पर में गुणा करने से संख्यात घर्नागुल (६) प्राप्त होते हैं। यहाँ पर घनांगुल का चिह्न ६ है और संख्यात का चिह्न यह है, अतः त्रीन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट अवगाहना का घनफल ६ होता है । घनफल 'द' इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय के खात (धन) फल के अंगुल प्राप्त करना चाहिये । चतुरिन्द्रिय का ३ घन योजन है । इस ३ घन यो को उपर्युक्त विधानानुसार ६१४४४६५५३६४९ से गुणा करने पर व्यवहार अंगुल प्राप्त होते हैं। हर के ८ से ६१४४ को अपवर्तित करने पर ७६० आते हैं, अतः चतुरिन्द्रिय जीव का घनफल ६५५३६ X ७६८ × ६ x ३ व्यवहारांगुल प्राप्त होता है। यह संख्यातेन्द्रिय को संख्या से संख्यात गुणी है, अतः इसका चिह्न ६ करना चाहिये। होन्द्रियों के घनफल की अंगुल संख्या चतुरिन्द्रिय से संख्यात गुणी है, अतः उसका चिन्ह ६ की अंगुल संख्या द्वन्द्रिय से संख्यातगुणी है। अतः उसका चिह्न ६ की अंगुल संख्या एकेन्द्रिय से संख्यात गुणी है अतः उसका चिन्ह ६ aaaaa है। इस प्रकार चिन्हों द्वारा प्रदेश अल्पबहुत्व प्राप्त हो जाता है । & यह है । एकेन्द्रिय के घनफल ॥ यह | पंचेन्द्रिय के घनफल एवमुत्कृष्टावगाहृप्रसंगे एकेन्द्रियादीनां पृथिव्यादिविशेषणविशिष्टानामुत्कृष्टजघन्यस्थितिप्रतिपाद नार्थ गाथात्रयमाह - Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाया।३२५-३३० सुद्धखरभूजलाणं बारस पावीस सच य सहस्सा । तेउतिए दिवसतियं सहस्सतियं दस य जेट्ठामो ।।३२८|| शुद्धखरभूजलानां द्वादश द्वाविंशतिः स च सहनारिण । तेजस्त्रये दिवसत्रयं सहस्रत्रयं दश च ज्येष्ठम् ।। ३२८ ॥ सुध। शुद्धखरमूजलामामायुज्येष्ठ यथासंख्यं बाशवर्षसहस्राणि । द्वाविंशतिवर्षसहसारिण सप्तवर्षसहस्राणि । तेमस्त्रये तेजोवातवनस्पतिकायिके पयासंख्य शिवसत्रय सहलवर्षत्रय यशवर्षतहस्राणि ज्येष्ठमायुः ॥ ३२८ ॥ इसी उत्कृष्ट अवगाहना के प्रसङ्ग में पृथ्वी आदिक विशेषणों से विशिष्ट एकेन्द्रियादि जीवों की जघन्योत्कृष्ट स्थिति का प्रतिपादन करने के लिये तीन गाथाए' कहते हैं। गाया :- शुद्ध पृथ्वी, खर पृथ्वी और जल इनकी उत्कृष्टायु क्रम से बारह हजार, बावीस हजार और सात हजार वर्ष है, तथा तेजस्कायिक आदि तीन ( तेज, वायु और वनस्पति० ) की उत्कृष्ट आयु क्रम से तीन दिन, तीन हजार वर्ष और दश हजार वर्ष है ।। ३२८ ॥ विशेषा:-पृथ्वी के मूल में दो भेद होते हैं. (१) शुद्ध पृथ्वी (२) खर पृथ्वी । शुद्ध पृथ्वी की उत्कृष्टायु १२ हजार वर्ष, खर पृथ्वी को बाईस हजार वर्ष, जलकायिक जीवों को ७ हजाय वर्ष, तेजस्कायिक जीवों की तीन दिन, वायुकायिकों को तीन हजार वर्ष और वनस्पतिकायिक जीवों को उत्कृष्टायु दश हजार वर्ष प्रमाण है। वासदिणमास बारसमावण्ण छक्क बियलजेवायो । मच्छाण पृथ्वकोही णव पुव्वंगा सरिसपाणे ॥ ३२९ ।। बापचरि पादालं सहस्समाणाहि पक्खिउरमाणे । अंतोमुहुसमवरं कम्ममहोणरतिरिक्खाऊ ॥ ३३ ॥ वर्षदिनमासाः वादर्शकोनपश्चाशत् षट्काः विकलज्येष्ठम् । मत्स्यानां पूर्वकोटि: नव पूर्वाङ्गानि सरीसृपाणाम् ।। ३२६ ।। द्वासप्ततिः वाचत्वारिंशत् सहस्रमानानि पक्ष्युरगाणाम् । अन्तमुहर्तमवरं कममहीनतिरएचामायुः ॥ ३३ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ गाथा । ३३१ ज्योतिर्लोकाधिकार वास । वर्षदिनमासाः वावश १२ एकोनपञ्चाशत् ४९ पटकाः ६ विकलेबियाण। सपासंख्य ज्येष्ठमायुः मत्स्यावीमा पूर्वकोटि: मवपूर्वाङ्गानि जरिएकति मानिसमा समीसुपारगाम् ॥ ३२६ ॥ मावत्तरि । दासप्ततिः वाचत्वारिसहनप्रमितानि पक्षिरणासुरगाणां च मगसमुहूर्तमवरमायुः शुसभुवाबीनां सर्वेष कर्ममहीनतिरश्चाम् ॥ ३३० ॥ गाचार्य :-द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को उत्कृष्टायु क्रम से बारह वर्ष, ४६ दिन और छह माम प्रमाण है. तथा मत्स्य की संस्कृष्टायु पूर्वकोटि प्रमागा और सरीमृपों की उत्कृष्टायु नवपूर्वाण प्रमाण होती है। पक्षियों और सर्पो की उत्कृष्टायु क्रम से बहत्तर हजार और बयालिस हजार वर्ष प्रमाण तथा कर्मभूमि के सर्व नियंश्च और मनुष्यों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूतं प्रमाण होती है ॥ ३२९, ३३० ।। विशेषापं :-द्वीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्टायु १२ वर्ष, श्रीन्द्रियों को ४६ दिन चतुरिन्द्रियों की ६ माह, मत्स्य की पूर्वकोटि और सरीसृपों की नवपूर्वाङ्ग प्रमाण होती है। ( ८४ लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग तथा ४ लाख पूर्वाङ्गों का एक पूर्व होता है ।। ८४ लास वर्षों में , का गुणा करने से ९ पूर्वाङ्ग होते हैं, तथा ८४ लाख वर्षों के वर्ग ( ८४ लाख ४८४ लाख ) को एक करोड़ से गुणित करने पर एक पूर्वकोटि होती है। पक्षियों की ७२ हजार वर्ष और सो फी ४२ हजार वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट माय होती है। शुद्ध पृथ्वी आदिक को आदि लेकर कर्मभूमिज सर्व मनुष्यों और तियश्चों को जघन्यायु अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है। अथ प्रागायुष्यं निरूप्येदानी तेषामेव वेदगतविशेष निम्पति णिग्या इगिविंगला संमृणपंचक्खा होति संहा हु। भोगसुग संदृणा तिवेदमा गम्भणरतिरिया ।। ३३१ ।। निरया एकनिकला: सम्मुर्छनपश्चाक्षाः भवन्ति षण्टाः खलु । भोगसुराः पाहीनाः त्रिवेदमा गर्भनरतिययः ॥ ३३१ ।। पिरया । नारका एकेन्द्रियाः विकलत्रयाः सम्मूर्छनपधेन्द्रियापम भवन्ति यदा सस्नु । भोग मूमिजाः सुराश्य षण्ठवेदेमोनाः । त्रिवेषगा गर्भजनरतियंञ्चः ॥ ३३१॥ __ पहिले जिनकी आयु का निरूपण किया है, अब उन्हीं के वेद विशेष का निरूपण करते हैं :-- Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० त्रिलोकसार पाया: ३३२ पापार्थ:-नारकी, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सम्मानपचेन्द्रिय ये सर्व जीव नपुसक ही होते हैं। भोगभूमिज एवं देव ये नपुंसकवेदी नहीं होते । गर्भज मनुष्य और तिर्यश्च सोनों वेद काले होते हैं ॥ ३३१ ॥ विशेषार्थ :-नारकी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचन्दियसम्मूच्छंन ये सब नपुसक वेदी ही होते हैं, भोगभूमिज तियंञ्च और मनुष्य तथा देव स्री और पुरुष वेदी ही होते हैं नपुसक वेदी नहीं होते. तथा कर्मभूमिज, गभंज, मनुष्य और तिर्यश्व तीनों देद वाले होते हैं । एवं प्रासङ्गिकानुङ्गिकार्य प्रतिपाद्य दानी प्रकृतार्थ तारादिस्थितिस्थान गाथात्रयेण निविशति : णउदुचरसचसए दस सौदी चदुदुगे तियचउक्के । तारिणससिरिका पुछा सुक्कगुरुंगारमंदगदी ।। ३३२ ।। नवत्युत्तरसप्तशलानि दश अशीतिः चतुहिके त्रिकचतुष्के । तारेनशशिऋक्षबुधा। शुक्रगुर्वङ्गारमन्दगत्तय: ॥ ३३२ ।। एउ । चित्रातः प्रारम्य नवत्युत्तरसप्तशतयोजनानि, सत उपरि रशयोजनानि, ततः प्रशोसियोजनानि, ततश्चत्वारि चस्वारि योजनानि द्विस्थाने, ततस्त्रीणि श्रीणि बोजनानि पतुः स्थाने गत्वा यथासंख्येन ताराः इनाः काशिन: शाणि मुषा: शुजाः गुरव पगारा: मन्तगतयश्च तिष्ठन्ति ॥ ३३२ ॥ प्रासङ्गिक प्रसङ्ग रूप अर्थ का प्रतिपादन करके अब प्रकृत ज्योतिर्लोकाधिकार में तारादिकों के स्थान का निर्देश तीन गाथाओं द्वारा करते हैं : गापार्थ :- [ चित्रा पृथ्वी से ] सात सौ मम्ने योजन ऊपर, इससे दश, अस्सी दो बार चार अर्थात् चार, चार और चार बार तीन योजन अर्थात् तीन, तीन, तीन और तीन योजन ऊपर क्रम से तारा, सूर्य, चन्द्र, ऋक्ष, ( नक्षत्र ) बुध, शुक्र, गुरु, अंगारक ( मंगल ) और मन्दगति ( पा.नेश्चर ) स्थित है ।। ३३२॥ विशेषार्थ :- चिश्रा पृथ्वी से ज्योतिबिम्बों को ऊंचाई निम्नलिखित प्रकार से है :-- [ घाट अगले पृष्ठ पर देखिये ] Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ३३३ कम | ज्योतिबिम्बों के नाम १ तारागण २ सूर्य 3 चन्द्र ऋश्न ( नक्षत्र ) बुध शुक गुरु ४ ५ ६ ७ G अङ्गारक ( मंगल मन्दगति ( शनि ) ज्योतिर्लोकाधिकार चित्रापृथ्वी से योजनों में ऊंचाई चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन ऊपर स्थित हैं । ७९० + १० = ८०० योजन ऊपर स्थित हैं । ८००÷८०६५० योजन ऊपर स्थित हैं । ६८०+४ =८८४ योजन ऊपर स्थित हैं । ८८४+४ =योजन ऊपर स्थित हैं । ८+ ३८६१ योजन ऊपर स्थित है। =९१+ ३ = ८९४ योजन ऊपर स्थित हैं । ६६४+३ ८९७ योजन ऊपर स्थित हैं । ८१७+ ३ = ९०० योजन ऊपर स्थित हैं । मीलों में ऊँचाई ३१६०००० मील उपय '३२००००० " S ३५२०००० ३५३६००० " ३५५२००० ४ P ३५६४००० * Я ३५७६००० " 10 ३५८८०० ३६००००० अवसेमाण गहाणं णयरीमो उवरि चिचभूमीदो । मंतण हसणीणं विनाले होंति णिच्चाओ ।। ३३३ ।। G अवशेषाणां ग्रहाणां नगयें उपरि चित्राभूमितः । गत्या बुधशन्योः विच्चाले भवन्ति नित्या ॥। ३३३ ।। P 發 इस प्रकार ज्योतिषी देवों की ऊंचाई (१०+२०+४+४+३+३+३+३) ११० योजन ( ४४०००० मील ) मात्र है। अर्थात् सम्पूर्ण ज्योतिषीदेव पृथ्वी तल से ७९० योजन (३१६०००० मील) की ऊंचाई से प्रारम्भ कर ९०० योजन ( ३६००००० मील ) की ऊंचाई तक स्थित हैं। " विशेषार्थ :- चित्रा पृथ्वी से ऊपर जाकर बुध और शनिश्चर ग्रहों के अन्तराल अर्थात् योजन और ९०० योजन के बीच में अवशेष ८३ ग्रहों की क३ नगरिया निय-अवस्थित है। " श्रवसेस | प्रवशिष्टानां प्रहारण ३ नमः उपरि चित्रानमितो गत्वा बुधदानंश्वर मोविच्चाले प्रन्तराले भवन्ति निश्या: ॥ ३३३ ॥ गाथार्थ :- चित्रा पृथ्वी से ऊपर जाकर बुध और शनिश्चर के प्रन्तराल में अवशिष्ट ८३ ग्रहों की नित्य नगरिय अवस्थित हैं ।। ३३३ ॥ सम्पूर्ण ग्रह हैं, उनमें से ( १ ) बुध, ( २ ) शुक्र, ( ३ ) गुरु, १४) मंगल और ( ५ ) शनि इन पाँचों को छोड़कर अवशेष १ काल विकाल, २ लोहित, ३ कनक, ४ कनक संस्थान, ५ अन्तरद ३६ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ निलोकसार पाशा :३२४ ६ कचयव, ७ दुन्दुभिः, ८ रत्ननिभ, ९ रूप निर्भास, १० नील, ११ नीलाभास, १२ अश्व, १३ अश्वस्थान, १४ कोश, १५कंसवर्ण, १६ कंस, १७ शङ्ख परिणाम, १८ शाख वणं, १९ उदय, २० पञ्चवणं, २१ तिल, २२ तिलपुत्र, २३ क्षारराशि, २४ धूम, २५ धूमकेतु, २६ एक संस्थान, २७ अक्ष, २८ कलेवर, २६ विकट, ३० अभिन्नसधि, ३१ मन्धि, ३२ मान, ३३ चतुःपाद, ३४ विद्य जिला, ३५ नभ, ३६ सहश, ३७ निलय, २८ काल, ३९ कालकेतु, ४. अनय, ४१ सिहायु, ४२ विपुल, ४३ काल, ४४ महाकाल, ४५ रुद्र, ४६ महारुद्र, ४७ सन्तान, ४८ सम्भन्त्र , ४६ सर्वार्थी, ५० दिशा, ५१ शान्ति, ५२ वस्तुन, ५३ निश्चल, ५४ प्रलम्भ, ५५ निमंत्रो, ५३ ज्योतिष्पान्, ५७ स्वयंप्रभ, ५८ भासुर, ५६ विरज, ६. निदुख, ६१ वीतशोक, ६२ सीमङ्कर, ६३ क्षेमकर, ६४ अभयङ्कर, ६५ विजय, ६६ वैजयन्त, ६७ जयन्त, ६८ अपराजित, ६९ विमल, ७० अस्त, ७१ विजयिष्णु, ७२ विकस, ७३ करिकाष्टा ७४ एकर्जाट, ७५ अग्निवाल, ७६ जलकेतु, ७७ केतु, ७८ बोरस, ७६ अघ, ८० श्रवण, ८१ गह, १२ महाग्रह और ८३ भावग्रह इन ५३ ग्रहों को नगरिया बुध और शनि ग्रह के अन्तराल में अवस्थित हैं। अस्था सणी णबसये चिचादो तारगावि तापदिए । जोइसपडलबहन्लं दससहियं जोयणाण सयं ।। ३३४ ।। मास्ते शनि: नवशतानि चियातः तारका अपि तावन्तः । ज्योतिष्फपटलबाहत्य देशसहितं योजनानां शतम् ॥ ३३४ ॥ प्रत्याह । प्रास्ते निर्नवशसयोमानानि चित्रात: मारका प्रपि सावन्नवशातयोजनपर्यन्तं तिष्ठन्ति । ज्योतिमपटलबाहल्यं दशसहितं योजनानां शसम् ॥ ३३४ ॥ गावार्थ:-चित्रा स्त्री से पानिश्चर नौ सो योजन ऊपर स्थित है और तारागण भी नौ सौ योजन पर्यन्त अवस्थित हैं, अतः ज्योतिथी देवों के पटलों का बाहुल्य मात्र ११. योजन ही है ।। ३३४ ।। विशेषार्थ :-चित्रा पृथ्वी से ६०० योजन { ३६०.०० मील ) ऊपर जाकर शनिश्चर ग्रह स्थित है, तथा इसी पृथ्वी से ७९० योजन ( ३१६००० मील ) ऊपर जाकर अर्थात् ७९० योजन से ९०० योजन पर्यन्त तारागणी की नगरियां स्थित है। अतः ज्योतिषी देवों का कुल क्षेत्र ११० योजन ( ४४०००० मील) मात्र प्राप्त होता है। अथ प्रकीरगंकतारकागां त्रिविधमतरं निरूपति Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया।३३५-३३६ २८३ ज्योतिर्लोकाधिकार तारंतरं महण्णं तेरिच्छे कोसससभागो द। पण्णासं मजिझमयं सहस्समुक्कस्सयं होदि ।। ३३५ ।। तारान्तरं जघन्य तिर्थक कोशसप्तभागस्तु । पलाशत् मध्यमकं सहस्रमुत्कृष्टकं भवति ॥ ३३५ ॥ तारंतरं। तारकाया: सकाशात् तारकान्तरंजघाय नियंपू कोशसारमभागः पश्चाशयोजनानि मध्यमान्तरं पोजनसहस्रमुस्कृष्टान्तरं भवति ॥ ३३५ ।। प्रकीर्णक ताराओं का तियंग रूप से तीन प्रकार के अन्तर का निरूपण करते हैं । गाथार्थ :--एक तारा से दूसरी तारा का तियंग जघन्य अन्तर एक कोश का सातवा भाग, मध्यम अन्तर पचास योजन और उत्कृष्ट अन्तर एक हजार योजन।।। ३३५॥ विशेषार्थ !-एक तारा से दूसरी तारा का तिर्यग जघन्य अनर : कोश, ( १४२ मील ) मध्यम मन्तर ५० योजन ( २००.०० मील) और उत्कृष्ट अन्तर १००० योजन ( ४०००००० मील ) प्रमाण है। इदानीं क्योतिविमानस्वरूपं निरूपयति उचाणट्ठियगोलकदलसरिसा सव्वजोइसरिमाणा । उपरि सुरनयराणि य जिणभवणजुदाणि रम्माणि ॥३३६ ।। उत्तानस्थितगोलकदलसदृशाः सर्वज्योतिष्कविमाना।। उपरि सुरनगराशि च जिनभवनयुतानि रम्पाणि ।। ३३६ ॥ उत्साणं । उपरि तेषामुपरि' इत्यर्षः । शेषश्च्छायामात्रमेवार्थः ॥ ३३६ ॥ अब ज्योतिविमानों का स्वरूप-निरूपण करते हैं। गाथार्थ :-सर्व ज्योतिर्विमान अर्धयोले के सदृश ऊपर को अति अध्वं मुख रूप से स्थित है, तथा इन विमानों के ऊपर ज्योतिषीदेवों की जिन चैत्यालयों से युक्त रमणोक नगरिया हैं ॥ ३३६ ॥ विशेवार्य :-जिस प्रकार एक गोले के दो खण्ड करके उन्हें ऊध्वं मुख रखा जाये तो चौड़ाई का भाग ऊपर और गोलाई बाला संकरा भाग नीचे रहता है । उसी प्रकार ऊध्वं मुख अर्धगोले के सहश Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ज्योतिषी देवों के विमान स्थित है। जैसे न anuras त्रिलोकसार सूर्य विभा सं इन उपयुक्त विमानाकृतियों का मात्र नीचे वाला गोलाकार भाग ही हमारे द्वारा दृश्यमान है, शेष भाग नहीं। इन्हीं विमानों के ऊपर जिन चैत्यालयों से सहित सुन्दर रमणीक नगरियां बसी हुई हैं। अथ तेषां विमानव्यास बाहुल्यं च गाथाद्वयेनाह गाथा : ३३७-३३६ atrudraiser aप्पण्णडदाल चंदर विवासं । सुक्कगुरिदर तियाणं कसं किंचूणकोस कोसद्धं ॥ ३३७|| कोस तुरियमपरं तुरियहियकमेण जाव कोमोति । तारार्ण रिकखार्ण कोमं पहलं तु बासद्धं ॥ ३३८ ॥ योजनं एक पष्ठिकृते पट्पञ्चाशदष्टचत्वारिंशत् चन्द्ररविध्यासो । शुक्रगुवितरत्रयाणां कोश: किनिनकोशः कोशार्धम् ।। ३३७ ।। क्रोशस्य तुरीयमवरं लुर्याधिककमेण यावत् कोश इति । ताराणां ऋक्षा को बाहुल्यं तु व्यासार्धम् ।। ३३८ ।। जोया । एकयोजने एकषट्टभागे कृते तत्र बद्चाशद्भाग में मचश्वारिशद्भागाश्च क्रमेण चन्द्ररविविमानव्यासो भवतः शुक्रर्योरिसरत्रयाण बुधमङ्गलशनीनां विमानध्यासः कोश: १ किञ्चिन्न्यूनकोश: १ क्रोशार्थं च स्यात् ॥ ३३७ ॥ कोस । कोशस्थ च सुयशः प्रवरो व्याससुधिककमेण पाथवेक: कोशो भवति तथार्थः त्रिचरण है क्रोशो मध्यमः एककोशः उत्कृष्टताराला ऋक्षाणां विमानण्यासः क्रोशः १ सर्वेषां बाह वास ॥ ३३८ ॥ दो गाथाओं द्वारा विमानों का व्यास और बाहुल्य कहते हैं : -- मायार्थ: :- एक योजन के ६१ भाग करने पर उनमें से छप्पन भागों का जितना प्रमाण है, उतना व्यास चन्द्रमा के विमान का है, और अड़तालीस भागों का जितना प्रमाण है उतना व्यास सूर्य Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा:३९ ज्योतिलोकाधिकार २५ के विमान का है। शुक्रा, गुरु और अन्य तीन ग्रहों का व्यास कम से एक कोश, कुछ कम एक कोश और अध मध कोश प्रमाण है । तारामों का जघन्य व्यास एक कोश का चतुर्थ भाग अति पाव (1) कोश है । मध्यम व्यास कोश से कुछ अधिक नेकर कुछ कम एक कोश तक है, तथा उत्कृष्ट व्यास ( विस्तार ) एक कोश प्रमाण है । नक्षत्रो का व्यास भी एक कोश प्रमाण है । सर्वज्योतिर्विमानों का बाहल्य ( मोटाई ) अपने अपने व्यास के अधं प्रमाण है ॥ ३३७, ३३८॥ विशेषार्थ:-सर्वज्योतिविमानों का ध्यास और बाहुल्य निम्न प्रकार से है : | कमांका ज्योतिबिम्बों के __नाम व्यास ( रिस्तार ) । योजनों में । भीलों में । बाहल्प ( मोटाई) योजनों में | मीलों में शुक्र मक बुध | आधा कोश २५० . १ । चन्द्र विमान । योजन ३६७५ मोल । योजन १८३६४ मोन ६ योजन ३१४७३३ मोल योजन १५७३ मील | १ कोश १००० मील कोश ५. मील कुछ कम १ कोश कुछ कम१०००, कुछ कम कोश कुछ कम५.. ५०० मील । ३पाव ) - २५० मील मंगल ५०० " शनि २५० - तारामों का जघन्यः पाव (1) कोश २५० । कोश १२५ - " मध्यमवको "" उत्कृष्ट १कोग कोश ५००, नक्षत्र विमान । १कोश १०। राह . कुछ कम १ योजन कछकम ४०१०: कुछ कम योजन |- कमर..." ५१| केतु " कुछ कम १ योजन ४५०० मील ! . " योजन ५०० । अथ रावरिषगृहयोविमानव्यासं तरकार्य तदवस्थानं च गाथाद्वयेनाह राहुअरिदुषिमाणा किंवृणं जोगण मधोगना । छम्मासे पच्चंते चंदरची छादयति कमे ।। ३३९ ।। रावरिविमानो किनिदूनी योजनं अधोगन्तारी । षण्मासे पर्वान्ते चन्दरवी छादयतः कमेण ॥ ३३९ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ হিলাঙ্গনা गाषा । १४०-३४१ राहु । राहरिविमानौ निश्चिमयूमयोजनण्यासौ सारयोरयोगम्ता पम्मा पस्तेि वगरवो छापयतः कमेण ॥ ३३॥ राहु, केतु विमानों का व्यास, उनके कार्य और उनका अवस्थान दो गाथाओं द्वारा कहा जाता है : गाथार्थ :-राह और अरिष्ट ( केतु । के विमानों का व्यास कुछ कम एक योजन प्रमाण है। इन दोनों के विमान चन्द्र सूर्य के विमानों के नीचे गमन करते हैं, और दोनों छह माह बाद पर्व के अन्त में क्रम मे चन्द्र और सूर्य को आच्छादित करते हैं ।। ३३९ ।। विशेषार्ष:- राहु और केतु, दोनों के विमानों का व्यास कुछ कम एक एक योजन प्रमाण है । राहु का विमान चन्द्र विमान के नीचे और केतु का विमान सूर्य विमान के नीचे गमन करता है। प्रत्येक छह माह बाद पर्व के अन्त में अर्थात कम से पूणिमा और अमावस्या के अन्त में राह चन्द्रमा को और केतु सूर्य को आच्छादित करता है, इसी का नाम ग्रहण है। राहुअरिद्वविमाणघयादवरि पमाणअंगुलचउक्कं । गंतूण ससिधिमाणा रवि माणा कमे होति ।। ३४. ।। राहरिविमानध्वजादुपरि प्रमाणांगुल चतुष्कम् । गत्वा शशि विमानाः सूर्यविमाना कमेण भवन्ति ।। ३४० ॥ राह । राहरिकृविमानध्वनवण्णादुपरि प्रमाांगुलचतुष्कं गया शतिविमानाः सूर्यविमामाच अमेण भवन्ति ॥ ३४० ॥ गायार्थ :- राहु और केतु विमानों की ध्वजा दण्ड से चार प्रमाणांगुल ऊपर जाकर क्रम से चन्द्र का विमान और सूर्य का विमान है ॥ ३४०॥ विशेषार्थ:-राह विमान की ध्वजा दण्ड से चार प्रमाणांगुल ऊपर चन्द्रमा का विमान है, और केतु विमान की धजा से चार प्रमाणांगुल ऊपर सूर्य का विमान है। अप चन्द्रादीनां किरणप्रमाणं नस्वरूपं चाह चंदिण बारसहस्सा पादा सीयल खरा य सुक्के दु । अड्वाइजमहस्सा तिच्या सेसा हु मंदकरा ।। ३४१ ।। चन्द्रनयोः द्वादशसहनाः पादाः शीतलाः खराश्च शुक्रे तु । अर्धतृतीयसहस्राः तीवाः शेषा हि मन्दकराः ।। ३४१ ।। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाषा: ४२ ज्योतिलौकाधिकार २८७ ___चंविण । वनावित्ययोः द्वावधासहस्त्रा: पायाः करा: बोतलाः लरा: उष्णाश्च । शुक्रवतृतीय २५०० सहस्रा: तीयाः प्रकाशेनोवला: शेषास्तु मन्वाराः मन्धप्रकाशाः ॥ ३४१ ।। चन्द्रमा आदि ग्रहों की किरणों का प्रमाण और उनका स्वरूप कहते हैं: गाथार्ष:-चन्द्रमा और सूर्य को क्रम से शीतल और तीक्ष्या बारह बारह हजार किरणे हैं। शुक्र की किरणें तीन हैं, तथा अढाई हजार हैं। शेष ज्योतिषी मन्द प्रकामावाली किरणों सहित हैं ।। ३४१ ॥ विशेषार्थ :--चन्द्रमा की किरणें बारह हजार प्रमाण हैं, और शीतल हैं। सूर्य की किरणों मो बारह हजार है, किन्तु वे तीक्ष्ण हैं। शुक्र की किरणें अढाई ( २५०० ) हजार हैं. वे तीन अर्यात प्रकाश से उज्ज्वल हैं। शेष ज्योतिषी देवों की किरणे मन्द प्रकाश वाली हैं। अथ चन्द्रमण्डलस्य वृद्धिहानिक्रममावेश्यति चंदो णियसोलसमं किण्हो सुक्को य पण्णरदिणोति । हेट्ठिल णिच्च राहूगमणविसेसेण वा होदि ।। ३४२ ।। चन्द्रो निजषोदशं कृष्णः शुक्लश्च पचदशदिनान्तम् । अघस्तनं नित्यं राहुगमनविशेषेण वा भवति ॥ ३४२ ।। हो। चन्नः निषोडशमागभिवयाप्य कृष्णः शुक्लप भवति। पञ्चदशदिनपर्यन्तं षोडशकलाना १६ मेतावति बिम्बक्षेत्रे एकालायाः सिमिति सम्पात्याष्ट्राभिरपवयं गुपिते एवं व एककलायाः एतावति क्षेत्र पर पोडशकलाना १६ किमिति सम्पास्याभ्यामपवयं गुरिणते एवं समाचार्यान्तराभिप्रायेणापत्तननित्यराहगमनविशेषेण वा भवति ॥ ३४२ ॥ चन्द्र मण्डल की वृद्धि हानि का क्रम बताते हैं : गापा:-चन्द्र मण्डल पन्द्रह दिनों में अपनी सोलह कलाओं द्वारा स्वयं कृष्ण और शुक्ल कंप होता है। अन्य प्राचार्यों के अभिप्राय में राहु. चन्द्र विमान के नीचे विशेष प्रकार से गमन करता है, जिस कारण चन्द्र प्रत्येक पन्द्रह दिनों में कृष्ण और शुक्ल होता है ।। ३४२ ।। विशेषार्थ :--चन्द्र विमान के कुल १६ भाग हैं। एक एक दिन में एक एक भाग जब कृष्ए रूप परिणमन करता जाता है नब चन्द्रमा १५ दिन में स्वयं कृष्ण रूप हो जाता है, और जब प्रत्येक दिन एक एक भाग श्वेतरूप परिणमन करता है तब चन्द्र, १५ दिन में कम से शुक्ल रूप हो जाता है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ त्रिलोकसार गाथा : ३४३ चन्द्रमा का विस्तार योजन है, और उसके भाग १६ हैं, अतः जब कि १६ भागों का "योजन विस्तार है, तो एक भाग का कितना व्यास होगा? इस प्रकार राशिक कर (१४) को आठ से अपवर्तन करने पर पर योजन ( २२९१ मील ) व्यास एक कला का प्राप्त होता है । १ कला का विस्तार १५ योजन है तो १६ कला का कितना होगा? इस प्रकार राशिक करने पर वही योजन प्राप्त हो जायगा । ___ अन्य प्राचार्यों का अभिप्राय है कि :-अन्जनवर्गा राहु का विमान प्रतिदिन एक एक पथ में पन्द्रह कला पर्यन्त चन्द्र लिम्ब के एक एक भाग को आच्छादित करता है, और पुन: वही राहु प्रतिपदा से एक एक वीश्री में अपने गमन विशेष के द्वारा पूर्णिमा तक एक एक कला को छोढ़ता जाता है। अथ चन्द्रादीनां विमानवाहकदेवानामाकारविशेष तत्संख्यां चाह--- सिंहगयवसहजडिलम्सायारसुरा वहति पुवादि । इंदुरवीणं सोलससहस्समद्धमिदरतिये ॥ ३४३ ।। सिंहगजवृषभटिलाश्वाकारसुरा बहुन्ति पूदिम् । इन्दुरोणां षोडषसहस्र अर्थाचं मितरत्रये ।। ३४३ ।। सिंह । सिंहगजवृषमजटिलापवाकारसुरा पहन्ति तद्विमानपूर्वादिकं सरसंख्या इन्तुएवोगा षोडशसहस्राणि तवर्षिक्रममितरत्रये ग्रहनक्षत्रतारकारूपे ॥ ३४३ ॥ चन्द्रादिक ज्योतिषी देवों के विमान, वाहक देवों का आकार विशेष और संख्या कहते हैं : गाथार्थ :-सिंह, हाथी, बैल और जटा युक्त घोड़ों के रूप को धारण करने वाले सोलह सोलह हजार देव चन्द्र और सूर्य के हैं. तथा अन्य तीन के अर्घ मधं प्रमाण हैं। ये सभी आभियोग्य देव अपने अपने विमानों को पूर्वादि दिशाओं में ले जाते हैं ॥ ३४३ ।। विशेषार्थ :-मिह आदि आकार वाले देव क्रम से पूर्वादि दिशाओं में अपने अपने विमानों को ले जाते हैं। चन्द्र सूर्य के वाहन देव १६, १६ हजार हैं। शेप के अर्ध अधं प्रमाण हैं। जैसे : [ चार्ट अगले पृष्ठ पर देखिये ) Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ३४४ ज्योतिलोकाधिकार पूर्व दिशा के वाइन, दक्षिण दिशा के वाहन योग पश्चिम दिशा के । उत्तरदिशा के ' वाहन वाहन बैल ४००० । घोड़े ४... चन्द्र | मिह ४०.० थी ४००० १६००० शुक " २००० । " २... " २००० | - २००० ८०.. 5000 शनि मंगल । ८००० नक्षत्र तारे Y.. . ५०० , ५०० । २० भयाकाशे घरता कियनक्षत्राणां दिग्विभागमाह उत्तरदाक्खिणउड्ढाधोमजके अभिजिमूलमादी य । भरणी किचिय रिक्सा चरं नि अवराणमेचं तु ।। ३४४ ।। उत्तरदक्षिणोधिोमध्ये प्रभिजिन्मूलस्वातिश्च । भरणी कृत्निका ऋक्षारिण चरम्ति अवराणामेवं तु ॥ ३४४ ॥ उत्तर । उत्तरवामिणोधिोमध्ये यथासंख्य प्रमिजिस्मूलस्वातिभरणिकृत्तिकाश्च ममत्राणि परन्ति । प्रवराण क्षेत्रान्तरगतानामभिजिवाविपश्चामामेवमेवावस्थितिः ॥३४४ ॥ आकाश में गमन करने वाले कुछ नक्षत्रों का दिशा-भेद कहते हैं : पार्ष:- उत्तर, दक्षिण, अध्य, अधो और मध्य में कम से अभिजित्, मूल स्वाति भरणी और कृत्तिका नक्षत्र गमन करते हैं। क्षेत्रान्तर को प्रात होने वाले इन नक्षत्रों को ऐसी ही स्थिति है ।। ३४४ ॥ विशेषार्थ:-नक्षत्रों में से उत्तर दिशा में अभिजित् नक्षत्र का, दक्षिण में मूल नक्षत्र का, ऊपर स्वाति का, नीचे मरणी का और मध्य में कृत्तिका नक्षत्र का गमन होता है । क्षेत्रान्तर को प्राप्त होने वाले इन अभिजितादि पांच नक्षत्रों की ऐसी ही स्थिति है। अथ मन्दर गिरेः कियद्रं गत्वा कथं चरन्तीत्यारेकायामाह Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० त्रिलोकमार इगिवीपारस विहाय मेरुं चरंति जोइगणा । चंदतियं जिता सेसा हु चरन्ति एक्कपड़े || ३४५ ।। एक विशंका दशशतानि विहाय मेरुं घरन्ति ज्योतिर्मणाः । चन्द्रत्रयं वर्जयित्वा शेषा हि चरन्ति एकपथे ॥ ३४५ ।। पापा: ३४५-३४६ इगि । एक विशाgतरेकादशशतानि योजनासि मेयं विहाय चरन्ति ज्योतिगंगाः चन्द्राविश्या इति त्रयं वर्जयित्वा शेषाः खलु चरन्त्येकस्मिन् पथि ॥ ३४५ ।। ज्योतिषीदेव मेरु पर्वत से कितनी दूर जाकर और कैसे रामन करते हैं ? ऐसा प्रपन होने पर कहते हैं : गाथा: ज्योतिष सुदर्शन मेरु को ग्यारह सौ इक्कीस योजन छोड़कर गमन करते हैं। चन्द्र त्रय (चन्द्र, सूर्य, ग्रह ) को छोड़कर शेष सभी ज्योतिथी देव एक ही पथ में गमन करते हैं ।। ३४५ ॥ विशेषार्थ :- ज्योतिषी देवों के समूह मेरु पर्वत को ११२१ योजन (४४८४००० मील) छोड़ कर प्रदक्षिणा रूप से गमन करते हैं । अर्थात् मेरु पर्वत मे ११२१ योजन पर्यन्त कोई भी ज्योतिषी देव नहीं पाये जाते । चन्द्र, सूर्य और ग्रह इन तीन को छोड़कर शेष नक्षत्र व तारागण सदा एक ही मार्ग में गमन करते हैं । इदानीं जम्बूद्वीपमारभ्य पुष्करापर्यन्त चन्द्रावित्यप्रमाणं निरूपयति दोहोवरमं वारस बादाल बहचरिंदुणसंखा | पुखरदलोति परदो अडिया सबोगणा || ३४६ || द्वौ दिवाशद्वाचत्वारिंशत् द्वामप्नतिरिद्विनसंख्या । पुष्करला परतः अवस्थिताः सर्व ज्योतिर्गणाः ।। ३४६ ।। दो हो । जम्बूद्वीपावरम्य हो द्विवर्गद्वारा वाचत्वारिदासप्ततयः यथासंख्यमिनिम संख्या पुरवलं यावत् । ततः परतः प्रवस्थिताः सर्वज्योतिराः ॥ ३४६ ॥ जम्बूद्वीप से प्रारम्भ कर पुष्करार्ध पर्यन्त चन्द्र सूर्य के प्रमाण का निरूपण करते हैं . गावार्थ :- चन्द्र और सूर्य की संख्या जम्बूद्वापावि में क्रमशः दो, चार, बारह, बयालिस और बहत्तर है। पुष्करा के पर भाग में सर्व ज्योतिगंगा अवस्थित है, गमन नहीं करते ।। ३४६ ॥ -जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा और दो सूर्य है। लवणोदक समुद्र में चार चार हैं। विशेषार्थ:--ज Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ३४७ ज्योतिर्लोकाधिकार २६१ चातकी लण्ड में भारत, घारह हैं। फालोदक समुद्र में ४२, ४२ हैं और अर्ध पुष्कर द्वीप में ७२ चन्द्रमा और ५२ सूर्य हैं। इस प्रकार अढ़ाई द्वीप में फुल ( २+४+१२+४२+७२ ) = १३२ चन्द्रमा और १३२ सूर्य है। जैसे : विदेह श्चिम D 中 व ↓ Q र्व विदेह चित्रण में जिस प्रकार जम्बूद्वीप लवणसमुद्र और घातकीखण्ड के चन्द्र सूर्य दर्शाये गये हैं, उसी प्रकार कालोदक एवं पुष्करार्ध में भी जानना चाहिए अढ़ाई द्वीप के बाहर के सभी ज्योतिर्गण अवस्थित है, कभी सञ्चार नहीं करते । अथ तत्र स्थितस्थिरतारा निरूपयति-— कदि णवतीससयं दसयसदस्सं खबार हमिदालं । मयणविदुगवणं थिरतारा पृक्खरदलोचि ।। ३४७ ॥ षट्कृतिः नव त्रिशतं दशकसह द्वादश एकचत्वारिंशत् । गगन त्रिद्विक त्रिपाशत् स्थिरताराः पुष्करदलात्तम् ।। ३४७ ।। छदि । षट्कृतिः ३६ नक्षत्रंशदुत्तरशतं ९३६ दशोत्तरसहस्र १०१० खटावशोसरेकचवारिशसहस्राणि ४११२० गगन त्रिष्ट्रिकोत्तर त्रिपात्सहस्राणि ५३२३० स्थिरताराः पुष्करार्धपर्यन्तम् ॥ ३४७ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार अढ़ाई द्वीप में स्थित स्थिर ताराओं का निरूपण करते हैं : गावार्थ :-- पुष्कराचं पर्यन्त ध्रुव तारा क्रम से छत्तीस एक सौ उत्तालीस एक हजार दश इकतालीस हजार एक सौ बीस और त्रेपन हजार दो सौ तीस हैं ।। ३४७ ।। २९२ विशेषार्थ :- जम्बूद्वीप में स्थिर तारा २६३, लवणोदक समुद्र में १३९, घातकी खण्ड में १०१०, कालोक में ४११२० और पुष्करार्ध में ५३२३० ध्रुव ताराएं हैं। अथ ज्योतिर्गणानां च विचारमति— गाथा : ३४६-३४६ जो एक्के मागम्हि दीवडवहीण | एक्के मागे अर्द्ध चरंति पंतिषकमेव ।। ३४८ ।। स्वकीयस्वकीयज्योतिर्गणाधं एकस्मिन् भागे द्वीपोदधीनाम् । एकस्मिन् भागे अर्थ चरन्ति पद्मिकभेव ॥ ३४८ ॥ सामामात्रमेवार्थः ॥ ३४८ ॥ अब ज्योतिषी देवों के गमन क्रम का विचार करते हैं: -- :- अपने अपने द्वीप समुद्रों के ज्योतिपी देवों के समूह का अभाग अपने अपने द्वीप समुद्र के एक भाग में और दूसरा अर्थ भाग एक भाग में पंक्ति रूप गमन करता है ॥ ३४८ ॥ विशेषार्थ :- जिस जिस द्वीप समुद्र में जिसने जितने ज्योतिषी देव रहते हैं, ज्योतिषी देव तो उसी अपने द्वीप या समुद्र के एक भाग में सवार करते हैं, और आधे करते हैं। ज्योतिषी देवों का गमन पंक्तिबद्ध होता है । अथ मानुषोत्तरात्रचन्द्रादित्यानामवस्थानकमं निरूपयति मसुरसेलादो वेदमूला दीवउवहीणं । पणासहिय लक्खे लक्खे तदो वलयं ॥ ३४९ ॥ मानुषोत्तरशला वेदिका मूलात् द्वीपोदधीनाम् । पाशत्सहस्रश्च लक्षे लक्षे ततो वलयं ॥ ३४६ ।। उनमें से आधे एक भाग में मासु । मानुषीतलात् प्रोपोदीना वेविकाला पञ्चाशत्सहस्रयोजनानि गरा भवति । ततः परं लक्षलक्षयोजनानि गरवा वलयानि भवन्ति ।। ३४६ ।। - L Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा। ३५० ज्योतिर्लोकाधिकार मानुषोत्तर पर्वत के परभाग में चन्द्र और सूर्य के अवस्थान अम को कहते हैं : गाया :-मानुषोत्तर पर्वत से और द्वीप समुद्रों को वेदिका के मूल से ( ५०...) पचास हजार योजन आगे जाकर प्रथम वलय है, तथा दोनों स्थानों के प्रथम वलयों से एक एक लाख योजन आगे जाकर द्वितीयायि वलय हैं ।। ३४९ ।। विशेषार्थ:-मानुषोत्तर पर्वत से पचास हजार ( ५०... ) योजन आकर बाह्म पुष्कराध में { चन्द्र सूर्य का) प्रथम वलय है, और प्रथम बलय से एक एक लाख योजन ागे जाते हुए कम से वितीयादि वलय हैं । इसी प्रकार द्वीप समुद्रों की वेदिका के मूल मे ५० हजार पोजन जाकर प्रथम वलय है, इसके बाद एक एक लाख योजन मागे मागे द्वितीयादि वलय हैं । अथ तेषु वलयेषु व्यवस्थित चन्द्रादितः:: संगामालगानि.... दीपद्धपढमबलये चउदालसयं तु घलयबलयेसु । चउचउवड्ढी भादी आदीदो दुगुणदुगुणकमा ।। ३५० ।। द्रोपाधप्रथमवलये चतुश्चत्वारिंशचन्द्रतं तु वलपवलयेषु । चतुश्चतुद्धयः प्रादिः आदितः द्विगुणदिगुण कमः ॥ ३५ ॥ वोव। मामुषोतराहिः स्तिकाद्वीपाघप्रयमवलये चतुषवस्मारिशसरशतं १४ तत उपरि वलयबलपेषु पतनश्चतक्षो वृक्षयो भवन्ति । १४८ । १५२ । १५६ १ १६० । १६४ । १६८ । १७२ उत्तरोतरस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा प्राविः प्रथमप्रपमस्य डीपस्य Rमुनस्य का प्राक्तनालयस्याक्सि: द्विगुणद्विगुरण कम: २८८ ॥ ३५ ॥ इन वलयों में स्थित चन्द्रों और सूर्यों की संख्या : पाया :- बाल पुष्करा द्वीप के प्रथम वलय में १४४ चन्द्र और १४४ सूर्य हैं, तथा द्वितीयादि वलयों में प्रथमादि वलयों से चार चार की वृद्धि को लिए हुए हैं। पूर्व पूर्व द्वीप समुद्रों के आदि में चन्द्र, सूर्य की जो संख्या है, उससे उत्तरोत्तर द्वीप समुद्रों को आदि में चन्द्र सूर्य की संख्या दूनी दुनी है ॥ ३५० ।। वियोषा :-मानुषोत्तर पर्वत से बाहर जो पुष्करसंघ द्वीप है, उसके प्रथम वलय में चन्द्र और सूर्यों की संख्या १४४, १४४ है । दूसरे, तीसरे आदि घलयों में चार बार की वृद्धि होते हुए कम से १४८. १५२, १५६, १६०, १६४, १६८, १७२.....--." हैं। पूर्व पूर्व द्वीप समुद्रों के आदि में चन्द्र सूर्य की जो संख्या है, उत्तरोत्तर द्वीप समुद्रों के आदि में उससे दूनी वूनी है। जैसे :पुष्करा द्वीप के आदि ( प्रथम ) वळय में चन्द्र, सूर्यो को संख्या १४४, १४ है और पुष्कर समुद्र के बादि में दोनों की संख्या २८८, २८८ है, इसके बाद प्रत्येक वलय में ४, ४ की वृद्धि होगी। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ গিভীৱাৰ पापा।११ अथ तत्तालयव्यवस्थित चन्द्रचन्द्रातरं सूर्यसूर्यान्तरं च निवेदयति सगसगपरिधि परिधिगरबिंदुमजिदे ६ अंतर होदि । पुस्सम्हि सन्वररहिया हु चंदा व अभिजिम्हि ।। ३५१ ।। स्वकस्व कपरिधि परिधिगरवीन्दुभक्त तु अन्तर भवति । पुष्ये सर्वसूर्याः स्थिता हि चन्द्राच अभिजिति ॥ ३५१ ॥ __सग। स्वकोपस्वकीयसूक्ष्मपरिषो परिधिगतरवीनुप्रमाणेन मर सति बसरं भवति । तत्र सावलम्जूहीपाबारम्पोभयभागगततसमूहोपतमुव्वलयल्याप्तमेलनसमात द्वितीयपुष्कररावप्रथमलयसूचीकयासत्य ४६..... विश्वंभव' स्याविना परिधिमानीय १४५४६४७७ तस्मिन् सत्यरिधिगसरवीन्दुप्रमाणेन १४४ भक्त बिम्बसहितान्तरं पत्रावित्याना १८१०१७ पोष २४१ बिम्ब र हितान्तरानयने लिम्बसहितान्तरलापादेकमपनीय १०१०१६ शेषेण सह समय वा 48 घे मेलयिस्या सामनेन सह बपिम् + सूर्यविम्ब वा परस्परहारगुणमे समन्छेदं कृत्वा शेष चन्द्र सूर्य १७१३ बिम्बे तस्मिन चन्द्रबिम्बे अपनीते सूर्यबिम्बे अपनीते । बिम्बरहितं बगसूर्यातरं स्यात् । पुष्ये सर्वे सूर्याः स्थिताः पाच प्रविति स्पिताः ।। ३५१ । ___ अब उन उन वलयों में स्थित चन्द्र से चन्द्र का सूर्य से सूर्य का अलर कहते हैं : गाथार्थ:-अपनी अपनी परिधि में अपनी अपनी परिषि ( वलय ) गत चन्द्र और सूर्यो को संख्या का भाग देने पर वहाँ स्थित एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का और एक सूर्य से दूसरे सूर्य का अन्तर ज्ञात होता है। सवं सूर्य पुष्य नक्षत्र पर और सर्व चन्द्र अभिजित् नक्षत्र पर स्थित हैं।॥ ३५ ॥ विशेषार्य :--अपनी सूक्ष्म परिधि में परिधिगत सूर्य चन्द्रों की संख्या का भाग देने में दोनों का अपना अपना अन्तर प्राप्त होता है। जम्बूदीप से प्रारम्भ कर दोनों ओर के अभ्यन्तर द्वीप समुद्रों का वलय मास मिलाने से बाह्य पुष्कराध के प्रथम बलय का सूची व्यास चालीस लाख (४६०००.० ) योजन प्रमागा प्राप्त होता है । जैसे :-मानुषोत्तर पर्वत का सूची व्यास पेंतालीस लाख ( ४४००००.) योजन है, इसमें दोनों ओर का पचास, पचास हजार ( १ लाख ) योजन वलयध्यास मिला देने से ( ४५ लाख+१ लास्न )= ४६ लाख योजन' सूची व्यास प्राप्त हो जाता है। "विश्वम्भ वादह" इत्यादि करण पूत्र (गा. ९६) के द्वारा ४६ लाम्न योजन सूचीच्यास की परिधि का प्रमाण १४५४६४४७ योजन ( एक करोड़ पंतालीस लाख छयालीस हजार चार सौ सतत्तर योजन ) होता है। इस परिधि में तद्गत चन्द्र सूर्यो की संख्या का भाग देने पर उन उन चन्द्र सूर्यों का बिम्ब सहित अन्तर प्रा होता है । जैस:१४५४६४७७ : १४४-१०१.१७१. योजन अन्तर बिम्ब सहित एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का और एक Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३५२-३५३ ज्योतिलोकाधिकार २६५ सूर्य में दूसरे सूर्य का हुआ। हममें से चन्द्र बिम्ब का विस्तार योजन और सूर्य बिम्ब का विस्तार योजन कम कर देने पर उनका बिम्ब रहित अन्तर इस प्रकार प्राप्त हो जाता है-विम्ब सहित मन्तराल का प्रमाण १०१०१७ योजन था । इसमें से एक योजन निकाल ( १०१०१५-१=१०१०१६ । कर इगमें प्रयोजन जो अवशेष थे उन्हें लघुत्तम विधान में मिलाने पर- अति FAMIN हुआ इसमें से चन्द्र बिच का प्रमाण योजन और सूर्य बिम्ब का प्रमाण । योजन घटा देने पर = १०५५ - ३४, योजन अर्थात् १०१०१६३४६ योजन बिम्ब सहित एक पार से दूसरे कन्द्र का अार प्राप्त होता है। इसी प्रकार 10-11 ५०१३-११-१४ योजन अर्थात् १०१०१६VE योजन बिम्ब रहित एक सूर्य से दूसरे सूर्य के अन्तर का प्रमाण प्राप्त होता है । सर्व वलय सम्बन्धी चन्द्र अभिजित् नक्षत्र पर और सर्व वलय सम्बन्धी सर्य पुष्य नक्षत्र पर स्थित है । अर्थात नक्षत्रों के विमान नीचे और चन्द्र सूर्य के विमान ऊपर हैं। . अथासंपल्यानद्वीपममुद्रगतचन्द्रादिसंख्यानयने गच्छमानयन् तत्कारणभूतासंख्यात द्वीपसमुद्रसंख्या गाथाष्टकेनाह रज्जद लिदे मंदिरमशादो चरिमसायरतोचि । पड़दि तदद्ध तस्स दु अब्भतरवेदिया परदो ।। ३५२ ।। दयगुणपण्णतरिमयजोयणमुवगम्म दिस्सदे जम्हा । इगिलकाबाहिभो एक्को पुचमसम्वहिंदी वेहि || ३५३ ।। रज्जूदलिते मन्दरमध्यतः चरमसागरान्त इति । पतति तदधं तस्य तु अभ्यन्तरवेदिका परतः ॥ ३५२ ।। दशगुणपक्षसप्ततिशनयोजनमुपगम्य दृश्यते यस्मात् । एकलक्षाधिकः एकः पूर्वगसर्वोदधिद्वीपेभ्यः ।। ३५३ ।। रज्जू । रज्जूबलने कृते सति मन्दरमाध्यतः प्रारभ्य चरमसागरान्तं यावद तावत गरवा पतति सस्या पुनरमभितायां तस्य परमसागरस्याभ्यन्तरविकापरता ॥ ३५२ ॥ पस । बागुणपञ्चसप्ततिशत ७५००० योजनमुपगम्य रम्जुश्यते । हुत इति चेह । पस्मात कारणात पूर्वस्पितेभ्यः सर्वोषियोपेभ्यः सकाशात उत्तरः एकः कश्चिदीपा समुद्रो वा एकलक्षाधिका। एतदेव स्पष्टीकरोति । एक ३२ ल०, स्वयम्भूरमाणं सम्व जम्बूद्वीपातालकसहित सई द्वीपसमुद्रवलयल्यासाडू ५००० । २. ४ ल०। ८ ल.। १६ ला० । ३२ ला इत्यादि मेलयिस्या ६२५०००० कृते ३१२५००० वितीयवार विमरणसुप्रमाणं । तस्मिन् सम्मारामतानसर्यवलयम्यासे Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ त्रिलोकसार ३०५०००० न्यूते सति वस्वन्तरवेदिकापरतो गरबा पतितरज्जुप्रमाणं स्यात् ७५००० । तस्मिन्नधितेऽपि ३१२५००० प्रषिते १५६२५०० तोयवार छिन्नरज्जुप्रमाणं स्यात् । सस्मिम् तस्मात्प्राक्तन सर्भ वलय या से १४५०००० प्रपनीते सति तदभ्यन्तरयेविका परतः पतितरज्जुक्षेत्रफलप्रमाणे स्याद १९२५००। एवमेव तत्तत्प्राक्तनाथंमधकृत्य तस्मिन् तस्मात्प्राक्तन सर्ववलयध्यासमपनीय समस्यन्सर वे विकारतः पतितरज्जुक्षेत्र प्रमाणं शातव्यम् ॥ ३५३ ॥ पाच। । ३५२-३५३ अब असंख्यात द्वीप समुद्रगत चन्द्रादिक की संख्या प्राप्ति के लिए गच्छ का प्रमाण लाकर उसके कारणभूत असंख्यात द्वीप समुद्रों की संख्या आठ गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाथार्थ :- सुमेरु पर्वत के मध्य से अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र के एक पाश्र्व भाग पर्यन्त राजू का दल अर्थात् अधेराजू क्षेत्र होता है, तथा उसका आधा स्वयम्भूरमण समुद्र की अभ्यन्तर वैदिक से दश गुणित पनहतर सो योजन आगे जाकर दिखाई देता है, क्योंकि पूर्व के सर्व द्वीप समुद्रों का जितना व्यास होता है, उससे उत्तरवर्ती द्वीप समुद्रों का व्यास एक लाख योजन अधिक होता है ।। ३५९ ३५३ ।। विशेषार्थं :-- सुमेष पर्वत के मध्य से प्रारम्भ कर अन्तिम स्वयम्भूरमा समुद्र के एक पा भाग पर्यन्त का क्षेत्र राजू प्रमाण है तथा स्वयम्भूरमया समुद्र की अभ्यन्तर देदी से पचहत्तर हंजार ( ७५००० ) योजन आगे जाकर उस अधे राजू का भी अर्ध भाग का प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि पूर्व स्थित सर्वेद्वीप समुद्रों के व्यास को जोड़ने से जो प्रमाण प्राप्त होता है, उससे उत्तरवर्ती सर्व द्वीप समुद्रों के व्यास का प्रमाण एक लाख योजन अधिक होता है । इसोका स्पष्टीकरण करते हैं :- मान लीजिए कि स्वयम्भूरमण समुद्र का व्यास बत्तीस (३२) लाख योजन है। जम्बूद्वीप के अर्धव्यास महिन सर्वद्वीप समुद्रो के व्यास का प्रमाण जोड़ने पर निम्नलिखित राशि उत्पन्न होती है :- जम्बूद्वीप का अर्धव्यास ५०००० योजन + २ लाख + ४ लाख + ८ लाख + १६ लाख + ३२ लाख --- ६२५०००० ( साढ़े बासठ लाख ) हुआ, यही ( ६२५०००० योजन ) कल्पना किए हुए राजू का प्रमाण है । इसको आधा करने पर ( 1300 ) ३१२५००० योजन प्रमाण होता है। यही दूसरी बार अ किया हुआ राजु का प्रमाण है। इन ३१२५००० योजनों में से पूर्व द्वीप समुद्रों के वलय व्यास ५००००+ १ लाख + ४ लाख + ८ लाख + १६ लाख - ३०५०००० को घटा देने पर (३१३५०००३०५०००० ) स्वयम्भूरमण समुद्र की अभ्यन्तर वेवी से ७५००० योजन बागे जाकर अर्थ राजू का भी अर्ध प्रमाण प्राप्त होता है। आधा किया हुबा जो राजू का ३१२५००० प्रमाण है, उसे पुना माघा करने पर (313500०) १५६२५०० | पन्द्रह लाख बासठ हजार पांच सो ) योजन तीसरी बार किया हुआ राजू का प्रमाण है। इसमें से पूर्व द्वीप समुद्रों के वलय व्यास ५०००० + २ ला०+ ४ लाख + ८ लाख १४५०००० को घटा देने पर १५६२५०० - १४५०००० ) - ११२५०० ( एक Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाय।। ३५४-३५५ ज्योतिर्लोकाधिकार २६७ लाख बारह हजार पांच सौ ) योजन शेष रहे, अतः स्वयम्भूरमण द्वीप की अभ्यन्तर वैदी से ११२५०० योजन आग जाकर तृतीयवार अर्ध किया हृमा राजू का प्रमाण प्राप्त होता है। इसी प्रकार पूर्व पूर्व प्रमाण को अर्घ अधं करते हुए उसमें से पूर्व पूर्व के वलयव्यास को घटाने पर जो जो प्रमाणा गाम हो नही चाहि काम पनं किये हुए राजू क्षेत्र का प्रमाण जानना चाहिए। पुणरवि विण्णे पच्छिमदीयम्भंतरिमवेदियापरदो । सम्पदलजुदपण्णचरिसहस्समोसरिय णिवडदि सा ।। ३५४ ॥ पुनरपि चित्रायां पश्चिमद्वीपाभ्यन्तरवेदिकापरतः । स्वदलयुतपश्चसप्ततिसहस्रमपसृत्य निपतति सा ।। ३५४ ॥ पुण। द्वितीषवारछिनरो ३१२५००० पुनरपि छिन्तायो १५६२५.० पश्चिमीपाम्पतरवेबिकापरतो गत्वा स्वकीयबल ३७५०० युक्तपत्रसप्ततिसहस्र ११२५०० मपसृत्य निपतति सा रज्जुः ॥ ५४॥ पापा:-पुनः माधा किया हुआ राजू का प्रमाण पिछले द्वीप को अम्यन्तर वेदो से अपने अर्थ माग सहित ७५००० (पचहत्तर हजार ) योजन अर्थात् (७५.००+३७५००)-११२५०० योजन दूर जाकर पड़ता है ।। ३५४ ।। विशेषार्थ :-अङ्क संदृष्टि में दूसरी बार छिन्न (अर्घ ) किया हुआ राजू का प्रमाण ३१२५००० योजन था, इसे पुन: आधा करने पर (१२५००० )=१५६२५०० योजन हुआ। यह प्रमाण पिछले द्वीप की अभ्यन्तर वेदी के पर भाग से आगे उस द्वीप में अपने अर्ध भाग [ ( 420 )= ३७५०० योजन 1 सहित ७५००० योजन अर्थात् ( ७५००० + ३७५०० यो० ) = ११२५०० योजन दूर जाकर पड़ता है। दलिदे पूण तदर्णतरसायरमज्झतरत्यवेदीदो। पडदि सदलचरणणिपण्णतरिदसमयं गचा ।। ३५५ ।। दलित पुनः तदनन्तरसागर मध्यान्तरस्थ वेदीतः । पतति स्वदलचरणान्वितपञ्चसप्ततिदशशतं गत्वा ।। ३५५ ॥ बलि । हिमम तृतीयवारछिन्नखण्डे १५६२५०० पलिते ७८१२५० पुनस्तानन्तरसागराम्यन्तरस्पवेदिकापरत: पतति स्वकीयबल ३७५०० चतुपाशाभ्यो १८७५० प्रतिपञ्चसप्ततिदशशतं १३१२५० गाभार्थ:-पुनः आधा किया हुआ राजू का प्रमाण उस द्वीप के बाद वाले समुद्र की अम्बन्तय वेदो से आर्ग अपने अघ और 'सत्तुर्थ भाग से सहित ७५००० योजन दूर जाकर पड़ता है ।। ३५५ ।। विशेषा:-अङ्क संदृष्टि में तीसरी बार आधा किया हुआ राज का प्रमाण १५६२५०० योजन था। इसे पुन: अर्ध करने पर ( १५१३५०° ) - ७८१२५० योजन प्राप्त हुआ। यह ७३१२५० Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रिलोकसार गाथा: ३५६ ५००० योजन प्रमाण अहीन्द्रवर नामा समुद्र की अभ्यन्तर बेदी से अरंगे उस समुद्र में ७५००० योजन, इसका बाधा ३७५०० यो० और इसका भी आधा ( ५०° )= १८७५.० योजन अर्थात ( ७५०००+ ३७५.०० + १८७५० योजन )- १३१२५० योजन दूर जाकर पड़ता है। इदि अन्भंतरतउदो सगदलतुग्यिमादिसंजुचं । पण्णन सहस्सं गंतूण पडेदि सा ताव ।। ३५६ ।। इति प्राम्यन्तरतरतः स्वकदलतुर्याटमादिसंयुक्तम् ।। ५ श्वसप्ततिम हस्र गत्वा पतति सा तावत् ।। ३५६ ।। इति । इति प्रपन्तरतटस: पारम्य स्वकीयवल ७५००० तुर्या : ७५८०. पुष २x२' २४२४२ हमाचंशः संयुक्त पञ्चसप्ततिसहस्र प्राविशम्बात् पोशांश द्वात्रिशीशा ११२ अधिकमेण गत्वा पतति सा रज्जुस्सावत् याववेवमधिकरणकयोजनमुखरति ते पञ्चसप्ततिसहस्रच्छेदा इयतः १७ वरितकयोजनमंगुलं कृत्वा ७६८००० याबदेकोगुलमुवरति सावतोबगुलेषु छिम्मेषु इयन्तश्छेदा १६ तग्विान सर्षान १७+१६ संख्यातं कृत्वा ( 1 ) सरसंख्यातं प्रशिष्टकांगुलं सूच्यगुसं कृत्वा तस्य छेवेषु । छे छे मिलितमिति (छे थे) मनसि धृत्वा संखेज्जेति' गापामाह ॥ ३५६ ॥ पापार्ष:--इस प्रकार अभ्यासर तट से अपने अचं भाग, नाथाई भाग ओर आठवें भाग आदि से सहित ७५००० हजार योजन आगे जाकर राज का प्रमाण तब तक पड़ता है, जब तक अध अधं करते हुए एक योजन रहता है ।। ३५६ ॥ विशेषार्थ :- इसीप्रकार अभ्यन्तर तट में प्रारम्भ कर ७५००० योजनों से सहित-३", ...... ५०, ५५१०, १३०० अर्घ अर्घ क्रम से जाता हुआ मजू तब तक पड़ता है, जब तक कि मंध अधं करते हुए एक योजन रह जाता है। जैसे- ( उपयुक्त गाथाओं में तीन बार अधं भाग किया जा चुका है। चतथं बार अर्घ किये हुए अहीन्द्रवर नामक द्वीप के अभ्यन्तर तट से अपने ५१°+ १५१००+0-22 से सहित ७५.००० योजन अर्थात ७५... |.३७५००+१८५५ +९३७५ = १४.६२५ योजन आगे जाकर राजू का पौधा साधछेद पड़ता है। पाचवीं बार आधे किये देवव र नामक समुद्र के अभ्यन्तर तट से अपना •५१०० + nge+ sage 0 + १०० अर्थात ७५००० + ३७५०० + १८७५० + ६३७५२४६८७१-१४५३१२, योजन भागे जाकर राज़ पड़ता है। छठवीं बार आधे किये देववर नामक द्वीप के अभ्यन्तर तट से अपना 192° + ५१° + .५१००-१०० + १ अर्थात् ७५०००+ ३.७५०० + १७५० + ६३७५ +४६८७३ + २३४३१= १४७६५६२ योजन आगे जाकर राजू पड़ता है। इसी प्रकार अर्ध अपं के कम से बाते हए जहा एक योजन प्राप्त होता है. वहाँ ७५००० के १७ अच्छेद हो जाते हैं। [इसका चित्रण अगले पृष्ठ में दर्शाया जा रहा है। ] प्राप्त हुए इस एक योजन के अंगुल बनाने पर ७६८००० मंगुल हुए। ---. - ... Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ree ज्योतिर्लोकाधिकार गाथा । ३१६ O F D D D D E ७५००० ७५००० + ७५०००+ ७५०००+ ७५०००+ ७५०००+ ७५००+ ७५०००+ ७५००० २ ७५००८ ७५००० २ ४ ७५००० २ ७५००० र + ११२५०० योजन + ७५००० ४ ७५००० ७५००० २ Y ७५००० + ७५००० Y ७५००० ७५००० २ ४ ७५००० ४ + + + + + २३१२५० यो० ७५००० ५ ७५००० = ७५००० ८ ७५००० ८ ב ८ + + + | १४०६२५ पो० ७५००० १६ ७५००. १६ ७५०००+ ७१००० १६ ७५००० १६ + + + १४५३१२३ पो. ७५००० ३२ ७५००० ३२ ७५००० ३२ + + | १४७६५६ ] यो ७५००० ६४ 192400 ૪ + ७५००० १२५ 1000 1414 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाब बाया : ३५७ उपर्युक्त कमानुसार अर्थ अर्थ भाग करते हुए अब एक अंगुल प्राप्त होगा, तम ७६८००० अंगुलों के १९ अर्थच्छेद प्राप्त होते हैं । अर्थात् १९ वाय अर्थ अर्थ करने पर एक अंगुल अवशेष रहता है। इन १७ और १२ अर्थच्छेदों को मिला देने पर जो लब्ध प्राप्त होता है, उसका नाम संख्यात है। तथा प्राप्त हुए १ अंगुल के प्रदेश बनाकर उन्हें उपयुक्त क्रम से अर्ध अर्थ करते हुए बितनी बार में एक प्रदेश प्राप्त हो उतने ही सूच्यंगुल के अच्छे हैं। इन सूच्यंगुल के अच्छेदों में उपयुक्त रूप से प्राप्त हुए संख्यात का प्रमाण मिलाने के लिए ही 'संखेज्ज व संजुद' इत्यादि गाथा कहते हैं । ३०० संग्वेज्जरुव संजूद मूई अंगुल द्विदिष्यमा जाव 1 गच्छति दीवजलही पहदि तदो मादलक्खेण || ३५७ ॥ संख्येय रूप संयुक्त सूच्यं गुल छेदमा यावत् । गच्छन्ति द्वीपजलयः पतति ततः साधलक्षण ।। ३५७ ।। संखेज । संख्यातरूप संयुतसूच्यंगुल छेदत्रपारगं यावत्तावन्ति ते द्वीपजलयः सत्छेदसमाप्तौ ततः परं सर्वेषु द्रोपोवधिषु सार्धलक्षमेव गत्वा गत्वा पतति । एतत्कथमिति चेत्, अन्सवर ७५००० गुण २ गुखियं १५०००० प्राविविहोणं १५०००० क्रणुत्तरभमिनं । इति कृते भवति । ७५००० *42 । । --------------- । ५०२ । ३ । ३ । ३ । । ४ । २ । १ टि तथा संष्टि: ६४ । ३२ । १६ । ६ । ४ । २ । १ । एवं साधकमेव लवण समुद्रपर्यन्तमसंख्या द्वीपसमुद्र ७५०*० २x२ ॥ ३५७ ॥ गावार्थ :- जब तक संख्यातरूपों से सहित सुच्यंगुल के अच्छेदो का प्रमाण प्राप्त होता है तभी तक वे द्वीपसमुद्र पूर्वोकमानुसार अभ्यन्तर वेदी से आगे जाकर राजू के पतन रूप क्षेत्र को प्राप्त होते हैं, उसके पीछे सर्वद्वीप समुद्रों में डेढ डेढ़ लाख ( १५०००० ) योजन आगे आगे जाकर राजू पड़ता है || ३५७ ।। - विशेषार्थ :- सूच्यंगुल के अच्छेदों में संख्यात जोड़ने मे जो प्रमाण प्राप्त होता है, उतने ही द्वीपसमुद्रों में पूर्वोक्त अर्ध-अधनुक्रम से राजू का पतन होता है, उसके बाद सर्व द्वीप समुद्रों में डेट डेढ लाख योजन आगे जा जाकर हो राज का पचन होता है। इसी को स्पष्ट करते हैं - "अधरणं गुतागुणियं आदिविहां हणूनर भजिनं" - इस करण सूत्रानुसार अम्लघन ७५००० और गुणकार २ है । ७२००० में २ का गुणा करने से १५०००० ( डेढ़ लाख ) होता है, इसमें से आदिविहीणं अर्थात् आदि धन एक प्रदेश घटा कर ( क्योंकि आदि धन एक प्रदेश है ) रूऊत्तर अजिनं अर्थात् एक होन गुणकार (२०११) का भाग देने पर एक प्रदेश होन डेढ़ लाख योजन प्राप्त होते है । जैसे :-- Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क : गामा : ३५८ ज्योतिर्लोकाधिकार .........- { ७५.०० यो०४२-प्रदेश : (२-१)- १ }--१ प्रदेश हीन डेढ़ लाख लब्ध प्राप्त हुआ, . अतः संन्यात सहित मुच्यंगुल के अर्धच्छेदों के प्रमाण वरावर द्वीप समुद्र हुए । अन्त में अभ्यन्तर बेदी सें इतने आगे जाकर राजू पड़ता है। अधं अर्थ की अर्थसंदृष्टि निम्न प्रकार है : मान लीजिए-सूच्यगुल का प्रतीक र है, जिसके अधच्छेद करते करते चार प्रदेश प्राप्त हो जाते हैं। योजन--७.५०.०, ५१०, १००, ५०० ... ............ ........... सूच्यगुन–२, ३, १३ : ... ..... ... प्रदेश-४, २, और १ इस प्रकार अचं अधं को अर्थ संदृष्टि हुई । अङ्कस दृष्टि में- ६४, ३२, १६, ८, ४, र ओर १ है। इस प्रकार डेड इंढ़ लाख योजन के क्रम से लवण समुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप समुद्रों को जाकर क्या होता है, उसे कहते हैं :-- लवणे दुप्पडिदेव जंबूप देजमादिमा पंच । दीउवही मेरुसला पयदुवजोगी ण छन्चेदे ।। ३५८ ।। लवणे तिः पतितः एक जम्बो देहि आदिमाः पञ्च । द्वीपोदधयः मेगसलाः प्रकृतोपयोगिन: न षट् चंते ॥ ३५८ ॥ लवणे लवणसमुने दिः छेवः पतितः सत्रक जम्मूतीपे देहि । तत्र थेवे माविमाः पञ्च द्वीपोवधिच्छेवा: मेरुशलाका च षडेते प्रकृते ज्योति विम्बातयने उपयोगिनो न भवन्ति इत्यप्रेऽपमेष्यते ॥ ३५८॥ गायार्थ :- लवरण ममुद्र में दो अघंच्छेद पड़ते हैं। उन दो में में एक अधं चंद्रद जम्बूद्वीप का ( एक लवण समुद्र का) है। आवि के पाच द्वाप समुद्री के पांच अर्धच्छेद और मामलाका का एक, ऐसे ये छह अधच्छेद प्रश्त में अर्थात ज्योति बिम्बों का प्रमाण लाने में उपयोगी नहीं विशेषार्थ :-लवण समुद्र में दो अघच्छेद पड़ते हैं, उनमें से एक अच्छेद जम्बूद्वीप का मानना, क्योंकि जम्बूद्वीप का पचास हजार मिलाने पर ही दो लाख होते हैं। इन अचंच्छेदों में जम्बूर्वीपादि पांच द्वीप समुद्रों के पांच अर्धच्छेद और मेमशलाका (राजू को आषा करते समय जो प्रथम अधंच्छेद कहा था उस ) का एक, ऐसे ये छह अधच्छेद ज्योतिबिम्बों का प्रमाण लाने में कार्यकारी नहीं हैं, कारण कि तीन द्वीप और दो समुदों के ज्योतिबिम्बो का प्रमाण ३४६ गाथा में Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाय पाथा: ३५९ कह चुके हैं, इसलिए ये पांच अर्धच्छेद उपयोगी नहीं हैं, और मेरुशलाका रूप प्रथम अर्धच्छेद में कोई द्वीप समुद्र नहीं आया इसलिए वह भी यहाँ उपयोगी नहीं है। कुत्रेति चेदाह-- तियहीणसेदिछेदणमेचो रज्जुच्छिदी हवे गच्छो । जंबुदीवच्छिदिणा छरूपजुत्तेण परिहीणा ।। ३५९ ।। त्रिकहीन रिंगछेदनमात्रः रज्जुछेदः भवेत् गच्छः। जम्बूद्वीपछेदेन पड़ रूपयुक्त न परिहीनः ।। ३५६ ॥ लिय । त्रिहीनधेणिछेदनमायो छे छे छे ३-३ रज्जुछेवः तस्मिन् जम्बूदोषस्याम्पतरे बहिन्य पश्चात्पश्चाशत्सहस्रारिप इति मिलित्वा एफलक्षयोजमामि तेषां छेवान १७ तद्गतांगुल ७६५००० वेषाम् १६ मेवमध्येकाले च मेलयित्वा तत् सर्वमेवसंख्यातं . कृत्वा तेन - साहितसूच्यंगुलछेदान्छे के पपनयनराशिकविधिना पपनीते द्वीपसमुदाणा संख्या भवति । कामपनयनराशिकविधिरितिवेत् । एतावत । प्र=छे छे ३ गुणकारं प्रवर्य यवि गुण्ये एक फल=१ रूपमपनौयेत एतावत् १० छे छे गुणकारं प्रदश्य कियवपनीयते इति राशिम फलगुणितामिछा प्रमाणेन विभज्य गुणकार थे छ । भागहारयोः छे छे ३ पल्य शेवा पल्पवषर्गेण सर्श प्रवर्य प्रस्तनं छे छे ३ यावद्भागेनकं उपरितनं छे छे । तापदभागेन साधिकमि' त्यपवयं एतद्रज्जुछेवस्य गुण्ये छे छे छे ३-३ अपनयेत छे छे छे ३-३ -३ इवमेव द्वीपसमुद्राणां संख्यानं भवति । इदानी प्रकृतममुसम्स्याति । जम्बूद्वीपछेदेन षड्पयुक्त ने छ । छ परिहोमो रज्जुधेव एव समस्तद्वीपसमुागतचन्द्रावित्यप्रमाणानमने गच्छो भवति ॥ ३५ ॥ ये छह अधंछद आग कहाँ घटाएंगे, उसे कहते हैं गाथार्थ :-जगरगो के अर्धपदों में से तीन कम करने पर राजू के अच्छेदों का प्रमाण प्राप्त होता है । जम्बूद्वीप के अर्धच्छेदों में उपयुक्त छह अच्छंद मिलाने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसे राज के अर्धच्छेदों में से घटाने पर जो शेष रहे वही ज्योतिबिम्बों की संख्या प्राप्त करने के लिए गच्छ का प्रमाण होता है ।। ३५९ ।। विशेषाय !-जगच्छ पो. राजू लम्बी है. जिसमें समस्त द्वीप समुद्रों को अपने गर्भ में धारण करने वाले तियंग लोक का आयाम एक राजू है। ७ राजू का तीन बार उत्तरोत्तर अषं ५ साधिफमेक (०. प.)। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा । ३५९ ज्योतिलोकाधिकार अध करने पर एक राज प्राप्त होता है, अत: जगच्छणी के अचच्छेदों में से ३ अर्धच्छेद कम किये गये हैं जिसका प्रतीक चिह्न छ छ–३ है। अम्बनीप को बदी र के मध्य त ५०००० योजन, तपा उक्त वेदी से लवण समुद्र में दितीय अर्धच्छेद तक ५०००० अर्थात् जम्बुद्रीप से अभ्यन्तर ५०... योजन और बाहा ५०००० योजन दोनों मिलकर ( ५० हजार + ५० हजार )=१०.००० योजन होते हैं, जिनको उत्तरोत्तर १५ गार अधं अधं करने पर एक योजन प्राप्त होता है। इस एक योजन के ७६८०.० अंगुल होते हैं, इन्हें उत्तरोत्तर १६ बार मर्घ प्रधं करने पर एफ अंगुल प्राप्त होता है। इन ( १७ + १६+१ ) को जोड़ देने पर संज्यात प्राप्त होते हैं, जिमका चिह्न है। राज का प्रथमवार अर्ध करने पर प्रथम अधच्छेद मेरु के नीचे पड़ा था अतः एक लाख योजन के अर्धच्छेद ( १७ + १t +a+ अंगुल के अर्घच्छेद अर्थात् अवशिष्ट एक अंगुल के प्रदेश बना कर उनके अर्धच्छेद । छे छे होते हैं। जम्बूदीप भी एक लाख योजन का है, अतः गाथा में एक लाख योजन के अर्घच्छेदों को जम्बूवीप के अर्धच्छेद कहा गया है। गाथा १८ के अनुसार अंगुल के अधच्छेद पल्प के अधंच्छेदों को कृति ( वर्ग ) के बराबर हैं। पश्य के अर्धच्छेदों की कृति को संक्षेप में प० छे.२ अथवा छे छे भी लिखा जा सकता है क्योंकि पल्य के अधच्छेदों का चिह्न छ है, अत: जम्बूद्रोप के अर्धच्छेद =३७ अधिक प० छ अथवा संख्यात अधिक प. छे' अथवा छ छ है। गाथा १०८ की टीकानुसार तथा गाया १०७ व १०९ के अनुसार जगच्छपी (७ राजू) के अर्धच्छेद x साधिक ५० छ' x ३ होते हैं, क्योंकि पल्य के अधच्छेदों के असंख्यात भाग () को विरलन कर उस पर घनागुल देय देकर परस्पर गुणित करने से जपच्छे णी उत्पन्न होती है और गाथा १०७ के अनुसार देय राशि धनांगुल के अर्धच्छेद (५० छ। .. ३ ) को विरलन राशि ( ) से गुणा करने पर जगच्छणों के ( 48 ५५० छे' x ३ ) अर्घच्छेद होते हैं। इनमें से ३ अर्धच्छेच कम करने पर (१९४१. छे २४३-३ ) एक राजू के अर्धच्छेद होते हैं। इनमें से जम्बूद्वीप के ( संख्यात अधिक प.छे अर्धच्छेद कम कर देने से द्वीप समुद्रों की संख्या प्राप्त हो जाती है। इसको घटाने के लिए अपनपन त्रैराशिक विधि निम्न प्रकार है :प० २२ - ३ ४ ५० छ में से प० छे' x ३ को कम करने के लिए गुणकार राशि प. छे अस० में से एक कम कर देना चाहिए । जैसे ७ ५६ में से यदि ७ कम करने हों तो गुणकार 5 में से एक अङ्क अस. असं. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ त्रिलोकसार पापा1३६० ३ ३ कम कर देने से [ { ७४ (६-१)=(७४५)=४२-३५=७ ] कम हो जाते हैं जबकि प• छे' x ३ कम करना है तो पल में एक अङ्क कम होता है। यदि साधिक प• छे०२ कम करने हैं तो ५० छ में से कितने अङ्क कम होंगे ? इस प्रकार त्रैराशिक करने से साधिक ५०.X छे' x १. साधिक प्राप्त होते हैं । अर्थात् प. ॐ में से माधिक ! कम होंगे। इसप्रकार [( प छै० साधिक ११:० ५३ : जम्बूद्वीप के अधच्छेद । यदि असंख्यात का ।। असं०५ / १० १३. जम्बूद्वाप क अघच्छद। याद प्रतीक चिह्न हो तो यह संख्या निम्न प्रकार से लिखी जा सकती है। यथा-(-) xछे छे ४३ )-छे छ । अर्थात् एक राजू के अधच्छेदों में से छह अधिक जम्ब दीप के अर्धच्छेद ( छ । छे ) कम करने से समस्त द्वीप समुद्र गस चन्द्र सूर्यों की संख्या प्राप्त करने के लिए गच्छ का प्रमाण होता है। अथ ज्योतिबिम्बसंल्यानयनगच्छस्यादिमाह पुरखरसिंधुभयधणे पउघणगुणसयछहत्तरीपममो । च उगुणपचमो रिणमवि अहकदिगृहमुवरि दुगुणकर्म ।। ३६० ।। पुष्करसिंधूभयधनं चतुर्घनगुणशतषट्सप्ततिः प्रभवः । चतुगुणप्रचयः ऋणमपि अष्टकृतिमुख मुपरि द्विगुण क्रमं ॥ ३६॥ पुण्जर। पुष्करसमुनस्याच सरधनमानेतन्यं । कमिति चेत् । 'माशी प्रायोको गुण दुगुण कमे इति ज्यायेन पुरोत्तघस्यावितः १४४ पुष्कर सिपोराविनिगुणा १४४४२ भवति । सं मुझं कृत्वा पद ३२ हत मुखं १४४४२४ ३२ मुखंस्थितेन चिकेन २ पदं ३२ पुरणमित्या स्थापिसे १४४४६४ प्राविधनं स्यात् । ध्येकपा ३१ मर्घ ३. नवय ४ पुलो गच्छ: 3४४४३२ प्रत्रापस्तन द्विकमुपरितमचतुरकरणापवस्वं प्रशिक्षिकेन पवे पुएिते एवं ३१४ ६४ पस्मिन्नुत्तरधने ऋरानिक्षेपार्थ उत्तरधनगतगुणकारस्य ३१४ ६४ ऋस १४१४ गुणकारं ६४ सदृशं प्रदर्य १४६४ प्रारमप्रमाणका ऋणं निक्षिप्य ३२४६४ पदमप्पाविषने १४४४६४ तथा सार अवश्यं चतुरुत्तरचत्वारिंशयारूपे १४४४ ६४ पाविधनगुण्ये द्वात्रिंशमूपोत्तरधनगतगुष्ये ३२४६४ मिलिते सति पर्धनगुणितषट्सप्तस्थुसरासरूप १७६४६४ पुष्करसिधूभयपनमेष ज्योतिबिम्बानयनगच्छस्य प्रभवः स्यात् । एवमुसरत्र वारुणियरतोपादिषु सर्वत्र प्राक्तनावितः १४४४२ द्विगुणक्रमेण स्थित मुलं १४४४२४२ पदहलं कृत्वा १४४४२४२४६४ विकद्वयमन्योन्य संगुण्य चतुःषधिरने स्थापित प्राविधनं १४४४६४४४४१ येकपटत्याविमा उतरवामप्यानीय ३४४४६४ तस्मिन्नपतिताहिक Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३६० ज्योतिर्लोकाधिकार ३०५ चतुः पहिरन संस्थाप्य ६३४६४ ४२ मिक्षिप्य प्रतद्गुणकारगुरिणतकरूपं ६४४२ निक्षिप्य सर्वत्र चउपरणगुणतयछहसरिता भवितव्यमित्येतवर्ष वात्रिंशदवशिष्यते यया तथा सम्मेध तष्टिकन पूर्वतिक मंगण्य ३२x६४४४ पानिधन १४४४६४४४ उत्सरवनयोः ३२xexxy मेलने Verma चतुर्गणतचयो भवतीति शालव्यं । एवं सर्वत्र पनं चतुर्गणोरक्रमेण गच्छति । ऋएमपि प्रतिमुखं उपर्युपरि विगुणोत्तरक्रमः च स्याना ॥ अब ज्योतिबिम्बों की संख्या लाने के लिये जो मच्छ कहा है उसको आदि कहते हैं : गाथा:-चार के घन ( ४ ) से गुणित १७६ पुष्कर समुद्र का उभय ( आदि+उत्तर) धन है, यही यहाँ प्रभव ( मुख ) है, और आगे प्रत्येक द्वीप-समुद में चतुगुण अर्थात् चौगुणा चौगुणा प्रचय ( वृद्धि कम } है. तथा ऋगा में भी आठ को कृति ( ६४ ) मुख है, और ऊपर ऊपर द्विगुण क्रम अर्थात् कम से दुगुणा दुगुणा प्रचय ( वृद्धि कम ) है ।। ३६७ ।। विशेषा:-जितने स्थानों में अधिक अधिक होता जाय, उन सब स्थानों की संख्या को पद या गच्छ कहते हैं । प्रथम स्थान को आदि, मुख मा प्रभव कहते हैं। प्रति स्थान में जितना जितना अधिक होता है, उस अधिक के प्रमाण को प्रचय कहते हैं। दृद्धि के प्रमाण बिना आदि स्थान के . प्रमाण के समान जो धन सर्व स्थानों में होता है, उसके जोड़ को आदि धन कहते हैं। आदि धन के बिना सर्व स्थानों में वृद्धि का जो प्रमाण है, उसके योग को उत्तर धन कहते हैं। जैसे-४,४४२=८,६४२-१६, १६४२-३२, ३२x२६४, ६४४२१२८ । इस प्रकार ४, ८,१६, १२, ६४ और १२८ ये यह स्थान है, अतः गच्छ तो है। प्रथम स्थान ४ है, अतः आदि ४ है । प्रत्येक स्थान दुगुना दुगुना होता गया है, अतः प्रचय दुगुना है । प्रादि के सदृश छहों स्थानों में कुल द्रव्य ४४६२२४ है, अत: आदि धन २४ है। दूसरे स्थान में (८-४}=४ को वृद्धि हुई है। तीसरे स्थान में (१६-४-१२) १२ की वृद्धि हुई है चौथे स्थान में 1 ३२-)-२८ की वृद्धि हुई है। पांचवें स्थान में (६४-४) = ६० की वृद्धि हुई है। छठवें धान मे ( १२४-४ ) - १२४ की वृद्धि हुई है, अत: वृद्धि धन ४, १२, २८, ६० और १२४ का योग २२८ उत्तर धन है। पुष्कर समुद्र का आदि धन व उत्तर धन दोनों मिलकर (६.४ १७६ )-(१६४है। इसको निम्न प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है : बाह्य पुष्कराध द्वीप के आदि वलय में १४४ सूर्य हैं, और उससे दुगुने सूर्य (१४४४२) पुष्कर समुद्र के आदि वलय में है (पा० ३५. }। पुष्कर समुद्र का बलय व्यास ३२०.००. । ३२ लाख योवन है, अत: उसमें ३२ वलय हैं। प्रत्येक वलय में चार चार की वृद्धि है । इस प्रकार Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया : ३१० ३०५ चतुः परिसंख्याय ६३४६४४२ निक्षिप्य सद्गुणकारगुरिकरूपं ६४x२ निक्षिप्य सर्वत्र उधरणगुरास मछरिया भवितव्यमित्येतदर्थं द्वात्रिंशदवशिष्यते यथा तथा सम्मेलन पूर्वद्विकं संगुण्य ३२x६ म६िर२२६४४४ मेलने १७६४६४ x ४ चतुर्गुणप्रधयो भवतीति शालव्यं । एवं सयंत्र घनं चतुर्गुणोशर क्रमेण गच्छति । ऋामपि प्रकृतिमुखं उपर्युपरि द्विगुणोरक्रमः च स्यात् ॥ ३६० ॥ अब ज्योतिबिम्बों की संख्या लाने के लिये जो गच्छ कहा है उसको आदि कहते हैं : ज्योतिर्लोकाधिकार वाचा:- चार के घन ( ६४ ) से गुणित १७६ पुष्कर समुद्र का उभय (आदि-उत्तर) घन है, यही यहाँ प्रभव ( मुख ) है, और जागे प्रत्येक द्वीप समुद्र में चतुर्गुण अर्थात चौगुणा चौगुणा प्रचय ( वृद्धि क्रम ) है, तथा ऋण में भी आठ को कृति ( ६४ ) मुख है, और ऊपर ऊपर द्विगुण क्रम अर्थात् कम से दुगुणा दुगुणा प्रचय वृद्धि क्रम ) है ।। ३६० ।। विशेषार्थ :- जितने स्थानों में अधिक अधिक होता जाय, उन सब स्थानों की संख्या को पद या गच्छ कहते हैं। प्रथम स्थान को आदि, मुख या प्रभव कहते हैं। प्रति स्थान में जितना जितना अधिक होता है, उस अधिक के प्रमाण को प्रवय कहते हैं। वृद्धि के प्रमाण विना आदि स्थान के प्रमाण के समान जो धन सर्व स्थानों में होता है, उसके जोड़ को आदि धन कहते हैं। आदि धन के बिना सर्व स्थानों में वृद्धि का जो प्रमाण है। उसके योग को उत्तर धन कहते हैं । जेसे- ४, ४x२=६, ८x२= १६, १६x२=३२, ३२x२=६४, ६४४२ = १२८ | इस प्रकार ४, ८, १६,३२,६४ और १२५ ये छह स्थान है, अतः गच्छ तो ६ है । प्रथम स्थान ४ है, बादि ४ है । प्रत्येक स्थान दुगुना दुगुना होता गया है, अतः प्रचय दुगुना है। आदि के सदृश छहों स्थानों में कुल द्रव्य ४x६ - २४ है, अत: आदि घन २४ है । दूसरे स्थान में ( ८-४ } =x की वृद्धि हुई है। तीसरे स्थान में (१६४१२ ) १२ की वृद्धि हुई है चौथे स्थान में ( ३२-४ १२८ की वृद्धि हुई है। पांचवें स्थान में ( ६४ - ४ ) ६० की वृद्धि हुई है। टों मान में ( १२६-४ ) - १२४ की वृद्धि हुई है। अतः वृद्धि घन ४ १२,२८,६० और १२४ का योग २२८ उत्तर धन है । पुष्कर समुद्र का आदि घन व उत्तर धन दोनों मिलकर (६४ x १७६ ) - ( ८२६४ ) है । इसको निम्न प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है। - पुष्कर द्वीप के आदि वलय में १४४ सूर्य हैं, और उससे दुगुने सूर्य ( १४४x२ ) पुष्कर समुद्र के आदि वलय में हैं ( पा० १५० ) । पुष्कर समुद्र का वलय व्यास ३२००००० ( ३२ लाख ) योजन है, अतः उसमें ३२ वलय हैं। प्रत्येक वलय में चार चार की वृद्धि है। इस प्रकार ३९ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा:३६. मुख १४४४२ ओर वलय ३२ इन दोनों का परस्पर में गुणा करने से (१४४४२४ ३२-१४४x ६४) पुष्कर समुद्र के ३२ वलयों में आदि धन प्राप्त होता है। एक कम गफ्छ ( ३२-१-३१) का आधा कर (१)चय के प्रमाण ४२ को गुणा करे (४४-३१४२) जो प्राप्त हो, इसका एक ( ३२ ) से गुणा करने पर ( ३१४२४३२-३१४६४ ) उत्तर घन' प्रान हो जाता है। यदि उत्तय धन (३१४६४ ) में ६४ जोड़ दिये जाय और ६४ ही घटा दिये जाय तो उत्तर धन ज्यों का त्यों रहेगा, किन्तु आगामी द्वीप समुद्रों के सूर्यों का प्रमाण प्रात करने में सुविधा हो जायगी। ३. ४६४+१x६४-६४-३२x६४-६४ मह उत्तर धन का प्रमाण प्राप्त होता है । इसमें आदि धन १४४४ ६४ जोड़ देने से पुष्कर समुद्र का उभय घन ( आदि व उत्तर दोनों धन ) का प्रमाण १४४४६४+३२४६४-(६४)- १७६x६४-(६४)-१७६x४३ ऋण ८२ है। इसीलिये गाथा में "पृक्खर सिन्धुभय धरणं च उघण गुरण सयछहत्तरि रिमवि अडकदि मुहमुवरि दुगुण कमं" ऐसा कहा गया है। पुष्कर समुद्र के पश्चात् वारुणीवर द्वीप है। जिसका वलय व्यास ६४ लाख योजन है, अतः उसमें सूर्य चन्द्रमा के ६४ वलय हैं। गाथा में "पभो"द्वारा यह बतलाया गया है कि पुष्कर समुद्र का जो उभय धन ( आदिधन + उत्तर धन ) १७६४ ६४ है वह वारुणीवर द्वीप का मुख है. बोर 'चगुण पचओ' द्वारा यह बतलाया गया है कि १७६४६४ को चार से गुणा करने पर वारुणीवर दीप का कुल धन १७६४६४४४ ऋण ६४ x २ होता है । इसको सिद्धि निम्न प्रकार है : गाथा ३५० के अनुसार पुष्कर समुद्र के आदि वलय में १४४४२ सूर्यो की संध्या बतलाई है। उससे दुगुनी (१४४४१४२) बामणीवर द्वीप के आदि वलय में (सूर्यों को संस्था) है । यह वारुणीवर द्वीप का मुख अर्थात आदि है ! वारुणीवर द्वीप में ६४ वजय हैं, अतः (१४४४५४२४६४=१४४४४४ ६४ ) आदि धन का प्रमाण है, क्योंकि मुन १४४४२४२ को गच्छ ( पद ) ६४ से गुणा करने पर आदि धन प्राप्त होता है । इस प्रकार वारुणीवर द्वीप का आदि धन १४४ x ६४४४ प्रान होता है। - - - - एक कम गच्छ (६४-१६३) के अधं भाग (१) को प्रतिवलय वृद्धि के प्रमाण (४) स्वरूप प्रचय से गुणा करने पर १x६३ ४२ प्राप्त होता है। इसको पद ( गच्छ ६४ ) से गुणा कर ६३ x२x६४ में २४६४ जोड़ने और घटाने ( ऋण करने ) से (६३४२४६४+१४६४ - -- ..- -. . - - - - - १ "पहतमुखादि धनं"। २ "वलयबलयेसु घउ पउदाढी" गापा ३५० । . "पदान चय गुणते गच्च"। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा। ३६१ ज्योतिलोकाधिकार ३०७ ऋण ६४४२)=(६४४२४६४ ऋण ६४४२)-(२४३२x२x६४ ऋण ६४४२)=(३२४ ६४४४ ऋण ६४४२) उत्तर धन प्राप्त होता है । आदि धन १४४४६४४४+उत्तर धन ( ३२x६४४४ ऋण ६४४२) को जोड़ने से १७६४६४४४ ऋण ६४४२ होता है। जो पुष्कर समुद्र के पन १७६ ४६४ से चौगुना और ऋण ६४ से दुगुना है। इसलिये माथा में "चउगुण पचओ, रिणमवि दुगुण कर्म" कहा गया है। इस प्रकार मागे मागे प्रत्येक द्वीप समुद्र में धन चौगुना होता गया है और ऋण दुगुना होता गया है। अर्थवमादि १७६४६४ उत्तर ४ गच्छ छ छ ३ मानीय तत्सलितपनमानयन् सर्वज्योतिबिम्बानयनप्रकारमाह आणिय गुणसंकलिदं किंचूर्ण पंचठाणसंठविदं । चंदादिगुण मिलिदे जोइसबिबाणि सव्वाणि || ३६१ ।। मानाय्य गुणसंकलित किजिन पश्चस्थानसंस्थापितम् । चन्द्रादिगुणे मिलिते ज्योतिष्कबिम्बानि सर्वाणि ।। ३६१ ।। मारिणय । 'पदमेरो गुणयारे' इत्याविना पदगतोपरितनराशि x छेxछे४३ मात्रगुणकार के २४२ अन्योन्यं गुणिते सति 'तम्मेतदुगे गुणे रासो' हति यायेन अगिर्भवति । तग्मात्रगुणकारापरहिके गुरिगते अपरारिणभवति । पवगतापस्तनराशि पतंकलक्षयोजनछेद १७ मात्रद्विकद्वये परस्पर गुणिले लक्षवर्गो भवति श्ल x पल, तगांगुल ७६८००० छेद १६ मात्रटिकाये अन्योन्यं गुणिते अंगुलवर्गों भवति । ७६.०४७६८०००। सूच्वंगुलछेवमाद्विकन्ये पम्पोन्य २४२ गुणिते प्रतरांगुलो ४ भवति । तद्गतषट्पटिकद्वयेऽन्योन्य गुणिते चतुःधिवभवति ६४४ ६४ तथगतत्रिकमाद्विकद्वये प्रन्योन्यं गुणिसे सप्तमो भवति ७४७, पवमाणकारहतराशावकस्मिनरूपे अपनीते रुपन्यूनगुणकारेण ३ हसे मुखेन १७६४६४ गणिते घ सङ्कलितपनं भवतीति =x१७६ ४६४ ४x७६८००० ४७६...xxxxxx७४७४३ एवमेव ऋणसंकलितपनमप्यानेतन्यं । RXUE..लxxx, संकलितषनराशिस्थोपरितनषट्सप्ततिशतं १७६ प्रषस्तमवतुःपष्ट्या ६४ सह पोग्शभिरपवर्तनीय' । उपरितनचतुः बाद ६४ पधस्तनचतुःषया ६४ सह तावतका ६४ पवर्तये । मंगलगतषदन्यामि लक्षगतवाचून्य सह कोशशून्यानि पृथक् छरमा स्थापयेत् । मंगलो Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलोसार गाथा : ३६१ ३०८ ear त्रिभिः सम्मेथ: बेसवछपावर्गमन्योन्य गुणिते पाडो स्वाद प्रस्नत्रिकत्रयमन्योन्य गुरुविया २७ तेन सप्तवर्ग ४९ संगुण्य जातं १३२३ यशववशिष्ट चतुष्केशा गुहाचित्वा ४२१२ = × ११ तस्मिन् तानि शून्यानि मेलयेत् एकमानीले गुण४ x ६५५३६५२६२०००००००००००००० लिले । जम्बूद्वीपावरम्प 'हो हो ब" इत्याद्युक्त | चन्द्राद्यङ्क २ । ४ । १२ । ४२ । ७२ । मेला १३२ तस्मिन् पुनः पुष्कशेसरार्धगतचन्द्रा संकलितानं "पदमेगेण विहोणं ७ दुभाजिदं उशरे संदि४ अपवर्थ १४ प्रभव १४४ जुषं १५८ पर गुणवं १२६४ इस्थानीय मेलविरा १३६६ । पञ्चसु स्थानेषु संस्थाप्य १३६६ । १३६६ । १३६६ | १३६६ | १३६६ | चन्द्रादिप्रभात ११८८ २८ ६६९७५००००००००००००० गुराविश्वाल १३६६ । १३६६ । १२२८४८३०८८। ६३४६७००००००००००००००० परस्परं संयोज्य ६३४६७००००००००० १६४७२८ एवं संकलितधनेन समच्छेव कृत्वा ३४२७२०००००००००१६४७२८ सू २४७६८००० X १ × ६ ४ ४ ७ × १ ÷सू २४७६८००० x १ x ६४ x ७४१ एतत्सर्व संख्यातं सूच्यंगुलं कृत्वा सू २ ● ऋण ऋणं राशेर्धनं भवतीति स्वायेन संकलित । वपनीय - ऋ एवतरण संकलितधर्मकमरा सह ऋणसहित घन संकलित ( ६४ - ) -- ( २० ). २ × ७६८००० x १ X ७६४ १ समानछेव कृरवा - × २x६४४७६८००० X १७६४४३ लक्ष्य सूच्य गुलब्पतिरिक्तगुणकार ४X७६८००७६८००० १ x १ x ७७ × ६४ x ६४ x ३ सर्ग संख्यात कृत्वा तख्यातसुध्य गुलगुणकारी - २० संकलितघनैकचण्या साम्य प्रद ( = - - × २ ० ) × ११ ४ x ६५ = x ५२२००००००००ooosses वापरस्य णावपनोते किञ्चिन्न्यूनं भवति एतत्पञ्चसु स्थानेषु संस्थाध्य चन्द्रादिप्रमाणेन गुणयित्वा -- 1 - - -×२ « } ×११×१ || ( = ४X६५ - x ५२६२ ४ १६ शून्य | ४६५ —×२० ) × ११×१ || = --×२० ) x ११ x x ५२६२ x १६ शून्य | ४ x ६५ x ५२६२ x १६ शुभ्य - × २ ० ) x ११ x ६६६७५ x १४ शून्य ४x६५ = x ५२९२ x १६ शून्य = - सम्मिलिते -- ७३६७२५००००००००००१२१८ ४५६५ - ४५२६२०००००००a noooooo प्रत्र स्थानसदृशापवल तन्यायेन विंशतिस्थानाम्पत्य ★ इम ज्योतिर्देवसंख्या पश्चात शशिककर बिसंख्या भवति । कथमिति चेत ? संख्यात - - - X२० x ११x२८ ४X६५ = x ५२६२४ १६ शून्य Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ३६१ जीवस्य प्र० H एकफिले १ इतः ६० 1 ज्योतिर्लोकाधिकार किल्लब्धं बिम्बसंख्या मबति ४ x ६५ हवं मनसि कृत्य "बेसवप्पां गुलक विहियववरस्स" इत्याद्युत । एसबेव ४X६५ = Xa पाती समुद्र गसर्वज्योतिबिम्ब प्रमाणं स्यात् ॥ ३६१ ॥ १०५ इस प्रकार आदि १६६ x ६४, उत्तर ४. गच्छ एक राजू के अर्थच्छेद ऋण छह अधिक जम्मूद्वीप के अच्छे होते हैं। इन तीनों के द्वारा संकलन रूप धन को प्राप्त करते हुए सवं ज्योतिबिम्बों का प्रमाण छाने के लिए विधान कहते हैं गावार्थ :---गुणसंकलन प्राप्त करके कुछ कम गुणसङ्कलन पाँच स्थानों पर पृथक पृथक र कर चन्द्रमादि की संख्या से गुणा करके जो प्राप्त हो उन्हें परस्पर जोड़ देने से सर्व ज्योतिषवियों का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ३६१ ।। विशेषार्थ :- ज्योतिबिम्बों की संख्या प्राप्त करने के लिए गाया ३५६ के अनुसार गन्छ का प्रमाण जगणी के अर्धच्छेद- ३- जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद ६ होता है। ऋण को पृथक् स्थापित करने से गच्छ मणी के बर्धच्छेद प्रमाण रह जाता है। गाथा ३६० में धनराशि का गुणकार ४ अर्थात् २x२ बतलाया था। गाया २३९ के अनुसार गच्छ ( जगच्छ्रेणी के अर्धच्छेद ) प्रमाण गुग्गुकार ४८ (१२) का परस्पर गुणा करना चाहिये। जगच्छ्रेणी के अच्छेद प्रमाण दो को परपच गुणित करने से जगणी प्राप्त होती है । ( देखो गाथा ७५ ) । २४२ को जगच्छ्रेणी के अच्छेव प्रमाण परस्पर गुणा करने से जगच्छे गी x जगच्छ्रणी अर्थात् जगत्प्रतर प्राप्त होता है । ★ ऋण राशि में जम्बुद्वीप अर्थात् १ लाख योजन के अच्छे भी हैं। एक लाख योजन के १७ अच्छे हैं, अतः १७ वार दो को परस्पर गुणा करने से १ लाख प्राप्त होता है ( गा० ७५) । प्राप्त होते हैं। एक योजन १९ वार २x२ को परस्पर प्रमाण २४२ को परस्पर ६ भी है, क्योंकि गाया से ६४x६४ प्राप्त होते २ × २ को १ लाख के १७ वाक परस्पर गुणा शेष के ७६८००० अंगुल होते हैं। जिनके १९ गुणित करने से ७६८००० ७६८००० होते हैं। गुणा करने से अंगुल x अंगुल अर्थात् प्रतरांगुन प्राप्त होते है ! ऋण राशि में ३५८ के अनुसार वे अनुपयोगी है । ६ वार २ x २ को परस्पर गुणा करने हूँ। ऋण राशि में ३ का पंक ७ के अच्छेदों का प्रतीक है। जगच्छ शी तिर्यग्लोक एक राजू का है, अतः जगच्छे शो के अच्छेदों में से ३ घटाने पर एक राजू के अर्थच्छेद करने से १ छा० x १ ला• अर्धद होते है, अतः शेष एक अंगुल के अच्छे राजू प्रमाण है, और ‍ यह पाठ 'अ' प्रति में अधिक है । ताम्रपत्र प्रति में व मुद्रित प्रति में नहीं है । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाब गापा : ३६१ प्राप्त होते हैं। इसीलिये ३ बार २४ २ को परस्पर गुणित करने से ७४७ प्राप्त होते हैं । इस प्रकार ऋण राशि का प्रमाण निम्न प्रकार है:-१ ला०४ १ ला.४७६८.०.४७६८०.०४ प्रतरांगुल x ६४ ४६४x७४७ प्राप्त होता है। गापा १११ के अनुसार ऋण अर्धच्छेदों से प्राप्त राशि भागाहार होती है, अतः दोनों प्राप्त राशियां इस प्रकार लिखी जा सकती हैं : जगत्प्रतर प्रतरांगुल x १ ला०४१ ला.४७६८००० ४७६८०.०x४७४६४४ ६४ गा० २३१ के अनुसार गच्छ प्रमाण गुणकार में से १ कम करना चाहिये । अर्थात् अगरप्रतर-१ प्रतरांगुल x १ लाoxरला.४७६८०.०४७६८०००४७७४६४४। पुनः इसको एक कम गुणकार अर्थात् (४-१-३) से भाग देकर आदि ( मुख) अर्थात् ६४४ ५७६ से गुणा करना चाहिये ( देखो गा०३६.) अता प्राप्त संख्या इस प्रकार होगी:१७६ ४ ६४ x जगत्त र .v३ हा प्रतरांगलx.ला.x१ला०४७६८०00xURREYXxx का न तथा ६४ व १७६ को १६ से अपवर्तन करने पर फल निम्न प्रकार प्रा होता है : ११४ जगत्प्रतर प्रतरागुल x १०००.०००१-४२५६ ४३४१००४२५६४३४१७.०४४xxx ३ ११xजगत्प्रतर -प्रतरांगुल x १००००..0000000000४ ६५५३६ ४ २७४४४२ ११x जगत्प्रतर प्रतरागुल x ६५५३६ x ५२९२XT............ यह गाथा ३६. में कथित धनराशि का संकलन है । गा• ३६० में कथित ऋणराशि का संकलन निम्न प्रकार है। मुख (आदि ) ६४ है। गुणकार २ है और गच्छ पूर्वोक्त जगच्छ पी के अघच्छेद-३-जम्बदीप के मधंच्छेद ६ हैं । गाथा२३१ व १११ के अनुसार ऋण राशि का प्रमाण सध्यंगल x ७६८०००-१०००.०४६४x७४१ __ ६४x जगच्छणी प्राप्त होता है । इसमें से पुष्कर द्वीप तक के सूर्यों की संख्या ( पो मा० ३४६ व ३५० को टीका में दी है) २+४+१३+४२४२+१४४+ १५२ + १५६ + १६० + १६४+१६८+ १७२-१३९६ ( देखो गा. ३४६ व ३५० की दीका ) कम करना है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३६१ ज्योतिर्लोकाधिकार ३११ ६४x जगणी - ३' = सध्यंगुल ५६८००.x1000०.६४४ जगच्छग्गी-1 १३.६Xसूच्यगुल ४७६८०००x१...0.x} सूच्यंगुल ७६८.००४ १००००.४७ जगच्छु णी - संख्यात सूच्यगुल_ इस ऋण राशि को धन राशि में से घटाने पर गुण संकलन सूच्यगुल ४७६८००.४१०००.०४७ प्राप्त होता है। ऋणराशि में जो ऋण है वह धनराशि का धन हो जाता है, अनः ऋणराशि के ऋण संख्यात सूच्यंगुल को पृथक कर देने से ऋगरात सध्यंगल ७६०.०२ १०.०००४७ प्रमाण रह ____ जगच्छे शी जाती है। पन राशि व ऋणराशि को निम्न प्रकार लिखा जा सकता है :११x जगत्तर अथवा १६x जगच्छ शी र जगच्छेणी _. जगच्छणी प्रतरांगुलX६५५३६४५२९२४१०००००००००००००००० सूच्यगुल X४६000x१०००.०x. ...(११४ जगच्छणोxजगणी )-(जगच्छणी सूर्यगुल ४५६८०००४ ६४४३४ १०००००४७) प्रतरांगुल x ६५५३६ ४३२५२४ १०००००......००००० ___(१५x जगच्छेणीx जगच्छ्रेणी)-(जगच्छ्रेणी x संख्यातसूच्यंगुल) प्रबरगुल X६५४३६ x ५२९२४१.०००००1000000. .- (११४ जगच्लेणी-संख्यात सूच्यंगुल )x जगच्छ पो प्रतरांगुल ४६५५३६४ ५२९२४100.000000००००००० _ ११४ जगत्प्रतर-- संख्यात सूच्यंगुल गुरिणत जगच्छणी - यह संकलन प्राप्त होता है. इसको पाच प्रतरांगुलX६५५३६४५२९२४१०००...10000०.००० जगह लिख कर एक स्थान को एक स्थान मे गुणा करने पर चन्द्रमा की संख्या होती है । दूसरे स्थान को एक स्थान से गुणा करने पर सर्यों की संख्या, तीसरे स्थान को ८८ से गुणा करने पर ग्रहों की संख्या, चौथे स्थान को २८ से गुणा करने पर नक्षत्रों की संख्या और पांचवें स्थान को ६६९७४०००००००००००००० से गुणित करने पर ताराओं की संख्या आती है। इन सब में किये जाने वाले गुणकारों का जोड़ १६९७५००००००००००००००/-१+१+05+२==६६६७५०००००००००० ७००० + ११८ होता है। इसको जगत्प्रतर के गुणकार ११ से गुणा करने पर ७३६७२१७०००००००० 0000 + १२९८ प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सर्व ज्योतिषबिम्बों की संख्या ३६७२५००००००००००००००+१८९८)Xजगत्प्रतर... जगप्रतर जगत्प्रतर प्रतरांगुल X१५५३६४५२६२४१०००००००००००००००० १६५५३६प्रत रांगुळ (२५६ सूच्यापुल) होती है । इसमें ऋण को कम करने से सस्थातवा भाग हो जाता है, अतः गा. ३०२ में "वेसद छप्पाएंगुलकविहिद पदरस्स संख भागमदे जोइस जिणिद गेहे" अथति जगरमतर में २५६ अंगुल के वर्ग का भाग देने से जो प्रमाण प्राप्त हो उसके संख्यातवें भाग ज्योतिष बम्बों में स्थित Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाय।।३२-३६६ जिन मन्दिर है ऐसा कहा गया है। यह असंख्यात द्वीप समुद्रों सम्बन्धी ज्योतिषी बिम्बों की संख्या है। प्रकचन्द्रस्य परिवाराणां ग्रहनक्षत्रतारकाणां परिमाएं निवेदयति अडसीदट्ठावीसा गहरिक्खा तार फोडकोडीणं । छाष्टिसहस्साणि य णवसयपण्णतरिगि चंदे ।।३६२।। अष्टाशीत्यष्टाविंशतिः ग्रहऋशयोस्ताराः कोटिकोटीनाम् । षट्पष्टिसहस्राणि च नवशतपश्चसप्ततिरेकस्मिन् चन्द्र ॥३६२।। पर। महाशीरयष्टाविंशति ८८ x २८ ग्रहनक्षत्रयोः तारका प्रमाणं षट्पष्क्षिसहस्राणि मवशतपश्चसहतिकोटीकोटमा एकस्मिन् चन्ने परिवाराः ॥ ३६२ ॥ एक चन्द्रमा के परिवार में रहने वाले ग्रह, नक्षत्र और तारापों का परिमाण कहते हैं गावार्थ :-एक चन्द्रमा के परिवार में अठ्यासी मह, अट्ठाईस नक्षत्र और छयासठ हजार नौ खौ पिचहत्तर कोडाकोड़ी तारागण हैं ।। ३६२ ।। - विशेषार्थ:-एक चन्द्रमा के परिवार में ८ मा २८ नक्षत्र बोय ६६६५५०००००००००००००० तारागण हैं ।। ३६२ ।। अथाष्टाशीतिग्रहाणां नामान्यष्टाभिर्गाथाभिनिरूपयति कालविकालो लोहिदणामो कणयक्ख कणयसंठाणा अंतरदो तो कषयव दुंदुमि रचणिहरूवाणिज्मारो ।। ३६३ ।। पीलो गीलब्भासो अस्सस्सद्वाण कोस कंसादि । वण्णा कंसो संखादिमपरिमाणो प संखवण्णोनि ।। ३६४ ।। तो उदय पंचवण्णा तिलो य तिलपुच्छ छाररासीओ। तो धूम धूमकेदिगिसंठाणण्णो कलेवरी वियडो ।। ३६५ ।। यह मिण्णसंधि गंठी माण चयुप्पाय विज्जुजिभणमा । तो सरिस णिलय कालय कालादीकेउ भणयक्खा ॥ ३६६ ।। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:३६३-३७० ज्योतिर्लोकाधिकार सिंहाउ विउल काला महकालो रुदणाम महरुद्दा । संताणसंभवक्खा सम्वद्धि दिसाय संति वत्थुणो ॥ ३६७ ।। णिश्चलपलंभणिम्मंतजोदिमंता सयंपहो होदि । मासुर विरजा तचो णिदुक्खो वीदसोगो य ।। ३६८ ।। सीमंकर खेमभयंकर विजयादिघउ विमलतत्था य । विनायिण्हु धीयसो करिकट्टिगिजटिअग्गिजालजलकेद् ।।३६९।। केदुखीरसऽघस्सवणा राहू महगहा य भावगहो । कुजसणि बुहसुक्कगुरू गहाण णामाणि अडसीदी ||३७०॥ कालविकालो लोहितनामा कनकाच्यः कनकसंस्थानः। अन्तरदस्ततः कवयवः दुन्दुभिः रत्ननिभः रूपनिर्भासः ।। ३६३ ॥ नीलो नीलाभासोऽश्वोषवस्थानः कोषाः कंसादिः । वर्णः कमः शङ्खादिपरिमाणः च शङ्खवर्णोपि ॥ ३६४ ॥ सत उदयः पञ्चवर्णतिलश्च तिलपुच्छः क्षारराशिः। ततो धूमो धूमकेतुः एकसंस्थानः अज्ञः कलेवरो विकटः ।। ३६५ ।। इहाभिन्नसन्धिः अन्यिः मानश्चतुःपादो विध जिह्वो नभः । ततः सदृशो निलयः कालश्च कालादिकतुरमयाख्यः ॥ ३६६ ॥ सिंहायुविपुल! कालो महाकालो रुद्रनामा महारुद्रः। सन्तानः सम्भवाग्ल्य: सर्वार्थी विंशः शान्तिर्वस्तुनः ॥ ३६७ ।। निश्चल प्रलम्भो निमन्त्री ज्योतिप्रमान स्वयम्प्रभो भवति । भासुरो विरजस्ततो निदुखो वीस फोकश्च ॥२६॥ सीमाङ्करः क्षेम भयङ्कर: विनयादिचरा विमलस्त्रस्तश्च । विजयिष्णुः विकमः करिकाष्ठ: एकज टिरग्निज्वाल: ज्वलकेतुः ।। ३६९ ॥ केतुः क्षीरसः अध: स्रवणो राहुः महाग्रहश्च भावग्रहः । कुजः शनिः बुधः शुक्र: गुरुः ग्रहापां नामानि अष्टाशीतिः ।। ३७. ।। काल । छायामात्रमेवार्थः (8)॥३६३ ॥ ४० Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाथ। ३६३-३७० गोलो | कंसादिः वर्णः कंसवर्णः शङ्खादिपरिमाण: परिमाण इत्यर्थः । शेषं छायामा ( ९ ) ॥ ३६४ ॥ ३१४ तो उवय | छायापात्रमेवार्थः ( ११ ) ॥ ३६५ ।। ह | छायामात्रमेवार्थः । कालाबिः केतुः कालकेतुः ( ११ ) ॥ ३६६ सिहाउ | छापामात्रमेवार्थः ( १२ ) ॥ ३६७ ॥ चिल | छायामात्रमेवा ( ६ ) ॥ ३६८ ॥ सीमंकर | सीमङ्करः क्षेमंकर: अभयंकर : विजयो जयन्तो जयन्तो अपराजित इति विमलस्वस्तश्च विजयिष्णुविकसः करिक। ष्ठः एकजटिरग्निज्यालो ज्वल केतु । चत्वारः । ( १६ ) ॥ ३६६ ॥ केटू । इति इतिशेषः आठ गाथाओं द्वारा छायामात्रमेवार्थः ( ११ ) ॥ ३७० ॥ हीं के नाम कहते हैं : गाथा :- १ काल विकाल २ लोहित, ३ कनक, ४ कनकसंस्थान, ५ अन्तरद, ६ कचयय, ७म्बुभि रत्ननिभ रूप निर्भास, १० नील, ११ नीलाभास, १२ व १३ स्थान १४ कोश, १५ कंस ं १६ कंस, १७ परिणाम १८ शङ्खवर्ण, १९ उदय, २० पचवणं, २१ तिल, २२ तिलपुच्छ. २३ क्षाराशि, २४ धूम, २५ धूमकेतु. २६ एकसंस्थान, २७ अक्ष २८ कलेवर २ विकट, ३० अभिन्न सन्धि ३१ ग्रन्थि ३२ मान, ३३ चतुःपाद, २४ विद्या जिल्ल ३५ नभ, ३६ सदृश, ३७ निलय, ४४ महाकाल ४५ रु काल, १६ फालकेतु, ४० अनय ४१ सिंहायु, ४९ विपुल ४३ काल ४६ महारुद्र ४ सन्तान, ४८ सम्भव ४९ सर्वार्थी, ५० दिशा, ५१ शान्ति, ५२ वस्तून, ५३ निश्चल, ५४ प्रलम्भ ५५ निमंन्त्र ५६ ज्योतिष्मान, ५७ स्वयम्प्रभ ५८ मासुर ५६ विरज, ६० निदु:ख, ६१ वीतशोक, ६२ सोमङ्कर, ६३ क्षेमङ्कर, ६४ अभयङ्कर और विजयादि चार अर्थात् ६५ विजय ६६ वैजयन्त, ६७ जयन्त, ६६ अपराजित, ६९ विमल, ७० त्रस्त काल, ७४ एकजटि, ७५ अग्निज्वाल, ७६ जलकेतु, ७७ केतु, राहू ८२ महाग्रह, ८३ भावग्रह, ८४ मङ्गल र शनैश्चर, ये ग्रहों के नाम है ।। ३६३ - २७० ॥ अथ जम्बूद्वीपस्थ भरतादिक्षेत्रपर्वतानां तारा गाथाद्वयेन विभाजयति ७१ विजयिष्णु, ७२ विकस, ७३ कर ७८ क्षीरस, ७९ माघ, ८६ बुध ०७ शुक्र और वृहस्पति ८० अवरण, Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३७१-३७२ ज्योतिर्लोकाधिकार उदिसय भजिदतारा सगद्गुण दुगुणमलसमभत्था | मरहादि विदेहोचि य तारा वस्से य वस्सधरे ।। ३७१ ।। नवतिशत भक्तताराः स्वऋद्विगु द्विगुणशलासमभ्यस्ताः । भरतादिविदेहान्तं च तारा: वर्षे च बधरे ॥ ३७१ ॥ ३१५ एउदि । नत्र विक्षेत्र प्रसारणरूपकशल कान लाहान ११० चन्द्रवमाराश्चेत् १३३६५००००००००००००००० भरता१ । २ । ४ । ८ । १६ । ३२ । ६४ । ३२ | १६ | ८ | ४ । २ । १ कियशिक विधिनाथ शिलभक्तला [७.५०००***०००००००० स्वकीयस्वकीयगुणशलाका समस्यस्ता भरताविविधपर्यन्तं वर्षे क्षेत्रे पर्यधरे पर्वते च तारा रस्मरतारा: स्युरिति भवन्ति ॥ ३७१ ॥ जम्बूद्वीपस्थ भरतादिक्षेत्र और कुलाचलादि पर्वतों की वाराओं का विभाजन दो गाथाओं द्वारा करते हैं गाथार्थ :- भरत क्षेत्र से त्रिदेहपर्यन्त की शलाकाऍ दुगुनी दुगुनी होती गई हैं। जम्बूद्वीप सम्बन्धी ताराओं की संख्या को १९० से भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको अपनी अपनी शलाकामों से गुणा करने पर तत् तत् क्षेत्र व पर्वत सम्बन्धी ताराओ की संख्या प्राप्त हो जाती है ।। २७१ ।। विशेषार्थ :- जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा से सम्बन्धित ताराओं का प्रमाण एक लाख तेतीस हजार नव सौ पचास कोटाकोडी है। इस प्रमाण में १६० का भाग देने पर ७०५ कोड़ा कोड़ी लब्ध प्राप्त होता है । यही प्रथमशलाका है। ये भरतक्षेत्र से विदेहपर्यन्त दूनी दूनी होती गई हैं तथा विदेह से आगे के क्षेत्र व पर्वतों पर अर्थ अर्थ होती गई हैं। जैसे - १ | २ | ४ | ८ | १६ | ३२ । ६४ । ३२ । १६ । ६ । ४ । २ । १ । अथ लब्धांकमुच्चारयति - पंचचरसचा कोटाकोडी य मरइताराम | दुगुणा हु विदेहोचि य तेणपरं दलिदद लिकमा || ३७२ || पनोत्तरशतकोटिकोट्यः च भरतताराः । द्विगुणाहि विदेहान्तं च तेन परं दलितदलितक्रमः ।। ३७२ ।। पंतर परसप्तशतकोटिकोटयः ७०५०००००००००००००० भरतताशः स्युः । द्विगुण Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाषा : ३३ विगुणा खलु विदेहपर्यन्स' । हिमवति पर्वते १४१००००००००००००००० हैमवतक्षेत्रे २८२०.०००.०० ०००००.० महाहिमवति पर्वते ५६४००००००००००००.०० हरिक्षेत्रे ११२८०००००००००००००० निषध पर्यते २२५६००००००००००००००. विवेहक्षेत्र ४५१२०००००००००००००० सतः परं बलिरदलितक्रमो ज्ञातव्यः । मौलपवते २२५६.८०......०००००० रम्यकक्षेत्र ११२८००००००००००००००० गविमरवते ५६४०००...000000०० हरण्यवतक्षेत्र २८२०.००००000000००० शिक्षरिपर्वते .१४१००००००००००००००० ऐरावतक्षेत्र ७०५०००००००००..... ॥ ३७२ ॥ उपयुक्त गलाकाओं के द्वारा प्राप्त हुई ताराओं की संख्या कहते हैं-- मायार्थ :--भरतक्षेत्र को ताराओं की संख्या ३०५ कोडाकोड़ी है। इसके बाद विदेह पर्यन्न यह संख्या दूनी दूनी और विदेह के बाद ऐरावत क्षेत्र तक की संख्या क्रम में आधी आधी होती गई है ।। ३७२।। विशेषार्थ :- भरत क्षेत्र में ७०५ कोडाकोड़ी तारागण हैं। इसमें आगे विदेव पर्यन्त दूनी दूनी और ऐरावत क्षेत्र तक अर्ध अधं तारा होनी गई है। जैसे : क्षेत्र और पर्वतों के नाम ताराभों की संख्या । क्षेत्र पर्वतों के नाम | ताराओं की संख्या २२५६. कोड़ाकोड़ी । ११२८० " , भरतक्षेत्र हिमवन्पर्वत हैमवतक्षेत्र महाहिमवन् पर्वत हरि क्षेत्र निषधपर्वत विदेह क्षेत्र ७०५ कोडाकोडी | नील पर्वत रम्यकक्षेत्र । २८२० " " । रुकिम पर्वत हैरण्यवतक्षेत्र ११२८०" " शिखरि पर्वत २२५२०॥ " ऐरावतक्षेत्र ४५१२०७ ॥ २८२० १४१० . ॥ अथ लवणाविपुष्कराधान्तस्थितचन्द्रागिणामन्तरमाह सगरविदलबिबूणा लवणादी सगदिवायरद्वहिदा । सूरतरं तु जगदीभासण्णपइंतरं तु तस्म दलं ।। ३७३ ।। वकरविदल बिम्बोम लवणादेः स्वकदिबाकराहिता। सूर्यान्तरंसु जगत्यासनपथान्तरं तु तस्य दलं ॥ ३७३ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ३७३ ज्योनिलोकाधिकार मगवल । स्वकीयस्यको पयामि म्यूमसमानथेवीकृतलवणारित्र्यास: २ ल० । १२१११९०४ पोरन्तरयो २ तावत्यन्तरे १२१११५०४ एकस्य कियवतर. मिति सम्पातेनालायकीवियाकरा४धरहतश्चेत REERE शेषेराभ्यामपतिते ॥ लवणतमुखपतसूर्यसूर्यान्तरं जगरपा: प्रासन्नपथान्तरं पुनस्तस्य पलप्रमाणं स्यात् ४EELE विषमस्वाइलनं कमितिघेत, राशायेकमपनीय EEEEE लिया YEERE अपनीतर्फ बलरूपेण संस्थाध्य ३ प्राक्तनशेषमपि तवापंशस्वाद लिस्वा । २ मस्मिन्नपनीलबलक समानछेवं कृत्वा । मेलयिरवा १२वाम्मामपतिते १५ जगत्यासन्नपयामरस्य शेषो भवति । एवं घातकोखण्डकालोकसमुद्रपुष्करास्मितसूर्यसूर्यासारं जगत्यासानपान्तरं पानेतायं ॥ ३७३ ॥ अब लवणादि समुद्र से पुष्करराधं पर्यन्त स्थित चन्द्रसूर्यों का अन्तर कहते हैं : गायार्थ :- अपने अपने स्थानों के जितने सूर्य हैं, उनके अधं भाग में सूर्य बिम्ब के प्रमाण को गुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उमे लवण समुद्र के व्यास में से घटाकर अवशेष में स्वकीय सूर्यों के मधं भाग का भाग देने पर एक सूर्य मे दूसरे सूर्य का अन्तर प्राप्त होता है, तथा जगती (वेदी ) से निकटवर्ती सूर्य का अन्तर, उपयुक्त अन्तर का अर्थ प्रमाण होता है ।। ३७३ ।। विशेषार्थ:- लत्रण ममुद्र में सूर्यों की संख्या ४ है। इसका अब प्रमाण (४२)=२ हआ। इस दो मे मूर्य विम्न के प्रमाण को गुरिणत करने पर (2x3 ) योजन लब्ध प्राप्त हुआ। लवण समुद्र का व्याम दो लाख योजन है, उसमें से पोजन घटाने पर ( Paper - - ११५००२५०-६)=२२ ११.१५०४ योजन अवशेष बथे। ये अवशेष बचे हुये योजन दो अन्तरों के हैं, एक अन्तर तो सूर्य का सूर्य से, तथा दूसरा अन्तर प्रथम सूर्य से अभ्यन्तर वेदी का और दूसरे सूर्य से बास्य वेदी का इस प्रकार दोनों को मिलाकर एक अन्तर हुमा। जबकि दो अन्तरालों में १५१९११०४ योजन हैं, तब १ अन्तराल में कितने योजन होंगे? इस प्रकार वैगशिक कर, उसको लवरण समुद्रों के ४ मूर्यो के अर्घ प्रमाण अर्थात् २ से भाजित करने पर ( -)- ९९९९: योजन पूर्ण प्राप्त हुए और १ योजन शेष रहे । इन्हें दो से अपवर्तित करने पर हुए। एक सूर्य में दूसरे सूर्य के अन्तर का प्रमाण ६१९६९१६ योजन ( ३६१९९६८५२४६ मील ) प्राप्त हुआ। वेदो स निकटवर्ती सूर्य का अन्नर उपयुक्त अन्तर का अर्घ प्रमाण होता है। विपम राशि का अधे भाग कैसे करें ? यदि ऐसा प्रश्न है, तो राशि में से एक घटाकर अर्ध करने पर ( ९९९९९-१= ६६६६५:२)- ४९९९९ योजन प्राप्त हो। अब साशि में से जो १ का अङ्क घटाया था उसे और राशि अंश इन दोनों को आधा आधा स्थापन कर जोड़ना, तथा लब्धांक को दो से अपवर्तन करना चाहिये-एक का आधार और 1 का आधा १३ तथा दोनों का योग (3+) अर्थात् ३६ पोजन हुआ। इसे Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ उपर्युक्त अर्धं प्रमाण के ( १६६६६८४२६३६ मील त्रिलोकसार बाथा : ३७३ साथ रखने से वेदी मे निकटवर्ती सूर्य का अन्तर ४९९९९३ योजन प्रमाण प्राप्त होता है। लवर समुद्र का वलय व्यास २ लाख योजन है। यहाँ ४ सूर्य हैं, जो एक एक परिधि में दो दो हैं। लवण समुद्र की अभ्यन्तर वेदी से ४६६६९६५ योजन आगे जाकर सूर्य का विमान है, जिसका विस्तार योजन ( ३१४७ मील) है। इससे ६६६६६६ ] योजन आगे जाकर परिधि है, उसमें भी ६ योजन व्यास वाला सूर्य है। इससे ४९६६६३१ योजन जागे जाकर लवण समुद्र को बाह्य वेदी है, अतः इन सबका योग करने पर ( ४६६६C14+ ई + EEEEET+ ई + ४६६६६३ - २००००० योजन लवण समुद्र का व्यास हो जाता है । लवण समुद्र में चन्द्रों का अन्तर : { २००००० - ( 24 × 7 ) } -- ६६६६६६ योजन एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का अन्तर ९९९९९४१ ÷ २=४१६६६३३ परिधि से चन्द्र और चन्द्र से परिधि का अन्तर ४६३६+14+ TCC६६=++++४१९६६३१ = २ लाख व्यास हो गया । घातकी खण्ड के सूर्यो का अन्तरघातकी खण्ड का वलय एवं चन्द्रों की संख्या १२, १२ है । दोनों का व्यास क्रमश: हैं और { kerna० – { kiXN ) }+ ३६६६६५१ योजन सूर्य से सूर्य का अन्तर ६६६६५६३÷२-३३३३२१ योजन परिधि से सूर्य का अन्तर । — व्यास ४ लाख योजन है। सूर्य योजन है । धातकी खण्ड के ४ लाख व्यास में ६ जगह एक एक परिधि में दो दो सूर्य हैं, अतः इन छहों परिधियों के बीच (६) सूर्यों से सूर्यों के अन्तराल ५ होंगे, और बाह्य अभ्यन्तर की अपेक्षा परिधि के अन्सर दो होंगे। अत : १६६६५१८ × ५ - ३३३३२५६६५ योजन पत्र अन्तरालों का क्षेत्र । ६६६६५१ योजन दो अन्तरालों का क्षेत्र | ३३३३२४२ 111 TEX = योजन ग्रह सूर्यो का क्षेत्र । + योजन बलय व्यास प्राप्त हो जाता है। IES FE **** Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ३.७३ धातकी खण्ड में चन्द्रों का अन्तर : { ४००००० – (24) ) :- ३=६६६६५ ६६६६५६६ २-३३३३ योजन परिधि से चन्द्र का अन्तर । ६६६६५१६५x५ ==३३३३२८१ योजन पाँच अन्तरालों का क्षेत्र । ३३३३२१८x२= ६६६६६६६ योजन दो अन्तरालों का क्षेत्र । X= अयोजन छह चन्द्रों का क्षेत्र । ४००००० लाख योजन सम्पूर्ण वलय व्यास । ज्योतिलोकाधिकार 1000000 ; कालोक समुद्र में सूर्य में सूर्य का अन्तराल : कालोदक समुद्र का वलय व्यास ८ लाख योजन है । तथा चन्द्र सूर्यो की संख्या ४२, ४२ है । अतः : = - ( ६६४५३ } } : ३ - ३८०४योजन सूर्य से सूर्य का अन्तर । ३८०८४६६६÷ २ = १६०४७६योजन परिधि से सूर्य का अन्तर । ३८०४४१३७६४२० =७६१८८२३ योजन बीस अन्तरानों का क्षेत्र । १६०४७३४६२ = ३८०९४२३६६ योजन दो अन्तरालों का क्षेत्र | योजन २१ सूर्यों का क्षेत्र । #x= १६ + योजन वलय व्यास 480000 जनवन्द्र से चंद्रका कालोदक समुद्र में चन्द्र से चन्द्रका अन्तर : Coeboo -- { cooooo - ( Exp ) } = = ३८०६४४५ योजन चन्द्र से चन्द्र का अन्तर | ३८०९४६४५ - २ = १६०४७५३२६५५ योजन परिधि से चन्द्रमा का अन्तर । ३८०४४÷६५×२० =७६१८८०६ चन्द्र के २० अन्तरालों का क्षेत्र । २०६४योजन परिधि के दो अन्तरालों का क्षेत्र १६०४७८१६१४२ |Hx= योजन २१ चन्द्रों का क्षेत्र | + योजत वलय व्यास ३१९ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा: ३७४ पुष्करा द्वीप में सूर्य से मूर्य का अन्तर : अर्घ गुष्कर द्वीप का बलय व्यास ८ लाख योजन है । तथा यहाँ सूर्य चन्द्रों की संख्या ७२, ७२ है। { ८०००.० – ( १६x२ ) ३. =२२२२१११ योजन सयं से सूर्य का अन्तर। २२२२१३२ =११११० योजन परिधि से सूर्य मोर सर्य से बाह्य परिधि का अन्तर । २१२२११४४३५ = ७७७७३५ ५५ योजन सूर्य के ३५ अन्तरालों का क्षेत्र । ११११०३१४२ - २२२२१३ योजन सूर्य की दो परिधि का क्षेत्र । x३६= १२० योजन ३६ सूर्यों का क्षेत्र । ८....0 योजन वलय व्यास पुष्कराध द्वीप में चन्द्रों का अन्तरालः{८०....--(५१४३ )}:५२-२२२२१३० योजन चन्द्र से चन्द्र का अन्तर २२२२१२ १९११.३० योजन परिधि से चन्द्र का अन्तर २२२२१३१४३५७७७७२५१ योजन चन्द्रों के ३५ अन्तरालों का क्षेत्र । ११११०१६x२ =२५२२१११ घोजन परिधि में चन्द्र और चन्द्र से परिधि के अन्त ० का क्षेत्र । १X = ६ योजन ३६ चन्द्रों का विस्तार क्षेत्र ___८००.०० योजन वलय व्यास इदानी चार क्षेत्रमाह-- दो दो चंदरवि पडि एक्के होदि चारखेस तु | पंचसयं दमसहियं रविविवाहियं च चारमही ।। ३७४ ।। हो ही चन्द्ररवी प्रति एक भवति चारक्षेत्र तु । पनशनं दशसहितं रविनिम्बाधिकं च चारमही ॥ ३७४ ।। वो हो । द्वौ चन्द्ररवी प्रति एक भवति बारक्षेत्रं । समस्तचारक्षेत्र पुन: नियविति वा पश्चातानि शसहितानि रविधिम्बप्रमारणेनाधिकानि ५ घारमहीप्रमाणं स्यात् ॥ ३४ ॥ अब चार क्षेत्र कहते हैं : Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा | ३७५ ज्योतिर्लोकाधिकार ३२९ गावार्थ:- दो चन्द्रों और दो सूर्यो के प्रति एक, एक ही चार क्षेत्र होता है। ये चाय क्षेत्र सूर्य बिम्ब के ( विस्तार ) प्रमाण से अधिक ५१० योजन ( ५१०४६ यो० ) प्रमाण वाले होते हैं ।। ३७४ ।। विशेषार्थ :- चन्द्र सूर्य के गमन करने की क्षेत्रनली को चार क्षेत्र कहते हैं। दो चन्द्र बोर दो सूर्यो के प्रति एक एक चार क्षेत्र होते हैं। जम्बूद्वीप के दो सूर्यो का एक चार क्षेत्र है । लवण समुद्र के चार सूर्यो के दो चार क्षेत्र, घातकी खण्ड द्वीप के १२ सूर्यो के ६ चारक्षेत्र, कालोदक समुद्र के ४२ सूर्यो के २१ चार क्षेत्र और पुष्करार्धं द्वीप के ७२ सूर्यों के ३६ चार क्षेत्र हैं । अथ तयोश्चारक्षेत्र विभागनियममाह रबिंदू दौवे चरंति सीदिं सदं च व्यवसेमं । लवणे चरंति सेसा सगसमखेते व य चरंति ॥ ३७५ || जम्बूरवीन्दवः द्वीपे चरन्ति अशीति शतं च अवशेषम् । लवणे चरन्तिशेषाः स्वकस्वकक्षेत्रे एव च चरन्ति ।। ३७५ । अंबू । जम्बूद्धोपस्थरवोग्ययः प्रशीतिशतयोजनानि १८० द्वीपे चरन्ति । मवशिष्टयोजना मि २३०६६ लवणसमुचरन्ति । शेषाः पुष्करार्धपर्यन्तथाविश्या स्वकीयस्वकीयक्षेत्रे एव चरन्ति । ४१ उन चार क्षेत्रों के विभाग का नियम कहते हैं : गाथायें :---जम्बूद्वीप सम्बन्धी चन्द्र पोर सूर्य, जम्बूद्वीप में तो १८० योजन हो विचरते हैं। शेष ( ३३०६ योजन ) लवण समुद्र में त्रिचरते हैं। शेष पुष्करारा पर्यन्त के चन्द्र सूर्य अपने अपने क्षेत्र में विचरते हैं ।। ३७५ ।। विशेषार्थ :- जम्बू द्वीप के चार क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप में मात्र १८० योजन ( ७२०००० मोल ) प्रमाशा ही है। शेष २३०६ योजन विस्तार लवण समुद्र में है, अतः जम्बूद्वीपस्य सूर्य चन्द्र, जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन में ही विचरण करते हैं। शेष ३२०३६ योजन लवरण समुद्र में विचरते हैं । पुष्करार्ध पर्य अवशेष द्वीपसमुद्र सम्बन्धो चन्द्र सूर्यो के चार क्षेत्र का are अपने अपने द्वीप समुद्रों में ही है, बाहर नहीं, अतः वहाँ के चन्द्र सूर्य अपने अपने क्षेत्र में ही विहार करते हैं । अथ राज सूर्याचन्द्रमसोत्रयीप्रमाणं कथयति Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ त्रिलोकमार गाथा : ३७६-३७७ पडिदिनसमेकीथिं चंदाइच्चा चरंनि हु कमेण । चंदम्स य पण्णरसा इणरस चउसीदिसय वीथी ।। ३७६ ।। प्रतिदिवसं एक वीथि चन्द्रादित्याः चरति हि क्रमेण । चन्द्रस्य च पञ्चदश इनस्य चतुरशीतितं वीथ्यः ।। ३७६ ।। पहिदिवस । दी द्वौ मिलिया प्रतिक्षिप्तमेकवीमों चनाविल्याश्चरन्ति खलु क्रमेण बारस्य पक्यावीश्यः इनस्य चतुरशीतिशतवीभ्यः स्युः ॥ ३७६ ॥ चन्द मयं की वीथी ( गनी ) का प्रमाग कहते हैं :-- पाचार्ग :-चन्द्रमा की पन्द्रह वीथियां और स्यं को १८४ वीथियां है । चन्द्र और सूर्य क्रम से प्रति दिन एक एक वीथी में ही सवार करते हैं ।। ३७६ ।। विशेषार्थ :-५१०१५ योजन ( २०४३१४७१६ मील ) प्रमाण वाले चार क्षेत्र में चन्द्रमा की १५ गलियों मये की १८४ गलियां हैं। इनमें से कमश: प्रतिदिन दोनों स्यं मिलकर एक एक वीथी में सञ्चार करते हैं। लवण समुद्र के चार सर्यो के दो चार क्षेत्र हैं। अत: दो सर्य एक ओर और दो सूर्य दूसरी और प्रामने सामने रह कर ही संचार करते हैं । इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए। अथ वीथीनामन्तरेण दिवस गति कथयति-- पथवासण्डिहीणे चारग्वेचे गिरेयपथभजिदे । वीथीणं विच्चालं सगविम्ब जुदो दु दिवमगदी ।। ३७७ ॥ पथव्यासपिण्डहीना चारक्षेत्र निरेकपथभक्त । बीथीनां विचाल स्वबिम्बयुतं तृ दिवसगतिः ।। ३७७ ।। पय । पयवासेन F गुपिता पोय: १८४ पषष्यासपिण्डः ६३२ समानछेवोकृते दशोत्तरपचासे 82° पावित्यबिम्ब ६ मिलिसे सति चारक्षेत्र' स्यात् । अहिमन् पपण्यासपिण्डे २ सपनीते सति एवं २२१२। प्रत्रयभागहार ६१ निरेकपथेन १८३ गुणायित्वा १११६३ पनेम भागहारेण पपनातव्यासपिण् ॥ भक्त सति २ पीथीनां विशालं अन्तराल स्यात् । १ चारक्षेत्र स्मिन् (प.)। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ३७ एतस्वकीय विम्य धारक्षेनं 101 ज्योतिर्लोकाधिकार ३२३ युक्त' चेत् । प्रतिदिवसं गमनक्षेत्रप्रमाणं स्मात । एवमेव चनास्य पथव्यासपिण्डं ११ वीश्यन्तराल ३५३१ विवसति सारसम्यं ॥ ३७७ ॥ वीथियों के अन्तराल से प्रतिदिन की गति विशेष को कहते हैं : गत्यार्थ :-पय व्यास पिंड मे होन चार क्षेत्र के प्रमाण को १ कम पथ (बोषियों ) से भाजित करने पर वीथियों का अन्तर प्राप्त हो जाता है, तथा इसी अन्तर में सयं विम्ब का प्रमाण जोड देने से सर्य के प्रति दिन के गमन क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ॥ ३७७॥ ___ विशेषा:-पथ ध्यास पिंड का अर्थ "निम्ब के प्रमाण से गुरिणत वीथियों का प्रमाण है" चार क्षेत्र का प्रमाण ५१०१६ योजन है। इसमें सयं गमन की १८४ गलियां हैं. प्रत्येक गली का प्रमाण योजन ( ३१४७ मोल ) है, इसीको पथ ध्यास कहते हैं । ___१४x योजन पथव्यास पिंड है। आदित्य बिम्ध के प्रमाण (1) सहित ५१० योजन ( ५१०४) का समानछेद करने पर ६० योजन होते हैं। यह चारक्षेत्र का प्रमाण है। इसमें से पथ ब्यास पिक (१३) घटा कर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें १८३ वीयो अन्तरालों का (क्योंकि १८४ गलियों के अन्तर १८३ हो होंगे) भाग देने पर पक गली से दूसरी गली का अन्तर प्राप्त हो जाता है। जमे :-{ ( ८ - १९३): ( १८४-१) }=२ योजन ( ८००० मील ) एक गली से दूमरी गली का अन्तर प्राप्त होता है। ___ अथवा:--११xf=" या १४४ प्रमाण हुआ, अत :--५१० - १४-३६६ योजन शेष बचे । इसमें १८३ का भाग देने से ३६६ = ( १८४-१)=२ योजन प्रत्येक गली का अन्तराल प्राप्त हो जाता है। इस २ योजन अन्तर में सूर्य बिम्ब का प्रमाण (F) मिला देने से अर्थात् २४६ योजन ( १९९४७६३ मील) सर्य के प्रतिदिन गमन क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । चन्द्र की गलियों का अन्तर एवं प्रति दिन का गति प्रमाण : चार क्षेत्र ५१०४- १५-(11x =1 )= 3018:/१५-१)= ३५. यो. चन्द्रमा की एक गली से दूसरी गली का अन्तर है। इसमें चन्द्र बिम्ब का प्रमाण मिलाने से ३५३ या ११५+५=१५७७ या ३६०० योजन चन्द्रमा के प्रतिदिन गमन क्षेत्र का प्रमागा प्राप्त हो जाता है। एवमानीतदिवसगतिमाश्रित्यमेरोरारभ्य प्रतिमार्गमन्तरं तनपरिधि चाह Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ त्रिलोकसार सुरगिरिचंदरवीणं परमं पति अंतरं च परिहिं च । दिणदिनपरिहर्ण खेवादी साहए कमसो || ३७८ || सुरगिरिचन्द्ररवीणां मार्ग प्रत्यन्तरं च परिधिः च । दिनगतितत्परिश्रम क्षेपात् साधयेत् क्रमशः || ३७८ ॥ गाथा : ३७८ सुरगिरी। सुरगिरिचन्द्रश्वोरणां मार्ग प्रत्यन्तरं च परिषिश्चानेतव्यौ । कथमिति चेत्, arghouासे एकस्मिन् लक्षे १ ल०, तबुद्दीपाभ्यन्तरोभयपार्श्वस्य चारक्षेत्र प्रमाण (३६० ) मपनीयते छेतु स्यन्तरीक ६६६४० स्यात् । सदेव सूर्यसूयांतरं स्यात् । तत्र मेण्यास १०००० मपनीय ८६६४० प्रकृते ४४८२० सुरगियन्तरीयस्य सूर्यान्तरं स्यात् । तत्र दिवस २६६ गतिक्षेपे कृते सति ४४८२२३६ द्वितीयबीषीगत सूर्यसुरगियोरन्तरं स्वात् । एवं प्राचीन प्राचीन सुरगिरिसूर्यान्तरे दिनगति क्षेपे कृते उत्तरोत्तरसुरगिरिसूर्यान्तरं स्यात् । सम्पन्सरवीथी विष्कम्भे ६६६४० द्विगुणविनयति भवा ५३ क्षपे कृते १९६४५३५ द्वितीयधीयीत सूर्य सूर्ययोरन्तरं स्यात् । एवं स्वस्वाभ्यन्तरे विऽहम्मे द्विगुरादिनगतिमं ५३५ कृत्वा उतरोतर सूर्य सर्वयोरन्तरं ज्ञातव्यं । विश्वम्भरादिनाम्यन्तरविष्कम्यस्य परिषिमानीय तस्मिन् मभ्यन्तरीषीपरिषी ३१५०८९ विगुणविनगति परिधि विश्वम्भ ३४० वभावगुण १५१ करणी १५ स्याविनानीय निहारेण भक्त्या १७३६ निक्षिप्ले ३१५१०६३ द्वितीयवीथीपरिधिः स्यात् प्रमुमेव द्विगुगाबिनगतिवधि पूर्वपूर्वपरियों क्षपे कृते उत्तरोत्तरवोयीपरिधिः स्यात् । एवमुक्तप्रकारेण विनगतिअपात् द्विगुदिन गति वात् द्विगुरपविनगतिपरिषिक्ष पाच्च सुरगिरिसूर्यान्तरं परिषि च साधयेत् " क्रमशः ॥ ३७८ ॥ प्राप्त हुए दिवस गति के प्रमाण का आश्रय कर मेरुपवंत से प्रत्येक मार्ग, अन्तर और उन मार्गों की परिधि कहते हैं : पायार्थ :- दिन गति तथा दिन गति की परिधि को क्षेपण करने पर क्रमशः सुमेरु से सूर्य चन्द्रमा के मार्ग का अन्तर सूर्य से सूर्य का तथा चन्द्रमा से चन्द्रमा का अन्तर और परिषि का प्रमाण सिद्ध होता है । अर्थात् दिन गति का क्षेपण करने पर सुमेरु मे सूर्य व चन्द्र का अन्तर तथा एक सूर्य से दूसरे सूर्य का और एक चन्द्र से दुमरे चन्द्र का अन्तर सिद्ध होता है। दिनगति को परिधि में क्षेपण करने से मार्ग की परिधि सिद्ध होती है ।। ३८ ।। विशेषार्थ :- सुमेरु पर्वत से चन्द्र सूर्य के मार्ग का अन्तर और मार्ग ( प्रत्येक गली ) की परिधि का प्रमाण किस प्रकार लाना चाहिये ? उसे कहते हैं । १ चानयेत् ( ब०, प० । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा। ३७८ ज्योतिर्लोकाधिकार ३२५ दोनों सर्यों के परस्पर अन्तर का प्रमाण :-जम्बूद्वीप का व्यास एक लाख (१.0000) योजन प्रमाण है। जम्बूद्वीप के भीतर सूर्य का गमन क्षेत्र १८० योजन एक पाय भाग का प्रमाण है । दूसरे पाव भाग का प्रमाण भी १८० यो ही है, अत: १८०४२-३६. योजनों को जम्बुद्वीप के ज्यास में से कम करने पर दोनों सूर्यों का पारस्परिक अन्तर प्राप्त हो जाता है। यथा--१.०००० योजन (४० करोड़ मील)- ३६० योजन (१४४०००० मील }= ६६६४० योजन ( ३९८५६०००० मील ) प्राप्त हुआ । यही जम्बूद्वीपस्थ उभय सूर्यों के बीच अन्तर का प्रमाण है, और यही ६६६४० योजन अम्यन्तर चौथी के सूची व्यास का प्रमाण है। अभ्यन्तर बीथी में स्थित सूर्य और मेरु के बीच अन्तर का प्रमाण : उभय सूर्यों के अन्तर प्रमाण में से मेरु पर्वत का व्यास घटा कर उसे आधा करने पर वीथी स्थित सूर्य और मेरु के बीच का अन्तर प्रान होता है। यथा- १५!x70000 = ४४८२. योजन (१७९२८०००० मील ) मेरु से अम्यन्तर ( प्रथम ) वीथी में स्थित सर्य के अन्तरा का प्रमाण है । इस प्रथम वीयो स्थित मैरु के अन्तर प्रमाण में सूर्य की दिवस गति का ( २४६ योजन ) प्रमाण जोड़ देने से ( ४४८२०+२६)=४४५२२१ योजन द्वितीय वीथी गत सूर्य और मेरु के बीच का अन्तर प्राप्त होता है । इसी प्रकार पूर्व पूर्व गत सुमेरु और सूर्य के अन्तर प्रमाण में दिवस गति (२१) का प्रमाण मिलाते जाने पर उत्तरोत्तर वोथियों में स्थित मयं का मे से अन्तर प्राप्त हो जाता है । अथवा विवक्षित वीथियों का दिवसगति के प्रमामा में गुणा कर जो लब्ध प्रारस हो उसे प्रथम बीथी में स्थित सयं और सुमेरु के अन्तर प्रमाण ( ४४८२० यो०) में जोड़ देने से विवक्षित वीपी स्थित सय और मुमेरु का अन्तर प्राप्त हो जाता है। यथा-४४८२. + (२४६४१८३ ) = ४५३३० योजन {१०१३२०००० मील ) अन्तिम वीथी में स्थित सूर्य और सुमेह के अन्तर का प्रमाण है। उत्तरोत्तर सूर्य से सूर्य के बीच का अन्तर: अभ्यन्तर वीथो के विष्कम्भ ( ६९६४० योजनों) में . द्विगुण दिनांत ( २६४२- १४० या ५३५ यो०.) का प्रमाण (५३५ यो०) जोड़ देने से ( १९६४० + ५ ) ६९६४५३५ योजन ( ३९८५८२२६५ मील ) द्वितीय वीथीगत सूर्य से सूर्य के अन्तर का प्रमाण होता है। इसी प्रकार मध्यम वीथी के दोनों सूर्यों के असर का प्रमाण { ९९६४०+( x १६३)}=१०.१५. योजन और बाध ( अन्तिम ) बीपीगत दोनों सूर्यो का अन्तर { ४६४०+( ५५४१८३) }-१००६६० योजन ( ४०२६४०००० मील ) प्रमाण है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ त्रिलोकसार गाथा ३७९ विवक्षित वीथी की संख्या से द्विमुरण दिवसमति के प्रमाण को गुणित कर ६६६४० योजन प्रथम वीथी के विष्कम्भ में जोड़ देने से विवक्षित धीयोगत दो सूर्यों का पारस्परिक अन्तर प्राप्त हो जाता है, और वही उस अपनी अपनी वीथी के विष्कम्भ का प्रमाण होता है। सूर्य की अभ्यन्तर ( प्रथम ) आदि वीथियों की परिधि : "विखंभवग्गदहाशा...." गाथा ९६ के अनुसार अभ्यन्तर (प्रथम । वीथी के विष्कम्भ (4६० यो ) की परिधि का प्रमाण ३१५० योजन है। इसमें द्विगुण दिवसगति के विकम्भ की परिधि का प्रमाण जोड़ देने से द्वितीय वीथी की परिधि प्राप्त होती है। यथा-द्विगुण दिनगति के विष्कम्भ का प्रमाण ५३५ या योजन है। इसका वर्ग 12x x x . = १०० प्राप्त हुआ। इस ७° का वर्गमूल १६" अर्थात् १७६६ योजन प्राप्त होता है. अत: ३१५०८९+ १७१ - ३१५१०६१६ योजन द्वितीय वीथी की तथा (३१५१.६३+१७३६) = ३१५१२४३१ योजन तृतीय बोथी की परिधि का प्रमाण प्राप्त हुमा। इसी प्रकार आगे आगे की (चतुर्थादि । वीथियों के परिधि प्रमाण को लाने के लिये पूर्व पूर्व वीथी के परिधि प्रमाण में १७३ योजनों को क्रमशः मिलाते जाना चाहिये । इस प्रकार अन्तिम ( बाह्य ) वीथी की परिधि का प्रमाण {३१५०९+ [ १७१५४ १८३ ) }- ३१८३१४ योजन ( १२७३२५६००० मील ) है। इस प्रकार दिनति ( २४६ यो०), द्विगुण दिनगति ( ५३५ यो० ) और द्विगुण दिन गति की परिषि । १५३६ यो० ) के प्रमाण को मिलाने से क्रमशः सुमेरु और सूर्य का अन्तर, सूर्य से सूर्य का अन्तर और मार्ग की परिधि का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। गाथा ३७८ में 'सुरगिरि चन्दरवीरगं" पर से ज्ञात होता है कि सर्य के सष्टश चन्द्र की दिवस गति, मार्ग. अन्तर एवं परिधि आदि का वर्णन होना चाहिये था । किन्तु संस्कृत टीका में नहीं किया गया। तथापि कुछ ज्ञातव्य है । यथा-- चन्द्रमा के चार क्षेत्र का प्रमाणु ५११६=१५४ योजन तथा चन्द्र विम्ब का प्रमाण ५ योजन है। इसकी वीथियो १५ हैं, और यह प्रतिदिन क्रमशः एक एक गली में सञ्चार करता है। जम्बूद्वीप का व्यास एक लाख योजन है। अम्बूद्वीप में चन्द्रमा के दोनों पाश्वं भागों में चार क्षेत्र का प्रमाण (१८०४२)=३६० योजन प्रमाण है, अत: १०००..-३६० =६१६४० योजन जम्बद्वीप की अभ्यन्तर वीथीस्थ उभय चन्द्रों के बीच अन्तर का प्रमाण है। १५१४01200 =१४८२० योजन, सुमेह से अभ्यन्तर (प्रथम ) बीथी में स्थित चन्द्र के धन्नर का प्रमाण है। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया । ३७८ ज्योतिर्लोकाधिकार ३१७ चन्द्रमा के प्रतिदिन क्षेत्र एवं सुमेध से वीची स्थित चन्द्र का अन्तर : चन्द्र की एक बौथी का विस्तार योजन है, तो १५ वीथियों का कितना होगा ? इस प्रकार शिक करने पर (१४१५ ) = ६४० योजन विस्तार प्राप्त हुआ । चार क्ष ेत्र का प्रमाण ५१०६ = ( ३१५८ ¥¥° ) ÷ ( १५–१ } = ३५११ योजन हुबा इसमें चन्द्र बिम्ब का प्रमाण (११ पो०) जोड़ देने से ( ३५३३४५६) ३६ योजन चन्द्रमा के प्रतिदिन के गमन क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त होता है । सुमेर से अभ्यन्तर बीधी में स्थित चन्द्रमा का अन्तर ४४८९० योजन है। इसमें दिवस गति का प्रभार जोड़ देने से ( ४४८२० + ३६४३७ - ४४८५६०३२ योजन अन्तर द्वितीय वीथी में स्थित चन्द्र से सुमेरु के मध्य का है । ४४८५६ + ३६ ४४८६२३ योजन तृतीय वीथी में स्थित चन्द्र और सुमेह के बीच का अन्तर है। इसी प्रकार पूर्व पूर्व वीथी के चन्द्र दिवस गति का प्रमाण मिलाते जाने से चतुर्थादि बौथियों में स्थित पर प्राप्त होगा। सस्वर प्रमाण में उपर्युक्त चन्द्र और सुमेरु के बीच का बाह्य ( असिम ) बोथी में स्थित चन्द्र और मेरुका अन्तर ४४८२० + { ३६३३३ ( १५ – १ } } ४५३५९५१ योजन ( १८१३१६४७५३५ मील ) है । द्विगुण दिवसगति एवं चन्द्र से चन्द्र के अन्तर का प्रमाण : ३६६३६ × १ ८ । - ७२१ योजन चन्द्र की द्विगुगा दिवस गति का प्रमाण है । इमे प्रथम बीबी स्थित दोनों चन्द्रों के अन्तर प्रमाण ( १९६४० योजनों में मिलाने से ( ६९६४० + ७२ ) == ९९७१२ योजन, एवं ( १२+२ ) = ६१७८५३३ योजन क्रमशः द्वितीय और तृतीय afra में स्थित युगल युगल चन्द्रों का अन्तर है। इसी प्रकार १५ वीं वीथी में स्थित दोनों चन्द्रों का अन्तर ६९६४० + (७२३६ × १४ ) = १००६५९४५ योजन है । चन्द्र की द्विगुण दिवस गति एवं वीथियों की परिधि का प्रमाण : द्विगुर दिवस गति का प्रमाण ७२३३ - 13 योजन है। इसकी परिधि का प्रमाण (*)'x १०- २३० योजन है । चन्द्र को प्रथम वीथी की परिधि का प्रमाण ३१५०८९ योजन है । ३१५०८९ + २३०३३३ - ३१५३१६३३३ द्वितीय वीथो की परिधि का प्रमाण है, तथा ३१५०८६+ { २१०¥¥¥ x १४ ) - ३१८३१३३३ योजन चन्द्र की अन्तिम ( १५ वीं ) वीथी की परिधि का प्रमाण है। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ त्रिलोकसाग गाथा । ३७९ अथैवमुक्तपरिधो परिभ्रमतः सूर्यस्य दिनराबिहेतुत्वं तयोः प्रमाणं च मार्गाश्रयेणाह सूरादो दिणरसी अट्ठारस बारसा मुहचाणं । अन्भनरम्हि एदं विवरीयं चाहिरम्हि हवे ।। ३७९ ॥ सूर्यात् दिनरात्री अष्टादश द्वादश मुहतानाम । मभ्यन्तरे एतविपरीतं बाह्य भवेत् ।। ३७१ ।। सूरावो । सूर्यात् मुहूतानामहावा विशसंख्ये ते यथासंख्य दिनरात्री स्याता । वेति बेद अस्पतरपरिषो । एलवेव विपरीतं माहापरियो भवेत् ॥३६॥ __उक्त परिधि में भ्रमण करते हुये सूर्य के दिन रात्रि का कारण एवं उनका प्रमाण, मार्ग के माश्रय से कहते हैं : गाचार्य :- अभ्यन्तर परिधि में भ्रमण करते हुए सूर्य से दिन अठारह मुहूर्व का और रात्रि धारह महतं की होती है, तथा बाह्य ( अन्तिम ) परिधि में भ्रमण करते हुये सूर्य से इससे विपरीत अर्थात् १० मुहूर्त की रात्रि और १२ मुहूर्त का दिन होता है ।। ३७६ ॥ विशेषार्ष:-जम्बूद्वीप की बेवी के पास १८० योजन की अभ्यन्तर (प्रथम ) वीथों में जब सयं भ्रमण करता है, तब दिन १- मुहूर्त ( १४ घ. २४ मिनिट) का और रात्रि १२ मुहूतं ( 6 घंटे ३६ मि.) की होती है। किन्तु जब वही सूर्य लवरण समुद्र की वाह्य ( अन्तिम ) परिधि में भ्रमण करता है, तब दिन १२ मुहूर्त का और रात्रि १८ मुहूर्त की होती है । अथ सूर्यस्यावस्थितिस्वरूपं दिन राश्योहानि नय चाह कक्कडमयरे सबभतरबाहिरपहटियो होदि । महभूमीण विसेसे वीधीर्णतरहिदे य चयं ।। ३८० ॥ कटमकर सभ्यन्तर बायपथस्थियो भवति । मुखभूम्योः विशेषे वीथीनामन्धरहिते च चयः ॥ ३८: ।। काकड । झटके मकरे च यथासंख्यं सर्वाभ्यन्तरपपस्थितो बाह्यपस्थितश्च भवति सर्पः । प्राशिसमाप्तिपर्यन्त कि सावत्येव १८ । १२ fagalस्थाशस्य प्रतिदिन हानिचयोस्तीत्याह । मुख १२ भूम्यो १८ विशेषे ६ ध्यगीतिगत १५३ वीभ्यन्तराला दिनरूपाणां बमुहा यदि एक बीयन्तरस्य कियामहा इति सम्पातेमागतेन पीथीनामंतरेण १८३ हो भागाभावात त्रिभिरपतिते पर प्रतिदिन हानियो भवति ॥ ३८० ।। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ गाषा: ३०० ज्योतिलोंकाधिकार सूर्य की अवस्थिति का स्वरूप और दिन रात्रि के हानि वय को कहते हैं : गाचार्य :-कर्क राशि स्थित सूर्य अभ्यन्तर परिधि में और मकर राशि स्थित सूर्य बाह्य परिधि में भ्रमण करता है। भूमि में से मुख घटाकर जो शेष बचे उसमें वीथियों के अन्दर (१८४-१=१८३) का भाग देने पर हानि चय प्राप्त होता है ॥ ३८ ॥ विशेषाचं :-कर्कट (कर्क राशि पर स्थित सूर्य अभ्यन्तर परिधि में भ्रमण करता है और मकर राशि पर स्थित सूर्य बाह्य परिधि में भ्रमण करता है । उस राशि की समाप्ति पर्यन्त दिन एवं रात्रि का प्रमाण उतना ( १८, १२ ) ही रहता है, या घटता है ? ऐसी थाङ्का होने पर प्रतिदिन होने वाले हानि चय को कहते हैं :- यहाँ १८ मुहूर्त तो भूमि है, और १२ मुहूर्त मुख है । भूमि में से मुख घटा देने पर (१८-१२)=६ मुहूर्त अवशेष रहते हैं। सूर्य की १८४ वीथियाँ हैं, किन्तु अन्तराल १८३ में ही पड़ता है । जबकि १८३ गलियों में ६ मुहूर्त का अन्तर पड़ता है, तब एक गली में कितना अन्तर गग? इस प्रकार राशिककर हत प्राप्त हुआ। इसे ३ से अपवर्तित करने पर प्रतिदिन के हानि चय का प्रमाण में मूहूर्त ( १३५ मिनिट) होता है। जिस दिन सूर्य अम्यन्तर वीथो में भ्रमण करता है, उस दिन १८ मुहूर्त का दिन होता है, किन्तु जिस दिन दूसरी वीथी में भ्रमण करता है, उस दिन ३, मुहूर्त घट जाता है। अर्थात् -3,-१७ मुहूर्त का दिन होता है। जब तीसरी वीथो में पहुँचता है, तब १७४१ या १६' - १४ अर्थात् १७१ मुहूर्त का दिन होता है। इसी प्रकार प्रत्येक वीधी में घटते घटते १७१५, १७१३, १७ ....."मुहूर्त का दिन होते होसे जिस दिन अन्तिम वीथी में पहुँचता है, उस दिन १२ मुहूर्त का दिन होता है। इसी प्रकार अम्यन्तर वीथी की ओर बढ़ते हुए प्रत्येक वीथी में में मूहूतं बढ़ते हैं। तव दिनमान १२१ १२६, १२६५, १२ इत्यादि कम से बढ़ते हुए अम्यन्त बीथो में १८ मुहून का हो जाता है । यथा : ART... PPR Saritaerta DURATI . AMHeal ircal C ४ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार वाचा : ३८१ अवमुक्त दिन राज्योस्तापतमसो वर्तमानकालत्वात् तत्तापक्षेत्रप्रमाणं निरूपयन् श्रावणमाघमासादीनां दक्षिणोत्तरानयनं निरूपयति ३३. सावणमा सव्वव्यंतर बाहिर पहडिओ होदि । सूरयिमासम्स य तावतमा सन्धपरिही ।। ३८१ ।। श्रावणमाघे सर्वाभ्यासस्यस्थित इति । सूर्य स्थितमासस्य च तापत्तनमी सर्वपरिधीषु ।। ३८१ ॥ सावरण | भावसमासे माघमासे ययासंख्यं सर्वास्वतरपराह्यपपस्थितो भवति सूर्यः । तस्य सूर्यस्थितमालस्य तापतमती सर्वपरिधिवातये । घण्णा मासानामेतावत्सु दिनेषु १८३ नाव एकाविमासानो किमिति सम्पास्यापर्यासते तसमासानां विनसंख्याः स्युः । था श्री भा ६१० ३ का १२ मा ३७५ १८३३ मा फा ६१६ चैवं १२२१८३ इमामेव दक्षिणायनोशरावरणदिनानि स्युः ॥ ३८१ ॥ इस प्रकार उपयुक्त कहे हुये दिन और रात में ताप और तम मनुष्य लोक में होते हैं । उस ताप और तम के क्षेत्र का निरूपण करते हुए आचार्य श्रावण एवं माघ आदि माह में सूर्य के दक्षिणयत और उत्तरायण की प्ररूपणा करते हैं : गाथार्थ :- श्रावण माह में सूयं सबसे अभ्यन्तर परिधि में तथा माघ माह में सबसे बाह्य परिधि में स्थित रहता है। सूर्य स्थित माह के ताप और तम को सर्व परिधियों में कहना चाहिये || ३५१ || विशेषार्थ :- सूयं श्रवसा माह में सबसे अभ्यन्तर परिधि में और माघ मास में सबसे बाह्य परिधि में रहता है । (शेष महिनों में मध्यम परिधियों में रहता है) उन सूर्य स्थित माह के ताप औतम को सर्व परिधियों में कहना चाहिये । यथा— जबकि छह माहों में १०३ दिन होते हैं । तब एक माह में कितने दिन होंगे ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर प्रत्येक माह की निम्नलिखित दिन संख्या प्राप्त होती हैं :-- १ श्रावण माह में १६३ २ भाद्रपद तक (' + ) ३ आसीन माह तक (+) ४ कार्तिक तक (' + '' ) ५. मार्गशीर्ष माह तक ( १३२ + 5 = ) = = ३०३ दिन होते है । ६१ दिन होते हैं । ३ दिन होते हैं । १२२ दिन होते हैं । 30 दिन होते हैं। = न Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ३८२ ज्योतिर्लोकाधिकार ६ पौष तक ( 3g" + 1 = १८३ दिन होते हैं। ७ पुनः माघ माह में '६ = ३०३ दिन होते हैं। ८ फाल्गुन तक ( +५) = ६१ दिन होते हैं। ९ चैत्र माह तक ( + ) = ६३ दिन होते हैं। १० वैशाख तक ( + ) = १२२ दिन होते हैं। ११ ज्येष्ठ माह तक ( १३२ + )३१" दिन होते हैं। १२ भाषाढ़ तक ( " +:) = १८३ दिन होते हैं। यही दिन कम से सूर्य के दक्षिणायन और उत्तरायण के हैं। अर्थात् श्रावण माह से पौष माह तक ( १८३ दिन ) सूर्य दक्षिणायम तथा माघ माह से आपाढ़ माह तक ( १८३ दिन ) उत्तरायण रहता है। अथ सर्वपरिधिषु तापतमसोरानयनप्रकारमाह गिरिमभंतरमझिमबाहिरजलबट्ठभागपरिहिं तु । सट्ठिहिदे सरहियमुहत्तगुणिदे हु तावतमा ।। ३८२ ।। गिर्यम्पन्तरमध्यमबाह्यजल पठभागपरिधि तु। पष्ठिहिते सूर्यस्थितमुहुर्तगुणिते तु तापतमसी ॥ ३८२ ॥ गिरि। गिरिविष्कम्भः १०००० एतावामेव अमूद्वीपप्रमाणे १०.... तोपचारक्षेत्र १० निगुणोकृत्य ३६० एतस्मिन अपनीते सम्यन्तरबोपोविष्कम्भः, ६६६४०, चारक्षेत्र ५१. म कृत्य २५५ परिमन द्वीपचार क्षेत्र १८० मपनीय ७५ इवमुभपणार्षि द्विगुणीकृष्य १५. जम्बूद्वीपे । मिक्षिसे १०.१५० मध्यमवीथीविरुकम्मा, लवणसमुबधार क्षेत्र ३३० मुभयपाश्र्वाक दिगुणीकृस्य ६६० सम्भूतोपे १० मिलिते १००६६. बाह्यवोयाविरुकमा। लवणसमुद्रप्रमाणं २ ल. षभिभववेदं ३३३३३३ पार्वतयाणे विगुणीवरम १६६६६५ शेषमपश्यं पं जम्बूद्वीपे निक्षिप्ते १६६६६६६ अलषष्ठभागविष्कम्भः स्यात् । एताम् पञ्चविष्कम्मान घृत्वा विपक्षमवग" इरमाविमा गिरिपरिषि ३१६२२ अभ्यन्तरपरिधि ३१५-१६ मध्यमरिषि ३१६७०२ बाह्यपरिषि ३१८३१४ जलषष्ठमागपरिधि ५२७०४६ पानीय एतेषां गिरिपरिध्यागोनां मध्यविवक्षितपरिषि ३१६२२ मुहूर्तपघा विमज्य ५२७ पस्मिन् मासे सूर्यस्तिति तम्मासदिलरात्रिमुहत: १८ । १७ । १६ । १५ । १४ । १३ । १२ गुणिते १४८६ शेषे पभिरपतिते ५ च लम्ध तस्मिन् मासे तापतमसोवियतेत्रमागच्छति । विवक्षितपरिधि ३१६२२ मुहूत वाचा ६. विभज्य मासं प्रति मुहूर्त तथा गुरिणते ५२७ मासं प्रति क्षेत्रहानिषयमागच्छति । मासं प्रत्येकमहतंतिरिति कर्ष ? एकस्मिन् दिने मुहतस्य यति Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मियाकसार ३३२ पाया ३८२ भागमा हामिचये एकषष्टिविभवलस्य विद्धानिचयमिति सम्पास्यापवर्तिते लब्धमुहूर्त एक: १। एवं त्वष्टिमुहूर्तानामेतावत क्षेत्र गते ३१६२२ एकमुहूर्त ध्य कियत् क्ष ेत्रमिति सम्पात्यापतिते लब्धमिदं ५२७३ मा प्रति सत्रहानिय स्यात् । इदं दक्षिणायने तम्मासे तापक्ष ेत्र अपनयेत्तमःक्षत्र ज्यात । उत्तराय समासतापक्षेत्र युक्वात् तमः क्षेत्रे मपनयेत् । एवं कृते विवक्षितमा विक्षितपरिषो लाक्तमसेविषयक्षेत्रमागच्छति ॥ ३८२ ॥ सर्व परिथियों में ताप और तम लाने का विधान कहते है : गावार्थ :- सुमेरु पर्वत की परिधि अभ्यन्तर बीथी की, मध्यम वीथी की, बाह्य बोधो की और जल में लवर समुद्र के व्यास के छठवें भाग को पांच ) परिधियों को साठ से भाजित करने पर जो जो लब्ध प्राप्त हो उसे सूर्यस्थित माह के ( रात्रि और दिन के ) मुहर्तीों से गुणित करने पर ताप और तम का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ३८२ । विशेषार्थ :- सुमेरु पर्वत का विष्कम्भ १०००० ( दश हजार ) योजन है । अभ्यन्तर art at faष्क्रम्म-जंम्बद्वीप का प्रभास १०००००- ( १८०४२- १३६०८ ६६६४० योजन प्रमाण है । मध्यम वयो का विष्कम्भ- चारक्षेत्र ५१०२ – २५५ योजन अर्ध चारक्षेत्र । २५५ - १८० ( जम्बूद्वीप का चारक्षेत्र ) = ७५ x २ = १५० योजन उभय पार्श्व भागों का प्रमाण है, अतः १०००००+ १५० = १००१५० योजन मध्यम वीथी का सूची व्यास प्राप्त हुआ । बाह्य वीथी का किम्भ :- लवण समुद्र सम्बन्धी चार क्षेत्र ३३० x २ = ६६० योजन उभय पार्श्व भागों का हुआ, अतः ( जम्बूद्वीप का व्यास ) १०००००+ ६६० = १००६६० योजन बाह्य वीथी का विष्कम्भ है । जलष्ठ भाग का त्रिष्कम्भ लवण समुद्र का बलय व्यास २००००० योजन है। छुटे भाग क) विष्कम्भ प्राप्त करने के लिये इसमें ६ का भाग देने पर ( 200000 ) १०००००० अर्थात् ३३३३३३ योजन हुआ। उभय पार्श्व भागों का ग्रहण करने पर ३३३३३३ x २ = ६६६६६३ योजन हुआ। जम्बूद्वीप का व्यास १०००००+ ६६६६६३ योजन - १६६६६६६ योजन जल पष्ठ भाग का विष्कम्भ है । "विक्खंभवग्गदहगुण"... गाथा ६६ के कसूत्रानुसार उपयुक्त पाँचों विष्कम्भों की परिवि निकालने पर सर्व प्रथम (१) मेरु को परिधि का प्रमाण ३१६२२ योजन X Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया।३८२ ज्योतिर्लोकाधिकार (२) अभ्यन्त र वीथी की परिधि ३१५०८६ योजन, (३) मध्यम वीथी की परिधि ३१६७.२ योजन, (४) बाह्य वीथी की परिधि ३१८३१४ योजन, और (५) जलषष्ठ भाग की परिधि का प्रमाण ५२७०४६ योजन होता है। उपयुक्त पानों परिधियों में से विवक्षित परिधि में ६०का भाग देकर जो लश्च प्राप्त हो उसको सूर्य स्थित माह के दिन एवं रात्रि के मुहूर्ती ( १८ । १७ । १६ । १५ । १४ । १३ । १२ । ) से गुणित करने पर सस माह के ताप और तम के विषय का क्षेत्र प्राप्त हो जाता है यथा- मेकगिरि की परिधि विवक्षित है तथा सूर्य श्रावण माह पर स्थित है। श्रावण माह में दिन १८ मुहूर्त (१४ घंटे २४ मिनिट ) का और रात्रि १२ मुहूर्त ( ६ घंटे ३६ मिनिट ) की होती है। मेरु की परिधि ३१६२२ योजन है। अत: ११.३१५८ - १४८६१ योजन मेरु पर्वत के ऊपर ताप क्षेत्र का तथा 3१६१२४१२१ = ६३२४१ योजन तम क्षेत्र का प्रमाण है । इसी प्रकार अन्य परिधियों में जानना चाहिये। विवक्षित परिधि को '६५ से भाजित कर, घी २६ मुहूतं सा नुपित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसे प्रत्येक माह के ताप तम के हामि वृद्धि क्षेत्र के प्रमाण रूप हानि वय जानना चाहिये । जैसे- मेरुगिरि को ३१६२२ योजन परिधि विवक्षित है, अतः ३१६२२.४ १ मुहूत =५१७. योजन हानि चय प्राप्त हुआ। एक माह में एक मुहूर्त की वृद्धि कम होती है ? उसे कहते हैं : जबकि १ दिन में 2 मुहूर्त ( १३५ मिनिट ] को हानि होती है, तब अधं साठ दिन अर्थात् ३०३ दिन में कितनी हानि होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर- x =१ मुहूर्त (४८ मिनिट) की हानि ३० दिन में होगी। भ्रमण द्वारा दो सूर्य एक परिधि को ३० मुहूर्त में पूरा करते हैं। यदि मान लो एक ही सूर्य होता तो उसे ६० मुहुर्त एक परिधि की समाप्ति में लगते। जबकि ६० मुहूर्त में सर्य ३१६२२ योजन क्षेत्र में भ्रमण करता है, तब एक मुहून में कितना भ्रमण करेगा ? इस प्रकार राशिफ निकालने पर 3१२२ = ५२७४ योजन १ मुहूतं का भ्रमण क्षेत्र प्राप्त हुआ। पही ताप क्षेत्र की हानि का प्रमाण है। अर्थात् श्रावण माह के ताप क्षेत्र के प्रमाण से भाद्रपद का ताप क्षेत्र ५२७४: योजन कम हो गया और श्रावण माह के तम क्षेत्र की अपेक्षा भाद्रपद के तमक्षेत्र में ५२७३० योजन की वृद्धि हो गई। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ बिलोकसार पाया।३८३-३८४ अर्थमातापमाना:-- परिधिम्हि नम्हि चिढदि पुरो तस्सेव तापमाणदलं । विरपुरदो पसप्पदि पच्छामागे य सेसद्धं ।। ३८३ ।। परिघी यस्मिन् तिष्ठति सूर्यः तस्यैव तापमानदलम् । बिम्बपुरतः प्रसपंति पश्चाद्भागे च शेषार्धम् ॥ ३३ ॥ परिषि । यस्मिन् परिषी सूमस्तिति तस्यैव तापप्रमाणवलं बिम्पुरतः प्रसर्पति, शेषार्ष पश्चायुमागे अपसर्पति ॥ ३३ ॥ इस प्रकार प्राप्त हुए ताप और तम क्षेत्रों का प्रवर्तन ( फैलाव ) कहते हैं गाथाय :-जिस परिधि में सूर्य स्थित होता है उसी परिधि में आधा तापमान सूर्य बिम्ब के पीछे और आधा सूर्यबिम्ब के आगे फैलता है ॥ ३८३ ॥ विशेषार्थ :--जिस परिधि में सूर्य के तापमान का जो प्रमाण कहा गया है, उसका आधा भाग सूर्यबिम्ब के पीछे और आधा प्रमाण सूर्यबिम्ब के आगे आगे फैलता है। इदानी तापतमसोहानि वृद्धिमाह पणपरिधीयो भजिदे दमगुणसूरंतरेण जल्लद्धं । सा होदि हाणिवड्दी दिवसे दिवसे च तावतमे ॥३८४।। पञ्च परिधिषु भक्त षु दशगुणसूर्यान्तरेण यल्लम्धं । सा भवति हानिवृद्धिदिवसे दिवसे च वापतमसोः ।। ३८४ ।। पण । पशि मुहांना पक्षपरिष्यन्यतरमितेषु क्षेत्रेषु गतेषु कष्ट । मुहूर्तानां कियत, क्षेत्रमिति सम्पातेन पमपरिषिषु दशगुणसूर्यान्तरेण १८३० भक्तेषु यस्लम्ब १७२ सा भवति हामि दिदिबसे विवसे च तापतमप्तोः ॥ ३८४ ॥ तापतम को हानि वृद्धि को कहते हैं: गायार्थ :-पाचों परिधियों को दशगुणे सयं के अन्तराल के प्रमाण से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो वही प्रत्येक दिन में हानि वृद्धि के तापतम का प्रमाण है ।। ३८४ ।। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ३८५-३८६ ज्योतिर्लोकाधिकार ३३५ विशेषार्थ :- पाँचों परिधियों में विवक्षित परिधि मेगिरि की है। जबकि ६० मुहतों में सूर्य ३१६२२ योजन प्रमाण क्षेत्र में सखार करता है, तब मुहूर्त में कितना करेगा ? इस प्रकार शशिक निकालने पर १७१ योजन प्राप्त होता है । 30 7 सूर्य के गमन की १८४ गलियाँ है, उनमें से अन्तराळ गलियाँ १८३ ही है । इन्हें १० से गुणित करने पर (१८३x १०) १८३० प्राप्त होते हैं । इन १८३० से मेरा गिरि की विवक्षित परिषि ३१६२२ योजन को भाजित करने पर भी ( ३१६२२ : १८२० ) १७६१७योजन प्राप्त होता है । यही देखकर आचार्यों ने ऐसा कहा है कि विवक्षित परिधि को दशगुणित अन्तराल से भाजित करने पर प्रत्येक दिन में ताप और तम की हानि वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है। अर्थात् जब सूर्य उत्तरायण होता है, तब प्रतिदिन ताप का क्षेत्र १७६६ योजन प्रमाण बढ़ता है और इतना ही, क्षेत्र तम का घटता है, किन्तु जब सूर्य दक्षिणायन होता है, तब प्रतिदिन ताप का क्षेत्र १७ योजन प्रमाण घटता है और तम का इतना ही क्षेत्र बढ़ता है। इसी प्रकार अन्य अन्य परिधियों में भी ताप तम की प्रतिदिन को हानि वृद्धि का प्रसारण निकाल लेना चाहिए । अर्थात् अभ्यन्तर बोथी में ताप तम की प्रति दिन की हानि वृद्धि का चय ( ) = १७२० योजन प्रमाण है । मध्यम वीथी में ताप तम को प्रतिदिन की हानि वृद्धि का चय (१७३६. है। बाबोधी में ताप तम की प्रतिदिन की हानि वृद्धि का चय ( ) = १७३१ है । अलषष्ट भाग वीथी में ताप तम की प्रतिदिन की हानि वृद्धि का चय (३४-२८ योजन है । अथ च परिधीनां सिद्धाङ्क गाथायेन कथयति - बावीस सोलतिण्णिय उणणउदी पण्णमेक्कतीसं च । दुखसत द्विगितीसं चोद्दस तेसीदि इगितीसं ।। ३८५ ।। बादालसुण्णसतयवावरणं हाँति मेरुपदुद्दीणं । पंच परिधीमो क्रमेण अंक कमेणेव ।। ३८६ ॥ द्वाविंशतिः षोड़शश्रीणि एकोननवतिपचाशदेकत्रिंशच्च । द्विख सप्तषष्टघ कत्रिशत् चतुर्दशञ्ययोतिएकत्रिशत् ॥ ३८५ ।। षट्चत्वारिंशच्छून्य सप्तक द्विपञ्चाशत् भवन्ति प्रभृतीनाम् । पश्वानां परिषयः क्रमेण अङ्ककमेव ॥ ३८६ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाषा: ३८७ बावीस । द्वाविसिषोडशत्रीणि ३१६२२ गिरिपरिधिः एकोननवति पाशवेकशिवम्भन्तरपरिमिः ३१५०८६ दिखसप्तषपकनिशत मध्यपरिषिः ३१६७०२ चतुर्दशत्र्यशीत्येकत्रिंशद्वाह्यपरिधि: ३१८३१४ ॥ ३८५ ॥ छावाल । षट्चत्वारिंशच्छम्पसप्तविपञ्चाशवलषाभाषपरिधिः ५२७०४६ इति भवन्ति मेहामृतीनां पञ्चाना परिषयः कमेगाकुक्रमेणव ॥ ३८६ ।। अब दो गाथाओं में पांचों परिधियों के सिद्ध हुए अङ्क, कहते हैं : गावार्थ:-इकत्तीस हजार छ सौ बाईस; तीन लाख पन्द्रह हजार नवासी; तीन लाख सोलह हजार सात सौ दो; तीन लाख अठारह हजार तीन सौ चौदह और पांच लाख सत्ताईस हजार अचालीस मेरुगिरि की परिधि को आदि करके क्रम से पांचों परिधियों के सिद्ध हुए अड़ों का प्रमाण है ॥ ३०५, ३८६ ।। विशेषार्थ :- मेरुगिरि की परिधि का प्राप्त हा प्रमाण ३१६२२ पोजन है। अम्यन्तर वीथो की परिधि का प्रमाण ३१५०८९ योजन है। मध्यम बौधी को परिषि का प्रमाण ३१६७०२ योजन है। बाह्म वीथो की परिधि का प्रमाण ३१८३१४ योजन है और जलषष्ठ भाग की परिधि का प्रमाण ५२७०४६ योजन है। अथ विसदृशान् परिधीन् कथं समानकालेन समापति इत्यत्राह णीयंता सिन्धगदी पविसंता रविससी दु मंदगदी। विसमाणि परिरयाणि दु साहति समाणकालेण ।। ३८७ ।। निर्यान्तो षीघ्रगती प्रविशन्तो रविश शिनौ तु मन्दगती। विषमान परिधींस्तु माघमत: समानकालेन ॥ ३८७ ।। पीयंता । नियन्तो शीघ्रगती भूत्वा प्रविशन्तो रविशशिमो मन्दगती भूत्वा विषमान परिषीस्तु सापयतः समापयतः समानकालेन ॥ ३८७ ॥ विसदृश प्रमाणवाली परिधियों को सूर्य समानकाल में कैसे समाप्त करता है ? इसे कहते हैं : गाथार्य :-सर्य और चन्द्र निकलते ममय अर्थात् प्रथमादि वीथी से द्वितीयादि वीथियों में जाते समय शीघ्रगति से गमन करते हैं. किन्तु बाह्यादि वीथियों से ज्यों ज्यों पीछे की वीथियों Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथ] 1 ३८८ ज्योतिलोकाधिकार में भाते हैं, क्यों त्यों मन्द गमन करते हैं । इस प्रकार विषम वोथियों को भी समानकाल में पूरा कर लेते हैं ।। ३८७॥ विशेषार्थ :-- अभ्यन्तर आदि वीधियों की परिधियों का प्रमाण समान नहीं है। अर्थात् वे हीनाधिक प्रमाण को लिये हुए हैं। दो मयं प्रत्येक बीयो को ६० मुहूर्त में अपने सञ्चार द्वारा समान कर लेते हैं, अतः प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि समान काल में होनाधिक प्रमाण बाली परिघियों को कैसे पूरा करने हैं ? समाधान में आचार्य कहते हैं कि सूर्य चन्द्र का नामन अभ्यन्तर वीथी में अत्यन्त मन्द है, किन्तु जैसे जैसे दे द्वितीयादि वीथियों में पहुँचते जाते हैं, वैसे वैसे उनकी गति क्रमशः तेज होती जाती है। इसी प्रकार बाह्य वीथी में सबसे तेज गति है। वहाँ से वे जैसे जमे भीतर प्रवेश करते जाते हैं, वैसे वैसे उनकी चाल क्रमशः मन्द होती जानो है । इस प्रकार समान समय में वे दोनों विसदृश चीथी के प्रमाण को पूरा करते हैं। अथ तयो रविवापिनोगमनप्रकारं पुनधान्तमुखेनाह गयहय केसरिंगमणं पढमे मज्झन्तिमे य पुरस्स । पडिपरिहिं रविससिणो मुहत्तगदिखेचमाणिज्जो ॥३८८।। गजहयकेसरिगमन प्रथमे मध्ये अन्तिम च सय॑स्य । प्रतिपरिधि रविशशिनोः मुहतगतिक्षेत्रमानेयम् ।। ३८८ ।। गय । गबगममं हयगमनं केसरिगमन प्रथमे मध्यमे प्रतिमे , पपि सूर्याचन्द्रमसोभवति । इदानी रविशशिनोः प्रतिपरिधि मुहर्तगतिक्षेत्रमानेयं । कमिति चेत् । षष्टिमुहाना ६० मेतावति क्षेत्र ३१५८६ एकमुह प कियत क्षेत्रमिति सम्पातेलानेतव्यं । सूर्यस्याम्यन्तरपरिषौ मुहूत गसिरिय ५२५१३३ बन्नस्याप्येवं राशिकविषिनानेतस्य । चनस्य परिधिसमापनकाल: ६२३ समच्छेवेनानयोर्मलने प्रमाणराशि१३:२५ फल ३१५०८६ इच्छा मुहत १ लम्प ५०७३ शेष पाय || ३५ ॥ रविशशि के गमन प्रकार को दृष्टान्त द्वारा कहते हैं : गायार्थ :-सूर्य और चन्द्र प्रथम ( अभ्यन्तर ) वीथी में हाथोवत्, मध्यम वीथी में घोड़े वत् और अन्तिम ( बाह्य ) वीथी में सिंहवत् गमन करते हैं। इनकी प्रत्येक परिधि में एक मुहर्त का गति क्षेत्र निकालते हैं ।। ३८८ ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा: विशेषार्थ :- प्रथम मार्ग में सूर्य चन्द्र के गमन की गति गज सदृश ( अतिमन्द ) है, मध्यम मार्ग में घोड़े की चाल सदृश ( मध्यमगति ) है और अन्तिम मार्ग में दोनों की चाल सिंह सहया ( तेजगति ) है । सूर्य चन्द्र की प्रत्येक परिधि में एक मुहूर्त की गति का प्रमाण लाने के लिये कहते हैं-अभ्यन्तर परिधि में सूर्य का एक मुहूर्त की गति का प्रमाण कहते हैं । भुहूर्त में जबकि ६० मुहूर्त में सूर्य ३१५०८६ योजन क्षेत्र में सार करता है तब एक कितने योजन सचार करेगा ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर सूर्य का एक मुहूर्त के गमन का प्रमाण ५२५१३: योजन ( २१००५१३३३ मील) प्राप्त होता है। [ विशेष ज्ञातव्य:- जबकि सूर्य ४८ मिनिट ( १ मुहूर्त में २२००५९३६ मील जाता है, तब एक मिनिट में कितने योजन जायगा १ २१०० ५९३३३ इस प्रकार अंराशिक करन पर अर्थात् ४३७६२३६ मील जायगा। अर्थात् मयं ४८ अभ्यन्तर ( प्रथम ) चोथो में एक मिनट में ४३७६२३३६ मील चलता है ] मध्यम दोघी की परिधि ३१६७०२ योजन है । ३१६७०२ - ६० = ५२७८ योजन मध्यम पथ में स्थित सयं की एक मुहूर्त परिमित गति का प्रमाण है । [ ५२७८योजन अर्थात् २९११३४६६३ मोल ४८४३९८६३६ मील मध्यम पथ में स्थित सूर्य के एक मिनिट की गति का प्रमाण है। अर्थात् मध्यम वोथी में सूर्य १ मिनिट में ४३९८६३ मील चलता है । ] बाह्य वीथी की परिधि ३१८३१४ योजन है । ३१८३१४÷ ६०५३०५ ० योजन बाह्य पथ में स्थित सूर्य की एक मुहूर्तं परिमित गति का प्रमाण है । [ ५३०५ योजन अर्थात् २१२२०९३३३ मील ४८ मिनिट = ४४९१०२० मील बाह्य पथ में स्थित सूर्य के एक मिनिट की गति का प्रमाण है। अर्थात् सूर्य बाह्य ( अन्तिम ) वीथी में एक मिनिट में ४४२०२७ मोल चलता है | | चन्द्रमा का एक मुहूर्त का गति प्रमाण : मुहूर्त ( २४ घंटे ) लगते हैं, किन्तु चन्द्रमा सूर्य को अपनी परिधि पूर्ण करने में कुल ६० को उसी प्रमाण वालो अपनी परिधि पूर्ण करने में ६ जबकि चन्द्र ६२ या ३३५ मुहर्ती में ३१५०८९ योजन है, तब एक मुहूर्त में कितने योजन चलेगा ? इस प्रकार ४०योजन अभ्यन्तर ( प्रथम ) वीथी में स्थित चन्द्र की एक मुहूर्त परिमित गति का प्रमारा है । [ ५००३३३३६ योजन अर्थात् २०२९४२५६४६ मील ४८ मिनिट = ४२२७९७५ मील प्रथम मार्ग में स्थित चन्द्र के एक मिनिट की गति का प्रमाण है । ] मुहूर्त ( कुछ कम २५ घंटे ) लगते हैं । ( अपनी अभ्यन्तर परिधि प्रमाण ) चलता राशिक करने पर ११५०८१. १३७२५ २२५ F ३३८ ---- Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्लोकाधिकार ३३९ बाह्य पथ की परिधि का प्रमाण ३१६३१४ योजन है । ३१८३१४ (६२० ) = ५११५५३५४ योजन बाह्य पथ में स्थित चन्द्र की एक मुहूर्त परिमित गति का प्रमाण है । मील गाथा ३८२-३६१ [ ५१२५२४ योजन अर्थात् २०७२ ५११२३४३ मील ÷ ४८ मिनिट = ४३१६७८६ बाह्य (अन्तिम ) गली में स्थित चन्द्र के एक मिनिट की गति का प्रमाण है । ] अवाभ्यन्तरवचीथसूर्यस्य चक्षुः स्वध्वानमानयति गाथात्रिकेन सहिदपदमपरिहिं पात्रगुणिदे चक्खुपामभद्धाणं । तेरपूर्ण सिहाचलचावद्धं नं पमाणमिणं ॥ ३८९ ॥ मदालसयं साहियमागम्म णिसहउअरिमिणो । दो दिपासो ॥ ३९० ॥ सिहुवरिं गंतव्यं पणसगवण्णासपंच देसूणा । लेचियमेसं गया सिहे अत्थं च जादि रवी ।। ३६१ ।। षष्टिति प्रथम परिषो नवगुणिते चक्षुः स्पर्शाचा | नोनं निषधाचलचापार्थं यत् प्रमाणमिदम् ॥ ३८६ ॥ एकत्रिंशति षट्चश्वारिंशन्तं साधिके आगत्य निषधोपरि इनः । दृश्यते भयोध्यामध्ये तेनोन: निपधपार्श्वभुजः || ३६० ।। नवोपरि गन्तव्यं पञ्चाशत्पन्न देशोना । तावन्भार्थ गया निपधे अस्तं च याति रविः ।। ३६१ ॥ मट्टि । षष्टिमुहूर्तानां एतावति गमन क्षेत्रे ३१५०८९ नव मुहूर्तानां कियत् क्षेत्रमिति सम्पातक्रमेण षष्टिभिर्द्धते प्रथमपरिषी ३१५०८६ त्रिभिरपतितैः ३५५०८१३ गुण विश्वा १४५८८७ भक्त सति ४७२६३ शेषः ॐ चतुःस्पर्शाध्वा भवति । निषधाचलथापा (२३७६८ ६१८८४ शेतेन चक्षुःस्पर्शाध्वना न्यूनं यसस्प्रमाणमिवं पुरो गाथायां कथ्यमानं ॥ ३६६ ॥ इगियोस | एकविंशत्युत्तरषट्चत्वारिशतं साचिक १४६२१ मितरसाधिक, मध्यचापयोः शेष । परस्परहारेाधः उपरि गुणविश्वा दे। शेषिते एवमनेन सामिकमित्युच्यते । एतावत्रिषधस्योपर्यागत्य इमो दृश्यते प्रपोध्यामध्ये उत्कृष्टपुरुषः । निषधपाश्वंभुजः २०१६६ तेनागतक्षेत्रे १४६२१ न्यूनः प्रग्रे वक्ष्यमाणं भवति ॥ ३६० ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाच पापा : ३८६-३६१ रिस। निषषोपरि गन्तव्यं पञ्च सप्तपञ्चाशत् पच्च देशोना ५५७५ एतावन्मात्रमेव निवषस्योपरि गत्वा रषिः परतं याति ॥ ३६१ ॥ ३४ तीन गाथाओं द्वारा अभ्यन्तर वीथी में स्थित सूर्य के चक्षु इन्द्रिय के स्पर्श का मार्ग निकालने के लिये कहते हैं : : गाथार्थ :- प्रथम परिधि को ६० से भाजित करके प्राप्त वध को ६ से गुणित करने पर चक्षु के स्पर्शन का मार्ग अर्थात् चक्षु इन्द्रिय के विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र का प्रमाण होता है। निषषाचल पर्वत के धनुष का जो (१२३७६६६३६ ) प्रमाण है, उसको आधा करने पर जो ( ६१८८४) प्राप्त हो उसमें से (४७२६३३० ) को कम कर देने पर शेष जो कुछ अधिक १४३२१ योजन रहा, उतना ( १४६२१ यो० ) निषध पर्वत के ऊपर आकर सूर्य अयोध्यानगरी के मध्य में स्थित चकवर्ती के द्वारा देखा जाता है। इसको ( १४६२१ यो० ) निष्पत की पार्श्व भुजा में से कम कर देने पर जो अवशेष बचता है, वह निबधाचल के ऊपर जाते हुए ५५७५ योजन होता है, अतः निषधाचल के ऊपर ५५७५ योजन जाकर सूर्य अस्त होता है ।। ३८९, ३६०, ३६१ ॥ विदोषार्थ :- प्रथम (अभ्यन्तर ) परिधि का प्रमाण ३१५०८६ योजन है, अतः ६० मुहूर्त का मन क्षेत्र ३१५०८६ योजन है, तब मुहूतं का कितना गमन क्षेत्र होगा ? इस प्रकार वैराशिक करने पर 3५५ हुये । इन्हें ३ में अपवर्तित करने पर 5 अर्थात् ९४५ अर्थात् ४७२६३ योजन चक्षु स्पर्श अध्यान [ चक्षु इन्द्रिय के विषयभूत उत्कृष क्षेत्र का प्रमाण ] प्राप्त होता है । निषधाचपर्यंत का चाप १२३७६८६ योजन है। इसका अर्धभाग (१२३७६०÷२ ) = ६१४योजन हुआ। इसमें से चक्षुस्पर्श अध्वान घटा देने पर - (६१८८४-४७२६३ ) - १४६२१ योजन और कुछ अधिक अवशेष रहता है, वह कुछ अधिक कितना है ? चाप का अवशेष भाग योजन और अध्यान का अवशेष भाग योजन है । हे पर्थात् १४६२१९६० यो० शेष रहता है। प्रथम वीथी में भ्रमण करता हुआ सूर्य जब निषेध कुलाचल के उत्तर तट से १४६२१योजन ऊपर आता है तब अयोध्या नगरी के मध्य में स्थित महापुरुषों ( चक्रवर्ती ) के द्वारा देखा जाता है। इसको निषचाचल की पाश्र्व भुजा (२०१६६ ) में से घटा देने पर (२०१६६१४६२१ ) जो अवशेष रहता है, वह निषघाचल के ऊपर जाते हुए ५५७५ योजन होता है, मतः निधाचल के ऊपर ५५४५ योजन जाकर सूर्य अस्त होता है । अर्थात् प्रथम परिधि में भ्रमण करता हुआ सूर्य जब निषधाचल पर्वत के दक्षिण तट पर कुछ कम ५५७५ योजन जाता है तब अस्त हो जाता है । यथा [ चित्र असले पृष्ठ पर देखिये ] Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया।३६२ ज्योतिलोकाधिकार ४१ इदानीं सकलवापानका बार मामा जंबूचारधरूणो हरिवस्ससरो य णिसहवाणो य । इह बाणावपूण अभंतरवीहिवित्थारो ।। ३९२ ॥ जम्बूचारधरोन: हरिवर्षश च निषधबाणाश्च । यह बारणवृत्त पुनः अभ्यन्तरवीथीविस्तारः ।। ३६२ ।। जंबचार | अंतकरणं १६ गुण २ गुरिलयं ३२ प्राविविहीर्ष ३१ गुत्तरभजियं इति शलाकामानीय एतावच्छलाकानी १६० एतावति क्षेत्र १.... एसावरिषर्षशलाकाना ३१ नियमशलाकानां च ६३ free मिति सम्पाय गुरिंगते हरिवर्षमारण: 31980P निषषमाण: 32200 एसो हरिवर्षनिवषयारणो समानछेवोकृते ३० जम्बूचारधरा १८० न्यूनौ चेत् इह घरध्वामयने बाणो स्यात! 300 । १८० तयो साविष्कम्भः पुमः जम्बूसोपे १ ल. दोपचारक्षेत्र १८० विगुणोकस्य ३६० अपनीते अम्पन्तरधीयोविस्तार स्यात् ६९६४. अमु विष्कम्भं समच्छेगीकृश्य . १८२११०० मात्र 'इसु ३०१२८होणं विखंभे "1चरिणदिसुरणा १२२१२० हवे दू जीवकवी १९४५:५११८५६०० वारणाय ३१९३१३१६०० वहिणिवे ५१३१४०० तत्व जुदे पशुकवी होवो। ३५०९५४०३५०४००० सन्मूल ३७ स्वहारेण भवेत् ८३३७७, शेष हरिवर्षचाप स्यात् । मिषधाम सापत समच्छेवीकृते तस्मि १६६४० नव विष्कम्मे १८१10 'सु'२१00 होणं विवर्षभं १२.१० चउगुरिणविसुणा २५२५३२० हवे दु जीवको ३१ /१९५६०० बारणकवि १ गाथा ७६०। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ त्रिलोकसार पाषा: ३६२ ३१२६१३४१४०० छहिगुणिये १३५५५५८४०० तत्प जुदे घशुकदो होनि' ५५३०१११११४००० तन्मूल २३ एतस्मिन् स्वहारेण १६ भक्त १२३७६८ शेषे ई निषगिरिचापं स्यात् ॥ ३९२ ॥ प्रयोजन भूत चाप ( धनुष ) का प्रमाण प्राप्त करने के लिये, उसके बाण को प्राप्त करने का विधान कहते हैं : गाथार्थ :- जम्बूद्वीप के चार क्षेत्र से रहित जो हरिवर्ष पर्वत के बाण और निपधपर्वत के बाण है, वे यहाँ चक्षु स्पर्श का अध्वान क्षेत्र लाने में वाण होते हैं। इनका जो वृत्त विस्तार है, वह प्रथम वीथी का विस्तार होता है ॥ ३९२ ।। विशेषार्थ :- धनुषाकार क्षेत्र में जैसे धनुष की पोठ होती है, वैसा जो होता है, उसे धनुष या चाप कहते हैं। अनुष को चिला अर्थात डोरी का नाम जीवा है। धनुष के मध्य से जीवा के मध्य का भाग बाण कहलाता है। यहाँ जम्बूद्रीप की वेदी तथा हरियर्षक्षेत्र और निषधाचल के बीच का क्षेत्र धनुषाकार है, अत: हरिक्षेत्र व निषध पर्वत से लेकर जम्बूद्वीप की वेदी पर्यन्त के अन्तराल क्षेत्र को बारण कहते हैं, उस बाण का प्रमाण लाते हैं : १ भरतक्षेत्र को पालामा १ । ५ हरिक्षेत्र की शलाका १६ | रम्यकत्र की शलाका १६ २ हिमवान्पर्वत की , २ १. निषधाचल को ३२ |.. रुक्मो प. , , ८ ३ हैमवतक्षेत्र " ॥ ४ ॥ ७ विदेहक्षेत्र ॥ . ६४ | ११ण्यवत क्षे... ४ ४ महाहिमवन प... E | ५ नौलपर्वत - " ३२ | १२ शिखरी प० , २ | १३ ऐरावत " ! इस प्रकार फुल शलाफाओं का योग १६० है। इसमें भरतक्षेत्र से हरिवर्ष क्षेत्र पर्यन्त की पालामाओं का प्रमाण ३१ है इन्ही ३१ शलाकाओं का प्रमाण प्राप्त करने के लिये "अन्तषणं गुणगुणिय, आदि-विहीणं रूऊणुत्तर भजिय" इस सूत्रानुसार यहां (अन्तधरणं ) अन्तघन रिक्षेत्र की सोछह शलाकाएं हैं। तथा प्रत्येक शलाकाएं भरतक्षेत्र से आगे दूनी दूनी होती गई हैं, अतः गुणकार दो है, इसका गुणा करने से { १६४२)= ३२ हुए। इसमें से आदिधन ( भरतक्षेत्र की १ शलाका ) घटा देने पर ( ३२-१ =३१ अवशेष रहे। इन्हें ( रूऊणुत्तर भजिय ) एक कम गुणकार से भाजित करने पर ३१: (२-1)-३१ वालाकाएँ ही प्राप्त हुई । इसी प्रकार निषषाचल की शलाकाएं ६३ होंगी। जम्बूद्वीप का विस्तार १ लाख योजन का एवं इसकी कुल शलाकाएं १९० हैं, अतः जबकि १६० शलाकाओं का क्षेत्र १००००० योजन है, तब हरिवर्ष क्षेत्र की १ गाया ७६.। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६२ ज्योतिर्लोकाधिकार होगा ? इस प्रकार गशिक करने पर コロ १००० योजन प्राप्त होता है। अर्थात् ३१ और निषधाचल की ६३ शलाकाओं का कितना क्षेत्र हरिवर्ष क्षेत्र का बारण और निषधाचल का बारण वेद से हरिवर्ष और विषध के बीच इतना इतना अन्तराल है। यहाँ चक्षु अध्वान क्षेत्र लाने के लिये कहते हैं :- जम्बूद्वीप का चार क्षेत्र १८० योजन प्रमाण है, इसको १६ से समानछेद करने पर { *६° × है !योजन होता है। इसे पूर्व कथित हरिवर्ष एवं निषधाचल के बाण के प्रमाण में से घटा देने पर ३०००० २०=०० हरि क्षेत्र का बाण तथा (30000निषधाचल के बाण का प्रमप्राप्त हुआ। यह वृत्तविष्कम्भ अर्थात् गोलाई का क्षेत्र है। इसकी चौड़ाई का प्रमाण कहते हैं : यथा जम्बूद्वीप के वृत्तविष्कम्भ १००००० योजन में मे इस द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र के दोनों पाव भागों का प्रमाण घटा देने पर [ १०००००(१) १९९४विस्तार प्राप्त हो जाता है। इस अभ्यन्तर so = वीपी के प्रमाण को १६ से समच्छेद करने पर 10 योजन हृपा । כ ३४३ अब मह हरिवर्ष क्षेत्र के चाप का प्रमाण लाने के लिए कहते हैं : १८९२५६ "सुहीणं विवखंभं चउगुरिदिमुना हदे दु जीवकदी बाणकदि वहिगुणिदे, तत्थ जुदेप्रणुरुदी होदि" इस ७६० गायानुसार हरिवर्ष क्षेत्र के बाण के प्रमाण ( ०३८० ) को अभ्यन्त य बोधी के प्राण में में घटाने पर जो अवशेष रहे (१०) उसको चौगुणे द्वारा के प्रमाण ** ) से गुणित करने पर जीवा की कृति होती है । यथा :- १८१०. ३०००८००-१५०० ४१८० अवशेष | चौगुरखा चारा का प्रमाण (३०१५८०२३२० है। १९८४७८० X १२२०३२०११४५५१०० योजन जोवा की कृति अर्थात् जीवा के वर्ग का प्रमाण है । इस जीवा की कृति के वर्गमूल का जो प्रमाण है-वही जीवा का प्रमाण है। अर्थात् २०५ 30 2 x पह १३५४८१७ ७३४१४ योजन की जीवा है । धनुष ( चाप ) की कृति : हरिवर्ष क्षेत्र के बाण का प्रमाण १०६५८ योजन है। इसकी कृति (३०० x ६८० १९५४ योजन हुई । इसको छह में गुणित कर जीवा की कृति में जोड़ने से धनुष की कृति होती है यथा-- १९३४००X८४०० + १२४५६७०३८५६०० – २५०९६६५८४००० घोजन धनुष की कृति का प्रमाण । इसका वर्गमूल योजन हुआ। इसमें अपने ही भागहार (१६) का भाग देने पर ८३३७७ योजन हरि क्षेत्र के चापका प्रमाण होता है । = निषेध पर्वत के चाप का प्रमाण :अभ्यन्तर वीथी का प्रमाण १८९३० २५८० निषद्याचल के बाल का प्रमाण= Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाषा ३५३ १२.१५० x ६५०५.१२० से अवशेष भाग को गुणा करने से- ( १२ x २५५१२० }= 3 १७४४HTP:०० योजन जीवा की कृति अर्थात् जोबा के वर्ग का प्रमाण है। इस निषनाचल के जीवा को कृति के वर्गमूल का जो प्रमाण है, वही जीवा का प्रमाण है। निपधाचल की जीवा का प्रमाण १८.५७ = ६३७७३१४ योजन है। निषधाचल के चाप को कृति :-निषधाचल के बाण का प्रमाण १२३५५.० योजन है। इसकी कृति ( १२:५५० x १२:५८० }= ७९२५५११५.६४०० योजन हुई। इसको ६ से गुणित कर जीवा की कृति में जोड़ने से धनुष की कृति होती है। यथा :- ३१२६.११४५६४००४=११५.188१८४०० इसमें जीवा की कृति जोड़ने पर ( २३१५११७८ 600 + 3१७४४१४६८५१०० }="५.३00 ४११८४००० हुआ, इसका वर्गमूल २७५६° है। इसको अपने ही भागहार ( १९) से भाग देने पर १२३७६५१६ योजन निपटानल के चाप का प्रमाण होता है। अथैवमानीतयोश्चापयोः किं कर्तव्यमित्यत्राह हरिगिरिधणुसेसद्धं पास जो सत्तसगतितेसीदी । हरिवस्से णिसहधण अहस्सगतीसारं च ।। ३९३ ।। हरिगिरिधनुः शेपा पाश्वभुज: सप्तसप्तत्रित्र्यशीतिः । हरिवर्षे निषधधनुः मष्टषट् सप्तत्रिशद्वादश च ॥ ३९३ ।। हरि। हरिक्षेत्रधनुः ८३३७७,६ निषगिरिधनुषि १२३७६८१६ शेषिते ४.३६१: शे. सति सवाशावेक १ पपनीया| कृत्य २०१६५ शेषं चार्षीकृरव , अस्मिन्नएमीताध समस्यीकल्य र अन्योन्यं संयोज्य ६ तबप्पपवत्यं । इद' किञ्चिन्यूमं अगरणयिस्वा एकयोजनं कृत्वा हरिगिरिषनुश्शेषाः २०१५ संयोजिते २०१६६ सति मिषभस्य पार्वभुजो भवति । इवानी हरिगिरिधनुषोः सिबाभुमारयति-सप्तसत त्रिपोलियोजनानि ६३३७७ हरिवषक्षेत्रे धनुः निषधपर्वते धनुः मषट्सप्तनिशद्वावश च गेजनामि १२३७६८ ॥ ३६३ ॥ इस प्रकार प्राप्त किये हुए हरिक्षेत्र और निषधाचल के चाप फा क्या करना है ? उसे कहते हैं : १ पत्र (२०)। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ३६४ ज्योतिलोकाधिकार ३४१ भाषा :-निषघाचल के चाप (धनुष ) का प्रमाण १२३७६८६६ योजन है. इसमें से हरिक्षेत्र के चाप ( ८३३०७.१ योजन ) को घटा कर आधा करने पर जो अवशेष रहता है वह निषध पर्वत की पाश्वं भुजा का प्रमाण होता है ।। ३९३ ॥ विशेषार्ष:-दक्षिण तट से उत्तर तट पर्यन्त चाप का जो प्रमाण है. उसे पाश्वभुजा कहते हैं । निषघाचल के चाप का प्रमाण-हरिवर्ष क्षेत्र के चाप का प्रमाण+२= निषघाचल की पाश्वं भुजा का प्रमाण होता है। निषधाचल के चाप का प्रमाण १२६७६८६ योजन और हरिक्षेत्र के पाप का प्रमाण ८३३७७. योजन है। १२३४६८६-८३३७७.९ =४०३६१.८ योजन अवशेष रहे। इनमें से एक अङ्क घटा कर शेष को आषा करने पर ( ४.३६१-१)=४०३९०७ रहा। इसे आधा करने पर ४०३९०+२=२०१६५ हुए। जो १ घटा लिया था उसका बाधा और का आधा इन दोनों को जोसकर दो से अपवर्तन कर देने पर (३+१४२ = ३६ या )= प्राप्त हुआ। इसे किश्चित् न्यून न मान कर १ योजन ही मान कर क्षेत्र और पर्वत के चाप को घटा कर अवशेष के अधंभाग २०१९५ में जोड़ देने से (२०१६५+१)=२.१९६ योजन निषधपर्वत की पार्श्व भुजा होती है। थब हरिक्षेत्र और निषघाचल के धनुष ( चाप ) के सिद्ध हए अङ्कों को कहते हैं :-हरिव क्षेत्र के धनुष का प्रमाण ८३३७७ योजन एवं निषधपर्वत के चाप का प्रमाण १२३७६८ योजन प्रमाण है। अथोक्तयोर्धनुषोः गेषाङ्क पाश्वभुजाङ्क चोच्चारयति माहवचंदुद्धरिया णवयकला जयपदप्पमाणगुणा | पास जो चोद्दसकदि वीससहस्सं च देसूणा ।। ३९४ ॥ माधवचन्द्रोद्ध ता नवकाला नमपदप्रमाणगुणाः । पार्श्वभुजः चतुदंशकृतिः विशसहस्र च देशोनानि ।। ३६४ ॥ माह | माधवप्रेणो १६ पता मवाला : एताः हरिक्षेत्रस्य चापशेषाः एता एव । मयत्यानप्रमाण २ गुणिताः ३६ निषषमापस्यांशाः निषषस्य पार्षभुनः पुनः चतुर्दशकतिविशति सहस्रयोजनानि २०१६६ देशोनानि ॥ ३९ ॥ उपयुक्त दोनों धनुषों के शेषांक और पाश्र्वभुजा के अंक कहते हैं Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा। ३९५ गाथार्ष:-(माधव ) ६, ( चन्द्र ) १ अर्यात् १६ मे उद्धृत ( नवकला ) ६ भाग अर्थात् । योजन हरिक्षेत्र चाप के शेषांक हैं । ( नयपद) से प्रमाण २ का गुणा अर्थात् १५ योजन निषघाचल के शेषांक हैं तथा कुछ कम चौदह की कृति ( १९६ ) से अधिक बोस हजार योजन अर्थात् कुछ कम २०१९६ योजन निषघाचल को पाश्वभुजा का प्रमाण है ।। ३६४ ॥ विशेषार्थ:-माधव अर्थात नारायण हे होते हैं और दृश्यमान चन्द्र एक है, अता १६ हुए। इनसे प्राप्त हुई नवककला अर्थात एक योजन के १९ भागों में से ६ भाग, यह योजन हरि क्षेत्र के चाप का शेषांक है ( हरिक्षेत्र के चाप का कुल प्रमाण ८३३७७, योजन हुआ) इन 5 में ( नयपद) मथ ९ हैं अत: के स्थान को प्रमाण अर्थात २(प्रमाण दो प्रकार का होता है । ) से गुणा करने पर (२४१-१६ योजन निषधाचल के चाप का शेषांक है । ( निषधाचल के चाप का कुल प्रमाण १२३७६८६ योजन हुआ ) तथा निषधाचल की पाश्वं भुजा का प्रमाण कुछ कम चौदह की कृति ( १६६ ) से सहित बीस हजार अर्थात् कुछ कम २०१९६ योजन है। अथायनविभागमकृत्वा सामान्येन चारक्षेत्रे उदयप्रमाणप्रतिपादनाथमिदमाह दिणगदिमाण उदयो ते णिसद्दे णीलगे य तेसङ्की । हरिरम्मगेसु दो दो सूरे णवदससयं लवणे ॥ ३९५ ॥ दिनगतिमान उदयः ते निषधे नोलके च त्रिषष्टिः । हरिरम्यवयोः द्वौ दो सूर्ये नवदशशतं लवणे ॥ ३६५ ।। विणादि । विमतिक्षेत्रमिवं १४१ एतावति क्षेत्र योग सूपस्योक्यो भवेव तका एसाबप्ति ५१० क्षेत्र कियरत उदया ति सम्पास्य मत समोरयाः १८३ पर्यन्ते शेषरविधिम्बावाटम्ये मो ६ एक उत्या मिलिस्वा चारक्षेत्र धतुरवारस्युत्तरशतमुदया। कुतः, प्रतियोध्येकैकोवयसम्भवात । ते विनगरपुल्या निषधे १३ नीले च ६३ प्रत्येक विषष्टिः हरिव २ रम्पकवर्षयोः २ो ठौ । सारणसमुद्रे एकान्नविशं शतं ११६ ॥३६५॥ ___ अयन में विभाग न करते हुए सामान्य से चारक्षेत्र में उदम प्रमाण का प्रतिसदन करने के लिए यह गाया सूत्र कहते हैं : नापा:-सूर्य के दिनगतिमान अर्थात उदय स्थान निषध और नील पर्वत पर ६३ हैं. हरि और रम्या क्षेत्रों में दो दो हैं, तथा लवण समुद्र में ११६ हैं ॥ ३५॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया। ३६ ज्योतिर्लोकाधिकार विशेषार्थ :--सूर्य का सम्पूर्ण गमन क्षेत्र ५१. योजन । २०४०.०० मील) है। इसमें सूर्य के प्रतिदिन के गमन क्षेत्र का प्रमाण २१६ या योजन ( १९९४ मोल ) है, अतः ११ योजन गतिमान क्षेत्र में यदि सूर्य का एक उदय है, तो ५१० योजन क्षेत्र में कितने उदय होंगे । इस प्रकार राशिक करने पर ५ '-१८३ उदय स्थान प्राप्त हए तथा चारक्षेत्र के अन्त सक शेष क्षेत्र में सूर्य विम्ब के योजन द्वारा क्षेत्र व उE: दो में मिलाकर सम्पूर्ण चारक्षेत्र में कुल १८४ उदय स्थान प्राप्त हुए । एक चारक्षेत्र में सूर्य की वीथियां भी १८४ ही हैं, यता यह सिद्ध हुआ फि एक वीथो में एक ही उदय स्थान होता है अतः निषधपर्वत पर ६३ उदय स्थान है । नील पर्वत पर भी ६३ है । हरिक्षेत्र और रम्यक् क्षेत्रों में दो दा हैं। तथा लपणसमुद्र में ११९ उदय स्थान है। समस चारक्षेत्र (५१. बोजन ) में सूर्य का उदय १४ बार होता है । भरतक्षेत्र की अपेक्षा निषधाचल पर ६३, हरिव क्षेत्र में दो और लवप समुद्र में ११६ उदय स्थान होते हैं। ( ६३+२+ ११९=१८४ उदय स्थान ) अभ्यन्तर (प्रथम ) वीथो मे ६३ वी वीथी तक स्थित रहने वाला सूयं निषधाचल के ऊपर उदय होता है। जो भरतक्षेत्र के निवासियों द्वारा दृश्यमान है। ६४ वी और ६५ वी वीथी में रहने वाला सूर्य हरिक्षेत्र में उदय होता है, तथा ६६ वीं बोधी से अन्तिम वीथी पर्यन्त रहने वाला सयं लवण समुद्र के ऊपर उदित होता है। इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र की अपेक्षा ६३ उदय स्थान नील पवंत पर, दो (२) रम्यक क्षेत्र में और ११९ उदय स्थान लवण समुद्र पर हैं। अघ दक्षिणायने चारक्षेत्रे द्वीपवेदिकोदधिविभागेनोदयप्रमाणप्ररूपमा राशि कोत्पत्तिमाह दोउवहिचारखिसे वेदीए दिणगदी हिदे उदया । दीवे चउ चंदस्त य लवणसमुहम्हि दम उदया ।।३९६ ।। द्वोपोदविचारक्षेत्र वेद्यां दिनगतिहिते उदयाः। वीपे चतुः चन्द्रस्य च लवण समुद्रं देश उदयाः ।। ३६६ ।। पीउहि । एतापति विनातिक्षेत्रे यक शायो १ लम्यते तदा एतापति धेविका ४ रहिसद्वीपचारक्षेत्रे १७६ कियन्त उदया इति सम्पास्य भक्त लन्धोदपाः ६३ एषु प्रथमपोवयस्य प्राक्तनायमसम्बन्धिस्वेनापहरणात बाधिरेवोक्ष्याः ६२ शेष - पत्र विदिन गतिशलाका, होपचरमान्तरपन्ते समासः भवशिष्टा उसपोशा: पविशतिः सप्सतिशतभागा में एकस्योदयस्य Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाषा : ३६६ १ यद्येतावन क्षेत्र मागच्छति तवा एतावबुद्धयांशानां २० कियक्षेत्रमित्यमेन वैराशिकेन फलेच्छयोगुणकारासजातक्षेत्रयोजनांशाः षड्विशतिरेकषष्टिभागा: एले द्वीपसम्बन्धिनः पौरस्त्यपथगतवेदिकार्या पुनरेतावति क्षेत्र यक उदयो १ भवेत्तवा एतावति ४ वेविकाक्षेत्र कियन्त उदपाः स्युः इति सम्पास्य हारस्म हारेण ५६ एकषष्टथा गुरगयित्वा ३४ पस्मिन्सप्ततिशतेन १७. हारेण भक्त लब्ध अवयः एकः, शेषोक्यांशाः चतुःसप्ततिसप्ततिशतभागाः । एतेषु भागेषु५४. पूर्वोक्तग्यायेन क्षेत्रीकृतेषु चतुःसप्ततिरेकषष्टि भागा योजनस्य । एतेषु द्वाविंशतिमेकष्टिभागान १२ गृहीत्वा द्वीपघरमपशंशेषु प्रापानोतेषु मेलयेह । मिलितेपु तत्त्यव्यास: अपचरवारिशदेवष्टि भागप्रमाणः सम्पर्यो भवति । एवं कृते अभ्यन्तरपयावारम्प चतुःषहितमपयव्याप्त: तोपगतः पविशस्या एकपल्टि भाग: ३ वेदिका विशास्टिसाइर सिद्धो भवति । द्वीपवेविका सन्धो सूर्यस्य चतुःषष्टितमी बोयो भवतीति तात्पर्य येदितव्यम् । प्रतः पुरस्तात् वेविकायां योजनद्वय २ मन्तरमतिसम्म सूर्यस्य एकः पन्थाः । ततः पुरस्ताव द्वापनाशदेकषष्टि मागाः १३ प्रवशिष्टा अन्तरे देयाः । एवं द्वोपवेविकासन्धिपण्यासगतद्वाविशत्येकषष्टि भागेभ्यः १३ प्रारभ्य चतुर्योधनप्रमाणं वेविकाक्षेत्रम् समाप्तम् ॥ प्रय लवरणसमु एतावति क्षेत्र १ यद्यक सवपस्तदा बाह्मपथमितसमुबचारक्षेत्र ३३० एतावति कियन्त उवया इति सम्पास्यापतिते लब्धोवया अष्टावशशतं ११८ शेषोक्यांशाः सप्ततिशतभागा: म एतेषु पूर्ववत क्षेत्रीकृतेषु योजनांशाः सप्ततिरेकषष्टि भागाः एतान वेविकासम्बन्धिपून्तिरगसेषु द्विपञ्चाशदेकषष्टि भागेषु ३ प्रक्षेप्य एकषष्टया विभक्त लब्धं योजना सम्पूर्णमन्तरप्रमाणं स्यात् । प्रतः परं रविबिम्बसहितान्तरप्रमाणदिनगतिशलाका: घरमान्तरपर्यन्ताः अष्टादशोत्तरशतप्रमिताः ११८ सुगमाः तत्रोक्याच तावन्त एव ११८ ततः पुरस्तात् बाह्यापयव्यासे एक उबयः इति सर्व मिलित्वा लवरणसमुझे एकाम्नविशं शतमुख्याः ११६ एवं दक्षिणायने समस्तोक्याः पशील्युसरशतं १८३ । प्रयोत्तरायणे लवणसमुढे रविविम्बाधिकचारक्षेत्रमिदं ३३.१६ समच्छेदीकृत्य युक्त एवं ११७८ एतावरक्षेत्रस्य ? यो का १ दिमगतिशलाका तवा एलावले त्रस्य २०१८ कियन्यो विनगतिशलाकाः इति सम्पात्य भक्त ११८ शेषे ४ पत्र रूपोनविनगतिशलाकामागोक्ष्याः ११७ । कुता, बाहापषोक्यस्य दक्षिणायनसम्वनिषत्वेनाग्र हरणास् । शेषांशेषु क्षेत्रीकृतेपु १ पष्टचत्वारिशवेकषष्टिभागान ६ पौरस्यपथम्यासे वधात् । तत्र एक उपयः एवं समस्तलवरणसमुद्र उत्तरायणे उययाः अष्टावकोत्तरं शत' प्रशिष्टाः सप्सतिरेकषष्टिभागाः पौरस्त्ये अन्तरे देया: इति समुद्रचारक्षेत्र समाप्तम् । वेविकायां प्रागामीत एष एक उपयः चतुः सप्ततिरेकषष्टिभागा: ए तेषु भागेल द्वापञ्चाशदेकवष्टिभागाः ५३ प्रकृतान्तरे देयाः एवं समुद्रवेदिकाशेर्योमनद्वय २ प्रमितं अन्तरं सम्पूर्ण भवति । प्रतः एकत्यो दिनगताधेक उदयः प्रवशिष्टाद्वाविंशतिरेकषष्टिमागाः १३ पतन पषम्यासे देपाः एवं चतुर्योजनप्रमितं वेविकाक्षे त्रम् समाप्तम् । प्रपवेविकावजितद्वीपचारक्षेत्र १७६ मभ्यन्तरपथभ्यास न्यूने 9 एतावरक्षेत्रस्य ११० यये का विनगतशलाका १ तदा Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३६६ ज्योतिलोकाधिकार एतावत् अस्य कियन्त्यो दिनगतिशलाका इति सम्पास्य भक्त ६२ शेषाः विगत शलाका शेषांशेषु पूर्ववत्क्ष श्रोतेषु विशतिरेषष्टिभागाः द्वीप विकासन्या सेवेपाः एवं कृते तत्पव्यासः सम्पूर्णो भवति । शेषांशेषु एकषष्टया भक्षु लभ्यं योजनाद्वयं पुरस्तावनारं भवति । ततः परं दिषष्टिप्रमिला दिनगतिशलाका: उदयाश्च तावन्त एव । प्रभ्यन्तरपथे एक उदयः । एवं वेविका असे ठोपचारे सन्ध्युदयेन सह चतुःषष्टघुवयाः । एवं मिलित्वा उत्तरायणे उवयाः यशोत्सरं गर्त १८३ सूर्यस्य ज्ञातव्य ं चन्द्रस्याध्ययनविभागमकृत्वा सामान्येन द्वोपचारक्षेत्र १८० पञ्चोदयाः समुवचारक्षेत्रे ३३०१८ शोदयाः समस्तं मिलित्वा पञ्चवशोवया: १५ । प्रय दक्षिणायते पभ्यासविहीणे इत्यादिना श्रानीते एतावति चन्द्रस्य दिनमतिक्षेत्र यद्येक १ उदयस्तar एतावति द्वीपचारक्ष ेत्र ८० कियन्त उवद्या इति सम्पात्य भक्त लग्योदयादचत्वारः ४ दोषे एतस्मिन्नैकोदधस्य एतानि क्षेत्र सति एतावदुवयांशस्य पेश कियत्क्षत्रमिति सम्पास्य तिर्यगवा' स्मित् चद्रव्यासप्रमाणं सप्तमिः समच्छेवीकृतं गृहीत्वा द्वीपवरमान्तरस्य पुरस्तात्तत्रयपयोदयस्य उत्तरायणसम्बन्धित्वेनाप्रहरणभ्य द्वीपे परवार उदयाः शेषमिद' '' प्रमिन्प्रकृतहारेण भक्के ३३ शेष एवं हवं पुरस्तादन्तरे वेयं प्रय समुद्र पार त्रमिव ३३० एतावति क्षेत्रे ५ यद्येक उजयस्तथा एतावति क्षेत्रे एकषट्टापवते सप्तमितिवाभमते लच्योदयाः नव क्षेत्रीकृश्य ३७ प्रस्मात् चन्द्रबिम्बप्रमाणे १३ सप्तभिः समच्छेवी कृत्य एवं सति वससमुद्र खन्द्रस्य वशोदयाः शेषं देखें स्वहारेण भक्त्वा यो० २ दोष पञ्चमेऽन्तरे द्वीपांश यो० ३३ शेषे ३३ वेयं । एवमुभयशिमेलनात पो० ३५३३४ सम्पूर्ण भवति । एवं चन्द्रस्य दक्षिणायने होपोद गोमिलित्वा चतुर्दशोदयाः । प्रयोतराव समुद्रचारक्षेत्र ३३०३६ प्राप्रक्रियया श्रातीता उदयाः नव, शेषोदपांशाः पूर्ववत् क्षेत्रीकृताः FI स्मान्द्रविम्प्रमाणं सप्तभिः समच्छेदकृतं गृहोत्या बाह्यपथान्तरादारम्य नवमान्तरस्य पौरस्त्ये पयध्यासे वेयं तस्मिन्नेक जवयः इति समुद्रे दशसूवयेपु बाह्यपथोवयस्य दक्षिणायनसम्बन्धित्वेनाप्रहरण भयोवयाः शेषं भक्त्वा यो २४३६ इव वशमे रे वेयं । एवं कृते समुद्रचारक्षेत्रं समाप्तं । प्रयद्वोपचारक्षेत्रे उडयाः ४ शेषं पूर्ववत् क्षत्रीकृत्य मात्० ३३ एतस्समच्छेवीकृत्य युक्त ४३४ गृहीत्वा दशमे घन्तरे देयं । इत्थं वयममम्सरं परिपूर्ण इवमभ्यन्तरपयव्यासे वेयं श्रमिक उवयः एवं समच्छेवीकृत्य मिलिते एवं किवन्त उदया: स्युरिति सम्पाश्य शेषमि १६६५६७ पूर्ववत् गृहीत्वा बाह्यपये देयं । प्रा ममग्रं शेषे भवति । प्रवशिष्टं ३३३ उपधस्थ सप्तभिश्वचर्य द्वीपे चन्द्रश्य उत्तरायणे पञ्चोदयाः । अत्र सूर्यचन्द्रमसोरतरायणे उदयविभागः सूत्रकारकोर्डाव दक्षिणायनोपमार्गेणाराभिरम्यूहा कथितः ॥ ३६६ ॥ ३५६ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा ३६६ दक्षिणायन में द्वीप समुद्र सम्बन्धी चारक्षेत्र और वेदिका के विभाग करके उदयप्रमाण का प्ररूपण करने के लिए त्रैराशिक को उत्पत्ति कहते हैं ३५. गाया :- द्वीपसमुद्रसम्बन्धी चारक्षेत्र के प्रमाण में और वेदोके प्रमाण में दिनगति मान के प्रमाण का भाग देने पर सूर्य के उदय स्थानों का प्रमाण प्राप्त होता है । चद्रमा के द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र के उदय स्थान ४ और लवण समुद्र के १० अर्थात् कुल १४ ( उदय स्थान ) हैं ।। ३९६ ॥ विशेषार्थ :- सूर्य के प्रथम वोधी में स्थित होने से दक्षिणायन का ओर अन्तिम वीथी में स्थित होने से उत्तरायण का प्रारम्भ होता है। यहाँ दक्षिणायन सूर्य के उदय स्थानों का प्रमाण दर्शाया जाता है । चारक्षेत्र के व्यास में तथा वीथियों में सूर्य के जितने जितने उदय स्थान है, उन्हें कहते हैं। जम्बुद्वीप में सूर्य के चारक्षेत्र का प्रमाण १५० योजन है। जम्बूद्वीप की वेदी का व्यास ४] योजन है, अतः १८०४ १७६ योजन जम्बूदीप के चार क्षेत्र का प्रमाण रहा । चार योजन विस्तार वाली वेदिका के ऊपर भी सूर्य का चारक्षेत्र है । लवण समुद्र के चारक्षेत्र का प्रमाण ३३० योजन है । सूर्य के प्रतिदिन का गमनक्षेत्र २१ योजन है। उपर्युक्त चारक्षेत्र के प्रमाणों में दिनगति के प्रमाण का भाग देने से उदयं स्थानों की प्राप्ति होती है जैसे - जबकि योजन दिगति में एक उदय स्थान प्राप्त होता है, तब वैदिका के प्रमाण से रहित जम्बूदीप के चारक्षेत्र में कितने उदय स्थान प्राप्त होंगे ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर ११७३६३ उदय स्थान प्राप्त हुए और नंदा शेष रहे। इनमें से प्रथम वीथी का प्रथम उदय स्थान उत्तरायण सम्बन्धी है, अतः ६३-१६२१ उदय स्थान हुए प्रथम वीथी से द्वीप के सम्बन्धी अन्तिम सूर्य से सूर्य के अन्तराल क्षेत्र पर्यन्त ६३ उदय स्थान समाप्त हो जाते है । अवशिष्ट उदय अंश हैं, अतः जबकि १ उदय स्थान का योजन क्षेत्र है, तब उदय अंशों का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर योजन क्षेत्र प्राप्त हुआ ये द्वीप सम्बन्धी उदय मंत्र सूयं बिम्ब द्वारा रोके हुए अगले क्षेत्र में देना चाहिये। जबकि योजन क्षेत्र में एक उदय स्थान प्राप्त होता है, तब वेदिका के चार योजनों में कितने उदय स्थान प्राप्त होंगे ? इस प्रकार राशिक करने पर ६४ = J = उदय श्रंश शेष बचे । पूर्वोक्त न्यायानुसार जयक उदय अंशों का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार LOOXUY = योजन क्षेत्र में से योजन क्षेत्र लेकर उपयुक्त दे 1XT9 योजन क्षेत्र में मिला देने पर (१+ + ३३ ) ६ योजन क्षेत्र हुआ । अर्थात् सूपं विम्ब के द्वारा रुद्ध क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त हुआ। इस प्रकार अभ्यन्तर वीथों की ६४ वीं वीथी में स्थित सूर्य बिम्ब का व्यास अर्थात् एक उदय स्थान प्राप्त हुआ और १ उपय स्थान का योजन क्षेत्र है, तब योजन क्षेत्र प्राप्त हुआ । इस योजन क्षेत्र तो द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र में से अवशेष बचा था और योजन क्षेत्र वेदिका सम्बन्धी चार त्र के अवशेष अंश में से ग्रहण करयोजन सिद्ध हुआ। इससे यह ज्ञात होता है कि Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ ज्योतिर्लोकाधिकार गाथा : ३९६ सूर्य की ६४ वीं बीधी द्वीप और वेदिका को सन्धि में है। इसके आगे दो योजन का अन्तराल है। इस अन्तराल के आयोजन क्षेत्र सूर्य के द्वारा रुद्ध है । अर्थात् अन्तराल के बाद सूर्य का एक मार्ग योजन का है। इसके आगे अवशेष रहे हैं में से भाग को आगे के दो योजन अन्तराल में दे देना चाहिये। इस प्रकार द्वीप और वैदिका की सन्धि में जो सूर्य है, उसके व्यास को प्राप्त जो ३३ योजन प्रमाण क्षेत्र है, उसमे लगाकर वेदिका का चार योजन प्रमाण क्ष ेत्र समाप्त हुआ । २०१५० १७% १°=*६३° =११ 700x1 ७०५७० योजन क्ष ेत्र में १ उदय स्थान है, तब बिम्ब रहित लवण समुद्र कितने उदय स्थान होंगे ? इस प्रकार वैराशिक करने पर अर्थात् लवण समुद्र में ११८ उदय स्थान प्राप्त हुए और योजन उदय अंश शेष रहे। जबकि १ उदय स्थान का योजन क्षेत्र है, तब उदय अंशों का कितना क्षेत्र प्राप्त होगा ? इस प्रकार रानिक करने पर योजन तंत्र प्राप्त हुआ। इस योजन क्षेत्र को वेदिका सम्बन्धी अन्तराल में ऊपर दिया हुआ का अवशिष्ट योजन क्ष ेत्र मिला देने पर + अर्थात् २ योजन प्रमाण अन्तराल सम्पूर्ण हो जाता है । इस अन्तराल से जागे अन्तिम अन्तराल पर्यन्त क्षेत्र में रविविम्ब सहित बस्तर प्रमाण रूप दिन गति शलाका ११८ हैं, जिनका विवरण सुगम है। वहीं उदय स्थान भी ११८ है, इससे मागे बाह्य वीथी में स्थित सूर्य बिम्ब के व्यास में एक उदय स्थान होता है। इस प्रकार लवण समुद्र में सब मिलाकर ११८+१=११९ उदय स्थान हैं। इस प्रकार दक्षिणायन में सूर्य के कुल ६२+२+११९-१०३ उदय स्थान होते हैं । लवण समुद्र में जबकि के चार क्षेत्र ३३० योजन में विशेष ज्ञातव्य :- पथ व्यास - वीथी में स्थित सूर्यबिम्ब के क्षेत्र प्रमाण का नाम पथ व्यास है, जिसका प्रमाण योजन है । अन्तर-चार क्षेत्र में एक वोथी से दूसरी वीथी के बीच के क्ष ेत्र का नाम अन्तर है, जिसका प्रमाण दो योजन है । १८०-४ ( यो० की वेदिका ) - १७६ योजन वैदिका रहित द्वीप सम्बन्धी चार क्षेत्र में सर्व प्रथम अभ्यन्तर पथव्यास है, इसके आगे २ योजन का प्रथम अन्तराल है । इसके लागे पुनः योजन प्रमाण पत्रव्यास, पुन अन्तराल इस प्रकार क्रम से बढ़ते हुए जम्बुद्वीप के ६३ वें पथव्यास के बाद ६३ वो अन्तराल प्राप्त होता है, और उसके आगे योजन क्षेत्र शेष बच जाता है। इसमें ४ योजन प्रमाण वाली वेदिका सम्बन्धी चार क्ष ेत्र में से योजन निकाल कर जोड़ देने से (३६+३ = योजन प्रमाग वाला ६४ वाँ पथव्यास प्राप्त हो जाता है । ६४ वीं वीथी द्वीप और वेदिका की संधि में है । ६४ वें पय व्यास के आगे ६४ व अन्तराल और इसके आगे ६५ वाँ पथ व्यास है । इसके प्रागे वेदिका सम्बन्धी चार क्षेत्र के प्रमाण में से वे योजन क्षत्र अवशिष्ट रह जाता है । लवण समुद्र सम्बन्धी पय व्यास ( सयं बिम्ब ) के प्रमाण से रहित चारक्ष ेत्र के ३३० योजन Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ निलोकसार पाया । ३६६ में से १२ योजन निकाल कर, वेदिका सम्बन्धी चारक्षेत्र के अवशिष्ट रहे ५३ योजन में नोड़ देने पर 1 +५२-३१)२ योजन प्रमाण वाला ६५ वा अन्तराल प्राप्त हो जाता है। इसके मागे पथ ध्यास फिर अन्तराल, पथभ्यास, अन्तराल इस प्रकार क्रम से बढ़ते हुए समुद्र सम्बन्धी चार मेत्र में १८४ वो पथ व्यास प्राप्त होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण पथ व्यास अर्थात् वीथियो १५४ हैं। एक एक बोथी में सूर्य के बिजाई देने का मानना है. मस: कोथिम में १८४ ही उदय हैं। उत्तरायण की व्यवस्था का प्रतिपादन करते हैं : लवण समुद्र में रविबिम्ब के प्रमाण सहित चारक्षेत्र का प्रमाण ३३०४६ योजन है। इसका समच्छेद करने पर योजन हमा । जबकि १५ योजन क्षेत्र की एक दिनगतिशलाका होती है; तब २०१० योजन क्षेत्र की कितनी दिनगति शलाकाएं होंगी। इस प्रकार पैराशिक करने पर = 38 = ११८१ दिनलिगलाकाएं हुई। दिनगति शलाकाओं का प्रमाण ११८ प्राप्त हुआ, इनमें एक कम विनगति शलाकाओं का प्रमाण ही उदय स्थानों का प्रमाण है। ११-१-११७ उदय स्थान है। बाय वीथी का उदय दक्षिणायन सम्बन्धी है, इसलिये एक घटा दिया गया है । अवशेष ३१० योजन की क्रिया पूर्ववत है। अर्थात् जबकि एक उदय स्थान कायोजन क्षेत्र है, उदय अंशों का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार पैराशिक करने पर 1 = योजन मात्र प्राप्त हमा। इसमें से १० योजन निकाल कर अगले पथ व्यास में देने से एक उदय स्थान हो जाता है। उत्तरायण में लवणसमुद्र के समस्त उदय स्थान ११७ में यह एक और मिला देने पर लवण समुद्र के उदय स्थान कुल ११८ प्राप्त हो जाते हैं। अवशिष्ट रहे (11-11) योजन मंत्र को अगले अन्तर के प्रमाण में दे देने पर समुद्र सम्बन्धी चार क्षेत्र समाप्त हो जाता है, तथा वेदिका के चार योजन क्षेत्र का भी पूर्वोक्त प्रकार राशिक करने पर एक उदय स्थान प्राप्त होता है और योजन शेष रहते हैं। इस योजन में से ५ योजन निकाल कर उपयुक्त हुए पोजनों में मिला देने पर (P+३)-३२ अर्थात दो योजन प्रमाण वाला अन्तर सम्पूर्ण हो जाता है। इस अन्तर के आगे एक दिनगति क्षेत्र में एक उदय होता है । तथा अवशेष रहे जो ३३ योजन उन्हें अगले पथ व्यास में देना चाहिये। इस प्रकार चार योजन प्रमाण वेदिकाक्षत्र भी समाप्त इमा। वैदिका के ( ४ योजन ) प्रमाण से रहित द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र का प्रमाण १७६ योजन है, इसमें से अभ्यन्तर पच व्याप्त योजन घटा देने पर ('--04:४८ )=te भाग शेष रहा । जबकि योजन क्षेत्र की एक दिनगति पालाका होती है, तब पोजन क्षेत्र Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया । ३३६ ज्योतिलोकाधिकार ३५३ 19x1000=1016) PERS की कितनी शलाकाएं होंगी। इस प्रकार त्रैराशिक करने पर ( प्राप्त हुए। इनमें ६२ दिनगति शलाकाएं हैं, छातः ६९ ही उदय स्थान हैं। अवशेष २४६ उदय ग्रंथों का पूर्व क्षेत्र निकालने पर योजन क्षेत्र प्राप्त होगा। इसमें से ६ योजन क्षेत्र निकाल कब द्वीप और वैदिका की संधि में जो पथ व्यास है, उसे देकर उस पथ व्यास को पूर्ण करना । ( ¥ – H ) = '' अर्थात् २ योजन अवशेष रहे, इन्हें सन्धि पथ व्यास के आगे अन्तराल में देना । बासठ (६२) दिनति शलाका के ६२ उदय हैं, और आगे अभ्यन्तर पथ व्यास में एक एक उदय है, इस प्रकार वेदिका रहित द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र में सन्धि उदय सहित ६४ उदय हैं । विशेष :-- लवण समुद्र सम्बन्धी चारक्षेत्र में प्रथम पथव्यास है, उसके आगे अन्तर है, उसके मागे पुनः पथ व्यास, पुनः अन्तराल इसी क्रम से जाते हुए ११८ वे अन्तराल के आगे ११६ व पथ यस है, औरयोजन क्षेत्र अवशेष रहता है वेदिका सम्बन्धी चार क्षेत्र में से ३ योजन क्ष ेत्र लेकर इसमें मिला देने पर वे + ) समुद्र और वेदिका की सन्धि में ११२ वाँ अन्तराल प्राप्त हो जाता है। इसके आगे १२० व पथ व्यास और उसके भी आगे १२० व अन्तराल है, तथा इसके आयोजन क्षेत्र अवशेष रहता है। द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र में से ३ योजन क्षेत्र ग्रहण कर योजन में मिला देने पर (१२१ पथ व्यास प्राप्त हो जाता है। इसके आगे १२१ वमन्तराल है। इसी प्रकार क्रम से जाते हुए अन्त में १८३ वें अन्तराल के आगे १८४३ पथ व्यास है । इन १८४ पथव्यास प्रमाण १८४ उदय स्थानों में से एक उदम स्थान जो कि बाह्य वीथी का है, जिसे दक्षिणायन में गिना गया है, उसे घटा कर उत्तरायण में सूर्य के उदय स्थान १५३ हैं । ( ६२+२+११ε= १८३ उदय स्थान हैं ) चन्द्रमा के भी अयन भेद किये बिना द्वीप सम्बन्धी १८० योजन प्रमाण वाले चारक्ष ेत्र में ५ उदय स्थान एवं समुद्र सम्बन्धी ३३०६ योजन प्रमाण वाले चारक्ष ेत्र में १० उदय स्थान होते हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर चन्द्रमा के उदय स्थान १५ होते हैं । दक्षिणायन में चन्द्रमा के उदय स्थानों का कथन : १५५५१ १ "पथ व्यास पिंड होणे" इत्यादि गाथा ३७७ के अनुसार चन्द्रमा के दिनगति क्ष ेत्र का प्रमाण '७' योजन है। जबकि १३७ योजन क्ष ेत्र का एक उदय स्थान होता है तब द्वीप सम्बन्धी १८० योजन प्रमाण वाले चार क्षेत्र में कितने उदय स्थान होंगे? इस प्रकार (१६) - ४२ अर्थात् ४ उदय स्थान प्राप्त हुए और रहे । यथा - जबकि १ उदय स्थान का ५५ राशिक करने पर उदय अंश शेष उदय अंशों का योजन क्ष ेत्र होता है, तब ४५ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ३६६ त्रिलोकसार कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर ( PRIx क्षेत्र हुआ। ) योजन चन्द्रमा के पथ व्यास का प्रमाण योजन है, इसका ७ से समच्छेद करने पर १३३ योजन क्षेत्र होता है। अवशेष रहे १६" योजनों में से १६० योजन क्षत्र ग्रहण कर अगले पथ ध्यास मैं देने से एक उदय स्थान बन जाता है, अतः ( ४ + १ ) जम्बूद्वीप में ५ उदय स्थान है। इन पांच (५) उदय स्थानों में से यहाँ ४ जदय स्थान हो ग्राह्य है. क्योंकि अभ्यन्तर पथ का उदय उत्तरायण सम्बन्धी है, मतः यहाँ बह अग्राह्य है। द्वीप सम्बन्धी ४ उदय स्थान बन जाने के बाद शेष बचे PRARE का स्व के भागहार से भाग देने पर ३३ प्राप्त होता है, इसे अगले अन्तराल में देना चाहिये। . .. . .. . --.. - . समुद सम्बन्धी चार क्षेत्र का प्रमाण ३३.५६ पोजन है । इसका समच्छेद करने पर २०१७ योजन होता है। जबकि १५५१' योजन का एक जदय स्थान होता है, तब २५ योजन क्षेत्र में कितने उदय स्थान होंगे? इस प्रकार त्रैराशिक निकालने पर ARRE-R ER अर्थात् उदय स्थान प्राप्त हुए और उदय अंश शेष रहे. इनका पूर्ववत् क्षेत्र निकालने पर योजन क्षेत्र प्राप्त होता है। चन्द्र बिम्ब का प्रमाण योजन है, इसे ७ से ममच्छद करने पर योजन क्षेत्र प्राप्त हमा । उपर्युक्त ११४ योजनों में से यांजन निकाल कर बाय पथ में देने से (३५ अर्थात् का) एक उदय स्थान बन जाता है, इसे पूर्वोक्त ९ स्थानों में मिलाने से लवण समुद्र में चन्द्रमा के १. उदय स्थान हए और १५ योजन क्षेत्र शेप रहा। इसे स्व के भागहार से भाग देने पर २१ हुए, इन्हें द्वीप के शेषांश क्षेत्र ३३४१ योजनों में जोड़ देने से (३३ +२१.) = ३५३१योजन का पाचर्चा अन्तराल सम्पुरग हमा। इस प्रकार चन्द्रमा के दक्षिणायन में जीप समुद्र के मिलाकर १४ उदय स्थान होते हैं। विशेष :-चन्द्रमा के चारक्षेत्र का प्रमाण ५१० योजन है । इतने क्षेत्र में चन्द्रमा को १५ वीषियों हैं। इन वोथियों में चन्द्रमा का दृश्यमान होना ही उनका उदय कहलाता है । वोथियो में चन्द्र बिम्न के द्वारा रु योजन क्षेत्र का नाम पथव्यास है। वीथियों के बीच बीच में ३.५१ योजनों का अन्तराल है, इसी का नाम अन्तर है । पथव्यास और अन्तर के प्रमागा को मिलाने पर ( ३५९४+11)= '५५0 = ३६३३० योजन दिन गति क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त होता है। जीप सम्बन्धी १८० योजन क्षेत्र में सर्वप्रथम अभ्यन्तर वीथी है, वही पथ व्यास प्रमाण क्षेत्र है । इसके Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा। ३६६ ज्योतिलोकाधिकार लागे प्रथम अन्तर है, उसके आगे दूसरा पथव्यास है, इसी प्रकार कम से जाते हये चौथे अन्तर के बाद पांचवां पथ व्यास है, इसके आगे द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र का ३३ योजन क्षेत्र अवशेष रह जाता है । लवण समुद्र के चारक्ष का प्रमाण ३३०४५ योजन है, इसमें से २ योजनों को पूर्वोक्त ३३३१४ में जोड़ देने पर ( ३३ +२ )=३५३६४ योजन द्वीप और समुद्र की सन्धि में पांचव! अन्तराल प्रा होता है। उसके आगे छठा पथभ्यास है इसके प्रार्ग ६ वा अन्तराल है। इस प्रकार कम से पाते हुए अन्त में १४ अन्तराम के मारे १५ मा जामा प गाय है। इन पन्द्रह पथच्यासों में ही १५ उदय स्थान हैं, जिसमें द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र में पहिला अभ्यन्तर बीथी का उदय स्थान उत्तरायण सम्बन्धी है, अता दक्षिणायन में चन्द्रमा के १४ उदय स्थान है। उत्तरायण में चन्द्रमा के उदय स्थान : लवए समुद्र सम्बन्धी धार क्षेत्र का प्रमाण ३३० योजन है। पूर्वोक्त प्रक्रियानुसार उदयस्थान निकालने पर १ प्राप्त होते हैं और उदय अंश शेष रहते हैं। इनका पूर्ववत् क्षेत्र बनाने पर १६ योजन क्षेत्र प्राप्त होता है । चन्द्र बिम्ब का प्रमाण योजन है, इसे ७ से समच्छेद करने पर३३० योजन प्राप्त होते हैं। योजन में से ३१७योजन क्षेत्र निकालकर बाह्म पथ से लगाकर नवमें अन्तराल के आगे जो पथ व्यास है, उसमें दे देने पर एक उदय स्थान होता है। इस प्रकार समुद्र में १० उदय स्थान हैं। इनमें नाम पथ का उदय दक्षिणायन सम्बन्धी ही है, अतः अग्राह्य है । कुल ६ उदय स्थान रहे। समुद्र सम्बन्धी चारक्षेत्र में अवशेष रहा २४० योजन क्षेत्र उसे दश अन्तराल में देना । इस प्रकार समुद्र का चारक्षेत्र समाप्त हुआ। दीप सम्बन्धी जारक्षेत्र में पूर्व क्ति प्रकार से उदय स्थान ४ और अवशेष उदय मंश हैं, इन्हें पूर्ववत क्षेत्र रूप करने पर योजन क्षेत्र प्राप्त होते हैं। इसमें से योजन निकाल कर १० अन्तर में देना । इस प्रकार १.वो अन्तर समाप्त हुआ। अवशिष्ट रहे १११ योजन को ऊपर नीचे सात (७) से अपवर्तन करने पर योजन हुआ। इसे अम्मन्तर पथ ध्यास में देने से एक उदय स्थान बना। इस प्रकार द्वीप में चन्द्रमा के उत्तरायण सम्बन्धी ५ उदम स्थान हुए। विशेष :-क्षरण समुद्र के बारक्षत्र में प्रथम बाह्य पथव्यास है, उसके अभ्यन्तरवर्ती धागे आगे प्रथम अन्तर, द्वितीय पय व्यास, द्वितीय अन्तर इस प्रकार क्रम से जाते हुए ३ अन्तर के आगे १० वी पय व्यास है, और उसके आगे २४० योजन क्षेत्र अवशेष रहता है, अतः द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र के अवशिष्ट ३३१४ योजनों में उपयुक्त २.४ पोजन मिलाकर ३५३३४ योजन १० व अन्तराल को देने से १० वा अन्तराल सम्पूर्ण हो जाता है। इसके आगे ११ वा पथ प्रयास, ११ वा Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिलोकसार पाया। ३६७ अन्तराम इस प्रकार कम से जाते हुए १४ वें अन्तराल के मागे १५ वाँ अभ्यन्तर पथ व्यास है। इस प्रकार इन पन्द्रह पथ व्यासों में १५ उदय स्थान हैं। उनमें समुद्र सम्बन्धी प्रथम व्यास में जो उदय स्थान है वह दक्षिणायन सम्बन्धी ही है, अतः ग्राह्य नहीं है। इस प्रकार चन्द्रमा के उत्तरायण संबंधी समुद्रचारक्षेत्र में ९ और द्वीप चारक्षेत्र में ५ अर्थात कुल १४ उदय स्थान है। यहाँ सूर्य और चन्द्रमा के उत्तरायण सम्बन्धी उदय विभाग मूल सूत्र कर्ता ने नहीं कहे। तथापि संस्कृत टीकाकार ने दक्षिणायन के उदय मार्गानुसार ही विचार कर कथन किया है। इदानीं दक्षिणोत्तरोधिरेपु समतापस्य क्षेत्रविभागमाह दागिरिमझिायो जावय लवणुवहिबहभागो दु । हेट्ठा अट्टरसमया उपरि सयजोयणा ताओ ॥ ३९७ ॥ मन्दरगिरिमध्यात यावत लवणोदधिषष्ठभागस्तु। अधस्तनो अष्टादशशतानि सपरि शस्योजनानि तापः ॥ ३६७ ॥ मंदा । पम्पन्सरवीपी स्थितस्य सूर्यस्य जम्बूद्वीपासे ५०००० द्वीपचारक्षेत्र १८० मपनीत दिवं ४६८२० मन्दरमध्यावारम्य अभ्यन्तरवोधीपर्यन्तं उत्तरतापं चितुः। लवणोधि २००००० षभिभक्त्वा ३३३३३ शेष पत्र द्वीपचारक्षेत्रे १८. मेलने ३३५१३ शे; अभ्यन्तरबीच्याः प्रारम्भ लवरणसमुद्रषष्ठभापपर्यन्तं दक्षिणतापं विदुः । सूर्यबिम्बावस्ताविशतानि १८०० योजनानि प्रषस्तापं विदुः । तद्विम्भस्योपरि शतपोजमानि अर्घतापं विदुः ॥ ३६७ ॥ दक्षिण, उत्तर, ऊर्च और अधः स्थानों में सूर्य के आताप क्षेत्र के विभाग का निरूपण करते हैं : गाथार्थ :-सूर्य का ताप सुदर्शन मेरु के मध्य भाग से लेकर लवण समुद्र के अवें भाग पर्यन्त फैलता है, तथा नीचे अठारह सौ ( १८०) योजन और ऊपर सौ (१०० ) योजन पर्यन्त फैलता है ।। ३९७ ॥ विशेषार्ग :--अभ्यन्तर वोथी में स्थित सूर्य की अपेक्षा कयन-जम्बूद्वीप के झ्यास का अर्थ भाग ५० हजार योजन है। इसमें से द्वीप सम्बन्धी चारोत्र का प्रमाण १८० योजन घटा देने पर ( ५००००-१५० -४६८२० योजन अवशेष रहा, अतः मेरु पर्वत के मध्य से लगाकर अम्मन्तर वीथी पर्यन्त उत्तर दिशा में सूर्य का आताप ४६८२० योजन ( १६९२८०.०० मील ) दूर तक फैलता है। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया । ३९८ ज्योतिर्लोकाधिकार ३५७ लवण समुद्र का व्यास २००००० योजन है। इसका छठवां भाग (२०००००) ३३३३३३ योजन होता है। इसमें द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्र का प्रमाण १८० योजन मिलाने पर ( ३३३३१३+ १८० ) = ३३४१३३ योजन हुआ, अत: सूर्य का बाताप अभ्यन्तर वीथी से प्रारम्भ कर दशा समुद्र के छठवें भाग पर्यन्त ३३५१३३ योजन अर्थात् १४२०५३३३३ मील दूर तक दक्षिण दिशा में फैलता है । इसी प्रकार अन्य वीधियों में लगा लेना चाहिये। सूर्य विम्ब से चित्रा पृथ्वी ५०० योजन नीचे है, और १००० योजन चित्रा पृथ्वी की जड़ है। कुल योग (१०००-८००) १८०० योजन हुआ, अतः सूर्य का आताप नीचे की ओर १८०० योजन ( ७२००००० मील ) तक फैलता है । सूर्य बिव से ऊपर १०० योजन पर्यन्त ज्योतिर्लोक है, अतः सूर्य का आताप ऊपर की ओर १०० योजन ( ४००००० मील) दूर तक फैलता है । अथेदानीं चन्द्रादित्यप्रहाणां नक्षत्रभुक्ति प्रतिपादयितुकामस्ताव देकैकनक्षत्रसम्बन्धिसी मागगनखण्डमाह : अभिजिस गगणखंडा वस्तुयतीसं च अवरमज्झवरे । छन्दार छक्केइनिविशतसहस्सा ।। ३९८ ॥ अभिजित गगनखण्डानि षट्तत्रिंशत् च अवरमध्यवराणि । षट्पद घटके एक द्वित्रिगुणपश्चयुतसहस्राणि ॥ ३६८ ॥ अभिजित् । प्रभिजितः गगमखण्डानि षट्ातत्रियात् ६३० जघन्यमघमोत्कृष्ट नक्षत्र यथाक्रम ६ पश्च १५ षट् ६ प्रमाणे यथासंख्प एकद्वित्रितिपचयुतसहस्र गगनखण्डानि ० १००५ म० २०१० ३० ३०१५ ।। ३६८ ॥ अब चन्द्रमा, सूर्य और ग्रह इनके नक्षत्र मुक्ति के प्रतिपादन की इच्छा रखने वाले प्राचार्य सर्व प्रथम एक एक नक्षत्र सम्बन्धी मर्यादा रूप गगन खण्डों का निरूपण करते हैं। :― गावार्थ :- अभिजित् नक्षत्र के छह सौ तीस गगन खण्ड हैं, तथा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट नक्षत्रों की संख्या कम से छह, (१५) पन्द्रह और छह है, इनके गगन खण्ड भी क्रमशः एक हजार पाँच, दो हजार दश और तीन हजार पन्द्रह है ।। ३९८ ।। विशेषार्थ :- परिधि रूप आकाश के कुल १०९८०० गगन लण्ड हैं, इनमें एक चन्द्रमा सम्बन्धी अभिजित नक्षत्र के कुल ६२० गगन खण्ड हैं । अर्थात् अभिजित् नक्षत्र की सीमा रूप परिधि Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार का प्रमाण ६३० गगन खण्ड स्वरूप है। इसी प्रकार जघन्य प्रत्येक के १००५, १००५ गगन खण्ड है । मध्यम संज्ञा वाले २०१०, २०१० खण्ड और यह पगन खण्ड होते हैं । अथ तानि जघन्यमध्यमोत्कृष्टनक्षत्राणि गाथाद्वयेनाह - ३५८ पाचा : ३६६-४०० संज्ञा वाले ६ ( वह ) नक्षत्रों में से पन्द्रह ( १५ ) नक्षत्रों में प्रत्येक के नक्षत्रों में प्रत्येक के ३०१५, ३०१५ सदसि भरणी अदा सादि असिलेस्स जेडुमवर वरा । रोहिणि विसा पुणन्वसु विचरा मज्झिमा सेसा ।। ३९९ ।। शतभिषा भरणी आदर्श स्वातिः आश्लेषा ज्येष्ठा अश्राणि वराणि । रोहिणी विशाखा पुनसंसुः त्र्युत्तराः मध्यमा शेषाः ॥ ३६६ ॥ सदभित । शतभिषक् शतविशाखेत्यर्थः भरणी पार्वा स्वातिः पाश्लेवा ज्येष्ठा इत्यवर नक्षत्राणि ६ राशि २ रोहिणी विशाला पुनर्वसु । त्रिउतरा ३ जसराफाल्गुनी उतराषाढ़ा उत्तर भाजपश्यर्थः शेषा १५ तारा मध्यमाः ॥ ३६९ ॥ दो गाथाओं द्वारा जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट नक्षत्रों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ :- शतभिष, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, माधुपा और ज्येष्ठा ये ६ जघन्य नक्षत्र हैं । रोहिणी, विशाखा पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तरापाड़ा और उत्तराभाद्रपद ये ६ नक्षत्र उत्कृष्ट हैं । तथा शेष १५ नक्षत्र मध्यम है ॥ ३६६ ॥ :1 विशेषार्थ :- शतभिषक, भरणी, आर्दा, स्वाति, आश्रूषा और ज्येष्टा में छह जघन्य नक्षत्र हैं। रोहिणी, विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद ये ६ नक्षत्र उत्कृष्ट हैं। शेष १५ मध्यम हैं । अथ ताः शेषाः का इत्याह सिणिकित्तियमिसिर पुस्समहाहत्थ चिच मणुराहा । पुव्वतिय मूल सबणासघणिठ्ठा रेवदी य मज्झिमया ॥ ४०० ॥ विनी कृतिका मृगशीर्षा पुष्यः मघा हस्तः चित्रा अनुराषा । पूर्वत्रिक मुलं श्रवणं सधनिष्ठा रेवती च मध्यमाः ॥ ४०० ॥ परिणि । पश्चिमी कृत्तिका मृगशीर्षा पुष्यः भधा हस्त: चित्रा अनुराधा पूर्वत्रिका Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा। ४०१ ज्योतिलोकाधिकार ३५९ पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाधादा पूर्वाभापदेत्यर्थः । मूल भवरण बनिष्ठा रेवतीति मध्यमास्ताराः ॥ ४.० ॥ वे शेष कौनसे हैं ? उन्हें कहते हैं गाथार्ष :--अश्विनी, कृत्तिका, मृगशीर्षा, पुष्य, मघा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, पूर्वत्रिकपूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपद; मूल, प्रवण, पनिष्ठा और रेवती ये पन्द्रह मध्यम नक्षत्र हैं।। ४००॥ विशेषार्थ :-गायार्थ की भौति ही है। अथोक्तानि गगनखण्डानि पिण्डीकरय चन्द्रादित्यनक्षत्राणां परिधिभ्रमणकालमाह दोचंदाणं मिलिदे अदुमयं णवसहस्समिगिलपखं । सगसगमुहत्तमदिणभखंडहिदे परिधिगमहत्ता ।। ४.१।। द्विचन्द्रयाः मिलिते अष्टशतं नवसहन एकलक्षं । स्वस्वकमुहूतगतिनमःबण्डहिते परिधिमुहूर्ताः ।। ४.१ ।। वोचवम्वं । अघपमध्यमोत्कृष्टमात्रखण्णानि अ १०.५ म २०१० ३०१५ समक्षत्रप्रमाणेन ६ । १५।६ गुणयित्वा ६.३० । ३०१५० १८०० एतानि सनि अभिजिवखण्ड ६३० सहितानि सर्वारिण मेलयित्वा ५४९०० चन्द्रद्वयार्थ निगुरणीकस्य मिलितानि सवितानि मष्टपात नासह कलक्ष १०९०० प्रमाणानि भवन्ति । एतेषु स्वकीय स्वकीयमुहसंगतिप्रमाणनमः खण्डः हुनेषु सासु कर्य हरमिति घेदुच्यते । एतावता मण्डानां गतौ १७६८ एकस्मिन्मुहू यता खण्डाना पतौ १०६८०० कियन्ती मुहूर्ता इति सम्पारय भक्त पाय परिषिभ्रमणफाल: मु १९ शेष अष्टभिरपर्यातते २३ सन्मुहूर्ताशाः । एवमारित्यनक्षत्राणामानेतन्यं प्र.१८३० फ १६ १०९५०० लग्धं मु ६. प्रयमादित्यस्य परिधिभ्रमणकालः। प्र १८३५. फ=मु १, १२६८०. लम्घ मु ५६ शो० १६३६ पञ्चभिरपवर्तिते मुहूर्ताः । अयं नक्षश्य परिमिभ्रमणकालः एवं सति प्ररिषिगतमुहूर्ता भवन्ति ॥ ४.१॥ पूर्वोक्त कहे हुए गमन खण्डों को एकत्रित करके चन्द्र सूर्य और नक्षत्रों की परिधि में भ्रमण काल का प्रमाण कहते हैं : Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० त्रिलोकसार पाथा : ४०२ गायार्थ :--यो चन्द्रमा के मिले हुए गगन खण्डों का प्रमाण एक लाख नव हजार आठ सौ (१०६८०० ) है। चन्द्र सूर्य और नक्षत्र एक मुहूर्त में अपने अपने जितने गगन खण्डों में भ्रमण करते हैं, उन जन गगन खण्डों का १०1८०० में भाग देने पर परिधि में भ्रमण का काल प्राप्त होता है ।। ४०१ ।। शेषाय :--६ जघन्य नक्षत्रों में प्रत्येक के १००५ गगन खण्ड हैं। मध्यम नक्षत्र १५ हैं, इनमें प्रत्येक के मर्गन खण्डों का प्रमाण २०१० है, तथा उत्कृष्ट नक्षत्र ६ हैं. इनमें प्रत्येक के गगन खण्डों का प्रमाण ३.१५ है। इनमें अपनी अपनी संख्या का गुणा करने पर निम्नलिखित प्रमाण प्राप्त होता है । यथा-१४०५४ ६-६०३० जघन्य नक्षत्रों के गबन खण्ड हए । २०१.४१५-३०१५० ये मध्यम गगन खण्ड है. तथा ३०१५४६-१८०९० ये उत्कृष्ट गगन खण्ड हैं । इनमें अभिजित् नक्षत्र के ६३० गगन सय मिझाने पर (६०३०+ ३०१५० + १८०९०+६३० -५४९०० हुए। ये एक चन्द्रमा सम्बन्धी है और परिधि में चन्द्रमा दो हैं, अतः इस प्रमाण को दुगुना करने पर गगन खण्डों का कुल प्रमाण ( ५४६७.४२) १०९८.० प्रास होता है। इन गगन खण्डों में अपने अपने एक मुहृतं गमन प्रमाण गगन बण्डों का भाग देने से परिधि भ्रमण का काल प्राप्त हो जाता है। वह कैसे आता है ? उसे कहते हैं :-जबकि चन्द्रमा को १.६८ गगन खण्डों के भ्रमण में एक महतं लगता है, तब १०९८.. गगन खण्डों के भ्रमण में कितना काल लगेगा ? इस प्रकार राशिक करने पर 9300 = ६२/ ६२७ मुहूर्त काल प्राप्त हुआ। इसी प्रकार सूर्य को १८३० गगन खुण्डों के भ्रमण में एक मुहूर्त लगता है, तब tot०. गगन खण्डों के भ्रमण में कितना काल लगेगा? इस प्रकार राशिक करने पर १९६६ =६० मुहूतं सूर्य का परिधि में भ्रमण करने का काल प्राप्त होता है। जबकि नक्षत्रों को १०३५ गगन खण्डों के भ्रमण में एक मुहसं लगता है, तब १६८०० गगन बण्डों के भ्रमरण में कितना काल लगेगा ? इस प्रकार १६६° = १५३५=५९३१४ मुहूर्त नक्षत्रों का परिधि में भ्रमण करने का काल है । इस प्रकार चन्द्र, सूर्य और नक्षत्रों का परिधि भ्रमण काल प्राप्त होता है। अथ ताः स्वकीयस्त्रकीयमुहूर्तगतयः का हत्यत्राह थट्ठी समरसयमिंदू छावहि पंचाहियकर्म । गच्छन्ति सूररिक्खा गभखंडाणिगिमुहत्तेण ।। ४०२ ।। अषष्टिः सप्तदशशतं इन्दुः षट्षष्टिः पवाधिककमारिण। गच्छन्ति सूर्यऋक्षाणि नमः खण्णानि एकमुहूर्तेन ।। ४०२ ।। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया । ४०३ ज्योविलाकाधिकार प्रट्ठी । प्रषष्टिः सप्तमहानगगमखण्टानि इम: १८ ताम्येन विवष्टपा २ षिकान्यादिस्यः १५३. तान्येव पुनः पवाधिकामाणि ममःलगानि ममत्राणि गच्छन्ति १९३५ एकमुहूर्तन ॥ ४०२ ॥ एक मुहूर्त में गमन करने के अपने अपने गमन खण्डों का प्रमाण कहते हैं गापार्थ :-एक मुहूर्त में चन्द्रमा १७६८ गगनखण्डों में भ्रमण करता है, सूमं १८३. और नक्षत्र १८३५ गगनखण्डों में गमन करता है ॥ ४.२ ।। विशेषार्ष :-चन्द्रमा एक मुहत में १७६८ गगनखण्डों में भ्रमण करता है। सूर्य ६२ अधिक अर्थात १५३. गगनखण्डों में और नक्षत्र ५ अधिक अर्थात् १८३५ गगनखण्डों में एक मुहूर्त में भ्रमण करते हैं। अथ चन्दादितारान्तानां गमन विशेषस्वरूपमाह चंदो मंदो गमणे सूरो सिग्धो तदो महा दत्तो । तत्तो रिक्खा सिग्या सिग्घयरा तारया तत्तो ।। ४०३ ।। चन्द्रो मन्दो गमने सूरः शीघ्रः नतो ग्रहाः ततः। ततः मारिण शीघ्रारिण शीघ्रतराः तारकाः ततः ॥ ४०३ ॥ चंदो मंयो। चन्द्रो मन्दो पमने हता सूर्यः शोनः ततो पहाः शीघ्राः ततो मक्षत्राणि शीघ्राणि ततः शीघ्रतरास्तारकाः ॥ ४.३ ॥ चन्द्रमा से तारा पर्यन्त ज्योतिषी देवो के गमन विशेष का स्वरूप कहते हैं गाथार्य :- चन्द्रमा का सबसे मन्द गमन है। सूर्य चन्द्रमा से शीघ्रगामी है, ग्रह सूर्य से शीघ्रगामी है. नक्षत्र ग्रह से शीघ्रगामी है और तारागण अतिशीघ्रगामी हैं ॥४०॥ विशेषाम् :-चन्द्रमा सबसे मन्द गति वाला है। इससे शीघ्रगति सूर्य की, उससे शीघ्र ग्रहों की. उससे शीघ्र नक्षत्रों की और उससे भी अधिक शोधगति ताराओं की है। विशेष :- चन्द्रमा अम्यन्तर वीथी में एक मिनिट में ४२२०६७, मील चलता है । इसी अम्यन्तर वीथी में सूर्य १ मिनिट में ४३७६२३१७ मील चलता है अर्थात् चन्द्रमा की अपेक्षा सुर्य ने १ मिनिट में १५८२६ ११५१ मील अधिक गमन किया। उसी अभ्यन्तर बौथी में नक्षत्र १ मिनिट में ४३८८१९१२१2 मील चलता है अर्थात् सूर्य की अपेक्षा नमत्र ने १ मिनिट में ११९६128 मील अधिक गमन किया। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ त्रिलोकसार पाथा:४०४ अथ साम्प्रतं मन्द्रादित्ययोनक्षत्रभुक्तिमाह-- इंदुरवीदो रिक्खा सत्तट्ठी पंच गगणखंदहिया । अहियादि रिक्खखंडा रिक्खे इंदुरविमस्थणमुहुचा ।। ४.४ ॥ इन्दुरवित: ऋक्षाणि सप्तषष्टिः पञ्च गगनखण्डाधिकानि । अधिकाहितऋमखण्टानि ऋो इन्दुरविअस्तमनमुहूर्ताः ॥ ४०४ ॥ इंबुरवी । इन्दुरविगगनसदेम्यः यथाक्रम १७६८ रवि १३. ऋक्षाणि सप्तहिगगनखण्डः ६७ पश्चगणनखण्ड ५ श्वाधिकानि १८३५ एकस्यां वेलायां गमनं प्रारम्प नमो नक्षत्राणि च एकस्मिन्मुहर्त स्वस्वगगमयसमासिकरणे पायो नक्षत्रात्सप्ततिखण्डानि पृष्ठभागे प्रपसरति । एसबपसरलं धृत्वा एतावधिकलपडा ६७ पसरणे यधेको मुहूर्तस्सवा एतावत् अभिनिवखण्डा ६३. पसरणे कियन्तो मुहूर्ताः स्पुरिति सम्पातविषिमा प्राधिकेन ६७ पभिजिवाविजघन्यमध्यमोत्कृष्ट नक्षत्रमण्डेषु प्रमिजितः ६३.० १.०५ म. २०१. २० ३०१५ हतेषु तत्तानक्षत्रे इन्योः परसन्ममुहूताः स्युः अभिजितो मु ६ मा ३५ ज १५ म ३०४५ जघन्मनक्षत्रे त्रिशमुहूर्तानामेकास्मिन दिने इमता १५ मुहूर्तान किमिति सम्पाय पश्चवामिरपतिले लग्धविन : म बिन १ =नम्मु = ४५ एतद्दिनं कृत्वा पापभिरपवसिते एवं । एकमेवादित्यस्य नक्षत्राणां भुमिकालो नातव्यः । भिजितः = वि ४, मु६ 1 जवि ६, सु २१ । म-वि १३, पु १२ । =वि.२०, मु ३ ॥ ४० ॥ अब चन्द्रमा और सूर्य की नक्षत्र भुक्ति को कहते हैं : गाथा:- चन्द्रमा और सूर्य के गगनखण्डों से नक्षत्र के गगनखण्ड कम से ६७ और ५ अधिक है। इन अधिक गगनखण्डों का अपने अपने नक्षत्रखण्डों में भाग देने पर नक्षत्र और चन्द्र तथा नक्षत्र और सूर्य के आसन्न मुहूतों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ॥ ४० ॥ . विशेषार्थ :-१ मुहूर्त के गमन की अपेक्षा चन्द्रमा के पगनखम्ड १७६८, सूर्य के १८३७ और नक्षत्र के १८३५ हैं । जो चन्द्रमा के गगनखण्डों से (१८३५-१७६८)-६७ और मूर्य के गगन खण्डों से ( १८३५-५८३.)=५ अधिक है। एक ही साथ चन्द्रमा और नक्षत्र ने गमन करना प्रारम्भ किया और एक ही मुहूर्त में दोनों ने अपने अपने गगनलग्दों को समाप्ट कर दिया । अर्थात् १ मुहूर्त में चन्द्र ने १७६८ गगनखण्डों का भ्रमण किया, जबकि नक्षत्र ने १८३५ का किया, प्रतः नक्षत्र से चन्द्रमा ६७ गगनखण्ह पीछे रहा । चन्द्रमा अभिजित् नक्षत्र के ऊपर है और अभिजित् नक्षत्र के ६३० गगनखण्ड हैं । जबकि ६७ गगनखाह छोड़ने में चन्द्रमा को १ मुहूर्त लगा, तब ६२० गगनखण्डों को छोड़ने में कितने मुहूर्त लगेंगे । इस प्रकार शाशिक करने पर =३४ मुहूर्त प्राप्त होते हैं। यही Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ४०५ ज्योतिलोंकाधिकार अभिजिव और चन्द्रमा के आसन्न मुहूतौ का प्रमाण है । अर्थात् ११७ मुहूतं तक चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र के निकट रहा । ( इसे ही नक्षत्रभुक्ति कहते हैं, अथवा इन दोनों को निकटता को चन्द्रमा द्वारा अभिजित् नक्षत्र का भोग कहते हैं। अथवा इसी को चन्द्रमा और अभिजित् नक्षत्र का योग कहते हैं।) इसी प्रकार जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट नक्षत्रों के आसनमुहत निकालने पर निम्नलिखित प्रमाण प्राप्त होता है । यथा-जघन्य नक्षत्रों के गगनखण्ड १०.५ हैं, अतः ११५ मुहुर्त अर्यात ६ जघन्य - नक्षत्रों के साथ चन्द्रमा की १५ मुहूर्त निकटता रहती है। इसी प्रकार मध्यम नक्षत्रों के मगनखण्ड २०१० और उत्कृष्ट के ३०१५ गगनखण्ड हैं, अतः २११ = ३० मुहूर्त। 3834=४५ मुहूर्त । अर्थात् चन्द्रमा की मध्यम नक्षत्रों के साथ ३० मुहूर्त और उत्कृष्ट नक्षत्रों के साथ ४५ मुहूर्तों को निकटता रहती है। ३. मुहून का एक दिन होता है. अतः उपयुक्त दिनों के मुहूत बनाने पर क्रम : अर्थात प्राधा दिन । ३१ दिन और ५-१३ अर्थाद डेढ़ दिन प्राप्त हुए, यही चन्द्रमा के द्वारा अघम्पादि नक्षत्रों के मुक्तिदिन ( काल ) हैं। सर्य, नक्षत्र से ५ गगनखण्ड पीछे रहता है, अतः चन्द्रमा के सदृश सूर्य का भी भुक्तिकाल निकालने पर कम से निम्नलिखित प्रमाण प्राप्त होता हैं, या !-x= पिटमा लिन ६ मुहूर्त अभिजित् नक्षत्र का भुक्तिकाल | 1881%-=६* दिन या ६ दिन २१ मुहूतं जघन्य नक्षत्रों का भुक्तिकाल है। ५१११११११३३ दिन या १५ दिन १२ मुहूर्त मध्यमनक्षत्रों का सूर्य द्वारा भुक्तिकाल है । इसीप्रकार ३१५- २० दिन या २० दिन ३ मुहूर्त उत्कृष्ट नक्षत्रों का सूर्यद्वारा भुक्तिकाल है। अथ राहोगंगनखण्डाभिधानद्वारेण तस्य नक्षत्रभुक्तिमाह रपिखंडादो पारममागूणं बज्जदे जदो राहु । तम्बा तत्तो रिक्सा चारहिदिगिसद्विखंडहिया ॥ ४० ॥ र विखण्डतः द्वादशभागोमं प्रति यतो राहुः । तस्मात्ततः ऋक्षारिण दशहितकवष्टिखण्डाधिकादि ॥ ४०५ ।। रविडायो । रवेगंगमरवणेभ्यः १८३० द्वावशमागो १२ नंतावस्मयामि १२ को एकस्मिन्मुहूर्त प्रति राहयतः तस्मात् ततो राहगगननम्यः १८२६ से ११ भमण्डागि १३५ द्वादशहतकविखएडाधिकानि ३३ । एलावाषिर्क क ? राहगगनजरमानि १८२६ कोई नक्षत्रगणनाखण्डपु १८३५ अपनीय, शेषं ६ तरधरण १६ समच्छेवीकृत्य २३ मा तमशेषे ६ अपनीते ि अधिकक्षाप्रमाणं मवति । ११ एताधिकं घस्पा 'पहियहिरिवललण्डेति' न्यायेम राहोरेशावर Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाया। ४०५ खण्डाना पपसरणे एकस्मिन्मुहूर्त १ एतावतामभिजिवलगडानां ६३० किमिति सम्पात्य हारस्प हार १२ रापोगुणकारं कृत्वा 324 तानेव मुहान त्रिशता भागेन बिनामि कृपा Wx ई पश्चाबू द्वावशत्रिशता समं षड्भिरपवा ४३ पुनः विशदुत्तरषट्छतानि पश्चभिः सर्म पञ्चभिरपवत्ये ३५२वं स्वगुणकारेण २ गुपयिषा ११ मत लब्यविनानि ४ भागे एवं राहोरभिजितिभुक्तिः । एवमेव जघन्यमध्यमोहनक्षत्रेषु राहोभुक्तिरानेतव्या । म वि ६ मागे म दि १३ भाउ दि १६ माग ३ ॥ ४० ॥ राह के गगनखण्ड कहकर उसके द्वारा नक्षत्रों का मुक्तिकाल कहते हैं : गाथाय :--सूर्य के मगनखण्डों में भागहीन (१५२६१३) गगनखण्डों पर राहु गमन करता है। इसी कारण राहु के गगनखण्डों से नक्षत्रों के गगनखण्ड ५ भाग अधिक हैं ॥४०५॥ विडोषार्य :-मूर्य के गगनखण्ड १८३ ० हैं । इनमें भाग हीन अर्थात् ( १८३०-= ) १५२६१३ गगनखण्डों पर राह एक मुहूर्त में गमन करता है. इसी कारण राहू १८२६१२ गगनखण्हों से नक्षत्रों के १८३५ गगनख १२ भाग से अधिक हैं। भाग अधिक कैसे हैं ? राह के १८२६ गगनखण्डों को नक्षत्र के १८३५ गगन खण्डों में से कम करने पर २ भाग कम ६ गगनखण्ड शेष बचे। ६ गगनखण्डों में से भाग कम करने पर-1-1-1 अधिक गगनखग्दों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । 'अहियहिदरिक्खखण्डेति' ( गा० ४०४ ) न्यायानुसार जबकि १२ भाग छोड़ने में राहु को १ मुहूर्त लगता है, तब अभिजित् नक्षत्र के ६३० गगनखण्ड छोड़ने में कितने मुहूतं लगेंगे ? इस प्रकार पैराशिक करने पर ३४- मुहूतं प्राप्त हुए। इन मुहूतों के दिन बनाने के लिए इनमें तीस ( ३. ) का भाग देने पर ११ १५ अर्थात् ४६ दिन प्राप्त हुए। अथवा-2x3 में १२ और ३० को ६ से अपवर्तन करने पर हुए। पुनः ६३. और ५ को पांच से अपवर्नन करने पर २५३ अर्थात ४ दिन प्राप्त हुए। अर्थात् राहु ४ दिनों तक अभिजित् नक्षत्र का भोग करता है। इसी प्रकार जघन्यादि नक्षत्रों को मुक्त घी निम्न प्रकार है : ११2889- अर्थात् ६३ दिनों तक राष्ट्र जघन्य नक्षत्रों को, 483F:= अर्थात् स दिनों तक मध्यम नक्षत्रों को और 1112'११. अर्थात् १ दिनों तक उत्कृष्ट नक्षत्रों को भोगता है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा:४०६-४०७ ज्योतिर्लोकाधिकार अथ प्रकारान्तरेण राहोनक्षत्रमाह णक्खत्तमूरजोगजमुढचरामि दुवेहि संगुणिय । . एकद्विहिद दिवसा हात खgोगस || '३०६ ।। नसत्रसूरयोगजमुहर्नराशि द्वाभ्यां संगुण्य । एकषष्टिहिते दिवसा भवन्ति नक्षत्रराहयोगस्य ॥ ४०६ ॥ गलत। पभिजिदाविनक्षत्रनयंयोगजनितशि वि ४ मु६ त्रिशदगुणनेन मुहूर्त कृत्वा १२६ तं राशि बाभ्यां संगुण्य २५२ । एकषष्टया हृते सति दि ४ भार्या दिवसा भवन्ति नक्षत्ररायोगस्य । एवमितरमात्राणा कर्तव्यम् ॥ ४.६ ॥ अन्य प्रकार से राष्ट्र की नक्षत्रभुक्ति कहते हैं-- गाथार्थ :-नक्षत्र और सूर्य का जितने मुहूतों तक योग रहता है अर्थात सूर्य जितने मुहूर्त तक नक्षत्र को भोगता है उन मुहूर्तों के प्रमाण में २ का गुणा कर ६१ का भाग देने से नक्षत्र और राह के योग के दिनों का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ४.६ ।। विशेषार्थ :- सूर्य द्वारा अभिजित् नक्षत्र का भुक्तिकाल ४ दिन ६ मुहूर्त है । ४ में ३. का गुणा कर ६ जोड़ने से मुक्तिकाल १२६ मुहूर्त प्रमाण हुआ। १२६ को दो से गुणा कर, ६१ का भाग देने पर ( १२६४२-२५२६१ )= ४६ दिन राहु द्वारा अभिजित् नक्षत्र का मुक्तिकाल प्राप्त होता है । अर्थकस्मिन्नयने नक्षत्रभुक्तिसहितरहितदिनानि निगदति अभिन्नादि तिसीदिसयं उत्तरअयणस्स होति दिवसाणि । अधिकदिणाणं तिणि य गद दिवसा होति इमि अयणे ॥४.७ ।। अभिजिदादि यशोठिशतं उत्तरायणस्य भवन्ति दिवसानि । अधिकदिनाना त्रीणि च गतदिवसानि भवन्ति एकस्मिन् अयने ।। ४०७ ।। ममिजिवादि । मभिजिवादीनां पुष्वान्तान जघन्यमध्यमोकनक्षत्राणां यशोयुसरशत १८३ मुत्तरायणस्य भवन्ति दिवसानि एभ्योऽतिरिक्तान्यविधिमानि मनुः । त्रीणि ३ गमविवसानि भवन्ति एकस्मिन्नयने ॥ ४०७॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार एक अयन में नक्षत्र-मुक्ति सहित मोष रहित दिनों का प्रमाण कहते हैं नाथार्थ :- अभिजित् यादि नक्षत्रों के उत्तरायण में एक सीतैरासी दिन होते हैं। इनसे अतिरिक्त अन्य अधिक दिन किसने होते हैं ? एक अयन में तीन गतदिवस होते हैं ॥ ४०७ ।। ३६६ पापा : ४०८ विशेषार्थ :- सूर्य के उत्तर में की मुक्ति होती है। इसका काल दिन है। इसके आगे क्रम मे श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशीर्षा, आर्द्रा, पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र की मुक्ति होती है। इनमें से शतभिषा, भरणी और आर्द्रा ये तीन जघन्य नक्षत्र है। इनमें प्रत्येक का मुक्तिकाल दिन है। अर्थात् तीन नक्षत्रों का ( ३ ) - दिन है। श्रवण घनिष्ठा पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, कृतिका और मृगशीर्षा ये सात मध्यम नक्षत्र है। इनमें प्रत्येक का भुक्तिकाल में दिन है, अतः ७ नक्षत्रों का ♛ × दिन हुआ तथा उत्तराभाद्रपद, रोहिणी. पुनर्वसु ये तीन उत्कृष्ट नक्षत्र है। इनमें प्रत्येक का भुक्तिकाला दिन है, अतः ३ नक्षत्रों का x ३ = दिन हुआ । इसके बाद पुष्य नक्षत्र का मुक्तिकाल दिन है, किन्तु उत्तरायण में पुष्यनक्षत्र का भुक्तिकाल मात्र दिन ही है, त+++++-- १०३ दिन अर्थात् अभिजित आदि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट नक्षत्रों के उत्तरायण में १५३ दिन होते हैं। इनसे अतिरिक्त अधिक दिन किसने होते हैं ? एक अयन में तीन गतदिवस होते हैं । धाषिकदिनानामुत्पत्तिमाह---- एक्कपद्दलंघणं पहि नदि दिवसमभागमुलद्धं । किं सीदिसदस्सिदि गुणदे ते होंति अहियदिना ॥ ४०८ ॥ एकपथलङ्घनं प्रति यदि दिवसक पष्टिभागमुपलब्धं । कि व्यशीतिशतस्येतिगुणिते ते भवन्ति अधिक दिनानि ॥ ४०६८६ ॥ एक्कर । एकपपलङ्घनं प्रति यदि दिवसेकषष्टि भाग उपलभ्यते तदा। व्यशीतित १८३ विवसानां किमिति सम्पात्यं कवट्या नियंगपवश्यं गुणिते प्रविविनानि भवन्ति । एकस्मिन्नयमे कथं प्रयशीतिशत दिनानोति चैष धावित्यस्य नक्षत्रातु पश्चडापसरले एकस्मिन्मुहूर्ते सति प्रभिजित वडा ६३० पर कियन्तो मुहूर्ता इस्यागतान्मुहूर्तान् पुन राशिकेन विनानि कृत्वा $30 अब उपरि त्रिशतापवलम्बमिवं प्रभिथिति संस्थाप्यं । एवं जघन्यमध्यमोत्कृष्टनअत्राणां मवाजिपुनर्वस्वलाना में राशिकविधिना मुहूर्तान् विनानि च कृत्वा यथासंख्यं पववश म १५३० शनि १५ श्रपत्यं सधं तत्र तत्र नक्षत्र स्थापयेत् ॥ ४०८ ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाषा । ४०६ ज्योतिर्लोकाधिकार अधिक दिनों की उत्पत्ति कहते हैं गाथा :- एक पथ ( वीथी ) उल्लङ्घन के प्रति यदि एक दिन का इकसठ () भाग उपलब्ध होता है, तो एकसौतेरासी पथ ( वीथियों) के उल्लङ्घन में क्या प्राप्त होगा ? इस प्रकार भाग को १८३ से गुणित करने पर अधिक दिनों की प्राप्ति होती है ॥ ४०८ ॥ विशेषार्थ:-- सूर्य द्वारा एक पथ उल्लङ्घन करने में यदि दिन की प्राप्ति १८३ वीथियाँ उल्लङ्घन करने के प्रति कितने दिनों की उपलब्धि होगी ९ इस प्रकार पर ( ८ × १६१ ) = ३ दिन अर्थात् ३ दिन अधिक प्राप्त होते हैं। ३६७ होती है, चन राशिक करने एक अयन में १६३ दिन हो कैसे होते हैं ? इस प्रकार पूछने पर कहते हैं : सूर्य के एक मुहूर्त के गमन योग्य गगनखण्ड १८३० और नक्षत्रों के १८३५ हैं। जबकि सूर्य को नक्षत्र के ५ गण्ड छोड़ने में एक मुहूर्त लगता है, अर्थात् ५ गगनखण्डों के प्रति यदि एक मुहूर्त है, तो अभिजित् नक्षत्र के ६३० गगनखण्डों प्रति क्या होगा ? अर्थात् कितने मुहूर्त होंगे ? इस प्रकार शिक करने पर मुहूर्त होते हैं, इनको ३० का भाग देकर ऊपर नीचे ३० से अपवर्तित करने पर दिन अभिजित् नक्षत्र का भुक्तिकाल प्राप्त होता है। इसी तीन जघन्य नक्षत्रों का मुक्तिकाल है। इन्हें १५ से अपवर्तित करने पर श्रवणादि सात मध्यम नक्षत्रों में से प्रत्येक का मुक्तिकाल 33 है, इन्हें ३० से * दिन प्राप्त हुये। इसी प्रकार उत्तराभाद्रपदादि तीन उत्कृष्ट नक्षत्रों में से xx प्रकार शतभिपादि 723 है, इन्हें १५ से अपवर्तित करने पर दिन प्राप्त होते हैं । 'A X3= अथ पुष्येतु विशेषप्रतिपादनार्थमाह- दिन प्राप्त हुए । अपवर्तित करने पर प्रत्येक का मुक्तिफाल सतिपंचमचउदिवसे पुस्से गमियुत्तरायणयमनी | सेदखि मादीसावणपडि वदि रविस्स पढमपहे ।। ४०९ ।। समचतुदिवसान् पुष्ये गत्वा उत्तपायल्समाप्तिः । शेषात् दक्षिणादिः श्रावणप्रतिपदि रवेः प्रथमपथे ॥ ४०६ ॥ सतिपंचम | त्रिपक्ष चतुविषसान् पुष्ये गरवा उसरावरणसमाप्तिरिति कृत्वा प्राग्वत्यनक्षत्र विनाभ्यातीयतेभ्य समच्छेवीकृतात्रिपञ्चमचतु दिवसान् प्रपनीय उत्तरायणमा स्वा शेषेभ्यः ४ कोष्ठपूर्णार्थं तावदेवा ३ पनोय दक्षिणायनप्रथम कोष्ठे दत्ते सति इवमेव बावरणमासे प्रतिपदि रवेः प्रथमपथे दक्षिणायनस्यादिः प्रवशिष्टशेषान् द्वितीयकोष्ठे बचात् । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ त्रिलोछः एवमइले राधाकान्तानामावित्यभुतिमामीय तत्र तत्र नक्षत्र संस्थापयेत् । एवममितिश्चन्द्रस्य भुक्तिमानीय सहच जघन्यमध्यमोत्कृष्ट नक्षत्राणां मध्ये श्रवणादिपुनर्वस्वन्तान भुक्ति सप्तष्ट सर्वत्र साप त्रिशद्वारं जघन्योत्कृष्टानां पचदशभिरवत्यं मध्यमानां तु त्रिशापव तत्र तत्र नक्षत्र स्वापयेत् पुष्यस्य तु मावित्यस्ता भुक्तौ चन्द्रस्य यवेषं दिनं तदा पुरुये श्रावित्यस्यैतावमुक्ती चन्द्रस्य किमद्भुक्तिरिति सम्पास्यापत्यं प्रातां मुक्ति पुष्ये स्थापयेत् । एवं दक्षिणायने कर्तव्यम् । एवं राहोरभिजिवादिपुनर्वस्वन्तान भुक्तिमात्रीय तंत्र छत्र नक्षत्र स्थापयेत् । पुष्येतु राहुभुति प्राविश्यस्यैतावमुक्त राहोयंवेतावन्ति दितानि तवा पुष्ये प्रादित्यस्यैतावत राहोः किमद्भुक्तिरिति सम्पास्यापवतीय उत्तरायणसमाप्ती पुष्ये स्थापयेत् प्राग्यद्दक्षिणायने कर्त्तव्यम् । एवमानीतेपु चन्द्रस्य नक्षत्रमुक्ति दिनेषु सर्वेषु समीकृत्य मिलितेषु पवनदिनानि १३ भा डे भवन्ति उभयायन मेलने वर्षादनानि २७ मा दे भवन्ति । एवमावित्यस्यायनबिनाति १८३ वर्षविनानि च ३६६ पानतव्यानि एवं राहोश्चायन विनामि १० वर्षदिनानि च ३६० पानेतव्यानि ॥ ४०६ ॥ 52 पुष्यनक्षत्र में जो विशेषता है, उसके प्रतिपादन हेतु कहते हैं गाथार्थ :- पुष्यनक्षत्र में पांच भागों से तीन भाग सहित चार (४३) दिन जाकर उत्तरायण की परिसमाप्ति होती है। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन अभ्यन्तर दोथी में पुष्यनक्षत्र का शेष ४ भाग दक्षिणायन का आदि है अर्थात् दक्षिणायन का प्रारम्भ होता है ।। ४०१ ॥ विशेषार्थ :- पुष्य नक्षत्र मध्यम है अतः इसके गगनखण्डों का प्रमाण २०१० है । ५ गगनखण्डों के प्रति सूर्य को १ मुहूर्त लगता है, तब २०१० गगनखण्डों के प्रति क्या लगेगा ? इस प्रकार पूर्ववत् सम्पूर्ण किया करने से (2) दिन सूर्य द्वारा पुष्य नक्षत्र का भुक्तिकाल प्राप्त होता है | इसमें पांच भागों में से तीन भाग सहित चार दिन अर्थात् घटा कर उत्तरायण की परिसमाप्ति में देकर शेष (--) में से पुनः लेकर दक्षिणायन की आदि स्वरूप दक्षिण के प्रथम कोष्ठ में देना चाहिये । यही श्रवणकृष्णा के दिन अभ्यन्तर ( प्रथम ) बोथो में दक्षिणायन की आदि है। अवशेष बचे को द्वितीय कोश में देना चाहिये। इस प्रकार दक्षिणायन के प्रारम्भ में प्रथम पुष्य नक्षत्र का भोग समाप्त हो जाने के बाद कम से आश्लेषा, मघा पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा इन नक्षत्रों को भोगना है। इनमें से आदलेषा, स्वाति और ज्येष्ठा ये तीन नक्षत्र जघन्य हैं। इनमें प्रत्येक के गगनखण्ड १००५ हैं। अतः प्रत्येक का भुक्तिकाल दिन और तीनों का (x)=२० दिन है। मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल और पूर्वाषाढ़ा ये सान मध्यम नक्षत्र हैं, Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४०६ ज्योतिर्लोकाधिकार ३६६ इनमें प्रत्येक के गगन खण्ड २०१० और प्रत्येक का भुक्तिकाल दिन है, तथा सातों का (x) दिन है। उत्तराफाल्गुनी, विशाखा और उत्तराषाला ये सीन उत्कृष्ट नक्षत्र हैं । इनमें प्रत्येक के गगनखण्ड ३०१५ और प्रत्येक का भुक्तिकाल २१ दिन है, तथा तीनो का भुक्तिकाल (२०१४)-१११ दिन है। इन सब मुक्तिकालों को जोड़ने से दक्षिणायन में १८३ दिन होते हैं। यथा-+ +1234 दिन अर्थात पुष्यनक्षत्र एवं आयषा से उत्तराषाढ़ा क्यन्तु दक्षिणायन में सूर्य के कुल १८३ दिन होते हैं । उत्तरायण में चन्द्र द्वारा नक्षत्रभुक्ति के दिनों का प्रमाण : चन्द्रमा के उत्तराम में सर्व प्रथम आमाक्ष की मुक्ति होती है। इसका मुक्तिकाल ३.७ दिन है। इसके बाद चन्द्र श्रवण से पुनर्वसु नक्षत्रां पर्यन्त कम मे भागता है। इनमें शतभिषा, भरणी और आर्द्रा ये तीन जघन्य नक्षत्र हैं। इनमें प्रत्येक का भुक्तिकाल ( 4) दिन है, अतः तीन नक्षत्रों का (३४३ - १६ दिन हुआ। श्वण, धनिष्ठा, पूवभिाद्रपद, रेवती, अश्विनी, कृतिका, और मृगशीयों ये ७ मध्यम नक्षत्र हैं। इनमें प्रत्येक का भुक्तिकाल (33)-१ दिन है, अत: ७ नक्षत्रों के ७ दिन हुए। इसी प्रकार उत्तराभाद्रपद, रोहणी और पुनर्वसु ये तीन उत्कृष्ट नक्षत्र हैं, इन में प्रत्येक का मुक्तिकाल (18)=१३ दिन है. अतः तीन नक्षत्रों के (३xx दिन हए। इसके बाद पुष्य नक्षत्र को चन्द्रमा एक दिन मे भाग पर्यन्त भोगता है। क्योंकि-पुष्य नक्षत्र को सूर्य जवकि ५ दिन में भोगता है, तब चन्द्रमा उसे १ दिन में भोगता है तब यदि सूर्य २३ दिन में भोगता है, तो चन्द्र कितने दिनों में भोगेगा ? इस प्रकार शशिक करने पर ( x)= दिन पुष्य नक्षत्र का भुक्तकाल प्राप्त होता है और इन सबका योग ( + +१३++४६ )-१३४ दिन होता है। इस प्रकार उत्तरायण चन्द्र का नक्षत्रों का भुक्तिकाल १३१४ दिन है। दक्षिणायन चन्द्र का नक्षत्र भुक्तिकाल : दक्षिणायन में चन्द्रमा सर्व प्रथम पुष्य नक्षत्र को भोगता है। पुष्य नक्षत्र का " भाग उत्तरायण मे भोगा जा चुका है. अतः अवशेष बचा ४ भाग हो यहाँ भुक्ति काल है। यह भाग लेकर दक्षिणायन को मादि स्वरूप दक्षिणायन के प्रथम कोष्ट में देना चाहिये । इस प्रकार पुष्य नक्षत्र का भोग समाप्त हो जाने के बाद चन्द्र म पूर्वक आश्लेषा से उत्तरापाढ़ा पर्यन्त नक्षत्रों का भागता है, इनमें तोन जघन्य नक्षत्रों का भुक्तिकाल (1833 ) १२, दिन सात मध्यम नक्षत्रों का भुक्तिकाल २ -७ दिन और ३ उत्कृष्ट नक्षत्रों का भुक्तिकाल 34 =३ दिन है । इस प्रकार है।।१३+४+४३- १३१४ दिन दक्षिणायन में चन्द्रमा द्वारा नक्षत्रों का मुक्तिकाल है। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० त्रिलोकसार था:४०९ उत्तरायण राह का, नक्षत्र भुक्तिकाल : उत्तरायण में राहु सर्व प्रथम अभिजित् नक्षत्र को भोगता है। इसका भुक्तिकाल १५ दिन है। इसके आगे धवण से पुनर्वसु पर्यन्त नक्षत्रों की भुक्ति क्रम से होती है। इनमें से उपयुक्त तीन जघन्य नक्षत्रों का भुक्तिकाल (११४) १३६' दिन, सात मध्यम नक्षत्रों का भुक्तिकाल ( ८०४x७ )= १८ दिन, और तीन उत्कृष्ट नक्षत्रों का भुक्तिकाल ( १२११४)= 48 दिन है। पुष्य नक्षत्र का भुक्तिकाल-जवकि पुष्य नक्षत्र पर सूर्य का दिन का भोग होता है. तब राहु उसे दिन भोगता है, तो जब यूयं दिन भोगता है. तब राहु कितने दिन भोगेगा? इस प्रकार अंगशिक करने पर ( XX.२%)- दिन में उत्तरायण की समाप्ति हो जाती है। अर्थात् उत्तरायण राह पुष्य नक्षत्र को दिन भोगता है, अतः-३५३+२+३+ + १-१२१८० अर्थात् १८० दिन उत्तरायण राहु द्वारा नक्षत्रों का भुक्तिकाल है। दक्षिणायन राह का भुक्तिकाल : दक्षिणायन में सर्व प्रथम पुष्य के भक्तिकाल में अवशेष रहे ५३६ भाग प्रमाण काल पर्यन्त हो पुष्य को भुक्ति होती है। इसके आगे आश्लेषा से उत्तराषाढ़ा पर्यन्त नक्षत्रों की भक्ति क्रम मे होती है। इनमें तीन जघन्य नक्षत्रों का भुक्तिकाल ( "०१३ )= 10 दिन, सात मध्यम नक्षत्रों का भुक्तिकाल ( 1 )="३ दिन और तीन उत्कृष्ट नक्षत्रों का भुक्तिकाल (0x3 ) - 312 दिन है । इनका कुल योग 11 +' +१३+= ११ दिन अर्थात् १८० दिन है । इस प्रकार दक्षिणायन राहु के, नकात्रों को भुक्ति का काल १८० दिन है। चन्द्रमा एक अयन में १३६४ दिन नक्षत्रों का भोग करता है, अतः चन्द्रमा का एक वर्ष का भक्तिकाल ( १३४४४२)=२७६४ दिन पर्यन्त है। सूर्य का एक अयन का भुक्तिकाल १८३ दिन है, अत। दोनों अपनों के मिलाकर एक वर्ष का मुक्तिकाल ( १८३४२)=३६६ दिन हैं । इसी प्रकार राहु का एक अयन का भुक्तिकाल १८. दिन है. अता दोनों अपनों के मिला कर एक वर्ष का भुक्तिकाल (१८०४२) = ३६० दिन हैं। राह, रवि और शशि के एक अयन के भक्तिकालों का सङ्कलन : [चित्र भगले पृष्ठ पर देखिए । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया ४१० उतरा गुण m2 ज्योतिर्लोकाधिकार दूरद FREE १ 55 + - 85 ॐ कृष नेपा - - 照 ॐॐ ? 2 + Fangtys Art next with 4 अधिकमासप्रकारप्रतिपादनार्थमाह shrun H नी এ এর ܢ 1 Tre 2 *14 1 my waz zq w [!-- EC PIE 5 Sta F13 मासे दिणवी वस्से बारह दुवस्सगे सदले | अहिओ माम पंचयवासप्पजुगे दुमासहिया ॥ ४१० ॥ एकस्मिन् मामे दिनवृद्धिः वर्षे द्वादश द्विवर्ष के सदले । अधिक मासः पचत्मिकयुगे द्विमासी अधिकौ ॥ ४१० ॥ 7 Bot इतिमासे । एकस्मिन्मासे वृद्धिः एकस्मिन् वर्षे द्वावशविनवृद्धि बलसहिले विर्षे एकमासोऽधिकः पचवर्षाश्मके युगे द्वौ मासौ प्रषिको एक १ वर्षस्य द्वावण १२ दिनवृद्धी यां सद्विवर्षस्य ५ किग्स विनानि बद्धते इति सम्पास्यापदतिते लब्धविदानि ३० । एवं युगेऽवि ॥ ४१० ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ त्रिलोकसार अधिक मास का प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैं : -: गावार्थ :- एक मालू में एक दिन (३० मुहूर्त) की वृद्धि होती है, अत: बारह मास में १२ दिन की बढ़ाई वर्ष में १ मास की और पाँच वर्षों का समुदाय है स्वरूप जिसका ऐमे एक युग में दो माह की वृद्धि होती है ।। ४१० ॥ गाथा ४११ विशेषार्थ :- सूर्य गमन की १८६४ गलियाँ हैं। एक गली से दूसरी गली दो दो योजन ( ८००० मोल ) की दूरी पर हैं। एक गली में दूसरी गली में प्रवेश करता हुआ सूर्य उस मध्य के दो योजन अन्तराल को पार करता हुआ जाता है। इन पूरे अन्तरालों को पार करने का काल १२ दिन है. क्योंकि उसका एक दिन में एक अन्तराल पार करने का काल एक मुहूर्त ( ४८ मिनिट ) है, अतः एक दिन में एक मुहतं की, तीस दिन ( एक मास ) में ३० मुहूर्त अर्थात् एक दिन की. बारह मास में १२ दिन की, अढ़ाई वर्ष में ३० दिन ( एक मास ) की ओर ५ वर्ष स्वरूप एक युग में दो मास की वृद्धि होती है। प्रकाशतरे :- एक वर्ष में १२ माह और एक माह में ३० दिन होते हैं। प्रत्येक ६१ व दिन एक तिथि घटती है अतः एक वर्ष के ३५४ दिन होने चाहिए किन्तु सूर्य के ( १८३x२ ) ३६६ दिन होते हैं अतः एक वर्ष में १२ दिन की, दो वर्ष में २४ दिन की, अढ़ाई वर्ष में ३० दिन की ( अढाई वर्ष में १३ मास का वर्ष होता है) और पाँच वर्ष में दो मास की वृद्धि होती है । प्राक्तनगाथार्थमेव गाथाष्टकेन त्रिवृणोति--- मासामी जुगणपती दुसवणे किले । अमिजिहि चंदजोगे पाडिदिवसहि पारंभो ॥१४११ ॥ आषाढ़ पूर्णिमायां युगनिष्पत्तिः तु श्रावणे कृष्णे । अभिजिति चन्द्रयोगे प्रतिपदिवसे प्रारम्भः ॥ ४११ ।। मासाठपुरण | माषाढमासि पूर्णिमापरा उत्तरासमाप्तौ पञ्चवर्षात्मकयुग निष्पति: तु पुनः बावणमास करुणवक्षे प्रभिजिति चन्द्रयोगे प्रतिपद्दिवसे दक्षिणायनप्रारम्भः स्यात् ॥ ४११ ।। पूर्वोक्त गाथार्थ का ही आठ गाथाओं द्वारा वर्णन करते हैं गावार्थ :- आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन पाँच वर्ष स्वरूप युग की समाप्ति होती है, Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:१-४१३ ज्योतिर्लोकाधिकार प्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन चन्द्र का अभिजित् नक्षत्र के साथ योग होने पर युग का प्रारम्भ होता है ।। ४११ ।। विशेषार्थ :-माषाढ़ मास की पूर्णिमा के अपराह्न में उत्तरायण की समाप्ति पर पश्नवर्षात्मक युग की सम्पूर्णता होती है तथा श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन चन्द्रमा का अभिजित नक्षत्र के साथ योग होने पर दक्षिणायन के प्रारम्भ के साथ पवत्मिक युग का प्रारम्भ होता है। अथ कस्यां वोथो कस्यायनस्य प्रारम्भ इति चेत् पढमंतिमसीहीदो दक्षिणउत्तरदिगयणपारंभो । आउट्ठी एगादी दुशुत्तरा दक्खिणाउट्टी ।। ४१२ ।। अपमान्तिम वीथीत: दक्षिणोत्तरदिगयनप्रारम्भः । आवृत्तिः एकादि विकोत्तरा दक्षिणावृतिः ॥ ४१२ ।। पदमतिम। प्रयमान्तिमवीपोतो पचासंस्मं दक्षिणोसरा विक प्रयनप्रारम्भः स एव वक्षिणायमस्योत्तरायणस्य च प्रथमा प्रावृत्ति: स्यात् । तत्र एकाविद्वघुतरा बक्षिणावृत्तिः स्यात् ॥ ४१२ ॥ किस वीथी में किस अयन का प्रारम्भ होता है ? उसे कहते हैं गाधार्थ :-प्रथम और अन्तिम वीथी से ही क्रमानुसार दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा के अयन का प्रारम्भ होता है। इसे ही दक्षिणायन उत्तरायण की प्रथम आवृति कहते हैं । दक्षिणावृति एक को आदि लेकर दो दो की वृद्धि प्रमाण ( १, ३, ५, ७ आदि ) होती है ॥ ४१२ ॥ विशेषाप:-सूर्यभ्रमण की १८४ गलियां हैं। इनमें से जब सूर्य प्रथम वीपी में स्थित होता है तव दक्षिणायन का और जब अन्तिम वीथी में स्थित होता है. तब उत्तरायण का प्रारम्भ होता है। इसी को दक्षिणायन उत्तरायण की प्रथम आवृत्ति कहते है। दक्षिण आवृत्ति एक को आदि लेकर दो से अधिक ( १, ३, ५, ७) होती जाती है । जनरायणावृत्तिः कथमिनि चेत उत्तरगा य दुबादी दुचया उभयस्थ पंचयं गच्छो । विदि आउट्टी दु हवे नेरसि किलेसु मियसीसे ।। ४१३ ।। उत्तरमा च तपादि। विचया उभयत्र पश्चकं गच्छः । द्वितीयावृत्तिः तु भवेत् त्रयोदश्या कृष्णेषु मृगशीर्षायाम् ॥ ४१३ ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाथा:४१४ उत्तरगा । उत्तरगावृत्तिा यावि: विषया स्याव उभयत्र पश्चगच्छः द्वितीयावृत्तिस्तु भवेद । कृष्णपक्षे त्रयोदश्यां मृगशीर्षाया ॥४१३ ॥ उत्तरायण मी बत्ति कैसी है ? उसे कहते हैं गाचार्य :-उत्तरावृत्ति भो दो को मादि लेकर दो से अधिक होती जाती है। दोनों अपनों में गच्छ का प्रमाण पांच पांच ही है। प्रावण कृष्णा त्रयोदशी को मृगशीर्षा नक्षत्र में द्वितीय आवृत्ति होती है ।। ४१३ ।। विशेषार्थ :-पूर्व अयन को समाप्ति और नवीन अयन के प्रारम्भ को आवृत्ति कहते है। ये मावृत्तियां पञ्चवर्षात्मक एक युग में इस बार होती हैं। इनमें १, ३, ५,७ और ६ वी आवृत्ति तो दक्षिणायन सम्बन्धी है तथा २, ४, ६, ८ और १० वी आवृति उत्तरायणा सम्बन्धी है। उत्तरायण को समाप्ति के बाद जब दक्षिणायन सम्बन्धी आवृत्ति प्रारम्भ होती है तब श्रावण मास से ही होती है। प्रथम आवृत्ति प्रावण कृष्ण प्रतिपदा से हुई थी। दूसरी आवृत्ति श्रावण कृष्णा त्रयोदशी को मृगशीर्षा नक्षत्र में कही गई है । · तृतीयाद्यावृत्तिः कदेति चेत् सुक्कदसमीषिसाहे तदिया सचमिगकिल रेवदिए । तुरिया दु पंचमी पुण सुक्कचउत्थीर पुब्वफगुणिये ।।४१५।। शुक्लदशमोविशाखे तृतीया सप्तमीकृष्णारेवत्याम् । तुरीया तु पश्चमी पुनः शुक्लचतुर्या पूर्वफाल्गुन्याम् ।। ४१४ ॥ सुपकवसमी। शुक्लपक्षे वयाभ्यां विशाखायो तृतीयावृत्ति: स्यात् । एपक्षे सम्यो रेवत्या सुविशित्तु रात् । शुक्लपक्षे चतुष्पा तिथी पूर्वाफाल्गुग्या नक्षत्रे पुन: पश्चमी प्रावृत्तिः स्थात् ॥ ४१४ ॥ तीसरी प्रादि आवृत्तियाँ कब होती हैं ? ऐसा पूछने पर कहते हैं मायार्थ :-इसी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि में विशाखानक्षत्र का योग होने पर तीसरी मावृत्ति होती है तथा श्रावण कृष्णा सप्तमी को रेवती नक्षत्र का योग होने पर चौथी और श्रावण शुक्ला चतुर्थी को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में पांचवी आवृत्ति होती है ।। ४१४ ।। विशेषार्थ :-पाय की भांति ही है । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाचा । ४१५-४१६-४१७ एतावता किं स्यादिति चेत् ज्योतिलोकाधिकार दविणणे पंचसु सावणमासे पदाओ मणिदाओ पंचणिपट्टी पंचत्रस्से | सुरस || ४१५ दक्षिणायने पचसु श्रावणमासेषु वर्षेषु । एताः भरिणताः पख निवृत्तयः सूर्यस्य ॥ ४१५ ॥ पिय । वरिगापने पञ्चसु भावणमासेषु पञ्चवर्षेषु एताः पञ्च निरायः सूर्यस्य भरताः ॥ ४१५ ॥ उत्तरावृत्तिः कथमिति चेत् ३७५ इनसे क्या होता है ! उसे कहते हैं गाथायें :-- [ इस प्रकार | पाँच वर्षो के भीतर पाँच श्रावण मासों में दक्षिणायन सम्बन्धी सूर्य की पाँच आवृत्तियाँ कही गई है ।। ४१५ ।। विशेषार्थ :- पाँच वर्षों तक प्रत्येक श्रावणमास में दक्षिणायन सम्बन्धी एक आवृत्ति होती है इस प्रकार पांच वर्षों में पांच आवृत्तियाँ होती हैं। माघे समिक इथे विणिवित्तिमेदि दक्खिनदो | विदिया सदसिक्के चोत्थीए होदि तदिया हु ।। ४१६ ।। useदि कि पुस्से चोत्थी मुले या किल्तेरसिए । किचियरिक सुक्के दसपी पंचमी होदि ॥ ४१७ ॥ माघे सप्तम्यां कृष्णे हस्ते विनिवृति एति दक्षिणता । द्वितीया शतभिषि शुक्ल चतुर्थ्यां भवति तृतीया तु ॥ ४१६ ॥ प्रतिपदि कृष्णे पुष्ये चतुर्थी मूले च कृष्णत्रयोदश्याम् । कृतिकाऋक्षे शुक्ले दशम्यां पचमी भवति ॥ ४९७ ॥ माधे सति । माघमासे सप्तम्यां तिथौ कृष्णपक्षे हस्तनक्षत्र विभिवृत्तिमेति दक्षिणायनतः द्वितीयावृतिः शतभिग्नक्षत्रे शुक्लपक्षे चम्पतियों भ तृतीया रावृतिः ॥ ४१६ ।। पधि । कृष्णपक्षे प्रतिपदि तिथो पुष्यनक्षत्रे स्याय, चतुर्थ्यावृति कृष्ण त्रयोद भूलनक्षत्रे स्यात्, शुक्लपक्षे दशम्य कृतिका नक्षत्रे पञ्चमी प्रावृत्तिर्भवति ।। ४१७ ।। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिलोकसार उत्तरायण में आवृत्तियां कसे होती है ? उन्हें कहते है - गार्थ :- माघ कृष्णा ससमो को इस्तनक्षत्र के योग में सूर्य दक्षिणायन को छोड़ कर उत्तरायण में जाता है, यह प्रथम आवृत्ति है । माघ शुक्ला चतुर्थी को शतभिषा नक्षत्र के योग में दूसरी आवृत्ति होती है, तथा तीसरी आवृत्ति माघ कृष्ण प्रतिपदा को पुष्य नक्षत्र के रहने पर होती हैं। चौथी आवृत्ति माघकृष्ण त्रयोदशी को मूल नक्षत्र में, और पांचवीं आवृति माघ शुक्ला दशमी को कृतिका नक्षत्र के योग में होती है ।। ४१६ ४१७ ।। विशेषार्थ : दक्षिणायन ३७६ वृत्ति क्रम १ ली आवृत्ति ३ री 6 ५. वीं " वर्ष मास सूर्य तिथि नक्षत्र प्रथम प्रवि वर्ष कृष्णा द्वितीय प्रा०कु० त्रयोदशी म तृतीय आ० शु० दशमी विशाखा ७ बीं" चतुर्थं घा० कृ० सप्तमी रेवती ६ वीं मा० शु० चतुर्थी पूर्वाफाल्गुनी आवृत्ति क्रम प्रतिपदा अभिजित २ रो ४ थी ६ वीं वीं १० वीं उत्तरायण वर्ष मास प्रथम . याया ४१८ सूर्य तिथि माघ सप्तमी हस्त कृष्णा द्वितीय मा० शु० चतुर्थी शतभिया तृतीय मा० कृ० प्रतिपदा पुण्य चतुर्थ मा० कृ० | योद|| मूल पचममा० शु० दशमी कृतिका ताओ उतरणं पंचसु वासेसु माघमासेसु । आउट्टीओ भणिदा सूरसिंह पुत्रसूरीहिं ॥। ४१८ ॥ ताः उत्तरायणं पञ्चसु वर्षेषु माघमासेषु । आवृत्तयः भणिताः सूर्यस्येह पूर्व सूरिभिः ॥ ४९८ ॥ नक्ष उपर्युक्त पांच वर्षों में युग समाप्त हो जाता है, तथा छठवें वर्ष से पूत ही व्यवस्था पुनः प्रारम्भ हो जाती है। हमेशा दक्षिणायन का प्रारम्भ प्रथम दीधी में और उत्तरायण का प्रारम्भ अन्तिम बोथी से होता है । उक्तार्थं पति Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया। ४१८ ज्योतिलोंकाधिकार लामो उत्तर। ता एता प्रावृरायः उत्तरायणे पश्चम् वर्षेषु माघमासेपु पूर्वपरिभिरिह सूर्यस्य भरिणताः । उक्तमाधाना रचनोबारविषानमुच्यते । पञ्चवर्षात्मकयुगप्रारम्भस्य दक्षिणायनस्य पश्चतु प्रावणमासेषु उक्ताः एकत्रिशसिथीस्तत्र तत्र संस्थाप्य प्रथमपापरणे कृष्ण १५ शु १५ १ द्विप्रा-कृष्प = १५१ मा-शुक १५ शु १० । चा - ६ शु १५७ । पं०-भा==१२ - १५ गु = ४ उपरायणस्य पञ्चसु माघमासेष एकत्रिंशत्तिथीः उक्तशामेण तत्र तत्र संस्थाप्य प्रथममाघमासे 3-६ शु १५ % ७ द्वि-मा-शु-१२ -१५ शु । =मा = क १५ शु=१५ ।। च-मा-कृ ३ = १५ -१३ । पं०नमा-शु - ६ -१५ शु=१० बक्षिणायने मध्ये भाजपवादिमासेषु उत्सरापरणे मध्यगतफाल्गुनाविमासेषु प्रावावेकहीनकामेण १४ । १३ । १२ । ११ अन्ते एकोत्तरकमेण २।३ । ४ । ५ एकत्रिशतिषिषु स्थापितासु तस्मिन्मासे तत्र तत्रायने वाषिकदिनान्यागच्छन्ति । एवं क्रमेण पञ्चवर्षात्मके युगे द्वावधिकमाती भवतः ||४१५॥ उपयुक्त गाथाओं में कहे हर अर्थों का सङ्कलन { जोड़ ) करते हैं गापार्य :-जो आवत्तियो उत्तरायण में पांच वर्षों के पांच माघ मासों में होती हैं वे पूर्वाचार्यों के द्वारा सूर्य की कही गई है ।। ४१८ ।। विशेषार्थ :-वे सब आवृत्तियाँ उत्तरायण में पांच वर्षों के माघ मासों में पूर्व प्राचार्यों के द्वारा सूर्य की कही गई है उन्हीं गाथाओं को रचना के उद्धार का विधान कहते हैं पांच वर्षों के समुदाय को युग कहते हैं। प्रधम युग के प्रारम्भ से युग की ममाप्ति पर्यन्त निथि आदि की जिस प्रकार की रचना है, वैसी ही रचना दूसरे तीसरे मादि युमों में भी है। प्रत्येक युग में दक्षिणायन का प्रारम्भ पांचों धावण मासों में, और उत्तरायण का प्रारम्भ पाचों माघ मासों में ही होता है, तथा दक्षिणायन के बीच में भाद्र, आसोज, कातिक आदि मास आते है, और उत्तरायण के बीच में फाल्गुन, चैत्र आदि मास आते हैं । इन प्रत्येक मासों की ३१, ३१ निधियो स्थापित करना चाहिये, क्योंकि वैसे तो एक मास में ३० ही दिन होते हैं, किन्तु "इगिमासे दिणबड्डी" गाथा सूत्र ४१० के अनुसार एक दिन में एक मुहूत को वृद्धि होती है, अत: एक माह में एक दिन की वृद्धि हो जाती है। इसलिये प्रत्येक माह में ३१ दिन की स्थापना की गई है। एक मास में एक दिन की वृद्धि होने से बारह मासों में १२ दिनों की और पाच वर्षों में १० दिन अर्थात् दो माह की वद्धि होती है। इसका चित्रण निम्न प्रकार है [ कृपया चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ arcti ברה. FAT त्रिलोकसाय TWANT FAMI गर 1931/2 13432 w 我 S Zint अथ दक्षिणोत्तरायण प्रारम्भेषु नक्षत्रानयनप्रकार माह 1511257 'cmpi.. 116234. गाथा : ४१९ रुणावगुण सदसदं तु सहिद इगिवीसं । तिघणहिंद व्यवसेसा अस्मिणियहुदीणि रिक्खाणि ।। ४१९ ।। रूपनावृनिगुणं एकाशीतिशतं तु सहित एकविंशत्या । ० त्रिषहृते अवशेषाणि अश्विनीप्रभूनोति ऋक्षाणि ।। ४१६ ।। करा रूप म्यूना० दृश्या गुणितं यद्येकाशीत्युत्तरशतं १८१ एकस्मिक होने शुन्यम शिष्यत इति खेन गुपितः अमिति शून्यमेव भवति । एकविंशत्या सहितं २१ एतम्सिन त्रिघम २७ हृते सति प्रवशेषं पश्विनोप्रभृतितः गुण्यमानं दक्षिणायनप्रारम्भ श्रावणमासे क्षणं भवति । एवं वक्षितापने इतर चतुर्षु भाषणेषु उत्तरायणे पञ्चसु माधेषु तत्र तत्र नक्षत्रायातव्यानि ॥ ४१६ ॥ दक्षिणायन तथा उत्तरायण के प्रारम्भ में नक्षत्र प्राप्त करने का विधान : गाथायें :- एक सौ इक्यासी को एक कम विवक्षित आवृत्ति से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें इक्कीस मिला कर तोन के घन ( २७ ) का भाग देने पर जो शेष रहे, अश्विनी को भावि लेकर उतने ही नम्बर का नक्षत्र होता है ।। ४१९ ।। विशेषार्थ :- जैसे मान लीजिए प्रथम आवृत्ति विवक्षित है, तो एक में से एक घटाने पर शून्य शेष रहा। इसको १८१ से गुरित करने पर शून्य हो प्राप्त होगा । इस शून्य गुणनफल में २१ मिलाने पर योगफल २१ प्राप्त हुआ। इसमें तीन के घन (३४३४३ ) - २७ का भाग देने पर वह जाता नहीं है, तब २१ ही शेष रहे । यथा - ( १ - १०० x १८१=०+२१=२१ ÷ २७-२१ शेष ) इस प्रकार प्रथम आवृत्ति में अश्विनी में लेकर २१ व नक्षत्र उत्तराषाढ़ा समझना चाहिए. किन्तु यहाँ उत्तराषाढ़ा के स्थान पर अभिजित नक्षत्र ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यद्यपि नक्षत्र अट्ठाईस हैं, तथापि जहाँ नक्षत्रों की गणना आदि करते हैं, वहाँ २७ का ही ग्रहण किया जाता है, अभिजित् का नहीं क्योंकि अभिजित् का साधन सुक्ष्म है। यहाँ प्रथम आवृत्ति में स्थूल रूप से - ४ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा.४२० ज्योतिलोंकाधिकार ३७१ उत्तराषाढ़ा प्राप्त होता है, किन्तु सूक्षमता मे अभिजिस् नक्षत्र ही बतलाया गया है। आगे कहीं इसका ग्रहण नहीं करना। इस प्रकार दक्षिणायन के प्रारम्भ में प्रथम प्रावण मास में नक्षत्र प्राप्त करने का विधान किया। द्वितीय उदाहरण :-दूसरी आवृत्ति विवक्षित है। इसमें से एक घटा देने पर एक शेष रहा। इसको १०१ से गुणा करने पर १८१ हो रहे । इस १८ गुणन फल में २१ जोड़ने से २०२ हुए । इनको तीन के घन स्वरूप २० से भाजित करने पर अवशेष तेरह ( १३ ) रहते हैं। यथा :-(२-१)१४१८१-१८१+२१=२०२६ २७ = १३ अवशेष रहे। इस प्रकार द्वितीय आवृत्ति में अश्विनी से लेकर १३ वा हस्त नक्षत्र है, अतः उत्तरायण के प्रारम्भ में प्रथम माघ मास में हस्त नक्षत्र प्राप्त होता है। इसी प्रकार ३ री, ५ वीं, ७ वीं और ९ वी आवृत्तियों में दक्षिणायन के प्रारम्भक श्रावण मास में और ४ थी, ६वी, ८ वीं एवं १० वी आवृत्तियों में उत्तरायण के प्रारम्भक माघ मास में नक्षत्रों का साधन करना चाहिए । अथ दक्षिणोत्तरायणानां पतिथ्यानयनसूत्रमाह वेगाउटिगुण तेसीदिमदं महिद निगुणगुणरूवे । पण्णरभाजिदे पच्चा सेसा तिहिमाणमयणस्म ॥ ४२ ॥ व्येकावृत्तिगुणं ज्योतिशतं सहितं त्रिगुणगुणरूपेण । पञ्चदशभक्त पर्वाणि शेषं तिथिमान अयनस्य ।। ४२० ।। वेगाउट्टी। विगतकावस्या गुणितं पशीतियतं त्रिगुणगुणकारेण प्रथमे शून्येन सीयारो त्रिगुणितविगतकापल्या सहितमित्यर्षः रूपेण च सहित यसस्मिन् पञ्चशभिर्भत ति लम्ब पारित। पत्र मागाभावात्पर्धाभावः अवशेष १-तिथिप्रमाणं दक्षिणोत्तरायणस्य ॥ ४२० ।। दक्षिणायण उत्तरायण के पर्व और तिथि प्राप्त करने के लिए सत्र कहते है । पापाय :-एक मो तेरासी को एक कम विवक्षित मावृत्तियों से गुणित कर पश्चात् उसमें तिगुणा गुणकार और एक अङ्क मिलाकर पन्द्रह का भाग देने पर जो लब्ध प्रात हो वह वर्तमान अयन के पर्व तथा जो अवशेष रहे वह तिथियों का प्रमाण होता है ।। ४२० ।। विशेषार्थ:-जैसे यदि प्रथम आवृत्ति की विवक्षा है, तो एक में से एक घटाने पर शून्य श्रेष रहता है। (१-१-.) इससे १८३ को गुणित करने पर शून्य ही प्राप्त होगा-- (१८३४०.)। इसमें तिगुणा गुणकार ( ०४३=0) जोड़ने से भी शून्य ही प्राप्त होगा। इसमें एक अङ्क मिलाने पर (.+1)=१ प्राप्त हा इसमें १५ का भाग जाता नहीं, इसलिए पर्व का अभाव रहा। अवशेष एक ही है, अतः कृष्ण पक्ष को प्रतिपदा को प्राप्ति हुई। पक्ष के पूर्ण होने पर जो Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० त्रिलोकसाय गाथा : ४२१ पूरिणमा और अमावस्या होती है, उसका नाम पर्व है। यह प्रथम आवृत्ति दक्षिणायन के प्रारम्भक प्रथम श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के समय होती है। वहाँ युग का प्रारम्भ हो है, अतः पर्य का अभाव है। द्वितीय उदाहरण :-यदि द्वितीय आवृत्ति को विवक्षा है तो दो में से एक घटान पर (२-१=१ शेष रहता है। उसको १८३ से गुणित करने पर { १४१८३)-१८३ ही प्राप्त होते हैं। गुणकार १ था, इसका तिगुणा ३ मिलाने पर (१५३+३ ) - १८६ हुए। उममें एक और जोडकर १५ का भाग देने पर १८६+ - १२ लब्ध और ७ अवशेष की प्राप्ति हुई। अर्थात द्वितीय मावृत्ति में १२ पर्व और सप्तमी तिथि प्राप्त होती है। यह द्वितीय आवृत्ति उत्तरायण का प्रारम्भ हो जाने पर प्रथम माघ मास में कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि के समय होती है, तब तक युग के प्रारम्भ से १२ पर्व व्यतीत हो जाते हैं। तृतीय उदाहरण :-पहा तृतीय आवृत्ति की विवक्षा है, अत: ३–१ = २ । १८३ x ३३६६ + (२४३ =३७२ । ३७२+१=२४ लब्ध और १३ शेष । इस प्रकार यह तृतीय आवृत्ति दक्षिणायन के प्रारम्भक द्वितीय श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की प्रयोदशी तिथि के समय होती है, तब तक युग के प्रारम्भ से २४ पवं व्यतीत हो जाते हैं। इसी क्रम से अन्य आवृत्तियों में भी पर्व और तिषि की साधना कर लेना चाहिए। अथ समानदिनरात्रिलक्षणे विषुपे वंतिथिनक्षत्राणि गाथाषट्केन दशस्यनेष्वाह छम्मासद्धगयार्ण जोइसयार्ण समाणदिणरची । इसुपं पढम छसु पब्बसु तीदेसु तदियरोहिणिए । ४२१ ।। षण्मासाधंगतानां ज्योतिष्कारणां समानदिनरात्री। तत् विषुपं प्रथम षट सु पर्वसु अतीतेषु तृतीयारोहिण्याम् ।।४२१॥ छुम्मासर। अपनलक्षणषण्मासाउंगताना ज्योतिडकाणां समानविमरात्री भवतः । तव विषुपमित्युध्यते । तत्र प्रपमं विषुपं षट्स पर्वस्ववीतेष तृतीयायां तिषौ रोहिणी नक्षत्रे भवति ॥ ४२ ॥ समान दिन रात्रि है लक्षण जिसका ऐसे विषुप में पवं, तिथि और नक्षत्रों को छह गाथाओं द्वारा युग के दश अयनों में कहते हैं : गापा :-ज्योतिषो देवों के छह माम ( एक अयन ) के अधं भाग को प्राप्त होने पर जिस काल में दिन और रात्रि का प्रमाण बराबर होता है, उस काल को विषुप कहते हैं। यह प्रथम रिषुप ६ पवा के बीत जाने पर तृतीया तिथि में रोहणी नक्षत्र के समय होता है ।। ४२५ ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गामा : १४६ ज्योतिधिकार विशेषार्थ :--एक अयन छह मास का होता है, और प्रत्येक अयन का अर्धभाग व्यतीत होने पर दिन और रात्रि का प्रमाण बराबर होता है। यह दिन रात्रि के प्रमाण का बराबर होना हो विषुप है। अर्थात विपुप का लक्षगा है। पांच विषुप दक्षिणायन के अर्धकाल में और पांच विषुप उत्तरायण के अधंकाल में इस प्रकार एक युग में कुल दश विधूप होने हैं । युग के प्रारम्भ में दक्षिणायन सम्बन्धी प्रथम विषुन आरम्भ के ६ प ( ३ माह ) व्यतीत हो जाने पर तृतीया तिथि में चन्द्रमा द्वारा रोहणी नक्षत्र के भुक्तिकाल में होना है। विगुण णव पधतीदे णवमीय विदियगं धणिढाए । इगितीसगदे दियं सादीय पण्णरसमम्हि ।। १२२ ॥ नेदालगदे तुरियं छट्टिपूणधसुगयं तु पंचमयं । पणरण्णपव्वनीदे वारसिए उत्तरामदे ।। ४२३ ।। अहसटिगदे तदिए मि छ? असीदिपन्नगदे ।। वमिमघाए सचममिह तेणउदिगदे द अद्वमयं ।।४२४| अस्सिणि पुण्णे पन्चे गरम पुण पंचजुदसए पन्वे । तीते छद्वितिहीए णखचे उपराषाढ़े ।। ४२५ ।। चरिमं दसम विसुपं सत्तरसुवरसएस पव्वेसु । तीदेसु पारसीए नाइदि उत्तरगफग्गुणिए ।। ४२६ ।। द्विगुणनवपतिीतेषु नवम्यां द्वितीयकं घनिष्ठायाम् । एकत्रिशद्गते तृतीय स्वातौ पञ्चदश्याम् ॥ ४२२ ॥ त्रिचत्वारिशद्गतेपू तुरीयं षष्ठी पुनवेसुगतं तु एवमम । पपल्याणपतीतेषु द्वादश्यां उत्तराभाद्र ।। ४२३ ।। अष्टिगतेषु तृतीयायां मैत्रे षष्ट अगीतिपर्वगतेषु । नवमीमघायां सप्तम इह निमवतिगत तु अष्टमम् ।। ४२४ ।। अश्विनी पूर्णे पर्वणि नवम पुन. पञ्चयुतशतेषु पर्वेषु । अतीतेषु षष्ठीतिथी नक्षत्रे उत्तराषाढ़े ॥४२५ ॥ चरमं दशमं विष्पं सप्तदशोत्तरशतेनु पर्वषु । अतोलेप द्वादश्यां जायते उत्तराफाल्गुम्याम् ॥ ४२६ ।। दिगुण । हिगुणनव १८ पर्वस्वीतेषु नवम्यो द्वितीयं विषुए मिठायां स्थाव, एकत्रिशस्पर्ष स्वतीतेपु तृतीयं विषुपं स्वातिनमने १७वशतियो स्यात् । कृष्णपक्षस्थविमावास्यायामेवेत्यर्षः ॥ ४२२ ॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाद गाषा : ४२२ से ४२६ तेवाल स्यात् । त्रिवारिशद ४३ पर्वस्वसीतेषु दुर्यं विपुषं पढ़यां तिथो पुनर्वसुनक्षत्रगत पंचमं विपुषं पोसरपञ्चाशत् ५५ पस्थतीतेपु द्वावश्या मुतराभाव पवे नक्षत्र यात् ॥ ४२३ ॥ एसडि प्रवृषष्टि ६८ पर्वसु गतेषु तृतीयार्या तिथों मंत्रे अनुराधायां ष विपुषं स्यात् । प्रशीति ८० पथं गतेषु नवम्यां तिथौ मघानक्षत्रे सप्तमं विपुषं स्यात् । इह त्रिनवति ६३ पर्वसु गतेषु भ्रमम् विषुवम् ॥ ४२४ ॥ ३८२ महि । अश्विननक्षत्र प्रमावास्यायां पर्वरिण श्यात् नवमं विषुषं पुन: पलशतपथस्वतीतेषु बहुधा तिथौ उसराचा नक्षत्र स्यात् ॥ ४२५ ॥ रिमं शमं । चरमं शमं विषुवं सत्यशोत्तर १७ पर्वस्वीतेषु द्वादश्यां तिथौ उत्तरफाल्गुन्यां नक्षत्र जायते ॥ ४२६ ॥ घनिष्ठा नक्षत्र में द्वितीय विप तिथि को स्वाति नक्षत्र में तृतीय, पत्रपन पर्वो के बीतने पर द्वादशी गावार्थ:-अठारह पर्वो के बीतने पर नवमी तिथि को होता है । इकतीस पर्वों के बीत जाने पर पचदशी [ अमावस्या ] तेतालीस पर्वों के बीतने पर षष्ठी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में चतुर्थ के दिन उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में पचम, अड़सठ पर्वो के बोलने पर तृतीया तिथि को मंत्र ( अनुराधा ) नक्षत्र में षष्य, अस्सी पत्र के बीतने पर नवमी तिथि को मघा नक्षत्र में समम तेरानवे पर्वों के बीत जाने पर पूर्ण पर्व ( अमावस्या ) को अश्रिती नक्षत्र में अष्टम्, एक सौ पाँच पदों के बीत जाने पर पष्ठी तिथि को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में 6 वाँ और एक सौ सत्तरह पर्वो के बीत जाने पर द्वादशी तिथि को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में दशवी विषुप होता है ।। ४२२-४२६ ।। विशेषार्थ :- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक पचवर्षात्मक युगों में सूर्यो के दक्षिण व उत्तर अयन होते रहते हैं, तथा प्रत्येक अयन का अर्धभाग व्यतीत होने पर विषुप होता है। ये विषुप कितने कब और कौन कौन मास एवं नक्षत्रों में होते हैं । उसका विशेष विवरण :-- [ कृपया घाट अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४२ ज्योतिर्लोकाधिकार ३५३ पपं संख्या विधुप संख्या गतपर्व संम्न्या __ मास पक्ष । तिथि नक्षत्र (६वा व '३ " पवम" (१ना के व्यतीत होने पर कि ! ! तृतीया | रोहणी के योग में प्रथम वर्ष १२ रा १८ . . . , वंशान ", | नवमी | पनिष्ठा , , , (३रा ३१ ॥ - * - कातिक , प्रमावस्या स्वाति , , , द्वितीय, वैशाख | शुक्ल ॥ | षष्ठी । पुनर्वसु . . . कातिक | . . द्वादशी |उत्तराभाद्रपदके यो में तृतीय , पैशाख | well n तृतीया । अनुराधा n n n ___० ॥ कातिक नवमी मघा " " चतुथं " वैशास्त्र अमावस्या अश्विनी " . ( १०५ " " " " शुक्ल । । षष्ठो उत्तरापाठाके योगमें (१७ वा ११७ ॥ " " | वैशाख | ॥ | द्वादशी | उत्तराफाल्गुनी । " अय विषुपे पर्व तिथ्यानयनसूत्रमाह विगुणे मगिट्ठइसुपे रूऊणे छग्गुणे इवे पर्व । तपन्यदलं तु निधी पबमाणम्स इसुपरस || ४२७ ॥ द्विगुणे १३ष्टविषुपे रूपोने घाइ गुरणे भवेत् पर्व । तत्पवंदलं तु तिथिः प्रवत्तंमानस्य विषुपस्य ।। ४२७ ।। विगुणे। द्विगुणे स्वकीयेष्ठविषपे रूपोने षभिणिते सति पसंख्या भवेत् । तपबल. प्रमाणे प्रवर्तमानस्य विषुपस्य तिथि: स्यात् । तस्मिन्पविसे पनवशभ्यः प्रषिके सति तमेवरवा लम्भ पर्वणि मेलयेत् । प्रवशिष्ट तिपिप्रमाणं स्यात् ।। ४३७ ।। त्रिषुप में पत्र और तिथि प्राप्त करने के लिए सूत्र कहते हैं : गायार्थ :-दुगुणे विषुप में से एक अङ्क कम करके शेष को छह से गुणित करने पर पर्व का प्रमाण प्राप्त होता है, तया पर्व के प्रमाण को आधा करने से वर्तमान विषुप की तिथि संख्या प्राप्त होती है। [ यदि वह पर्व का आधा भाग १५ से अधिक हो तो उममें १५ का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसे पर्व मंख्या में जोड़ कर शेष को तिथि का प्रमाण समझना चाहिये ] ।। ४२॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ त्रिलोकसार पाषा : ४२८ विशेषार्थ :- जो विषुप इष्ट हो उसे दूना कर एक अङ्क कम करना, अवशेप में छह का गुणा करने पर पर्व संख्या प्राप्त होती है, तथा उसका आधा तिथि संख्या का प्रमाण है । जैसे :- प्रथम विषप इष्ट है । इसे दूना कर एक अङ्क कम करने पर (१४२-२-१)=१ अङ्क प्राप्त हुआ। इममें ६ का गुणा करने पर ( १x६) ६ ही माए और इसे आधा करने पर तीन प्राप्त हुए। यही प्रथम वि पुप के बीते हुए पदों की संख्या है, और प्रथम विषप तृतीया को होता है। द्वितीय :-५ व विषप इष्ट है । ५४२-१०- १=t: ६ =५४२-२७ - १५=१ लब्ध और १२ अवशेष। ५४+ १ = ५५ पांचवें विषुप के बोते हुये पों की संख्या और द्वादशी तिथि का प्रमाणा प्राप्त हो गया। अन्यत्र भी इसी प्रकार जानना । अथाव निविषपयोस्तिथिसंख्यामाह वेगपद छग्गुणं इगिनिजुदं आउटिइ सुपतिहिसंखा । विसमतिहीए किण्हो ममतिथिमाणो हवे सुक्को ।। ४२८ ।। ध्येकपदं पद्गुणं एकत्रियुतं आवृत्तिविषुपतिथिसंख्या । विषमतिथी कृष्णः समतिथिमानो भवेत् शुक्लः ।। ४२८ ।। वेगपत्र । एकहीनमातिपदं षभिगुणयिवा अभयत्र संस्थाप्य तस्मिन्नेकयुते पति परस्मिन् त्रियुते सति यथासंस्थमावृत्तिविषपयोस्तिथिसंश्या स्यात् । तयोर्मध्ये शिवमतियो सस्या कृष्णपक्ष: स्यात् । समतिथिप्रमाणे शुक्लपक्षो भवेत् ।। ४२८ ।। भावृत्ति और विषप में तिथि संख्या लाने का विधान गाथार्य :-एक कम आवृत्ति के पद को छह से मुणित करके उसमें एक अङ्क मिलाने पर आवृत्ति की तिथि संख्या और उसी लब्ध में तीन मिलाने से विषुप की तिथि संख्या का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। इनमें तिथि संस्पा के विषम होने पर कृष्ण पक्ष और सम होने पर शुक्ल पक्ष होता है ॥ ४२० ॥ विशेषार्ष:-जो विवक्षित छावृत्ति हो उसमें एक घटा कर लब्ध को छह से गुणा करके दो जगह स्थापन कर एक स्थान पर एक का अङ्क और दूसरे स्थान पर ३ जोड़ देने से क्रमश: आवृत्ति की तिथि संख्या और विषुप की तिथि संख्या प्राप्त हो जाती है। यदि लिथि संख्या विषम है तो कृष्ण पक्ष और सम है तो शुक्ल पक्ष समझना चाहिए । जैसे :- प्रथम आवृत्ति विवक्षित है, अतः १-१-०४६-०+१-१ तिथि अर्थात प्रथम आवृत्ति की प्रतिपदा तिथि है। यह तिथि संख्या विषम होने से कृष्ण पक्ष है । अर्थात् प्रथम झाब ति कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को हुई है। १-१= ४६=o+३=३ तिथि संग्या। यह तिथि संख्या विषम होने से कृष्ण पक्ष है। अर्थात् प्रथम बिएप कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को होगा। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिलोकाधिकार ३८५ गाया । ४२६ द्वितीय उदाहरण :- १० वीं आवृत्ति विवक्षित है, अतः ( १०- १ ) ६ + १ = ५५ + १५ ( ५५ राशि १५ से अधिक है, अतः १५ का भाग दिया ) = ३ लब्ध आया १० शेष रहे यही अवशेष १० दशवी आवृत्ति की दशमी तिथि है। तिथि संख्या है २० वीं शाति शुक्ल पक्ष की दशवीं तिथि को होगी । इसी प्रकार - ( १० – १ ) × ६ + ३५७÷१५ - ( ३ ) १२ अवशेष रहे और सम संख्या है, अतः १० व विधूप शुक्लपक्ष की द्वादशी तिथि को होगा। इसी प्रकार अभ्य आवृति एवं विषयों में तिथि एवं पक्ष का साधन कर लेना चाहिए । विषुपे नक्षत्राणां सर्वतिथीनां नानयनप्रकार माह- माउलिद्धरिक्खं दद्दजुद बदममगेगणं | इपे रिक्खा पण्णरगुणपच्चाजुदविही दिवसा || ४२६ || वृत्तिलक्षं दयुतं षष्ठाष्टदशमके एकोनं । विष ऋक्षारिण पश्चदश गुणवं युततिथयः दिवसानि ।। ४२ ।। भावट्टि प्रावृतो लग्नक्षत्रं वायुतं कृत्वा तत्र दशमावृती एकेनोनं चेत् विदुये नक्षत्रं स्यात् । पञ्चदशभिर्गुणितानि प्रावृत्तिविधुषयोः पर्यारण तसत्तिमियुतानि चेत् यथासंख्यमावृतिविषुषयोः समस्तदिनानि भवन्ति ॥ ४२६ ॥ विषय में नक्षत्रों की संख्या और सम्पूर्ण दिन प्राप्त करने का विधान : गाथार्थ :- आवृत्ति में जो नक्षत्र प्राप्त हो उसमें दश मिला कर छठवीं, आठवीं और दशवीं के आवृत्ति में एक अ कम कर देने पर विद्युप का नक्षत्र प्राप्त होता है, तथा आवृति एवं विषुप पर्वो के प्रमाण को पन्द्रह से गुणित कर लब्ध में अपनी अपनी तिथि का प्रमाण मिला देने पर क्रमशः वृत्ति और विधुपों के समस्त दिनों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है || ४२६ ।। विशेषार्थ :- जिस आवृत्ति का जो नक्षत्र प्राप्त हो उसमें दश मिलाने से उसी नम्बर के विषूप का नक्षत्र प्राप्त होता है, तथा छटवीं, आठवीं और दशवीं आवृत्तियों में जो जो नक्षत्र प्राप्त है, उनमें एक अंक कम अर्थात् मिलाने से ६ में, ८ वें और १० वें विष्पों के नक्षत्र क्रमशः प्राप्त होते हैं। आवृत्ति के पर्वों में १५ का गुणा कर उसी आवृत्ति की तिथि संख्या जोड़ने से युग के प्रारम्भ से विवक्षित आवृति तक के समस्त दिनों की संख्या प्राप्त होती है। क्वों को १५ प्राप्त शे से गुणित करा तिथि संख्या जोड़ने से विषुप के समस्त जाता है । इसी प्रकार विषय के दिनों का प्रमाण उदाहरण १ :- प्रथम आवृत्ति का २० वौ अभिजित नक्षत्र है। इसमें १० मिलाने से २० + १० = ३० अर्थात् प्रथम विधूप का २ रा रोहणी नक्षत्र प्राप्त हुआ। इसी प्रकार २ री प्रावृत्ति ४९ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ त्रिलोकसार गाथा ४३१ का नक्षत्र हस्त ११ है + १० = २२ हुए अत: दूसरे विधूप का धनिष्ठा नक्षत्र प्राप्त होता है । उदाहरण २९-६ वी आवृत्ति का पुष्य नक्षत्र ६ + ( १०- १ ) = १५ व अनुराधा नक्षत्र ६ व विपूप का नक्षत्र है । इमी प्रकार १० वीं आवृत्ति का कृतिका नक्षत्र ला+ ( १०–१ } = १० व उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र १० वं विष का प्राप्त हुआ। उदाहरण ३ :- २ री आवृत्ति की पत्र संख्या २४१५ = ३६० + १३ तिथि ३७३ दिन हुए । अर्थात् युग के प्रारम्भ से ३७३ वें दिन दूसरी आवृत्ति हुई । ܝ उदाहरण ४ :- सातवें दिन की पर्व संख्या ८०x१५ = १२०० + ६ तिथि १२०६ दिन हुए। अर्थात् युग के प्रारम्भ में १२०९ दिन बाद सात त्रिषुप हुआ है । विषूपे नक्षत्रानयनं प्रकारान्तरेण गाथाद्वयेनाह - भट्टिक्खिम सिणिहुदीदो गणिय तत्थ अजुदे । सुहोति किया गया किचिदीदो ॥ ९३० ॥ आवृत्ति ऋक्षं अश्विनी प्रभृतितः गणयित्वा तत्र अष्टयुते । विषुषेषु भवन्ति ऋक्षारिण इह गणना कृत्तिका दितः || ४३० ॥ प्रावृतिनक्षत्रमश्विनी प्रभृतितः गमिखा तत्र प्रवृते सति विदुषेषु नक्षत्राणि उट्टि भवन्ति । इह लब्धे गणनां कृत्तिकावितः कुर्यात् धष्टयुसराशिधिकश्चेत ॥ ४३० ॥ विषय में नक्षत्र प्राप्ति प्रकारान्तर से दो गाथाओं द्वारा कहते हैं। : गाथार्थ :- आवृत्ति के नक्षत्र को अश्विनी नक्षत्र से गिनकर उसमें जोड़ देने पर ओ लब्ध प्राप्त हो, उसे कृतिका से गिनना । वही विषुप का नक्षत्र होगा ।। ४३० १३ विशेषार्थ :- विवक्षित आवृत्ति के नक्षत्र को अश्विनी नक्षत्र से गिने, जो संख्या प्राप्त हो उसमें मिला कर कृतिका नक्षत्र से गिनने पर विषय का उसी नम्बर का नक्षत्र जैसे :- वित्रक्षित आवृत्ति तीसरी है। इसका मृगशीर्षा नक्षत्र है, जो अश्विनी से है +८ = १३ हुए । कृतिका नक्षत्र से १३ व नक्षत्र स्वाति है, अतः तीसरे विषूप का प्राप्त हो गया। यदि आवृत्ति नक्षत्र के प्रमाण में मिलाने पर लब्धराशि नक्षत्र मास ( २८ ) अधिक हो जावे तो क्या करना ? उसे आगे गाथा में कहते हैं । प्राप्त होता है । गिनने पर ५ व स्वाति नक्षत्र ८ अहियंकादडवीमं दंडेजो विदियपंचमडाणे । एक्कं ffers aट्टे दशमेविय एकमवणिजो || ४३१ || अधिकाङ्कादष्ट्रविणं स्याज्याः द्वितीयस्थाने एक निमि पष्ठे दशमेपि च एकमपतेयम् ।। ४३१ ।। 1 : Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा : ४३१ ज्योतिर्लोकाधिकार ३७ प्राहियं । प्रषिकासावविशतिस्त्यापा। द्वितीयपञ्चमात्तिस्थाने एक मिक्षिप षष्ठे वशमेऽपि चावृतिस्पामे एकमपनेयं ॥ ४३१ ॥ मायार्थ :-गुणनफल फे अधिक अङ्कों में से २८ घटा कर, दूमरी और गांचवी आवृत्ति के गुणनफल में एक एक जोड़ कर, तथा छठवीं और दश वी आवृत्ति के गुणनफल में में एक एक घटाकर विपुपों के नक्षत्रों को प्राप्त करना चाहिये । ४३१ ।। विशेषार्ष:-विवक्षित आवृत्ति के नक्षत्र की अश्विनी से गिनने पर जो लमध प्राप्त हो उसमें ८ मिलाने पर यह पानफल से मध प्राप्त होता है, तो उसमें से २८ घटा कर शेषांकों को कृलिका नक्षत्र से गिनना चाहिए। जो नक्षत्र प्राप्त हो, वही विषुप का नक्षत्र होगा। जमे :- विवक्षित आवृत्ति चौथी है। इसका नक्षत्र शतभिषा है, जो अश्विनी से गिनने पर २५ वो है.+८= ३३-२८-५। कृतिका नक्षत्र से पांचवौ नक्षत्र पुनर्वसु है. अतः यही चतुर्थ विषुप का नक्षत्र है। अन्यथ भी ऐसा हो जानना । दुसरी और पांचवीं आवृत्ति के नक्षत्रों को अश्विनी से गिनने पर भी जो ध प्राप्त हो उसमें = जोड़कर, एक एक अङ्क और जोड़ कर कृतिका नक्षत्र मे गिनना । जो नक्षत्र प्राप्त हों वही दूसरे और पांचवें विषुप के नक्षत्र होंगे। जैसे -दूसरी आवृत्ति में हस्त नक्षत्र है, जो अश्विनी से , १३ वा है+5 = २१ + १-२२ हुए कृतिका नक्षत्र से २२ वा नक्षत्र धनिष्ठा है, और यही दूसरे विषुप का नक्षत्र है । इसी प्रकार ५ वें स्थान में जानना चाहिये । छठवीं और दशवी आवृत्ति के नक्षत्रों को अश्विनी मे गिनने पर जो जो लब्ध प्राप्त हो उममें ८ जोड़कर लब्ध में में एफ एक अङ्क घटा देने पर ओ जो अवशेष रहे. जसे कृतिका नक्षत्र से गिनने पर जो जो नक्षत्र प्राप्त हों वही छठवें और दश विपुप के नक्षत्र हैं। जैसे :- छठवी आवृत्ति में पुष्य नक्षत्र है, जो अश्विनी से ८ वा है,+८= १६-१-१५ हए । कृतिका नक्षत्र मे १५ वाँ नक्षत्र अनुगधा है, और यही छठवं विषुप का नक्षत्र है। इसी प्रकार १० स्थान में जानना चाहिए । यथा-- New निना IATMI :/ / Ltd.:. ran-r Raaz पाना.. Meer कान Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ त्रिलोकसार पाषा:४३२ से ४३५ गायाद्वयेन नक्षसंज्ञामाह-- कित्तियरोहिणिमियसिर मद्दपुणवस्सुसपुस्सअसिलेम्सा । मह पुन्बुत्तर हत्था चिचा सादी विसाह अणुराहा ।। ४३२ ।। जेट्ठा मूल पुयुत्तर आमाढा अभिजिमवणसणिट्ठा । नो सद मिसपुन्युचरभदपदा वदस्सिणी भरणी ।। ४३३ ॥ कृत्तिका रोहिणी मृगोषी आर्द्रा पुनवं सुः सपुष्यः आश्लपा। मघा पूर्वा उत्तरा हस्त: चित्रा स्वातिः विशाखा अनुराधा ॥ ४३२ ।। ज्येष्ठा मुलं पूर्वतिरो आषाही अभिजित् श्रवणः सघनिष्ठा । ततः शतभिपा पूर्वोत्तरभाद्रपदा रेवतो अश्विनी भरणो ।। ४३३ ।। कित्तिय । कृतिका रोहिणी मृगशीर्षा मा पुनर्गसु पुष्यः प्राश्लेषा मघा पूर्वाः उत्तरराः हस्त: वित्रा स्मातिः विशाखा अनुराधा ॥ ४३२ ॥ जेट्टा मूल । ज्येष्ठा मूले पूर्वाषाढ; उत्तराषाद: मभिनित श्रवण: धनिष्ठा तसः शतभिषक पूर्वाभावपना उत्तराभावपवा रेवती मश्विनी भररिंगः ।। ४३३ ॥ . दो गायाओं में नक्षत्रों के नाम कहते हैं ___ पापा :-१ कृतिका, २ रोहिणी, ३ मृगशीष , ४ मार्दा, ५ पुनर्वसु, ६ पुष्य, ७ आश्वं पा, ५ मधा, ६ पूर्वाफाल्गुनी, १. उत्तराफाल्गुनी, ११ हल. १२. चित्रा, १३ स्वाति, १४ विशाखा, १५ अनुराधा, १६ ज्येष्ठा, १७ मूल, १८ पूर्वाषाढा, १९ उत्तराषाढा, २० अभिजित, २१ श्रवण, २९ धनिष्ठा, २३ शवभिषा, २४ पूर्वाभाद्रपद, २५ उत्तराभाद्रपद, २६ रेवनी, २७ अश्विनी, २८ भरणी ।। ४३२-४३३ ।। नक्षत्राणामधिदेवता माथाद्वयेनाह मगि पयावदि सोमोरुदो दिति देवमंति सप्पो य । पिभगमरियमदिणयरतोट्टणिलिंद गिमिचिंदा ।। ४३४ ॥ तो रिदि जल विस्म्रो बझा विण्डा पसू य. वरुण अजा । अहिवडि पूसण अस्सा जमो वि अहिदेवदा कमसो ।। ४३५ ।। अग्निः प्रजापतिः सोमः रुद्रः अदितिः देवमंत्री सर्पश्च । पिनाभगः अर्थमा दिनकरः त्वष्टा अनिलेन्द्राग्निमित्रन्द्राः ।। ४३४ ।। ततः नैऋतिः जलः विश्वः ब्रह्मा विष्णुः वसुश्च वरुणः अजः। मभिवद्धिः पूषा मश्वः यमोऽपि अधिदेवताः क्रमशः 11 ४३५ ।। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया ।।३६ म्योतिर्लोकाधिकार ३८ अग्गि। अगिमः प्रजापतिः सोमो जोऽवितिः देवमंत्री सर्पश्च पितामाः । प्रर्यमा धिमकर: स्वा प्रनिल इन्द्राग्निः मित्रः इन्द्रः ( १६) ॥ ४३४ ॥ अहिबाहिन्छ । ततो नेति: जलो विश्वो ब्रह्मा विष्णुः वसुश्च वतरणः ममः अभिवृद्धिः पूषा अश्व: यमोप्यते ( १२ 1 कृतिकावीना मषिवेषता: क्रमशः ॥ ४३५॥ वो गाथाओं में नक्षत्रों के अधिदेवता ( स्वामी ) कहते हैं गाथा:-१ अग्नि, २ रजापति, ३ सोम, ४ रुद्र, ५ अदिति, ६ देवमंत्री, ७ सर्प, 5 पिता, { भग, १• अर्थमा, १ दिनकर, १२३वष्टा, १५ अनिल, १४ इन्द्राग्नि, १५ मित्र, १६ इन्द्र, १७ ने ऋति, १८ जल, १६ विश्व , २. ब्रह्मा, २१ विष्णु, २२ वसु, २३ बरुण, २अज, २५ मभिव द्धि, २६ पूषा. २७ अश्व और २८ यम, ये कृतिका आदि नक्षत्रों के क्रमानुसार अधिदेवता हैं । अर्थात् जो नक्षत्र रूप ताराओं के स्वामी हैं उनके नाम हैं ।। ४३४, ४३५ ॥ विशेषाय : | # नक्षत्र नक्षत्र क्रमांक क्रमांक नक्षत्र # | फाल्गुनो नक्षत्र , स्वामी । नक्षत्र स्वामी नक्षत्र | स्वामी नक्षत्र । स्वामी कृतिका | अग्नि ८ मधा ! पिता |१५| अनुराधा मित्र ,२२धनिष्ठा | वसु रोहणी | प्रजापति | ९| पूर्वा- ____भग १६ ज्येष्ठा . इन्द्र २३ शतभिषा | वरुण मृगशीर्पा मोम (चन्द्र) १.' उत्तरा- अर्थमा :१७ मूल नैऋति २४ पूर्वाभाद्र० बज | फाल्गुनी आ । रुद्र ११ हस्त | दिनकर | पूर्वापाका जल २५ उत्तराभाद्र.' अभिवृद्धि ५ पुनर्वसु आदिति- १२, चित्रा 'सष्टा १९ उत्तराषाढ़ा विश्व २६ रेवती पूषा ६ पुष्य देवमन्त्री १३| स्वाति । अनिल २० अभिजित , ब्रह्मा २७ अश्वनी | अश्व ७ आश्लेषा, सपं १४ विशाखा | इन्द्राग्नि २५ श्रवण | विष्णु २८ भरणी : यम नक्षत्राणां स्थितिविशेषविधानमाह कितियपतिसमये अट्ठम पधारक्खमेदि ममण्ई । अणुराहारिक्खुद नो एवं सेसे वि भासिओ ॥ १३६ ।। कृत्तिकापतनसमये अष्टम मघाऋशं एनि मध्याह्नम् । अनुराधाऋक्षोदयः एव शेषेषु अपि भाषणीयम् ॥ ४३६ ।। कित्तिय । कृतिकापसमलमयेऽस्तसमये इत्यर्थः । तस्याम बघा मध्यामेति तस्या Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० त्रिलोकसार पाथा । ४३७ मघाषाः सकाशात् अष्टममनुराधा नक्षत्रमुदयमेति । एवं शेधेषु रोहिण्याविषु मस्तमितनक्षत्रानक्षत्रं मध्याह्नमेति । तस्मावष्टमं नक्षत्र मुखयमेसीति भाषरपीयम् ॥ ४३६ ।। नक्षत्रों की स्थितिविशेष का विधान कहते हैं - पापा : - कृतिका नक्षत्र के पनन अर्थात् अस्त होने के समय में उसका आठवां मघा नक्षत्र मध्याह्न काल की प्राप्त होता है तथा मघा से आठवाँ अनुराधा नक्षत्र उदय को प्राप्त होता है। इसी क्रम की योजना शेष नक्षत्रों के विषय में भी करनी चाहिए ॥ ४३६ ॥ विशेषार्थ :- कृतिका नक्षत्र के पतन अर्थात् अस होने के समय में कृतिका से आठवा मधा नक्षत्र मध्याह्न को और मघा से आठवीं अनुराधा उदय को प्राप्त होता है। इसी प्रकार दोष रोहणी आदि में अस्त नक्षत्र से आठवां मध्याह्न में और इससे आठवा उदय को प्राप्त होता है, ऐसा कहना चाहिये। वैसे जब रोहणी का अहल तत्र पूर्वाफाल्गुनी का मध्याह्न और ज्येष्ठा का उदय होता है। ㄨ मृगशिरा उत्तराफाल्गुनी น W " " " मूल पूर्वाषाढ़ा P पुनर्वसु " उत्तराषाढ़ा होता है । इत्यादि चन्द्रस्य पञ्चदशमार्गेषु अस्मिन्नस्मिन्मार्गे एतान्येतानि नक्षत्राणि तिष्ठन्तीति गाथायेाह * आर्द्रा " מ 31 得 พ " हस्त D " चित्रा 4 " · "D R 13 33 मणिव सादितरो य चंदभ्स पढममादि । तदिए मघापुणन्वसु सचभिए रोहिणी चित्ता ।। ४३७ ॥ अभिजनव स्वातिः पूर्वोत्तरा च चन्द्रस्य प्रथममार्गे । तृतीये मषापुनर्वसू सप्तमे रोहिणी चित्रा ।। ४३७ || 195 प्रभिमिरण। प्रभिजियानि नवस्वातिः पूर्वा उत्तर १२ चास्य प्रथममार्गोपरितनप्रदेशे चरन्ति । तृतीये मार्गे मघापुनर्वसू चरतः । समे मार्ग रोहिणी चित्रा च चरतः ।। ४३७ ।। चन्द्रमा के पन्द्रह मागों में से किस किस मार्ग में कौन कौन नक्षत्र स्थित हैं उन्हें तीन गाथाओं में कहते हैं : गावार्थ :-- अभिजित आदि, स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी से बारह नक्षत्र चन्द्रमा के प्रथम मार्ग में सवार करते हैं । मधा और पुनर्वसु तृतीय मार्ग में तथा रोहिणी और चित्रा सातवीं वीथी में सवार करते हैं ।। ४३७ ।। विशेषार्थ :- अभिजित् आदि नव, स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र चन्द्रमा की प्रथम वीथी के ऊपर जो परिधि है उसमें पधा और पुनर्वसु तीसरी बीथो में तथा रोहिणी और चित्रा सातवी वोथी में सवार करते हैं। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४३८-४३९ क्योतिर्लोकाधिकार बढमदसमे यारसमे कित्तिय विसाह अणुराहा । जेट्ठा कमेण सेसा पपणारममम्हि अठेव ।। ४३८ ।। हत्थं मूलतियं विय मियसिग्दगपुस्सदोणि अद्वैव । अट्ठपहे णक्खता तिटठंति हु चारसादीया ।। ४३९ ।। षष्ठाष्टपदकादश कृतिका विशाखा अनुराधा । ज्येष्ठा कमेण शेषाणि पञ्चदशे अष्टव ॥ ४३८ । हस्त: मूल श्रय अपि मृगशीर्षद्विक पुष्यद्वयं अष्टे व । अनुपये नक्षत्राणि तिष्यन्ति हि द्वादशादीनि ।। ४३६ ।। छट्टमासमे । षष्ठमवश मैकादशे मार्ग कृत्तिका, विशाखा, अनुराधा, क्येा कमेण पान्ति। शेषाण्यष्टव नक्षत्राणि पञ्चदशे मार्गे चरम्ति ॥ ४३८ ॥ हत्यं मूल । हस्सः मूलश्यं मूलपूर्वाषाढोत्तराषामित्ययः। मृगशीर्षादिक मृगशोषनित्यः । पुष्यवपं पुष्पाश्लेषेत्यर्थः । स्पष्टेष एतानि नक्षत्रारिंग प्रथमाविषथेषु छाववादीनि प्रष्टसु पथेषु तिष्ठन्ति ॥ ४३६ ॥ गायार्थ :-छटो, आठवे वसमें और ग्यारहव मार्ग में क्रमशः कृतिका, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्र भ्रमण करते हैं। गेप हस्त, मूलत्रय ( मूल, पूर्वापाका उत्तराषाढ़ा) मृगशीर्ष द्विय ( मृगशीप, आर्द्रा) और पुष्पद्य ( पुष्य और आश्लेषा ) ये आठ नक्षत्र चन्द्रमा की अन्तिम १५ वीं श्रीथी में सवार करते हैं। इस प्रकार बारह आदि नक्षत्रों को मादि करके चन्द्रमा की पन्द्रह वीथियों में से आठ बीथियों के ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्र स्थित हैं ।। ४३८. ४३६ ॥ विशेषार्प:-चन्द्रमा को १५ गलियां हैं। उनके मध्य में २८ नक्षत्रों की - ही गलिया है। उनमें निम्नलिखित नक्षत्र सञ्चार करते हैं। (१) चन्द्र की प्रथम पोथी में – अभिजित, श्रवण, धनिष्ठा. शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी, स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी गे १२ नक्षत्र, (२) तृतीय वीथी में पुनवंसु और मघा. ( ३ ) छठवीं बीथो में कृतिका, (४) सातवीं में रोषणी तथा चित्रा, (५) आठवीं में विशाना, (६) दरावीं में अनुराधा, (७) ग्यारहवीं में ज्येष्ठा और (८) १५ वीं ( अन्तिम ) बोधों में हस्त, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, मृगशीर्षा, बादा, पुष्प तथा आश्लेषा ये माद नक्षत्र सञ्चार करते है। यथा: । कृपया चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ त्रिलोकसा وا شو 31.11 А गाया : ४४०-४४१ सभी नक्षत्र अपनी अपनी वीथियों में ही भ्रमण करते हैं । चन्द्र सूर्य के सह अन्य अभ्य वीथियों में भ्रमण नहीं करते । नक्षत्राणां तारासंख्य गाथाद्वयेनाह किलिय पहुदिसु तारा ऋण तियएक्क छचि चक्क चऊ । दोदो पंचकेक्कं च वचियणवच उक्क चऊ ॥ ४४० ॥ तिय तिय पंचकाराहियस्य दो दो कमेण पचीसा | पंच य तिष्णि य तारा अट्ठावीसाण रिक्खाणं ॥ ४४१ ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४४२ से ४४४ ज्योतिर्लोकाधिकार कृतिकाप्रभृतिषु ताराः षट् मंत्र तिस्रः एकाषट् त्रिषट्कचतुः । पंच एका चतुषट् त्रिकनव चतुष्काः चतस्रः ॥ ४४० ।। तिस्रः तिस्रः पचकादशधिकशतं मे द्वात्रिषत् । पञ्च च तिस्रः च तारा अष्टाविशानां ऋक्षाणाम् ।। ४४१ ।। किलिय । कृतिका प्रमृतिषु ताराः षट् पञ्च तिस्र एका षट् तिल: घट्काः चतस्र े प एकंका चतस्रः पट् तिस्रः नव चतुष्काश्वतत्रः ॥ ४४० ॥ L लिय लिय । तिस्रस्तिस्रः पञ्चैकादशाधिकशतं द्वे द्व े ब्राशित् पञ्च तिस्रः इत्येताराः क्रमेणाविशतिनक्षत्राणां भवन्ति ॥ ४४१ ॥ दो गाथाओं द्वारा प्रत्येक नक्षत्र के ताराओं की संख्या कहते हैं। -- ३५.३ गाभार्थ :- कृतिका आदि २८ नात्रों के ताराओं की संख्या क्रमशः छ, पाँच, तीन, एक, छह, लौन, छह, चार, दो, दो पाँच, एक, एक, चार, छह, तीन, नौ, चार, चार, तीन तीन, पाँच, एक सौ ग्यारह दो, दो, बत्तीस, पांच और तोन है ।। ४४०, ४४१ ।। लासां ताराणामाकारविशेषं गाथात्रयेणाह - ५० लुडी यसरी य नोर छ । होते विसरजुगत्युपले दी || ४४२ ।। व्यधियर वरारे वीणासिंगे य विच्क्रिए सरिसा । दुक्कवादीहरिगजकुमे मुरवे पतं तपखी ।। ४४३ ।। सेणागयपूवावरगणाना इस सिरसरिमा चुलीपासाणणिभा कित्तिय आदीणि रिक्खाणि ।। ४४४ ॥ बीज नकटोद्धिका मृगशिरदोपे च तोरणे छत्रे । aoमीकगोमूत्रे अपि शरयुग हस्तोत्पले दीपे ।। ४४२ ।। अधिकरणे वरहारे वीणाशृङ्ग े च वृश्चिकेन सदृशाः । दुष्कृतवापीहरिगजकुम्भेन मुरजेन पतत्परिणा ॥ ४४३ ।। नागपूरगात्रे नावा हयस्य शिरसा सहायः । चुल्लीपाषाणनिभाः कृत्तिकादीनि ऋणा ॥ ४४४ ॥ दीपा योजननिभा कटोद्धिकामिभा मृगशिरोनिमा दोनिमा तोरनिमा छत्रनिभा वल्मीकनिभा गोमूत्रनिभा सरयुगनिने हस्तनिभा उत्पलनिया वो निभा ।। ४४२ ।। प्रमियर । प्रविकरण निभा परहारनिभा बोलावङ्गनिभा वृश्चिकसटशा दुःकृतथापीनिभा हरिकुम्भतिमा राजकुम्भनिभा मुरजमिभा पसत्यक्षिनिभा ॥ ४४३ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ क्रमांक । गाथा : ४४२ से ४४४ सेरणाय । सेनातिभा गजपूर्षगाथमिमा गजापरगात्रनिभा नावानिभा हमस्य शिरः सदृशा चुल्लीपाषाणनिभातारा: कृत्तिकादीनि नक्षत्राणि भवन्ति ।। ४४४ ॥ उन ताराओं के आकार विशेष को तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं : गावार्थ: कृतिका आदि नक्षत्रों की उपयुक्त ताराएं कमसे वीजना सदृश गाड़ी की उद्धिका सहश, मृग के शिर सहया, दीपक, तोरणा, छत्र वल्मीक ( बॉबी ) गोमूत्र, गर ( वारण ), युग, हाथ, उत्पल (नील कमल ), दीप, अधिकरण, बरहार, बीणाशृङ्ग, वृश्चिक ( बिच्छू ) दुष्कृतवापी, सिंह कुम्भ, राज कुम्भ, सुरज मृदङ्ग ) गिरते हुए पक्षी, सेना, हाथी के पूर्व शरीर, हाथी के उत्तर शरीर, नाव, अश्व के शिर और चुल्हे के पत्थर सदृश व्याकार वाली होती हैं । ४४२, ४४३, ४४४ विशेषार्थ :- कृतिका आदि २८ नक्षत्रों के ताराओं की संख्या और उन ताराओं के आकार का निरूपण (२+३) पाँच गाथाओं द्वारा किया गया है। इन पांचों गाथाओं का विशेषार्थं निम्न प्रकार है नक्षत्र : कृतिका २ रोहणी ३] मृगशीर्षा आर्द्रा ५ पुनर्वसु ६ पुष्य ७. आश्लेषा ११ हस्त चित्रा १२ १३ स्वाति १४ तारामों को संख्या ६ नारा विशाला ५. ३ ६ ५ द मघा ४ ९ पूर्वा फाल्गुनी २ १० उत्तरा " २ " w १ 17 ४ " 中 " " त्रिलोकसार 99 ね ताराओं के आकार ज्ञ * क्रमांक बीजना सदृश गाड़ी की उद्धिका | १६ " वल्मीक (बांबी) ११ गोमुत्र " शर (वाण) [१५ अनुराधा ज्येष्ठा मृग के शिय सदृश १७ दीपक सहश १८ पूर्वाषाढा तोरण 09 नक्षत्र १९. उत्तराषाढा २० अभिजित् श्रवण सहय २२ घनिष्ठा युग हाथ " उत्पल (नील कमल २६ रेवती दीप सदृश ६७ अश्विनी अधिकरण सदृश २८ भरखी मूळ २३ शतभिषा २४ पूर्वाभाव० → २५ उत्तराभाद्र• ताराओ की संख्या ६ | ३ | ९ ४ ४ ३ ५ ११९ २ २ ३२ ५ ३ ताराओं के आकार विर (उत्कृष्ट) हार सहश वीरशृङ्ग सहग वृश्चिकः दुष्कृत वापो महश सिंह कुम्भ गज कुम्भ मुरज ( मृदङ्ग) गिरते हुए पक्षी सैन्य ( सेना ) हाथी के पूर्व शरीर सहा P 50 " Th " उत्तर " # नाव अश्व के शिर सहश चूल्हे के पत्थर Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४४५-१४६ मोतिलोकाधिकार कृत्तिकादीनो परिवारलारा आह - एक्कारमयसहस्सं सगमगतारापमाणसंगुणिदं । परिवारतारसंखा किचियणक्खचपहृदीर्ण ।। ४४५ ।। एकादशशतसहन स्वकस्वकनाराप्रमाणसंगुणितम् । परिवारतारासंख्या कृत्तिकानपात्रप्रभृतीनाम् ।।४४५ ॥ एकारसय । एकादशीसरताधिकसहनं १११ स्वकीयस्वकीयताराप्रमाणसंगुणितं बेव कसिकानक्षत्रप्रभृतीनो परिवारतारासंख्याप्रमाणं याद ॥ ४४५ ।। कृतिका आदि नक्षत्रों की परिवार ताराएं कहते हैं :--- गाथा :-एक हजार एक सौ ग्यारह को अपने अपने ताराओं के प्रमाण से गुणित करने पर कृतिका आदि नक्षत्रों के परिवार ताराओं का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ४४५ ।। वियोषार्थ:-१९११ को अपने अपने ताराओं के प्रमाण से गुणर करने पर परिवार ताराओं का प्रमाण प्राप्त होता है। जैसे परिवार ताराओं | नक्षत्र परिवार ताराओं | । परिवार ताराओं नक्षत्र की संख्या संख्या परिवार तारामों की सख्या संख्या 10 २२२१ १२२१ कृ०११११x६६६६६ मघा ११११४४४४४४ अनु० ११११x६-६६६६ धनि० ११११४५= रो०११११४५= ५५५५ फो० ११५१४ २-२२२२ ज्येष्ठा ११५१४३-३३३३ शत० १११११११ मृग०११११ ४ ३ ३३३३ उ फा. १९११४२ =२२२२ मूल १९९१४१=९९९९ पू.भा. ११११४२= १२३३२१ अ११११ x १=११११ हस्त ११११४५=५५५५ पू.षा. ११११४४=४४४४ उ.भा. ११११४२= पुन०११११४६= ६६६६ चित्रा ११११४१११११ उ.षा ११११४४=४४४४ रेवती ११११४३२= पुष्या११११४३- ३३३३ स्वाति ११११४ १=११११ अभि. ११११४५३३३३ अश्वि. १९११४५= मा०५५११४६=६६६६ |विशा.११११४४= ४४४४ श्रव० ११११४३- ३३३३ भरणी १९११४३ । । ३३३३ पञ्चप्रकाराणां ज्योतिष्कदेवानामायुः प्रमाणामाइ इंदिणसुक्कगुरिदरे लक्खसहस्सा सयं च सहपल्लं । पन्लं दलंतु तारे घरावरं पादपाद || ४४६॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ त्रिलोकसार गाथा:४४७-४४० इन्द्विनशुल्कवितरेषु लक्षं सहस्र' शतं च महपल्यं । पल्यं दक तु, तारासु वरमवर पादपायाभ ॥ ४४६ ।। दिए। यो इने शुक्रे गुणे इतस्मिन्बुधमङ्गलशम्यायो यथासं लक्षवर्षसहितपल्य सहावर्षसहितपल्यं शतवर्षसहितपल्यं एकपल्यं प्रबंपल्यं तारकाणा नक्षत्राणां - बराबरमापुः पाबपावाब पल्यचतुर्भागः पल्पामभाग इस्पर्णः ॥ ४४६ ॥ पांच प्रकार के ज्योतिपीदेवों की आयु का प्रमाण कहते है : गायार्ग :-चन्द्र, सूर्य, शुक्र, गुम एवं अन्य ग्रहों की मायु क्रम से एक लाख व सहित एक पल्य. हजार वर्ष सहित एक पल्य, सौ वर्ष सहित एक पल्य, एक पल्य और पाषा माधा पत्य है, ताराओं (और नक्षत्रों ) को उत्कृष्टायु पाव पल्य और जघन्यायु पल्य के आठवें भाग प्रमाण है।॥ ४४६॥ विशेषार्ष:-चन्द्रमा की उत्कृष्टायु एक पत्य और एक लाख वर्ण, सूर्य की एक पल्य और एक हजार वर्ष, शुक्र की एक पल्प और १०० वर्ष, गुरु को एक पल्य, बुध, मङ्गल और पानिश्वरादि की उत्कृष्टायु आधा बाधा पस्य है 1 ताराओं एवं नक्षत्रों की उत्कृष्टायु पार 11पल्प और जघन्यायु ३ पल्य प्रमाण है । सूर्यादिकों की जघन्यायु पल्य ( जम्बूद्वीप प० पृ. २३३ चन्द्रादित्ययोर्देवीथाहयेनाह चन्दामा य सुपीमा पहंकरा मनिचमालिगी चंदे । घरे दुदि पुरपहा पहंकरा मच्चिमालिगी देवी ।। ४४७ ॥ चन्द्राभा च सुसीमा प्रमरा अचिमालिनी चन्द्रे । सूर्ये द्य तिः सूर्यप्रभा प्रभङ्करा अत्रिमालिनी देव्यः ।।४४७॥ पन्नाभा । चनामा व मुसीमा प्रभङ्गए। परिमालिनीति चतस्रश्चनपट्टोम्यः । सूर्य पुनः युतिः सूर्यप्रभा प्रभङ्करा मनिमालिनोति पट्टवेव्यः ।। ४४७ ।। दो गाथाओं द्वारा चन्द्रसूर्य की देवाङ्गनाओं का उल्लेख करते हैं गापा :-चन्द्राभा, सुसीमा, प्रभङ्करा और अचिमालिनी ये चारों, चन्द्र की पट्टदेविमा हैं। धति, सूर्यप्रमा, प्रभङ्करा और अचिमालिनी ये चारों, सूर्य को पट्टदेविया है ।। ४४७ ।। विशेषार्थ:-सरल है। जेठा तामो पुह पूह परिवारचगुस्सहस्सदेवीणं | परिवारदेविसरिसं पचयमिमा विउव्वंति ।। ४४८ ।। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबा । ४४८-४४६-४५० ज्योतिकाधिकार ज्येष्ठाः ताः पृथक् पृथक् परिवारचतुः सहस्र देवीनाम् । परिवारदेवीसह प्रत्येक मिमाः विकृर्वन्ति ॥ ४४८ ॥ ३९७ जे ताम्रो पृथक् पृथक् परिवारचतुः सहलदेवीर्ना ता देण्यो ज्येष्ठा इमाः। परिवारदेवी सहा संख्या प्रत्येकं विकुर्वन्ति ॥ ४४८ ॥ गाथार्थ :- उन ज्येष्ठ ( पट्ट) देवागनाओं की पृथक् पृथक् चार चार हजार परिवारदेवियाँ होती हैं। ये प्रमुख देवियाँ अपनी अपनी परिवार देवियों के प्रमाण (४००० ) ही विक्रिया करती है ॥ ४४८ ॥ विशेषार्थ :- चन्द्र सूर्य की उन प्रमुख देवांगनाओं के पास चार चार हजार परिवारदेवियाँ है और ये मुख्य देवियाँ चार चार हजार ही विक्रिया करती हैं। ज्योतिष्क देवीनामायुः प्रमाणमशह जोड़ सदेवाऊ सगसगदेवाणमयं होदि । सम्वणिगिट्ठसुराणां बचीसा होंति देवी भो ।। ४४९ ।। ज्योतिष्कदेवीनामायुः स्त्रस्त्रक देवानामर्थं भवति । सर्वनिकृष्टसुरायां द्वात्रिंशत् भवन्ति देव्यः ॥ ४४६ ॥ जोइस | ज्योतिष्कदेवोनामायुः स्वकीयस्वकीयदेवानामर्द्ध भवति । मत्र सर्वनिकृष्टसुराण शिष्यो भवन्ति । मध्ये यथायोग्यं वैषीसंख्या अवगतष्यः ॥ ४४ ॥ ज्योतिष्क देवाङ्गनाओं की आयु का प्रमाण कहते है : गावार्थ :-- ज्योतिष्क देवियों की आयु अपने अपने देवों को मायु के अघं भाग प्रमाण होती है । सर्व निकृष्ट देवों के बत्तीस ही देवियों होती हैं ॥। ४४६ ।। विशेषार्थ :- ज्योतिष्क देवांगनाओं की आयु अपने अपने ( भर्तार ) देवों की आयु प्रभागा होती है । सर्व निकृष्ट अर्थात् होन पुण्य वाले देवों के बत्तीस ही देवियों होती है। देवांगनाओं की संख्या यथा योग्य जानना चाहिए। अथ भवनत्रये उत्पद्यमानजीवानाह के अर्धभाग मध्य में उम्माचारि मणिदाणणलादिमुद्दा अकाम णिज्जरिणो । हृदवा सबलवरिया भणत्तिय जंति ते जीवा ॥। ४५० ।। उम्मार्गचारिणः सनिदाना: अनलादिमृता अकामनिर्जरिया: । कुतपसः शबलचारित्रा भवनत्रये याति ते जीवाः ।। ४५ ।। उम्मग्मचारि। उन्मार्गचारिणः सनिवाला बनलाविमृता एकामनिर्जरिणः कुतपसः शबलचारित्राये ते जीवा भवमत्रये यान्ति ॥ ४५० ॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार भवनत्रयमें जन्म लेने वाले जीवों को कहते हैं : पापार्थ:- उन्मार्ग का आचरण करने वाले, निदान सहित तप आदि करने वाले, जल, अग्नि आदि से मरने वाले, अकाम निर्जरा करने वाले, खोटा तपश्चरण और सदोष चारित्र पालन करने वाले जीव भवनत्रय में जन्म लेते हैं । ४५० ॥ ३६८ -: गाथा : ५५० विशेषार्थ :- जनमत से विपरीत धर्म का आवरण, निदान पूर्वक तप अग्निजल आदि से मरण, अकामनिर्जरा, पचाग्नि आदि तप और सदोष चारित्र को धारण करने वाले जीव भवनत्रय में जन्म लेते हैं । इति श्री नेमिचन्द्राचार्य विरचिते त्रिलोक सारे ज्योतिलोंकाऽधिकारः || ४ || इति श्री नेमिचन्द्राचार्य विरचित त्रिलोकसार में चौथा ज्योतिर्लोकाधिकार समाप्त हुआ । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ वैमानिक लोकाधिकारः अथानुकमे रवी मानिकलोकं व्यावयितुकामस्ताव द्विमान संख्या प्रतिपादनार्थं तेष्ववस्थितानामविनश्वराणां जिनेश्वरगृहाणां प्रमाणपूर्वकं प्ररणाममाह चुलसीदलक्खचाणउदिसहस्से तव तेवीसे । सव्वे विमानसभगेजिदि गेहे णमंसामि || ४५१ ।। चतुरशोतिलक्षसप्तनवतिसहस्रान् तथैव त्रयोविंशान् । विभावसनानजिहान नमस्यामि ।। ४५१ ॥ तुलसीदि । चतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रान् तथा त्रयोविंशतिसहितान् सर्वान् विमानसमानजिन्हामायामि ।। ४५१ ।। अब अनुक्रम प्राप्त वैमानिक लोक का वर्णन करने की इच्छा रखने वाले आचार्य सवं प्रथम विमानों की संख्या का प्रतिपादन करने के लिए उन विमानों में अवस्थित अविनश्वर जिन मन्दिरों का प्रमाण पूर्वक प्रणाम कहते हैं। गाथा: - चौरासी लाख मध्यान्नवे हजार तेईस सर्ग विमानों की संख्या प्रमाण जिन मन्दिरों को में नेमिचन्द्राचार्य ) नमस्कार करना है ।। ४५१ ॥ विशेष :-- ऊध्यलोक में सम्पूर्ण विमानों की संख्या ८४९७०२३ है । प्रत्येक विमान में एक एक जिन मन्दिर है, अतः लोकके सम्पूर्ण जिन मन्दिरों का प्रमाण भी ८४३७०२३ है । उन सब विमानप्रमागम जिनमन्दिरों को नमस्कार करता हूँ । तानि विमानानि कल्पकल्पातीतत्वेन विकल्प्य सावरकल्पानां नामानि गाथाद्वयेनाह मोहम्ममाणमण कुमारमादिगा हु कप्पा हु | बारगो लतिका पिट्ठगो कट्टो || ४५२ ।। सुमहासुको मदरसहस्सारगो हु ततो दु । आणदपाणद आणअच्चु दगा होति कप्पा हु ।। ४५३ ।। सोध में शान सनत्कुमार माहेन्द्रका हि कल्पा हि । • ब्रह्मोत्तरको लान्तवकाविष्टको पष्ठः ॥ ४५२ ॥ : 4 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. त्रिलोकसार शुकमहाशुकगतः शतारसहस्रारगो हि तवस्तु । आनतप्राणतारणाच्युतगा भवन्ति कल्पा हि ॥ ४५३ ।। सोहम्मी | सोधज्ञानसनत्कुमार माहेन्द्रका चरवारः कल्पा: ब्रह्मब्रह्मोत्तरको द्वौ मिलित्वा एकेन्द्रापेक्षया एक कल्पः लान्सदकापिष्ठावपि तथा पष्ठकरूपः ॥ ४५२ ॥ गाथा : ४५३ - ४५४ सुक्कमहा | शुक्रमहाशुक्रावपि तथा एकः कल्पः शतारसहस्रारकावपि तपं कः कल्पः । ततस्तु मानसधारणतारणाच्युता इति चत्वारः कल्पा भवन्ति ॥ ४५३ ॥ उन विमानों के कल्प और कल्पातीत स्वरूप दो भेद करके सर्व प्रथम कल्पों के नाम दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : गावार्थ:-सोधर्मेशन, सानत्कुमार माहेन्द्र ( ये चार ), ब्रह्मब्रह्मोत्तर (पाँचवाँ ), लाग्तव कापिष्ठ ( छटा ), शुक्र महाशुक सातवाँ ), शतार सहसार ( आठव), श्रानत प्रारणत, आरण और अच्युत ( के एक एक ) कल्प होते हैं । ४५२, ४५३ ॥ विशेषभ्यं :- सौधर्मं, ऐशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र इनके एक एक इन्द्र हैं। अतः ये चार कल्प हुए। ब्रह्मब्रह्मोत्तर दोनों का मिलकर एक इन्द्र है अतः यह एक ही (पाँचवाँ ) कल्प हुआ । इसी प्रकार लान्तव कापिष्ठ छटा, शुक्रमहाशुक्र सातव और शतार सहस्रार आठवा कल्प है, क्योंकि इन दो दो का मिलकर एक एक ही इन्द्र होता है। आनत प्राप्त, आरण और अच्युत ये चार कल्प है, क्योंकि इनके एक एक इन्द्र होते हैं । इदानीमिन्द्रापेक्षया कल्पसख्यामाह मज्झिमचउजुगलाणं पृथ्वावर जुम्मसु सेसेसु । सव्वत्थ होंति इंदा इदि बारस होंति कप्पा हु ।। ४५४ ।। मध्यमचतुयु गळानां पूर्वापरयुग्मयोः शेषेषु सर्वत्र भवन्ति इन्द्रा इति द्वादश भवन्ति कल्पा हि ।। ४५४ ।। मम । मध्यमचलानां पूर्व युग्मयोग ह्याला सवयोरे केन्द्रो । प्रपरयुग्मधीः महाशुक्रसहस्रारमोरे केटो । शेषेष्वष्टसु कल्पेषु सर्वत्रेा भवन्ति । इसोन्द्रापेक्षया कल्पा मावश भवन्ति ।। ४५४ ॥ अब इन्द्र अपेक्षा कल्पसंख्या कहते हैं। : गावार्थ :- मध्य के चार युगलों में से पूर्व और अपर के दो दो युगलों में एक एक इन्द्र होते हैं। शेष चार युगलों के आठ इन्द्र होते हैं। इस प्रकार बारह इन्द्रों की अपेक्षा बारह कल्प होते हैं । ४५४ ॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:४५५ वैमानिकलोकाधिकार ४०१ विशेषापं:-सोलह स्वगों के कुल आठ युगल हैं। जिसमें मध्य के चार युगलों में से पूर्व युगल ब्रह्म, लान्तव और अपर युगल महाशुक्र और सहस्रार अर्थात् ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव कापिष्ठ, शुक्र महाशुक्र और शतार सहस्रार इन चार युगलों अर्थात् आठ स्वर्गों के चार ही इन्द्र है, अतः ये चार करूप है। शेष ऊपर नीचे के दो दो युगलों अर्थात् आठ स्वगों के आठ इन्द्र है, अत: माठ कल्प ये हुए। इस प्रकार सोलह स्वर्गों के बारह इन्द्रों की अपेक्षा बारह कल्प है। यथा: स्वर्ग नाम इन्द्र । इन्द्र संख्या पर इन्द्र संख्या इन्द्र स्वर्ग नाम अच्युत इन्द्र प्रारण प्रणित आनत - सहस्रार सतार - महाक कापिष्ट - लान्तव ब्रह्मोत्तर - माहेन्द्र सानत्कुमार सौधर्म ऐशान अथ कल्पातीतविमामनामान्याह हिटिममज्झिमउपरिमतिचिय गेवेज्म णव अणुद्दिमगा। पंचाणुचरगा विय कप्पादीदा हु अहमिदा ।। ४५५ ।। प्रघस्तनमध्यमोपरिमत्रिस्त्रिकाणि ग्रेवेगाणि नत्र अनुदिशानि । पश्चानुत्त रकाणि अपि च कल्पातीता हि अहमिन्दाः॥ ४५४ ।। हिटिम । अघस्तनमध्यमोपरिमनिस्त्रिकारिण प्रेयेयकारिण मवानुधिशानि पञ्चानुत्तराणि व कल्पातीविमानानि तेषु स्थिताः महामन्त्राः भवन्ति ॥ ४५५ ॥ अब कल्पातीत विमानों के नाम कहते हैं-- गाथार्य :---अधस्तन, मध्यम और उपरिम तीन तीन वेयक अर्थात् नवनवेयक हैं। उनके ऊपर नय अनुदिश्च और पांच अनुत्तर विमान है। ये सब कल्पातीत विमान है, इनमें अहमिन्द्र रहते हैं ।। ४५५ ।। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिलोकतार गाया:४५६ _ विशेषार्थ :-भधोवेयक, मध्यम प्रबेयक और उपरिमग्रंयेयक के भेद से मुख्य में ग्रेबेयक तीन प्रकार हैं। इनमें से प्रत्येक के ऊच मध्य और अधः के नाम से तीन तीन भेद हैं इस प्रकार नवग्रंवेयक हैं। इनके ऊपर नव अनुदिश और उनके ऊपर पांच अनुनर विमान हैं। यही सब फल्पातीत विमान हैं, इनमें अहमिन्द्र रहते हैं। इन विमानों में सभी अहमिन्द्र हैं, इन्द्र की कल्पना का अभाव है इसीलिए इन विमानों को कल्पातीत संज्ञा है । यथा : + Smar Aneer A . RAM opkiitra AA नयानुदिशविमानानां पश्चानुनरविमानानां च नामानि गाथाद्वयेनाह अच्चीय मच्चिमालिभि इरे बहरोयणा अणुद्दिसगा। सोमो य सोमरूले अंके फलिके य आइच्थे ।। ४५६ ।। अनिः अचिमालिनी वैरो वैरोचनानि अनुदिशकानि । सोमश्च सोमरूपः अङ्कः स्फटिकः च आदित्यं ॥ ४५६ ॥ पच्चीव । प्रविधिमालिनी रा रोचनाख्यानि प्रत्यारि गोवानि विगतानि । सोमतोमरूपास्फटिकास्यानि बत्वापि पिक्षिणतानि प्रकोएंकानि । पावित्र्य मध्येन्द्रक एतानि नानुविशाख्यानि ॥ ४५६ ॥ दो गाथाओं द्वारा नव भनुदिश और पाँच अनुत्तरों के नाम कहते हैं :-- गाया :-अचि, अचिमालिनी, वैर, वैरोचन, सोम, सोमप्रभ, अङ्क, स्फटिक और आदित्य ये नव अनुपिश विमान हैं। ४५६ ।। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा:४५७-४५८ वैमानिकलोकाधिकार विशेषार्प:-अधि, अचिमालिनी, वैर और वैरोचन ये चार श्रेणीबद्ध विमान कम से पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में स्थित है। सोम, सोमप्रभ अङ्क बोर स्फटिक ये चार श्रेणीबद्ध विमान क्रम मे चार विदिशाओं में स्थित है। इन सबके मध्य में आदित्य नामक इन्द्रक विमान स्थित है। इस प्रकार ये नव अनुदिश विमान हैं। विजयो द्वैजयंतो जयंत अवराजिदो य पुबाई । सबसिद्धिणामा मज्मम्मि अणुचरा पंच ।। ४५७ ॥ विजयस्तु वैजयन्तः जयन्तः अपराजिनश्च पूर्वादयः। सर्वार्थसिद्धिनामा मध्ये अनुत्तराः पञ्च ॥ ४५७ ।। विजयो छु। विजयो वैजयन्तो प्रयन्त अपरामिता पूर्वादिदिगतषिमानाख्याः मध्ये सनिलिदिनामेन्त्रक । एते पश्च मनुत्तरविमानाः ॥ ४५७ ।। गावार्थ:-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार भेणीबद्ध विमान क्रमशः पूर्वादि दिशाओं में ( एक, एक हैं। इनके मध्य में सर्वार्थ सिद्धि नामक इन्द्रक विमान है। इस प्रकार पाँच अनुतर विमान हैं ।। ४५७ ॥ विशेषा:-सुगम है। अयोक्तकल्पकल्पातीतविमानानामवस्थानमाह मेरुतलादु दिवड्ड दिवड्डदलछस्कएक्करज्जुम्हि । कप्पाणमहजुगला गेवेजादी य होति कमे ।। ४५८ ।। मेमनलात् दुघर्धं घर्धदलषट्कै करज्जी। कल्पानां अष्टयुगलानि याद यश्च भवन्ति क्रमेण ॥ ४५८ ।। मेहताला । मेहताला द्वितोपाळरो द्वितीया रज्यो इलषदकरजी व कल्पानामयुगलामि कमेण भवन्ति । एकस्य रजनो नवर्गवेयकावनि कमेण भवन्ति ।। ४५ ॥ उक्त कल्प और कल्पातीत विमानों का अवस्थान कहते हैं गाथार्थ:--मेरु तल से डेढ़ राजू, डेढ़ राजू और छह अर्थ राजुओं में कम से कल्प स्वों के आठ युगल है। इनके ऊपर एक राजू में कल्पातीत नवनवेपक आदि विमान विशेषाय-मेघतल से डेढ़ राजू में सौधर्म ऐशान, इसके ऊपर डेढ़ राजू में सानत्कुमारमाहेन्द्र इसके ऊपर ऊपर अर्घ अर्घ राजू के प्रमाण में कम से अन्य छह युगल अवस्थित हैं । इस प्रकार छह राज में सोलह स्वमं स्थित है । सोलह स्वर्गों के ऊपर एक रात में नव प्रबेयक, नत्र अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानों का अवस्थान है। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा १५० से ४६१ । साम्प्रतं सौधारिपु विमानसंख्यां गाथात्रयेण कथयति बत्तीसवाबीसं चारस अट्ठेब होति लक्खाणि । सोहम्मादिचउक्के लक्खचउक्कं तु बमदुगे ।। ४५९ ।। ततो जम्माण तिए पण्णासं ताल छस्सहरमाणं । सत्तसयाणि य आणदकप्पचउक्केसु पिंडेण ॥ ४६० ॥ एक्कारसत्तसमद्दियसयमेक्काणउदी णव य पञ्चेव ।। गेवेजाणं तिसिस अणुदिस्साणुत्तरे होंति ॥ ४६१ ।। द्वात्रिंशवष्टाविंशतिः द्वादश अष्टव भवन्ति लक्षाणि । सौधर्मादिचतुष्के लक्षचतुष्कं तु ब्रह्मटिके ।। ४५६ || ततो युग्माना अये पश्चाशत् चत्वारिंशत् षट्सहनामा । सप्तशतानि च मानतकल्पचतुष्केपु पिण्डेन ॥ ४६० ॥ एकादशसप्तसमधिकशत एकनवति। नव च पञ्चैव । ग्रेवेयाणा त्रिनिगापु दिशा भन्नति Iic । बत्तीसट्टा । हात्रिशतनाष्टाविंशतिलक्षाढावशालक्षाप्टलक्षाण्येव यथासेल्यं सौधर्माविचके विमानानि भवन्ति । ब्रह्मब्रह्मोत्तरे मिलित्वा लक्षचतुष्कमितानि विमानानि भवन्ति ॥ ४५६ || तत्तो जुम्भा। ततो लान्तवादियुग्मत्रये यथासंयं पश्चाशसहस्राणि छत्वारिंशात्सहस्राणि षट्सहस्राणि विमानानि मानतादिकल्पचतुष्के पिरन सप्तशतानि विमानानि भवन्ति ।। ४६. ॥ एक्कारसत्त । एकावशमधिकशतं सप्तसमषिकशात एकनपतिः नब च पश्य ध्यासंख्य प्रधस्तनाविप्रवेषकारगां त्रिरित्रषु अनुविशायामनुसरे व विमामानि भवन्ति ।। ४६१ ॥ तीन गाथाओं द्वारा सौधर्मादिकों के विमानों की संख्या कहते हैं गाथार्य:-बत्तीस लाख, अट्ठाईस लाख, बारह लाख और आठ लाख कम से सौधर्मादिक चाय कल्पों के विमानों का प्रमाण है, तथा ब्रह्म औच ब्रह्मोत्तर इन दोनों के ( मिलाकर ) विमानों का प्रमाण चार लाख है इसके बाद के तीन युगलों में कम से पचास हजार, पालीस हजार मोर छन्न हजार हैं, तथा बानतादि चार कल्पों के विमानों का प्रमाण सम्मिलित रूप से सात सौ है । एक सो ग्यारह एक सौ सात, इक्यानवे, नव और पांच ये कम मे तीन तीन वेयकों, अनुदिया और अनुनर विमानों का प्रमाण है ।। ४५९, ४६०, ४६१ ।। (तीनों वागानों का विशेषार्थ:-स्वर्गों के सम्पूर्ण विमानों की संख्या [ चाट मगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाषा । ४६२ वैमानिकलोकाधिकाय ४०१ है स्वर्गों के नाम _ विमानों की संख्या क्रमांक स्वर्गों के नाम , विमानों की संख्या सौधर्म ऐशान सानत्कुमार माहेन्द्र '३२ लाख ( ३२००००० ) ११ शनार (६हजार) | २८ लाख ( २८०००००)| १२ महस्रार २९८१) | १२ लाख ( १२०००००), १३ आनत प्रागात ४४० या ४०. | ५ लाख ( ८०००००) | १४ | आरण अच्युत २६० या ३०० ) २०.०६६) | १५ | ३ अघस्त न वेयक (४लाख) १९६९०४) ३ मध्यम . १. ३ उपरिम , (५० हजार २४९५८ १८ अनुदिश दाह्मोत्तर लान्तव २५.४२ कापिष्ठ .२० १६ अनुतर (४० हजार महाशुक्र | १९९४ योगफल-४६७.२३ है। इदानी प्रथमादिस्वर्गप प्रतरस्याप्रतिपादनार्थ मिन्द्रकाणा प्रमाणं निरूपयति इगितीससत्त चचारि दोष्णि एक्केश्क छक्क पदुकप्पे । तित्तिय एक्केकिदियणामा उडमादिवेवट्ठी ।। ४६२ ॥ एकत्रिशत्सप्त चत्वारि द्वे एकमेक षट् कं चतुः कल्पे । त्रीणि त्रीणि एकमेकं इन्द्रकनामानि ऋत्वादित्रिषष्टिा ॥ ४६२ ।। इगितीस । सौधर्मयुग्मे एकत्रिशविनकारिंग सनत्कुमारयुग्मे सप्तेन्द्रका रिण ब्रह्मयुग्मे चस्वारोगकारिण लान्तमयुग्मे द्वोन्नके शुरुयुग्मे एकमिन्ध शतारयुम्मे एकभित्रक मानतावितुषु कस्पेषु पजिन्द्रकाणि । अधस्तनादिपु प्रवेयकेपु प्रत्येक' त्रीणि श्रीणीन्द्र काणि नवानुविशापामेकमिन्द्रक पञ्चानुसरे कमिन्द्रक । एतेषां तु विमानावी कारण नामानि त्रिष्टिभवन्ति ॥ ४६२ ॥ प्रथमादि स्वर्गों में प्रतर संख्या प्रतिपादन करने के लिए इन्द्रक विमानों के प्रमाण का निरूपण करते हैं गायार्थ :-इकतीस, सात, चार, दो, एक, एक, चार कल्पों में छह, तीन, नीन, तीन, Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ त्रिलोकसाठ एक ओर एक ये क्रम से इन्द्रक विमान हैं। इनके ऋतु विमानादि है ।। ४६२ ।। विशेषार्थ :- सौधर्म युगल में ३१ इन्द्रक, सानत्कुमार युगल में सात, ब्रह्म युगल में ४, लान्तय युगल २, शुक्र युगल में एक शतार युगल में एक मानतादि चार कल्पों में ६ इन्द्रक, तीन अधस्तन ग्रंवेयकों में इन्द्रक, तीन मध्यम प्रवेयकों * इन्द्रक तीन उपरिम अंबेयकों में ३ इन्द्रक, ९ अनुदिशों में एक और पांच अनुत्तरों में एक इन्द्रक विमान है। ये इन्द्रक विमान ६३ हैं. और इनके सट ही नाम है। एक एक प्रतर में एक एक ही इन्द्रक विमान होता है । एतेषामिन्द्र कारणामुद्धन्तिरं तनामावतारं चाह : ४६३ से ४६६ सठ नाम एक्के कइंदयस्य य विचालमसंखजोपणपमाणं । पाणं णामार्ण बोच्छामो आणुपुष्धीको ।। ४६३ ।। एकैकमिन्द्रस्य च विचालं असंख्यात योजनप्रमाणं । एतेषां नामानि वक्ष्यामः आनुपूर्व्या ।। ४६३ ।। green | एकैकमिन्द्रस्यान्तरालमसंख्यातयोजनं स्यात् । एतेषामिव का नामानि चानु पूर्ण वक्ष्यामः ॥ ४६३॥ इन इन्द्रकविमानों का ऊर्ध्वं अन्तर और इनके नाम का अवतार कहते हैं गाथार्थ :- एक एक इन्द्रक के बीच का अन्तराल असंख्यात योजन प्रमाण है। इनके नामों को पूर्वी कम से कहेंगे ।। ४६३ ।। विशेषार्थ :- सुगम है । उक्त द्रकाणां नामानि गाथाष्टकेनाह उडुविमलचंदवम् वीररुणं गंदणं च गलिणं च । कंचण रोहिद चंचं मरुदं रिड्डिसय वेलुरियं । ४६४ ॥ नग रुचिरंक फलिहं तवणीयं मेघमम हारिदं । पउम लोहिद व मंदावतं पहुंकरयं । ४६५ ।। विद्रुक गजभिषा अंजण वणमाल णाग गरुडं च । लंग बलभद्दं च य खक्कं चरिमं च बहतीसो ।। ४६६ ।। ऋतुविमलचन्द्रवल्गुवीरानन्दनं च नलिनं च । कानं रोहितं चचत् मस्तु ऋद्धीशं बंडूर्यम् ।। ४६४ ॥ रुचकं रुचिरं अङ्क स्फटिकं तपनीय मेघ अभ्रं हारिदं । पद्म लोहितं वच नन्द्यावर्तं प्रभङ्करं ॥ ४६५ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। ४६७ वैमानिक लोकाधिकार पृष्टकं गर्ज मित्रं प्रभञ्जन वनपाल नां गरुडं च । लाङ्गलं बलभद्र व चक्र चरमं च अष्टात्रिंशत् ॥ ४६६ ।। ४०७ नलिनं च काञ्चनं रोहिलं चञ्चद उड्डविथ ऋबिरेन पं ॥ ४६४ ॥ मदद ऋद्धीशं श्च । चचकं दचिरं शङ्क' स्फटिक' तपनीयं मेघं प्रहारिप्रं पद्म लोहितं वा नग्मावतं प्रभवं (३१) ॥ ४६५ ॥ पिटुक। पृष्टकं गजं मित्रं प्रभं प्रजनं वनमालं नागं गरुडं च लाङ्गलं बलभयं च चरमेन्द्र क चक्रं इति ( ७ ) सोधर्मादिचतुष्के पिण्डेनाष्टात्रिंशविन्द्र नामानि ॥ ४६६ ॥ उक्त इन्द्र विमानों के नाम छह गाथाओं द्वारा कहते हैं गाथा: - ऋतु, त्रिमल, चन्द्र वल्गु, वीर, अरुण, नन्दन, नलिन, कान, रोहित, चच, मस्तु ऋद्धी, बैड, रुचक, रुचिर, अङ्क, स्कटिक, तपनीय, मैत्र, अन हारिद्र, पद्म, लोहित, वस्त्र, नन्द्यावर्त, प्रभङ्कर, पृष्ठक, गज, मित्र, प्रभा, अञ्जन, वनमाल, नाग, गरुण, लाङ्गल, बलभद्र और अन्तिम चक्र नामा इन्द्रक हैं। इस प्रकार अड़तीस इन्द्रक है ।। ४६४, ४६५, ४६६ ।। रिसुरसमिदिवां वचरचाहिदलांत वयं । सुक्कं खलु सुक्कगे सदर विमाणं तु सदरदुगे ।। ४६७ ।। अरिसुरसमिति ब्रह्म ब्रह्मोत ब्रह्म हृदयलान्तव के । शुकं खलु शुकद्विके शतारविमानं तु शतारयुगे || ४६७ ॥ ७ नन्दन, विशेषा:- १ ऋतु, २ चन्द्र, ३ बिमल, ४ वल्गु ५ वीर. ६ अरुण ९ का १० रोहित ११ च १२ मरुत, १३ ऋद्धी, १४ वंयं ५५ रुचक १६ रुचि १८ स्फटिक, १६ तपनीय २० मेघ, २१ अअ २२ हारिद्र २३ पद्म २४ लोहित, २५ वज्र, २६ नन्द्यावर्त २७ प्रभाकर, २८ पृष्ठ २९ गज ३० मित्र और ३१ प्रभा ये ३१ इन्द्रक विमान सौधर्मेशान नामक प्रथम युगल में अवस्थित है । १ अञ्जन, २ वनमाल, ३ नाग, ४ गरुड, ५ लाङ्गल, ६ बलभद्र ७ ओर चक्र इन सात इन्द्रक विमानों का अवस्थान मानत्कुमार माहेन्द्र नामक दूसरे युगल में है । इस प्रकार चार स्वर्गों के ( ३१+७) ३८ इन्द्रक विमान हैं । नलिन, १७ अंक रिसुरसरिसुरसमिति ब्रह्मब्रह्मोत्तरनामानीस्कारिण ब्रह्मयुगे ब्रह्मवयं सान्तवकमिति द्वयं लागतयुगे शुक्रयुगे खलु शुकेन्द्र शारद्विके शतार विमानेन्द्रकम् || ४६७ ॥ गाधार्थ:-अरिष्ट, सुरस, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर ये तीसरे युगल के ब्रह्महृदय और लान्तव ate युगल के शुकविक का शुक्र और शतार युगलका शतार नामक इन्द्रक विमान है ।। ४६७ ।। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घिलोकसार गाया : ४६८ से ४७० विशेषार्थ :-तीसरे ब्रह्मयुगल में मरिष्ट, सुरस, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर ये चार, चौथे छान्तव युगल में ब्रह्महृदय और लान्तव ये दो, पांचवें शुकयुगल में एक शुक्र तथा छठे शतार युगल में एक शतार इन्द्रक अवस्थित है। आणद पाणदपुप्फय मातक तह मारणच्चदवसाणे । तो गेवेज सुदरिसण अमोह तह सुम्पयुद्धं च ॥ ४६८ ।। बसहर सुमणामा सुषिमालं सुमणसं च सोमणसं । पीदिकरमाइच्चं चरिमे सम्बत्थसिद्धी दु ।। ४६९ ।। आनतप्राणतपुष्पक शातक तथा धारणाच्युतावसाने । ततः वेयके सुदर्शन अमोघ तथा सुप्रवुद्ध च || ४६८ || यशोधरं सुभद्रनाम सुविशालं सुमनसं च सौमनसं। प्रीतिकरं आदिश्यं चरमे सर्वार्थसिद्धिस्तु ॥ ४६९ ।। माय । पानतं प्रारणतपुष्पह शातक तपा पारणाच्युतमितीन्द्रनामानि पानताअयुताबसाने त्य: । ततो धेयकेषु सुदर्शन बमोघं तथा सुप्र ४६८ ॥ असहर । यशोधरं सुभद्र नाम सुविशाल सुमन व सौमनस प्रीतिहरं नवानुविशायामारित्येन्द्रक चरम सर्विसिबीन्द्रक ॥ ६ ॥ - पाथार्थ :- आनत, प्राणत, पुष्पक, शानक, झारण और अच्युत ये छह आनतादि में, तथा इनके बाद प्रवेयक में सुदर्शन. अमोध, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुभद्र, सुविशाल, सुमनस, सौमनस और प्रीतिकुर ये नव इन्द्रक हैं। आदित्य इन्द्रक एवं अन्त में एक सथिसिद्धि नामका इन्द्रक ___ विशेषापं:- मानतादि चार कल्पों में आनत, पायात, पुष्पक, शातक, आरण और अच्युत ये छह इन्द्र क विमान हैं, तथा नो में देयक में कम से सुदर्शन अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुभद्र, सूविशाल, सुमनस, सौमनस और प्रीतिकर ये नय इन्द्रक है। नो अनुदिनों में एक आदित्य इन्द्रक और पांच अनुत्तरों में एक सर्वार्थसिद्धि नापक इन्द्रक विमानों का अवस्थान है। मेस्तलादु दिवड्वमित्यादिगाथोक्तार्थे सर्वत्र विमानानि तिष्ठन्ति किमिति प्रश्ने परिहारमाह णाभिगिरिचलिगुवरि वालगंतर द्वियो हु उडु इंदो । सिद्धीदो धो बारह जोयणमाणम्हि सबढ़ ।। ४७. ।। नाभिगिरिपूलिकोपरि बालाग्रान्तरे स्थितः हि ऋविन्द्रकः । सिद्धितः अष: द्वादशयोजनमाने सर्वापः ॥ ४७० ।। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा ४७१-४७२ वैमानिक लोकाधिकार मिगिरि । साभिरिचूलिकोपरि बालाप्रान्तरे स्थितः ज ट बिनद्रकः सिद्धक्षेत्रादयो द्वादशयोवनप्रमाणेन सर्वार्थसिद्धिस्तिष्ठति ॥ ४७० ॥ 'मेरुतलादृदिव" इत्यादि गाथा ( ४५८ ) में कहे हुए अर्थानुसार क्या सयंत्र विमानों का अवस्थान है ? इस प्रश्न के परिहार में कहते हैं :– गाथा : नाभिगिरि को चूलिका के ऊपर बाल का अग्र भाग प्रमाण अन्तर छोडकर ऋतु विमान स्थित है, तथा सिद्धक्षेत्र से बारह योजन प्रभाग भांचे सर्वार्थसिद्धि नाम का इन्द्रक विमान अवस्थित है || ४७० || विशेषार्थ :- सुदर्शन मेह को चलिका के ऊपर बाल का अग्र भाग प्रमाण अन्तर छोड़ कर प्रथम ऋतु विमान अवस्थित है, और सिद्धक्षेत्र से बारह योजन नीचे अन्तिम सर्वार्थसिद्धि नामका इन्द्र विमान स्थित है। अर्थात् सुदर्शन मे की चूलिका के एक बालाग्र ऊपर से सिद्धक्षेत्र से १९ योजन नीचे तक का जो क्षेत्र है, उसमें ऊध्र्वलोक की अवस्थिति है । कल्पानामितरेषां च विक्रियादीनां सोमानमाद ४०६ सगसग वरिमिंदयवयदं कप्पावणीणमंत खु । कप्पाददवणिस्स य अंतं लोयंतयं होदि ।। ४७१ ॥ ५२ हवक स्वकच रमेन्द्र कध्वजदण्ड: करुपावनीनां अन्तः खलु । कल्पातो शावनेश्च अन्तः लोकान्तकः भवति ।। ४७१ ।। are | स्वकीय स्कीम चरमेन्द्र कध्वजव एड: कल्पादीनामन्तः लघु स्यात् । कल्पातीलाबमेरतो लोकस्यान्तो भवति ॥ ४७१ ॥ कल्प और कल्पातीतों की (विक्रिया आदि की ) सीमा कहते हैं: गावार्थ :- अपने अपने अन्तिम इन्द्रक का ध्वजादण्ड ही [ अपनी अपनी ] कल्प अवनी का अन्त है, और जहाँ कल्पातीत अवनी का अन्त होता वहीं लोक का अन्त है ।। ४७१ ।। विशेषार्थ :- अपने अपने अन्तिम इन्द्रक का ध्वजादण्ड हो अपनी अपनी कल्प अवनी का अन्त है । जैसे :- प्रभा नामक अन्तिम इन्द्रक के ध्वजा दशा पर सोधनं युगल का चक्र नामक अभिम इन्द्रक के ध्वजादण्ड पर सानत्कुमार युगल का अन्त है। इसी प्रकार आनतादि कल्पों के अच्युत नामक अन्तिम इन्द्रक के ध्वजा दण्ड पर सम्पूर्ण कल्प अवनी का अच्छा है, तथा कल्पातीत अवनी का जहाँ अन्त है वहीं लोकका अन्त 1 अथेन्द्रकाणां विस्तारमाह माणुसखिपमाणं उडु सव्व तु जंबुदीवसमं । उभयविसेसे रुऊणिदयभजिदे दु हाणिचयं । ४७२ || Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० चिलोकसार बायत:४७२ मानुषक्षेत्रप्रमाणं ऋतु सर्वायं तु जम्बुद्वीपसमं । उभयविशेष रूपोनेन्द्रक भक्तं तु हानिचयम् ।। ४७२ ।। माशुसलित । मानुषक्षेत्रमा ४५००००. अविनक सर्भिसिखोग तु सम्बुद्वीपसम १ ला उमयोविशेषे शोषिते ४४ लक्षरूपन्यूनेमकं ६२ भक्त ७०६६७ को स्वमिन्नक' प्रति हानिवयं स्यात् पश्य विवरणं पश्चोत्तरचरवारिंशत्रतेम्यः पस्मिन् ७०४६७ को अपनी ४४२९३हितीयेन्द्रकप्रमाणं स्यात् । एवं यावदेकलशमयतिधते तावापनोते तत्तदुसरोत्तरेन्द्रप्रमाणे स्थान। ४७२ ॥ इन्द्रक विमानों का विस्तार कहते हैं गापा:-प्रथम ऋतु इन्द्रक विमान का विस्तार मनुष्य क्षेत्र (काई द्वीप ) के बराबर और अन्तिम सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक विमान का विस्तार जम्बूद्वीप के बराबर है। उन दोनों के प्रमाण को परस्पर घटाकर शेष में, एक कम इन्द्रक प्रमाण का भाग देने पर हानि ( वृद्धि)चय का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ४७२॥ विशेषा:-मानुष क्षेत्र का प्रमाण ४५००.०० योजन | १८००००००००० मील ] है अत। इतने ही विस्तार वाला ऋतु नामक प्रथम इन्द्रक विमान है, तथा अम्बूद्वीप का प्रमाण १००००० योजना ४०००००००० मील ] है, और इसना ही प्रमाण सर्वार्थसिविनामक अन्तिम इन्द्रक विमान का है। इन दोनों को परस्पर घटाने पर ४४०.००० योजन पोष रहे। इनमें एक कम इन्द्रक के प्रमाण (६३-१) का भाग देने पर प्रत्येक इन्द्रक के हानिचय का प्रमागा प्राप्त होता है। यथा४५99009-122200 =U०६६७३३ योजन हानि चय का प्रमाण है। इसे ४५००.०० योजनों में से घटाने पर ४४२६०३२ योजन दूसरे इन्द्रक का प्रमाण है। इसमें से पुनः हानिचय का प्रमाण घटा देने पर तीसरे इन्द्रक का प्रमाण प्राप्त होगा। इस प्रकार जब तक एक लाख योजन अवशेष म रहे, तब तक घटाते जाना चाहिए । यथा [ कृपया चाट मगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ४७२ दैमानिकलोकाधिकार इन्द्रकों के | बिमानों का नाम विस्तार | इन्द्रकों के . इन्द्रक विमानों नाम | का विस्तार क्रमांक इन्द्रकों के नाम इन्द्रक विमानों का विस्तार चन्द्र विमल वल्ग वीर अरुण पुष्पक कावन आरय रोहित ३ ऋतु |४५०००० यो०२२, हारिद्र ३००९६७७१३ यो० ४३| ब्रह्महदय १५१६३५४३५ यो. | ४४२६०३२४६ २३ पद्य । २०३८७०९४३ - ४ लान्तव | १४४८३८ ॥ ४३५८०६४३, २४, लोहित २८६७७४११- शुक १३७४४१५१ . | ४२८७०९६३१ - २५ वय २७६६७७४४-४६ शतार । १३.६४५१३१ - ४२१६१२६२६| नन्द्या. २७२५८०६१ . मानत १२२५५८३ ४१४५१६१३, २७ प्रभाकर २६५४८३८३३ ॥ प्राणत ११६४५१६ - | ४.७४१६३ - २० पृष्टक | २५८३८७० - ४ १०९३५४८३३ - नलिन ४००३२२५३५ . २२ गज । | २५१२९०३४ - ५० शातक | १०२२५८०३१ - | ३६३२२५८३.३० भित्र २४४१६३५१४ | ६५१६१२४ - ३८६१२६०३२, ३१ प्रभा ।२३७०९६७३३ अच्युत , ८८०६४५४ - ३७९०३२२४६- ३२| अञ्जन २३०... , ४३ मुदर्शन | ८०६६७७१३ . मरुत् ३७१९३५४, " ३३, वनमाल | २२६६०३२४, ५४ अमोघ ७३८७०९१ . ऋद्धीश ३६४८३८७४, ३४ नाग २१५८०६४३" सुप्रबुद्ध । ३६७७४१ ॥ बंडूयं | ३५७७४१९330 ३५ गरुड '२०८७०६६३" यशोधर । ५६६७७४१ " स्त्रक २०१६१२६ " ५७ सुभद्र । ५२५८०६५ रुचिर ३४३५४८३५६, ३७ बलभद्र १९४५१६१९ ॥ ५८ सुविशाल| ४५४१८९३ १७ अंक १५७४१६३१५९ सुमनस | ३८३८७०१५ . १८ स्फटिक | ३२६३५४८३३ .. २६/ अरिष्ट ,१८०३६२५३५.६० सौमनस् | ३१२९०३४१ , तपनीय । ३२२२५८०३१..' सुरस १७३२१५८ ६ १ प्रीतिकर २४१९३५१५ . मेघ ३१५१६१२३ - ४१) ब्रह्म । १६६१२६०३, ६२, आदित्य | १७०६१ " | ३.८०६४५४ - ४२! ब्रह्मोत्तर १५६०३२२*६३, सवा १००... योजन .३५० Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२. त्रिलोकसार गाथा:४७३ इतः श्रेणीबद्धानामदस्थितस्वरूप निरपति पामट्ठी सेढिगया पदामिदे चउदिसामु पचेयं । पडिदिसमेककेक्कोणं अणुद्विमाणसरेककोचि ॥ ४७३ ।। द्वाषष्टिः अंगिगनानि प्रथमेन्द्र चतुर्विशासु प्रत्येकं ।। प्रतिदिगमेकैकोने अनुदिशानुनरे एकमिति ।। ४७३ ।।। पासट्ठी। प्रथमेन्द्र के चतुदिक्ष प्रत्येक अंगीन बिमामानि प्राष्टिभवन्ति । इस उपरि द्वितीयपरलायो प्रतिविमेककोन चेत् उपर्युपहिणीवनप्रमाणानि | यावानुविधायामनुत्तरे चकमेवावशिष्यते । प्रत्र पक्षिणोचरेन्द्रविभागेन संकलितपनामयमविधान मुख्यते । सौधर्मस्य कविक - गीबवान ६२ विकत्र त्रिभिप्रेरिणतानि १८६ अपमाविः उत्सरं ३ पच्छ ३१ अत्र होमसंकलितमाविश्य धनमानीयते। पद ३१ मेगेण विहीरणं ३. दुभाजिवं १५ उत्तरेश ३ संगुरिण ४५ इवं ऋणं पावजुवं १८६ मस्मिन् प्रभवे ऋणं ४५ अपनयेत १४१ पद ३१ पुरिणवं ४३७१ इदं सौरमंबेणीवप्रमाणं स्यात् । अत्रेन्द्र ३१ प्रक्षेपे कृते एवं ४४०२। एवमीशाने प्रावि ६२ उत्तर १ गच्छ ३१ मारमा संकलितधनमानेतब्यम् १४५७ ईशाने विन्दकप्रक्षेपो नकरण्यः उत्तरेन्द्राणामिन्द्रकाभावास । सौधर्मस्पैविक परीयडेषु ६२ स्वगमछे ३१ अपनीते शेवं ३१ समकुमारमाहेन्द्रयोरेशविक पीबाप्रमाणं स्यात् । प्रनय ३१ स्वस्थाकथे ७ प्रपनीते दोषमुपरित कविःखीवनप्रमाणं त्यात सौ-ऐ, ६२। स-मा, ३१ 1-4, २४ । ला-का, २. । शुक-महा, १८ । श-स, १७ । मा-४, १६ । अघोष देयक, १.म-प्र.७ । उप०६, ४ । नक, १। एतस्मिनेवणोद्धप्रमाणे बभिरणेन्द्रापेक्षमा विभिर्गुणिते प्राविः उत्तरेन्द्रापेक्षया एकम गुणित माविः। सा-६३ । मा-३१ । प्र-म, ९६ । ला-का, ८०। शुभ-महा, ७२ । श-स. ६ । मा-४, ६४। सपोवेयक, ४.। म-4, २८। उप., १६ । नबानुदिशायर्या ४ । सराः सा-३ । मा-१ । उपरि सबंध चतस्रः ४ | उत्तरा: पास्तु स्वस्वपटलप्रमारणं स्यात् सनत्कुमारावो ७।४।२।१।१।६३।३।३ । १ इस्थमाशुतर. पर मारवा नं उपर्युपरि बक्षिणोतरेन्द्राणामेवमानेसव्यं ॥ ४७३ ॥ यहाँ से आगे शीन्द्ध विमानों के अन्यस्थान का स्वरूप कहते है : पायार्थ :-प्रथम इन्द्रक विमान की चारों दिशाओं में बासठ बासठ श्रेणीबद्ध विमान है। इसके ऊपर द्वितीयादि पटलों की प्रत्ये का दिमाग में एक एक कम होते हुए अनुदिश और अनुत्तर को प्रत्येक दिशा में एक एक ही अंगोबद्ध है ।। ४७३ ।। विशेषार्थ:-प्रथम कल्प युगल में ३१ इन्द्रक विमान हैं। इनमें से प्रथम ऋतु इन्द्रक विमान की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ६२-- ६२ श्रेणीबद्ध विमान अवस्थित हैं । इसके मागे दूसरे, तीसरे व चोथे आदि छन्द्रकों में व उत्तरोत्तर एक एक कम (६१, ६., ५९ आदि) होते हुए अनुदिश और अनुत्तर इन्द्रक विमानों की चारों दिशाओं में मात्र एक एक ही श्रेणीबद्ध विमान अवशेष Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथर: वैमानिकलोकाधिकार यहाँ दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र के विभाग से सङ्कलित धन प्राप्त करने का विधान कहते हैं:सौधर्म कल्प में एक विशागत श्रेणीबद्ध विमानों का प्रमाण १२ है । कि पूर्व, पश्चिम और दक्षिण ये तीनों दिशाएं इसी कल्प के प्राचीन हैं, अत: इन तीनों दिशाओं के श्रेणीबद्ध विमानों का प्रमाण प्राप्त करने के लिए ६२ को ३ से गुगिन करना चाहिए । इसका गुणनफल ( ६२४३) १८६ प्राप्त हुवा। यह १८६ ही मुख अति प्रभव का प्रमाण है, हवा यही आदि इन। उ न ३। इसी को हानि चय भी कहते हैं, क्योंकि सोधम सम्बन्धी तीन दिशाओं के तीन श्रेणीवन प्रत्येक पटल में घटते गये हैं। पटल ३१ हैं अनः गच्छ ५१ है। अब यही हीन सङ्कलन का आश्रय कर घन निकालते हैं 'पक्षमेगेण विहीणं' इत्यादि गाथा सूत्र १६४ के अनुसार पद ( गच्छ ) में से एक घटा कर आषा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उत्तर धन ( ३ ) से गुगिन कर लब्ध को प्रादि धन । १८६ ) में में घटा कर अवशेष को पद ( ३१ ) से गुणित करने पर सोधर्म संबंधी श्रेणीबद्ध विमानों का प्रमाण प्राप्त होता है। यथा:--'४३-४५; ( १८६-४५ ) ४३१-४३७१ सौधर्म के गोबद्ध विमानों का प्रमाण है। इममें सौधर्म कल्प के ३१ इन्द्रक मिला देने पर (४३७१ +३१)-४४०२ प्रमाण प्राप्त होता है। उपयुक्त ३१.इन्द्रक विमानों की केवल उत्तरदिशागत भणीबद्ध विपान ही इस कल्प के अन्तर्गत हैं अतएव ऐशान कल्प का आदि धन १२, उत्तर धन ! और गच्छ ३१ है। उपयुक्त नियमानुसार यहाँ (ऐशान कल्प में) x १ = १५ (६२-१५)४३१ - १४५७ श्रेणी बन विमानों का प्रमाण प्राप्त होता है । यहाँ इन्द्रक विमानों का प्रमाण नहीं मिलाना, क्योंकि उत्तरेन्द्र के इन्द्रक विमानों का अभाव है। अर्थात् सब (३१) इन्द्रक विमान सोध के आधोन है ऐशान के नहीं। सौधर्म कल्प के एक दिषा मम्बंधी गोबद्धो का प्रमाण ६२ है, इनमें से स्व गच्छ (३१) घटाने पर ( ६२-३१)-३१ अवशेष रहे। यहो सानत्कुमारमाहन्द्र में प्रथम पटल में एक दिशा सम्बंधो अंगमा बद्धों का प्रमाण है। इमी प्रकार पूर्व पूर्व युगल क प्रथम पटल के एक दिशा सम्बंधी श्रेणीबद्धों के प्रमाण में से अपने अपने पटल प्रमाण गच्छ घटाने पर उत्तरोत्तर युगलों के प्रथम पटल के एक दिशा मम्वधी श्रेणी बद्धों का प्रमाण प्राप्त होता है। जैस :- सौधर्मशान में ६२. सानत्कुमार माहेन्द्र में । ६२-३१ )-- ३१, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर में (३१-७)-२४, लान्नव कापिष्ठ में (२४-४)=२०. शुक्र महाशुक्र में । २०-२-१८ सतौर सहस्रार में (१८-१)=१७ मानतादि चार कल्पों में (१७-१= १६. अधान वेयक में ( १६ - ६ )=१०, मध्यग्र वेयक में ( १०-३) ७. उपरिमय बेयक में (७-३) = ४ और नब अनुदिशों में { ४-३-१ गोबद्ध विमान एक दिशा सम्बन्धी है। इन श्रेणीबद्ध विमानों के प्रमाण को दक्षिणेन्द्र औक्षा तीन मे और उत्तरेन्द्र अपेक्षा एक से गुणा करने पर, तथा जहाँ दक्षिणेन्द्र उत्तरेन्द्र को कल्पना नहीं है, वहां चार से गुणा Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाया। ४७४ करने पर आदि धन का प्रमाण प्राप्त होता है। यथा-सा. के ( ३१४३)= ६३, मा० के (३४) ०३१, ब्रह्मवोतर कल्प में ९६, लां-कापिष्ट कल्प में ८०, शुकमहाशुक्र कल्पमें ७२, श-सहसार कल्प में ६८, आनतादि चार में ६४. अयोग्नेवेयक में ४०, मध्यमे देयक में २८, उपरिम प्रवेयक में १६ और नव अनुदिश विमानों में ४ आदि धनों का प्रमाण है । ऋणरूप चय मर्थात उत्तर धन सानत्कुमार में ३ माहेन्द्र में १ है, इसके ऊपर सर्वत्र ४ है । गच्छ का प्रमाण अपने अपने पटस प्रमाण होता है। यथा-सानत्कुमार आदि में कम से ७. ४, २, ३, ५, ६, ३, ३, ३ और । है। इस प्रकार आदि धन, उत्तर धन और गच्छ का ज्ञान हो जाने पर दक्षिगोन्द्र और उत्तरेन्द्र के भेणी बदों का सर्व सङ्कलित धन प्राप्त करना चाहिए। पथा *-x=8; (६३-६)x= ५८८ सानत्कुमार कल्प के श्रेणीबद्धों का प्रमाण है। म.-१=; (३१-३)४७-१९६ माहेन्द्र " . . . . . xxx४==६; (६६-६)४४-३६० ब्रह्मब्रह्मोत्तर कल्प के श्रेणीबद्धों का प्रमाण है। २६.४४-२ (२०-२x२ --- १५६ बान्तव कापिष्ट " " " . . " Hrx४.; (७३-.)४१-७२ शुक्रमहाशुक . . . . . . 14.x४-.:(६८-०x१-६८ शतार सह. . . . . . 4-४४-१ (६४-१०)४६-३२४ अानतादि ४.. . 1.४४-४,(४०-४)xt=१०८ अधोग्र धेयक . . . 221४४-४; (२८-४४३-७२ मध्य. . . 32.४=४; (१६-४}x=३६ उपरिम. .. " , xx=0; (४-.) x १=४ अनुदिशों - " . . . अथ तत्र प्रथमेन्द्रकस्य श्रेणीपदानामवस्थितोद्देशकमुपदिशति उडुसेढीबद्धदलं सर्पभुरमणुवहिपणिघिमागम्हि । आइल्लसिण्णि दोघे तिण्णि समुई य सेमा ।। ४७४ ।। ऋतुणीबददलं स्वयम्भुरमणांदधिपरिधिभागे। आदिभत्रिषु द्वीपेषु त्रिषु समुद्रषु च शेष हि ।। ४०४ ॥ मुसेड़ी। ऋविनाको गोमवावं ३१ हरयम्भूरमणोपधिप्रणिषिमागे तिष्ठति। शेषा तु स्वयम्भूरमणसमुद्रापर्वाधीमेषु स्वयम्भूरमरणाविषु त्रिषु खोपेषु त्रिषु समुद्रषु । १५ । । ४ । २. तिष्ठति ॥४७॥ प्रथम श्रेणीबद्ध विमानों के अवस्थान का वर्णनगाचार्य :-ऋतु इन्द्रक विमान को एक दिशा में ६९ श्रेणी बद्ध है। इनके आधे ( ३१) Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक लोकाधिकार श्रेणीबद्ध विमान तो स्वयम्भूरमण समुद्र के निकटवर्ती शेष ( ३१ ) स्वयम्भूरमण समुद्र से अर्वाचीन तीन द्वीप और हैं ।। ४७४ ।। गया। ४०५ विशेषार्थ :- प्रथम पटल में प्रथम ऋतु इन्द्रक विमान की एक दिशा में ६२ श्र ेणीबद्ध विमान हैं। इनमें आधे अर्थात ३१ श्र खोवद्ध विमान तो स्वयम्भूरमण समुद्र के ऊपर स्थित हैं। शेष ३१ में से १५ श्र ेणीबद्ध स्वयम्भूश्मा द्वीप के ऊपर श्रीबद्ध अद्दीन्द्रवर समुद्र के ऊपर ४ श्रेणीबद्ध अहीन्द्रवरी के ऊपर श्रंगो बद्ध देववर द्वीप के ऊपर और शेष के १ श्र ेणीबद्ध विमान यक्षवर समुद्र के ऊपर अवस्थित है। अथ प्रकीशकानां स्वरूप प्रमा चाह वीणं । मणीबद्धानां विन्दाले अन्तराले पुष्पास्यि प्रकोशंकानि एव स्थितानि विमानानि प्रकोनामानि भवन्ति । लागि घरपोक होना शिसमानानि । तत्कर्ष ? बचोसट्टाबो समित्यायुक्तसौधर्माविशशिभ्यः भगीन्द्रकेष्वपनीतेषु यो राशिरवशिष्यते तत्समामानि ।। ४७५ ।। प्रफोक विमानों का स्वरूप और प्रमाण कहते है : -- सेढीणं विच्चाले पुष्कपइण्णा इव द्वियविमाणा । होति पण्णणामा सेढींदवहीणरासिसमा ।। ४७५ ।। श्री गोनां विचाले पुष्पप्रकीरण कानि इत्र स्थितविमानानि । भवन्ति प्रकीर्णकनामानि श्रणीन्द्रकहीन राशिसमानि ॥। ४७५ ।। '— गाथा: श्रेणीबद्ध विमानों के बीच बीच में अर्थात् अन्तराल में बिखरे हुए पुष्पों के सदृश जो विमान स्थित हैं उन्हें प्रकीरणंक कहते हैं। इनका प्रमाण इन्द्रक और श्रेणीबद्ध विमानों की राशि से दोन स्व राशि समान है ।। ४७५ ।। " ४१५ उपरिम भाग में है और समुद्रों के ऊपर स्थित तीन विशेषार्थ :- श्रेणीबद्ध विमानों के अन्तराल में पंक्ति होन, बिखरे हुए पुष्पों के सहरा यत्र तत्र स्थित विमानों को प्रकीकि विमान कहते हैं । प्रत्येक स्वर्ग की जो संख्या है, उसमें से अपने अपने पटलों के इन्द्रक और श्रीबद्ध विमानों की संख्या कम करने पर जो प्रमारण होता है। यथा अवशेष रहे वही प्रकीर्णक का सोधर्म कल्प में ऐशान सानत्कुमार कल्प मेंमाहेन्द्र " ब्रह्मब्रह्मोत्तर कल्प में- ४००००० 13 — - — श ३२०००००- ( ४३७१ + ३१ ) = ३१६५५६८ प्रफीक हैं। २८०००००- ( १४५७+ ) - २७९८४४३ १२०००००- ( ५६६+७ = ११६६४०५ -७९९६०४ ८००००० - ( १६६÷०१ (३६०+४) ३९९६३६ H " N 16 R . Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाया : ४७६ सान्तव कापिष्ठ कल्प मैं-५००० – ( १५६ -२) =४६४९ प्रकीर्णक विमान हैं । शुक्रमहाशुक्र . .-४०:०० -(१+१) =३९९२७ . . . शतार-सहस्रार -६००० -(६८+१) =५६३१ बानतादि ४ कल्पों में- . -(२२४+६) = ३७० . " " अधोवेयक में:-११-(१०+३) प्रकारांक विमान है। मध्य . .:-१०७-( ७२+३) = ३२ . . .। उपरिम, 1-1 -( ३६+३) =५२ . । अनुदिशों में .- -(४+१) = . . .। अनुत्तर स्वर्ग में प्रकीर्णक विमानों का अभाव है। श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानों का चित्रण : प्रथम स्वर्ग के प्रथम ऋतु इन्द्रक की चारों दिशाओं में १२, ६२ थणीबद्ध, शेष प्रकोणक प्रथम स्वर्ग के ३१वेंप्रभा नामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में ३२, ३२ घणीबद्ध, शेष प्रकीर्णक अथ दक्षिणोत्तरेन्द्रयोरिन्द्रकोणीबद्धप्रकीर्णकविभागं प्रदर्शयति-- उचरसेढीचा वायवीसाणकोणगपइण्णा । उत्तरहंदाणिवद्धा सेसा दक्खिणदिसिंदपडियद्या ।। ४७६ ॥ उत्तरप्रेणीबद्धा वायग्रेशरनकोणगप्रकीर्णानि । उत्तरेन्द्रनिबद्धानि शेषाणि दक्षिणदिगोन्द्रप्रतिबद्धानि ॥ ४७६ ॥ उत्तरसेटी । सरणीषया वायपेशानकोणगतप्रकीराकानि । उसरेन्द्रनिमानि । शेषारिण सर्वविमानानि दक्षिणविगिन्द्रप्रतिबबानि ॥ ४७६ ।। दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र के इन्द्रक, घणीवर और प्रकीक विमानों का विभाग सशति है : Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ७-४७८ वैमानिकलोकाधिकार ४१७ गाया :-उत्तर दिशा सम्बंधी प्रेणीबद्ध विमान और वायव्य एवं ईशान कोण में स्थित प्रकीर्णक, ये उत्तरेन्द्र सम्बन्धी हैं, तथा शेष बचे हुए विमान दक्षिणेन्द्र सम्बंधी हैं ।। ४७६ ॥ विशेषार्थ:-उत्तर दिशा सम्बंधी अंशोबद्ध और वायव्य तथा ईशान कोण के प्रकोएंक विमान उत्तरेन्द्र से सम्बन्धित हैं। अर्थात् इनमें ईशान इन्द्र की आज्ञा का प्रवर्तन होता है । शेष ३१ इन्द्रक, पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम दिशा मम्बंधी ४३७१ श्रेणीबद्ध तथा नैऋत्य और आग्नेय कोण के प्रकीर्णक विमान दक्षिणेन्द्र सम्बंधी हैं । अर्थात् इनमें सौधर्म इन्द्र की आज्ञा का प्रवर्तन होता है । इसी प्रकार अन्य अन्य युगलों में भी जानना चाहिए। इदानीमिन्द्रकाबीनां व्यासं निरूपयति इंदयसेहीबद्धप्पडण्णयाणं कमेण वित्याग । संखेसममखेज उभयं वय जोगणाण तु ।। ४७७ ।। इन्द्रकोणीबद्धप्रकीर्णकानो कमेण विस्ताराः । संख्येयं असंम्येयं उभयं च योजनानां तु ।। ४७७ ।। वयसे । इन्द्रकभेणीवप्रकीर्णकाना कमेण विस्तारा: संहपेययोजनानि प्रसंहयेययोजनानि संख्येयासंख्येययोजनानि भवेयुः ॥ ४७७ ॥ इन्द्र कादिक विमानों के व्यास की प्ररूपणा करते हैं : गाचार्य :- इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानों का विस्तार क्रमशः संख्यात योजन, असंख्यात योजन और संख्याता संख्यात पोजन है ।। ४७७ ॥ विशेषापं :-इन्द्रक विमान संख्यात योजन विस्तार वाजे ही होते हैं, श्रेणीबद्ध विमान पसंख्यात योजन विस्तार वाले ही हैं, तथा प्रकीर्णक विमानों में से कुछ प्रकीर्णक संख्यात योजन व्यास वाले और कुछ असंख्यात योजन विस्तार वाले होते है। अथ सोधादिपु संख्यातासंख्यानविस्तारविमानसंख्या गाथाहयेनाह कप्पेसु गमिपंचमभागं मंखेजवित्थडा होति । ततो तिष्णद्वारस सत्तरसेकेकय कमसो ॥ ४७८ ।। कल्पेष राशिपञ्चमभार्ग संख्येयविस्तारा भवन्ति । ततः श्रीप्यष्टादश सप्नदक मेक क्रमशः ॥ ४७८ || कप्पेसु । कल्पेषु बत्तोस्टानीसमित्यादि उतराशीनां ३२ ल. पश्चमभागप्रमाण ३४०. संख्यालयोजनविस्तारविमानानि भवन्ति । ततः कल्पेभ्य: परतो नव वेपकाविषु श्रोणि ३ वश १८ सप्तदशै १७ क १ मे १६ कमशः संख्यातयोजनविस्तृतानि भवन्ति ॥ ४७८ ॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिलोकसार गाथा: ४७९ सौधर्मादिकों में संख्यात और असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों का प्रमाण दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : ४१= गावार्थ :-- कल्पवासियों में अपनी अपनी राशि के पांचवें भाग प्रमाण विमान संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, तथा अघोय वेयक में तीन, मध्यम वेयक में १८, उपरिम ग्रैवेयक में १७, अनूदियों में एक और अनुत्तरों में एक विमान संख्यात योजन विस्तार वाले हैं ।। ४७८ ।। विशेषार्थ :- कल्पवासियों में अपनी अपनी बत्तीस लाख, बट्टाईस लाख इत्यादि राशि के पचिव भाग प्रमाण संख्या योजन विस्तार वाले विमान होते हैं। जैसे ३२ लाख का पाँचवाँ भाग ( ७२००००० ) = ६४०००० है, अर्थात् सोधर्म कल्प में संख्यात योजन विस्तार वाले विमानों का प्रमाण ६४०००० है, इत्यादि । अधोवेयक में ३, मध्यम में १८ उपरिम वेयक में १७, अनुदिशों में एक और अनुत्तरों में एक विमान संख्यातयोजन विस्तार वाले है । सगसग संस्खेज्जूणा सगमगरामी असंखवासगया | अवा पंचमभागं चठगुणिदे होंति कप्पे ॥ ४७९ ॥ स्वकस्वक संख्येयोनाः स्वकस्व करापायः असंख्यन्यासगत्ताः । अथवा पश्चमभागं चतुगुणिते भवन्ति कल्पेषु ॥ ४७९ ॥ सगसग | स्वकीयस्वकीयसंख्यात योजन विमानसंख्या ६४०००० नाः स्वकीयवतीसाबिराशयः २५६०००० | संख्यातयोजमध्यासविमानानि । प्रथवा राशेः ३२ लक्ष पञ्चमभागसंख्या ६४०००० मितिः २५६०००० कल्पेष्वसंख्यासयोजनव्यास विमानसंख्या भवति ॥ ४७६ ॥ गाथार्थ :- कल्पवासियों में अपने अपने संख्यात योजन विस्तार वाले विमानों के प्रमाण से रहित अपनी अपनी राशि गत विमानों का प्रमाण हो असंख्यात योजन विस्ताय वाला है । REET अपनी अपनी राशि के भाग प्रमाण राशि असंख्यात योजन विस्तार वाली है ।। ४७६ ।। विशेषार्थ : --- अपने अपने कल्प की ३२ लाख आदि राशि में से संख्यात योजन विस्तार वाले विमानों का प्रमाण घटा देने पर जो अवशेष रहे वह संख्यात योजन विस्तार वाले विमानों का प्रमाण होगा। जैसे :- सौधर्मकल्प की कुल राशि ३२००००० - ६४८००० संख्यात योजन वाले २५६०००० विमान असंख्यात योजन प्रमाण वाले हैं। अथवा ३२ लाख के ५ वें भाग में चार का गुणा करने में भी असंख्यात योजन प्रमाण वाले विमानों का प्रमाण प्राप्त होता है। जैसे :-- ३२०००००४४ = २५६०००० सौधर्म कल्प में असंख्यास योजन विस्वार वाले विमानों का प्रमाण है । इसी प्रकार द्वितीयादि कल्पों में जानना चाहिए । अथ तेषां विमानानां बाहुल्यमाह Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाषा.४८० ४१ वैमानिकलोकाधिकार छज्जुगल सेसकप्पे नितिसु सेसे विमाणतलबहलं । इगिषीसेमारमयं णवण उदिरिणक्कमा होति ।। ४८० ।। षड युगलेषु शेषकल्पेषु त्रिस्त्रिषु दोषे विमानतलबहरू। एकविशत्येकादशशतं नवनवति ऋणक्रमा भवन्ति ।। ४० ॥ छज्जुगल । सौधर्माविषु षत्सु युगलेषु मानतापितु कल्पेषु प्रायोपवेयताविपु निस्त्रियनुत्तरयोश्च मिमिरवकादशसु स्पानेषु विमामतलबाहल्यं मयासंख्यं पावावेकविक्षस्यधिकारशा ११२१ उपरि सत्र नवमति ऋणमा भवन्ति ॥ ४८० ॥ उन विमानों का बाहुल्य कहते हैं___ गापा:-पूर्व के छह युगलों में, शेषकल्पवासियों में, तीन तीन अधो आदि ग्रंयकों में, शेष अनुदिश और अनुत्तरों में विमानसाल का बाहुल्य-आदि एक हजार एक सौ इकोस योजन है। इसके ऊपर क्रमशः ; E६. योजन होन होता गया है ।। ४८० ॥ विशेषार्ष :-सोधादि छह युगलों के ६ स्थान, अवशेष मानतादि कल्पों के एक एक स्थान, अधौ-मध्य आदि तीन प्रवेयकों के तीन स्थान, अनुदिशों का एक और अनुत्तरों का एक इस प्रकार सब मिलाकर ११ स्थानों में विमान तलों का गहल्य यथाक्रम प्रथम स्थान का ११२१ योजन है और इसके आगे आगे सर्वत्र ९९.९९ योजन हीन होता गया है। संध्यातादि विमानों का प्रमाण एवं बाहुल्य का प्रमाण : [ चाट अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० त्रिलोकसार गाथा : ४बर _क्रमांक . ] स्थान संख्या | इन्द्रक + संख्यात. वामे । धेणीबद्ध + असंख्यातः वाले । विमानतल स्वर्ग पटल | प्रकोणक = संख्यात योजन | प्रकीरणक= असंख्यात यो वाले , का बाहुल्य वाले विमानों का कुल प्रमाण विमानो का कूल प्रमाण । ( मोटाई) -- . सौधर्म । ३१+६३८६६९-६४०००० ४३७१ + २५५५६२१=२५६००.० ११२१ योजन ऐशान | ५६०००० प्रकोशंक (१५५७+ २२३८५४३) = २२४०.०० ११२१ , मानत्कुमार | ७६ २३९९९३=२४०००० ( ५८८ - ९५९४१२ )=१६००००। १०२२ " माहेन्द्र । १५०.०० प्रकीर्णक (१५६ + ६३६८०४ ) = ६४०००० १०२२ य. ब्रह्मो०- ४+ULEE६८०००० | ( ३६४+३१६६४०) = ३२०००० ला. कापि• २+ १९९८ = १००.० (१५६ + ३६८४४ )=Yo... शुक्र-महा० | १+७६६-८००० (२+३१९२८) =३२.०० १+११९९-१२०० . . शतार-सहः । आनतादि ४ | (६८+४.३२ )=४८०० ( ३२४ + २३६ )५६० ६+१३४- १४० - अधोवे० । ३+ -३ मध्य , उपरि । ३+१४=१० अनुदिश 1+ =१ अनुत्तर १+०-१ ( १०८+0)=१०८ (७२+१७ )=८९ । ( ३६+-३०)=७४ : । २३० - - - (४+४ -८ । १३१ 3. . - (४+01-४ - - अथ तेषां विमानानां वर्णक्रम व्यावणंयति-- दोहो चउचउकप्पे पंचयवण्णा हु किण्णवज्जा हु। गीलूणा रक्षणा विमाणवण्णा तदो मुक्का ।। ४८१ ।। द्वयोः द्वयोः चतुश्चत:कल्पेषु पश्चकवर्णा हि कृष्णवर्जाः हि। नीलोनाः रक्तोनाः विमानवां ततः शुक्लाः ॥ rat || Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ५२ वैमानिकलोकाधिकार ४१ दोहो । मौषर्माविषु योद्धयोः कल्पयोः ब्रह्माविषु चतुर्ष चतुर्ष कल्पेच मिलिया चतुर्ष स्थानेषु यथासंख्यं पश्वाः खलु कृष्णवर्जचतुर्व: गौलोनत्रिवणा: रक्तोनविषा: तत मानसारिन् सर्वद शुग्णय पाविमलागि रसुः :: :: विमानों के वर्ण क्रम का वर्णन करते हैं : मायार्थ :--दो कल्पों में पांच वणं वाले, दो कल्पों में कृष्ण के बिना चार वणं वाले, ब्रह्मादि चार में ( कृष्ण ) नील के बिना तीन वर्ण वाले, शुक्रानि चार में रक्त बिना भी दो वणे वाले और आनतादि से लेकर ऊपर के सभी विमान मात्र शुक्ल वर्ण वाले होते हैं ।। ४८१ ॥ विशेषार्थ :-सोधगान कल्पों के विमान पांच वर्ण वाले हैं। सानाकुमार-माहेन्द्र कल्पों के विमान कृष्ण के बिना शेष चार वर्ण वाले हैं । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तब और कापिष्ठ कल्पी के विमान कृष्गा और नील बिना तीन वर्ण वाले हैं। शुक्र-महायुक, शतार और सहस्रार कल्पों के विमान कृष्णं, नील और रक्त वर्ण मे रहित मात्र दो वर्ण वाले हैं, और पानतादि से लेकर अनुत्तर पर्यन्त के सभी विमान मात्र शुक्ल वर्ण के होते हैं। इदानीं विमानाधारस्थान निरूपयनि-- दुसु दृसु मसु कप्पे जलवादुभये पट्टियविमाणा । सेसषिमाणा सवे आमासपाया होति ।। ४८२ ।। द्वयोः द्वयोः अवसु कल्पेषु जलवातोभये प्रतिष्ठितविमानाः । शेषविमाना: सर्वे प्राकापाप्रतिष्ठिता भवन्ति ॥ ४८३ ।। दुसु दुसु । योयोः कल्पयोब महाविष्य कापेषु मिलिया त्रिस्थानेषु यथासंस्म बमप्रतिक्षितविमाना: वात प्रतिष्ठितांवमानाः उभयप्रतिलितविमानाः शेषविमानाः सर्वे प्राकाशप्रतिविता भवन्ति ॥ ४५२ ॥ विमानों के आधार-स्थान का निरूपण करते हैं : - पाघार्य :-दो कल्पों के विमान बलाधार, सानत्कुमारादि दो कल्पों के वायु आधार, ब्रह्मादि आठ वर्गों के उभय । जलवायु ) आधार और आनतादि से अनुत्तर पर्यन्त के सभी विमान शुद्ध माकाश के आधार हैं।। ४६२ ।। विशेषार्थ :---सौधर्मशान कल्प के विमान जलके ऊपर अवस्थित हैं। सानत्कुमार माहेन्द्र १ विमाना: स्युः ( २०, प.)। २ वायू। क०,५०)। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ त्रिलोकसार पावा:४३ कल्पों के विमान वायु के ऊपर स्थित हैं, तथा ब्रह्म स्वर्ग से लेकर सहस्रार स्वर्ग तक के अष्ट कल्पों के विमान जल, वायु ( उभयाधार ) के ऊपर अवस्थित हैं और मानतादि से सर्वार्थ सिद्धि पर्यन्त के सभी विमान शुम आकाश में स्थित हैं। अधुनेन्द्रस्थित विमानं कषति छज्जुगलसेसकप्पे भारतमाम्ह सविधम्मि दोहीणकम दकिवणउत्तरभागम्हि देविदा ।। ४८३ ।। पड़ युगलशेषकरमेषु अष्टादशमे अरेणीबद्ध । विहीनक्रमं दक्षिणोत्तरभागे देवेन्द्राः ।। ४८३ ।। वाज्जुगल । षट्सु युगलेषु शोषकल्पे च ययासंख्य प्रपमयुगले स्वस्वधरमेगासम्बम्धे महावने श्रेणीदे द्वितीयावी छ विहीनकमेण श्रेणीब १८ । १६ । १४ । १२१।८६ दक्षिण मागे दक्षिणेचा उत्सरमागे उत्तरेनास्तिष्ठन्ति ॥ ३ ॥ अब इन्द्र स्थित विमानों का कथन करते है : गाषा :-छह युगलों और मवशेष फल्पों में कम से अठारह श्रेणीबद्ध में तथा इससे भागे दो दो हीन संम्मा वाले भणीबद्धों में, दक्षिण भाग में वक्षिणेन्द्र और उत्तर भाग में उत्तरेन्द्र रहते हैं ।। ४६३ ।। विशेषार्थ:-प्रथम युगल के ३१ वे प्रभ नामक इन्द्रक से दक्षिण श्रेणी में स्थित जो १८ वा अंगीबद्ध विमान है, उसमें सौधर्म इन्द रहता है, तथा प्रभा नामक इन्द्रक की उत्तर दिशा के अठारहवें श्रेणीबद्ध विमान में ईशान इन्द्र रहता है। इसके ऊपर चक नामक इन्द्रक के दक्षिण में स्थित १६वें पणीबद्ध में सानत्कुमार और इसी इन्द्र क को उत्तर दिशा के १६ व अंगोबद्ध में माहेन्द्र इन्द्र निवास करता है। इसके ऊपर ब्रह्मोत्तर नामक इन्द्रक की दक्षिण दिशा के १४ श्रणीबद्ध में ब्रह्मोत्तर इन्द्र स्थित है। इसके ऊपर लान्तव नामक इन्द्रक को दक्षिण दिशा के १२ वें श्रेणीबद्ध विमान में लान्तव देव स्थित है। इसके ऊपर महाशुक्र नामक इन्द्रक की उत्तर दिशा में १. में अंगोबद्ध विमान में महाशुक इन्द्र रहता है। महनार नामक इन्द्रक की उत्तर दिशा के ८ दें अपीबद्ध विमान में सहस्रार इन्द्र रहता है । इसके ऊपर कम से आनत नामक इन्द्रक की दक्षिण दिशा के ६ श्रेणीबद्ध विमान में प्रानत इन्द्र और उत्तर दिशा के ६ में श्रेणीबद्ध विमान में प्राणत इन्द्र रहता है। मारण नामक इन्द्रक की दक्षिण दिशा के श्रेणीबद्ध विमान में आरण इन्द्र तथा उत्तर दिशा के ६ में श्रेणीबद्ध विमान में अच्युत इन्द्र रहता है। अथ तेषां विमाननामानि गाथादयेन कषयति Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया। ४०४ से ४७ वैमानिकलोकाधिकार ४२३ दद्वियं विमाणं मगसमकप तु सरस चउपासे । वेलुरियरजतसोकं मिमक्कसारं तु पुष्वादी ।। ४८४ ।। चन्द्रस्थितं विमानं स्वकस्वककल्पं तु तस्य चतुः पार्थे । वैडूर्य रजताशोक मृपकसारं तु पूर्वादिषु || ४८४ ॥ बिहिसं स्थित विमानं स्वकीयस्थकीयकरूपापकं तु पुन: तस्य चतुः पार पडूर्यरमताशोकमृषाकसारात्यविमानानि पूर्वाधिशिनु तिष्ठन्ति । अयं विषिः सर्वेषां बक्षिणेमाण ॥ ४८४ ॥ दो गाथाओं द्वारा उन विमानों के नाम कहते हैं : गाथार्थ :---अपने अपने कल्प का नाम हो इन्द्र स्थित विमान का नाम है। इस विमान के चारों पाव भागों की पूर्यादि दिशाओं में कम स वैडूर्य, रजत, अशोक और भूपत्कसार नामक विमान स्थित हैं ।। ४८४ ॥ विशेषाथ :- जो जो नाम कल्पों के है वही वही नाम इन्द्र स्थित विमानों के हैं। जैसेमोधर्मेन्द्र के विमान का नाम सौधर्म, ईशानेन्द्र के विमान का नाम ऐशान है। इत्यादि, इन्द्र स्थित विमान के चारों पाश्वभागों में पूर्व दक्षिण आदि दिशाओं के क्रम से वैडूर्य, रजत, अशोक और मृषत्कसार नामक विमान स्थित है । यह विधान सर्व दक्षिणेन्द्रों का है। रुचकं मंदरसोकं सचच्छदणामयं पिमाणं तु । सब्बुचरइंदाणं विमाणपासेसु होति कमे ॥ ४८५ ।। रुव मन्दराशोक सप्तच्छदमाम विमानं तु । सर्वोत्तरेन्द्राणां विमानपाश्र्वेषु भवन्ति क्रमेण ।। ४८५ ।। अच। पचकमबराशोकससवनामामि विमानानि सर्वोत्तरेखाणा स्वस्वविमानचतुःपाई कमेण भवन्ति ॥ ४५ ॥ गाचार्य :- सर्व उत्तरेन्द्रों के विमानों के चारों पाश्र्व भागों में क्रमश: मचक, मन्दर, अशोक और मातमद नामक विमान स्थित है ।। ४८५ ॥ विशेषार्थ :-सुगम है। अथ सौधर्मादिदेवानां मुकुटचिङ्गानि गाथाद्वयेनाह मोहम्मादीबारस साणदारणगजुगलए वि कमा । देवाण मउल चिशे वराइमयमहिसमच्छाबि ।। ४८६ ।। कुम्मो दद्दरतुग्या तो कुंजर चंद सप्प खग्गी य । छगलो बमहोतचो चोद्दममो होदि कप्पतरू ॥ ४८७ ।। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ त्रिलोकसार सोधर्मादिद्वादशसु आनतारणकयुगेपि क्रमात् । देवानां मौलिचिह्न' वराहमृग महिषमत्स्या अपि ॥ ४८६ ॥ कूर्मो ददुरस्तुरगस्ततः कुखरः चन्द्रः सर्गः खड्गी च । लगलो वृषभः ततः चतुर्दशो भवति कल्पतरुः ॥ ४८७ ॥ सोही सौधर्माविषु द्वादशरूरूपेषु धानतयुगले पारयुगले व क्रमात् वेदान मौलि चिह्नानि वराहृमृगमहिषमस्या ॥ ४८६ ॥ कुम्मो | छापामात्रमेवार्थः ॥ ४८७ ॥ दो गाथाओं द्वारा सौधर्मादिदेवों के मुकुट चिह्न कहते हैं : गाथा : ४८६ से ४८५ - गावार्थ:-सौधर्मादि बारह स्वर्गों में, आनत युगल एवं आरा युगल में देवों के मुकुटों के चिह्न कम से बराह, मृग, महिय, मत्स्य, कछुआ, मेंढक, घोड़ा, हाथी, चन्द्रमा, सर्प, खड्गी, छपल, वृषभ और चौदहव कल्पवृक्ष है ।। ४८६ ४८७ ॥ विशेषार्थ :- सौधर्मादि बारह कल्पों के १२ स्थान, आनत युगल के १३ वें और आरण युगल के १४ वें स्थान के इन्द्रों के मुकुटों के चिह्न कम से बराह, (सूकर ) मृग, भंसा, मत्स्य, कछुआ, मेंढक, घोड़ा, हाथी, चन्द्रमा, सर्प, खड्गी, छगल ( बकरी ), बैल और कल्पवृक्ष है । साम्प्रतमिन्द्राणां नगरस्थानं विस्तारं च गाथाद्वयेनाह - सोहम्मादिचउक्के जुम्मचक्के य सेमकप्पे य । सगदे विजुदिदाणं णयराणि हवंति नवयपड़े || ४८८ ।। सौधर्मादिचतुष्के युग्मचतुष्के च शेषकल्पे च । देवी सुतेन्द्राणां नगराणि भवन्ति नवकपदे ॥ ४८८ ॥ सोहम्मादि। सोधर्माविचतुष्के ब्रह्मादियुग्मके मामताविशेषकल्पे व धानतावीर्मा नगरेषु प्रत्येकं विशतिसहस्रयोजनव्यास साधारणात्कल्प चतुष्टयमेकं स्थलं कृतं इति नवसु स्थानेषु स्वस्वदेबी ते नवराणि सवन्ति ॥ ४८ ॥ दो गाथाओं द्वारा इन्द्रो के नगर स्थान और विस्तार का वर्णन करते हैं :-- गाथार्थ :- सौधर्मादि चार कल्पों के चार, ब्रह्मादि चार युगलों के चार और आनतादि अवशेष कल्पो का एक, इस प्रकार इन नौ स्थानों में अपनी अपनी देवाङ्गनाओं से युक्त इन्द्रों के नगर हैं || ४८८ || विशेषार्थ :---- सौधर्मादि चार कल्पों के चार स्थान ब्रह्मादि चार युगलों के चार स्थान और आनतादि कल्कों के नगरों में प्रत्येक नगर बोस हजार योजन व्यास की समानता वाला है, अत: इनका एक स्थान इस प्रकार कुल नौ स्थानों में अपनी अपनी देवाङ्गनाओं से युक्त देवों के नगर है । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ४६९-४९० वैमानिकलोकाधिकार चुलमीदीय असीदी विहरी सत्तरीय जोयणगा | बावय बीसमहम् समचउरम्माणि रम्माणि ॥ ४८६ ।। चतुरशीतिः अशीतिः द्वासप्ततिः सप्ततिश्च योजनानि । यावदिशसहस्र' समचतुरस्त्राणि रम्याणि ॥४८९ ।। चुलसी । चतुरशीतिसहस्राणि प्रशीतिसहस्राणि पासप्ततिसहस्राणि सप्तसिसहस्राणि योजनानि यावविंशतिसहस्र तावद्दशसहस्रोनं कर्तव्यं एतल्यामयुक्तानि मगराणि समबरनारिण रम्पाणि ॥ ४ ॥ गाथार्थ :-चौरासो, अस्सी, बहत्तर और सत्तर हजार योजन तथा इसके प्रागे जब तक बीस हजार योजन न रह जावें तन्त्र तक दश दश हजार योजन कम नगरों के ज्यास का प्रमाण है । ये सभी नगर समचतुरस्र और रमणीक हैं ।। ४८६ ।। विशेषार्थ:--सोधर्म कल्प में ८४ हजार मेजर ध्या: नाले, ऐसाल में 50 हतार सानत्कुमार में ७२ हजार, माहेन्द्र में ४० हजार, ब्रह्मयुगल में ६० हजार, लान्तव युगल में ५० हजार, शुक्र पुगल में ४० हजार, शतार युगल में ३० हजार तथा मानतादि चार कल्पों में प्रत्येक २०.२० हजार योजन प्रमाण न्यास वामे नगर हैं। इन नगरों की लम्बाई चौड़ाई का प्रमाग समान है अतः • समचतुरन तथा रमणीक हैं। अथ उक्तनगरप्राकारोत्सेधस्वरूपमाह छज्जुगलसेसकप्पे तप्पायाख्दय जोयणं तिसदं । पण्णासणं पंचम तीसूर्ण उवरि वीमूणं ।। ४९० ॥ पट्युगलशेपकल्प तत्याकारोदयः योजनं विषानं । पश्चाशदुनं पनामे विशदूनं उपरि विशोनम् ॥ ४० ॥ छज्जुगल । षट्युगलेषु शेषकल्प घेति सप्तस्थाने तत्तनगरप्राकारोक्यः पायो योजनानां त्रिशतं उपरि पश्चाशदूनं पश्चमस्थाने शिवून तत उपरि विशत्यूनं नातम्यं ॥ ४० ॥ उक्त नगरों के प्राकारों को ऊंचाई का स्वरूप कहते हैं :-- गाथार्थ:-छह युगलों के छह स्थान और शेष कल्पों का एक स्थान इन सात स्थानों में प्रासादों की ऊँचाई का प्रमाण क्रम से ३०० योजन, तीन स्थानों में ५. योजन फम, पांचवें स्थान में ३० योजन और शेष में २० योजन कम है ॥ ४६॥ विशेषाय :-छह युगल स्वर्गों के छह स्पान मोर कोष चार कल्पों का एक स्थान. इस प्रकार इन सात स्थानों में उनके नगरों के प्रासादों की ऊंचाई- सौधर्म युगल की ३०० योजन, सानत्कुमार Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : ४६१-४९२ युगल की २५० योजन, ब्रह्म युगल की २०० योजन, लान्तब युगल की १५० पोजन, शुक्र युगल की १२० योजन, शतार युगल की १०० योजन और आनतादि चार कल्पों के सातवें स्थान में स्थित नगरों के प्राकारों { कोटी ) की ऊंचाई ८० योजन प्रमाण है। मथ तत्प्राकारगाधविस्तारावाह-- गाढो वित्थारो विय पपणास दलकमं तु पंचमगे। चनारि तियं नई चरिमे दुगमद्धसंजु ।। ४९१ ।। माधो विस्तारः अपि पश्चाशत् दलमस्तु एश्चमके। चनारि त्रीणि षष्टे चरमे दिकमधंसंयुक्तम् ॥ ४९१ ॥ पाहोवि । तामाकारगायो भूगतोय इत्यपः । तहितारोऽपि पारी पक्षाशयोजनानि उपर्युपरि पर्वावंकमः । तु पुन: पक्षमस्थाने तत्वारि योजमानि षष्ठस्माने त्रीणियोजनानि चरमस्पाने प्रयोजनसंयुतं योजनद्वयं सातव्यं ।। ४६१ ॥ उन प्राकारों के गाध ( नोंव ) और विस्तार का प्रमाण कहते हैं : मापार्ष:-[ उपयुक्त सात स्थानों में स्थित प्राकारों के ] अवगाव (नीव) और उसका विस्तार इन दोनों का प्रमाण ५० योजन स्थानों का RE: आर- पाचवें स्थान का ४ योजन, छठे का तीन योजन और सातवें स्थान का २३ योजन है ।। ४९१ ।। विशेषार्थ :-ऊपर कहे हुए सातों स्थानों में स्थित प्राकारों के जमीन को गहराई और प्राकारों का विस्तार अर्थात् चौड़ाई इन दोनों का प्रमाण प्रथम युगल में ५० योजन, दूसरे में २५ योजन, तीसरे में ३" योजन अर्थात् १२३ योजन और चौथे में ६३ योजन है। पांचवें स्थान में ४ योजन. छठे स्थान में ३ योजन और सातवें स्थान में २३ मोजन प्रमाण है। अथ तत्प्राकाराणां गोपुरस्वरूपं गाथायेनाह पहिदिस गोउरसंखा तेसिं उदभोषि चउतिदोणिसया । तसो दुगुणासीदी बीसविहीणं तदो होदि ॥ ४९२ ।। प्रतिदिशं गोपुरसंख्या तेषां उदयोऽपि चतुनिद्विशतानि । ततः द्विगुणाशीतिः विशतिविहीनः तता भवति ।। ४१२॥ परिषिस गो। प्रसिरि तत्प्राकाराणा गोपुरसंख्या तेषामुवयोऽपि पूर्ववत सप्तसु स्थानेष पासयं चतुः शतयोशनामि विशयोजनानि द्विशतयोजनानि ततः परं विगुणातियोजनानि ततः पर विशया हीनकमो भवति ॥ ४९२ ॥ उन प्राकारों के गोपुरों का स्वरूप दो गाथाओं द्वारा कहते हैं... गाथा:-उन सातों स्थानों के प्राकारों को प्रत्येक दिशा में जितनी गोपुरवारों की संख्या Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाषा: ४१३ वैमानिकलोकाधिकार ४२७ है, उतनी ही उनकी ऊंचाई है। वह कम से चार सौ, तीन सो, दो सौ, एक सो माठ मोर इसके बाद बीस बीस योजन हीन है ॥ ४९२ ।। _ विशेषार्थ :-सातों स्थानों के प्राकारों की चारों दिशाओं में गोपुरों की संख्या का जितना जितना प्रमाण है, उतने उतने योजन ही उन गोपुरों की ऊँचाई है । यथा--प्रथम स्थान के प्रकार की चारों दिशाओं में चार, चार सौ योजन ऊँचाई वाले ४.०, ४०० ही गोपुर द्वार हैं। दूसरे स्थान में ३०. योजन ऊंचाई वाले ३०० गोपुरद्वार, तीसरे स्थान में २०० योजन ऊँचे २०० गोपुरद्वार, चौथे स्थान में १६० योजन ऊँचे १६. गोपुर द्वार, पांचवें स्थान में १४०, छठवें स्थान में १२० और सातवें स्थान में १०० गेजन ऊंचाई वाले तथा तत लत ही प्रमाण को लिए हए गोपुरद्वार हैं। गोउरवासो कमसो मयजोयणगाणि तिस य दसहीणं । बीसूर्ण पंचमगे तो सबथ दसहीणे ।। ४९३ ।। गोपुरन्यास. क्रमशः शनयोजनानि त्रिषु च दशहोनं । विशोनं पचमके ततः सर्वत्र दशहीनम् ॥ ४६३ ।। गोउर । गोपुरण्यास: कमशः प्राची शतयोजमानि हतः उपरि त्रिषु स्पानेषु वाहीनं पोजमामि पश्चमस्थाने विशत्यूनयोजनानि । ततः परं सर्वत्र वाहीनयोजनामि ॥ ३ ॥ गाथार्य ...गोपुर द्वारों का व्यास क्रम मे १०० योजन, तीन में दश दश योजन होन, पाचवे में बोस योजन होन तथा इसके आगे सर्वत्र खश दशा योजन हीन है ॥ ४६३ ॥ विशेषाय :- प्रथम स्थान के गोपुर द्वारों का व्यास ( चौड़ाई) १०० योजन, दूसरे का ६. योजन, वोसरे का ८. योजन, चोये का ७० योजन, पाचवे का ५० योजन, छठवे का ४० योजन और सातवें स्थान के गोपुर द्वारों का व्यास ३० योजन प्रमाण है। पूर्वोक्त नगरों का विस्तार, उन के प्राकारों का उत्सेध, बाहुल्य आदि एवं गोपुरद्वारों का प्रमाण, जनकी ऊँचाई और व्यास का सश्चित वर्णन निम्न प्रकार है [कृपया चार्ट अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरों का विस्तार प्राकारों { कोट ) का विवरण गोपुर द्वारों का प्रमाणादि से गाधनी) ऊंचाई । बाहुल्य गा की गहराई तसेच व्यास नव नगरो का क्रमांक सात स्थान स्वान प्रत्येक दिशा का प्रमाण गोजनों में विस्तार योजनों मोलों शोजनों मीलों । मेजनों में मालाम योजनों में ३०. यो. २४.० ५० १४०० | ५०४०.४०० २०.१० सौवमं ईशान मानन्कु. ४००० योजन। ' सौधर्मशान ८०००० * ! ७२०२० २ सा०, मा० २५० + २००० ! २५ .२०० | २५ २०० ३०० ३०० २१००,१० १७२० माहेन्द्र ७.०८. " त्रिलोकसार ६००००* ३ ' ब्रह्म-ब्रह्मो २००:१६०८८० लां०-का० ५००००. ___ ला०, का० १५० - १० || ५० | ६३ | ५० १६० १६०/१२८०७० ५६० शुक्र-म. ४.... . - गनार-महः २०.०० - ५ शुक्र-म. १२० ॥ ३२ १४० १४०११२०५० ४. २४ १. १२०९६.४० ३२० बानतादि २०.०० शतार-सह ३ - आनतादि | १० | २३ २०११.० १००८.० ३०२४० गाय।। ४९३ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा ।४३४-४६५ वैमानिकलोकाधिकार ४२६ अथ शगुक्तनय स्थानाश्रयेण सामानिकतनुरक्षानीकदेवानां प्रमाण गाथाद्वयेनाह णयरपदे तस्मंखा ममाणिया च उगुणा य तणुरक्खा । वमहतुरंगरथेभपदातीगंधवणचणी वेदि ॥ ४९४ ।। सचेव य आणीया पतयं सत्तसनकक्खजुदा । पढम सममाणसमं न गुणं चरिभकखोचि ।। ४९५ ॥ नगरपदे तत्संख्या मामानिका चतुगुणाश्च तनुरक्षाः । वृषमतुरङ्गरथेभपातिगन्धर्वनर्तकी चेति ॥ ४९४ ।। सप्तव च आतीकानि प्रत्येक मतसप्तकक्षयुतानि । प्रथमः स्वममानसपः तद्विगुणं चरमकक्षान्तम् ॥ ४९५ ॥ एयरपवे । सोहम्मादिचके इति गायोत माराला नवसु स्थानेषु खुलसीवियति गायीक्ततसम्मगर विस्तारसंस्येव सामानिकसंख्येति मातव्यं संघ चतुलिता तनुरक्षकसंख्या पुषभतुरंगरमपवातिगन्धर्वनर्तको वेति ॥ ४ ॥ सशेष य । सप्तधानीकानि तानि प्रत्येक सप्तसप्तकक्षपुतामि । तत्र प्रथमकल: स्वस्प स्वस्थ सामानिकसम: तत उपरि तस्मात् हिगुरण घरमकापर्यन्तम् ॥ ४५ ॥ पूर्वोक्त नर स्थानों के आश्रय से सामानिक, अनुरक्षा और मनीफ देवों का प्रमाण यो पायाओं द्वारा करते हैं: गाया :-नगर व्यास के सदृश्य नो स्थानों में सामानिक देवों का प्रमाण है। अर्थात् नगर म्यास के प्रमाण बराबर ही है । तनुरक्षकों का प्रमाण सामानिक देवों के प्रमाण से चौगुणा है। तथा ( १ ) वृषभ, ( २ ) घोड़ा, ( ३ ) रथ, (४) हाथी, (५) पयादे, (६) गन्धर्व और { ७) नतंकी इस प्रकार अनीक सेना सात ही प्रकार की है। प्रत्येक मेना सात सात कक्षाओं से संयुक्त है । प्रथम कक्ष का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवों के प्रमाण स्वरूप है, इसके मागे परम कक्ष पर्यन, प्रत्येक कक्ष का प्रमाण दूना दूना होता गया है ।। ४९४, ४६५ ।। विशेषार्थ : -- "सोहम्मादि च उक्के" इत्यादि गाथा सूत्र ४८८ के अनुसार तथा "चुलसीदीयअसीदी'' गाथा ४८ के अनुसार जो नव स्थान एवं उनके व्यास का प्रमाण कहा है, उन्हीं नव स्थानों में सामानिक देवों का प्रमाण नगर व्यास के बराबर ही जानना चाहिये । प्रत्येक स्थान के तनु रक्षकों का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवों के प्रमाण से चौगुणा है, तथा वृषभ, घोड़ा, रथ, हाथी, पताति, गन्धर्व और नर्तकी ये सात अनीक मेनाएं हैं, जो प्रत्येक सात सात कक्षाओं से संयुक्त है। प्रथम कक्ष का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवों के प्रमाण सदृश ही है। आगे चरम कक्ष पर्यन दूना दूना होता गया है। ( इसी का विशेष वर्णन गाथा १६८ के विशेषार्थ में दृष्य है ) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० त्रिलोकसार अथ दक्षिणोतरेन्द्राणामानीकनायकान् गाथाद्वयेनाह गाषा : ४९६-४९७-४१६ दामेडी हरिदामा मादलि अहरावदा महवरया । बाउयरिडजसा नीलंजणया दक्खिणिदाणं || ४९६ ॥ दामयष्टिः हरिदामा मातलिः ऐरावतो महत्तरः । वायुः अरिष्ट्या नीलाञ्जना दक्षिणेन्द्राणाम् ॥ ४६६ ॥ वामेडी दामटवामा मातलिरेशयतो महत्तरश्च वापुररिनृपशा इस्येते पुरुषाः नीलाजति स्त्री एते दक्षिणेवारगां सेनामुख्याः ॥ ४९६ ।। दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र के अनीक नायकों को दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : पापा:-क्षिणेन्द्र ( सौधर्म ) की सेना के प्रधानों का नाम क्रम से दामयष्टि हरिक्षामा मावलि, ऐरावत, बायु अरिष्टयशा और नीला खना है ।। ४६६ ॥ विशेषार्थ :- दक्षिणेन्द्र को वृषभ सेना के प्रधान का नाम दामयष्टि, तुरङ्ग सेना का हरियामा रथ का मातलि गज सेना का ऐरावत पयादों का वायु, गन्धर्व सेना का अरिष्टयशा और नर्तकी सेना नीलाञ्जना है। इनमें क्रम से ग्रह पुरुषवेदी और सातवीं नीलाञ्जना स्त्री 1 के प्रधान का नाम वेदी है। महदामेडि मिदगदी रहमंथन पुष्कयंत इदि कमसो । सलघुपरकपगीदरदि महासुसेणा य उत्तरिंदाणं ।। ४९७ ।। महदामयष्टिः अमितगतिः रसमन्यन: पुष्पदन्त इति क्रमशः । सलघु पराक्रमो गीततिः महासुसेना चोत्तरेन्द्राणाम् || ४९७ ।। महामे । महादामयष्टिरमितगतिः स्वमंथन: पुष्पवन्त इति क्रमशः सलघुपराक्रमी गीतरसि रिश्येते पुरुषाः महासेनेति स्त्री एते उत्तरेन्द्राण सेनामुख्याः ॥ ४९७ ॥ पापा:- उत्तरेन्द्र की सेना के प्रधानों का नाम क्रमशः महादामयष्टि, अमितगति, रथमन्थन, पुष्पदन्त, सलघुपराक्रम, गीतरति और महासुसेना है । ४६७ ॥ विशेषार्थ :- उत्तरेन्द्र ( ईशान ) की घृषभ सेना के प्रधान का नाम महादामयष्टि तुरङ्ग सेना का श्रमितगति, रथ का रथ मन्यन, गजसेना का पुष्पदन्त, पयादों का सलघुपराक्रम, गन्धर्व सेना का गीत रति और नर्तकी सेना का महासेना है। इनमें क्रम से छह पुरुष वेदी हैं और सातवीं महासेना स्त्री वेदी है। अथ परिषत्त्रयसंख्यामरह बारस चोट्स मोस सस्स अन्यंतरादिपरिसाओ । तत्थ सहस्सदुउण्णा दुसहस्सादो हु अर्द्ध ।। ४९८ || Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा:४९ वैमानिकलोकाधिकार ४३१ द्वादश चतुर्दशपोडशसहस्राणि अभ्यन्तरादिपारिषदाः । तत्र सहयद्य ना द्विसहवात् हि अधिम् ।। ४६८ ।। पारस । प्रागुक्तमयसु स्थानेषु मावो प्रसन्तराषिपारिवाना संल्पा यथासंख्य द्वारासहस्रारिए चतुर्दशसहस्राणि षोडशसहस्राणि तत उपरि तत्र पृथक पृथक सहमतिकोनसंख्या स्यात् । विसहलानुपरि अरिंकमो ज्ञातव्यः ॥ ४६८ ॥ नीनों परिषदों की संख्या कहते हैं तारा :.-: यू पी में प्रगम हमान की ] अम्पन्तर, मध्य और वाय परिषद् की संख्या कम से बारह हजार, चौदह हजार और सोलह हजार है । इसके बागे के स्थानों में दो हजार पर्यन्त कमशः दो दो हजार हीन है तथा इसके आगे भर्घ अर्ध प्रमाण है ।। ४९८ ।। विकोषा:-प्रत्येक की संख्या का प्रमाण इस प्रकार है [ कृपया चाट अगले पृष्ठ पर देखिए ) Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव स्थानो में-सामानिक-तनुरक्षक-सातों अनौक-एवं तीनों परिषदों का प्रमाण क्रमांक सामानिक बनीक मेनामों का प्रमाण । परिषदों का प्रमाण देवों का तनुरक्षक देवों का नव स्थान प्रमाण प्रमाण प्रथम | एक अनीक की सातो अनीकों की उप्यन्तर मध्य बाह्य | कक्ष | सम्पूर्ण संख्या । सम्पूर्ण संख्या 'परिपद परि० परि । [प्रथम कक्ष की। | संख्या से १२७ गुणी है।) । सौधर्म ४.०० ३३६००० तीन ला. ३६६.] =Y.00 १०६६८००० ७४६७६००० १.० १५००० १६००० २ ईशान ८०.०० ३२००४० [३ ला• २० हृ०] ८.००० | १०१६००.. ७११२०००० १.०.. १२०.० १४००० ३ सानत्कुमार ७२... २८००० [२ ला• मह०] ७२००० ६१४४५०. ६४००००००००० १०००० १२००० ४ माहेन्द्र ...० २८००००२ला० ८०है.],9-००० ८९०००० ६२२३०००० ५ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर ६०००. २४०००० [२ ला० ४० ह०] ६०००० ७६२०००० ५३३४०००० ४० ८००० ६ लांतव-कापि० ५.... २०००.० [ दो लाख ] ५०००० ६३५८००० १४४५०००. शुक-महा० ०००० १६०.०.[१ ला० ६० ६०] ४००.० | ५०८०००० ३५५६....! ८ शतार-सह० ३०००० १२००००११ला० २०६३००००। ३८१०००० २६६७०००. ५०० आनतादि २००० ८०००० [ ८० हजार] २०००० | २५४००.. १७७८०००. २५० त्रिलोकसार नोट :-तिलोयपण्णाति ८/२३१ के अनुसार आरण अच्युत को अभ्यन्तर परिषद का प्रमाण १२५ है । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक लोकाधिकार साम्प्रतमितर प्राकार संख्यां तदक्षरं प्रमाणं चाह पाचा : ४६६-५०१ राणं विदिपादपायारा पंचमोति तेरसयं । तेमहि भडकदी चुलमीदी लक्खाणि गंतूर्ण ।। ४९९ ।। नगराणां द्वितीयादिप्राकारा पचमान्तं त्रयोदश । त्रिष्टि: अष्टकृतिः चतुरशीतिः लक्षाणि गत्वा ।। ४९९ ॥ मराणं । नगराणां द्वितीयाविप्राकाराः पचमपर्यन्त यथासंख्यं त्रयोदशलक्षारित विषलक्षापि प्रकृतिलक्षाणि चतुरशीतिलक्षारिण योजनानि गत्वा गरवा तिवन्ति ॥ ४९९ ॥ अब मोर ( इतर ) प्राकारों की संख्या और उनके अन्तराल का प्रमाण कहते हैं ४३३ गामार्थ :- नगर के द्वितीय को आदि लेकर पचम कोट पर्यन्त क्रम से तेरह लाख योजन, सठ लाख योजन, बाठ की कृति [ ६४ लाख योजन ] और चौरासी लाख योजन दूर जा जा कर प्राप्त होते हैं ।। ४९९ ॥ विशेषाय :- इन्द्र के नगर के बाहर चारों ओर पाँच कोट हैं । पहिले कोट से दूसरा कोट १३ लाख योजन [ १०४००००० मी० ] दूर जाकर है। दूसरे से तीसरा कोट ६३ लाख योजन [ ५०४००००० मील ] दूर, तीसरे से चौथा आठ की कृति अर्थात् ६४ लाख योजन [५१२००००० मौल ] दूर तथा चौथे से चित्र कोट ८४ लाख योजन के अन्तराल पर है । अथ तत्तदन्तरालस्थ देवान गाथाद्वयेनाह Hona दिखा पढमे विदियंतरे दु परिसतयं । सामाजियदेवा पुण तदिए निवसति तुरिए दु ।। ५०० || मारोहियाभियोग किन्पिसियादी व जोगपासादे । गमिय तो लक्खदलं नंदणमिदि तब्बिसेमणामाणि ॥ ५०१ ॥ सेनापतितनुरक्षाः प्रथमे द्वितीयान्तरे तु पारिषदत्रयम् । सामानिकदेवाः पुनः तृतीये निवसन्ति तुरीये तु ॥ ५०० ॥ बारोद्दिकाभियोभ्यक किल्विषिकादयश्च योग्यप्रासादे । गत्वा ततः लक्षदलं नन्दनमिति तद्विशेषनामानि ॥ ५०१ || सेगा । सेनापतयश्ततुरक्षाश्च प्रथमेऽन्तराले सिन्ति । द्वितीयान्तरे तु पारिषदत्रयमस्ति । तृतीया पुनः सामानिकमेवर वसन्ति । तुय्ऽन्तरे तु ॥ ५०० ॥ पारोहिया मारोहिकाभियोग्य किल्विविकारयश्च स्वस्वयोग्यप्रासादे तिठ्ठन्ति । ततः परं लक्षययोजनानि गरथा गन्धनयनमस्तीति हेतोस्तद्विशेषनामानि वक्ष्यति ॥ १०१ ॥ ५५ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा: ५०२ इन कोटों के अन्तराल में स्थित देवों के भेद दो गाथाओं में कहते हैं: पायार्थ :-सेनापति और सनुरक्षक देव प्रथम अन्तराल में, तीनों परिषद देव दूसरे अन्तराल में, तीसरे अन्तराल में सामानिक देव तथा चौथै अन्तराल में कारोहक, आभियोग्य और किल्विषिकादि देव अपने अपने योग्य प्रासादों में रहते हैं। पांचवें अन्तराल से अलाव ( ५० हजार ) योजन आगे जाकर नन्दन वन हैं इनके विशेष लाम लागे कहेंगै ॥ ५००, ५०१॥ विशेषार्ष:-कोटों ( प्राकारों ) के प्रथम अन्तराल में सेनापति और तनुरक्षक देव रहते हैं। द्वितीय अन्तराल में तीनों पारिषद, तृतीय अन्तराल में सामानिक देव तथा चतुर्ष अन्तराल में वृषभ, तुरङ्गादि पर सवारी करने वाले आरोहक आभियोग्य एवं किल्विषिकादि देव अपने अपने योग्य भवनों में रहते हैं। पांचवें कोट से ५० हजार योजन प्रागे र सदन का है. ये बात मेने माले है. इसलिए इन्हें नन्दन वन कहते हैं । इनके विशेष नाम आगे कहेंगे। कमिति चेद सुरपुरबहि असोयं सत्चच्छदचंपचूदवणखण्हा । पउमदहसममाणा पञ्यं चेचरुक्खजदा ।। ५.२॥ सुरपुरबहिः अशोक सप्तच्छदचम्पचूतवनखण्डाः । पद्महदसममाना: प्रत्येकं चन्यवृक्षयुताः ॥ ५०२ ॥ सुरपुर। सुरपुराइ बहिः 'पूर्वाधिषिक्षु पशोकवनखएडा: सप्तम्यवधनसणाः पम्पकवमलाइतबम खराः पपलवसमप्रमाणाः सहनयोजमायामासपर्वष्यासा इत्पः। प्रत्येकमेककस्यवृक्षयुताः ॥ ५०२ ॥ वनों के विशेष नाम एवं प्रमाण : गावार्थ:-देवों के नगर से बाहर पद्मसरोवर के प्रमाण को धारण करने वाले तथा एक एक चेत्यवृक्ष से संयुक्त अशोक वनखण्ड, सप्तरवनवण्ड, पम्पकवनखण्ड और आप्रवनखण्ड है। ५०२ ।। विशेषाप :--देवों के नगरों से बाहर पूर्णादि चारों दिशाओं में क्रम से अशोक, सप्तच्छा, चम्पक और आम्रवनखण्ड हैं। प्रत्येक का प्रमाण पद्मदह नाम सरोवर के सहा अर्थात् एक हजार योजन सम्बे और पांच सो योजन चौड़े हैं। तया प्रत्येक वन खण्ड एक एक चैत्यवृक्ष से संयुक्त है। १ पूर्वोक्तारिषु (.., प.)। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ५०३-५०४ वैमानिकलोकाधिकार अब तवनमध्यस्थनत्यवृक्षस्वरूपं निरूपयन् तच्चत्यनमस्कारमाह चउवेचदुमा जंवमाणा कप्पेसु ताण चउपासे | पल्लंकगजिणपतिमा पत्तेयं ताणि बंदामि || ५०३ ॥ चतुश्चत्पद्रुमाः जम्बूमाना: कल्पेषु तेषां चतुः पार्वेषु । पल्यगजिनप्रतिमाः प्रत्येक तानि बन्दामि ॥ ५०३ ।। पनवेत्त । प्रत्याराचैत्यमा जम्बूवृक्षप्रमाणाः सौधर्माधिषु कल्पेषु तेषां चतुई पाश्वेषु पल्यजिमप्रतिमा: प्रत्येक ताः बन्वे ॥ ५०३ ॥ वन के बीच में स्थित चैत्यवृक्षों के स्वरूप का निरूपण करते हुए तन चैत्यवृक्षों को नमस्कार करते हैं गामार्ग:.-सीधमकिरणों में नाव पडभी दा चैत्यवृक्षा, जम्बूवृक्षप्रमाण वाले हैं। प्रत्येक चैत्यवृक्ष के चारों पार्श्वभागों में पल्यङ्कासन एक एक जिनप्रतिमा है, उन्हें में ( नेमिचन्द्राचार्य) नमस्कार करता हूँ ।। ५०३ ।। विशेषा:-सौधर्मादि कल्पों में अशोकादि चारों वनखण्डों में जो चार चैत्यवृक्ष है. उनका प्रमाण जम्बूवृक्ष के प्रपाण सहा । उन चारों वृक्षों में से प्रत्येक वृक्ष के चारों पाश्वं मागों में पल्यासन स्थित एक एक जिनप्रतिमा है. उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। इदानीं लोकपालानां नगरस्वरूपमाह तत्तो बहुजोयणयं गतूण दिसासु लोगवालाणं । जयराणि मजदसंगुणपणघणवित्थारजुवाणि ॥ ५०४ ॥ ततो बहुयोजनकं गत्वा दिशासु लोकपालानाम् । नगराणि अयुतसंगुरणपश्चधनविस्तारयुक्तानि ।। ५०४ ।। तत्तो बहु । ततो बहुयोजनानि गरमा विज्ञासु लोकपालाना मगराणि प्रयुत १०००० संगुणितपश्चधनविस्तारयुक्तानि १२५००००। ५.४ ॥ सब लोकपालों के नगर का स्वरूप कहते हैं गामार्य :-उन वन खरद्धों से बहुत योजन दूर जाकर पूर्वादि दिशाओं में लोकपाल देवों के नगर है। जो अयुन ( १००००, दश हजार ) से गुणित पचयन ( १२५) प्रमाण विस्तार से संयुक्त विशेषार्थ:- उन वन खण्डों से बहुत योजन आगे जाकर पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तर इन चारों दिशाओं में लोकपाल देशों के नगर हैं । जिनका विस्तार अयुत अर्थात १०००० से गुणित पञ्च धन ( १२५ ) अर्थात् ( १००००४ १२५=१२५०००० ) साढ़े बारह लाख पोजन है। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ गणिकामहत्तरीणां पुराण्याद्द गणिकामहरीणं पुराणि तत्थेव पिहूदी | विदिसासु लक्खजोयणवित्थारायामसहियाणि ।। ५०५ || गणिकामहत्तरीणां पुराणि तत्रैव अग्निप्रभृतिषु । विदिशासु लक्षयोजनविस्तारायनसहितानि ॥ ५०४ ॥ सिका । गणितामहल रोग। पुराखि सय स्थाने प्रग्निप्रभृतिषु विविक्षु समयोजन विस्तारामामसहितानि सन्ति ।। ५०५ ॥ वहीं गणिका महत्तरियों के नगर है, ऐसा कहते हैं गावार्थ :- वहीं आग्नेय आदि विदिशालों में गणिका महारियों के एक लाख योजन दे चोड़े नगर है ।। ५०५ ॥ तासां मामाश्याह- विशेषार्थ :- जहाँ लोकपाल देवों के नगर हैं, वहीं माग्नेय आदि विदिशाओं में प्रधान गणिका देवाङ्गनाओं के नगर । जो एक एक लाख योजन लम्बे चौड़े हैं। अर्थात् समचतुष्कोण हैं। यथा : Mo Wa वरण Miss त्रिलोकसाथ WAT Crime पुस मले यम Tapai ---------. शु वन पापा : ५०५-५०६ M HEWI तामो चउरो सग्गे कामा कामिनि य पउमगंधा य । तो होदि अलंबूसा सव्विदपुराणमेस कमो || ५०६ ।। • . D Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा ।५.६-५०७-१०८ वैमानिकलोकाधिकार ता चतस्रः स्वर्ग कामा कामिनी च पपगग्वा च । ततो भवति अलम्बूषा सर्वेन्द्रपुराणामेष कमः ।। ५०६ ।। तामो पउ। सोषाविस्वर्गे कामा कामिनी च पगन्धा च ततोऽलम्वेति तावतो भवन्ति । सर्वेमपुराणामेव एकमो भातपः ॥ ५०६ ॥ गणिका महत्तरियों के नाम गाथार्थ :-सौधर्माद चार स्लों की गणिकामहत्तरियों के नाम क्रमशः कामा, कामिनी, एधगधा और अलम्बूषा है। सर्व इन्द्रों के नगरों का ऐसा ही क्रम जानना चाहिए ।। ५०६ ॥ विशेषार्ष:-सुगम है। अथ मौधर्मादिषु गृहोत्सेधं प्रतिपादपति छज्जुगलसेसकप्पे तिसिसु व अणुद्दिसे अपवरगे । गेहुदओ छप्पणसय पण्णास रिणं दलं चरिमे ।। ५.७ ।। पद युगलशेषकल्पेषु त्रिस्थिषु च अनुदिशि अनुत्तरके । गेहोदयः षट् पश्चशत पञ्चाशहणं दलं चरमे ॥ ५० ॥ छज्जुगल । षट्सु युगलेषु पोषकल्पे व प्रिस्त्रिषु प्रैवेयकेषु अनुदिशायां पनुत्तरे बेलि बावशस्थानेषु होषयः पछतायोजनानि पशतयोगमानि तस उपरि पाशरणं कसब्य । परमे स्याने उपापाई जातव्यम् ॥ ५०७॥ सौषर्मादि बारह स्थानों में गृहीं की ऊंचाई का प्रतिपादन करते हैं-- पापाई :-छह युगम और शेष कल्पों में तथा तीन तीन वेयक, अनुदिश और अनुत्तरों के गृहों का उत्सेध कम से छह सौ, पांच सौ, तथा मौ पर्यन्त ५०-५० योजन हीन और इसके आगे यन्त तक अर्घ अषं प्रमाण होता हुआ है ॥ ५.७ ।। विशेषार्थ :-छह युगलों के ६ तथा आनतादि चार कल्पों का एक, तीन प्रक्षेपकों के तीन तथा अनुदिश और अनुत्तरों का एक, एक इस प्रकार कुल बारह स्थानों के गृहों का उसेध कम से ६०० योजन, ५.०, ४५०, ४००, ३५०, ३००, २५०, २००, १५०, १००, ५० और २५ योजन प्रमाण है। अथ देवीनां गेहोरसेधेन सर्वगृहाणां विस्तारामामो कथयति-- सतपदं देवीणं गिहोदयं पणसयं तु पाणरिणं । सम्वमिह दिग्धवासं उदयस्स य पंचमं दसमं ।। ५०८ ।। समपदे देवीनां गहोदयः पञ्चशतं तु पनाशहणं । सर्वगृहर्दध्यवासी उदयस्य च पञ्चमी दशमः ।। ५०८। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ गिलोकसारा पाथा: ५० ___ सतपये। छरमुगलेत्याधुक्त सतपवे देवीना होदयः मानो पाचशतयोबमानि उत्तर पञ्चाशत्पबाशाहवं कर्सम्यं । सर्वेषां बेबाना देवानां च गृहयन्यासी यासंख्यं उपयस्य पञ्चमभागो पशमभागश्च ॥ ५० ॥ देवानामा के ग्रहों का का कर राबंद्रहों का विस्तार मौर आयाम कहते क्रमांक ध्यान गापार्थ :-सात स्थानों में देवाङ्गनाओं के गृहों का उत्सेष कमशः पांच सो पोजन तथा पचास पचास योजन हीन है। सम्पूर्ण ग्रहों की दीर्घता ( लम्बाई ) उत्सेध के पांचवें भाग प्रमाण और ध्याम ( चौड़ाई ) दशचे भाग प्रमाण है ॥ ५० ॥ विशेषार्ष:-छह युगलों के छह स्थान और मानवादि चार कल्पों का एक स्थान इस प्रकाप सात स्थानों में देवाङ्गनाओं के गृहों का उस्सेध क्रमश: ५.०, ५०, ४.०, ३५०, ३००, २५० भौर २०० योजन प्रमाण है । सम्पूर्ण देवों और देवाङ्गनाओं के ग्रहों की लम्बाई उत्सैध का पांचवा भाग और चौड़ाई दवा भाग है । यथा। देवों के गृह देवांगनामों के गृह .. । उस्सेध । लम्बाई । चौडाई उत्सेभ । लम्बाई । चौड़ाई योजनों भीलों यो मी | यो० मीलों यो.. मीलों में यो० मोलों | यो मीलों में | में ' में । में | में र सौधर्मशान | ६.० २| सानत्कु.-माहेन्द्र ५०० ३६०० ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर | ४५० लान्तव-कापिष्ट ४०० ५.! २८०० शुक्र-महाशुक्र | शतार-सहस्रार आनतादि चार अधो ग्रेवेयक मध्य । उपरिम अनुदिश । ५० ४.० | १८६० १२. अनुत्तर ४०.०। ३ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा:५०९ मे५११ वैमानिकलोकाधिकार कल्पेश्वग्रदेवीनां परिवारदेवीनां च प्रमाण माह मत्तपद भट्टद्वमहादेवीयो पुधादि मेक्किम्से | ससमं सोलसहस्सा देवीओ उपरि अद्धा ।। ५.९ ।। सप्तपोषु अष्टाहमहादेव्यः पृथक् आदिमे एकस्य । स्व समं षोडपासहस्रा देव्यः उपरि अर्धार्धाः ॥ ५०१ ॥ सप्तपदे । सप्तसु पवेश्वष्ठापमहादेव्यः । पृथक प्रत्येकमाधिमे प्रथमयुगले एकेकस्या देण्या: स्वम समं समजलपरिवारका जपर्यटप्रिमिता ॥ ५ ॥ कल्पवासी देवों की अग्र एवं परिवार देवांगमाओं का प्रमाण कहते है : पाचार्य :- सातों स्थानों में आठ आठ महादेवाङ्गनाएँ हैं । प्रथम स्थान में एक-एक महादेवांगना के आप सहित सोलह सोलह हजार परिवार देवांगनाएं हैं। उपरिम स्थानों में परिवार देवपिनाओं का प्रमाण अधं अर्ध होता मया है ।। ५०९ ॥ विशेषार्थ ;-सातो स्थानों में आठ आठ महादेवांगनाएं हैं। प्रथम स्थान में एक एक महादेवी के आप सहित सोमह सोलह हजार परिवार देवियां हैं । तथा वितीयादि स्थानों में परिवार , देवांगनाओं का प्रमाण अर्ध अर्ध होता गया है। अथ तासामग्रदेवीनां नामानि गाथाद्वयेनाह सचिपउन सिवसियामा कालिंदीसुलस मज्जुकाणामा | माणुचि जेवदेवी सन्वेसि दक्खिणिदा ॥ १० ॥ सिरिमदि रामसुसीमा पभावदि जयसेण णामय सुसेणा। वसुमित्त वसुंधर वरदेवीमो उचरिंदाणं ॥ ५११॥ शाचिः पधा शिवा श्यामा कालिन्दी सुलसा अज्जुकानामा । भानुरिति ज्येष्ठादेव्यः सर्वेषां दक्षिणेन्द्राणाम् ।। ५१० ।। श्रीमती रामा सुसीमा प्रभावती जयमेना नामा सुषेणा। वसुमित्रा बगुधरा वरदेव्यः उत्तरेन्द्राणाम् ॥ ११ ॥ सधिपउम । शची: एमा शिक्षा श्यामा कालिन्दी तुलसा प्रज्जुका मामा भाचरेत्येता ज्येgण्यः मषा वक्षिणेन्द्राया ॥ ११ ॥ सिरिमति । श्रीमती रामा मुसीमा प्रमावती जयनारया सुषेणा। सुमित्रा वसुम्पति वारेभ्यः उत्तरेताम् ॥ ५५ ॥ दो गाथामा द्वारा अन देवांगनामों के नाम कहते हैं Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाषा:५१२ पापा:-सर्व दक्षिणेन्द्रों के १ शची, २ पद्मा, ३ शिवा, ४ श्यामा, ५ कालिन्दी, ६ सुलसा, ७ अज्जुका और भानु नाम को ज्येष्ठ ( अग्न ) देवांगनाएं हैं ॥५१॥ पापा:-सर्व उत्तरेन्द्रों के १ श्रीमती, २ रामा, ३ सुमीमा, ४ प्रभावती, ५ जयसेना, ६ व मुमिन और नाममा नाम की मापट्ट देवांगनाए है ।। ५११ ॥ विशेषार्थ:-सर्व दक्षिणेन्द्रों और सर्व उत्तरेन्द्रों की माठ आठ पट्ट देवांगनाओं के नाम उपयुक्त अथ तत्राग्र महादेवीनां विक्रियाप्रमाणं निरूपयति मनुवं देवीणं पुधपुध सोलस सहस्सविकिरिया । मूलसरीरेण समं सेसे दुगुणा मुणेदना ॥ ५१२ ।। अष्टानां देवीनां पृथक पृथक पोडशसहस्रबिक्रियाः। मूलशरोरेण समं शेषे द्विगुणा मन्तव्याः ॥ ५१२ ।। पहल। सप्त स्थानेषु भादरापान देखोमा पृथक पृथक मूलशरीरेण समं योगशसहस्रविक्रिया वेश्यः । शेष गुणद्विगुणा देण्यो सातम्याः ॥ ५१२ ।। . वन अग्रदेवांगनाओं को विक्रिया के प्रमाण का निरूपण करते हैं पापा:-प्रथम स्थान में पृथक पृथक पाटो अग्रदेवियों के अपने मूल शरीर सहित सोलह सोलह हजार विक्रियाशरीर होते हैं, शेष स्थानों में दूना दूना प्रमाण जानना चाहिए ।। ५१२ ॥ विशेषार्ग :-सासों स्थानों में से प्रथम स्थान में भिन्न भिन्न पाठों महादेवांगनाओं के मूल पारोर सहित सोलह सोलह हजार विक्रिया शरीर होते हैं । शेष द्वितीयादि स्थानों में यह प्रमाण अर्थात् वकिपिक देवियों का प्रमाण दूना दूना मानना चाहिए। अग्र देवांगनाखों, परिवार देवांगनाओं एवं बैंक्रिषिक देवांगनाओं का प्रमाण [ चाट अगले पृष्ठ पर वैखिए ) १ पोपे तु द्विगुणा देव्यः ज्ञातव्या (ब., प)। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया। ५१३ वैमानिकलोकाधिकार अप्रदेवियों परिवार देवांगनाएं वैकियिक शरीर स्थान । का प्रमाण | एक महा आठों महा देवीको देवांगनाओं एक महा देवी की | आठों महा दे० को १६००० १२८००० २५६... सौधर्मशान | ८,८ सास-मा. ब्रह्मा-ब्रह्मो. ८ लामा ५१२.०. २००० १२८००० । मूल शरीर युक्त १६... ६४.०० ३२००० २००० - १२०० - २५३००० | " . . ५१२००० |. . . १.२४००० | १६००० शुक्र-महा. Coo. २०४८००० पातासह ४.१६००० मालतादि rA १९२००. सय परिवारदेवीषु बल्लभिकाप्रमाणं निरूपयति--- सत्तपदे बन्लमिया वतीसह व दो सास्साई । पञ्चसयं भद्धं तेस्सड्डी होंति सचममे ॥ १३ ॥ सप्तपत्रेषु वल्लमिका द्वात्रिषदष्टव दो सहस्राणि । पञ्चशतानि अर्घा, विषष्टिः भवन्ति सप्तमके ॥ ५१३ ।। सत्तपरे । सप्तसु पोषु बल्लभिका द्वानिशस्महस्राणि मसहस्राणि विसहवाणि परमतानि पाव सप्तमे स्याने त्रिवाधिबल्लमिका भवन्ति ॥ ५१३ ॥ परिवारदेवांगनाओं में वल्लभा देवांगनाओं के प्रमाण का निरूपण गायार्थ:--सातों पदो' (स्थानों) में वल्लभादेवियों का प्रमाण कमशः बसीस हजार, आठहजार, दो हजार और पांच सौ है। इससे आगे अर्थ अधं प्रमाण है । अन्तिम सातवें स्थान में मात्र १३. ५३ हो वल्लभा देवांगनाएं है ॥ ५१३ ।। विशेषा:-परिवार देवांगनाओं में से जो जो देवांगनाएं इन्द्र को अतिपिय होती है उन्हें बल्लभा कहते है। सातों स्थानों में इनका प्रमाण क्रमशः ३२...200०,२०००, ५००, २५०, ११५ और ६३ है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ त्रिलोकसार पापा:१४-५१५ तासां वल्लभिकानां प्रासादोत्सेधं तत्प्रामादावस्थानदिशं चाह देवीपासादुदया वन्लमियाणं तु चीसहियं खु।। इंदत्थंभगिहादो पल्लभियावासया पुच्चे ॥ ४१४ ॥ क्षेत्रोप्रासादोदयात वल्लभिकाना तु विशाधिकः खलु । इन्द्रस्तम्भगृहात् बल्लभिकावासका पूर्वस्याम ।। ५१४ ।। देवोपासा। बीना प्रासादोक्यावननिकाना प्रासारोपयस्तु विशतियोगनाषिक: खस । - प्रासावापूर्वस्यां विशि पल्लमिलाप्रासावालिन्ति ॥ ५१४ ॥ इन बलभादेवियों के प्रासादों का उत्सेध एवं प्रासादो के अयस्थान की विशा दर्शाते है पाथार्थ :-देवियों के प्रासादों की ऊंचाई से वल्लभादेवायनामों के प्रासादों की ऊंचाई बोस योजन अधिक है। इन्द्र के प्रासाद से पूर्व दिशा में बल्लमानों के प्रामादों की स्थिति - -+- -- विशेषार्थ:-देषियों के प्रासादों की ऊंचाई से वल्लभादेवांगनाओं के प्रासादों की ऊँचाई कीस योजन अधिक है । अर्थात् क्रम से ५२०, ४७०, ४२०, ३७०, ३२०, २७० प्रौर २२० योजन प्रमाण है। इनके प्रासादों का अवस्थान इन्द्र के प्रासाल की पूर्व दिशा में है। इन्द्रस्यास्मानमण्डपस्वरूपमाह-- भमरावदिपुरमज्मे थंभगिहीसाणदो सुधम्मक्खं । माणमण्डवं सयतद्दलदीहदु तदुमयदल उदयं ।। ५१५ ।। अमरावतीपुरमध्ये स्तम्भगृहशानतः सुधर्माख्यम् । बास्थानमण्डपं शततद्दल दीदिः तदुभयदल: उदयः ।।१५|| भमराव । अमरावतीपुरमधो निस्यावासगृहस्येशामत: सुबममापानमपं.मस्ति । तस्य देध्यंच्यासो शतयोमानतद्दलो तयोमिलितोभययोर्बल उत्सेष: स्पाय ॥ ५१५ ॥ मन के पास्थानमण्डप का स्वरूप कहते हैं गापार्य:-अमरावती नगर के मध्य में इन्द्र के निवास स्थान से ईशान दिशा में सुधर्मा नामक भास्थान मण्डप ( सभास्थान ) है । उसकी लम्बाई सौ योजन, चौड़ाई लम्बाई के अर्धभाग और ऊंचाई लम्बाई+ चौहाई दोनों के योग के अधंभाग प्रमाण है ॥ १५ ॥ विशेषा:-इन्द्र अमरावती नामक नगर में रहता है। अमरावती के ठोक मध्य में उसके निवास करने का प्रासार है। प्रासाद की ईशान दिशा में सुधमा नामक धास्थान मण्डप है; जिसकी . -.. . Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५५६-५१७ वैमानिकलोकाधिकार लम्बाई १०० योजन ( ८०० मील } चौड़ाई ५० योजन { ... मील ) और ऊँचाई ( १00+:) ७५ योजन ( ६०० मील ) प्रमाण है। अथ आस्थानमण्डपवारं तदन्तस्यपदार्थान गापात्रयेणाह पुन्युत्तरदक्खिणदिस तहाग अवघास सोलुदया। मज्मे हरिसिंहासणमहदेवीणासणं पुरदो ।। ५१६ ॥ पूर्वोत्तरदक्षिणादिशि तवाराणि अष्टव्यासः पोडशोदयाः । मध्ये हरिसिंहासनं अष्टदेवीनामामनानि पुरतः ।। ५१६ ।। पुण्यसर। तस्यास्थानमण्डपस्य पूर्वोत्तरदक्षिण दिशि द्वाराणि सन्ति । तेषां ज्यासः पर. योजनामि उत्सेषस्तु षोडशयोजनानि तामध्ये स्थाने हारसिंहासनं । तस्तिहासमात्पुरतः पशुपट्टदेवीमामासनानि स्युः॥ ५१६ ॥ अब आस्थान मण्डप के द्वार तथा मण्डप में स्थित पदार्थों का वर्णन तीन गाथानों द्वारा करते हैं मायाप:-आस्थान मण्डप के पूर्व, उत्तर और दक्षिण दिशा में एक एक द्वार अर्थात् कुल तीन द्वार हैं। जिनमें प्रत्येक की चौड़ाई “ योजन और उदय ( ऊंचाई ) सोलह योजन है । मण्डप के मध्य में इन्द्र का सिंहासन है, और इस सिंहासन के आगे पाठ पट्ट देवाङ्गनाओं के आसन विशेषार्थ :- उस मास्थान मण्डप की पूर्व, उत्तर और पश्चिम दिशा में 5 योजन ११४ मील) घोडा और १५ योजन ( १२८ मील ) ऊंचाई के प्रमाण को लिये हुए एक एक दरवाजा है। मण्डप के मध्य भाग में इन्द्र का सिंहासन है, तथा इस सिंहासन के मागे अष्ट अन देवाङ्गनामों के सिहासन हैं । तब्वाहिं पुवादिसु सलोयवालाण परिसतिदयम्स | मग्गिजमणरिदीए तेतीसाणं तु णेरिदिए ।। ५१७॥ सदहिः पूर्वादिषु स्वलॊकपालानां परिषत्रितयस्य । मग्नियमनं त्या त्रयस्त्रिशतां तु नैऋत्याम् ।। ५१० ।। तध्याहि । तातो पेथीनामासमाबहिः पूर्वामिषु चिमु लोकपालामा धोमयमवरणाराणा पासनानि सन्ति परिषदत्रयस्यासनाति १२०० । १४००० । १६०००। मासनस्य माग्नेषयमनैऋत्यो रिशि सन्ति त्रास्त्रिशानामासनान्यपि ३३ नेऋत्या विस्येव सन्ति ॥ ५१७ ॥ गाथार्ग :-पट्टदेवियों के आसनों से बाहर पूर्वादि दिशाओं में लोकपालों के आग्नेय, दक्षिण Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ त्रिलोकसार गाया। ११८ और नैऋत्य में तीनों पारिपद् देवों के तथा नैऋत्य दिशा में तैतीस मासन बायस्त्रिश देवो के हैं ।। ५१७॥ विशेषार्थ :- अट्र पट्ट देवांगनाओं के आसनो' से बाहर पूर्व दिशा में सोम दक्षिण में यम, पश्चिम में वक्षण और उत्तर में कुवेर नामक चारों लोकपालों के चार आसन है। इन्द्र के सिंहासन को भाग्नेय दिशा में आम्पन्तर परिषद के १२००० देवों के, दक्षिण दिशा में मध्य परिषद के १४... देवों के तथा नैऋत्य दिशा में बास परिषद के १६.०० देवों के सासन हैं। वायस्त्रिश देवों के तेतीस मासन मात्र नैऋत्य दिशा में ही हैं। सेणावईणभयरे समापियाणं तु परणईसाणे । सणरक्खाणं महासणाणि चउदिसगयाण पहिं ।। ५१८ ॥ सेनापतीनामपरस्यां सामानिकानां तु पवनेशाने । तनुरक्षाणां शासनानि चतुर्दिशागताने पहिः ॥ ५१८ ॥ सेणाबईण । सेनापतौना ७ मासनापपरस्या रिशि सन्ति । सामानिकानामासनानि वायव्या विशि ४२०.. सन्ति । ऐशाम्या विशि ४२००० सन्ति। एतरमावहिः सतुरमका महासनानि पतुदिग्गतानि सन्ति ८४००० । २४. 1 0.1८४.० ॥ १८ ॥ पाया:-सेनानायकों के सात शासन पश्चिम दिशा में हैं। सामानिक देवों के वायध्य और ईशान कोण में तथा इनसे बाहर अंगरक्षक देवो के भद्रासन चारों दिशाओं में हैं ॥ ५१८ ।। विशेषार्थ :-- इन्द्रासन की पश्चिम दिशा में सातों सेनानायकों के सात आसन हैं । सौमर्मेन्द्र के सामामिक देवों के कुल बासन ८४.०. हैं; उनमें से ४२... आसन वायव्य दिशा में और ४२००, देवों के मासन ईशान दिशा में हैं। इनके मासनों से बाहर तरक्षक देवों के ८४०.० आसन पूर्व दिशा में, ५४... दक्षिण में, ८४००० पश्चिम में और ८४००० आसन उत्तर दिशा में है। भास्थान-मण्डप में स्थित इन्द्रासन एवं उसको बाठों दिशाओं में लोकपालादि देवो' के वासनों का चित्रण निम्नाङ्कित है :-- [चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। वैमानिकलोकाधिकार ४४५ १० योजन पश्चिम A का NAL सओं ro-आसरा सानायक आगत पिदर अम्म attenti सामानक24 पष्टीवर देवो 2004 सुखाmya सौधर्मेन्द्र ReaAT अक्षक दक्षिण आसम १०० योजन eGUFGaala परिभरना rrorआमंत्र मतानिनोक 03.मसत्र इन्द्रासन की आठों दिशामो' में लोकपालादि देवों के आसनों का प्रमाण: # देवों के नाम | पूर्व आग्नेय | दक्षिण | नैऋत्य | पश्चिम | वायव्य | उत्तर ईशान लोकपाल सोम का यम का एक . . फुवेर का वरुण का | एक एक मासन २ पारिषद १२००. धान्य. परिमध्य, प. बाप. | ३३ प्रासन पाचन प्रायस्त्रिश सेनानायक सामानिक ६ सनुरक्षक ५४०० . IE४००० Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाथा ।।११-१२० तन्मपहपाग्रस्थमानस्वम्भस्वरूपमाह तम्सागो इगिषासो छचीसदी सबीट वाममो। माणत्थंभो गोरुद' विस्थास्य पारकोहिजुदो ।। ५१९ ।। तस्याने एकव्यासः पत्रिषादयः सपीठ: वजमयः। मानस्तम्भः क्रोशविस्तारः द्वादशकोटियुतः ॥ ५१६ ।। सहसाग।। तन्मण्डपस्याने एकपोजनव्यासः षशियोजनोवयः पीठसहितो कामयः कोशविस्तारो ढावशधारायुक्तो मानासम्भोऽस्ति । ५१९॥ उस आस्थानमण्डप के अग्रस्थित मानस्तम्भ का स्वरूप कहते हैं गायार्थ :-उस आस्थान मण्डप के आगे एक योजन विस्तीर्ण, ३६ योजन ऊंचा पाद पीठ से सहित, और एक कोश विस्तार वाली बारह धाराओं से संयुक्त वसामय मानस्तम्म है ।। ५१६ ॥ विशेषार्थ :-उस सभा मण्डप के मागे एक योजन (८ मील) विस्तीर्ण, (घोडा) ३६ योजन ( २८८ मील ) ऊँचा, पादपीठ से युक्त वनमय मानस्तम्भ है। इसका आकार गोल और प्यास एक योजन अर्थात् ४ कोश है । इसमें एक एक कोश विस्तार वाली बारह धाराएं हैं। अथ तन्मानस्तम्भकरण्डकस्वरूपंगायात्रयेणाह चिट्ठति तत्थं गोरुदच उत्थविस्थार कोसदीहजुदा । तित्थयरामरणचिदा करण्डया रयणसिक्कषिया ।। ५२.॥ तिष्ठति तत्र कोशचतुर्थविस्ताराः क्रोशदध्यंयुताः । तीर्थकराभरणचिताः करमुका रत्नक्षिक्यघृताः।। ५२० ॥ वति। तत्र मानस्तम्मे कोशचतुर्थाशविस्तारा: कोशवध्ययुता: सीकरामरणचिता रलशिक्यताः फरकास्तिम्ति ।। ५२०॥ इस मानस्तम्भ पर स्थित करण्डों का स्वरूप तीन गायाओं द्वारा कहते हैं गायाय':--'उस मानस्तम्भ पर एक फोस लम्बे मोर पाव कोस विस्तृत रत्नमयी सौंकों के ऊपर ठोपहरों के पहिनने योग्य अनेक प्रकार के भाभरणों से भरे हए करण । पिटारे स्थित ॥ ५२० ॥ विशेषाप-पाचार्य की भांति ही है। , कोश (२० टि.)। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचा । ५६१-५२२ वैमानिक लोकाधिकार तुरिजुद विजुदओषणाणि उचरिं मधोवि ण करण्डा । सोहम्मदुगे भरहेगवदतित्थपर पडिवद्धा ।। ५२१ ॥ माणककुमारजुगले पुन्त्रवर विदेइतित्थयर भूम्रा । विदविदा सुरेहिं कोडीपरिणाह बारंसो ।। ५२२ ।। सुरीयुत वियुतप योजनानां उपरि अधोऽपि न करण्याः । सौधर्मद्विके मरतैरावततीर्थंकर प्रतिबद्धो ।। ५२१ ।। सानत्कुमारयुगले पुत्र पर विदेहतीर्थंकर सूपाः । स्थापयित्वा चिताः सुरैः कोटिरिगाहः द्वादशांशः ॥ ५२२ ।। तुर । सम्मानस्तम्भस्योपरि योजनचतुपायुक्त द्वे षड्योजनेषु १५ तस्याश्च योजनतुर्थांश विपुरुष योजनेषु करण्डा न सन्ति । सौधर्मद्विके तो मानस्तम्भी भरतेरावतीकुर प्रतिबद्ध स्वाताम् ॥ ५२१ ॥ सामकुमार सामकुमारयुगले मामस्तम्भयोः पूर्वापर विदेहती करभूषाः स्थापयित्था सुरचिता तम्मानस्वम्मभारान्तरं परिव गाथार्थ :- मानस्तम्भों के चतुर्थ भाग से युक्त और वियुक्त छह योजन अर्थात् पौने छह योजन नीचे और सवा वह योजन ऊपर करण्ड नहीं हैं। सौधर्मेशान कल्पों में स्थित मानस्तम्भ के ऊपर स्थापित करण्ड भरतंरावत के तीर्थंकरों के निमित्त है। तथा सानत्कुमारमाहेन्द्र कल्पों में स्थित मानस्तम्भों पर देवों द्वारा स्थापित एवं पूजित करम्हों में पूर्व और अपर विदेह क्षेत्रों के तीर्थंकरों के आभूषण हैं। उन मानस्तम्भों की धाराओं का अन्तर परिधि के वारहवें भाग (एक कोश) प्रमाण है ।। ५२१, ५२२ ॥ विशेषार्थ :- मानस्म्भों की ऊंचाई ३६ मोजन है। भाग से सहित १ योजन अर्थात् (योजन ६१ योजन के उपरिम भाग में और भाग रहित ६ योजन (६) अर्थात् पौने छह योजन नीचे के भाग में करण्ड नहीं है । सोधर्म कल्प में स्थित मानस्तम्भ पर स्थापित करण्डों के आभरणा भरतक्षेत्र सम्बन्धी तीर्थंकरों के लिये है। ऐशान करुप में स्थित मानस्तम्भ पर स्थापित करण्डों के आभरण ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों के लिए हैं। इसी प्रकार सानत्कुमार कल्प में स्थित मानस्तम्भ के करों के आभरण पूर्व विदेह क्षेत्र सम्बन्धी तीर्थकरों के लिये और माहेन्द्र कल्प में स्थित मानस्तम्भ पर स्थापित करण्डों के आभरण पश्चिम त्रिदेह क्षेत्र सम्बन्धी तीर्थकरों के लिए है। ये मभी करण्ड देवों द्वारा स्थापित और पूजित हैं। इन मानस्तम्भों की धारात्रों का अस्तर मानस्तम्भ की परिधि । ३x४ = १२ कोश ) का बारहवां भाग अर्थात् एक कोश का है । | कृपया चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए ] ४४७ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ विछोकमा पाषा: १२१-५१२ 13.. P DKEX यान PAN AO বিহীৰমশনায়লাবণিক গাক্তি: RAPRA SARA MAT 5. MEANIगावर क्लियसाबिदाईमारिकास SATTA यादाasi MAHAR : মামারু . 4 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया : २२३ से ५२५ वैमानिकलोकाधिकार प्रय इन्द्रोत्पत्तिगृहस्वरूपमाह पासे उबबादगिहं हरिस्स मडवास दीहरुदपजुदं । दुगरयणसयण मज्झ वरजिणगेई बहकूडं ।। ५२३ ॥ पाई उपपादयः वागमधुम् । द्विकरतशयनं मध्य वरजिनमेहं बहुकुटम् ॥ ५२३ ।। पासे । तन्मानस्तम्भस्य पार्वे परयोजनण्यासर्वोत्ययुतं मध्ये द्विरत्नशयनपुत हरेपपारगृहमस्ति । एतस्य पाये बहकूट वरजिनगेहमस्ति ॥ ५२३ ॥ इन्द्र के उत्पत्तिगृह का स्वरूप कहते हैं गाचार्य :-उम मनिस्तम्भ के पास इन्द्र का उपपाद गृह है । जो आउ योजन लम्बा, चौड़ा और ऊंचा है। उसके मध्य में रत्नों की दो शय्या है । तथा उपपाद गृह के पास ही बहुत कूटों से युक्त उत्कृष्ट जिन मन्दिर है ।। ५२३ ॥ विशेषार्थ :- मानस्तम्भ ने पाच भाग में ८ योजन लम्बा, ८ योजन चौदा और न ही योजन ऊंचा उपपाद गृह है, जिसके मध्य भाग में रत्नमयो दो पाया है। तथा जिसके पास ही बहुत कूटों (शिखरों ) से सहित उत्कृष्ट जिन मन्दिर है। साम्प्रसं कल्पत्रीणामुत्पत्तिस्थानं गाथाहयेनाह दक्खिणउचरदेवी सोहम्मीसाण एव जायते । तहिं सुद्धदेविसहिया छञ्चाउलाखं विमाणाणं ||५२४॥ तदेवीभो पच्छा उपरिमदेवा जयंति सगठाणं । सेस विमाणा छच्चदुबीमलक्ख देवदेविसम्मिस्सा ॥२५॥ दक्षिणोत्तरदेव्यः सौधर्मशान एव जायन्ते । तत्र शुद्धदेवीसहिता षटचतलक्ष विमानानाम् ।। ५२४ ।। तद्देवी: पश्चादुपरिमदेवा नयन्ति स्वकस्थानं । शेषविमाना: पट चतुर्विशलक्षाः देव देविसम्मियाः ।। ५२५ ॥ पनिणरण । वक्षिणीतरकल्पस्थमेवानां देव्यः सौधर्मशान एव जायन्ते । सत्र सौधमंदये शुद्धदेवोसहिताः षट्लक्षचतुर्लविमानाः सन्ति ।। ५२४ ॥ तद्देवीमो । ताच देवीः पश्चादुपरिमदेवाः नयन्ति कोषकोयल्यानं शेषविमामा पविशतिलक्षा: पविशतिलक्षाः देवदेवीप्तम्मिश्रा भवन्ति ॥ ५२५ ॥ अब दो गाथाओं द्वारा कल्पवासो देवांगनाओं के उत्पत्ति स्थान कहते है Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : ५२६ गाथार्थ :- दक्षिण उत्तर कल्पों की देवांगनाएं क्रम से सोघमैंशान में ही उत्पन्न होती है । वह शुद्ध ( मात्र ) देवांगनाओं की उत्पत्ति से युक्त छह लाख और चार लाख विमान है। उन देवियों को उत्पत्ति के पश्चात् उपरम कल्पों के देव अपने अपने स्थान पर ले जाते हैं । सोधर्मेशान कल्पों में शेष छबीस लाख और चौबीस लाख विमान देव देवियों की उत्पति से संमिश्र हैं ।। ५२४, ५२५ ।। ४५० विशेषार्थ :- आरण स्वर्ग पर्यन्त दक्षिण कल्पों की समस्त देवांगनाएं सौधर्म कल्प में और अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्तर कल्पों की समस्त देवांगनाएं ऐशान कल्प में ही उत्पन्न होती हैं । उत्पत्ति के बाद उपरम कल्पों के देव अपनी अपनी नियोगिनी देवांगनाओं को अपने अपने स्थानों पर ले जाते हैं । सौधमं कल्प में ६००००० ( छह लाख ) विमाम और ईशान कल्प में ४००००० विमान शुद्ध हैं । अर्थात् इनमें मात्र देवाङ्गनाओं की ही (२६ लाख ) और २४००००० (२४ लाख ) विमान देव देवियों से संमित्र हैं। अर्थात् उनमें देव और देवांगना- दोनों की उत्पत्ति होती है। देती है, क इदानीं कल्पवासिनां प्रवीचारं विचारयति सुसु चिक्के य काये फासे य रूप सदे य । विधि य पहिचारा अप्पडिचारा हु मइर्मिंदा ।। ५२६ ।। द्वययोः त्रिचतुष्केषु च काये स्पर्शे च रूपे शब्दे च । चित्तेऽपि च प्रवीचारा अप्रवीचारा हि महमिन्द्राः ।। ५६६ ।। सुसु । सौधर्मादियो २ यी २ खिचतुष्केषु छ १२ देवदेवीनां यथासंख्यं काये स्परूपे शक्ये विशेऽपि च प्रवीचाराः । तत उपरि अहमिन्द्रा धनवीचारा एव । ५२६ ॥ अब कल्पवासी देवों के प्रवीचार का विचार करते हैं गाथा : सौधर्मादिदो दो और तीन चतुष्क अर्थात् चार चार और चार स्वर्गों में कम से काय, स्पर्श, रूप, शब्द और चित्त में प्रविचार है । अहमिन्द्र अप्रवीचारी होते हैं ।। ५२६ ।। विशेषार्थं :- काम सेवन को प्रवीचार कहते हैं । सोर्मेशान कल्पों के देव अपनो देवांगनाओं के साथ मनुष्यों के सदृश काम सेवन करके अपनी इच्छा शान्त करते हैं । सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पों के देव देवांगनाओं के स्पर्श मात्र से अपनी पोड़ा शान्त करते हैं। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर और लान्तव कापिष्ठ कल्पों के देव देवांगनाओं के रूपावलोकन मात्र से अपनी पीड़ा शान्त करते हैं। शुक्र- महाशुक और शतार सहस्रार कल्पों के देव देवांगनाओं के गीतादि शब्दों को सुनकर ही काम पीड़ा से रहित होते हैं। तथा मानतादि चाय कल्पों के देव मन में देवांगना का विचार करते ही काम वेदना से रहित Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५२७ वैमानिनोकाधिकार हो जाते हैं। इसके आगे नव वेयकों से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त के सभी दंब अहमिन्द्र हैं। इन अहमिन्द्रों में काम पीड़ा उत्पन्न ही नहीं होती अतः ये प्रवीचार से रहित हैं। अनन्तरं वैमानिकदेवानां विक्रियाशक्तिज्ञानविषयं च गाथाद्वयेनाह दुसु दुसु तिचउक्के सु य णवचोदसगे विगुवणासची । पढमखिदीदो सत्चखिदिपैरंतो चि अबही य ।। ५२७ ।। हयोदयोः त्रिचतुष्केषु च नत्र चतुदंशसु विकुणाशक्तिः। प्रथमक्षितितः सप्तमक्षितिपर्यन्तं इति अवधिश्च ॥ ५२७ ।। चुमु तु । यो २ यो २ विकेषु च १२ प्रवेपकेषु मबसु प्रतुविशादिषु चतुर्वशषिमामेषु सप्तस्थानेषु विकुवंरणाशक्तियंपासंख्यं प्रथमपृथिवीतः मारम्य सप्तमक्षितिपर्यन्तं मातम्या । प्रषिमानं व तथा सातव्यम् । उपरि तद्ज्ञान' समितिवेत् ? सौधर्माविवेवाः स्वकीयस्वकीयकल्पविमानध्यमबहादुपार न पश्यन्ति । नवानुत्तरविमानवासिंदेवा पात्मीयात्मीयविमानशिलरावधो पावसाह्म पासवलयं तापरिकश्चिन्यूमचतुर्वशरमकायतामेकरजुबिस्तारा सर्वलोकनालि पश्यन्ति ।। ५२७ ॥ वैमानिक देवों की विकिया शक्ति और ज्ञान का विषय दो गाषाओं द्वारा कहते गाथार्य :-सोधर्मादि दो, दो, तीन चतुष्क अर्थात् चार, चार और चार, नव और पौवह (नव अनुदिश, ५ अनुत्तर ) स्वों के देवों को विक्रिया करने की एवं अवधिज्ञान से जानने की शक्ति कम से नरक की प्रथम पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी पर्यन्त है ॥ ५२७ ॥ विशेषार्थ :-दो, दो, तीन चतुष्क अर्थात् ११, नववेयक और नव अनुदिशादि १४ विमानों में रहने वाले देव नीचे सात स्थानों में अर्थात् प्रथम पृथ्वी से सप्तम पृथ्वी पर्यन्त यथासंख्य विक्रिया शक्ति से सहित हैं। अवधिज्ञान का क्षेत्र भी इतना ही जानना चाहिये । अवधिज्ञान का क्षेत्र ऊपर कितना है । ऐसा पूछने पर कहते हैं कि प्रत्येक कल्प के देव अपने अपने विमान के बजादण्ड से ऊपर के क्षेत्र की बात नहीं जान सकते । यथा-प्रथम दो कल्पों के देव धर्मा पृथ्वी तक, आगे के दो कल्पो के दूसरी वंशा पृथ्वी तक, आगे ब्रह्मादि चार स्वर्गों के तीसरो मेघा पृथ्वी तक, आगे शुकादि पार स्वगों कं चौथी अजना पृथ्वी तक, आगे आनतादि चार स्वर्गों के देव पांचवी अरिष्टता पृथ्वी तक, आगे नव वेयक स्वर्गों के देव छठवीं मघवी पृथ्वी तक और आगे नव अनुदिश एवं पांच अनुत्तर अर्थात् चौदह विमानों के देव सातवी माधवी पृथ्वी प्रयन्त विक्रिया करने की शक्ति से संयुक्त है। . उपरि शान (प.)। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाया ५२० सोधपं स्वर्ग से आनतादि सोलह स्वर्गों के देवों का अधिक्षेत्र अपने अपने विमान के जा दण्ड से नीचे उपयुक्त त्रिक्रिया शक्ति से युक्त तरक पृथ्वी पर्यन्त है। नवग्रैवेयक विमानवासी देव अपने विमान के ध्वजा दण्ड से नीचे छठवीं पृथ्वी पर्यन्त तक ही जानते है, तथा नत्र अनुदिव विमानवासी देव अपने अपने विमान के शिखर से नीचे जहाँ तक नीचे का बाह्य ( तनु ) वातवलय है वहाँ तक अर्थात् कुछ कम चोदह राजू लम्बी मऊ एक राजू चौड़ी ऐसी सर्व लोक नाड़ी को देखते हैं । *** सव्वं च लोयणालिं पसंति मणुचरेसु जे देवा । सगखेचे य सकम्मे रूवगदमणंत भागो य ।। ५२८ ।। स च लोकनाथ पश्यति अनुत्तरेषु ये देवः । स्वक्षेत्रे च स्वकर्मे रूपगतमनन्तभागं च ॥ ५२८ ॥ सानुत्तरेषु ये देवास्ते सर्वांच लोकमालि पश्यन्ति । प्रतिकार दयते । स्वक्षेत्रे एक प्रवेशोऽपनेतव्यः । स्वक मंरिंग एको ध्रुवभागहारो ९ बातव्यः यावत्प्रवेशसमाप्तिः प्रमेनादधिविषयद्रव्यमेवः सुखितः । एतवर्ष विशवं करोति । कल्पसुराणां स्वस्वावधिक्षेत्रं विगतविलसोपचयमत्रधिज्ञानावरणद्रव्यं च संस्थाप्य एकप्रवेशमपमोय एकवारं ध्रुवभागहारे भजे यावत् स्वस्वावधिविमान विषय क्षेत्र प्रवेशप्रमाणं तावद धवभागहा रेल द्रव्ये सति - चरमख तत्र तनाव विज्ञान विषय द्रव्यमारणं भर्षात ।। ५२८ ।। aya 3XY पायार्थ :- पाँच अनुत्तय विमानवासी देव सम्पूर्ण छोकनाड़ी को देखते हैं। अपने कर्म परमाणुओं में अनन्त भाग का भाग देते जाना और प्रत्येक बार अपने ( अवधि ) क्षेत्र में से एक प्रदेश घटाते ( हीन करते ) जाना चाहिए ॥ ५२८ ॥ विशेषार्थ :- पाँच अनुत्तर विमानों में जो देव है, वे सम्पूर्ण लोकताड़ी को देखते हैं। अब अवधिज्ञान के जानने का विधान कहते हैं अपने ( अवधि ) क्षेत्र में से अब एक प्रदेश घटाना तब अपने ( अवधिज्ञानावरण) कर्म परमाणुओं में एक बार न बहार का भाग देना, जो लब्ध प्राप्त हो उसमें पुनः धवहार का भाग देना और क्षेत्र में से एक प्रदेश घटा देना । इस प्रकार एक एक प्रदेश घटाते हुए जब तक सर्व प्रदेश समास म हो जाय तब तक भाग देते जाना चाहिए। इस कथन से अवधिज्ञान के विषयभूत मध्य का भेद कहा। पुनः इसी अर्थ को विशद करते हैं : वैमानिक देवों का अपना अपना जितना जितना अवधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र कहा है, उसके जितने जिसने प्रदेश हैं उन्हें एकत्रित कर स्थापित करना, और विससोपचय रहित सत्ता में स्थित अपने अपने अवधिज्ञानावरण कर्म के [ कार्मण वर्गणारूप परिणत कर्म ] परमाणुओं को एक ओ I Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया : ५२८ वैमानिक लोकाधिकार ४५३ स्थापित कर इस अवधिज्ञानावरण के द्रश्य को सिद्ध राशि के अनन्त भाग प्रमाण बहार का एक चार भाग देना और क्षेत्र के प्रदेश पुञ्ज में से एक प्रदेश कम कर ( घटा ) देना। भाग देने पर प्राप्त हुई लन्ध राशि में दूसरी बार उसी बहार का भाग देना और प्रदेश पुञ्ज में से एक प्रदेश पुनः घटा देना । पुनः लघ राशि में ध्रु बहार का भाग देना और प्रद ेश पुञ्ज में मे एक प्रदेश और घटा देना। इस प्रकार अवधिज्ञान के विषय भूत क्षेत्र के जितने प्रदेश हैं उतनी बार अवधिज्ञानावरण कर्म के परमाणु पुञ्ज के भजन फल रूप लब्ध राशि में भाग देने के बाद अन्त में जो लब्ध राशि प्राप्त हो उसने परमाणु पुञ्ज स्वरूप पुद्गल स्कन्ध को वैमानिक देव अपने अवधि नेत्र से जानते हैं । इस प्रकार अवधिज्ञान के विषयभूत द्रव्य के भेद सूचित किए गए हैं। अब इसी विषय का विशद रूप से कथन किया जाता है। वैमानिक ( कल्पवासी ) देवों के अपने अपने अत्र विज्ञान का जितना जितना क्षेत्र है, और उस क्षेत्र की जितनी जितनी प्रदेश संख्या है उनको एक और स्थापित करना और विस्रसोपचय रहित अपना अपना अवधिज्ञानावरण कर्म का द्रव्य ( परमाणु समूह ) दूसरी ओर स्थापित करना चाहिए । सौधर्म स्वर्ग में अत्र विज्ञान का क्षेत्र डेराज है, जिसका प्रतीक चित्र ३४३ घन राजू प्रमाणा धन लोक का प्रतीक '' है क्योंकि जगत् श्रेणी का प्रतीक ( ) है, और लोक जगत् श्रेणी का धन है, अतः लोक का प्रतीक ( ) है। लोक को २४३ से भाजित करने पर (57)= १ धन राजू और इसी कोई से गुणित करने पर ( ३ ) - १३ घन राजू प्राप्त होता है, जो सोधर्म द वों का अवधि क्षेत्र है । x उषष सातौं कर्मों के समय प्रबद्ध का प्रतीक चिह्न ( स ७ ) है । इम द्रव्य ( समय प्रवद्ध ) को ७ मे भाजित करने पर अवधिज्ञानावरण का द्रव्य ( स ) प्राप्त हो जाता है। इसमें सर्वघाती स्पर्धक अल्प हैं, मन उनको गौरा कर ( ७ ) को देशघातिया स्पर्धकों का द्रव्य स्वीकृत कर लिया जाता है। मति त अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञानावरण कर्मों में दंश घाती स्पर्धक होते हैं। छतः ( स ) को ४ का भाग देने पर ( सुछु । एक समय प्रवद्ध में अवधिज्ञानावरण कर्म का द्रव्य प्राप्त ७ 3 X ८ हो जाता है। अवधिज्ञानावरण के एक समय प्रबद्ध को डेढ़गुण हानि (१२ क्योंकि एक गुणहानि का प्रतीक चिह्न है तथा ८३ - १२ होते हैं ) से गुणित करने पर अवधिज्ञानावरण का सत्त्व ( स ७१२ ) प्राप्त होता है। धवभागहा का प्रतीक चिह्न ( ९ ) है, अतः अवधिज्ञानावर के ७२ ) प्राप्त होता -- सत्व द्रव्य ( स ७ x १२ ) को एक बार धत्र भागहार का भाग देने पर ( xx 2 ( = x 3 ) प्राप्त होता है। 377X1 EYE है । अवधिज्ञान के क्षेत्र प्रदेशों ३) में से एक कम करने पर यहाँ पर घटाने का चिह्न ( ) ऐसा है । - इस प्रकार अवधिज्ञानावरण कर्म के सत्व द्रव्य में प्रत्येक बार ध्रुव भागहार का भाग देने पर अव विज्ञान क्षेत्र में से एक एक प्रदेपा कम करने पर जब अवधिज्ञान क्षेत्र के प्रदेश समाप्त हो जाए Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाथा : ५२९ उस समय भ्रक भागहारों के द्वारा भाजित जो अवधिज्ञानावरण का द्रव्य शेष रह जाता है वह पुद्गल स्कन्ध अवधिज्ञान के विषय भूत व्रव्य का प्रमाण है। उससे सूक्ष्म स्कन्ध को सौधर्म का देव अबधिज्ञान से नहीं जान सकता है, किन्तु उसमें स्थूल स्कन्ध को जानने में कोई बाधा नहीं है। काल की अपेक्षा -सोधर्म युगल के देवों के अवधिज्ञान का विषयभूत काल असंख्यात करोड बर्ष है, और शेष देवों के अवधिज्ञान के विषय भूत काल यथा योग्य पत्य के असंख्यास भाग प्रमाण है। जैसे-- असंघटि-मान लो अवषिक्षेत्र के १० प्रदेश हैं, और अवधिज्ञानावरण कर्म स्कन्ध के १००००००००००० परमाणु है ! तथा घवभागहार ५ है अतः अवधिज्ञानावरण का द्रव्य १. प्रदेश LoaDOODOOO.O १०-१९ १०००००००००००४-२०००००००००० १-१ ? ust: - ४:420000 ८-१७ ४०.०००००००४ -500000000 ७-१६ ८.0000000x1 = १६०००००.. ६-१-५ १६०००००००xt= ३२०००... ५-१४ ३२००००.०४६ = ६४०.... ४-१-३ ६४०.४00x1 = १२८०.०० ३-१-२ १२८००००४-२५६००० १५६०००४५ = ५१२०. १-१-० ५१२००४- १०२४. पृदंगल स्कन्ध को वैमानिक देव अपने अवधि नेत्र से जानते हैं। अथ वैमानिकदवानां जननमरणान्तरं निरूपयति दुमुदुसु तिचउक्केसु य सेसे जणणंतरं तु चवणे य । सचविण पक्ख मासं दुगचदुलम्मासगं होदि ।। ५२९ ।। द्वयोर्द्वयोः त्रिचतुष्केषु च शेषे जननान्तरं तु च्यवने च । सप्तदिनानि पक्षं मासं द्विकचतु घण्पासक भवति ॥ ५२६ ॥ दुसु बुसु । दूपोतयोस्थिचतुष्केषु शेषे घेति षट्सु स्थानेषु बननरहितान्तरकालो मरणरहितान्तरकालश्च यथासंस्मं सप्तदिनामि पलं मासं हिमासं पतुसिं षण्मासं च भवति ॥ ५२६ ॥ अथ वैमानिक देवा के जन्ममरण के अन्तर का निरूपण करते हैं: Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ५३० freeोकाधिकार गाथार्थ :- सोधर्मादि दो, दो, तीन चतुष्कों ( चार, चार चार एवं मरण का असर कम से सात दिन एक पक्ष, एक माह दो माह होता है ।। ५२९ ।। ४५१ और शेष विमानों में जन्म चार माह और छह माह का विशेषार्थ :- उत्कृष्टता से जितने काल तक किसी भी जीव का जन्म न हो उसे जन्मान्तर और मरण किसी का न हो उसे मरणान्तर कहते हैं, सोघर्मेशान इन दो कल्पों में यदि कोई भी जीव जन्म न ले तो सात दिन पर्यन्त न ले, इसके बाद अवश्य ही कोई न कोई जीव जन्म लेगा । इसी प्रकार वहाँ मरण का अन्तराल भी सात दिन हो है । सानरकुमार आदि दो कल्पों में एक पक्ष, ब्रह्मादि चार स्वर्गों में एक माह शुक्र मादि चार स्वर्गो में दो माह, आनतादि चार स्वर्गो में चार माह और प्रवेयकादि उपरिस विमानों में जन्मान्तर और मरणान्तर छह माह का है । उपर्युक्त उतरविले किन्तु ८५४४-५४८ के अनुसार सौधर्म में छह मुहूर्त, ईशान में ४ मुहूर्त, सानत्कुमार में ६ दिन माहेन्द्र कल्प में १२ दिन, ब्रह्मकल्प में ४० दिन महाशुक में दिन, सहस्रार कप में १०० दिन आनतादि चार कल्पों में संख्यात सौ वर्ष नौवेयकों में संख्यात हजार वर्ष, अनुदिश और अनुत्तरों में पल्य के असंख्यातवें भाग जम्म मरसा का उत्कृष्ट अन्तर है । अथेन्द्रादीनामुरकृष्टान्तरमाह वरविरहं अम्मा इंदमहादेविलोयपालाणं । 3 तेवीससुराणं सरकखसमाणपरिमाणं ।। ५३० ॥ परविरहं षण्मासं इन्द्रमहाद विलोकपालानाम् । चतुः त्रयस्त्रिसुराणां नुरक्षसमानपारिषदानाम् ||५३०॥ वरविरहं । इन्द्राणां तन्महादेवीनां लोकपालामा चोरकृष्टेन विरहकाल षण्मासं जानीहि । श्रयस्त्रिशत्सुरारगां तनुरक्षाणां सामानिकानां पारिषदानां च चतुर्मासं विरहकाल जानीहि ॥ ५३० ।। इन्द्रादिकों का उत्कृष्ट अन्तर- गाथार्थ :- इन्द्र, इन्द्र की महाद ेवी और लोकपालों का उत्कृष्ट विरहकाल छह माह का, तथा श्रायस्त्र, सामानिक, तनुरक्षक और पारिषद देवों के जन्म मरण का उत्कृष्ट अन्तर चार माह का है ।। ५३० ।। विशेषार्थ :- इन्द्र, इन्द्र की महादेवी और लोकपाल का मरण होने के जीव उस स्थान पर जन्म न ले तो अधिक से अधिक ६ माह तक नहीं लेगा। इसी सामानिक, तनुरक्षक और पारिषद देत्रों का उत्कृष्ट विरह-काल चार माह है। बाद कोई अन्य प्रकार शास्त्रश Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ त्रिलोकसार अथ देवविशेषाणां भवस्थानं प्रतिपादयति गाथा : ५३१-५३२ ईमाणलांबच्चुकम्पोति कमेण होति कंदप्पा | किमयि भिजोगा सगकप्पजहण्णठिदिसहिया || ५३१ || ईशानलान्तवाच्युतकल्पान्तं क्रमेण भवन्ति कन्दर्पाः । किल्विषका अभियोग्याः स्वककल्पजघन्यस्थितिसहिताः || ५३१|| ईसारण । प्रत्र विलक्षण काम्बप परिणामयुक्ताः स्वयोग्य शुभकर्मवशात् ईशानकत्वपर्यसं कन्ववेश सूत्वात्पद्यन्ते न तत उपरि । पत्र गोतरेवजी विलक्षएकेलियषिकपरिणामयुक्ताः स्वयोग्यशुभकर्मज्ञालावरूपपर्यन्तं तत्रापि किल्विधिका एवोत्पद्यन्ते न तत उपरि । मत्र सावधक्रियासु स्वहस्तव्यापारलक्षणाभियोग्य भावनायुक्ताः स्वयोग्यशुभकर्मवशात् प्रच्युतकल्पपर्यन्तं तत्राप्याभियोग्यवेक्षा सूवा उत्पद्यन्ते न तत उपरि । एते सर्व स्वकीय कल्पजघन्य स्थिति सहिताः सन्तः ।। ५३१ । -- देव विशेषों के भव स्थानों का प्रतिपादन करते हैं : गाथार्थ :- ईशान, लान्तव और अच्युत कल्प पर्यन्त क्रम से अपने अपने कल्प सम्बन्धी जघन्य आयु सद्दिव फन्दर्प, किल्विषक और अभियोग्य जाति के देव उत्पन्न होते हैं ।। ५३१ ।। 1 विशेषार्थ :- यहाँ मनुष्य पर्याय में जो जीव स्त्रीगमन आदि विलक्षण को धारण करते हुए कन्दर्प परिणामों से संयुक्त होते हैं, वे अपने योग्य शुभ कर्म के वश से कन्दर्प देव होकर ईशान कल्प पर्यंत उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं । ये देव ईशान कल्प की जघन्य आयु से सहित होते है । मनुष्य पर्याय में जो जीव गीतादि से जीविका चलाना है लक्षण जिसका ऐसे फैल्विधिक परिणामों से युक्त नट आदि अपने योग्य शुभ कर्म के वश से किल्विष देव होकर लान्तव कल्प पर्यन्त ही उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं । ये भी अपने उत्पत्ति क्षेत्र की जघन्याय से सहित होते हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याय में जो जीव पाप युक्त क्रियाओं में स्वहस्त व्यापार है लक्षण जिसका ऐसी आभियोग्य भावना से युक्त अर्थात नाई, घोषी एवं दास आदि के करने योग्य कार्यों का स्व हस्त से करते हुए उन्हीं परिणामों से युक्त हैं, वे जीव अपने योग्य शुभकर्म के वश से आभियोग्य देव होकर अच्युत कल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं । इनकी भी अपने उत्पत्चित्क्षेत्र की जघन्यापु ही होती है । अथ प्रथमादिषु स्थितिविशेषमाह सोहम्म बरं पल्लं वरसुबहिबि सत्त दस य चोमयं । बावीसोचि दुबड्डी एक्केक्कं जाव तेवीसं ।। ५३२ ॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा । ५३२-५३ वैमानिकलोकाधिकार ४५७ सौधर्म वरं पल्यं अवरं उदधिद्धिकं सप्त दया च चतुर्दशकं । द्वाविंशतिरिति द्विवृद्धिः एकैकं यावत्वयस्त्रिंशत् ॥ ५३२ ।। सोहम्म | सौधर्मयुगले मधस्यमापुः पल्य मुत्कृष्टं तु प्रत्येक सागरोषमयं । इस उपरि सर्वोत्कृष्टमेव कथयति-सनरकमारयुगले प्रत्येक सप्त सागरोपमाणि महायुपले प्रत्येकं वशतागरोपमारिए लान्तवयुगले प्रत्येक चतुवंशसागरोपमाणि इस उपरि युगलयुगलं प्रति प्रत्येक द्वाविशतिसागरोपम'पर्यन्तं द्विसागशेषमद्धितिया। इत अध्युतादुपरि मावस्त्रविशत्सागरोपमं तावदेकबुद्धि मतिण्या ॥ १३२॥ श्यमादि युगलों में स्थिति विशेष कहते हैं : गाथा:-सौधम युगल की जघन्यायु एक पल्प और उत्कृष्टायु दो सागर की है। इसके आगे क्रम से मात सागर, दश सागर, चौदह मागर प्रमाण है । चौदह सागर से बावीस सागर पर्यन्त दो दो सागर की वृद्धि को लिये हुए तथा उसके ऊपर तेतीस सागर पर्यन्त एक एक सागर की वृद्धि को लिए हुए उत्कृष्ट आयु का प्रमाण है ॥ ५३२ ॥ ___ विशेषा:-सौधर्म युगल में जघन्यायु एक पल्य और उत्कृष्टायु प्रत्येक को दो सागर है। इससे ऊपर सर्वोत्कृष्ट मायु ही कहते हैं- सानत्कुमार युगल में प्रत्येक की सात सागरोपम, ब्रह्म युगल में प्रत्येक को दश सागरोपम, लान्तव मुगल में प्रत्येक की चौदह सागरोपम प्रमाण है। इससे ऊपर बावीस सागरोपम पर्यन्त दो दो सागर की वृद्धि है। यथा-शुक्र युगल में सोलह सागरोपम, पाताच युगल में अठारह सापरोपम, आना युगल में बीस और आरण युगल में बावीस सागरोपम प्रमाण है। इससे ऊपर तेतीस सागरोपम पर्यन्त एक एक सागर की वृद्धि को लेकर है । यथा-प्रथमादि नव प्रवेयकों में कम से २३, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ सागरोपम प्रमाण है। नद अनुदिशों में ३२ सागरोपम और पांच अनुत्तरों में उत्कृष्टायु तेतीस सागरोपम प्रमाण है। अप घावायुष्कसम्यग्दृष्टेः पटल प्रति चोवृष्टायुष्य माह सम्मे घादेऊणं सायरदलमहियमा सहस्सारा । जल हिदलमुडवराऊ पडलं पडि जाण हाणिचयं ।।५३३।। समीचि घातायुपि सागरदलमधिकमा सहस्रारात् । जलधिदलं ऋतुबरायुः पटल प्रति जानीहि हानिचयम् ॥३३॥ सम्मे धा । सम्याही घातायुधि सति तस्य स्वकोपकल्पोत्कृष्टायुषा सकाशावतमहोंने सापरवलमधिकं भवति । सा । एवं सहस्रारपतं सातव्यं । तत उपरि घातायुकस्योरपत्तिास्ति । सौषमयुगलस्य प्रथमपटले स्विमके पर्षसागरोपमं सस्कृष्टायुः इति प्रपमधरमपरलयोरायु या पटलं प्रति हानिधयं जानोहि । तरूपं । घातयुके तावत् सोमर्मानुयुगले प्रा १८ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ त्रिलोकसार पाषा:५१३ १।५।१५। २१ । २६ । ३३ । ३७ । २० ५ ।१५। २१ | २९ । ३३ । ३७ । २० । २२ २।२।२।२।२ । २।२। ।२।२।२।२। ।.। ऊरणखा ३० सनत्कुमारावियुगले प्रासनस्पचरमपालस्यवावि१। ।१।१।१।१।२।. स्वात्तत्र तत्र रूपन्यूने सप्ताविरेव ७ । ४ । २ । १ । १।३।३ हिवाम्म हाणिमिति कृते सौधर्मयुगले हानिचयमेतत् । पर्वसागरोपमस्योपरि समानछेदेन मेलयेत । एतद्विमलेन्द्रकस्योत्कटायुः स्यात् । एषमुपरि सर्वत्र पटलं प्रत्याने सध्यं । सनरकुमार द्वि के हानिचर्य ब्रह्मयामे ३ लान्सबबुगे २ शुकयुगले २ शतारद्वन्द्वे २ मानतद्वये मारणतये । एवं हानिष नात्वा तत्तस्पटलं प्रति प्रायुरानेतव्यम् । प्रघातायुके पावि मन्त २ विसेसे ३ करण्ठा ३० हिम्मि हारिपचय त्रिभिरपतितं एवं एतवानिचय पद्धसागरोपमस्योपरि स्वचरमपटलपर्यन्त मेलयेत् । एवं सनत्कुमारावारण्याच्युतपर्यन्तं सत्तरपटलावुहानिचय ज्ञातव्यम् ॥ ५३३ ॥ घातायुष्क सम्यग्दृष्टि के प्रत्येक पटल की मार कहते हैं : पापाय :-[ सोयम युगल में J घातायुरुक सम्यग्दृष्टि जीव को आयु बाधा सागर अधिक है। इस प्रकार सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त जान ना, ( क्योंकि सहस्राय स्वर्ग से ऊपर घातायुष्क की उत्पत्ति नहीं होती,) ऋतु पटल की उत्कृष्टायु भाषा सागर है, इसी से (प्रथम और चरम पटल की आयु रखकर ) प्रत्येक पटल का हानि चय जानना चाहिये ॥ ५३३ ।। विशेषार्थ :-आयु का धात दो प्रकार का है- अपवर्तन घात, २ कदली घात । अपवर्तन घात बधमान आयु का और कदलीघात मुज्यमान आय का होता है । देवों का कदलीघात नहीं होता किन्तु बद्धघमान का अपवर्तन घात होता है। जैसे-मनुष्य पर्याय में संयमादि अवस्था में ऊपर के स्वर्ग विमानों का उत्कृष्ट आयु वध किया, पश्चात् संयमादि से च्युत होकर बद्धयमान आयु का पात कर दिया, इसे अपवर्तन धात और उस जीव को पातायुक कहते हैं । जो सम्यग्दृष्टि पातायुष्क जीव है, उनकी अपने अपने स्वगं पटल की उत्कृष्टायु से मन्नमुंहूतं कम अध सागरोपम आयु अधिक होती है। जैसे-सौधर्म यगल में सम्यम्हष्टि की उत्कृष्ट आयु दो सागर की है किन्तु घातायुष्क की अन्तमुहत कम २३ सागरोपम प्रमाण होती है। इसी प्रकार सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त बानना चाहिए। इससे ऊपर घातायुष्क जीवों की उत्पत्ति का प्रभाव है। सोधर्म युगल के प्रथम पटल में ऋतु नामक इन्द्रक को उत्साष्टाय अपंगागरोपम प्रमाण है । इस प्रकार प्रथम और चरम पटल की मायु रख कर प्रत्येक पटल का हानि चय जानना चाहिए । आदी अन्त विसे से.... ...या २०० के अनुसार प्रत्येक युगल को अन्तिम पटल की उत्कृष्ट वायु में से मादि । प्रयम ) पटल था युगल की उत्कल बायु घटा देने पर जो अवशेष पहे. उसमें एक कम पच्छ का भाग देने पर हानि जय प्राप्त होता है। पा Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ५३३ मानिकलोकाधिकार Pror i... .. । । । । । । । । . .. Mmm Mla AMA . क्रमोक स्वगं युगल अन्तिम आयु-आदि आयु = प्रवशेष आय: एक कम हानिचय प्रमाण प्रमाण प्रमाण गच्छ सौधर्मशान ५ - (ऋतु पटल)- ३ ६ ३. = सागय सा• माहे. १ -- ३ = १ . =११ या " ब्रह्मन्द्रमो. ' - - ४ - सागर ला-का० १. - = २ = या २. शुक्र-महा० दातार-सह. बानत-मा ___-- ३ ३ = या . भारण-अच्युत प्रथम ऋतु पटल को उत्कृष्टायु का प्रमाण सागर है, इसमें हानिचय का प्रमाण सागर मिला देने पर (21-पर-१५+२) सागर दूसरे विमल पटल की आयु प्राप्त हुई। इसमें पुनः हानि चय मिला देने पर { +91)- सागर उत्कृष्टाय तृतीय चन्द्र पटल की हुई । इसी प्रकार मागे भी जागना चाहिए। अघातायुष्कों की सस्कृष्टायु भी इसी प्रकार प्राप्त करना चाहिए । यथाकमाक स्वर्ग युगल मन्तिम उ• आयु-आदि उ. पाय = अवशेषायु: एक कम पच्छ-हानिचय सौधर्मेशन २ सागर - सा. ( ऋतु प.)- ३. -" या सास-मा. ७ - सागर ब्रह्म-ब्रह्मो लां०-का. शुक-महा० श०-सह. + १ = २ बा०-प्राक आ.- . =२ - ३ - . प्रथम ऋतु पटल की सागर उत्कृष्टायु में सागर हानिचय का प्रमाण मिला देने पर (३+2) सागर द्वितीय विमल पटल को उत्कृष्टायु प्राप्त हुई। इसमें पुनः हानि चय मिलाने पर (23+)-* सागर तृतीय चन्द्र पटल की उत्कृष्टाय हुई । इसी प्रकार आगे भी जानना। प्रत्येक स्वर्गों के प्रत्येक पटलों को श्रादि आय प्रमाण में हानिक्य मिलाकर घातायुक और पघावायष्क दोनों की उत्कृष्टाय का x . Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक : = ४ ५ ७ १० ११ ra पटल नाम ऋतु विमल चन्द्र चल्गु व्रीद अश्य नन्दन नलिन एकत्रित विग्दर्शन : अधाता युष्क • रोहित चखत् १२ महत् घाता शुष्क १३ १४ वैडूर्य १५ रुचक १६ रुचिर ान 1 सा०मा० २ +v= ++ prote קאה 17 ܡ t T क्रमांक ब ११ ऋद्धीश | १४ " १३४ " ६३ सा०१२२ हरित * २३ पत्र » २४. लोहित २० १ ० १ सागर ३१ ૨૩ २४ २५ वज्र २० १५ २६ नन्द्या० २० ३ 男 २७ प्रभङ्कर २० २८ पृष्टक २५ गज मिश्र १ 귀 ११५४४ १३ १.४ १ १२३१ ११ 1 १० १५३६ " पटल नाम १७ अङ्क १८ स्फटिक १६ तपनीय २० मेव १३३ १३२ অ १२० १ ३ नाग " ७ प्रभ अजन frलोकसार घता अघाता शुष्क युष्क 몽님 १३० चक वनमाल | ३६ ४ गरुड़ ५ १ बरिष्ट सुरस २५० १२६ 금 १५ २३ सा० |+ +2 = Sea H ५. लाङ्गल ६६४ ५ वलभद्र या सागर +3" २५ २३३ 13종 १३४ १३% १ ६१४ ७३ सा ८ सा ak + हा मा० कमाक ३. ब्रह्म १ Ru पटल नाम २ ब्रह्मोत्तर १०३ सम् १० सा. +3=1+3= १ ब्रह्महृदय १२३ रु १२ सा. लान्तव ३. शुक्र शतार जनत त पुष्पक सातक गापा । ५३३ मारण वध्युत घाता- मघातायुष्क युष्क ९९२ सागर १४० १४. 1 +२ | +२०= १६३ ० १६ +3= +3= १८३ १८+3= +2= १६ सा. १८ सा. १६३ १९ २०७ २० सा० + +3== २०३० २०३ सा २१ २१ २२ सा २२ सागर Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा : ५१४-५३५-५३६ वैमानिकलोकाधिकार अप लोकान्तिकानामवस्थानमाह णिवसंति पक्षलोयस्संते लोयंतिया सुरा मट्ठ । ईसाणादिसु भट्ठमु बट्टे सु पदण्णएमु कमा || ५३४ ॥ निवसन्ति ब्रह्मलोकस्यान्ते लोकान्तिकाः सुरा अष्ट। ईशानादिषु अष्टसु वृत्तेषु प्रकोएंकेपु क्रमात || ५३४ ॥ रिणवसति । बहालोकस्यान्ते प्रकुलालौकान्तिका: सुरा शानादियष्टदिक्षत प्रकीर्णकेषु अपाम निवसन्ति ॥ ५३४ ॥ लोकान्तिक देवों के अवस्थान का स्थान कहते हैं गाथा:-ब्रह्मलोक के अन्त में ऐशानादि आठ दिशाओं में गोलाकार प्रकीर्णक विमानों में क्रमशः माठ लोकान्तिक देव निवास करते हैं ॥ ५३४ ॥ विशेषार्थ:- सुगम है। मथ तदपकुलसंज्ञा संख्यां च गाथाढयेनाह सारस्सद माइन्ना सन्चसया सगजुदा य बहरुणा । सगसगसहस्तमुवरि दुसु दुसु दोदुगसहस्सवाटिकमा ५३५॥ तो गहतोयतुसिदा मम्वाराहा मरिहसण्णा य । सेढीबद्ध रिट्ठा विमाणणामं च तच्चेव ॥ ५३६ ।। सारस्वता आदित्या सप्तशतानि सप्तयुतानि प वह्नरुणाः । सप्तसहस्रमुपरि द्वयोदयो: द्विद्विसहस्रवृद्धिक्रमः ॥ ५३५ ।। ततो गदंतोयतुषिता अव्याबाधा अरिष्ट संज्ञारच । श्रेणीबद्ध अरिष्टा विमाननामं च तदेव ॥ ५३६ ॥ सारस्सा मा। सारस्वता प्राविस्माश्च प्रत्येकं सप्सयुक्तसप्तशतामि ७.७1०७ बलयः पावणाश्च प्रत्येक सप्ताषिकसप्त लहनारिण। ७००७ । ७००७18 उपरियोयोः स्थानयोतविकद्विकप्तहस्र २००२ द्धिक्रमो शासम्पः ॥ ५३५ ॥ तो गहो । सतो गर्वतीयास्सुषिताश्च ... It... ततो प्रख्यावाषारिसमा ११०११। ११.११ एतेषां मध्ये बिबरिष्टास्तिष्ठन्ति । शेषा वृत्तेषु प्रकोण के पवेष तेषां मामाग्येव तद्विमामनामानि ॥ ५३६ ॥ उन आठ कुलों की संज्ञा और र.रुपा दो गाथाओं द्वारा कहते है :गाथार्थ:-सारस्वत और आदित्य ये प्रत्येक सात सौ सात हैं । बह्नि और अरुण ये प्रत्येक Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निलोफसाद गाथा: ५३७-५३६ सात हजार सात हैं। इनसे ऊपर दो स्थानों में क्रम से दो हजार दो की वृद्धि को लिए हुए हैं। इसके बाद गतंतोय, तुषित, अध्यावाघ और अरिष्ट नामके लोकान्तिक देव हैं। इनमें से अरिष्ट नाम के लौकान्तिक देव श्रेणीबद्ध विमानों में तथा शेष प्रकीर्णकों में रहते हैं ॥ ५३५, ५३६ ।। विशेषाय:-सारस्वत नाम के लौकान्तिक देवों का प्रमाण ७०७ है। आदित्य लोकान्तिक ७०७, वह्नि ७००७, अरुण ७.०७, गदतोय ९००१, तुषित ९००९, अन्यावाध ११०११ और मरिष्ट नामक लौकान्तिक देवों का प्रमाण भी ११.११ है । भाठ कुलों के सम्पूर्ण लोकान्तिक देवो का प्रमाण ५५४६८ अर्थात् पचपन हजार चार सौ अड़सठ है। इनमें से ११०११ अरिष्ट देव श्रेणीबद्ध विमानों में और शेष ४४४५७ लोकान्तिक देव गोल आकार वाले प्रकीर्णक विमानों में निवास करते हैं। इनके विमान कम से ऐशानादि आठ दिशाओं में अवस्थित हैं। अथ सारस्वतादीनां द्वयोः योरन्तरालस्म कुलनामानि तवसंख्यां गाथातयेनाह सारस्सदआइच्चप्पहुदीणं अंतरालए दोदो । जाणग्गिरचंदयसच्चामा सेयखेमकरा ॥ ५३७ ।। वसहिदुकामघरणिम्माणरबा दिगंत पप्पसवादी। रखिदमरुबसुअस्सविसापढमरुणसम पुग्वचयमुबारि ५३८|| सारस्वतादिस्यप्रभृतीनां अन्तरालफेद हूँ । जानीहि अग्निसूर्यचन्द्र कसत्याभाः श्रेयः क्षेमकराः ।। ५५७ ।। वृषभेष्टकामधरनिर्माण रजोदिगन्तात्मसर्यादि।। रक्षितमरुद्धस्वश्व विश्वाः प्रश्रमा अरुणसभाः पूर्वचयमुपरि ॥१३८।। सारसब। सारस्वताविस्यप्रभृतीनामस्वन्तरालेषु कुले नानीहि । सस्कुलस्पा के ? प्रग्यामा सूर्याभाः पनामा: सस्थाभा: पस्कराः क्षेमराः ॥ ५३७ ॥ साह 1 पृषभेष्टा: कामरा निर्माणरमस: दिगन्तरक्षिताः पामरक्षिताः सर्वामिता; मरुतः बसब प्रकार विश्वाः एते स्वस्वकुलनामाथिताः । तत्र प्रथमान्याभकुलस्पा परणसमा: 10 पत्य प्रमाणस्योपरि पूर्वचये प्रषिकविसहस्र २०.२ मिलिते सोमादीनां संख्या भवति ॥५३८॥ ___अथ सारस्वतादि दो दो फूलों के अमराल में स्थित फूलों के नाम और उन देवों की संख्या दो गापाओं द्वारा कहते हैं : नाया:-सारस्वतादित्य आदि आठ कुलों के अन्तरालों में दो दो कुल जानो। वे कुल १ अग्न्याभ, २ सूर्याभ, ३ चन्द्राभ, ४ सत्माभ, ५ श्रेयस्कर, ६ क्षेमकर, ७ वृषभेष्ट, ८ कामघर, निर्वाण एजस्, १० दिगन्तरक्षित, ११ मास्मरक्षित. १२ सवंरक्षित, १३ मरुत्, १४ वसु, Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ५३७-५३८ वैमानिकलोकाधिका ४६३ १५ अश्व और विश्व हैं। इनमें प्रथम अग्न्याभ का प्रमाण अषण के सदृश है, तथा इसके मागे पनि चय का प्रमाण उपयुक्त प्रमाण सहश ही है ।। ५३७, ५३६ ।। विशेषार्थ :- सारस्वत और आदित्य के बीच में अग्न्याभादि दो कुल है। आदित्य और वह्नि के बीच चन्द्रामादि दो, बह्नि और अरुण के बीच श्रेयस्कर आदि दो, अक्षण और गवतीय के बीच वृषभेष्ठादि दो, गर्द तोय मोर तुषित के बीच निर्वाणरजस् आदि दो, तुषित और मध्यावाघ के बीच भारमरक्षितादि दो, अव्यावाध और मरिष्ध के अन्तराल में मस्त आदि दो तथा अरिष्ट और सारस्वत के अन्तराल में अश्व आदि दो कुल हैं। इस प्रकार कुन १६ कुल हैं । कुली के सदृश ही इन दवों के भी नाम है। प्रथम अग्न्याभ देवों का प्रमाण अरुण के सदृश अर्थात् ७००७ है । इसके ऊपर वृद्धि चय पूर्वोक्त प्रमाण अर्थात २००२ है। प्रथा- अग्न्याभ देवों का प्रमाण ७०.७ है, सूर्याभ ९.९, चन्द्राभ ११०११, सस्था १३.१३, श्रेयस्कर १५०१५, क्षमङ्कर १७०१७, वृषभेष्ट १९०१९, कामघर २१०२१, निर्वाणरजस् २३०२३, दिगन्तरक्षित २५०२५, आत्मरक्षित २७०२७, सर्वरक्षित २६०२६, मस्त ३१०३१, वसु ३३०३३, अश्व ३५०३५ और विश्व देवों का प्रमाण ३४.३७ है। आठ अन्तरालों में रहने वाले इन सोलह कुलों का कुल प्रमाण १५२३५२ ( तीन लाख बाबन हजार तीन सौ बावन ) है । इसमें उपयुक्त • आठ कुलों का ५५४६८ प्रमाण मिला देने पर आठ दिशाओं के माठ कुलों एवं आठ अन्तरालों के सोलह फूलों के लौकान्तिक देवों का कुल प्रमाण ( ३५२३५२+ ५५४६८ = ४०७६२० होगा है। यथा : Jena 31-Onvarli NI गाविस श्राप Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ त्रिलोकसार पाच। 18-kg-1४१ अय उक्तानां लोकान्ति कानो विशेषस्वरूपं गाथाद्वयेनाह ते हीणाहियरहिया विसयविरसा य देवरिसिणामा । मापिक्खदचचिचा सेससुराणच्चणिजा हु॥ ५३९ ॥ चोदसपुच्चघरा पडिवोहपग तिस्थयरपिणिमणे । एदेसिमहजल हिद्विदी अरिद्वस्त गव चेव ।। ५४० ॥ ते हीनाधिकरहिता विषयविर काश्च देवपिनामामः । अनुप्रेक्षादत्तचित्ता: शेषसुराणामचनीया हि ॥ ५३९ ॥ चतुदशपूर्वधराः प्रतिबोऽपरा: तीर्थ करविनिः क्रमणे । एतेषामष्टजल घिः स्थिति: अरिष्टस्य नव चैव ॥ ५४० ॥ से होगा। ते हीनाधिकरहिता विषयविरक्ताश्च देवऋषिनामा: पनपेक्षामनविता: शेषसुराणामचनीयाः खलु ॥ ५३६ ॥ घोस ! चतुवंशपूर्वघरास्तीर्षकरविनिःकमणे प्रतिबोधनपरा एतेषां प्रत्येकमसागरोपमाण्याय. प्ररियस्य तु नवसागरोपमाः ॥ ५४० ॥ उक्त लोकान्तिक देवों का विशेष स्वरूप दो गाथाओं द्वारा कहते हैं:-- गाथा :- वे लोकान्तिक देव होनाधिक ( ऋद्धि आदि ) से रहित, विषयों से विरक्त, देवऋषिनाम वाले, अनुप्रेक्षाओ मैं दत्तचित्त, अवशेष इन्द्रादि देवों से पूज्य चौदह पूर्वधारी और निःक्रमण कल्याण के समय तीर्थकरों को प्रतिबोध देने में तत्पर रहते हैं। इनमें अरिष्ट लोकान्तिक वों की आयु नौसागर और अन्य लोकान्तिकों को आठ सागर प्रमाण होती है ।। ५३९, ५४० ।। विशेषार्थ :-लोकान्तिक देव आपस में समान अर्थात् ऋद्धि आवि की हीनाधिकता से रहित एवं विषयों से विरक्त रहते हैं। देवताओं के बीच ये ऋषियों के सदृश हैं, अतः इन्हें देवर्षि ( देव ऋषि कहते हैं । ये निरन्तर अनिरयादि बारह भावनाओं के चिन्तन में दत्तचित्त रहते हैं। ये इन्द्र को शादि लेकर समस्त देवों से पूजित है। चौदहपूर्व के पाठी हैं। दीक्षाकल्याणक के पूर्व तीर्थङ्करों के वैराग्य की अनुमोदना करते हुए उन्हें प्रतिबोध करने में तत्पर रहते है । इनकी आयु आठ सागर प्रमाण होती है। इनमें केवल अरिष्टकुल के लोकान्तिकों की आयु ९ मागर की होती है। अथ धातायुष्कसम्यग्दृष्टिमिध्यादृष्ट घोरायविशेषमाह उवाहिदलं पग्लद्धं भवणे वितरदुगे कमेणहियं । सम्मे मिच्छे घादे पन्लासखं तु सव्वस्थ ।। ५४१ ।। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया।५४१-५४२ वैमानिकलोकाधिकार ४६५ उदविदल पल्याधं भवने क्यन्तरतिके क्रमेणाधिकं । समीचि मिध्ये घाते पल्यासंख्यं तु सर्वत्र ॥ ५४१ ॥ उपहिवसं । पातायुके सम्पादृष्टो भवने व्यन्तरज्योतियोश्च यथाक्रमम् तत्र तत्रोतायुषः सकाशवशंसागरोपमं पल्याडं भाषिक' मातापम् । घातायुष्के मिभ्याटोपल्यासपासमार्ग तयाधिक । एवं सर्वत्र करूपेवपि ॥ ५४१ ॥ घातायुष्क सम्यग्दृष्टि और मिथ्या दृषि की आयु विदोष कहते है पाया:-जिसने सम्पकत्व अवस्था में बद्ध देवायु का घात किया है वह जीव यदि भवन वासियों में उत्पन्न होता है तो उसको उत्कृष्टायू अध सागर अधिक होगी, यदि यह व्यन्तर या ज्योतिषियों में उत्पन्न होता है तो अधं पल्य अधिक होगी। जिसने मिथ्यात्व अवस्था में बद्ध देवायु का घात किया है वह पल्य का असंख्यातवा भाग अधिक आयु वाला देव होया । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए ।। ५४१ ॥ विशेषार्थ :-जिस मनुष्य ने संयम अवस्था में देवायु बंध किया है, पश्चात् संयम से व्युत होकर सम्यग्दृष्टि अवस्था में देवाय का पारा करता है. पश्चात् मियाद अवा, मरण कर यदि भवनवासी देवों में उत्पन्न होता है तो उसकी आय भवनवासियों की एक सागर उत्कृष्टायु से आषा सागर अधिक अर्थात् डेढ सागर होगी, यदि व्यन्तर या ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होता है तो एक पल्य की उत्कृष्टाय से आषा पल्य अधिक होगी ऐसा जानना चाहिए। जिसने सम्यक्त्व अवस्था में देवाय का बंध किया है पश्चात मिष्याष्टि होकर देवायु का षात करता है उसकी देवाय सर्वत्र पल्य का असंख्यातवा भाग अधिक होगी। इसी प्रकार सर्वत्र कल्पवासियों में अर्थात् बारहवें स्वर्ग तक जानना चाहिए। अथ कल्पस्त्रीणां स्थितिप्रमाणं कथयति माहियपन्लं अवरं कप्पदुगिन्थीण पणग पढमवरं । एक्कारसे चउक्के कप्पे दोसचपरिवड्डी ।। ४४२ ॥ साधिकपल्यं प्रवर कल्मति के स्त्रीणां पञ्चकं प्रथमवरं । पकादशे चतुके कल्पे द्विसप्तपरिवृद्धिः ॥ ५४२ ।। साहिय । सौषमकस्पतिमीणामवरमाया साधिकपस्य प्रयमे सोषपरमाष: पञ्चपल्प। प्रय ईशानायेकावशकल्पेषु मानतावितुः कल्पे यथासंख्य सौप तपञ्चपल्याव सिद्धिः सप्तरिटिश्व मावा ॥ ५४२ ॥ कल्पवासी देवाङ्गनाओं की आयु का प्रमाण कहते हैं :गाथा :-सौधर्मशान में देवांगनाओं की जघन्यायु कुछ अधिक एक पल्य है। तथा उत्कृष्टायु Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ त्रिलोकसार गाथा : ५४३ सौधर्म कल्प में तो पांच पत्य की है, इसके आगे कम से ग्यारह स्थानों में दो दो की और शेष चार स्थानों में सात सात पल्य की वृद्धि पूर्वक है ।। ५४२ ॥ विशेष :– सोधर्मादि वो कल्पों में देवांगनाओं की जघन्याय कुछ अधिक एक पल्य है । इसके आगे द्वितीयादि स्वर्गों की उत्कृष्टायु तृतीयादि स्वर्गो की जघन्यायु होती है । सोधर्म कल्प में देवांगनाओं की उत्कृष्टायु पाँच पल्य है। इससे ऐशानादि ग्यारह स्थानों में दो दो की वृद्धि को लिए हुए तथा अनितादि चार स्थानों में सात सात पश्य की वृद्धि को लिए हुए है। यथा कल्प-सी ऐशान जघन्यायु एक पल्य . कुछ अधिक | कुछ अधि १ उत्कुष्टायु – ५ ७ I : सा०मा० ब्रह्म ब्रह्मो लां० का० शु०म० श० स० आ० प्रा० मा ब ७ ९ ११ १३ १५:१७ १९ २१ २३ २५ २७ ३४ ४१ ४८ ६ ११ १३ १५ १७ १६ २१ २३ २५ २७ ३४ ४१ ४८५५ i इदानों देवानां शरीरोत्सेधमाह- दुस सुदुदु चउ तिचितु सेसेसु देहउम्सेहो । रयणीण सत्त छपणचचारि दलेण हीणकमा ॥ ५४३ || योद्वयोः चतुषु द्वयोदयोः चतुर्षु ं त्रिस्त्रिषु शेषेषु देहोत्सेधः । reatti सप्त षट् पचत्वारः दलेन हीनक्रमः || ५४३ || सुसु । द्वयोर्द्वयोश्चतुर्षु उयोट मोदचतुर्षु त्रस्त्रिषु शेषेध्विति वशसु स्यामेषु बेहोसबो यथासंख्ये सप्त ७ षट् ६ पच ५ घरवारो ४ स्मयः तव उपरि प्रहस्तही सहभो ज्ञातव्यः ॥ ५४३ n I देवों के शरीर का उत्सेध कहते हैं : गार्थ :- सौधर्मादि दो, दो, चार, दो, दो, चार, तीन और शेष अनुदिश आदि स्वर्गो में देवों के शरीर का उत्सेध कम से सात, छह पाँच, चार हाथ और उसके ऊपर अवं अघं हाथ होन प्रमाण को लिए हुए है ।। ५४३ ।। विशेषार्थ :- देवों के शरीर की ऊँचाई सोधमशान में ७ हस्त प्रमाण- सानत्कुमारादि दो में ६ हस्त, ब्रह्मादि चार में ५ हस्त, शुक्रादि दो में ४ हस्त, शतार आदि दो में ३३ हस्त, आनतादि चार में ३ हस्त, अघोग्रंवेयक में २३ हस्त, मध्य वेयक में २ हस्त उपरि स्वेयक में १३ हस्त और अनुदिश एवं अनुत्तर विमानों में एक हस्त प्रमाया है । अथ तेषामुच्छ्रवासाहार कालो निरूपयति- Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथा। ५४४ वैमानिकलोकाधिकार ४७ पारद का मायरसलाहि संगुणियं । उस्सासाहाराणं कमेण माणं विमायेसु || ५४४ ।। पक्षो वर्षसहस्र स्वकस्वकसागरवालाभिः संगुरिणतं । उच्छवामाहाराणां कमेण मानं विमानेषु ।। ५४४ ॥ पपलं वास । पक्षो १५ वर्षसहन १००० सोहम्मपरं पल्लं परमुपहि विसत्यायुक्तस्वकीयसागरपासाकाभिः संगुणित दिन ३. वर्ष २००० उच्छ्वासाहाराणा प्रमाणं विमानेषु कमेण मातम्पम् ॥ ५४४ ॥ अब उन देवों के उच्छवास और आहार का निरूपण करते हैं : पायार्थ :- अपनी अपनी आयु प्रमाण सागर शलाकाओं में संगुणित पक्ष एवं हजार वर्ष अपने अपने विमानों में कम से उच्छवास और आहार का प्रमाण होता है | ५४४ ॥ विशेषाप:-'सोहम्म वर पल्लं' गाथा ५३२ में देवों की जितने जितने सागर को उत्कृष्टाय का प्रमाण कहा है, उन सागर शलाकाओं में पक्ष अर्थात् १५ दिन का और वर्ष सहन-हजार वर्ष (१.०० ) का गुणा करने पर अपने अपने विमानों में उच्छ्वास और आहार का प्रमाण होता है। स्वर्गों की उत्कृष्टायु श्वासोच्छवास और आहार का प्रमाण निम्नांकित है : क्रमांक नाम उत्कृष्टायु । वासोच्छ्वास माहारेच्छा सौधर्मशान २ मागर : पक्ष वाद २००० वर्ष बाद सानत्कुमार-मा. ब्रह्म-ब्रह्मोनर - लान्तव-कापिष्ट १४.०. . . शुक्र-महाशुक्र सतार-सहस्रार १०.००" आनस-प्रारणत ८ मारण-अच्युत २२ । २२ » + । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ त्रिलोकसार कमांक नाम उत्कृष्टायु श्वासोच्छवास पाहारेच्छा २३ सागर २३ पक्ष बाम २३००० वर्ष बाद २४००० . . २५००. . . सुदर्शन अमोघ सुपबुद्ध यशोधर सुभद्र सुविशाल ) २६.०० " सुमनस सौमनस प्रीतिकर) २६... ३.००० ३१... आदित्य ३२००० अचि अचिमाली वैरोचन प्रभास ॥ अचित्रम चिमध्य अचिरावत অলিবিহিষ্ণু विजय ३३ पक्ष बाद . २३.०० ॥ वैजयन्त जयन्त अपराजित ३१) सर्वार्थसिद्धि Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक लोकाधिकार अब गुणस्थानमाश्रित्य देवतात्पद्यमानानारूपं गाथा गाथा ५४५-१४६-५४७ परतिरिव । प्रसंता देश संपता था मावेनासयता देश संपलाः परतिरिय देसमयदा उक्कस्सेणचुदोचि णिग्गंथा । णय अयद देसमच्छा गेवेज्जतोचि गच्छति ।। ५४५ || नरतियंख देशायता उत्कृष्टेनाच्युतान्त निम्रन्थाः । न च अयता देश मिथ्या सवैयान्तं छति गच्छन्ति ।। २४५ ॥ करते हैं : — नया न छन्ति ॥ ५४५ | गुणस्थानों का आश्रय कर देवों में उत्पद्यमान जीवों का स्वरूप हीन गाथाओं द्वारा ४६९ मस्तियंश्चोत्कृष्टेन च्युतपर्यन्तं गच्छन्ति । मिथ्यादृष्टयो पर परमप्रवे गाथार्थ :- [ असंयत और ] देशसंयत मनुष्य तिर्यन अधिक से अधिक अच्युत कल्प तक, तर निस्य वंश संयत असंयत एवं मिथ्यादृष्टि मुनि अन्तिम ग्रैवेयक पर्यन्त जाते हैं ।। ५४५ विशेषार्थ :- असंयत सम्यग्दृष्टि और देशसंयमी मनुष्य एवं तिर्यच उत्कृष्टता से अच्युत कल्प अर्थात् १६ स्वर्ण पर्यन्त ही उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं । जो द्रव्य से निश्रभ्य और भाव से विध्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि एवं देशसंयमी है, वे अन्तिम में वैयक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं । सम्बद्धोति सुदिट्ठी महन्वई भोगभूमिजा सम्मा | सोहम्मदुगं मिच्छा मरणतियं लावसा य वरं ।। ५४६ ॥ सर्वार्थान्तं सुदृष्टिः मद्दात्रती भोगभूमिजा सम्यचः । सोधर्मदिकं मिथ्या भवनत्रयं तापसाः च वरं ॥ ५४६ ।। सट्टो । सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं सदृष्टिद्रव्य भावरूपेण महाव्रती पच्छति । भोननुमिनाः सम्यग्टष्टयः सोमं द्विक गच्छति न तत उपरि । भोगभूमिजा मिध्यादृष्टयो भवनत्रय' पान्ति न तल उपरि । पञ्चाग्न्यादिसाधकास्तः सा वरकृष्टेन भवनत्रयं यान्ति न तत उपरि । ५४६ ॥ गाथार्थ :- सम्यग्दृष्टि महाव्रती सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त, सम्यग्दृष्टि भोगभूमिज मनुष्य तिर्य सौधर्मेशन पर्यन्त और मिथ्यादृष्टि भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यन एवं तापसौ साधु उत्कृष्टता से मदनत्रय पर्यन्त ही उत्पन्न होते हैं । ५४६ || चरया य परिव्वाजा बह्मोस पदोचि आजीवा 1 दिसभचरादो चुदा ण केसवपदं नोति ।। ५४७ ।। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. मिलोकसाब पाथा ५७-५४० चरकाश्च परिनाजा ब्रह्मोत्तरपदान्त भाजीवाः । अनुदिशानुत्तरतः च्युता न केशवपद यान्ति ।। ५४७ ।। परया य। नग्नाण्ड' लमरणाघरका एकनिविदाण्डलक्षणाः परिवामका बहाकापपर्यन्तं যনি দিদিম ন নন মুখ। কলিজাৰিশীদিন: আজী অনুনয়ন ধারি না उपरि । साम्प्रतं देवातेवपुतानामुत्पत्तिस्वरूपमाह-मनुविशामुत्तरविमानेम्याथ्युताः केशवपदं वासुदेवप्रतिवासुदेव पवं न यान्ति ॥ ५४७ ॥ गापार्ष:-चरक और परिबाजक सन्यासी ब्रह्मकल्प पर्यन्त और आजीवक साधु अच्युतकरूप पर्यन्त उत्पन्न होते हैं । अनुदिश और अनुत्तर विमानों से चय होकर मनुष्य गति में आने वाले जीव नारायण और पतिनारायण पद को प्राप्त नहीं होते ।। ५४७ ।। विशेषार्थ :- नग्नाण्ड है लक्षण जिनका ऐसे चरक एवं एक दण्डि, त्रिदपष्ट है लक्षण जिनका ऐसे परिव्राजक सन्यासी ब्रह्म कल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं। कांजी आदि का भोजन करने वाले नग्न आजीवक अच्युत कल्प पर्यन्त सत्पन्न होते हैं, इसमे ऊपर नहीं। अब देवगति से युक्त होने वाले जीवों की उत्पत्ति का स्वरूप कहते हैं : जो जीव अनुदिश और अनुत्तर विमानों से व्युत होकर आते हैं, वे नारायण और प्रतिनारायण पद को प्राप्त नहीं होते । क्योंकि वे सम्यक्त्व से च्युत नहीं होते हैं। किन्तु नारायण मौर प्रतिनारायण सम्यक्त्व से च्युत होकर नियम से नरक जाते हैं। अपातश्च्यात्वा निर्वाणं गच्छता नामान्याह सोहम्मो घरदेवी सलोगवाला य दक्षिणमरिंदा । लोयंतिय सम्बट्टा तदो चुदा णिवुदि जाति ।। ५४८ ।। सौधों वरदेवी सलोकपालाश्च दक्षिणामरेन्द्राः। लोकान्तिकाः सर्वाः ततश्च्युता निवनि यान्ति ।। ५४६ ।। मोहम्मो । सौधम्रतस्य पट्टदेवी शायो तस्य सोमानिलोकपाला बक्षिणामरेन्द्राः सवे, लोकान्तिकाः सर्वे, सर्वार्थ सिविनाः सर्वे, ततो देवगतेवध्यता नियमेन निति यान्ति ॥ ५४८ ॥ जो जीव देवगति से चय कर निर्धारण ही जाते हैं, उनके नाम कहते हैं पायार्थ:-सौधर्मेन्द्र, उसी की प्रधान ( पट्ट) देवालना ( शची ), उसी के लोकपाल दक्षिणेन्द्र लोकान्तिक देव ओय सर्वार्थ सिद्धि सं चय होने वाले देव नियम से निर्माण प्राप्त करते हैं ॥ ५४८ ।। 'मग्नाट ( .,. Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ५४६-440 वैमानिकलोकाधिकार विशेषार्ष :-सौधर्म इन्द्र, उसी को गची नाम की पट्ट देवांगना उसी के सोमादि चार लोकपाल, सानत्कुमारादि दक्षिणेन्द्र, सर्व लोकान्तिक देव और सर्व ही सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होने वाले देव अपने अपने स्थान से व्युत हो मनुष्य पर्याय प्राप्त कर, उत्कृष्ट ( निरतिचार ) संयम के धारी होते हुए नियम से उसी पर्याप में मोक्ष प्राप्त करते हैं। प्रथ त्रिषष्टिशलाकापुरुषाणां पदवीमप्राप्नुवतां नामान्याह परतिरियगदीहितो मवणनियादो य गिराया जीवा | ण लहंते ते पदविं तेवहिसलामपुरिसाणं ।। ५४९ ।। मरतियंगतिम्यां भवनत्रयाच निर्गठा जीवाः । न लभन्ते ते पदवी त्रिपष्टिशलाकापुरुषाणाम् ॥ ५४६ ॥ णरतिरिय । नरतिगतिम्पा भवनत्रयाच्च निर्गता जीवास्ते त्रिशलाकापुरुषाण पदी मलभन्ते ॥ ५४९ ॥ जो वेसठशलाका पुरुषों के पद को प्राप्त नहीं करते, उनके नाम कहते हैं गाथार्थ :-जो जीव मनुष्यगति, तियश्चगति और भवनत्रिक से निकल कर पाते हैं. ये नियम से प्रेसठशालाका पुरुषों की पदवो को प्राप्त नहीं करते हैं। __ चतुर्थादि नरको से निकले हुए जीव भी श्रेसठशलाका पुरुषों की पदवी को प्राप्त नहीं होते || ५४६ ।। अथ देवानामुत्पत्तिस्वरूपमाह सुहमयणगे देवा जायते दिणयरोव्व पुव्यणगे। अंतोमूहुत्त पुण्णा सुगंघिसुहफासचिदेहा ।। ५५० ।। सुखशयनाने देवा जायने दिनकर इव पूर्वनगे। पन्तमुहर्ते पूर्णाः सुगंधिसुखस्पशंशुचिदेहाः ।। ५५० ॥ सुहसयण । पूर्वाचले दिनकर इवान्तर्मुहूर्ते षट्पर्याप्त्या पूर्णः सुगन्धिसुनस्पशंधिवहारते बासुखशयनाग्रे वायन्ते ॥ ५५० ॥ देवों की उत्पत्ति का स्वरूप कहते हैं गावार्थ:-जिस प्रकार पूर्व विल पर सूर्य का उदय होता है, उसी प्रकार देव सुख रूप पाय्या पर जन्म लेकर अन्तर्मुहूर्त में छह पर्याप्तियों को पूर्णकर, सुगन्धित सुख रूप स्पा से युक्त एवं पवित्र, गरीर को धारण कर लेते हैं ।। ५५० ॥ अथ तश्रोत्यभान तदनन्तरं कृत्यविशेष गाथात्रयेणाह Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ त्रिलोकसाथ भाणंद तूरयदिरषेण जम्मं विद्युझ से पचं । दट्ठूण सपरिवारं गयजम्मं 'मोहिणा जव्वा ।। ५५१ ।। धर्म पसंसिदूण हाण दहे भिसेयलंकारं । लद्धा जिणाभिसेयं पूजं कुच्वंति सद्दिकी ।। ५५२ ॥ रोहियाचि मिच्दा पच्छा जिणपूजणं पकुब्वंति । सुहसायरमझमया देवा ण विदति गयकाल || ५५३ ।। पाया: ५५१-५५२-५५३ तुम विबुध्यस्वं प्राप्त सपरिवारं गतजन्म अवधिना ज्ञात्वा ॥ ५५९ ॥ धर्म प्रशंस्य स्नात्वा ह्रदे अभिषेकालङ्कारं । लब्ध्वा जिताभिषेकं पूजां कुर्वन्ति सट्टष्टयः ।। ५५२ ।। सुरबोधिता अपि मिथ्या पश्चाजिनपूजनं प्रकुर्वन्ति । सुखसागरमध्यगता देवा न विदन्ति गतकालं ॥ ५५३ ।। झारखंड । श्रानन्दर्य रवेण जयस्तुतिश्वेण वेवं देवजन्मेति विकुष्य एवं प्राप्तं स्वपरिवारं च दृष्ट्या विज्ञानेन गतजन्म व मारवा ।। ५५१ धम्मं पसंसि । धर्म प्रसस्य हवे स्तारमा पट्टाभिषेक सुरसा सहयः स्वयमेव विनाभिषेकं पूजां च कुर्वन्ति ॥ ५५२ ॥ रोहिया। मिथ्यायोऽपि सुरप्रतिबोधिता पश्चा जिनपूर्ण प्रकुर्वन्ति से सर्वे देवा: सुखसागरमध्यगताः सन्तो गतकालं न विवन्ति ॥ ५५३ ॥ देवों के उत्पन्न होने के तदन्तर जो कार्य विशेष होते हैं। उन्हें तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं : गावार्थ :- इनके जन्म को जानकर अन्य देव आनन्द रूप बाजों के, 'जय जय' के एवं अनेक स्तुतियों के शब्द करते हैं उन शब्दों को सुन कर प्राप्त हुए वैभव और अपने परिवार को देख कर तथा अवधिज्ञान से पूर्वजन्म को ज्ञात कर धर्म की प्रशंसा करते हुए सर्व प्रथम सरोवर में स्नान करते हैं, फिर अभिषेक और अलङ्कारों को प्राप्त होकर सम्यग्दृष्टि जीव तो स्वयं जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक पूजन करते हैं, किन्तु मिध्यादृष्टि देव अन्य देवों द्वारा सम्बोधित किए जाने के पश्चात् जिन पूजन करते हैं । सुखसागर के मध्य डूबे हुए ये सभी देव अपने व्यतीत होते हुए काल को नहीं जानते ।। ५५१, ४५२, ५५३ ॥ १ 'महिना यो' इति पाठान्तर सूचना 'ब' प्रतो । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाय।। ५५४-५५२ वैमानिक लोकाधिकार ४७३ विशेषार्थ :- आनन्द स्वरूप वादित्रों के, 'जय' के मोर स्तुतियों के शब्दों से अपने देव जन्म को जान कर प्राप्त हुए वैभव एवं अपने परिवार को देख कर वे देव अर्थविज्ञान से अपने पूर्व भव को जान कर धर्म की प्रशंसा करते हैं, तथा सरोवर में हमान करने के बाद पट्ट स्वरूप अभिषेक एवं अलङ्कारों को प्राप्त कर सम्यन्दृष्टि देव स्वयं जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक पूजन करते हैं तथा मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवों के द्वारा सम्बोधे जाने के उपरान्त जिन पूजन करते हैं। ये ( सम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि ) सभी देव सुखसागर में निमग्न होने के कारण अपने प्रतील काल को नहीं जानते । अथ तेषां देवानां सत्कृत्यमाह महपूजासु दिणाणं कन्हाणेसु य पंजांति कप्पसुरा । अहमिंदा तत्थ ठिया णमंति मणिमउलिघडिदकरा || ५५४ || महापूजा जिनानां कल्याणेषु च प्रयान्ति कल्पसुरा: । अहमिन्द्राः तत्र स्थिता नमन्ति मणिमौलिघटितकराः ।। ५५४।। मह। जिनानां महापूजास तेषां पञ्चमहायागेषु च कल्पनाः सुराः प्रयान्ति । धमिन्द्रास्तु तत्र स्थित एक मरिगमौलिघटितकराः संतो नमन्ति ॥ ५५४ ॥ चन देवों के समीचीन कार्यों को कहते हैं। ! मामा:-- कल्पवासी देव जिनेन्द्रों की महापूजा और उनके पश्चकल्याणकों में जाते हैं, किन्तु अहमिन्द्र देव वहीं स्थित रद्द कर मणिमय मुकड़ों से अपने हाथों को लगा कर नमस्का करते हैं ।। ५५४ ॥ विशेषार्थ :- कल्पवासी देव तीर्थकरों की महापूजा और उनके पश्चकल्याण महोत्सवों में जाते हैं, किन्तु अद्रि देव ( तो ) अपने हो स्थान पर स्थित रद्द कर मणिमय मुकुटों पर अपने हाथ रख कर नमस्कार करते हैं । अथ सुरादिसम्पत् केषां भवतीत्युक्तं आह विविधतवरणभूमा णाणसुची सीलवत्थ सोम्मंगा | जे सिमेव वस्सा सुरलच्छी सिद्धिलच्छी य ।। ५५५ ॥ विविधतपोरल भूषाः ज्ञानशुत्रयः शीलवस्त्रसौम्याङ्गाः। ये तेषामेव वश्या सुरलक्ष्मीः सिद्धिलक्ष्मीश्च ॥ ५५५ ॥ I विवि में विविधतपोरटन भूषाः ज्ञानशुचयः शीलवस्त्र सौम्याङ्गास्तेषामेव सुरलक्ष्मीः सिद्धिलक्ष्मीच वश्या भवति ॥ ५५५ ॥ देवादिक सम्पत्ति किन जीवों को प्राप्त होती है, उसे कहते हैं- ६० Joe : Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ पिलोकसार पाया : १५६ से १५८ गायार्ष:-मोक्ष लक्ष्मी एवं सुरलक्ष्मी उन्हीं जीवों के वश में होती है, जिनके अङ्ग निरन्तर नाना प्रकार के तपों से विभूषित, ज्ञान से पवित्र और शील रूपी वस के संयोग से सौम्य रहते विशेषार्थ:-जो नाना प्रकार के तप रत्नों से विभूषित, ज्ञान से पवित्र और शील रूपी वस्त्र के सम्पर्क से सोम्य शरीर वाले हैं, वे ही जीव सुरलक्ष्मी एवं मोक्षलक्ष्मी को वश में करते हैं। इसानोमष्टमभूमिस्वरूपमाहु तिवणमुडारूढा ईसिपमारा धरहमी रुंदा । दिग्या इगिसगरज्जू महजोयणपमिदवाहला ।। ५५६ ।। त्रिभुवनमूर्धारूढ़ा ईषत् प्राग्भारा घराष्टमी रुन्द्रा। दीर्घा एकसप्तरज्जू अष्ट योजनप्रमितबाहल्या ॥ ५५६ ॥ तिहबरण । त्रिभुवनमूर्षारता ईषत् प्राम्भारसंजा मयुमो घरातल्या चन्द्र बंध्यं च एकसप्तरज्जू भवतः । तस्या बाहल्यमष्टयोजनप्रमितम् ॥ ५५६ ॥ अब अष्टम भूमि का स्वरूप कहते हैं : नापार्थ:-तीन लोक के मस्तक पर आरूढ ईषत्प्रारभार नाम वाली आठवीं पृथ्वी है, इसकी चौड़ाई और लम्बाई कम से एक एवं सात राजू तथा बाहुल्य आठ योजन प्रमाण है ।। ५५६ ।। विशेषार्थ :- सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक विमान के ध्वजादण्ड से बारह योजन ऊपर जाकर अर्थात तीन लोक के मस्तक पर मारूद ईषप्रारभार संज्ञावाली अष्टम पृथ्वी है। इसकी चौड़ाई एक मजू, लम्बाई ( उत्तर-दक्षिण ) सात राजू एवं मोटाई आठ योजन प्रमाण है। अथ तन्मध्यस्थसिद्धक्षेत्रस्वरूपं गाथा दयेनाह तम्मज्के रूप्पमयं छत्तायारं मणुस्समाहिवासं । सिद्धक्खेचं मझडवेहं कमहीण बेहुलियं ।। ५५७ ।। उचाणट्टियमंते पचं व तणु तदुवरि तणुवादे । अडगुणड्डा सिद्धा चिट्ठति अणंतसुइतित्ता || ५५८ ।। तन्मध्ये रूप्यमयं छत्राकार मनुष्यमहीन्यासं । सिद्धक्षेत्र मध्येहवेधं क्रमदीनं बाहुल्यम् ॥ ५५७ ।। उत्तानस्थितमन्ते पात्रमिव तनु तदुपरि तनुवाते। अष्टगुणाढयाः सिद्धा तिष्ठन्ति अनन्त सुखतृताः ।। ५५८ ॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा: ५५६ वैमानिकोकाधिकार ४७९ सम्मझे। तन्मध्ये रुप्यमयं छत्राकार मनुष्यक्षेत्रण्यासं सिख क्षेत्रमस्ति । तपाहत्य मध्ये पष्टयोजनवे पन्यत्र सर्वत्र महीनं ज्ञातम्यम् ॥ ५५७ ॥ उत्ताण । अन्ते तनुरूपमुत्तानस्थितपात्रभिव चषकमिवेत्यर्थः तस्य सिविक्षेत्रस्योपरिमतनुकाते पष्टगुणाच्या प्रमन्तसुखतृप्ताः सिखा लिन्ति ॥ ५५८ ॥ अष्टम पृथ्वी के मध्य में स्थित सिद्ध के का स्वरूप दो गाथाओं पाहते हैं पायार्थ :-इस आठवीं पृथ्वी के ठीक मध्य में रजतमय छत्राकार और मनुष्य क्षेत्र के व्यास प्रमाण सिद्ध क्षेत्र है। जिसकी मध्य की मोटाई आठ योजन है। और अन्यत्र क्रम क्रम से हीन होती हुई अन्त में ऊँचे ( सीधे ) रखे हुए कटोरे के सदृश थोड़ी ( मोटाई ) रह गई है। इस सिद्ध क्षेत्र के ऊपरवर्ती तनुवातवलय में सम्यक्त्वादि आठ गुणों से युक्त और अनन्त सुख से तृप्त सिद्ध परमेष्ठो स्थित हैं ॥ ५५७, ५५८ ।। विशेषर्ष:-जिस प्रकार पृथ्वी पर शिला होती है, उसी प्रकार आठवीं पृथ्वी के ठीक मध्य भाग में चांदी सदृश ( श्वेत । वर्ण वाली छत्राकार शिला है। इसो को सिद्ध क्षेत्र कहते हैं। इस सिद्ध क्षेत्र का व्यास मनुष्य क्षेत्र सदृश अर्थात् ४५००.०० योजन । १८००००००.०० मील) प्रमाण है। उसका बाहुल्य मध्य में अष्ट योजन ( ३२००० मोल ) है, अन्यत्र सर्वत्र क्रम कम हीन होता हुआ अन्त में बिल्कुल कम ( एक प्रदेश प्रमाण । रह गया है। यह सीधे रखे हुए कटोरे या धवल छत्र के आकार बाला है। इस सिद्ध क्षेत्र के उपरिम तनुवातबलय में सम्यक्त्वादि आठ गुणों से युक्त एवं अनन्त सुख से तृप्त सिद्ध भगवान स्थित है । वह सिद्ध लोक है ।। अथ अनन्तमुखतृप्तत्वे कष्टान्तान्तरं गाथाद्वयेनाह--- एयं सत्यं सव्वं सत्थं वा सम्ममेत्थ जाणंता । तिब्ध तुस्संति गरा किण्ण समत्थत्यतच्चाहा ॥५५९|| एक शास्त्रं सर्व शास्त्रं वा सम्यगत्र जानतः । तीन तुष्यन्ति नरा:कि न समस्तार्थतत्त्वज्ञाः ॥ ५५ ॥ एवं एक शास' सन शास्त्रं वा सम्यगत्र मानन्तो नरास्तीत तुध्यन्ति समस्तातरवनातु सिखा कि न सुष्यन्ति ? अपि तु तुष्यन्येव ॥ ५५६ ॥ प्रब दो गाथाओं द्वारा अनन्त सुख की तृप्तता के दृष्टीत कहते हैं गाशा :-जब एक शास्त्र या सर्व शास्त्रों को भली प्रकार जान लेने वाले मनुष्य तीव्र संतोष को प्राप्त होते हैं, तब समस्त अयं एवं तत्त्वों को जानने वाले सिद्ध प्रभु क्या तृति को प्राप्त नहीं होंगे? अपितु होंगे हो होंगे ॥ ५५६ ॥ विशेषार्थ:-जबकि एक या सर्व शास्त्रों को ( सम्यक ) भली प्रकार से जान लेने वाले Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ त्रिलोकसार बाथा।६. मनुष्य अस्यन्त सतोप को प्राप्त होते हैं, तब साक्षात समस्त अर्थ एवं तत्त्वों को एक साथ और निरन्तर जानने वाले सिद्ध परमेष्ठी क्या संतोष को प्राप्त नहीं होंगे? अवश्य हो होंगे। चक्किकुरुफणिसुरेदेसहमिदे में सुहं तिकालभवं । तचो अणंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि ।। ५६. ॥ चकिकुरुफरिणसुरेन्द्रेषु अहमिन्द्रे यत्सुखं त्रिकालभव । तत अनंतगुणितं सिद्धानां क्षणसुखं भवति || ५६० ॥ चपिक । वरिषु कुरुषु फणीन्द्रेषु सुरेन्द्ररहमिन्भेषु च पूर्वपूर्वस्मादुत्तरोत्तरेषामनन्तपुरिणत यत्सुखं त्रिकाल भवं ततः सर्वेन्या सिद्धाना क्षणोरय सुखमनन्तगुरिंगत भवति ॥ ५६० ।। गावार्थ:-चक्रवर्ती, भोगभूमि, धरणेन्द्र, देवेन्द्र और अहमिन्द्रों का सुन्न क्रमशः एक दूसरे मे अनंत गुणा अनन्त गुणा है। इन सबके त्रिकालवी सुखों से सिद्धों का एक क्षण का भी सुख अनंतगुणा है ॥ ५६० ॥ विशेषाय:-संसार में चक्रवर्ती के सुख से भीगभूमि स्थित जीवों का सुख अनन्तगुणा है। इनसे घरएंद्र का सुख अनंत गुणा है। धरणेन्द्र से देवेन्द्र का सुख अनन्तगुणा है, और देवेन्द्र से अहमिन्द्रों का सुख अनंतगुणा है । इन सब के त्रिकालवर्ती सुख से भी सिद्धों का एक क्षण का सुख अनन्तगुणा है । अर्थात् उनके सुख की तुलना नहीं है। - उपयुक्त उपदेश मात्र कथन स्वरूप है, कारण कि सिद्ध परमेष्ठी का सुख अतीन्द्रिय, स्वाधीन और निराकुल ( अव्याबाष ) है, तथा संसारी जीवों का सुख इन्द्रिय जनित, पराधीन और आकुलतामय है, अतः तीनों लोकों में कोई भी उपमा ऐसी नहीं है जिसके सदृश सिद्ध जीवों का सुख कहा जा सके । उनका सुख वचनागोचर है। जिस प्रकार पित्त बिकार से युक्त जिह्वा मधुर स्वाद लेने में असमर्थ होती है उसी प्रकार विकारी छद्मस्थ आत्माएं सिद्ध भगवन्त के मुख का रसास्वादन लेने और कहने में असमर्थ हैं। इति श्रीनेमिचन्द्राचार्यविरचिते त्रिलोकमारे वैमानिकलोकाधिकारः ।। ५ ॥ इसप्रकार श्री नेमिचन्द्राचार्य विरचित त्रिलोकसार में वैमानिकलोकाधिकार समाप्त हुभा ॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औ नरतिर्यग्लोकाधिकारः इतः परं प्राप्तावसरं नरतिर्यग्लोकं निरूपयितुम नास्ताव लोकद्वय स्थित जिन भवन स्तुति पूर्व तत्संख्यामाद णमद णरलोयजिणघर चत्तारि सयाणि दोविहीणाणि । araणं च चउरो गंदीसर कुंडले रुचगे ।। ५६१ ।। नमत नश्लोक जिनगृहाणि चत्वारि शतानि द्विविहीनानि । द्वापश्चात चत्वारि चत्वारि नन्दीश्वरे कुण्डले रुचके ॥ ५६१ ॥ रामम् । नश्लोकं चतुःशतानि द्विविहोनानि ३६८ जिनगृहाणि मन्वोश्वरद्वीपे कुण्डलद्वीपे ornale च तिर्यग्लोकसम्बन्धीनि यथासंख्यं द्वापञ्चाशज्जनगृहाणि ५२ चत्वारि जिनगृहाणि ४ चत्वारि जिनगृहाणि ४ नमत ॥ ५६१ ॥ इससे आगे, प्राप्त किया है अवसर जिन्होंने ऐसे नयतिमंग्लोकके निरूपण की अभिलाषासे संयुक्त आचार्य देव सर्व प्रथम दोनों लोकों में स्थित जिन मन्दिरों को स्तुति पूर्वक संख्या कहते हैं :-- गावार्थ :---मनुष्य लोक सम्बन्धी दो कम चार सौ ( ३९८ ) जिन मन्दिरों को तथा तिर्यग्लोक सम्बन्धी नन्दीश्वर द्वीप, कुण्डलगिरि और रुचकगिरिमें क्रम से स्थित बावन, चार और चार जिन मन्दिरों को नमस्कार करो ।। ५६१ ॥ - विशेषाषं मनुष्य लोक अर्थात् अढाई द्वीप में ३९८ अकृत्रिम जिन चैत्यालय है। हमा नन्दीश्वर द्वीप में ५२, कुण्डलगिरि पर ४ और रुचक गिरि पर चार इस प्रकार तिर्यग्लोक में ६० अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं । इन सर्व ( ३६६+६० - ४५८ ) जिनमन्दिरों को नमस्कार करो । इन अकृत्रिम जिन वैश्यालयोंका चित्रण निम्न प्रकार हैं : [ कृपया चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिछोकसार पापा : ५६१ भा - - - चा शFM - - - - ना ज at - - - ' T - T उम्म ...4 माल मा ना dिae कप-2ikh मदर A.fr : " ". . स -- - M41 G - भर अखन . गए। ET धन दह प - E - - - 11 - समक 1 .+r '" " Sur A FENE | २.. .'' HY TREEN TARA नोट-इस जम्बूदीपके उपर्युक्त चित्रण में सुदर्शनमेरु के- xx=३६. प्रकृत्रिम चैत्यालय ५ मेरु संबंधी हुए घार वनों में स्थित १६ अकृत्रिम जिनमंदिर अत:३४ विजयाओं में , ४ . . " पंच मेच सम्बन्धी ३९० अकृत्रिम चैत्यालय हैं चार इष्वाकाए के ४ .चंत्या गाथा५१२ १६ वक्षार पर्वतों पर १६ . . . मानुषोत्तर , ४ . . ६४० ४ वणवंती पर्वतों पर, ४ . . . नन्दीश्वर . ५२ . . . ९७३ कुलाचलो, .६ , " रुघगिरि ४ .. .९४७ गंबू शाल्मलि र वृक्षों , २ . . . हैं कुपहलगिरि ४ ५ - ९४४ ७५ एक मैक सम्बन्धी अकृत्रिम जिनमन्दिर हैं। । ४५८ नरतियंग्लोकके सम्पूर्ण अ. चंत्यालय। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा । ५५२-५६३ नरतियंग्लोकाधिकार अथ नरलोक जिनगृहाणि कुत्र कुत्र तिन्ति इत्युक्त आहे मंदरकुलवक्खारिसुमणुसुचररुप्पजंबुसामलिए । सीदी तीसं तु सयं चउ चउ सचरिसय दुषणं ॥ ५६२ ॥ मन्दरकुलव क्षारेषु मानुषोत्तररूपयजम्बूशाल्मलिपु । अशीतिः त्रिंशत् तु शतं चत्वारि चत्वारि सातिशतं द्विपञ्च ॥ १३२ ।। मंवर । मन्चरेषु ५ कुलपर्वतेषु ३० पक्षारेषु १०० इष्वाकारेषु ४ मानुषोचरे १ विजयार्थेषु १७. सम्बवृक्षेषु ५ शाल्मलीवृक्षेषु ५ यथासंण्य नगहाण्यशीति विनात ३. शतं १८० चत्वारि ४ पारि ४ सप्तत्युत्तरशतं १७० द्विवारपञ्च ५-५ भवन्ति ॥ ५६२ ॥ नरलोकके चैत्यालय कहाँ कहाँ स्थित हैं ? उन्हें कहते हैं : गाया:-सुमेरु, कुलाचल, वक्षारगिरि, इष्वाकार, मानुषोत्तर, रूप्यगिरि (विजया) जम्बूवृक्ष और शाल्मलि वृक्षों पर कम से अस्सी, तीस, सौ, चार, चार. एफ सी सत्तर, पाच और पांच जिनमन्दिर हैं ।। ५६२ ॥ ___ विशेषाय :-पाच सुमेरू पर्वतों पर ८० जिनमन्दिर हैं, तीस कुलाचलों पर ३०, अदन्त सहित सो वक्षायगिरि पर १००, चार इष्याकार पर ४, मानुषोत्तर पर ४ एक सौ सत्तर विजयाघों पर १००, • पाच जम्बूवृक्षों पर ५, और पांच शाल्मलि वृक्षों पर ५ जिनमन्दिर स्थित हैं। इस प्रकार नरलोक में कुल ( .+३०+१०+४+४+१+५+५= ) ३६८ जिनमन्दिच हैं। अथ मने पक्ष्यमाणानामर्थानां मन्दराश्रयत्वात्तानेव प्रथम प्रतिपादयति जंबूदीवे एकको इसुकयपुबवरचावदीवदुगे। दो हो मन्दरसेला बहुमज्झगविजयबहुमज्मे ।। ५६३ ।। जम्बूद्वीपे एकः इपुकूतपूपिरचापद्वीपद्धिके । द्वी टी मन्दरीलो बहुमध्यगविजयबहुमध्ये ।। ५६३ ।। जंबू । जम्बूवीपे एको मन्दरः व्याफारपर्वतकृतपूर्वापरयापद्वीपट्टिके तो वो मन्दरीलो । तत्रापि ते मन्दराः पय तिष्ठन्ति ? भरताविवेशानामतिशयम मध्यस्पितो विनयः देश इत्यर्थः। तस्यास्यन्तमध्यप्रवेो सिन्ति ५६३ ॥ अब आगे कहा जाने वाला सर्व अर्थ मेरु के आश्रय है, अतः सर्वप्रथम मेवगिरि का प्रतिपादन करते हैं: ___ गाथार्थ :--जम्बूद्वीप में एक मेगिरि है। दो द्वीपों में इष्वाकार पर्वतों के द्वारा किए हुए पूर्व पश्चिम में दो दो धनुषाकार क्षेत्रों में दो दो मेरुपर्वत हैं, इन मेरू पर्वतों का अवस्थान उन धनुषाकार क्षेत्रों के ठोक मध्य में स्थित विदेहों के ठीक मध्य में है ॥ ५६३ ॥ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाब पापा : ५६४ विशेषार्थ :- जम्बूद्वीप में एक मेह गिरि है। तथा वातको खण्ड और पुष्कराक्षं द्वीपों में इष्कार पर्वतों के द्वारा पूर्व पश्चिम दिशाओं में किए हुए दो दो धनुषाकार क्षेत्र हैं । अर्थात् धातकी खण्ड में दो हवकार पर्वतों ने धनुषाकार दो क्षेत्र बनाये हैं, और पुष्कराधं द्वीप में भी दो इष्वाका पत्रों ने धनुषाकार दो क्षेत्र बनाए हैं। इन्हीं चार क्षेत्रों में चार सुमेवगिरि स्थित हैं। उन क्षेत्रों में भी वे मन्दर गिरि कहाँ अवस्थित हैं १ इष्वाकार पर्वतों के द्वारा बनाए हुए जो भरतेरावतादि क्षेत्र हैं, उनके ठीक मध्य भाग में विदेह क्षेत्रों की अवस्थिति है विदेह क्षेत्रों के अत्यन्त मध्य में ये चारों सुमेरु पर्वत स्थित हैं। इनका चित्रण निम्न प्रकार से है: ४८० Nag ܗܟܠܫܐܬ ܝܬ ܐܬ gho でき K RISHNA sii ह दिस जानन hara SEE Fo १ द SUBSCR उद्‌घाटक "हे trol that 2 ३) + fork. अथ तेषां मन्दराणामुभयपार्श्वस्थित क्षेत्राणां नामानि कथयतिदक्खि दिसासु मरहो हेमवदो हरिविदेदरम्मो य । हहरण्णव देरावदवस्सा कुलपव्वयंवरिया || ५६४ ।। दक्षिण दिशासु भरतो हैमवतः हरिविदेहरम्यश्च । हैरण्यवदशवतवर्षाः कुलपर्वतान्तरिता ।। ५६४ ॥ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा :५६५ भरतियंग्लोकाधिकार Yat वक्षिण । तेषां मन्दराणा दक्षिणविशाया प्रारभ्य मरतः हमवता हरिः पिवहा रम्यक हरण्यवता ऐरावत इत्येते वर्षा हिमववाबिकुलपर्वतान्तरिताः ॥ ५६४ ॥ उन सुमेरु पर्वतों के दोनों पाश्र्व भागों में स्थित क्षेत्रोंके नाम कहते हैं : गाया:-उन मन्दर मेरूमों की दक्षिण दिशा से लगाकर क्रमशः (१) भरत ( २ ) हेमवत (३) हरि ( ४ ) विदेह ( ५) रम्यक ( ६ ) हैरण्यवत और (७) ऐरावत ये सात क्षेत्र है, जो कुल पर्वतों से अन्तरित हैं । अर्थात् जिनके बीच में कुल पर्वतों के होने से अन्तर प्राप्त है ॥ ५६४ ॥ विशेषार्प :-उन सुमेरु पर्वतों की दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर मशः मरमादि सात क्षेत्र हैं। जिनमें बीच बीच में कुल पर्वतों के कारण अन्तर है । अर्थात् इन क्षेत्रों के अन्तराल में कुछ पर्वत हैं। यथा :- भरत और हैमवत के बीच में हिमवान् पर्वत है । हैमवत और हरि के बीचमें महाहिमवान्, हरि और विदेह के बीच निषध, विदेह और रम्पक के बीच में नोल, रम्पक और हैरण्यवत के बीच में रुक्मी, तथा हैरण्यवत और ऐरावत के बीच में शिखरिन् पर्वत हैं। अथ तेषां पर्वतानां नामादिकं गाथाद्वयेनाह--- हिमवं महादिहिमवं णिसहो गीलो य रुम्मि सिहरी य । मूलोपरि समवासा मणिपासा जलणिहिं पुट्ठा ॥ ५६ ।। हिमवान महादिहिमपान निषधः नीलश्च रुकमी शिखरी च। मूलोपरि समन्यासा मणिपा/ जलनिधि प्रष्टाः ॥ ५६५ ।। हिमवं । हिमवान् महाहिमवान् निवको नीला हामी शिखरी ब, एते स मूलोपरि समानण्यासा: मणिमयपर्वा मलनिधि स्पृष्टाः ॥ ५६५ ॥ दो गाथाओं द्वारा उन कुलाबों के नामादि कहते हैं: गायार्थ :-हिमवान्, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरिद ये छह कुल पर्वत मूल में व ऊपर समान व्यास-विस्तार मे युक्त हैं । मरिणयों से खचित इनके दोनों पाश्वभाग समुद्रों का स्पर्श करने वाले हैं ॥ ५६५ ॥ विशेषार्ष:-(१) हिमवान् (२) महाहिमवान् (३) निषष ( ४ ) नील (५) रुक्मी और (६) शिरिन् ये छह कुलाचल पर्वत हैं। दीवाल सदृश इन फुलाचलों का व्यास-चौड़ाई नोचे से ऊपर तक समान है । इन कुलाचलों के दोनों पाश्वभाग मणिमय हैं और समुद्रों को स्पर्श करने वाले हैं। जम्बूद्वीप में कुलाचलों के दोनों पाश्व भाग लवणसमुद्र को स्पर्श करते हैं। घातको खण्ड में लवणोदधि और कालोदधि को स्पर्श करते हैं किन्तु पुष्कराचंद्वीप में कालोदधि और मानुषोत्तर पर्वत को सशंगारते हैं। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** त्रिलोकसार हेमज्जुणतवणीया कमसो बेलुरियरजद हेममया । दगिदुगच उचउदुगसियतुंगा होंति हु कमेण ।। ५६६ ।। गाया : ५६६-५६७ हे मार्जुनतपनीयाः क्रमशः वैड्रयंरजतममयाः । एक द्विकचतुश्चतु द्विकेकशततुङ्गा भवन्ति हि क्रमेण ।। ५६६ ।। हेम । हेमव: प्रर्जुनवर्णः श्वेत इत्यर्थः । सपनीयवर्णः कुक्कटन्डयविरित्यर्थः, बैदूर्यवर्णः मयूरकण्ठच्छविरित्यर्थः, रजत वर्ग. हेममयः एते क्रमशः तेषां पर्वतानां वर्षाः एकशतः द्विशतः चतुःशत: चतुःशतः द्विशतः एकछतः क्रमेण तेषामुरसेषा भवन्ति ।। ५६६ ।। गाथार्थ :- इन कुलाचलों का वर्ण क्रमशः हेम (स्वर्ण) अर्जुन (चांदी सह श्वेत) तपनीय ( तपाये हुए व सहश ) वेडूयं मरिंग ( नीला ) रजत (श्वेत) और हेम (स्वर्ण) सदृश है । इनकी ऊंचाई का प्रमाण भी कमशः एक सौ दो सौ, चार सौ चार सो, दो सौ और एक सो योजन है ।। ४६६ ।। ८००००० मील ) है । निपध विशेषार्थ :- हिमवान् पर्वत का वर्ण खगो सदृश और ऊँचाई १०० योजन ( ४००००० मीळ ) है। महाहिमवान् का अर्जुन अर्थात् श्वेत वरणं तथा ऊंचाई २०० योजन पर्वत का वर्णं तपनीय तपाये हुए स्वर्ण समान तथा ऊँचाई ४०० योजन ( १६००००० मील ) है | नील पर्वतका वैडूयं ( पता ) अर्थात् मसूर कण्ठ सदृश नीला है, इसकी ऊँचाई ४०० योजन है । रुक्मी पर्वत का वर्ण रजत अर्थात् श्वेत तथा ऊंचाई २०० यो० है । इसी प्रकार शिखरिन् पर्वत का वर स्वर्ण सहा एवं ऊँचाई १०० योजन है । इदानीं हिमवदादिकुलपर्वतानामुपरिस्थित हृदानां नामान्याह : पउममहापमा तिर्मिछा केसरि महादिपुंडरिया | पुंडरिया य दहामो उवरिं मणुपव्वदायामा ।। ५६७ ।। पद्मो महापद्मः तिमिञ्छा केसरिः महादिपुण्डरीकः । पुण्डरीकश्च ह्रदा उपरि अनुपवंतायामाः || ५६७ ।। परम पद्मो महापद्मस्तिमिच्छः केसरी महापुण्डरोक: पुण्डरीक इत्येते हारतेषामुपरि पर्वतावथामा ति ॥ २६७ ॥ हिमवत्यादि कुलाचलों पर स्थित सरोवरों के नाम कहते हैं : गाथार्थ :- हिमवत् आदि पर्वतों पर क्रमशः पद्म, महापद्म, तिछि केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये वह सरोवर पर्वतों के सहदा हीनाधिक आयामवाले हैं । ५६७ ॥ अथ तेषां हृदानां व्यासादिकं प्रतिपादयत् तत्रस्याम्बुजानां स्वरूपं निरूपयति Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५६८ निरातर्यग्लोकाधिकार ४८३ वासायामोगाढं पणद सदसमहदपवदुदयं खु । कमलस्सुदभो वासो दोविय गाहस्स दसभागो ॥ ५६८॥ व्यासायामागाधाः पञ्चदशदशमहतपर्वतोदयाः खलु । कमलस्योदयः व्यास: दावपि गाधस्य दशमागौ ॥ ५६८ ॥ वासा । तेषी हवामा पाप्तायामागाधा यथासंख्य पञ्चगुरिणतयशगुणितशमभाग हतपर्वतोमा १००।२००। ४००।४००१२०० । १.० खलु । ध्या. ५००=पा.१०.२०१० तत्रस्थकमलयोवण्यासौ तु द्वावपि ततध्रयाना गावामभागो जातम्यौ ॥ ५६८ ॥ उन सरोवरों के व्यासादिक का प्रतिपादन करते हुए वहां स्थित कमलों का स्वरूप कहते हैं: ___पापा:-पर्वतों के ( अपने अपने ) उदय (ऊँचाई ) को पांच से गुणित करने पर द्रहों का व्यास, दस से गुरिणत करने पर द्रहों का आयाम और दस से भाजित करने पर द्रहों की गहराई प्राप्त होती है । द्रहों में रहने वाले कमलों का व्यास एवं उदय ये दोनों भी ग्रहों की गहराई के दस भाग प्रमाण हैं ।। ५६८ ॥ __विशेषार्थ:-उन सरोवरों का व्यास, आयाम और गहराई का प्रमाण अपने २ पर्वतों की . ऊंचाई के प्रमाण को क्रमशः ५ और १० से गुणित करने पर तथा १० से भाजित करने पर प्राप्त होता है, तथा सरोवरों में स्थित कमलों का ध्यास और उदप भी सरोवरों को गहराई के दशवें भाग प्रमाण है यथा :-हिमवान् पर्वत की ऊंचाई १०० यो• है, अतः उस पर स्थित पद्मद्रह की लम्बाई ११००४१.)=१००. योजन, चौड़ाई (१००४५)=५०० यो और गहराई (१.१०) . योजन प्रमाण है। इस पद्मद्रहमें रहने वाले कमल की ऊँचाई एवं चौड़ाई दोनों ( १०:०)- एक एक योजन प्रमाण है । (१) महाहिमवान् पर्वत की ऊँचाई २०० योजन है, अतः उस पर स्थित महापद्म सरोवर की लम्बाई ( २००x१.)- २००० योजन, चौड़ाई (२००४५)= १००० योजन और गहराई ( २०० : १०)=२० योजन प्रमाण है। इस द्रह में रहने वाले कमल की ऊंचाई और ध्यास दोनों (२०-१०-२, १ योजन प्रमाण है। निषध पर्वत की ऊंचाई ४०० यो है. अतः उस पर रहने वाले तिगिञ्छ द्रह की लम्बाई ( ४००x१.)=४००० योजन, चौड़ाई ( ४४७४५) = २... यो और गहराई (४.१.)-४० योजन प्रमाण है। इसमें स्थित कमल की ऊंचाई और व्यास दोनों (४०-१०)=४, ४ योजन प्रमाण है। कुलाचलों का उदय एवं सरोवरों के व्यास आदि का प्रमाण : । कृपया चार्ट अगले पृष्ठ पर देखिए ] १ भागरूपहन (ब.प.)। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकमा पापा : १६९ चौड़ाई गहराई क्रमांक ऊंचाई लम्बाई | सरोवर .यो।। मीलों में | यो में मौलों में योजनों में मीलों में योजनों में मीलों में ४०००० । हिम. १.४०००.. | पन १०००/४000000 | ५.० | २०००००० महा० २००८००००० महापद्म २००५८०.०००० | १०.० ४. ..... ३ निषध ४०० १६००.०० तिगिञ्छ ४८०.१६००००० २००० ००० ४ नील ४००१६००००० केशरी ४०००१६०००००० २००० ८०००००० ४ रुक्मो |२००८००000 महा- २...८०००००० '१००० ४...००. पुण्डरीक शिश्चरिन् १०.४.०००० पुण्डरीक १.००४०००००० ५०० २००००." १६०००० 20000 ४.००० ___ अथ सेषां कमलानां विशेषस्वरूप गाथाद्वयेनाह णियगंधवासियदिसं वेलुरियविणिम्मिउच्चणालजुदं । एक्कारसहस्सदलं गववियसियमस्थि दहमज्झे ।। ५६९ ॥ निजगन्धवासितदिशं वैडूर्यविनिमितोचनालयुतम् । एकादशसहस्रदलं नवविकसितमस्ति ह्रदमध्ये ॥ ५६६ ।। रिणय । निजगन्धवासितविशं वैडूर्यविनिमितोचनालयुत एकामोत्तरसहस्रवलं मवविकसितं पृथ्वीसाररूपं कमल सेषां ह्रवानां मध्ये प्रस्ति ॥ ५६६ ॥ दो गाथाओं द्वारा उन कमलों के विशेष स्वरूप को कहते हैं : गामा :--अपनी सुगन्ध से सुवासित की हैं दिशाए जिसने, तथा . जो वैडूर्यमणिसे निर्मित ऊंची नाल से संयुक्त है ऐसा एक हजार ग्यारह पत्रों से युक्त नवविकसित कमल के सदृश पृथ्वीकायिक कमल सरोवर के मध्य में है॥ ५६९ ।। विशेषार्ष:-प्रथम पद्म सरोवर के मध्य में जो कमल है, वह पृथ्वी स्वरूप है, उसको नाल अंची और वैडूर्यमरिण से बनी हुई है। उसके पत्रों की संख्या १०११ है और उसका आकार नवविकसित कमल सरश है। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५७१-५७० नरतिर्यग्लोकाधिकार कमलदलजलविणिग्गयतुरियुदयं वास कण्णिय तत्प। सिरिरयणगिहं दिग्धति कोसं तस्सद्धमुभयजोगदलं || ५७१ ।। कमलदलण लविनिगंततुर्योदयः व्यासः करिणकायाः तत्र । श्रीरत्न गृहं दैयंत्रिक कोशः तस्यार्ध मुभययोगदल ॥ ५७१ ।। कमल । कमलोस्सेषामेव नालस्य अलविनिर्गतिः कमलचतुर्थाश एव उपयध्यासो करिणकायाः । तत्र धौदेवतायाः रत्नमय गृहमस्ति तस्य दंपत्रिकं वैद्मभ्यासोबयाः यथासंख्य कोचप्रमाणे तस्या सयोरभययोर्योया च स्यात् ॥ ५७१ ॥ ___ गाया:-कमल का अधं उत्सेध जल के बाहर निकला हुआ है। कमल की कणिका की ऊंचाई और चौड़ाई कमल के उदय और व्यास का चतुर्थाश है । उस करिणका पर श्री देवी का रस्नमय गृह है, उसको दीर्घता, व्यास और उदय ये तीनों क्रमशः एक कोश, अर्घ कोश और दोनों के योग का अर्धभाग अर्थाद { १+ :२)-पोन कोश प्रमाण है ।। ५७१ ॥ विशेषार्ष:-कमल के उत्सेध का अर्थ प्रमाण अर्थात् ३ योजन नाल जल से ऊपर निकली हुई है। कणिका का उदय और व्यास कमल के अदय और व्यास का चतुर्थाश है । अर्थात कमल का उदय और व्यास एक एक योजन प्रमाण है, अतः कणिका का उदय और व्यास (१४)=1-एक एक कोश प्रमाण है। इसी कणिका पर श्री देवी का रत्नमय गृह है, जिसको लम्बाई एक कोश, चौड़ाई। कोश और ऊंचाई ३ ( पौन कोश प्रमाण है। नोट :-गाथा ५६९ को उत्थानिका में दो गाथाओं द्वारा कमलों के विशेषादि के कहने की प्रतिज्ञा की गई है. अतः गाथा ५६९ और ५७१ ये दो गाथाएं एक साथ दी गई हैं । यद्यपि पूर्व प्रकाशित पुस्तकों में दूसरी गाथा अर्थात् गाथा नं. ५७१, प्रक्षेप गाथा ५७० के बाद दी गई है। किन्तु प्रक्षेप गाथा, ५७० का सम्बन्ध गाथा ५६९ से न होकर ५७१ से है, इसीलिए प्रक्षेप गाथा ५७० गाथा ५७१ के बाद दी जा रही है। अथ एतदनुगुणं प्रक्षेपगाथामाह दहममे अरविंदयणालं बादालकोसमुवि । इगिकोसं माहन्लं तस्स मुणाल ति रजदमयं ।। ५७० ।। ह्रदमध्ये अरविन्दकनालं द्वाचत्वारिंशकोशोत्सेधम् । एकको बाहल्यं तस्य मृणालं त्रि: रजतमयम् || ५७० ॥ वह। हवमध्पेशविनय मालं वाचवारिशरकोशोरसेषं एककोशवाहरूयं तस्य मृणाल विक्रोशवाहल्यं रजतमयं स्यात् ॥ ५७० ॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ त्रिलोकसार कमल का विस्तार बताने वाली प्रक्षेप गाथा गाथार्थ :--पद्मद्रद् के मध्य में कमलनाल की ऊँचाई ४२ कोस और मोटाई एक कोस प्रमाण है। उसका मृगाल तीन कोस मोटा और रजतव का है ।। ५७० || विशेष :-- -पद्मद्रहकी गहराई १० योजन है । गाथा ५७० में कहा गया है कि कमलनाल जल से अर्थ योजन प्रमाण ऊपर है, इसी से यह सिद्ध होता है कि कमल माल की कुल ऊँचाई १०३ योजन है। तभी तो वह सरोवर की १० योजन की गहराई को पार करती हुई आधा योजन जल से ऊपर है । यही बात प्रक्षेप गाथा ( ५७० ) कह रही है। इस गाथा में नाल की ऊंचाई ४२ कोश कही गई है जिसके १०१ योजन होते हैं । कमल, कमल नाल एवं कमल कणिका का उत्सेधादि : त्रमांक सरोवरों के 景 पद्मद्रह का महापद्मद्रह का तिगिक्छ ४ केसरी 2 महापुण्डरीक ६ पुण्डरीक " P " "" कमल " " T - . " " कमलों का ४ " ४ उत्संघ | व्याव जलमग्न जल के ऊपर 1 १ योजन १ यो० १० यो० ३ यो० १ कोश १ कोश २ २ " २० { " २ १ " " " ४ ४ 19 प " १ p 일상 नाल ४ P ४० १० १० २ * २ " १ " 3" 1 करिएका का उसेच व्यास ४ ४ " २ को १ " ४ ७ {" २ " १ १. " अथ तनिवासिनीनां देवीनां नामानि तासां स्थितिपूर्वकं यत्परिवार चाह - सिरिद्दिरिधिदिकिती य बुद्धीलच्छी य पल्लठिदिभाओ । लक्खं चचसहस्सं सयदहपण पउमपरिवारा ।। ५७२ ।। पाचा ३७२ M मृणाल का बाहुल्य ३ कोश ६ कोश १२ १२ " ६ ३ " 17 श्री ह्रीवृतिः कीर्तिः अपि च बुद्धिः लक्ष्मीः च पल्यस्थितिकाः । लक्षं चत्वारिंशसहस्रं शतदशपश्च पद्मपरिवारः ।। १७२ ।। सिरि। बीहोसिमी तिबुद्धिलक्ष्म्याख्या द्देभ्यः पत्यस्थितिकाः एवं अक्षं चत्वारिंशत्सहस्रारिण पनप्रमारणानि कमलस्य परिवारपद्मानि १४०११५ ।। ५७२ ॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा । १७३-७४ नरतियंग्कोकाधिकार ४८७ कमलों पर निवास करने वाली देवियों के नाम, आयु गौर उनके परिवार के सम्बन्ध में पाथाय :-धी, ह्री, धृति, कीति, बुद्धि और लक्ष्मी ये ग्रहों देवाङ्गनाएं एक एक पल्य को आयु वाली हैं। ये देवांगनाए पद्मादि द्रह सम्बन्धी कमलों पर निवास करती हैं। उन्हीं पनादि दद्दों में एक एक कमल के १, ४०, ११५ परिवार कमल हैं। अथ परिवारकमलस्थितं श्रीदेवीनां परिवारं गाथाचतुष्टयेमाह माइञ्चचंदजपहदीमो निप्परीसमग्गिजमणिरुदी । बक्षीसताल अहदाल सहस्सा कमलममरसम ॥ ५७३ ।। आदित्यचन्द्रजतुप्रभृतयः त्रिपारिपदाः अग्नियमनैऋत्यां । द्वात्रिंशत् चत्वारिंशत् अष्टचत्वारिपात्सहस्राणि कमलानि अमरसमानि ।।५७॥ पाइन्छ । प्रादित्यचन्द्रजातुप्रमृसयस्त्रय: पारिषद वाः क्रमेणाग्नियमनैऋत्या विशि तिष्ठरित सेषां संस्था द्वानिशसहस्राणि चत्वारिशसहस्राणि प्रचत्वारिंशरसहस्राणि भवन्ति कमलानि चामरसमानि ॥ ५७३ ॥ जन परिवार कमलों में स्थित श्री देवी के परिवार का प्रमाण चार गाथाओं द्वारा ' कहते हैं : गाथार्य :--आदित्य, चन्द्र और जतु हैं आदि में जिनके ऐसे तीन प्रकार के पारिषद देव (मूल कमल की ) आग्नेय, दक्षिण और नैऋत्य दिशा में रहते हैं । इनका प्रमाण क्रमशः बत्तीस हजार, चालीस हजार और अड़तालीस हजार है। इनके कमल देवाङ्गना के कमल सदृश ही हैं ।। ५७३ ।। विशेषार्ष:-मादित्य नामक देव है प्रमुख जिसमें ऐसे आभ्यन्तर परिषद् के ३२००० देवों के ३२००० भवन श्री देवी के कमल को आग्नेय दिशा में हैं। ये एक एक भवन एक एक कमल पर बने हुए हैं। इसी प्रकार चन्द्र नामक देव है प्रमुख जिसमें ऐसे मध्य परिषद् के ४०००० देवों के ४०... कमलों पर ४.००. 'ही भवन श्री देवी के कमल को दक्षिण दिशा में स्थित है, तथा जतु नामक देव है प्रमुख जिसमें ऐसे बाह्य परिषद् के ४८००, देवों के ४८००० कमलों पर ४८०.. ही भवन हैं जो पर द्रह की श्री देवी के कमल की नैऋत्य दिशा में स्थित हैं। इन सभी देवों के भवन जिन कमलों पर स्थित हैं वे कमल श्री देवी के कमल सरश हो है। आणीयगेहकमला पच्छिम दिसि सग गयस्सरहवसहा । गंघठवणच्चपची पत्यं दुगुणसत्तकावजुदा ।। ५७४ ।। आनोकगेहकमलानि पश्चिमदिशि सप्त गजाश्वरथकृषभाः। गम्वनृत्यपत्तयः प्रत्येक द्विगुणसप्तकमयुतः। ॥ ५७४ ।। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ त्रिलोकसार रापा।१७४ पाणीय । पानोकदेवाना गेहकमलानि सप्त पश्चिमाया दिशि संति ते मानीकाः गमावरपमगन्धर्षनृत्यपवातय इति सप्तापि प्रत्येक बापमाणस्वसामानिकसम ४... प्रपमानीकात द्विगुणगुणसप्तकायुताः॥ ५७४ ॥ गाथार्थ :-हाथी, घोड़ा, रथ, बैल, गन्धर्व, नृत्यकी और पयारे इन सात अनीकों के अपने अपने भवनों सहित सात कमल श्री देवी के कमल की पश्चिम दिशा में स्थित हैं। प्रत्येक अनीक सात सात कक्षाओं से युक्त है। [ प्रथम कक्ष के प्रमाण से ] द्वितीयादि कक्षों के देवों का प्रमाण दूना दूना है ॥ ५७४ ॥ विशेषापं:-हाथी, घोड़ा, रथ, बैल, गम्धवं, नृत्य की और पयादा ये सात प्रकार के अनीक हैं। इन सात अनीकों के सात भवन सात कमलों पर हैं, और वे कमल श्री देवी के कमल को पश्चिम दिशा में स्थित हैं। प्रत्येक अनीक सात साल कक्षामों से युक्त है। आगे कही जाने वाली सामानिक देवों की ४.०० संख्या प्रमाण ही प्रथम अनीक की प्रथम कक्षा का प्रमाण है, इसके आगे यह प्रमाण दूना दुना होता गया है। जिसका प्रमाण निम्न प्रकार है श्री देवी की ७ अनीकों का सम्पूर्ण प्रमाण गजानीक अश्वानीक रथाऽनीक । वृषभानीक गन्धवानीक नृत्यानीक पाति ४००० ४००० ४००० ४००० E.०० ८००० 500. । 5000 १६००० १६००० १६००० ३२००० ३२... ६४००० ६४००० ३२०५० २४... १२८०.. ३२००० ६४.०० १२८०.. २५६००० । ३२००० ६४००० १२८... २५६००० १२८००० १२८०.० ३२००० ६४००. १२८०.. २५६००० ५००००० १२८००० २५६००० २५५००० २५६०. २५६०.० ५०८०.. ५०८००० ५.८००० ५०००. पोग ५०८००० -३५५६०.. Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया : ५७५-५७६ नरतियं ग्लोकाधिकार gee उत्तरदिसि कोणदुगे सामाणिकमल चदुसदस्समदो | अभंवरे दिसं परि पु तेजियमंगरक्खवासादं ।। ५७५ ॥ यन्मंतरदिसि विदिसे पडिहारमहरमयकमलं । मणिदलजलसमणा परिवारं पउममाणद्धं ।। ५७६ ।। उत्तरदिशि को द्विके सामानिककमलानि चतुः सहस्रमतः । अभ्यन्तरे दिशं प्रति पृथक् तावन्मात्राङ्गरक्षप्रासादाः || २७५ ।। अभ्यन्तरदिशि विदिशि प्रतिहारमहत्तराणामष्टशतकमलानि । ममता परिवारं पद्ममानार्धम् ॥ ५७६ ॥ उत्तर । उत्तरदिग्भागस्थित वायव्येशन कोरढये सामानिकदेवानां कमलागि चतुःसहस्राणि सन्ति प्रतोऽभ्यन्तरे प्रतिविशं पृथक् पृथक् तावन्मात्रा ४००० रक्षणासादाः स्युः ।। ५७५ ॥ तर तेभ्यः पय्यन्तरविशि १४ विविशि च १३ प्रत्येकमेवं सति प्रतिहार महतरालामष्टोत्तरशतकमलानि मणिमयबलानि जलोत्सेबमनालानि सन्ति परिवारविशेषस्वरूपं स मुख्यपद्मप्रमाणार्थ स्यात् ॥ ५७६ ॥ गाथा :- उत्तर दिशा के दोनों कोनों में अर्थात् ऐशान और वायव्य में सामानिक देवों के चार हजार कमल है, इन कमलों के भीतरी भाग में (मूल कमल की ओर ) चारों दिशाओं में घाय चार हजार ही तनुरक्षकों के कमल हैं। अर्थात् उन पार्थिव कमलों पर भवन बने हुए हैं। उन अङ्गरक्षकों के कमलों के अभ्यन्तर भाग में (मूल कमल की ओर ) चारों दिशाओं एवं चारों विदिशाओं में प्रतीहार महत्तरों के एक सौ आठ कमल हैं। ये सब परिवार कमल मणियों से रचित हैं। इन सबके व्यासादि का प्रमाण पद्म (मूल ) कमल के प्रमाण अर्ध अर्थ है। परिवार कमलों के नाल की ऊंचाई जल की गहराई के सदृश ही है ।। ५७५, ५७६ । विशेषार्थ :- उत्तर दिशा के दोनों कोण अर्थाद मूल कमल को ऐशान मोर वायव्य दिशा में सामानिकदेवों के कुल ४००० कमल हैं । इनसे अभ्यन्तर अर्थात् मूल कमल की ओर पृथक पृथक चारों दिशाओं में चार चार हजार अङ्गरक्षकों के कमल है। इनके भी अभ्यन्तर भाग में अर्थात् मूल कमल को और चारों दिशाओं में १४. १४ और विदिशाओं में १३१३ इस प्रकार प्रतिहार महत्तरों के कुल १०८ कमल हैं। सभी परिवार कमल मणिमय है और इन प्रत्येक कमलों पर परिवार देवों के एक एक ही मणिमय भवन बने हुए हैं। इन परिवार कमलों का सम्पूर्ण ( विशेष ) स्वरूप अर्थात् व्यासादिक का प्रमाण प्रधान पद्म के प्रमाण से आधा आधा है। इनके नाल की ऊंचाई सरोवर की गहराई के प्रमाण ही है। अर्थात् नाल जल के बराबर ऊँची है, जल से ऊपर नहीं है । ६२ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा:५७-५७६ इस प्रकार श्री देवी का अवस्थान और उनके परिवार कमलों की कुल संख्या का प्रमाण एवं चित्रण निम्न प्रकार है - श्री देवी के सम्पूर्ण परिवार कमलों का प्रमाण निम्न प्रकार है-अलरक्षक १६०..+ सामानिक ४०..+ अभ्यन्तर पारिपद् ३२०००+ मध्यम परिषद् ४०...+वाय पारिषद् ४८०००+प्रातिहार ... और+७ अनीक= १४०११५ परिवार कमल हैं यदि इनमें सातों कक्षाओं का प्रमाण जोर दिया जावे तो कुल परिवार समूह का प्रमाण ( ३५५६७००+१४०११५) = ३६६६११५ प्राप्त होता है। हिमवान से लेकर निषध पर्वत पर्यन्त कमलों का विष्कम्प और उसेष मादि दूने दूने प्रमाण वाला है । परिवार कमलों का प्रमाण भी दूना दूना है। देवकुमारियों के भवनों का व्यास आदि एवं परिवार कमलों का प्रमाण। भवनों की क्रमांक देव कुमारियां । तीनों पारिषद देव ईशान- | वायव्य | कोण में तन रक्षक सामा | मध्य में बाय निक देव अभ्यन्तर ' परिषद आग्नेय भिसा में मैऋत्य | पश्चिम में अनीक देव आठों दिशाओं में प्रतिहार कुल योग चाई ___ चौड़ाई पारिषद पारिषद पारिपद १३ | कोश र, श्री |१ को ३ को ४ को.। ४.०० | १६... ' ३९.०० ४०००. ४८००० २ ह्री २ को। १ । ८०.० ३२०.० ६४.० ८... ९६००० | २८०२३० ३ धृति ४ को.२ को ६४००० १२८०००,५६००० १९२००० ५६०४६० ४कीति । २ | ३ | १६०.०' ६४.०० १२८००० १६०... १९२००० ५६०४६० बुद्धि २ | १ ३ २००० | ३२.०० ६४००० ५०००० १६००० २८०२३० . लक्ष्मी । । ।३ ४००० | १६.०० । ३२००० ४०००० ४८००. ५ | १०८ : १.११५ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नदतिर्यग्लोकाधिकार ४६१ यद् उगाया है। प्रकीरांक आदि क्षुद्र कमलों का प्रमाण अत्यधिक है। उन कमल पुष्पों पर जितने भवन कहे गये है, उतने ही वहीं नानाप्रकाश के रस्तों से निर्मित जिन मन्दिर भी है। ति० प० ४ । १६९२ गाथा : ५७७-७८-७९ सिरिगिल मदरहिं सोहम्मिदस्स सिरिहिरिधिदीओ | किती बुद्धी लच्छी ईसाणविस्म देवीयो || ५७७ || श्रीग्रल मितरगृहं सौधर्मेन्द्रस्य श्रीह्रीधृतयः । कीर्ति बुद्धिलक्ष्म्य: ईशानाधिपस्य देव्यः ॥ ५७७ ॥ सिरि। श्रोह्यासादिप्रमाणार्थ इतरगृहव्यासादिप्रमाणं स्यात्। श्रीह्नोतयः सौबगास्य देभ्यः श्री सिद्धिलक्ष्यः ईशानाधिपस्य देयः स्युः ॥ ५७७ ॥ गावार्थ ::- श्री देवी के गृह का जितना व्यासादि है, परिवारदेवों के ग्रहों के व्यास अत्रि का प्रमाण उससे आधा बाधा है। श्रो, हो और धृति ये तीन सोधर्मेन्द्र की देवकुमारियाँ है तथा कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये तीन ईशानेन्द्र की देवकुमारियाँ हैं । ५०७ ॥ अथ तेषु सरोवरेषु समुत्पन्न महानदीनां संज्ञा गाधाद्वयेनाह सरजा गंगासिंधू रोहि तहा रोहिदास नाम नदी । हरि हरिकंता सीदा सीदोदा पारि णरकंता ॥ ५७८ ।। सरिदा सुवणरूप्यकूला रचा तहेव रचोदा | वावरेण कमसो णामिगिरिपदक्खोण गया ||५७९ ॥ सरोजाः गङ्गा सिन्धु रोहित्तथा रोहितश्या नाम नदी । हरित हरिकान्ता सीता सीतोदा नारी नरकान्ता ॥ ५७८ ॥ सरितः सुवर्णरूप्यकुळा रक्ता तव रक्तोदा | पूर्वापरेण क्रमशो नाभिगिरिप्रदक्षिणेत गाः ॥७९॥ सरजा । सरसि जाताः गङ्गासिन्धू रोहिसथा रोहितास्या मामा नबी हरिहरिकान्ता सोता सोतोदा नारी नरकान्ता ॥ ५७८ ॥ सरिवा | सुरकूला रूप्यकूला रक्ता तथैव रक्तोवा । एसाः सरितः क्रमशः पूर्वोक्तः पूर्वमुखेनावक्ता: प्रपरमुखेम नाभिगिरिप्रदक्षिणेन गताः ॥ ५७६ || अब उन सरोवरों से उत्पन्न हुई महानदियों के नाम दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाथार्थ :- गङ्गा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरितु, हरिकान्ता, सीता, सोतोदा, नारी, नरकान्ता, सुबकूला, रूप्यकुला, रक्ता और रक्तोदा ये चौदह महानदियाँ पद्मादि सरोवरों से निकली Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ त्रिलोकसाथ गाथा : ५००-१८१ हैं। नाभिमिरि" की प्रदक्षिणा देती हुई [ प्रत्येक युगल की ] पूर्व कही हुई नदियाँ पूर्वाभिमुख और पीछे कही हुई पश्चिमाभिमुख, बहती हुई लवण समुद्र को प्राप्त होती है ।। ५७८, ४७९ ।। विशेषार्थ :- पद्मादि सरोवरों से उत्पन्न गङ्गा, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुचकूला और रक्ता ये नदियाँ अपने अपने क्षेत्रों में स्थित पर्वतों की प्रदक्षिणा स्वरूप बहती हुई पूर्व समुद्र को जातो हैं, तथा सिन्धु, रोहितास्या, हरिकान्ता, सीतोदा, नरकात्ता, रूप्यकूला और रक्तोदा ये नदियां भी अपने अपने क्षेत्रों में स्थित पर्वतों की प्रदक्षिणा सदृश बहती हुई पश्चिम समुद्र को जाती हैं। मय तासां नदीनां उभयतस्वरूपं कथयति पुष्णागणागपूगी कलितमाल के लितंबूली । लवली लवंग मन्लीपदी सयलणदिदुतडेसु ||५८० || पुनागनाथ पूर्गीक हितमालकदलीताम्बूली। लवलीलवङ्गमल्लीप्रभृतयः सकलनदीद्वितटेषु ॥ ५८० ॥ पुण्लाग । पुन्नाग: नागकेसरः पूर्वी कडु लिः समाल: कवली ताम्बूली लवली लवङ्गः महलीप्रभृतयो वृक्षाः सकलनदहिसटेषु सन्ति ॥ ५८० उन नदियों के दोनों तटों का स्वरूप कहते हैं - गाथा :स नदियों के दोनों तटों पर पुन्नाग, नागकेसर, पूगी (सुपारी), क ेलि, तमाल, ( ताड ), कदली, ताम्बूली, लवली ( हरफररेवड़ी ), लबन और मल्लि आदि के अनेक वृक्ष है || ८० ॥ अथ कस्मिन् कस्मिन् सरस्येता नद्यः उत्पन्ना इति कथयति गंगादु रोहिस्सा बउमे र सुवणमंतद हे | सेसे दो दो जोषणदलमंतरिक्षण जामिगिरिं ।। ५८१ ।। गङ्गादे रोहितास्यापद्मं रक्ताद्वे सुवण अन्तहदे । शेपेषु द्वे द्वे योजनदलमसरिया नाभिगिरिम् ।। ५८१ ॥ गंगा । गङ्गा सिन्धुः रोहितास्था च पद्मह्नवे उत्पन्नाः रक्ता रक्कोवा सुबर्णफूला चशन्तह्नदे पुण्डरीकाख्ये उत्पन्नाः । शेषेषु सरह द्वे द्वे नही उत्पन्नं तत्र गङ्गा सिन्धू रक्ता रक्तोदेति चतुर्नवी: परित्यज्य शेषा नद्यो नामिगिरि योजनाऍमन्सरिश्वा गताः तत्र गंगा सिन्धुरक्तारतो नामितिरेश्मा वादेवार्थामताः ।। ५६१ ॥ ये नदियों किस किस सरोवर से निकली हैं ? उसे कहते : देखियेगा ५०९ का विशेषार्थं । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया। ५२-५५३-५८४ नरतियग्लोकाधिकार ४६३ गावार्थ :- गंगादि दो और रोहितास्या ये तीन नदियां पद्म द्रह से, सुवर्णकूला, रक्ता और रक्तोदा ये तीन नदियो अन्तिम पुण्डरीक हद से, तथा शेष दहों से दो दो नदियां उत्पन्न हुई हैं। नदियों का बहाव नाभिगिरि को आधा योजन छोड़ कर है ।। ५८१ ॥ विशेषार्य :--पद्म ह्रद से गंगा, सिन्धु और रोहितास्या ये तीन, महापद्म हद से रोहित और हरिकान्ता, तिगिञ्छ हद से हरित और सीतोदा, केसरीलद मे सीता और नरकान्ता, महापुण्डरीक से नारी और रूप्यकूला तथा अन्तिम पुण्डरीक हद से सुवर्णकूला, रक्ता और रक्तोदा ये तीन नदियाँ निकली है । गङ्गा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा इन चार नदियों को छोड़ कर शेष नदिया नाभिगिरि को आधा योजन छोड़ कर जाती हैं। भरत रावत क्षेत्रों में नाभिगिरि का अभाव है, अतः गंगा, मिन्धु, रक्ता और रक्तोदा इन चार नदियों को छोड़ कर शेष नदियाँ नाभिगिरि को आधा योजन दूर से छोड़कर प्रदक्षिणा रूप जाती हैं। यथा हैमवत क्षेत्र में विजटावान् और हरिक्षेत्र में पद्मवान पर्वत हैं, जो नाभिगिरि नाम से प्रसिव हैं. अतः रोहित, रोहितास्या और हरित् द्रिकान्ता ये दो दो महान दियो इन दोनों नाभि पर्वतों से आधा योजन इधर रहकर प्रदक्षिणा रूप से जाती हैं । बिदेह क्षेत्र में सुमेह ( नाभिगिरि ) है ही। रम्यक क्षेत्र में ओ गंधवान और हैरपयवत क्षेत्र में विजया नाम के पर्वन हैं. वे भी नाभिगिरि नाम से प्रसिद्ध है, अतः सीता सोतोदा सुमेह से, नारी-नरकान्ता गन्धवान् से और सुवर्णकूला-रूप्यकूला विजयाधं ( नाभिगिरि ) से आधा योजन इधर रह कर अधं प्रदक्षिणा रूप से जाती हैं। अथ तत्र गंगाया उत्पत्ति तद्गमनप्रकारं च गापात्रयेणाह बजमुहदो जणिचा गंगा पंचसयमेत्थ पुत्र मुहं । गचा गंगाकूडं मविपच, जोयणदण || ५८२ ।। दक्षिणमुई बलिचा जोयणतेवीससहियपंचसयं । साहियकोसद्धजुदं गधा मा विविहमणिरूवा ।।५८३।। कोसदुगदीहबहला वसहायारा य जिभियालंदा । अजोयणं सकोस तिस्से गंतूण पडिदा सा ।। ५८४ ।। वज्रमुखतः जनित्वा गंगा पञ्चशतमत्र पूर्वमुखं । गत्वा गंगाकूटं अप्राप्य योजनार्धन ।। ५८२ ॥ दक्षिण मुखं बलित्वा योजनत्रयोविंशतिसहितपश्चगतम् । माधिककोशाधंयुतं गत्वा या विविधमणिरूपा । ५८३ ॥ क्रोशद्वयदोघबाहल्या वृषभाकारा च जिद्विकाल्दा।। पड़योजनं सकोशं तस्यां गत्वा पतिता सा ॥ ५८४ ॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाया : ५१ से ५८४ पन । पनसरोवरस्पवनद्वाराज्जमिरा गङ्गा पञ्चशतयोजनान्यत्र हिमति पूर्वमुखं गत्वा पोजमान गंगाकूटममाप्य ॥ ५८२ ॥ वरित । सामाक्षिणमुखं बलिखा व्यावृत्य प्रयोविशतिसहितपश्चशतयोजनानि साधिकशार्षयुतानि वा । अस्य वासना-भरतप्रमाणं यो ५२६ विगुणीकृत्य १०५ तत्र नौग्यास यो को १ अपनीय १०४६ प्रर्षयित्वा ५२३ शेषयोजनं चतुभिः कोशं कृत्वा भक्त्या २१ पागते लब्धे को एक कोष नवीण्यासाय वचाव । पशिष्टं शेष लम्पकको बाधयेत् । ।।। एवं सति पोगरासेवीसेत्यायुक्तमा व्यक्त' भवति । या मितिका प्रमालिका विविधमणिरूपा ॥५८३॥ कोस। जयवीर्घवाहल्या वृषभाकारा कोषसहितषड़योजनान्द्रा सपा प्रतालिकाया गया सा गंगा नदो पतिता ॥ ५८४ ।। गंगा नदी की उत्पत्ति और उसके गमन का प्रकार तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं गावार्थ:-गङ्गा नदी वस्त्रमय मुख से ( उत्पन्न ) निकलकर पांच सौ योजन पूर्व की ओर जादी हुई गङ्गाकूट को न पाकर प्रयोजन पूर्व से दक्षिण की ओर मुड़ कर साधिक अधं क्रोश अधिक पांच सौ ईस योजन आगे जाकर नाना प्रकार के मणियों से रचित, दो कोस लम्बी, दो कोस मोटी और सवा छह गोमन चौड़ी वृषभाकार जिलिका ( नाली ) में जाकर ( हिमवान् पर्वत से ) नीचे गिरती है । ५८२-५८४ ॥ विशेषार्थ :-गङ्गा नदी पाद्रह की पूर्व दिशा में स्थित वनद्वार से निकलकर इसो पर्वत के ऊपर ५.० योजन पूर्व दिशा की ओर जाकर इसी हिमवान पर्वत पर स्थित गंगाकूट को न पाकर अर्ध योजन पहिले हो अर्थाद मधं योजन गंगाकूट को छोड़कर दक्षिण की ओर मुड़कर दक्षिण दिशा में ही ( इसी हिमवान एवंत पर ) साधिक अर्धकोश से अधिक पांच सौ तेईस ( ५२३ ) योजन मागे जाती है। इसकी वासना कहते हैं :-भरत क्षेत्र का प्रमाण ३२६पर योजन है, इसको दूना करने से ( ५२६. ४२)= १०५२१३ योजन हिमवान् पर्वतका विस्तार प्राप्त हुआ। इस पर्वत के ठीक बीच में पद्मद्रह है और गंगा भी पर्वतके ठीक मध्यसे जाती है अबएव पर्वतके विस्तारमें से नदीका ध्यास (६: यो०) घटा कर आधा करने पर ( १०५२११ ----१३)- ५२३ योजन हुए। अवशिष्ट र योजन के कोश बनाने के लिये ४ से गुणा करने पर (1 ) अर्थात् २ कोश प्राप्त हुए। इसमें से एक कोश नदी के व्यास में दे देने पर अर्थात् १ अवशेष रहे इन्हें आधा करने पर (3 मर्थात ५२१ योजन ( गंगा नदी ) दक्षिण दिशा में जाती है। जहाँ गंगा नदी मुड़ी है बहा हिमवान् पर्वत के व्यास में से नदी का व्यास घटा कर अवशिष्ठ का आषा करने पर आधा भाग उत्तर में और आधा दक्षिण में रहा, अत: दक्षिण के इस अध भाग ( ५२३६६ योजन ) को पार करने के बाद हो गंगा को हिमवान् का तट प्राप्त हो गया। हिमवान् के इसी तट पर नाना मणियों के परिणाम रूप जिबिका Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ५५५ से १९० तरतियंग्लोकाधिकार ४९५ नाम की प्रणालिका (नाली) है, जो दो कोस लम्बी, दो कोस मोटी और योजन चौड़ी है। यह वृषभाकाय ( गौमुखाकार ) है। गंगा नदी इसी नाली में जाकर हिमवन् पर्वत से नीचे गिरती है। अथ प्रणालिकाया: वृषभाकारत्वमन्वर्धयति--- केसरिमुहसुदिजिच्मादिही भूमीसपहुदिणो सरिसा । तेणि पणालिया मा घमहायारेति णिहिट्ठा ।। ५८५ ।। केशरिमुखश्चतिजिह्वादृष्टयः भूशीप प्रभृतयः गोसदृशाः । तेनेह प्रणालिका सा वृषभाकारा इति निर्दिष्टा ॥ ५८५ || केसरि। मुखश्रुतिजिह्वाइष्टः केसरिसरक्षाः शीर्वप्रमृतयः गोलरक्षास्तेन कारणेनेह मा प्रणालिका वृषभाकारेति निविष्ठा ॥ ५५ ॥ प्रणाली के वृषभाकारत्व को सार्थक करते हैं : गाचा :--उस प्रणालिका अर्थान् कूट का मुख, कान, जिह्वा और नेत्रों का साकार तो सिंह के सदृश है किन्तु भौंह और मस्तक का आकार गौ के सदृश है; इसी कारण उस नाली को ( मुख्य रूप से ) वृषभाकार कहा गया है ॥ ५८५ ।। अय पतितायास्तस्याः पतनस्वरूप गाथापश्चकेनाइ-- मरहे पणकदिमचलं मुच्चा कहलोवमा दहब्बासा । गिरिमूले दवगाहं कंडं वित्थारसद्विजुदं ।। ५८६ ।। मझे दीमो जलदो जोयणदलमुग्ग मो दुषणवासो । तम्मज्मे बजमओ गिरी दसुस्सेइओ तम्स ।। ५८७ ॥ भूमज्झगो वायो चदुदुगि सिरिगेदमुवरि नव्यासो । चावाणं तिदुगेक्कं सहस्समुदमो दु दुसहस्सं || ५८८ ॥ पणसयदलं तदंनो तदारं ताल वास दुगुणुदयं । सम्वत्थ धरपू णेयं दोणि कवाला य वञ्जमया ।। ५८९ ।। सिरिगिहमीसट्ठियंबुजकण्णियसिंहासणं जडामउलं । जिणममिसेत्तमणा वा मोदिण्णा मत्थर गंगा ।। ५९० ।। भरते पश्चतिमचल मुक्त्वा काहलोपमा दशव्यासा। गिरिमूले दशगावं कुण्डं विस्तारष्टियुतम् ॥ ५८६ ॥ मध्ये द्वीपः जलतः योजनदलमुद्गतः द्विधनष्णसः । तन्मध्ये वनमयः गिरिः दशोत्सेधः तस्य ।। ५८७ ॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ त्रिलोकसार भूमध्याप्रो व्यासः चतुः ह्निकं एकं श्रीगेहमुपरि तद्व्यासः । चापानां त्रिद्विकं सहस्रमुदयस्तु द्विसहस्रम् ॥ ५६६ || पञ्चशतदलं ववन्तरं तद्द्वारं चत्वारिंशत् व्यासं द्विगुणोदयं । सर्वत्र धनुः ज्ञेयं दो पाटों व वज्रमयो । ४८९ || श्रीगृहशीर्ष स्थिताम्बुजकणिकासिहासनं जटामुकुटं । जिनमभिषेक्त मनातील मलके गंगः ॥ ५९० ॥ गाया। ५८६ से ३६० भर मरते पकृति २५ योजनमचलं मुश्श्वा काहलोपमा बशयोजनव्यासा सती गिरिमूले योजनायगावषट्टियोजनविस्तारखुतं कुण्डमति ॥ ५८६ ॥ म मध्ये जलादुपरि योजनार्थमुद्गतः द्विघन व्यासः दोपोहित तन्मध्ये बज्रमयो दशयोजनोत्सेधो गिरिरस्ति तस्य ।। ५८७ ॥ सूम । भूय्यासो मध्यव्यासो मप्र व्यासश्च यथासंख्यं योजनानि चत्वारि द्वि एकं स्युः । तथ्य गिरेदपरि षीगृहमस्ति । तद्भूमध्याप्रष्वासश्चापानां त्रिसहस्र द्विसहस्रमेकसहस्र उदवस्तु द्विसहस्र स्यात् ॥ ८८ ॥ पण । श्रीगृहाभ्यन्तरविस्तारः पश्चशततद्दलयोमिलितप्रमाणं स्यात् । तस्य भीगृहस्थद्वारं वारिंशद्व्यास ४० तद्विगुण ८० वयं स्यात् सर्वत्र श्रीगृहमानं धनुः प्रमितं ज्ञेयं तस्य ही कपाटी वाम ।। ५८१ ॥ सिरि। श्रीगृहशीर्षस्थिताम्बुजकरणकासिहासनं जटामुकुटं निमभिषिक्त मना इव जिनमस्त गङ्गासी ॥ ५६ ॥ अब गिरी हुई नदी और उसके गिरने का स्वरूप पाँच गाथाओं द्वारा कहते हैं : = —- गाथार्थ :- भरत क्षेत्र में पञ्चकृति - ( पच्चीस योजन) हिमवान् पर्वत को छोड़ कर काहला ( एक प्रकार का बाजा ) के आकार को धारण करने वाली तथा दश योजन है विस्तार जिसका ऐसी गंगा हिमवान् पर्वत के मूल में दश योजन गहरे और साठ योजन चौड़े गोल कुछ में गिरती है । उस कुण्ड के मध्य में जल से ऊपर अर्थ योजन ऊंचा द्विषन बाठ योजन चौड़ा गोल द्वीप ( टापू ) है । उस द्वीप के मध्य में वज्रमयी- दश योजन ऊंचा पर्वत है। उस पर्वत का व्यास अर्थात् नीचे, मध्य में एवं ऊपर पण चार दो और एक योजन है। उस पर्वत के ऊपर श्री देवी का गृह है । वह गृह [ भू. मध्य और अग्रे क्रमशः ] तीन हजार, दो हजार और एक हजार धनुष व्यास वाला है । त उसकी ऊंचाई दो हजार धनुष है। उस श्री देवीके गृहका अभ्यन्तर व्यास पाँच सौ और उसके आधे भाग को मिलाकर अर्थात् (५०० + २५० ) - साढ़े सात सौ धनुष प्रमाण है। तथा उस गृह के द्वार का व्यास चालीस धनुष और ऊंचाई अस्सो धनुष है जिसके दोनों किवाड़ वज्रमयी है। का प्रमाण सर्वत्र धनुष प्रमित है । श्रीगृह के अप्र भाग पर कमल कर्णिका में इस प्रकार श्रीगृह सिहासन पर स्थित Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 -7 गाया । ४६६ से ५९० नर तिर्यग्लोकाधिकार YES जटा ही है मुकुट जिनका ऐसे जिन बिम्ब पर मानों अभिषेक करने का ही है मन जिसका ऐसी गंगा मस्तक पर गिरती है ।। ५८६ से ५९० ।। विशेषा:- भरत क्षेत्र में हिमवान् पर्वतको २५ योजन छोड़कर कालाकी उपमाको धारण करती हुई दश योजन व्यास वाली गंगा नदी, गोल कुण्ड में स्थित जिन मस्तक पर गिरती है । हिमवान् पर्वत के मूल में जो १० योजन गहरा ६० योजन चौड़ा गोल कुण्ड है, उसके मध्य में जल से ऊपर अक्षं योजन ऊँचा और ८ योजन चौड़ा गोल टापू ( द्वीप ) है । उस द्वीप के मध्य में वञ्चमयी १० योजनांचा पर्वत है। उस पर्वत का व्यास नीचे चार योजन. मध्य में दो योजन और ऊपर एक योजन प्रमाण है, उस पर्वत के ऊपर श्री देवी का गृह अर्थात् गंगा कूट है, जिसका व्यास नीचे ३००० धनुष, मध्य में २००० धनुष और ऊपर १००० धनुष है। इसकी ऊंचाई का प्रमाण २००० धनुष है तथा इस गृह (गंगाकूट ) का अभ्यन्तर व्यास पाँच सौ और उसके प्रधं भाग को मिलाकर अर्थात् (५०० + २५० }= ७५० धनुष है। इस श्री गृह के द्वार का व्यास ४० धनुष और उदय ५० धनुष है जिसके दोनों किवा वज्रमयी हैं। श्री गृह का प्रमाण सर्वत्र धनुष प्रमित जानना चाहिए। इस श्री गृह अर्थात् गंगाकूट के अग्रभाग पर स्थित कमलकणिका में जो सिंहासन है उस पर है अवस्थिति जिनकी तथा जटा हो है मुकुट जिन जिनेन्द्रकी रखने वाली गंगा नदी उनके मस्तक पर गिरती है । ६३ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ क्रमांक पर्वतों के नाम त्रिलोकसाथ कुण्ड, द्वीप, पर्वत एवं श्री आदि देवियों के ग्रहों का प्रमाण पर्वतों के कुण्डों के मूल में स्थित मध्य द्वीपों "कुण्डों की ¦ योजनों में योजनों में गहरान १० २० १२० १ ४० २४० २ २४०२ २० १२० १ चौड़ाई ऊंचा चोड़ाई हिम० २ महा हि० ३ निषध ४ नील x) रुक्मी ६ शिखरिन् १० । ६०. ४० |--- ७ द्वीपों के मध्य स्थित पर्वतों की योजनों में ८ ऊँचाई व्यास नौद मध्य में ऊपर पर्वतों के ऊपर स्थित श्री आदि देवियों के गृहों की धनुषों में व्यास ऊई नीचे मध्य ऊपर अभ्यन्तर हातू दक्षिणतः गरखा खण्डप्रपातनाम गुहाम् । मष्टयोजनविस्तीर्णा विनिर्गता कुतपास्तात् ॥ ५९१ ।। पापा: १९१ अथ कुण्डात् निर्गत्य गच्छन्त्या गंगायाः स्वरूपं तत्स्थानस्वरूपं च गाथाषट्केनाह- कुंडादो दक्खिणदो गत्ता खंडप्पवादणामगुहं । महजो त्रित्थिण्णा विणिमाया कुदवहिडादो ||५९१ ।। गृह द्वारों की धनुषों में १० ४ |२| १२००० ३००० | २००० १००० ७५० १६ २० ८ ४ २,४००० ६००० ४०० १००० १५०० १६०८० ३२ ४० १६ ८ ४८००० १२०००/८००० ४००० ३००० ३२० १६० ३९ | ४० १६८४८००० १२००० ८००० ४००० ३००० ३२० १६० kF २० ८ ४ २ ४००० ६००० ४००० २००० १५०० १६० ८० २ | १|२००० ३००० २००० १००० ७५० १० | ४ ऊँचाई व्यास ८० ४० 50 ४. कुंडा । कुण्डा प्रविश्याष्ट्रपोजनविस्तीर्खा सती पुनः कुतपादधस्तावेव विनिर्गता ॥ ५६१ ॥ कुण्ड से निकल कर जाती हुई गंगा का स्वरूप एवं उसके स्थान का स्वरूप ग्रह गांथानों द्वारा कहते हैं वशिलाभिमुखं गत्वा विजयार्धस्य खण्डप्रपातनागृह कुलपावचस्ता गाथार्थ :- गङ्गा नदी कुण्ड से निकलकर दक्षिण की ओर बहती हुई विजपापर्यंत को खण्डप्रपात नाम गुफा की कुतप ( देहली ) के नीचे से निकल कर आठ योजन चौड़ी होती हुई गुफा के तर द्वार की देहली ( कुतप ) के नीचे होकर जाती है ।। ५६१ ।। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ५६२-५३३ नरतिर्यग्लोकाधिकार दारगुहुन्छवासा भह बारस पष्वदं व दहचं । बज्जळवासकवाट वेडगुहा दुगुभयंते ।। ४९२ ।। द्वारोच्छ्रयन्यासी मष्ट द्वादश पर्वत इव दीर्घत्वं । वज्रव्यास कपाटद्वयं विजयार्ध गुहा द्विकोभयान्ते ॥ १६२ ॥ दार द्वारयोः प्रत्येक मुच्छ्रयपासाव योर्वोर्घत्वं विजयार्थगुहायोभयान्ते वज्रमयषड्यो मध्यासकवादद्वयमस्ति ॥ ५६२ ।। द्वावश १२ योजनी पर्वतविस्तारवद्गुह ५० ४९१ गाथार्थ :- गुफा ओर गुफा के द्वार की ऊंचाई आठ आठ योजन तथा दोनों का ध्यास ( चोड़ाई) बारह बारह योजन है। विजयाचं पर्वत की चौड़ाई सट्टा ( ५० योजन ) ही खण्ड प्रपात गुफा की लम्बाई है । अर्थात् खण्ड प्रपान गुफा ५० योजन लम्बी है तथा इसी गुफा के दोनों अम्तिम द्वारों के दोनों कपाट छह-छह योजन चौड़े और वज्रमयी है | ५६२ ॥ विशेषार्थ :- विजयाचं पर्वत की खण्ड प्रपात गुफा की ऊंचाई योजन चौड़ाई १२ योजन और लम्बाई विजयाधे की चौड़ाई सदृश अर्थात् ५० योजन है। इसी प्रकार गुफा द्वार की ऊंचाई योजन और चौड़ाई बारह (१२) योजन प्रमाण है। विजयार्धं की इस गुफा के दोनों अन्तिम द्वारों पर प्रत्येक कपाट ६ योजन चोड़े और वज्रमयो हैं । उम्भग्गणिग्गणदी गुदम झगकुंडजादु पुचवरे । जो दुगदाओ पुति उभयंतदो गंगं ।। ५९३ ।। उम्मग्ननिमग्ननद्यो गुहामध्यगकुण्डजे तु पूर्वापरस्याम् । योजनद्वयदये स्पृशतः उभयान्ततः गंगाम् ॥ ५९३ ॥ एक कपाट की चौड़ाई ६ योजन है, अतः दोनों कपाट १२ योजन चौड़े हुए। १२ योजन हो चौड़ा है, इस प्रकार कपाटों की ऊंचाई योजन और चौड़ाई १२ ᄃ कपों की चौड़ाई १२ योजन है तब उसकी देहली की लम्बाई भी बारह योजन होगी । अतः उसके नीचे से ८ योजन चौड़ी गङ्गा का निकल जाना स्वाभाविक हो है । गुफा का द्वार भी योजन है। जब उम्मा | उम्मग्ननिमग्ननयों पूर्वापरविशि गुहामध्यगतकुण्डावुरपद्यो भयान्ततः घोषन पर्व सत्यी गङ्गां स्पृशसः ॥ ५९३ ॥ गायार्थ :- विजयार्ध पर्वत को गुफा के ठीक मध्य में पूर्व पश्चिम दोनों तटों से निकल कर दो दो योजन चोड़ी होती हुईं जन्मग्ना और निमग्ना दोनों नदियां दोनों ओर से गंगा को स्पर्श करती है । ५८३ ।। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार बाथा । ५६४ से ५ε६ विशेषाचं :- विजया की खण्ड प्रपात गुफा ५० योजन लम्बी है । २५ योजन पर अर्थात् ठीक मध्य भाग में पूर्व पश्चिम दोनों दीवालों के निकट दो कुण्ड बने हुए हैं, इन दोनों कुण्डों से क्रमशः निकलने वाली उन्मग्ना और निमग्ना नाम की दो दो योजन चौड़ी दो नदियाँ दोनों ओर से गंगा को स्पर्श करती हैं । अर्थात् गंगा में मिल जाती है। ५०० जियजलपवाइपडिदं दव्वं गुरुगंधि रोदि उवरि तटं । आप तम्हा क्षण उदाहिनी सा ॥ ५६४ || णियजलमरउवरि गर्द दव्वं लहूगंपि येदि हिदुम्मि । जेण्णं तेणं मण्णदि एसा सरिया णिमम्मति ।। ५९५ ।। ततो दक्खिणभरहस्सद्धं गंतूण पुव्वदिसवदणा । मागदारंतरदो लवणसमुदं पविङ्का सा ।। ५९६ ।। निजजलप्रवाहपतितं द्रव्यं गुरूकमपि नयति उपरि तटम् । यस्मात् तस्मात् भरते उन्मग्ना वाहिनो एषा ॥ ५६४ ।। निजजलम रोपरि गतं द्रव्यं लघुकमपि नयति अक्षस्तनं । येन तेन भण्यते एवा सरितु निमग्ना इति ।। ५२५ ।। ततो दक्षिण भरतस्यार्धं गत्वा पूर्वदिशावदना । मागषद्वाराश्तषतः लवणसमुद्रं प्रविष्टा सा ॥ ४३६ ।। थि । मिलप्रवाहपतितं गुरुक्रमपि प्रष्यं यस्मादुपरि तटं नयति तस्मादेषा उन्मत्तवाहिनीति मध्यते ॥ ५६४ ॥ लिय । निजजलभारोपरिगतं लघुकमपि द्रव्यमषस्तान्नयति येन तेषा सरिनिमग्नेति मध्यते ॥ ५६५ ॥ तत्त। ततो गुहाया निर्गत्य दक्षिण भरतस्यार्धं ११६ भागत्वा एतावत्कथं ? भरतप्रमाणे १२६ दाण्या ५० व्यय ४७६ प्रधिते २३८३ एक भरतस्य प्रमाणं । एकस्मिन् पुनरषिते ११९३ बक्षिण भरताधं स्यात् । पूर्वविश्ववना मागघद्वारान्तरतः सा गंगा स्वसमुद्र प्रविष्ठ ।। ५६६ ।। पार्थ :- क्योंकि यह नदी अपने जलप्रवाह में गिरे हुए भारी से भारी द्रव्य को भी ऊपर लट :― पर ले आती है, इसलिए यह नदी उत्मग्ना कही जाती है ।। ५९४ ॥ गाथार्थ :- क्योंकि यह अपने जल प्रवाह के ऊपर आई हुई हलकी से हलकी वस्तु को भी नीचे ले जाती है, इसलिए यह नदी 'नियस्ना' कही जाती है ।। ५६५ ।। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया। नरातलीकाधिकार गाथार्थ :-[ विजया की गुफा से निकल कर ] गंगा नवी दक्षिण भरत के अचं भाग पर्यन्त सीधी आकर पूर्व दिशा के सन्मुख मुड़ती हुई अन्ततः मागध द्वार से लवण समुद्र में प्रवेश करतो है ।। ५९६ ॥ विशेषाः-खण्ड प्रपात गुफा से निकल कर गंगा नदी दक्षिण भरत क्षेत्र के अचं भाग अर्थात् ११६ योजन पर्यन्त सोषी आती है । इतने क्षेत्र प्रमाण कसे आती है ? भरतक्षेत्र का प्रमाण ५२६ योजन प्रमाण है, इसमें से ५० योजन विजयाध का ग्यास घटा देने पर ( ५२६१-.)४७ योजन शेष रहे । इसे आधा करने पर ( ४७६९२)२३० योजन दक्षिण भरत क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त हुआ, गंगा नदी गुफा से निकल कर दक्षिण भरत के अर्धभाग पर्यंत माई है, अतः दक्षिण भरत के प्रमाण को आधा करने पर ( २३२)-१९ योजन प्राप्त हुभा । अर्थात दक्षिण भरत में ११९३० योजन आकर गंगा नदी पूर्व में मुड़ कर हाई म्लेच्छ बाहों में से १४००० प्रमाग परिवार नदियों को लेकर मागध द्वार के भीतर जाकर लवणसमुद्र में प्रवेश करती है । बार्यखममें प्रलय पड़ता है इसलिए इसमें कोई अत्रिम रचना नहीं है। इदानी सिन्धुनदीस्वरूपं निरूपयति गंगसमा सिंधुणदी अवरमुद्दा सिंधुकूडविणिविता । तिमिसगुहादवरंघुहिमिया पमासक्खदारादो || ५९७ ।। गंगासमा सिन्धुनदी अपरमुखा सिन्धुकूटविनिवृत्ता। तिमिसागुहादपराम्बुधिमिता प्रभासाख्यद्वारतः ।। ५७ ॥ गंग। गापा या वर्णनोक्ता तत्समा सिन्धुनही । अयं विशेषः । इयं स्वपरविमिमुक्षा सिन्धुफूटाद्विनिवृत्य तमिसगुहां प्रविश्य सतोऽपिमिगस्य प्रमासाक्यवारतोऽपराम्बुधिमिता' । शेषं सर्ग गंगावाषयन्तम्पम् ॥ ५९७ ॥ अब सिन्धु नदी के स्वरूप का निरूपण करते हैं : गावार्थ :-गंगा के सदृश हो सिन्धु नदी का वर्णन है । विशेष इतना है कि सिन्धु नदी पद्मद्रह के पश्चिम द्वार से निकलकर सिन्धुकूट को नहीं प्राप्त होती हुई, विजया की तिमिस्र गुफा में प्रवेश कर तथा उससे निकल कर प्रभास नाम द्वार से पश्चिम समुद्र को प्राप्त होतो विशेषार्थ:-सिन्धु नदो का सम्पूर्ण वर्णन गंगा नदी के वर्णन के सदृश हो है विशेष इतना है कि सिन्धु नदी पद्मद्रह के पश्चिम द्वार से निकलकर ५.० योजन प्रमाण आगे जाकर सिन्धुकूट को प्रास न करती हुई अर्थात् उससे आधा योजन पहिले ही दक्षिण की ओर मुड़कर गंगा के सदृश ही मागे १ मिलिसा ( 40 )। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ त्रिलोकसार पाथा : ५९८ aat हुई जिह्निका ( नालो ) से सिन्धुकूट पर गिरता है। वहीं मे विजया की तिमिस गुफा के उत्त द्वार से प्रवेश करती हुई दक्षिण द्वार से निकलकर दक्षिण भारत के अर्धभाग को प्राप्त होतो हूई शेष ढाई म्लेच्छ खण्डों की १४००० परिवार नदियों के साथ जम्बूद्वीप के कोट के प्रभास द्वार से पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है । अथ शेषनदीनां स्वरूपमाह सारूप्ता दहवित्थारूणचलरुंददल मुवरिं । गंतून दक्खिगुचरमा पृच्चवरचलहिं ।। ४९८ ।। शेष रूयन्ता विस्तारोनाचलरुन्द्रदलमुपरि । गत्वा दक्षिणोत्तरमनुस्पृष्टाः पूत्रपिरजलधिम् ।। ५६८ ।। ऐसा शेषा रोहिदाद्या हव्यकूलान्ता नखः कोपको यह विस्तारं ५०० | १००० | २००० | २००० | १००० | ५०० द्वि२ प्रष्ट ८ द्वात्रिंशत् ३२ द्वात्रिदा ३२ भ्रष्टकाभिः २ हिमबबादिशलाकाभिर्भरत क्षेत्रप्रमाणे ५२६६ गुणिते सति हिमवदादिपर्वतानां विस्तारः स्यात् । हिम १०५२३३ महा ४२१० निष १६८४२२ मोल १६८४२२४२१० शिख १०४२१३ एतस्मिन्रचलन्द्रे न्यूनथिया ५५२३ | ३२१० | १४८४२ १४८४२ है । ३२१०० । ५५२२३ कृतप्रमाणं हिम २७६५४ महा १६० ७४२१ हे नील ७४२१२ पक्सि १६०५ शिखरि २७६१९ ततपर्वतस्योपरि दक्षिणोत्तराभिमुखं गत्वा धनु पश्चात् पूर्वापरमलपि स्पृरः ॥ ६८ ॥ arter अवशेष नदियों का स्वरूप कहते हैं : गाथार्थ :- अवशेष रही रोहित से रूप्यकूला पर्यन्त सभी नदियों अपने अपने द्रह्नों के विस्तार से रहित जो पर्वत का विस्तार है उसके अर्धभाग प्रमाण पर्वत के ऊपर जाकर दक्षिणोत्तर के नाभिगिरि को प्राप्त न होती हुई पूर्व और पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती हैं ॥ ५३८ ॥ विशेषार्थ :- अवशेष रही रोहित से रूप्यकूत्रा पर्यन्त नदियों के अपने अपने द्रद्दों का विस्तार क्रमशः ५००, १०००, २०००, २०००, १००० और ५०० योजन है तथा हिमवन् आदि छह पर्वतों की शलाकाएं भी क्रम से २, ८, ३२.३२, ८ और १ है, इन शलाकाओं से भरतक्षेत्र के विस्तार प्रमा को गुणित करने पर क्रमशः हिमवान् आदि पर्वतों के विस्तार का प्रमाण प्राप्त होता है । इन पर्वतों के विस्तार में से क्रमश: द्रद्दों का विस्तार घटा कर अवशेष प्रमाण को आधा करने पर पर्वत के ऊपर नदियों के बहाव का क्षेत्र प्राप्त होता है । यथा- रोहितास्या नदी पद्मद्रह के उत्तर द्वार से निकलकर (५२६५६ २ = १०५२१ - ५०० ५५२१:२) २७६६ योजन हिमवान् पर्वत के ऊपर = ( उसके तट पर्यन्त ) उत्तर की ओर जाकर हैमवत क्षेत्र के कुण्ड हैमवत क्षेत्र के मध्य स्थित श्रद्धावान् नाभिमिरि को बाधा योजन में गिरती है। वहाँ से निकलकर छोड़ परिचमाभिमुख होती है । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरतिर्यग्लोकाधिकार ५०३ गाया : १६५ पश्चात् उत्तराभिमुख होती हुई २५००० परिवार नदियों को साथ लेकर पुनः पश्चिमाभिमुख होती हुई जम्बू द्वीप के कोट के द्वार से निकलकर लवण समुद्र में प्रवेश करती है। रोहित के माह के दक्षिण द्वारा से निकल कर सीधी महाहिमवन् के तट पर्यन्त (५२६६६८४२१०१६- १००० = ३९१०५३÷२) १६०५९६ योजन आगे जाकर हैमवत क्षेत्र स्थित कुण्ड में गिरती है। वहीं से निकलकर हैमवत क्षेत्र के मध्य में स्थित श्रद्धावान नाभिगिरि को आधा योजन छोड़ पूर्वाभिमुख होती है । पश्चात् दक्षिणाभिमुख होती हुई २००० परिनदियों से संयुक्त हो पुनः पूर्वाभिमुख होती हुई जम्बूद्वीप के बिल द्वार से लवण समुद्र में प्रवेश करती है । हरिकान्ता नदी महापद्म ग्रह के उत्तर द्वार से निकल कर सीधो महाहिमवन् के तट पर्यन्त पूर्वोक्त प्रमाण १६०५ हे योजन लागे जाकर हरिक्षेत्र स्थित कुण्ड में गिरती है। वहाँ से निकल कर हरिक्षेत्र के मध्य स्थित विजटा (विजय) वान् नाभिगिरि को आधा योजन छोड़ प्रदक्षिणा रूप पश्चिमाभिमुख होती है । पश्चात् उत्तराभिमुख होनी हुई ५६००० परिवार नदियों से संयुक्त हो, पुनः पश्चिमाभिमुख होती हुई जम्बूद्वीप के बिल में प्रवेश कर लवण समुद्र में प्रवेश करती है। हरित् नदी पर्वत के विग्रिन्छ द्रह के दक्षिण द्वार से निकल कर निषेध के तट पर्यंत ( ५२६६१३२ - १६८४२ परे २००० = १४८४२६ ÷ ९) ७४२११६ योजन आगे जाकर हरिक्षेत्र के हरित कुण्ड में गिरती है। वहीं मे निकल कर हरिक्षेत्र में स्थित विजयवान् नाभिगिरि के प्रदक्षिण रूप से पूर्व की ओर जाती है। पश्चात् दक्षिणाभिमुख होती हुई ५६००० परिवार नदियों से युक्त पुन: पश्चिम की ओर जाकर जम्बूद्वीप की जगती के बिल में प्रवेश करती हुई, लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं । सोतोदा नदी तिमिञ्छ ह्रद के उत्तर द्वार से निकलकर निषेध के तट पर्यन्त पूर्वोक्त प्रमाण ७४२१२४ योजन जागे आकर और विदेहक्षेत्र स्थित प्रति सीतोद नामक कुण्ड में गिरकर उसके उत्तर तोरण द्वार से निकलती हुई उत्तर मार्ग से मेरु पर्यन्त जाकर उसे आधा योजन छोड़ती हुई पश्चिम की ओर मुड़ जाती है । पश्चात् उत्तराभिमुख होती हुई भद्रशाल वन में प्रवेश करती है । पुन: पश्चिमाभिमुख होती हुई देवकुरु क्षेत्र में उत्पन्न ८४००० + १६८००० (६ विभङ्गा की सहायक ) तथा अपर विदेह क्षेत्र सम्बन्धी ४४५०३५ अर्थात् कुल (८४००० + १६८००० + ४४८०३८) ७०००३८ परिवार नदियों से संयुक्त होती हुई जम्बूद्वीप की जगती के बिल द्वार से जाकर लवण समुद्र में प्रवेश करती है । सोता नदी नील पर्वत के केसरी हृद के दक्षिण द्वार से निकलकर नील पर्वत के तट पर्यन्त पूर्वोक्त प्रमाण ७२१हे योजन आगे जाकर विदेह क्षेत्र स्थित सोता कुण्ड में गिरती है। वहां से निकल कर दक्षिणाभिमुख होती हुई मेरु पर्वत तक आती है, तथा मेरु पर्वत को आधा योजन दूर Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ त्रिलोकसार पाषा: ५९८ छोड़कर पूर्वाभिमुख होती है। पश्चात दक्षिणाभिमुख होती हुई मान्यवन्त पर्वत की दक्षिणमुख याली गुफा में प्रवेश करती है । पश्चात् उस गुफा से निकल कर पूर्व विदेह के ठीक बोच में से पूर्व की ओर जाकर उत्तर कुरु की ८४००० + १६८००० (६ विभङ्गा की+४४८७३८ (पूर्व विदेह की)= ७०००३८ नदियों को अपने परिवार सदृश ग्रहण करती हुई जम्बूदीप को जगती के बिल द्वार में से लवण समुद्र में प्रवेश करती है। नरकान्ता नदी नील पवंस पर स्थित केसरी दह के उत्तर द्वार से निकलकर नील पर्वत के तर पर्यन्त पूर्वोक्त प्रमाण ७४२१११ योजन आगे जाकर रम्यक क्षेत्र सिथत नरकान्त कुण्ड के मध्य गिरती हुई उत्तर की ओर से निकलती है । पश्चात् पद्मवान् नाभिपवंत को प्रदक्षिण रूप करके रम्यक क्षेत्र के मध्य मे जाती हुई, पश्चिमाभिमुख होकर ५६००० परिवार नदियों के साथ लवण समुद्र में प्रवेश करती है। नारी नदी रुक्मी पर्वत पर स्थित पुण्डरीक द्रह के दक्षिण द्वार से निकल कर रुक्मी पवंत के तट पर्यत १६.४ योजन आगे जाकर नारी कुण्ड में गिरती है, पश्चात् कुण्ड के दक्षिण तोरण द्वार से निकलकर दक्षिण मुख होती हुई पद्मवान् नामक विजया पर्वत तक आती है, तथा उसे आधा योजन दूर छोड़कर रम्यक भोगभूमि के बहमध्य भाग में से पूर्व की ओर जाती हुई ५६०.. परिवार नदियों के साथ जम्बूद्वीप के बिल द्वार में से लवण समुद्र में प्रवेश करती है। ____रूप्यकूला नदी रुक्मी पर्वत के पुण्डरीक द्रह के उत्तरद्वार से निकल कर उत्तर की ओर गमन करती हुई रुवमी पर्वत के तट पर्यन्त १६०५५ योजन प्रागे जाकर हैरण्यवत क्षेत्र में रूप्यक्रूल नामक कुण्ड में पड़ती है, तत्पश्चात कुण्ड के उत्तर द्वार से निकल कर उत्तर की ओर ही गमन करती हुई गन्धवान् ( विजयाचं ) नाभिगिरि को अर्धयोजन छोड़ती हुई प्रदक्षिणा रूप से पश्चिम की ओर जाती है। तथा २८००० हजार परिवार नदियों से संयुक्त होकर दीप की अगती के बिल में से जाती हई लवण समुद्र में प्रवेश करता है। सुवर्णकूला नदी शिखरी शैल पर स्थित महा पुण्डरीक नह के दक्षिण द्वार से निकल कर शिक्षरी पर्वत के तट पर्यन्त २७६ पोजन आगे जाकर सुवर्णकल कुण्डमें गिरती है। तत्पश्चात् कुण्ड के दक्षिण द्वार से निकल कर दक्षिणाभिमुख हो गन्धवान् नाभिगिरि को प्रदक्षिणा करतो हुई, उसके आधा योजन पूर्व से ही हैरण्यवत क्षेत्र के अभ्यन्तर माग में से पूर्वदियाा की ओर जाकर २८००० परिवार नदियों सहित जम्बूद्वीप सम्बन्धी जगती के बिल में से लवण समुद्र में प्रवेश करती है। रक्ता नदी शिखरी शैल के अग्रभाग में स्थित महा पुण्डरीक द्रह के पूर्व द्वार से निकल कर शिखरी पर्वत पर पूर्वाभिमुख ५०० योजन जाकर रसा कूट को आधा योजन दूर से छोड़ती हुई दक्षिण की ओर मुड़ जाती है। दक्षिण दिशा में भी उसी शिखरौ पवंस पर साधिक अर्ध कोस अधिक ५.०० योमन झागे जाकर रक्ता कुण्ड में गिरती है। तत्पश्चात् कुण्ड के दक्षिण तोरण द्वार मे निकलकर Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचा : ५९९-६०० नरति ग्लोकाधिका विजया की गुफा के भीतर से होती हुई दक्षिण ऐरावत क्षेत्र के अर्थ प्रमाण भाग तक दक्षिणाभिमुख ही बाती है। पश्चात् पूर्व की ओर मुड़कर १४००० परिवार नदियों के साथ जम्बूद्वीप के फोट स्थिल द्वारा सेवा समुद्र में प्रवेश करती है । रक्तोदा नदी उसी शिखरी पर्वत पर स्थित महा पुण्डरीक ग्रह के पश्चिम तोरण द्वार से निकल कर सिन्धु नदी के सदृश पर्वत पर ही पश्चिमाभिमुख जाती हुई रक्तोदाकूट को अर्धयोजन दूर से छोड़कर उत्तर की ओर मुड़ जाती है, तथा उसी दिशा में बहती हुई रक्तोदा कुण्ड में गिरती है। तत्पश्चात् कुण्ड के उत्तर द्वार से निकलकर गुफा के भीतर से होती हुई उत्तर ऐरावत क्षेत्र के अर्थ भाग तक उत्तराभिमुख ही आती है। पश्चात् पश्चिम की ओर मुड़कर १४००० परिवार नदियों के साथ जम्बूद्वीप को जगती के बिल से लवण समुद्र में प्रवेश करती है। अथ रक्तारक्तोदादीनां प्रणालिकादिप्रमाणमाह--- गंगादुर्ग व रचारचोदा जिन्मियादिया सवे | साणं षिय या तेवि विदेहोति दुगुणकमा || ४९९ ॥ गंगाद्विक व रक्तारक्तोदा जिह्निकादिका सर्वे । शेषाणामपि च ज्ञेयाः तैपि विदेहान्तं द्विगुणक्रमाः || ४६६ ॥ गंगा गंगाद्विकमित्र रकारकोवयोजिह्निकादिप्रमाणविशेषाः सर्वशेषनवीनामपि येते प्रालिकावयः सर्वेऽपि विदेहपर्यन्तं द्विगुणमा शेया ॥ ५६ ॥ रक्ता रक्तोदा मादि नदियों की प्रणालिका आदि का प्रमाण कहते हैं --- ५०५ गाथार्थ :- गंगादिक अर्थात् गंगा सिन्धु के सदृश रक्ता रक्तोदा की जिह्निका आदि का प्रमाण है, तथा अवशेष समस्त नदियों को प्रणालिकादि का प्रमाण विदेह पर्यन्त दूना दूना जानना चाहिए ।। ५६६ ।। विशेषार्थ :- गंगा और सिन्धु की जिह्निका आदि का जो प्रमाण है वही प्रमाण रक्ता रक्तोदा नदियों का है। मात्र नाम (संज्ञा ) परिवतन है। जैसे :- पद्मद्रह के स्थान पर महा पुण्डरीक द्रह हिमवन् नग के स्थान पर शिखरी नग इत्यादि । शेष सभी नदियों की जिह्निका आदि का सभी प्रमाण विदेह पर्यन्त दूना दूना ही जानना चाहिए। अथ तासां नदीनां विस्तारमाह ६४ गंग रचदु वासा सपाद वणिग्गमे विदेहोति । दुगुणा दसगुणमंते गाहो वित्थार पण्णंसो ।। ६०० ॥ गाद्वयोः रक्ताद्वयोः व्यासाः सपादपट् निर्गमे विदेहान्तम् । द्विगुणा दशगुणा अन्ते गाघः विस्तारः पश्चाशदंशः ॥ ६०० ॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनोकसार पापा । ६.१ गंगदु । गंगारिकरक्ताहिकमोहनिर्गमध्याता सपादलड़योजनानि भन्यासा मवीनां निर्गमप्पासाः विवेहपर्यन्तं विगुणमाः स्युः । सर्वासा नवीनामन्ते समुदप्रवेशे ज्यासा दशगुणाः सर्वात गायत्तत्तद्विस्तारपश्चाशदंशः स्यात् ॥ ६ ॥ खन नदियों का विस्तार कहते हैं : पायार्थ :-गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा इनके निर्गम स्थान का व्यास ६४ योजन है । विदेह पर्यन्त यही प्रमाण दूना दूना होता गया है। सर्व ही नदियों का अन्तिम अर्थात् समुद्र में प्रवेश का ध्यास अपने अपने निर्गम व्यास से दश गुखा है, तथा सना को गहराई को प्रभाष अपने अपने विस्तार का पचासवाँ भाग है ॥ ६०० ॥ विशेषार्थ :-गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा नदियों का ध्यास द्रहों से निकलते समय ६३ योधन होता है। अर्थात् निकलते समय इनकी चौड़ाई ६१ योजन होती है। विदेह पर्यन्त दो दो नदियों का यही व्यास दूना दूना होता गया है। समुद्र में प्रवेश करते समय सभी नदियों के व्यास का प्रमाण अपने अपने निगम व्यास प्रमाण से १० गुणा होता है । जैसे- गंगा आदि उपयुक्त चारों नदियों की चौड़ाई समुद्र में गिरते समय (६३४१०)-६२१ योजन है। समस्त नदियों की गहराई का प्रमाण अपने अपने विस्तारका पचासवाँ भाग है । जैसे गंगा को गहराई ( २५ योजन:-५०)- ३ योजन है । ऐसे ही अन्यत्र जानना। अथ तासां नदीनां तोरणस्वरूपं गापाद्वयेनाह णदिणिग्गमे पवेसे कुंडे अण्णत्थ चावि तोरणयं । विवजुदं उवरिं तु दिक्कण्णावाससंजुत्तं ।। ६०१ ।। नदीनिगमे प्रवेशे कुण्डे अन्यत्र चापि तोरणकम् ।। बिम्बयुतं उपनि तु दिक्कन्यावाससंयुक्तम् ॥ ६.१ ।। गदि । नदीनिगमे प्रवेश कुण्ठे प्रपत्रापि च उपरि जिननिम्बयुतं विक्कन्यावाससंयुक्तम तोरणमस्ति । ६.१॥ उन नदियों के तोरण का स्वरूप दो गाथाओं द्वारा कहते हैं :-- पापापः-नदी, समुद्र एवं कुण्ड ३. निगम स्थानों पर, प्रदेश स्थानों पर एवं अन्यत्र भी जिन विम्ब हैं ऊपर जिनके ऐसे दिक्कन्याओं के आवासों से संयुक्त तोरण द्वार हैं | ६०१ ॥ विशेषार्थ :-नदी के निर्गम स्थान अर्थात् द्रहों और कुग्मों के द्वार पर, तथा जम्बूद्वीप के कोट के जिन द्वारों से होकर नदी समुद्र में जाती है उन द्वारों पर तथा अन्यत्र भी गुफा आदि के द्वारों पर जिन बिम्ब हैं ऊपर जिनके ऐसे दिक्कुमारियों के आवासों से युक्त तोरणद्वार हैं। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा । ६०२ क्रमांक तत्तोररण । तत्तो रह्याना विस्तारः स्वकीयनयोध्यास ६ सदृशः उदयन्तु व्यासात् द्वितीयार्थ गुण्यः ६ | सर्वत्र लोररणानां गावः प्रधंयोजनप्रमितं भवेत् ।। ६०२ ॥ १ तोरणवित्थारो सगसगण दिवाससरिसको उदभो । वासादु दिगुणोदय होगा ॥ ३०६ ॥ तत्तोरण विस्तारः स्व कवक नदीव्यास सहशकः उदय । । व्यासात् द्वयगुण्यः सर्वत्र दलं भवेत् गाधः ।। ६०२ ।। गाथार्थ :- उन तोरणों का विस्तार अपने अपने ( निगम ) नदी व्यास के सदृश है तथा ऊंचाई व्यास की डेढ़गुरणी है । तोरणद्वारों की गहराई अर्थात् नींव सब जगह मात्र अर्ध योजन प्रमाण है ।। ६०२ ।। विशेषार्थ :- अपने अपने नदी निगम व्यास सदृश तोरणों की चौड़ाई है। चोड़ाई से डेढ़ गुणी ऊंचाई है। जैसे - गंगा नदी का निर्गम व्यास ६ योजन है, अतः पद्मद्रह के तोरण द्वार की चौड़ाई भी ६४ योजन है, और ऊंचाई ( ३ ) - अर्थात् ९1⁄2 योजन है । तोरण द्वारों की नींव का प्रमाण सर्वत्र योजन है । नदी के निगम, प्रवेश, प्रणालिका एवं तोरण द्वारों का योजनों में प्रमाण : ७ नदियों के नाम गंगा-सिन्धु रोहित रोहितास्या हरित् - हरिकान्ता सीता-सोतोदा नारी-नरकान्ता सुवणं ०- रूप्यकूला रक्ता-रक्तोदा नर तिर्यग्लोकाधिका प्रणालिका की ww ऊंचाई : लम्बाई चौड़ाई। निर्गम व्यास १ ४ R १ २ ४ ५० २ नदियों का Pir ६४ ६४ | ६२३ १२३ १२३| १२५ २५ | २५ | २५० རོབ प्रवेश यहराई व्यास (नींव ) ५* २५ २५ २५० १२३ | १२३ १२५ ६३ ६४ ६२३ Phy १ २ ४ २ १ तोरण -द्वारों की ऊंचाई ९ ཏ་ས - १८३ + - ३७३ ७५ योजन २०७३ १८३ =१६ बीड़ाई ૧ ૧૨: २५ ५० २५ १ २ ३ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाथा : ६०३ अथ पूर्वोक्तवर्षवर्षधरपर्वलानां विस्तारानमने करणसूत्रमाह विजयकुलद्दी दुगुणा उभयंतादो विदेहवस्सोधि । गुणपिंडदीवसगगुणगारो हुपमाणफलइच्छा ।। ६.३ ।। विजयकुलाद्रयः द्विगुणा उभयांतत: विदेहवर्षान्तं । गुणपिण्डद्वीपस्वकगुणकारो हि प्रमाणफलेच्छाः । ६०३ ॥ विषय । विजया वेशा इत्यर्थः कुलाव्यश्न उभयांततः विवेहपर्यन्तं विगुरादिगुणा भवन्ति, कारण गोगलकीयगुणकारा: भर० १ हिम० २ हेम०४ यशसंख्य प्रमाण फलाच्याः खलु । अनेन राशिकेन तत्र क्षेत्रपर्वतानां विस्तार मानेतन्यः ।। ६.३ ॥ अथ पूर्वोक्त वर्ष । क्षेत्र ) एवं वर्षधरों ( पर्वनों ) का ध्यास लाने के लिए करण सूत्र कहते हैं: गापा:-विजय-क्षेत्र और फुलाचल ये दोनों दक्षिण दिशा से विदेई पर्यन्त और उत्तर दिशा से भी विदेह पर्यन्त दूने दूने विस्तार वाले हैं। इनके विस्तार का प्रमाण प्रात करने के लिए यहाँ गुणकारपिण्ड, द्वीप और अपनी अपनी गुणकार शलाकाएं ही क्रमशः प्रमाण, फल और इच्छा राशि स्वरूप हैं ॥ ६.३ ॥ विशेषार्थ:-जम्बुद्वीप के भीतर दक्षिण की ओर भरतक्षेत्र है, और उत्तर की ओर ऐरावत क्षेत्र है। भरत क्षेत्र से कुलाद्रि का विस्तार दूना, कुलाचल से क्षेत्र का, फिर क्षेत्र से कुलाचल का इस प्रकार विदेह पर्यन्त दूना दूना है। इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र से विदेव पर्यन्त क्षेत्र से कुमाचल और कुलाचल से क्षेत्र का विस्तार दूना दूना है। इनके विस्तार का प्रमाण राशिक विधि से प्राप्त करने के लिए यहाँ गुणकार पिण्ड प्रमाण राशि है, द्वीप का 1...०० योजन विस्तार फल राशि है और अपनी अपनी गुणकार शलाकाएँ इच्छा राशि हैं । गुणकार पिपड़ :-जम्बूद्वीप का बिस्तार १००००० योजन का है, इसके निम्न प्रकार १९. विभाग हुए हैं-१ परत + २ हिमवान +४ हैमवत +८ महाहिम + १६ हरिवर्ष + ३२ निषध+ ६४ विदेह+३२ नील+१६ रम्यक+८ रुमी+४ हैरण्यवत+२ शिखरी और+१ऐरावत-१९० यही गुणकार पिण्ड है। उपयुक्त प्रमाण, फल और इच्छा राशि का राशिक करने पर विवक्षित क्षेत्र या कुलाबल के विस्तार का प्रमाण प्राप्त होता है। यथा :-जबकि १६० गुणकार राशि का विस्तार १००००० योजन है सब ( विवक्षित) ८ गुणकार शलाका का कितना विस्तार होगा? इस प्रकार ८ शलाका है जिसकी उस महाहिमवान् पर्वत का विस्तार ( 400 ) = 922° अर्थात् ४२१०११ पोजन प्रमाण हुआ । इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! पाया : ६०४ मरस य किमो जंबूदीवस्स णउदिसदभागो । पंचसया छबीसा ऋच्च कला ऊणवीसस्स ।। ६०४ ।। भरतस्य च विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशत भागः । पचाशतानि षड़विशानि षट् च कला एकोनविशतेः ॥ ६०४ ॥ भर । भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्थ १ ल० नवलिशत भागः १५० सः इतिचेत् पञ्चशतयोजनानि षड्वंशत्यधिकानि एकोनविंशतेः षट्कलाभ्यधिकानि भरतfeoकम्भः ५२६६६ ॥ ६०४ ॥ स्वात इस प्रकार उक्त राशिक द्वारा लाए हुए भरत क्षेत्र के व्यास का प्रमाण कहते हैं :गावार्थ :- भरत क्षेत्र का विमोचन दो जम्बूद्वीप के विस्तार का एक सो क्रमांक नवाँ भाग मात्र है ।। ६०४ ॥ विशेषार्थ :- भरतक्षेत्र का विष्कम्भ जम्बूद्वीप के १००००० योजन विस्तार का १९० में भाग है | वह कैसे ? यदि ऐसा प्रश्न है तो जम्बूद्वीप के १००००० विस्तार में १६० का भाग देने पर ५२६५५ मोजन भरत क्षेत्र का विस्तार प्राप्त होता है। इसी प्रकार राशिक करने पर ( १०००००X२ ) . २०००० - १०५६१३ योजन हिमवान् पर्वतका विष्कंभ प्राप्त होता है। इसी प्रकार अस्मत्र भी जानना चाहिए । समस्त क्षेत्र एवं कुलाचलों के विस्ताय का प्रमाण : क्षेत्रों का विस्तार १ २ नरतिर्यग्लोकाधिकार एवमुक्तवैशशिकातील भरतक्षेत्रे व्यासमुच्चारयति - ५. ६ । ७ नाम योजनों में क्रमांक भरत हैमवत हरि विदेह रम्यक T हैरण्यवत २१०५८४२१०५२३३ ऐरावत | ५२६४४ | २१०५२६३५ नाम मीलों में | योजनों में I | ५२६ । २१०५२६६६ १। हिमवन् २०१२३४ I २१०५८४२१०५२ २ महाहिमवन् ४२१०६ ८४९१५ ३३६८४२१०१४ | ३ निषध १६८४२ व ३३६८४४| १३४७३६८४२२४ नील ८४२१५ | ३३६८४२१० २१ रुक्मी शिखरी ५०९ कुलाचलों का विस्तार १६८४२६ ४११०३० १०५२६३ मीलों में ४२१०५२६५ १६८४११०५ ६७३६८४२११ ६७२६८४२१२३ १६८४२१०५ ४२१०४२६५४ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा : ६०५-६०५ तथा राशि केन सिद्ध विदेहविष्कम्भाङ्क प्रतिपादयन् अत्रैवोपरि वक्ष्यमाणविदेहक्षेत्रादीनामानयनविधानमाह चुलसीदि छतेचीसा चचारि कला विदेहविक्खंभो । णदिहीणदलं विजया वक्खार विभंगवणदीहा ।। ६०५ ।। चतुरशीति षट् त्रयस्त्रिशत चतस्रः कला विदेहविष्कम्भः । नदीहीनदलं विजयवक्षारविभङ्गवनदीर्घ ॥६०५ ॥ चुल । चतुरशीलिषद प्रयस्त्रिशद्योजमामि एकाग्मविशतेश्चतस्रः कलाश्च ३३६८४ विदेहविष्कम्भ: स्यात् । प्रत्र नाप्रमाणे निर्गमे ५. समुदप्रवेशं ५०० मध्ये यथासम्भव होमयित्वा ३३९४ (कृते १६५६२ सदेशवक्षारपतविभंगनवीवनाना वयंप्रमाणं स्यात् ॥ ६.५ ॥ इस प्रकार रैराविक द्वारा प्राप्त हुए विदेह के विस्तार के अङ्कों ( संख्या ) का प्रतिपादन करते हुए यहाँ से ऊपर कहे जाने वाले विदेह क्षेत्रादिकों का प्रमाण लाने के लिए विधान कहते हैं : गापार्ष:-तेतीस हजार छह सौ चौरासी और एक योजन के उन्नीस भागों में से चार भाग ( ३३६४ योजन ) प्रमाण विदेह क्षेत्र का विष्कम्भ { चौड़ाई ) है। इसमें से सीता सोतोदा नदियों का विष्कम्भ घटा कर अवशेष का आधा करने पर जो प्रमाण प्राप्त हो वही विदेह नगर (३२), वक्षारगिरि (१६), विभंगा नदी (१२) और देवारण्यादि वनों की लम्बाई का प्रमाण है।।३.५॥ विशेषा:-विदेह क्षेत्र की उत्तर दक्षिण चौड़ाई ( विष्कम्भ ) ३३६८४ योजन है। इस क्षेत्र में से बहने वाली दो प्रमुख ( सीता और सीतोदा) नदियों के रह से निगम स्थान की चौड़ाई ५० योजन और समुद्र प्रवेश की चौड़ाई ५०० योजन ( २०००००. बीस लाख मील) है। विदेह विष्कम्भ ३३६८४ा योजनों में से नदी विष्कम्भ ५०० योजन घटा देने पर ( ३३६८४-५००)३३१८४ा योजन शेष रहे इस अवशेष का जो अचंभाग ( २३१८४)= १९५१२ गोजन प्रमाण है, वही ३५ विदेह नगर, १६ वक्षारगिरि, १२ विभंगा नदी और देवारमयादि वनों की दोपंता अर्थात् लम्बाई का प्रमाण है। अर्थात् उपयुक्त क्षेत्रादिक में से प्रत्येक की लम्बाई का प्रमाण १२ योजन है। साम्प्रतं विदेह मध्यस्थित्तमन्दरगिरेः स्वरूपमाचष्टे मेरू विदेहमज्झे णवणउदिदहेक्कजोयणसहस्सा । उदयं भूसुवासं उवरुवरिगवणचउकजुदो ।। ६.६ ।। मेरुः विदेहमध्ये नवनवतिदर्शकयोगनसहस्राणि । उदयः भूमुखव्यासः उपयु परिगवनचतुष्कयुतः ।। ६.६ ।। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 fret ग्लोकाधिकार मेरू । विवेहस्य मध्यप्रदेशे मेरुरस्ति, तस्योदय भूमुलण्यासा ययासंख्यं नवमवतिलहन EE००० बासल १०००० एकसहस्र १००० योजनानि स्युः । स च पुनरापर्युपरि कस्णयगत मनंचतुष्कतः ॥ ६०६ ॥ अब विदेह क्षेत्र के मध्य में स्थित मन्दर मेरु का स्वरूप कहते हैं : गायार्य :- विदेह क्षेत्र के मध्यप्रदेश में सुदर्शन मेरु स्थित है, जिसका उदय, भू व्यास और मुखव्यास क्रमशः ९९०००, १०००० और १००० योजन है । यह मन्दर मे ऊपर ऊपर चार वनों से संयुक्त है ।। ६०६ ।। गाथा : ६०७ विशेषार्थ :- विदेह क्षेत्र के मध्यस्थित सुदर्शन मेरु ९९००० योजन ऊँना है; मूल में उसकी चोदाई दस हजार योजन और ऊपर एक हजार योजन है तथा वह ऊपर ऊपर कटनी में चार वनों से संयुक्त है। इदानीं वनचतुष्कस्य संज्ञाः तदन्तरालं च प्रतिपादयति J सोमणच दणं । पिणघणबाब चरिहृद पंचस्याणि गंतूणं ।। ६०७ ।। ५११ मुवि भद्रशालं सानुगं नन्दनसौमनसपापकं च वनम् । एक पचधनद्वासप्ततितपश्चशतानि गत्वा ।। ६०७ ॥ भद्द | सुगतं वनं भवद्यालायं सानुत्रयगतानि यथासंख्यं मन्दनसीमन पाण्डुकारुवनानि तानि एक १ पचधन १२५ द्वासति ७२ हत पञ्चशतयोजनानि ५०० ६२५०० | ३६००० गत्वा गत्वा हिन्ति ॥ ६०७ ॥ चारों वनों के नाम और उनके अन्तराल का प्रतिपादन करते हैं :-- गाथार्थ :- मेरा की मूल पृथ्वी पर भद्रशाल वन है, तथा इसके सानु प्रदेश अर्थात् कटनी पर नन्दनवन, सौमनस वन और पाण्डुक वन हैं । इनकी अवस्थिति एक से गुणित पाँच सौ, पांच के घन ( १२५ ) से गुणित पाँच सौ और बहत्तर से गुणित पाँच सौ योजन प्रमाण आगे जाकर है || ६०७ ॥ विशेषार्थ :- सुमेरु पर्वत के मूल में ( भूमि गल ) भद्रशाल नाम का वन है । यह वन मन्दर महाचलेन्द्र के चारों ओर है । इस वन से ५००×१ प्रर्थात् ५०० योजन आगे जाकर कटती पर दूसरा नन्दन नाम का वन है। इससे ५०० (५×५x५ - १२५ ) अर्थात् ६२५०० योजन ऊपर नाकर सौमनस नाम का वन है । इस वन से ५०० x ७२ अर्थात् ३६००० योजन ऊपर जाकर सुमेरु के शीर्ष पर चौथा पाण्डुक नामक वन है। ये तीनों वन भी मन्दर गिरीन्द्र के चारों ओर हैं। मन्दर मेरु की कुल Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ त्रिलोकसाथ पामा ६० ऊंचाई ९९*** योजन है। चारों महावनों के तीन अन्तरालों का एकत्रित (५००+६२५००+ ३६००० ) प्रमाण सुदर्शन मैरु की ऊंचाई ९९००० योजन प्रमाण है । यथा : अथ उद्वनस्यवृक्षानाइ viga 리 DUTE. Angam M मंदारचूदचंपय चंदणघणसारमोचचोचेहि । तंबूलिपूगजादी पहुदी सुरतरुहि कपसोहं ।। ६०८ ।। मन्दारचुत चम्पकच दनघनसारमोचचोचेः । ताम्बूली पूजातिप्रभृतिसुरतभिः कृठशोभाति ॥ ६०८ ॥ मंदार । मन्दारत चम्पकचन्दन घनसारमोचचोचेः ताम्बूली पुगजातिप्रभूतिभिः सुरतरुभिव कृतधोमानि तानि वनानि । ६०८ ॥ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • - - पाया : ६.९-१० नरतियंग्लोकाधिकार ३ उन वनों में स्थित वृक्षों को कहते हैं : गापाय:-- कल्पवृक्षों को शोभा प्राप्त करने वाले उन चारों वनों में मन्दार, आम्र, पम्पक, चन्दन, घनसार, केला, श्रीफल, ताम्बूली, सुपारी और जायपत्री आदि के अनेक वृक्ष है ।। ६० ।। साम्प्रतमितरमन्दराणां व्यवधाननिरूपणब्याजेनोसेघ कश्यति रासय पणापमदिरा पाणवण्णसहस्सयं सहस्साणं । अट्ठावीसिदराणं सहस्सगाई तु मेरुणं ।। ६.९ ।। पश्वशतं पश्चातसहितं पश्चपञ्चाशवसहनक सहस्त्राणां । अष्टावितरितरेषां सहनगावस्तु मेरूणाम् ॥ ६०६ ॥ पणसय । पञ्चशतयोबनानि ५०. पञ्चशतसहितं पश्चपाशसहसयोजनानि ५५५०. महाविंशतिसहस्रयोजनानि २५००० इतरेषा मेरुणा बनानान्तराशि पञ्चाना मेकपा सहस्रपोजनाबगायो १००० नातायः ॥६०९॥ अब अन्य मैक पर्वतों पर स्थित बनों के अन्तराल निरूपण के बहाने से उन मन्दर मेरुओं की ऊंचाई का प्रमाण कहते हैं : पापाषं :-अन्य चार मेरु पर्वतों पर भी मेर के मूल अर्थात पृथ्वी पर भद्रशाल वन है, इसके ऊपर क्रम से पांच सौ योजन, पचपन हजार पाँच सौ और पट्ठाईस हजार योजन जा जाकर अन्य वनों की अवसिथति है। इन्हीं अन्तरालों के योग का प्रमाण मेरु पर्वतों की ऊंचाई का प्रमाण है । पाँचों मेरू पर्वतों का गाय-नीव का प्रमाण एक हजार योजन है ॥ ६ ॥ विशेषार्थ:--अम्बूद्वीप सम्बन्धी विदेह स्थित मेल के अतिरिक्त दो मेरु घातको खण्ड में और दो मेरु अधंपुष्कर द्वीप में स्थित हैं। चारों मेरु पर्वतों के मूल में भद्रपाल वन है; इस वन से ५०० योजन ऊपर नन्दनवन, ५५४.० योजन ऊपर पाकर सौमनसवन और २८००० योजन ऊपर जाकर पापक वन की अवस्थिति है। इन चारों वनों के अन्तराल का योग ( ५००+५५५०+२८...=) ४... योजन है। यही २४.०० योजन प्रस्येक मेरु पर्वत की ऊंचाई का प्रमाण है। पांचों मे पर्वतों का गाव अर्थात् नींव १००० योजन ही है। अथ तेषां वनानां विस्तार निरूपयति वावीसं च सहस्सा पणपणकोणपणसयं वासं । पढमवणं वज्जित्ता सव्वणमाणं पणाणि सरिसाणि ॥६१०॥ द्वाविंशतिः च सहस्र पश्वरचषटकोनपञ्चशतं व्यासं । प्रथमवनं वजंयित्वा सर्वनगानां वनानि सदृशानि ॥ ६१ ।। - ..--. --- --...... .. . . --- --- ... Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ घिलोकसार पाषा : ६११ बावीसं । सुवर्शनमेरोभाशालपनं पूर्वापरेण प्रत्येक बाविशलिसहनयोजमग्यास, मन्दनं पश्चशतयोजनम्यास, सौमनसं पञ्चशतपोजानग्यासं, पाक षडूनपश्यतयोजनव्या ४९४ । सुवर्षामस्थ प्रथमवनं वयित्वा सर्वमेका नन्दनावि बनानि सदृशप्रमाणानि ॥६१॥ उन वनों के विस्तार का वर्णन करते हैं : गाया :-सुबर्णन मेरु के भद्रशाल वन की (पूर्व पश्चिम दिशा की ) चौदाई २२००० भोजन, मन्दन वन की ५०० योजन, सौमनस वन की ५०० योजन और पाण्डक वन की ४६४ योजन है। सुदर्शन मेल के भद्रशाल बन को छोड़कर सभी मेह पर्वतों के नन्दनादि तीनों दनों की चौड़ाई का प्रमाण सहक्षा ही है ।। ६१०॥ विशेषार्म :-सुदर्शन मेरु के भद्रशाल बन की चौड़ाई पूर्व दिशा में २२००० योजन, पश्चिम दिशा में २२००० योजन (दक्षिण में २५• और उत्तर में भी २५. योजन) है। पांचों मेघ पर्वतों के नन्दन वनों की चारों दिशा की चौड़ाई का प्रमाण ५०० योजन है। पाँचौ सौमनस वनों की चारों दिशा की चौदाई का प्रमाण भी ५०० योजन ही है, तथा पांचों पाण्डुक वनों को चारों दिशा को चौड़ाई का प्रमाण १६४ योजन है । तात्पर्य यह हुआ कि सुदर्शन मेक के भदशाल वन को छोड़ कर पागों मेर पर्वतों के नन्दनादि वनों का प्रमाण सदृश ही है। अथ तनचतुष्टयस्थितचैत्यालयसंख्यामाइ एफ्फैक्कवणे पहिदिसमेक्के कजिणालया सुसोहंति । पहिमेमुपरि तसिं दण्णणमणुवण्णइस्सामि ॥ ६११ ।। एककवने प्रतिदिशमेजिनालयाः सुशोभन्ते ।। प्रतिमेकमुपरि तेषां वर्णनमनुवर्णयिष्यामि || ११ || एक्के । प्रतिमेव एकस्मिन बने प्रतिविशमेककमिनालया: सुशोभन्ते । उपरि षो स्थालमानां पर्णममनु पश्चानन्दीश्वरदीपवर्णनावसरे वर्णयिष्यामि ॥ ६११ ॥ उन चारों वनों में स्थित चैत्यालयों की संख्या कहते हैं : गावार्थ:-प्रत्येक मेरू पर्वत के ऊपर प्रत्येक बन की प्रत्येक विशा में एक एक जिनालय शोभायमान हैं, जिनका वर्णन मैं ( श्री नेमिचन्द्राचार्य ) बागे कहंगा ।। ६११॥ विशेषा : प्रत्येक मे पर्वत पर भद्रशाल आदि चार चार पन है और प्रत्येक वन की चारों दिशामों में एक एक जिन चैत्यालय है। इस प्रकार पख मेष सम्बन्धी १६ वनों के ८० जिन चैत्यालय शोभायमान हैं। जिनका वर्णन अन्य चैत्यालयों के वर्णन के बाद नन्दीश्वर द्वीप के वर्णन के अवसर पर ग्रायकर्ता करेंगे। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा। ९१२-१३ नतिर्यग्लोकाधिकार सुदर्शनस्म दक्षिणोत्तरभद्रशालवनप्रमाणमाह पढमवणहसीहंसो दक्खिणरत्तागमसालवणं । बिसदं पण्णासहियं खुल्लयमंदरणगेवि तहा ।। ६१२ ।। प्रथमवनाष्टाशीत्यंशः दक्षिणोत्तरगभदशालवनम् । द्विशतं पश्चाशदधिक क्षुल्लकमन्दरनगेऽपि तथा ॥ ६१२ ।। पठम । सुवर्तममेरोः पूर्वापरभवशालवनस्य २२००० शोति भागो बक्षिणोत्तरगतमाशालवनप्रमाणं स्यात् । पञ्चाशरसहितं द्विशतं २५० तल्लब्धं स्यात् । क्षुल्लकमन्दरनगेष्वपि तथा वक्ष्यमाणपूर्वापरभद्रशालस्याष्टाशीरयंश एव तथा दक्षिणोत्तरमनद्यालयमप्रमाणं स्यात् ॥ ६१२॥ सुदर्शन मेरु के दक्षिणोत्तर भद्रशाल वन का प्रमाण कहते हैं गाथार्थ :-प्रथम वन की पूर्व पश्चिम चौड़ाई का ८८ वा भाग अर्थात् ( २२११) २५० योजन दक्षिणोत्तर भवशाल की चौड़ाई का प्रमाण है। शेष चार छोटे मन्दर मेरु पर्वतों के दक्षिणोत्तर भद्रशाल की चौड़ाई का प्रमाण भी पूर्व पश्चिम चौड़ाई का ६० वा भाग ही है ।। ६१२ ॥ अथ वनोभयपार्श्वगतवेदीस्वरूपमाह वेदी वणुभयपासे इगिदलबरणुदयवित्थरोगाढो। हेमी सघंटघंटाजालसुतोरणा बहुदारा ।। ६१३ ॥ वेदी वनोभयपावें एकदलचरणोदयविस्तारावगाषाः । हैमी सघण्टघण्टाजालसुतोरणका बहुद्वारा ॥ १३ ॥ वी। भाशालादिवनोमयपाचे हेममयी महाघण्टा क्षुल्लकघण्टावालालकृतसुतोरणयुत. बहबारा वेद्यस्ति । तस्या उदयविस्ताराषगाषा व्यासंख्यं एकयोमनायोमनयोजनाचतुर्याशा। स्पुः ॥ ६१३ ॥ अब वनों के दोनों पाव भागों में स्थित वेदी का स्वरूप कहते है : गाथार्य :-वनों के दोनों पाव भागों में दिया है, जिनका उदय, विस्तार और गाय कम से एक, अब और पाव योजन प्रमाण है। वे वेदियाँ स्वर्णमय और बहृत द्वार वाली है, तथा महा घण्टा और छोटी घण्टिकाओं सहित एवं उत्तम तोरणों से सुशोभित हैं।। ६१३ ॥ विशेषार्थ:-भद्रशालादि वनों के बाह्य अम्पन्तर दोनों पाश्वं भागों में स्वर्णमय वेदियो हैं। जिनकी ऊंचाई एक योजन, चौड़ाई अर्घ {3) योजन और गाघ अर्थात् नींव पाव (१) योजन प्रमाण है। ये वेदियो महाघण्टा और छोटे घण्टाजालों से अलंकृत, उत्तम तोरणों से सहित और बहुत द्वार वाली हैं। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसा पापा : ६१४ अप मेरोश्चित्रातव्यासानयने नन्दनसौमनससमन्द्रामिक्षेत्रव्यासोदयानयने च हानिचयामयनार्थ गाथाद्वयमा । तत्र प्रथमिदे राशिक शेयम् तद्यथा- मेरोमुख १००० तद्भूमी १.००० विशेषयित्वा १०० एतावतो मैरूदयस्य . एतावति हानिचये ९००० एकयोजनस्य कियदानि चयमिति सम्पात्य नवभिरपयतिते एवं एतानिचयं धृत्वा पश्चात् अपरत्रैराशिकविधानमुच्यते यदि जोपन शायभागी अदि पडदे हायदि वा । सलणंदणसोमणसे किमिदि चयं हाणिमाणिज्जो ।। ६१४ ॥ इति योजनस्य एकादयाभागः यदि वर्धते प्रहीयते वा। तलनन्दन सोमनसे किमिति चयं हानिरानेतव्यम् ।। ६१४ ।। इदि । एक योजनोवयस्य १ एफयोजनकादशभागो पति वर्धते प्रहीयते पातबा मेहतालनन्यनसीमनसानामुक्यस्य १.० | ५०० ।५१५०० कियववर्षते प्रहीयते चेति सम्पारम हानिधयमानेसम्य। तलम्यासे वि०१७ नन्दने हानि: ४५१ सौमनसे हामिः ४६८१६ ॥ ६१४ ॥ अब चित्रा पृथ्वी के तल में स्थित मेक का व्यास लाने के लिए नन्दन, सौमनस आदि से कट क्षेत्र का व्यास एवं इनके पास मेरु की ऊंचाई आदि का प्रमाण प्राप्त करने के लिए तथा हानिचय का प्रमाण प्राप्त करने के लिए दो गाथाएं कहते हैं । यहाँ सर्व प्रथम ऐसा पैराशिक जानना कि तद्यथा :-मेरु को भूमि १.... योजन और मुख १०.० योजन प्रमाण है। भूमि में से मुख घटा देने पर { १०००० - १०००) ९.०० योजन अवशेष रहे। मेरू पवंत की ऊंचाई का प्रमाण ६९...योजन है, अतः जब कि .... योजन पर ६००० योजन की हानि होती है, तब १ योजन पर कितनी हानि होगी? इस प्रकार पैराशिक करने पर (2x'= योजन हानिचय का प्रमाण प्राप्त हुआ। इस यो हानिचय को रख कर अन्य राशिक विधान कहते है। गापा :-( ज क ) एक योजन की ऊंचाई पर योजन घटता या बढ़ता है, तब तल भाग,नन्दन वन और सौमनस वन की ऊंचाई पर कितनी हानि अथवा वृद्धि होगी? इस प्रकार राशिक द्वारा हानि वृद्धि प्राप्त करना चाहिये ।। ६१४॥ विशेषा:-जो ऊपर से नीचे की और घटता है उसका नाम हानि है, और जो नीचे से ऊपर को पोर वृद्धिंगत होता है पसका नाम वृद्धि है । जबकि एक योजन पर की योजन वृद्धि या हानि होती है, तब मेरु के सल की ऊंचाई १८०० योजन. नन्दन बन की ऊंचाई ५०० योजन [ नन्दन वन पर सब ओर १.० योजन चौड़ी फटनी है । चौड़ाई में एक साथ एक हजार ( दोनों ओर के पांच, पांच सौ ) योजन हानि हो जाने के कारण ग्यारह हजार योजन तक हानि नहीं होती । और समरुन्द्र Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 गाथा ६१५ नवति ग्लोकाधिकार ५१७ ( समान चौड़ाई) से ऊपर सौमनस वन की ५१५०० योजनों पर कितनी वृद्धि एवं हानि होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर मेस्नल व्यास की वृद्धि का प्रमाण ( 19 ) = ६०६६ योजन, नन्दन दन तक हानि का प्रमाण ( ) - ४५ योजन और सौमनस वन तक हानि का प्रमाण (१०० ) = ४६६१योजन प्राप्त होता है। तुम समरुन्द्र स्थान से २५००० योजन पाण्डुक वन तक ०० = २२७२५६ योजनों की हानि होती है। विशेष :- नन्दन वन से ६२५०० योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है, किन्तु उपयुक्त गाथा टीका में सौमनस वन तक हानि के लिए ऊंचाई का प्रमाण ५१५०० योजन कहा है इसका कारण यह है कि यह मे कम से हानि रूप होता हुआ पृथ्वी से ५०० योजन ऊपर जाकर उस स्थान पर एक साथ योजन सचित जाता है, इसीलिए दोनों ओर चौड़ाई में १००० योजन की हानि हो जाती है अतः उस हानि को पूरा करने के लिए सब ओर ११००० योजन तक समान चौड़ाई है। वहां से पुनः कम में हानि रूप होकर ५१५०० योजन प्रमाण ऊपर जाने पर वह पवंत पुनः युगपत् सर्वं ओय ५०० योजन संकुचित होता है। यहाँ ११००० योजन समद्र प्रमाण रहने के बाद २५००० योजन ऊपर तक क्रम से हानि रूप गया है इसीलिए पाण्डुक वन तक हानि का प्रमाण निकालने के लिए २५००० योजनों का ग्रहण किया गया है। (वि० प० भा० पृ० ३७६ ) सगसगाणिविही भूवासे चयजुदे मुहब्बासे । मिरिण हिरव्यंतर तल चित्थारप्यमा होदि ।। ६१५ ।। 10 area कहानिविहीने भूष्या से चययुते मुखव्यासे । गिरिवनबासाम्यन्तरतलविस्तारमा भवति ॥ ६१५ ॥ सग। मेरोस्तत्तत्करणयगतभूप्यासे स्वकीयस्वकीयहानौ विहोनायां सत्यां तचन्मुखमासे तत्तषये युते पति गिरेस्तला विविस्तारप्रमाणं भवति, वनस्य बाह्याभ्यन्तर विस्तारप्रमाणं च भवति । प्रागानीसमेत हानियये ९०११ मेरो भूपाले १०००० मिलिते सति १००१०३ चित्रातले व्यासो भवति । तत्र तस्यां [हाना १० बचनोताय १०००. मेरोर्भूव्यासः । एतावत्पपसरणे एकयोजनोवयइत्येतावति २०११ पसरणे क्रियानुश्य इति सम्पारण समच्छेदेन से अंजिनि मेलयित्वा ११ ते १००० मेरोभू ध्यासपर्यन्तमुत्सेषः स्यात् । मन्दनस्य हानिवय ४५ भूध्यासे १०००० अपनी ६६५४६ नन्दनाभ्यासः स्यात् । तानियां अंशिनः ४५ सम सम्मेल्यएसाववपसर ने एकपोनोवयश्वे देवावदपसरणे किमिति सम्पास्यापतिते ५०० भद्रालान्नन्दनपर्यन्तमुत्सेधः स्यात् । नन्दनमापासे ६६५४५ मन्दनध्यासं ५०० उभयपाश्र्वाचं द्विगुणीकृत्य १००० प्रपनो ८६५४५ समन्त्र रूप नन्दन। भ्यन्तरण्यासः स्यात् ।। ६१५ ॥ पार्थ :- मेघ के अपने अपने भूव्यास में से हानि का प्रमाण घटा देने पर तथा अपने अपने Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१५ त्रिलोकसार बामा । ६१६ मुखव्यास में चय ( वृद्धि ) का प्रमाण जोड़ देने पर मेरा पर्वत के तल विस्तार का प्रमाण एवं वनों के बाह्य अभ्यन्तर विस्तार का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ६१५ ॥ विशेषार्थ :- मेष पर्वत की तत्तत् कटनी गत भू व्यास अर्थात् नीचे की चौड़ाई के प्रमाण में अपनी अपनी हानि का प्रमाण घटा देने पर एवं तत्तत् कटनी के मुख व्यास अर्थात् ऊपर की चौड़ाई के प्रमाण में अपने अपने चय ( वृद्धि ) का प्रमाण जोड़ देने पर गिरि का तल विस्तार और वनों के बाह्य अभ्यन्तर विस्तार का प्रमाण प्राप्त होता है । यथा पूर्व गाथा में मेरुवल की वृद्धि का प्रमाण ९० योजन प्राप्त हुआ था, इसको मेरु के भू व्यास अर्थात् पृथ्वी पर मेरु की चौड़ाई १०००० योजन में जोड़ देने पर ( १०००० - ६०१ ) = १००१०११ योजन चित्रा पृथ्वी के अन्तिम भाग में मेरा गिरि के तल भाग के व्यास ( चौड़ाई ) का प्रमाण प्रत होता है, तथायोजन घटने पर १ योजन ऊंचाई प्राप्त होता है, तब ९० ऊँचाई प्राप्त होगी ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर ९०३९ अर्थात् तल अर्थात् चित्रा पृथ्वी के अन्तिम भाग से पृथ्वी पर्यन्त मेरु की ऊंचाई का प्रमाण प्राप्त होता है । योजन घटने पर कितनी २१००० योजन मे नन्दन वन पृथ्वी तल से ५०० योजन की ऊंचाई पर स्थित है। पूर्व गाथा में प्रमाण ४५६५ योजन प्राप्त हुआ था इसे भूमि विस्तार १०००० योजन में से ४५६६ )= ६६५४६५ योजन नन्दन वन के बाह्य व्यास का प्रमाण प्राप्त हुआ। मदन ( १०००० वन के एक पार्श्व भाग की चौड़ाई ५०० योजन है, अतः दोनों पाश्वं भागों की ( ५००x२ ) - १००० योजन चोड़ाई का प्रमारण नन्दन वन के बाह्य व्यास ( ६६५४६ ) में से घटा देने पर ( ६६५४ १५ १००० ६९५४६५योजन समयन्द्र स्वरूप नन्दनवन के सभ्यन्तर व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है अर्थात् नन्दन वन के अभ्यन्तर व्यास का प्रमाण ६५५४२५ योजन है । अ समोसे धानयनप्रकार माइ LA एयारं सोसर एगुदओ दसम किं लद्धं । णंद सोमणसुवरिं सुदंसणे सरिसरुदुदयो ।। ६१६ ।। एकादशांशापरणे एकोदयः दशशतेषु किं कथं । नन्दन सोमनसोपरि सुदर्शने सदृशषद्रोदयः ॥ ६१६ ।। इसको हानि का घटा देने पर एयारे एकादशा से पसरणे एकयोअनोवयश्चेद्दशशता १००० पसरणे कि लब्धमिति सम्पातिले ११००० सुदर्शनोपरिमनन्दन सौमनसयोः प्रत्येकं समदन्द्रोदयः स्यात् । सीमनसा निश्वये ४६८१६५ मन्दमात्परतरण्यासे ८६५४५५ प्रपनीते ४२७२६ सौमन से बाह्यव्यासः स्यात् । सौमनस हानिशशिनः ४६मेलनं कृष्णा एयारंसेत्याविविधिना साध्या ५१५०० सौमनसपर्यन्तमुत्सेधः । सौमनसायासे ४२७२६ सोममथ्यास ५०० पाइाद्विगुणीकृत्य १००० Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ by ܀܀ पाया: ६१६ नरति ग्लोकाधिका १६ ३२७२ सोमन साम्यन्तरण्यासः स्यात् । पत्रोश्लेषः प्रागानीतसमदन्द्रोदय एव स्यात् । एतावदुवस्य १ एतावद्धानौ सत्यां एतावदुवधश्य २५००० किमिति सातिते २२७२६६ पाण्डु के हानिः स्यात्। एत २२७२६ सौमनसाम्यन्तरस्यासे ३२७२६ प्रपनयेच्चेत् १००० पाण्डुरुः प्रस स्यात् । पाण्डुकहानियां २२७२६ शांशिनौ मेलयिया ५००० प्रादेयासेत्यादिविधिना समस्यापर्यात २५००० पाण्डुकपर्यन्तोत्सेधः स्यात् ॥ ६१६ ॥ आगे समरुन्द्र की ऊंचाई प्राप्त करने का विधान कहते हैं : गया :- कि योजन हानि पर एक योजन की ऊँचाई प्राप्त होती है, तब १००० योजन हानि पर कितनी ऊंचाई प्राप्त होगी | इस प्रकार त्रैराशिक करने पर ( 10 ) - ११००० योजन ऊंचाई का प्रमाण प्राप्त हुआ । यही सुदर्शन मंत्र के ऊपर नन्दन और सौमनस वनों के समयन्द्र की ऊँचाई का प्रमाण है ।। ६१६ ।। विशेषार्थ :- जबकि योजन की हानि पर १ योजन की हानि पर कितनी ऊंचाई प्राप्त होगी ? इस प्रकार त्रैराशिक करने प्राप्त हुई। यही सुदर्शन मेरु के नन्दन और सौमनस वनों के बीच समरुन्द्र ऊंचाई का प्रमाण है । अर्थात् सुदर्शन मेरु के तल भाग से नन्दन वन पर्यन्त कम से घटती हुई चोड़ाई है। इसके बाद दानों पाव भागों में एक साथ १००० योजन घट जाने से कटनी का आकार बन गया है। इसी कटनों पर नन्दन वन है। इस बम के मध्य से मेघ की चौड़ाई ११००० योजन ऊपर तक समान रूप से गई है । चौड़ाई में कुछ भी हानि नहीं हुई। सोमनस वन पर्यन्त सौमनस की हानि का प्रमाण ४६८१९३६ योजन प्रमाण है, तथा नन्दन वन पर मेरु का अभ्यन्तर व्यास ८१५४६ योजन था अतः इसमें से सौमनस का हानि प्रमाण घटा देने पर (८६५४४६१) ४२७२६ योजन सौमनस पर ( सौमनसवन सहित ) मेष व्यास रूप सौमनस का बाह्य व्यास प्राप्त हुआ । = ऊंचाई है, तब १००० योजन को पर ११००० योजन की ऊँचाई सौमनस की हानि ४६८१५ अंशी मिला लेने पर अर्थात् भिन्न तोड़ लेने पर योजन होता है। भोजन हानि पर १ योजन की ऊंचाई प्राप्त होती है, तो १५०० योजन की हानि पर कितनी ऊंचाई प्राप्त होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर 11211109 ) = ५१५०० योजन क्रम हानि का प्रमाण प्राप्त हुआ। अर्थात् ११००० योजन समइन्द्र प्रमारण के बाद मेरु की चौड़ाई में हानि होना प्रारम्भ हुई, जो कम कम से ५१५०० योजन तक होती गई है। इसके बाद सुमेरु पर्वत चोड़ाई में युगपत् ५०० योजन अर्थात् दोनों पाश्वं भागों में १००० योजन कम हो जाता है, इसी से कटनी बनती है और उसी कटनी पर सोमनस वन की अवस्थिति है। पूर्वोक्त ४२७२६ योजन सोमनस के बा ध्यास में से दोनों पावों पर कम हुए १००० योजनों को घटा देने पर (४२७२६६ १००० }-- ३२७२६] योजन सोमनस का अभ्यन्तर व्यास प्राप्त होता है। यहां पर भी पूर्वोक्त प्रमाण सौमनस से प्रारम्भ कर मेरू की ११००० योजन की ऊंचाई तक मेरु की चौड़ाई समान (समइन्द्र है। अर्थात् Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० चिलीकाप पाया : ६१७ कहीं घटी नहीं है। इसके बाद अर्थात् समरुन्द्र के ऊपरी भाग से २५००० योजन की ऊंचाई तक कमिक हानि हुई है । यथा - जबकि १ योजन की ऊंचाई पर योजन की हानि होती है, तब २५००० योजन की ऊंचाई तक कितनो हानि होगी । इस प्रकार त्रैराशिक करने पर ( XXX2 ) = २२७२६] योजन पाण्डुक वन की हानि प्राप्त हुई। इस हानि को सौमनस के अभ्यश्वर मैव व्यास ३२७२६] योजनों में से घटा देने पर (३२७९४६ २२७९१ ) - १००० योजन ( पाण्डुक वन सहित ) मेरु व्यासरूप पाण्डुक वन के बाह्य व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है। - पाण्डुक वन की हानि २२७२६ के अंश अंशी मिला लेने पर अर्थात् भिन्न तोड़ लेने पर योजन होते हैं। पंयोजन को हानि पद १ योजन की ऊंचाई है, तो योजन हानि पर योजन की ऊंचाई योजन पर कितमी ऊंचाई होगी ? इस प्रकार वैराशिक करने पर (३५००० - २५००० प्राप्त हुई । अर्थात् सोमनस के समइन्द्र व्यास ११००० योजन के ऊपर से प्रत्येक एक योजन की हानि होना प्रारम्भ हुई जो मेरु की २५००० योजन की ऊंचाई तक होती गई है। अर्थात् सौमनस के समरुन्द्र व्यास से पाण्डुक वन तक सुमेरु की ऊँचाई २५००० योजन है । अतः मेरु की चौड़ाई में वहीं तक क्रमिक हानि हुई है। इसके बाद सुमेरु पुनः चौड़ाई में ४६४ योजन युगपत् संकुचित हो जाता है, जिससे कटनी बनती है, और इसी अन्तिम कटनी पर अन्तिम पाण्डुक बन की अबस्थिति है । इस प्रकार सम्पूर्ण पर्वतों की प्रभुता को प्राप्त होने वाले अनादि निधन मन्दर महाचलेन्द्र (मेरु ) की पूरणं ऊंचाई ( चित्रा पृथ्वी के तल भाग में चौड़ाई में क्रमिक हानि होते हुए पृथ्वी तल तक की ऊंचाई १०००+ ५०० योजन ऊपर नन्दन वन + ११००० समरुन्द्र की ऊंचाई + ५१५०० योजन तक चौड़ाई में क्रमिक हानि + ११००० योजन समयन्द्र की ऊँचाई + २५००० योजन तक चोड़ाई में क्रमिक हाति ) १,००,००० (एक लाख) योजन है । अथ क्षुल्लक मन्दरस्य हानिचयानयनसूत्रमाह भूमीदो दसभागो हायदि खुल्लेसु णंदणादुरि । सवां समरुंद सोमणसुवरिंषि एमेव ।। ६१७ ॥ भूमितः दशमभागः हीयते क्षुल्लके मन्दनादुवरि । शतवर्गः समचन्द्रः सौमनसोपरि अपि एवमेव ॥ ६१७ ।। भूमियो। भूमितो वजनांश दे हानों यद्येकं योजनं स्यात्वा सहस्रयोजनहानी कियानुदय इति सम्पातिते शतवगंरूपो लग्धोदय: १०००० हलक मन्दरेषु ४ मन्वमचमादुपरितनसमरण्योदयः स्याद सोममोपरिमसम इन्द्रोप्येवमेव स्वाद । मुखे १००० भूमौ ४०० विशेषिते हानि: ८४०० क्षुल्लकमारो ८४००० एतावद्धानी ८४०० एकयोजनोदयस्य किमिति सम्पास्य चतुरशीत्या पलिते ० Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा: ६१७ मरविर्यग्लोकाधिकार एकयोजनहानिणयः स्यात् । एतसवा एकयोजनोदयस्य एसाबच्चये सहनयोजनोपयस्य किमिति सम्पास्यापतिते चयः स्याद १०। एतत्क्षस्लकमेरोरप्रे वपमाणमूत्र्यासे १४०० मेलयेश्वेद चित्रातलध्यासः स्यात् ५. । एतस्मिन् तदानी १० प्रपनीतायां सत्या १४०० मून्यास: स्यात् । एताववालो एकयोमनोदये एतावदानी १० किमिति सम्पातिते १००० तत्रस्योदयः स्यात् । एतापदुदयस्य । एतावद्वानी एतापवुवयस्य ५.० किमिति सम्पात्यापयत्यं ५० तं मूल्यासे १४०० मपनयेसमेत तदुपरितनन्यासः स्यात् ६३५० । एतावडामोएकोपये १ एतावदानी ५० किमितिसम्पातिते ५.. तत्रस्योषय: स्यात् । एतापवुग्यात्य १ एतावढ़ानौ एतावदुषयस्य १०००० किमिति सम्पायापतिते' लब्ध १००. अषस्तमध्यासे ९३५० पनये। ८३५० एतन्नन्दनसमसद्रव्यासः स्यात् । सनन्द्रयोईमोरस्सेधोनन्तर एवानीत: स एतावतपस्य १ एताबड़ानो को एतावदुवमस्म ४५५०० किमिति सम्पात्यापतितं ४५५० मषस्तमसमवयम्यासे ५३५. अपनये ३८०० समगोपरिमक्षेत्रम्यासस्यात् । एतावद्वानी एकोक्ये १ एतावद्वानो ४५५० किमिति सम्पातिते ४५५०० सत्रयोदयः स्यात् । एताबदुवयस्म १ एतावानी एतावतुक्यस्य १०००० किमिति सम्पात्यापतिते १... अषस्तनम्यासे ३८०० प्रपनयेत् २८०० एतत्सौमनसहन्तव्यासः स्यात् । अयः प्रागामीतः । एतापवुवयस्य १ एतावडामो पर एतावद्वयस्य १८०० किमिति सम्पास्यापतितं १५०० सातव्यासे २८०० प्रपनयेत् 1... एतन्मेरोमखण्यासः स्यात् । एतावद्वानोएकोदये १ एतावद्धानो १८ किमिति सम्पातिते १८०.. तस्पोयय: स्यात् । चूलिकोदयभूमुखान्याता: सर्व मेणाम वक्ष्यन्ते ॥ ६१७ ॥ आगे चारों क्षुल्लक ( छोटे ) मेरु पर्वतों का हानिचय प्राप्त करने के लिए सूब कहते हैं : गाथा:-भूमि से भयोजन की हानि एरु १ योजन को ऊँचाई प्राप्त होती है, तब t.. योजन की हानि पर कितनी ऊचाई प्राप्त होगी? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर शतवर्ग अर्थात् Re... योजन पारों क्षुल्लक मेरु पर्वतों की नन्दन वन से ऊपर समरुन्द्र व्यास की ऊंचाई का प्रमाण प्राप्त होता है। सौमनस वन के ऊपर भी समरुन्द्र व्यास की ऊँचाई का प्रमाण इतना ही विशेषाप: भूमितः अर्थात नीचे से कर योजन व्यास को हानि होने पर एक योजन ऊंचाई प्राप्त होती है. तो नन्दन वन के दोनों पार्श्व भागों में १००० योजन ध्यास घटने पर कितने योजन ऊंचाई प्राप्त होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर शतवगं अर्थात १००.. योजन की ऊंचाई प्राप्त होती है। यही अर्थात् १०.०० योजन ऊंचाई का प्रमाण नन्दन वन से ऊपर समरुन्द्र व्यास का तथा सौमनस वन से ऊपर सम रुन्द्र व्यास का प्रमाण है। इन चारों शुल्लक मेरु पर्वतों के सल भाग की . सम्पात्यायतित (प.)। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ त्रिलोकसार पाथा: ११७ चौड़ाई ६४०० योजन है, और शिखर का विस्तार १००० योजन है। यही क्रम से भूमि और मुख हैं । इन पर्वतों को सम्पूर्ण ऊंचाई ८४००० योजन है । ६४०० भूमि में से १००० मुख घटाने पर ४०० योजन हानि का प्रमाण प्राप्त हुआ । जबकि ८४.०० योजन की ऊंचाई पर ८४.. यो. की हानि होती है, तब १ योजन की ऊंचाई पर किलनी हानि होगी? इस प्रकार राशिक करने पर (12) योजन क्षय ( हानि ) या वृद्धि का प्रमाण सर्वत्र प्राप्त होता है। इसी को रखकर १ योजन की ऊंचाई पर योजन को वृद्धि होती है, तब १००० योजन की ऊंचाई पर कितनी वृद्धि होगी? इस प्रकार राशिक करने पर वृद्धि का प्रमाण { 229:2}= १०० योजन प्राप्त हुआ। इसे चारों क्षुल्लक मेरु पर्वतों के आगे कहे जाने वाले १४०० योजन भूव्यास अर्थात् पृथ्वीतल पर मेरु पर्वतों की चौड़ाई में जोड़ देने पर (६४.+१००)- ६५०० योजन चित्रा पृथ्वी के तल भाग पर चारों शुल्लक मेक मन्दरों की चौड़ाई का प्रमाण प्राप्त होता है, तथा ६५०० योजनों में से इतनी हानि {१.. योजन ) का प्रमाण घटा देने पर मेरु पर्वतों के भूभ्यास का प्रमाण प्राप्त होता है, तथा योजन को हानि पर एक योजन ऊंचाई प्राप्त होती है, तब १०. यो. को हानि पर कितनी ऊंचाई प्राप्त होगी। इस प्रकार राशिक करने पर ( १00420 ) १००० योजन चित्रा पृथ्वी स्थित मैफ तल से समभूमि पर्यन्त की ऊंचाई का प्रमाण प्राप्त होता है । जबकि १ योजन की ऊंचाई पर योजन की हानि होती है, तब ५०० योजन की ऊंचाई पर कितनी हानि होगी ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर (१ )५. भोजन को हानि प्राप्त हुई। इसे भू व्यास में से घटा देने पर ( ६४०० - ५.)-१३५० योजन नन्दनवन के बाद मेरु पर्वतों के व्यास ( चौड़ाई ) का प्रमाण प्राप्त होता है। जबकि योजन की हानि पर १ योजन की ऊंचाई है, तब ५० योजन की हानि पर कितनी कंचाई प्राप्त होगी? इस प्रकार राशिक करने पर (५.४१०)=.० योजन भद्रशाल वन से नन्दन वन की ऊँचाई का प्रमाण प्राप्त होता है। जबकि १ योजन की ऊंचाई पर योजन की हानि होती है, तब १०००० योजन की ऊंचाई पर कितनी हानि होगी । इस प्रकार त्रैराशिक करने पर १.०० योजन की हानि का प्रमाण प्राप्त हुआ । मन्दन वन के दोनों पाश्वं भागों पर ( ५००+५.) १.०० योजन की युगपत् हानि होती है। इसे नन्दन वन के बाह्य मेह व्यास में से घटा देने पर (१३५०-१..)=१३५० योजन नन्दन वन के अन्तर मेरु व्यास का प्रमारण प्राप्त हुआ। यतः यह १०.० योजन को चोड़ाई नन्दन वन पर एक साथ संकुचित हुई है, अतः नन्दन वन से १०००० योजन की ऊंचाई पर्यन्त मेरू पर्वत के समरुन्द्र अति समान चौड़ाई का प्रमाण ८३५. योजन ही है। यहाँ दोनों समरुन्द्रों के उत्सेध ( ऊँचाई ) की समानता लाई गई है। जबकि १ योजन की ऊंचाई पर योजन घटता है, तब ( नन्दन वन के पश्चात् समन्द ऊंचाई के बाद ) ४५५०० योजन की ऊंचाई पर कितना घटेगा? ऐसा त्रैराशिक करने पर ( 48 ) =४५५० योजन प्राप्त हुए, पन्हें अघस्तन समस्न्द्र व्यास 10 में से घटाने पर ( ८३५०-४५५०)-३८० योजन समरुन्द्र के उपरिम क्षेत्र Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया: ६१८ नरनियंग्लोवाधिकार ५१३ म्यास अर्थात् सौमनस वन का बाह्य व्यास होता है । जबकि + योजन की हानि १ योजन ऊंचाई पर होती है, तब ४४५० योजन हानि कितनी ऊंचाई पर होगी? इस प्रकार पैराशिक से (Purxto)= ४५५०० योजन ऊंचाई होती है। अर्षीद नन्दन वन के समरुन्द्र व्यास से ४५५०० योजन की ऊंचाई पर सौमनस वन है । जबकि १ योजन की ऊंचाई परयोजन की हानि होती है, तब १०० को ऊँचाई पर कितनी हानि होगी? इस प्रकार राशिक करने १६ ( २१०५० ) - १७.० योजन हुए। पही १.० योजन सौमनस वन के दोनों पाव भागों में एक साथ घटता है। इसे सौमनस के पास न्यास ३८०० में से घटा देने पर ( ३८०० -१०.०)-२८०० योजन सौमनस का समरुन्द्र व्यास अर्थात् सोममस का मेरु व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है। इस २८०० योजन समान चौड़ाई की ऊंचाई का १०००० योजन पूर्व में प्राप्त कर हो चुके हैं। तात्पर्य यह हा कि १०००० योजन की ऊंचाई तक सौमनस वन की २८०० योजन को समान चोड़ाई है। जबकि । योजन की ऊंचाई पर योजन की हानि होती है, तब १८००० योजन पर कितनी हानि होगी । इस प्रकार राशिक करने पर 2490)-१८०० योजन प्राप्त हुए। इन्हें सोमनस पन के अम्पन्तर व्यास २८०० योजनों में से घटा देने पर ( २८.०-१८)-१000 योजन भेरु कर उपरिम-मुख व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है। जबकि योजन की हानि पर १ योजन की के चाई है, दब १८०० योजन की हानि पर कितनी ऊँचाई प्राप्त होगी? इस प्रकार राशिक करने पर (१८००x१.)=१८०.. योजन सौमनस सम्बन्धी समस्न्द्र व्यास से ऊपर पाण्डक वन को ऊंचाई प्राप्त होती है। अर्थात सौमनस के समन्द्र व्यास की ऊंचाई से पाण्डक वन १८.०० योजन ऊपर है। पांचों मेरु पर्वतों के पाग्दुक बनों के मध्य में चूलिका है, जिसकी ऊँचाई, भूम्यास एवं मुख ध्यास का वर्णन आगे किया जावेगा। अथ मेरुणां वर्णविशेष निरूपयति गाणारयणविचित्तो इगिमद्विसहस्सगेसु पढमादो। उचो उपरि मेरू सुवण्णवण्णपिणदो होदि ॥ ६१८ ।। नानारत्नविचित्रः एकषष्टिसहस्रकेषु प्रथमतः। सत उपरि मेरुः सुवर्णवणान्वितः भवति ॥ ६१८ ॥ खाएा । मेरोः प्रयमत पारम्प एकविसहस्रयोजन ११.०० पर्यन्त नानारत्मविधि: तता परि मेकः सुवर्णवान्वितो भवति ॥ १८ ॥ मेरु पर्वतों के वर्णविशेष का निरूपण करते हैं : Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा : ६१९-६२० पापा : - मेरु प्रथमतः नीचे से प्रारम्भ कर ६१००० योजन पर्यन्त नाना प्रकार के रत्नों से खचित होने के कारण अनेक वर का है; इससे ऊपर पूरा मेरु स्वर्ण सहश व का है । ६१८ ॥ अथ नन्दन। दिषु स्थितभवननामादिकं गाथाद्वयेनाह— माणीचारणगंधच्च चिचणामाणि वट्टभवणाणि । गंदणच उदिसमुदओ पण्णासं तीस वित्थारो ।। ६१९ ।। मानीचा रणगन्धवं चित्रनामानि वृत्तभवनानि । नन्दनचतुर्दिक्षु उदयः पचाशत् त्रिशत् विस्तारः ॥ ६१९ ॥ माणी | मानीचारपन्धर्व चित्रनामानि वृत्तभवमानि नन्दने चतुविक्षु सन्ति । सेवामुदयः पाशयोजनानि विहारस्तु त्रिशयोजनानि ॥ ६१६ ॥ नन्दनादि वनों में स्थित भवनों के नामादिक दो गाथाओं में कहते हैं गावार्थ :- मानी, चारण, गन्धवं और चित्र नाम वाले गोलभवन नन्दनवन की पूर्वादि चारों दिशाओं में हैं। उनकी ऊंचाई पचास योजन मोर विस्वार (व्यास ) तीस योजन प्रमाण है || ६१६ || ५२४ विशेवार्थ : - नन्दन वन की पूर्व दिशा में मानी, दक्षिण में चारण, पश्चिम में गन्ध और उत्तर में चित्र नामके भवन हैं। उनका आकार गोल है तथा ऊँचाई ५० योजन और विस्तार ३० योजन प्रमाण है । सोमणमदुगे वज्जं पञ्जादिपह सुवण्ण तप्पहयं । लोहिद भंजणहारिपहरा दलिददलमाणा ।। ६२० ॥ सौमनसद्विके व वज्रादिप्रभं सुवर्ण तत्प्रभं । लोहिताखनाद्विपाण्डुरा दलितदळमानाः || ६२० ।। सोमरण | सोमनसपाण्डुकयोययासंख्यं चत्वारि चत्वारि वृत्तभवनामि । तानि कानि ? वत्रवज्रप्रभसुवर्ण सुथ प्रभनामानि लोहिताच्जन हारिद्रपाण्डुरनामानि । नखनोक्तोदयव्यासावर्धत वर्षप्रमाणानि ॥ ६२० ॥ गाथार्थ :- सौमनस और पाण्डुक वनों में भी यथाक्रम वस्त्र, वज्रप्रभ, सुवर्ण और सुवर्णप्रभ तथा लोहित, अञ्जन हारिद्र और पाण्डुर ये गोल भवन हैं। नन्दन वन के भवनों के उदय और व्यास से सौमनस के भवनों का उदय और व्यास बाधा है तथा पाण्डुक वन के भवनों का उदय और व्यास इनसे भी आधा है ॥ ६२० ॥ विशेषार्थ :- सौमनस वन की पूर्व दिशा में वज्र नामक भवन, दक्षिण में वज्रप्रभ, पश्चिम में सुवर्ण और उत्तर में सुवर्णप्रम नामवाले गोल भवन है। नन्दन वन के भवनों से इन भवनों की Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया । १२१-६२२ नरतियंग्लोकाधिकार १२५ ऊंचाई और ध्यास अर्धप्रमाण हैं। अर्थात यहां के भवन २५ योजन ऊँचे और १५ पोजन भ्याम वाले है। इसी प्रकार पाण्डका वन का पूर्व दिशा में लोहित, दक्षिण में अजन, पश्चिम में हारिद्र और उत्तर में पाण्डुर नामक गोल भवन हैं। इनका उदय और व्यास सौमनस से अर्धेप्रमाण अर्थात् १२३ भोजन ऊँचे और ७३ योजन व्यास वाले हैं। अथ तद्भवनाधिपान् तनिताबाद तब्भवणवदी सोमो यमवरुणकुवेरलोयवालक्खा । पुब्बादी तेसिं पुह गिरिकण्णा सादकोडितियं ।। ६२१ ।। तदभवनपतयः सोमः यमवरुण कुवेरा: लोकपालास्याः । पूर्वादिषु तेषां पृथक गिरिकन्यका साधकोटिश्रयम् ॥ ६२१ ।। तम्भवरण । सम्भवनाधिपतयः सोमयमवरुणकुदेराम्या: सौधर्मस्य लोकपालाः पूर्वादिरित Fagति 1 तेषां पृथक् पृपक सार्षकोटियागरिकन्यका भवन्ति ॥ ६२१ ॥ उन भवनों के स्वामी तथा उनकी देवांगनाओं के बारे में कहते हैं गाथार्थ :-उन भवनों के स्वामी लोकपाल कहे जाने वाले सोम, यम, वरुण और कुबेर क्रमश: पूर्वादि दिशाओं में हैं। प्रत्येक लोकपाल की साढ़े तीन करोड़ गिरिकन्यका अथांत व्यन्वर जाति की देवाङ्गनाएं है ।। ६२ ।। अय तेषामायुष्यादिकमाह सोमदु वरुणदुगाऊ सदलदु पन्लचयं च देसूर्ण । ते रचकिण्हकंचणसिदणेवत्यंकिया कमसो ।। ६२२ ।। सोमद्वयोः वरुणष्टिकायुः सदलद्वि फ्ल्यत्रयं च देशोनम् । ते रक्तकृष्णकाश्चनसितनपथ्याङ्किता: क्रमशः ॥ ६२२ ।। सोम । सोमयमयोवरणकुवेश्योश्चायुमंपासंख्यं पसहिततिपल्यं देशोनपल्यनयं च स्यात् । सोमाश्यो रक्तकणकाञ्चनसितवासकाराङ्किताः क्रमशः ॥ ६२२ ।। अब उनकी आयु आदि का वर्णन करते हैं पापार्थ :-सोम और यम की तथा वरुण और कुबेर की आयु क्रमशः पाई पल्य और कुछ कम तीन पल्य है । ये क्रमशः रक्त, कृष्ण, काश्चन और श्वेत् वर्ण के माभूषणों से अलंकृत हैं ।। ६२२॥ विशेषार्ष:-पूर्व दिशा के स्वामी कोकपाल की आयु २३पल्य और अलङ्कार लाल वर्ण के हैं। दक्षिण दिशा के स्वामी यम नामक लोकपाल की आयु २: पज्य और आभूषण कृष्ण ( काला) वर्ण . के हैं। पश्चिम दिशा के स्वामी व लोकपाल की आयु कुछ कम तीन पल्प और मलबार काधन Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ त्रिलोकसार पाया। ६३-६२४ (स्वर्ण) वर्ण के हैं तथा उत्तर दिशा के स्वामी कुबेर लोकपाल को आयु कुछ कम तीन पल्य और आभूषण सफेद रङ्ग के हैं । अथ तेषां कल्पमानसम्बन्धिश्वमाह--- तेय सयंपहरिद्वजलपवरगुप्पहा विमाणीसा | कप्पे सु लोयवाला पहुणो बहुसयविमाणाणं ।। ६२३ ।। ते च स्वयम्प्रभारिष्टजलप्रभवल्गुप्रभा विमानेशाः । कल्पेषु लोकपाला प्रभवः बहुशतविमानानाम् ॥ ६२३ ।। ते य । ते च सोधर्मस्य लोकपालाः कल्पेषु स्वयम्प्रभारिलप्रभवस्नुप्रभा विमानेशाः । पुनस्ते बहुत ६६६६६६ विमानानामधिपतयः ॥ ६२३ उनके कल्प विमान सम्बंधित्व को कहते हैं. : गाथार्थ :- कल्पों में वे चारों लोकपाल क्रमणः स्वयम्प्रभ, अरिष्ट, जलप्रभ और वल्गुप्रभ विमानों के स्वामी हैं, तथा अन्य भी सैकड़ों विमानों के स्वामी हैं ।। ६२३ ।। विशेषार्थ :- सौधर्मकल्प में सौधर्मेन्द्र के वे चारों लोकपाल क्रमशः स्वयंप्रभ, अरिष्ट, जलप्रभ और वल्गुप्रभ विमानों के स्वामी हैं। इतना ही नहीं स्वर्गों में ये ६६६६६६ विमानों के अधिपति है, और मेरु पर्वत पर भी इनके बहुत से भवन है । अथ नन्दनवनस्यभ्यन्तरं सपरिकरमाह बलमदणामकूडे गंदणगे मेरुपन्चदीसाणे | उदय महियसयदलगो राष्णामो वेतरी बसई || ६२४ ॥ बलभद्रनामकूटे नन्दनगे मेरुपर्वतशान्याम् | उदयमही कशतदलकः तन्नामा व्यन्तरो वसति ॥ ६२४ ।। बलभद्द | पर्वतशान्यां विशि नन्वनस्ये शतोदयशल भूभ्यासे लड्लाने बलनामकूटे बलभद्रनामा व्यन्तरो वसति ॥ ६२४ ।। नन्दन वन में रहने वाले व्यन्तर देव एवं उसके परिकर का कथन करते हैं गाथार्थ :- मेरु पर्वत की ऐशान दिशा स्थित नन्दन वन में सौ योजन ऊंचा तथा भूमि पर सी योजन चौड़ा और ऊपर १० योजन चौड़ा बलभद्र नामका कूट है जिसमें बलभद्र नामका व्यन्तर देव निवास करता है ।। ६२४ ।। अथ नन्दनवनस्थच सतीनामुभयपारस्य कुटादीन् गायाश्रयेणाह - Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बापा।६२२से ६२७ नतिर्यगलोकाधिकार ५२७ गंदण मंदर डिस हदो ए लगामाया। बजो कूडा कमसो गंदणवसईण पासद्गे।। ६२५॥ हेममया तुंगधरा पंचसयं तद्दलं मुहस्स पमा । सिहिरगिहे दिक्कण्णा वसंति तासिं च णाममिणं ॥६२६।। मेहंकरमेहवदी सुमेहमेहादिमालिणी ततो । तोयंधरा विचिता पुप्फादिममालिणिदिदया ।। ६२७ ।। नन्दनो मन्दरः निषधः हिमवान् रजतश्च रुचकसागरको। वज्रः कुटाः क्रमश: नन्दनवसतीनां पार्वद्विके ।। ६२५ ।। हेममया: तुङ्गधरा। पञ्चशतं तद्दल मुखस्य प्रमा। शिखरगृहे दिक्कन्याः वसन्ति तासां च नामानीमानि ॥१६॥ मेघरा मेघवती सुमेघा मेघादिमालिनी ततः। तोमन्धरा विचित्रा पुष्पादिममाला अनिन्दितका ।। ६२७ ॥ एंवरण | नन्दनो मन्दरो मिषषो हिमवान रखताव रखकः सागरो ववाल्याः एते कूटा: कमशो मन्वनस्थवसतीनामुभयपाय तिष्ठन्ति ॥ ६२५ ॥ हेममया । ले कूटा हेममया सेषामुदय मूव्यासो प्रत्येकं पञ्चमतयोजनानि ५.० तद्दलं २५० मुखम्यासप्रमाणं तेषां शिखरगृहेषु विकन्या वसन्ति । तासां मानि नामान्य पक्ष्यमाणानि ॥ ६२६ ॥ ___मेहकर । मेघरा मेघवती सुमेघा मेघमालिनी ततस्तोयन्धरा विचित्र पुष्पमाला पनिषिताख्याः स्युः ।। ६२७॥ मन्दन वन में स्थित भवनों के दोनों पाव भागों में जो कूटादिकों को अवस्थिति है उन्हें तीन पायाओं द्वारा कहते हैं : गाया :--१ नन्दन, २ मन्दर, ३ निषध, ४ हिमवान्, ५ रजत, ६ रुचक, ७ सागर और ८ वप्न ये आठ कूट कम 3 नन्दन वन में स्थित चार भवनों के दोनों पारवं भागों में स्थित हैं। ये आठौं कूट स्वर्णमयी हैं. इनकी ऊँचाई पांच सौ योजन, नीचे भूमि व्यास ( चौड़ाई ) पांच सौ योजन तथा ऊपर मुख व्यास दाई सो योजन है। इन कूटों के शिखरों पर स्थित भवनों में दिक्कुमारियां रहती हैं, जिनके मेघङ्करा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयन्धरा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिन्दिता नाम हैं ॥ ६२५, ६२६, ६२७ ॥ विशेषार्थ । -नन्दन वन में स्थित मानी भवन के दोनों पार्श्व भागों में नन्दन कूट और मन्दर कुट है। चारण भवन के दोनों पाश्च भागों में निषध और हिमवान् कूट हैं। गन्धवं भवन के दोनों Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ त्रिलोकसार पाथा : ६२८ से ६३० पार्श्व भागों में रजत और रुचक कूट हैं, तथा चित्र भवन के दोनों पार भागों में सागर और बत्र नामक कूट हैं । ये माठों कूट स्वर्णमयी हैं। इनकी ऊँचाई ५०. योजन, नीचे भूमि की चौड़ाई ५. योजन, तथा ऊपर मुख व्यास २५० योजन है । इन कूटों के शिखरों पर दिक्कुमारियों के भवन हैं। जिनके नाम मेघङ्करा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, सोयन्धरा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिन्दिता हैं। ये माठों ऋम से एक एक कूट पर स्थित भवनों में रहती हैं। अय नन्दनवापीस्वरूप गाथात्रयेणाह अग्गिदिसादोचउचउउच्पलगुम्मायणलिणिउच्पलिया। वावीओ उप्पलुज्जल भिंगा बढी दु भिंगणिमा ॥ ६२८ ।। काल कसलपह सिरिभूदा सिरिकंद सिरिजुदा महिदा । सिरिणिलयलिणि गलिणादिमगुम्मिय कुमुदकुमुदषदा ॥६२९।। मणितोरणरयणुब्भवसोवाणा हंसमोरजंतजुद्दा । पण्णदलदीहवासो दसगाहो सोलवाचीया ।। ६३० || अग्निदिशः चतन्नः चतस्रः उत्पलगुल्मा च नलिनी उत्पलिका। दाप्यः उत्पलोज्जला भृङ्गा षष्ठी तु भङ्गनिभा ।। ६२६॥ कजला कजलप्रभा श्रीभूता श्रीकान्ता थोयुता महिता। श्रीनिलया नलिनी नपिनादिमगुल्मी कुमुदा कुमुदप्रभा ॥२९॥ मणितोरणरत्नोद्भवसोपानाः हंसमयूरयन्त्रयुताः । पश्वाश हलदीव्यासा! दशगाधाः षोडशवाप्यः ।। ६३ ।। पग्गि। पग्निविधाः पारम्य पतनाचतस्रो वास्यः सन्ति । तासां नामानि उत्पलगुल्मा नलिनी उत्पला उत्पलोज्वला भृङ्गाठो तु भनिभा ॥ ६२८॥ कडस । कज्जला कजलप्रभा श्रीभूता मोकान्ता श्रीमहिता बीमिलया मलिनी मलिमाल्मी कुमुवा कुमुवप्रमेति नामानि ॥ ६२६ ॥ मरिण । ताः षोग्यवाप्यो मरिणतोरणरस्नोमवसोपानाः हंसमपूरयन्त्रयुताः पश्चाशत्सहलवोधप्यासा वशयोजनाषणाधाः स्युः ।। ६३०॥ अब तीन गाथाओं द्वारा नन्दन धन स्थित वापियों का स्वरूप कहते हैं : गावार्थ :-अग्नि दिशा से प्रारम्भ कर चारों विदिशाओं में क्रमशः चार चार बावड़ियाँ हैं। जिनके नाम १ उत्पलगुरुमा, २ नलिनी. ३ उत्पला, ४ उत्पलोज्वला, ५ मृङ्गा, ६ भङ्गनिभा, ७ कज्जला, ६ कमलप्रभा. ९ श्रीभूता, १० श्री कान्ता. ११ श्री महिना, १२ श्री निलया, १३ नलिनी, १४ नलिनीगुरुमा. १५ कुमुदा और १६ कुमुदरभा है । ये सोलह वापियाँ मणिमय तोरणों, रत्नमय सीढ़ियों और Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ९३१-१३२ निरतिर्यग्लोकाधिकार ५१३ हंस मयूरादि यन्त्रों से संयुक्त हैं, तथा क्रमशः पचास योजन और उसके अर्थ योजन ( २५ यो० ) प्रमाणु दीर्घता और व्यास तथा १० योजन गात्र से युक्त हैं ।। ६२८, ६२९.६३० ॥ विशेषार्थ :- आग्नेय दिशा में उत्पल गुल्मा, नलिनी, उत्पला और उपलोवल नाम वाली चार बावड़ी हैं। नैऋत्य दिशा में भृङ्गा, भृङ्गनिभा, कज्जला और कज्जलप्रभा है। वायव्य दिशा में श्रीभूता श्रीकान्ता श्रीमहिता और श्रीनिम्रया है, तथा ईशान दिशा में नलिनी, नलिनीगुल्मा, कुमुदा और कुमुदप्रभा नाम वाली ये चार बावड़ी हैं। ये १६ हो वापियों मणिमय तोरणों, रत्नमय सीढ़ियों और हंस, मयूर आदि यन्त्रों से संयुक्त हैं। ये प्रत्येक बावड़ी ५० योजन लम्बी, २५ योजन चौड़ी और १० योजन गहरी हैं। अथ तन्मध्यप्रासादस्वरूपं गाथाद्वयेनाह- दणिउतरवावीज् सोइम्म जुगलपासादा । पणघणदलचरच्यवासा दलगाढच रस्सा ||६३१ ।। दक्षिणोत्तर वापीमध्ये सोपमंयुगल प्रासादाः । पञ्जघनदळचरणोच्छ्रयध्यासाः दलगाढचतुरस्राः || ६३१ ॥ fe | मेरोरपेक्षमा दक्षिणोत्तरवापीमध्ये सौधर्मज्ञानयोः प्रासादाः पचपन १२५ बल ६२३ पचधनचतुर्थांश ३१ पव्यासाः प्रयोजनगाषाः चतुरस्राः सन्ति ॥ ६३१ उन बावड़ियों के मध्यस्थित प्रासादों का स्वरूप दो गाथाओं द्वारा कहते है गामार्थ :- दक्षिण और उत्तर दिशा की वापियों के मध्य में क्रमश सोधमेशान इन्द्रों के प्रासाद हैं। उनकी पक्ष के धन का अर्थ प्रमाण ऊंचाई उसके चौथाई प्रमाण व्यास और अर्थ योजन प्रमाण गाढ ( नींव ) है। ये सभी प्रासाद चौकोर है ।। ६३१ ॥ विशेषार्थ :- मेरु की अपेक्षा दक्षिणोसर बावड़ियों के मध्य में सीघशान इन्द्रों के भवन है । अर्थात् रु के दक्षिण की ओर आग्नेय और नैऋत्य दिशा स्थित बावड़ियों में सौष इन्द्र के प्रासाद और उत्तर की ओर अर्थात् वायव्य और ऐशान दिशा स्थित बावड़ियों में ऐशान इन्द्र के प्रासाद है । ये प्रसाद पवन के अत्रमा अर्थात् ६२३ योजन ऊंचे ३१३ योजन चौड़े और प्रधं योजन प्रमाण गहरी नींव से संयुक्त एवं चौकोर हैं । ६७ सोचिदठाणासिदपरिवारेगिंदोडिदो सवासादे । सम्वभिणं कहियवं सोमणसवणेवि सविसेसं ।। ६३२ ।। स्वोचितस्थानासितपरिवारेण इन्द्रः स्थितः स्वप्रासादे । सर्वमिदं कथितव्यं सौमनस्यतेऽपि सविशेषं ।। ६३२ ।। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा : ६१३-१४ सोचिव। सुधर्मसभायामिव बावितस्थानातिपरिवारस सह स्वप्रासावे इन स्तिष्ठति सौमनसबनेऽपि सर्वमिदं सविशेषं कथितव्यम् ॥ ६३२ ॥ गाथार्य:--अपने योग्य स्थानों पर स्थित अपने परिवार सहित इन्द्र अपने प्रासाद में ठहरता है । कूदादि का असा वर्णन यहां नन्दन वन में किया है वैसा ही सविशेष वर्णन सौमनस वन में करना चाहिए ।। ६३२।। विशेषार्ष:-इन्द्र अब नन्दनादि वनों में आता है तब स्वर्ग की सुध सभा के समान अपने अपने योग्य स्थानों में परिवार सहित अपने प्रासाद में ठहरता है । नन्दन वन स्थित भवनों के पाश्वभागों में कूटादिक का, आग्नेयादि दिशाओं में बावड़ियों का तथा यावड़ियों के मध्य स्थित प्रासाद मादि का असा वर्णन यहां किया है. वैसा ही सर्व वर्णन विशेषता सहित सौमनस वन में भी करना चाहिए। अनन्तरं मरुशिखरस्थिताना शिलातलानां नामस्थापने वर्णयति पांडकपाडकंबलरचा तह रचयलक्ख सिला। ईसाणादो कंचणरुप्पयतवणीयरुहिरणिहा ॥ ६३३ ॥ पापलुकपाण्डकम्बलरक्ता तथा रक्तकम्बलाख्या: शिलाः। ईशानात् काश्चनरूप्यतपनीयधिरनिभात ॥ १३ ॥ पाडका ऐशानाबारम्य यथासंख्य काञ्चनरुप्यतपनोयापिरनिभाः पाण्डुकाख्यपाण्डकम्बलारूपरक्ताल्यरतकम्बलाल्याः शिलाः पाण्डुकवने सन्ति ॥ ६३३ ॥ म मेरु के शिखर पर स्थित शिलाओं के नामों और स्थानों का वर्णन करते हैं गाथा:-ऐशान दिशा से प्रारम्भ कर चारों विदिशाओं में क्रमश: स्वर्ण, चांदी, तपाए हुए स्वर्ण और रुधिर ( रक्त ) वर्ण के सदृश पाण्डक, पाण्डुकम्बला, रक्ता प्रौर रक्तकम्बला नाम की चार शिलाएं हैं ।। ६५३ ॥ अथ ताः शिला; केषां सम्बन्धिन्यः कथं तासां विभ्यास, इत्युक्त आह भरहवर विदेहेरावाल्व विदेहजिणणिबद्धामो । पुनवरदक्खियुचरदीहा मधिरथिरभूमिमुहा' ॥६३४।। भरतापरवि देहेरावतपूर्व विदेहजिननिबद्धाः। पूर्वापरदक्षिणोत्तरदीर्घा अस्थिरस्थिर भूमिमुखाः ।।६३४॥ । मस्बिर इत्युक्त भरतरावासम्मुखे । स्पिर प्रत्युक्त पूर्वापर विदेहसम्मुखे इत्यर्थः (व. प्रतो दि.) Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा:६३५ नरतियंग्लोकाधिकार भरह। ताः शिला पपासंख्य भरतापरविरावतपूर्व विवाशिमनिबहाः स्युः । पूर्वापरयक्षिणीतरवीर्घा प्रस्पिर स्थिर भूमिमुखा । ६३४ ॥ वे शिलाए किनसे सम्बन्धित हैं और उनका विन्यास कैसा है ? उसे कहते हैं- । पाथार्य :-वे शिलाएं कमशः भरतक्षेत्र, पश्चिम विदेहक्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र और पूर्व विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तीर्थ स्करों से सम्बन्धित हैं। उनकी लम्बाई ( कम से ) पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण तक है । उन शिलाओं की भूमि अस्थिर है और मुख स्थिर है ।। ६३४ ।। विशेषार्थ :-भरतक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक पाण्डुक शिला पर, पश्चिः। विदेह यंत्र होने वाले ती कर देवों का पाण्डुकम्बला शिला पर, ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी तीर्थङ्करोंका रक्ता शिलापर और पूर्व विदेहमें जन्म लेने वाले तीर्थङ्कर देवोंका जन्माभिषेक रक्तकम्बला शिला पर होता है । पाण्डक शिला को लम्बाई पूर्व दिशा को ओर, पाण्डु कम्बला की पश्चिम को ओर, रक्ता को दक्षिण की और एवं रक्त कम्बला, की लम्बाई उत्तर दिशा की ओर है। इन शिलाओं की भूमि अस्थिर और मुख स्थिर है। नोट :-इन पाण्डक बादि शिलाओं की लम्बाई १०० योजन और चौड़ाई ५० योजन है। यह घौड़ाई बह मध्य भाग की है, अतः बहु मध्य भाग से चौड़ाई में दोनों ओर कमशः हानि होती गई है अतः अस्थिर है और लम्बाई सदृश है अत: स्थिर है। इस अपेक्षा मुख स्थिर और भूमि अस्थिर हो जाती है । अथवा शिलाओं के नीचे का भाम अस्थिर ( खुरदरा ) और ऊपर का भाग स्थिर ( चिकना) है । यह अर्थ भी भूमि अस्थिर और मुख स्थिर का हो सकता है। यह उपयुक्त अथं मैंने अपनी समझ से लिया है। इन शब्दों का यथार्थ भाव क्या है ? वह विद्वज्जनों द्वारा विचारणीय है। अथ धाम्तेन तेषां शिलातलानामावति प्रतिपादयन् दयमाचष्टे बद्धिदुणिहा सव्वे सयपग्णासट्ठदीहवासुदया। आसणतियं तदुरि जिणसोहम्मदुगपडिबद्धं ॥६३।। अर्धन्दुनिभाः सर्वाः शनपञ्चाशष्टदीर्घच्यासोदयाः ।। आसनत्रयं तदुपरि जिनसोषमंद्वयप्रतिबद्ध ॥ ६३५ ॥ प्रदि। ताः सर्गः प्रधन्दुनिभाः शतयोजनदीर्घाः पञ्चाशयोजनव्यासा प्रयोजनोवया: स्युः । तासामुपरि जिनसौधर्मयप्रतिबसमासनत्रपति ।। ६३५ ।।। ___ अब दृष्टान्त द्वारा उन शिलाओं की आकृति का प्रतिपादन करते हुए उनकी दीर्घता आदि कहते हैं पापा:-वे सब शिलाए अर्धचन्द्राकार सदृश हैं। उनकी लम्बाई सो योजन, बीच की चौड़ाई Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३१ fuलोकसाय भाषा । ६२६-३३० पचास योजन और मोटाई ८ योजन प्रमाण है । उन शिलाओं के ऊपर तीर्थङ्कर, सौधर्मेन्द्र और ईशानेन्द्र सम्बन्धी तीन सिहासन है ।। ६३५ ॥ अथ तदुपरिमासनत्रयश्वाम्यादिकमाह ममे सिंहासनयं जिणस्स दक्खिणगयं तु सोहम्मे । उत्तरमीसाणिंदे भद्दासणमिह तयं षट्ट ।। ६३६ ।। मध्ये सिंहासनं जिनस्य दक्षिणगतं तु सोधमें। उत्तरमीशानेन्द्र भद्रासनमिह श्रयं वृत्तम् ॥ ६३६ ॥ मने ! लए मध्ये विषस्य पक्षिरगगतं भद्रासनं ईशानस्योत्तरगतं भद्रासनं त्रयंवृत्तम् ॥ ६३६ ॥ उन शिक्षाओं के ऊपर स्थित सिहासन के स्वामी आदिक कहते हैं : नाथार्थ :- :- उन तीनों सिहासनों में बीच का सिहासन जिनेन्द्र देव सम्बन्धी है, दक्षिणगत सौधर्मेन्द्र का भद्रासन और उत्तरगत ईशानेन्द्र का भद्रासन है ये तीनों बासन गोलाकार हैं ।। ६३६ ।। विशेषार्थ :- पाण्टुक वन में मेरु शिखर पर स्थित उपयुक्त चारों शिलाओं पर तीन तीन सिहासन हैं। प्रत्येक शिला के मध्य का सिहासन जिनेन्द्र देव सम्बन्धी है। जिनेन्द्र सिहासन की दक्षिण दिशा में सोधर्मेन्द्र का भद्रासन तथा उत्तर दिशा में ईशानेन्द्र सम्बन्धी भद्रासन है। ये तीनों आसन गोल हैं । अथ तदावनानामुदयादिकं मेरोश्चूलिकास्वरूपं चाह उदयं भृमुहवासं वसु पणपणसयतदपुब्वा | बेलुरिय चूलियस्स य जोयण चतं तु बारचउ ।। ६३७ ॥ उदयं भूमुखन्यासं षतृः पञ्चपञ्चशतं तदषं पूर्व मुखाः । वैडूर्यचूलिकामाच योजनं चत्वारिंशत् तु द्वादश स्वारि ।। ६३७ ।। यं । तदासनाना मुख्य भूमुखग्वासाः यथासंख्यं पञ्चशत ५०० पव्दशत ५०० व २५० धतुः प्रमिताः पूर्वमुखाश्च वडूयंमथ्या मेशेश्तूलिकायाश्वोवयमुखध्यासा यथासंख्यं चत्वारिशद ४० ड्रायरा १२ बरवारि ४ योजनानि स्युः ॥ ६३७ ॥ उन सिंहासनों का उदय आदि और मेरु पर्वत की चूलिका का स्वरूप कहते हैं : गावाचं :- उन भासनों का उदय, भूव्यास और मुख व्यास कम से पाँच सो, पांच सौ और पांच सौ के अर्ध ( २५० ) धनुष प्रमाण है। उन आसनों का सुख पूर्व दिशा की ओर है। [ पाण्डुक वन के मध्य मेरु की वैड्रयंमयी चूलिका है जिसका उदय भूभ्यास और मुख व्यास क्रम से ४० योजन, बारह योजन और चार योजन प्रमाण है ।। ६३७ ॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया। ६. मपतियालोकाधिकार विशेषार्थ:-प्रत्येक शिला स्थित तीनों आसनों की ऊंचाई १०. धनुष नीचे की चौड़ाई ५०० धनुष और ऊपर की चौड़ाई २५. धनुष प्रमाण है। इन आसनों का मुख पूर्व दिशा की ओर है। पाण्डक वन के मध्य में मेरु की वैडूर्य रत्नों से रचित धूलिका है जिसकी ऊंचाई ४० योजन, धूलिका की नीचे की चौड़ाई १२ योजन और ऊपर की चौड़ाई ४ योजन प्रमाण है। पाण्डक आरि चारों शिलाओं एवं सिंहासन आदि का चित्रण निम्न प्रकार : 1.014 trena दरकार (EFIN 6 . 31. si Mk. NA 0 IPurrt अथ उक्तानां सर्वेषां किश्चिद्विशेषमाह पव्वदचावीकूडा सवामो पंडुगादिय सिलाओ। वणवेदितोरणे िणाणामणिणिम्मिएहिं जुदा ।। ६३८ ॥ पवंतवापीकुटा: सर्वे पाण्डकादिकाः शिलाः । वनवेदोतोरणः नानामरिणनिर्मितः युताः ॥ ६३८ ।। पम्वद । पर्वताः वाप्यः कूटाः पाशाकाविका शिलाश्च सर्वे नानामरिणनिमितपनदी भिस्तोरणच युता। स्पुः ॥ १३॥ ऊपर कहे हुए पर्वत कूट आदि सभी को कुछ विशेषता कहते हैं पाया :-पर्वत, वापी, कूट और पाण्डकादि शिलाए ये सभी नाना प्रकार की मणियों में निमित वनवेदियों एवं तोरणों से युक्त है ।। ६३८ ॥ अथ जम्बूवृक्षस्थानादिक सपरिकर गाथै कादशकेनाह-- Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ चिलोकसान पाचा ६३९-६४०-६४१ समी सदावतडे मंदराचलीसा | Tags जंली सपंचसय तलवासा ||६३९ ।। नीलसमीपे सोतापूर्वतटे मन्दराचलेशान्यां । उत्तरकुरी जम्बूस्थली समयततलव्यासा ।। ६३९ ॥ सोल । नीलगिरेः समीपे सीतानद्याः पूर्वतरे मन्वराचलस्यंशाभ्यां विशि उचरकुशे पञ्चशतयोजनतलव्याला जवृक्षस्यस्ति ।। ६३६ ।। जम्बूवृक्ष का स्थानादिक परिकर ग्यारह गाथाओं द्वारा कहते हैं गावार्थ :- नीलकुलाचल के समीप सीता नदी के पूर्व तट पर सुदर्शन मेरु की ईशान दिशा में उत्तर कुरुक्षेत्र में जम्बुवृक्ष की स्थली है जिसका तलपास पाँच सौ योजन है ॥६३९॥ अंते दलबाहला मज्मे इदय व हेममया । मज्झे पलिस पीठीमुदयतियं भट्ठबारचऊ ।। ६४० ।। अन्ते दलवाहल्या मध्ये अष्टोदया वृत्ता हेममया । मध्ये स्थन्याः पीठमुदयत्रयं अष्टद्वादशचतुः || ६४० ॥ धंद्याच पुनरन्ते वल योजनबाहल्या मध्ये योजमोदया बुताकारा हेममयी स्यात् । तस्यसीमध्येऽनुयोजनोवयं द्वावयोजनम्रध्यासं चतुर्योजन मुखव्यासं पीठमस्ति । ६४० ॥ गावार्थ: : - वह स्थली अन्त में आधा योजन ॐची, बीच में बाट योजन ऊँची, गोल आकारवाली और स्वर्णमयी है। उसके बीच में आठ योजन ऊँचा, बारह योजन शुन्यास एवं धार योजन मुलण्यास वाला एक पीठ या पीठिका है। तत्थलिउवरिमभागे चाहिं बाहिं पवेढिऊण ठिया । कंचनवलयसमाणा दारंबुजवेदिया गया ।। ६४१ ।। तरस्यत्युपरि भागे बहिबहिः प्रवेष्टय स्थिताः । काञ्चनवलय समानाः द्वादशाम्बुज वेदिकाः ज्ञेयाः ॥ ६४१ । तत्यसि । तपत्युपरिमभागे बहिर्बहिः प्रवेष्वृच कानवलसमाना: वर्ष 1⁄2 योजनोत्सेधाः उत्सेामध्यासाः नानारत्नसङ्कीर्णाः मम्बुजदेविका द्वादश ज्ञेयाः ।। ६४१ ॥ गाथा:- उस स्थली के उपरिम भाग में बाहर बाहर एक दूसरे को वेष्टित करती हुई स्वर्णं वलय सह आधे योजन ऊँची और ऊँचाई के आठवें भाग प्रमाण अर्थात् हे योजन घोड़ी बारह अम्बुज वेदिकाएँ हैं ।। ६४१ ।। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : १४२-६४३-६४४ नरतिये ग्लोकाधिकाच | तदिए सुरुषमाणं मट्ठदि से अट्ठसयरुक्खा ।। ६४२ ।। चतुर्गापुरका बाह्यतः प्रथमद्वितीय के शून्यं । तृतीये सुरोत्तमानां अष्टदिशासु अष्टशतवृक्षाः ॥ ६४२ ।। ५३५ १२ वेद्यश्चतुर्णोपुरयुक्ताः बाह्यवेद्या घारम्य प्रथमद्वितीयान्तराले शूम्ये तृतीयेन्तराले सुचनानामशतवृक्षाः १०८ महसु विशासु मिलित्वा भवति ॥ ६४२ ॥ गावार्थ :- वे १२ वेदियो चार चार गोपुरों ( दरवाजों ) से युक्त हैं । बाह्य वैदिका की ओर से प्रारम्भ करके प्रथम और द्वितीय अन्तराल में शून्य अर्थात् परिवार वृवादि कुछ नहीं हैं। तीसरे अन्तराळ को आठों दिशाओं में उत्कृष्ट पक्षदेवों के १०८ वृक्ष है ।। ६४२ ।। तुरिए पूव्वदिसाए देवीणं चारि पंचमे दु घणं । बावी उरसादी हवे गयणं ।। ६४३ ॥ तुर्ये पूर्वदिशि देवीनां चत्वारा पचमे तु वनं । वाप्यः वृत्तचतुरस्रादयः पठे भवेत् गगनं ॥ ६४३ ।। सुरिए । चतुर्थात पूर्वविशि देवीनां घरवारो वृक्षाः पञ्चमे त्वन्तराले वनं तत्र तचतुरस्राचा वाध्यवच सति । पष्ठेऽसराले शून्यं भवेत् ॥ ६४३ ॥ गाथा :- चौथे अन्तराल में पूर्व दिशा में पक्षी देवाङ्गनाओं के चार जम्बू वृक्ष हैं। पाँचवें अन्तराल में वन है और उन वनों में चौकोर और गोल आकारवाली बावड़ियाँ है। छठे अन्तराल में किसी तरह की रचना नहीं है, वहीं शून्य है ॥ ६४३ ॥ चउदिसमोलसहृदयं तपुरकखे सचमम्हि ममगे । ईमाणुचरवादे चदुस्सहस्सं समाणाणं ।। ६४४ || चतुर्दिक्षु षोडशसहस्र' लनुरक्षाणां सप्तमे अनुमके | ऐशान्युत्तरवातासु चतुःसहस्र समानानाम् ॥ ६४४ ॥ चर । सप्तमान्तराले चतुदिक्षु मिलित्वा षोडशसहस्राणि १६००० मङ्गरक्षकारण वृक्षाः अष्टमेरा ऐशान्यामुत्तरस्यां वायव्यां च विशि चतुः सहस्राणि सामानिकानां वृक्षाः ॥ ६४४ ॥ गाय :- सातवें अस्तराल की चारों दिशाओं में { प्रत्येक दिशा में चार चार हजार ) सोलह हजार वृक्ष धनुरक्षकों के हैं तथा आठवें अन्तराल में ईशान, उत्तर और वायव्य दिशापों में सामानिक देवों के चार हजार वृक्ष हैं ।। ६४४ ।। विशेषाणं :- सातवें अन्तराल में चारों दिशाओं के मिलाकर कुल सोलह हजार वृक्ष उन्हीं उपर्युक्त यक्षों के अङ्गरक्षक देवों के वृक्ष हैं। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ पिलोकसार भाषा: E४५- णवमतिए जलणजमे गेरिदि मन्मंतरतिपरिसाणं । बत्तीस ताल मदालसहस्सा पायवा कमसो ॥ ६४५ ॥ नवमत्रये ज्वलनयाम्ययो! नैऋत्यां अभ्यन्तरत्रिपरिषदी। द्वात्रिंशत् चत्वारिंशत् अष्टचत्वारिंशत् सहस्राणि पादपाः क्रमशः ।।६४५॥ पवम । नक्षमे वशमे एकादशे पाराले यथासंख्य पाग्नेय्या याम्या नेत्या विशि पभ्यन्तराविपरिषस्त्रयाणा द्वात्रिंशत्सहस्राणि चत्वारिंशत्सहस्राणि मनुषत्वारिंशत् सहस्राणि च पादपाः कमशो भवन्ति ।। ६४५ ॥ गाथार्य:-नवमत्रये अर्थात् नौवें, बसवें और ग्यारहवं अन्तराल में आग्नेय, दक्षिण और नैऋत्य दिशामों में अभ्यन्तर, मध्यम और थाह पारिषद देवों के कमयाः बत्तीस हजार, चालीस हजार और अड़तालीस हजार जम्बूवृक्ष हैं ॥ ४५ ॥ विशेषा:-नवम अन्तराल की आग्नेय दिशा में अभ्यन्तर पारिषद देवों के ३२००० वृक्ष, दसवें अन्तराल की दक्षिण दिशा में मध्यम पारिषद देवों के चालीस हजार वृक्ष और ग्यारहवे अन्तराल की वायव्य दिशा में बाय पारिषद देवों के ४८... जम्बूवृक्ष हैं। सेणामहचराणं चारसमे पच्छिमम्हि सचेव । मुक्खजुदा परिवारा पउमादो पंचयज्झहिया ||६४६ ।। सेनामहत्तराणां द्वादशे पश्चिमायां सप्त। मुख्ययुताः परिवाराः पद्मभ्यः पनाम्यधिकाः ।। ६४६ ।। सेसा । द्वादशेऽन्तराले पश्चिमायाँ विशि सेनामहत्तराणां सप्तव वृक्षाः मुख्यवक्षायुताः सर्षे परिवारपक्षाः पद्यारसि स्थितपणेभ्यः पञ्चाधिका:' स्युः। शान्तरालस्था: स्वारो वेवीक्षा: मुख्य एवृक्षः इत्येतरम्पषिकस्मात १४०१२० । ६४६ ॥ गाथा:-बारहवे अन्त साल की पश्चिम दिशा में सेना महत्तरों के सात वृक्ष हैं। एक मुख्य वृक्ष सहित सर्व परिवार वृक्षों का प्रमाण पद्म के परिवार पदों के प्रमाण से पांच अधिक है ॥ ६४६ ॥ विशेषा:-बारहवें अन्तराल में पश्चिम दिशा में सेना महत्तरों के सात ही जम्बू- वृक्ष हैं। इस प्रकार एक मुख्य जम्बू वृक्ष मे युक्त सम्पूर्ण परिवार जम्बूवृक्षों का प्रमाण पछद्रह में स्थित श्रीदेवी के पद्म परिवारों के प्रमाण से पाच अधिक है। यहाँ चौथे अन्तराल में चार अग्रदेवांगनाओं के चार और एक मुरूप जम्बू वृक्ष इस प्रकार पांच अधिक है। इस प्रकार १+१०++१६००० + ४०..+ . पक्षाधिकाः (ब.,प.)। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शया । ६४७-६४६-६४६ नर लिये ग्लोकाधिकार ६१७ ३२०००+४****+ ४५०००+७० १४० १२० अर्थात् सम्पूर्ण जम्बूवृक्षों का प्रमाण एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस है । दलगाढवासमरगय जोयणदुगतुंग सुत्थिरवधो । पीठिय उवरिं लंबू चजदलवासदीह चउसाहा ।। ६४७ ।। दलगाडव्यास मरकतः योजनद्विकलुङ्गः सुस्थिरस्कन्धः । पीठादुपरि जम्बू वज्रदलान्यास दीर्घाः चतुःशाखाः ॥ ६४७ ॥ बल । प्रयोजनगाथरसद्वघासो मरकतमयः पीठादुपरि योजनयोङ्गः सुरपरकम्पो जम्बूवलोsसि | स्कन्धादुपरि वस्त्रमय्यो थंयोजनव्यासा प्रयोजनवोचितस्रः शाखा सन्ति ॥ ६४७ ॥ गाथार्थ :- अघंयोजन गहरी और एक कोश चौड़ी जब से युक्त तथा पीठ से दो योजन ऊंचे मरकतमणिमय, सुदृढ़ स्कन्ध से सहित जम्बूवृक्ष है । अपने सकन्ध से ऊपर वज्रमय अर्ष योजन चौड़ी और आठ योजन लम्बी उसकी चार शाखाएं हैं ।। ६४७ ।। विशेषार्थ :- पीठ के बहुमध्य भाग में पाद पीठ सहित मुख्य जम्बूवृक्ष है जिसका मरकत मणिमय सुदृढ़ स्कन्ध पीठ से दो योजन ऊंचा, एक कोस चौदा प्रोर अर्थ योजन अवगाह ( नींव ) अहि है। सपने ऊपर अर्थ योजन चौड़ी और आठ योजन लम्बी उसकी चार शाखाएं है । जाणार सादा पवालसुमणा सुटिंगसरिफला 1 पुडविमया दतुंगा मज्मेरो बच्चदुव्वासा || ६४८ ॥ नानारत्नोपशाखा प्रवालसुमनाः मृदङ्गसदृश कलः । पृथ्वीमयः दशतुङ्गः मध्ये षट्चतुर्व्यासः । ६४८ ॥ राणा । स च वृक्षो नानारत्ममयोपशाखः प्रबालवसुमनाः मृबङ्गसशफलः पृथ्वीमयः वयोजनतुङ्गो मध्ये पथासंख्यं वद् ६ चतु ४ योजनव्यासः स्यात् ॥ ६४८ गाथार्थ :- वह जम्बूवृक्ष नाना प्रकार की रत्नमयी उपशाखाओंों से युक्त, प्रवाल (मूंगा) सहा वर्ण वाले पुष्प और मृदङ्ग सदय फल मे संयुक्त पृथ्वीकायमय है ( वनस्पति काय नहीं ) उसकी सम्पूर्ण ऊंचाई इस योजन है। मध्य भाग की इसकी चौड़ाई ६ योजन और अन भाग की चौड़ाई चाथ योजन प्रमाण है ।। ६४८ ॥ ६८ उत्तरकुलगिरिसा जिणो सेससादतिदयम् | मादर अणादराणां अक्खकुलुत्थाणमादासा ।। ६४९ ।। उत्तरकुरु गिरिशाखायां जिनगेहः शेषशारात्रिमे । आदरानादरयोः यक्षकुलोत्थयोरावासाः ॥ ६४९ ॥ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ त्रिलोकसा पाथा : ६५०-६१ उसर । तस्य जम्बूवृक्षस्योत्तरकुलगिरिविभागस्यशाखायो जिनगेहोऽस्ति । शेषे शाखाये यक्षकुलोभवयोः पावरानावरयोरावासाः सन्ति ॥ ६४६ ॥ गाया :- उस जम्यूवृक्ष की जो शाखा उत्तर कुरुगत नील कुलाचल को और गई है, बस पर जिनमन्दिर है । अवशेष तोन शाखाओं पर यम कुलोत्पन्न आदर अनादर नामक देवों के आवास अथ परिवारवृक्षाणां प्रमाग तेषां सस्वामिकत्वं चाह जंबूतरुदलमाणा जंबुरुक्खम्स कहिदपरिवारा । आदरअणादाण परिवारावासभूदा ते ॥ ६५० ॥ जम्बूतरुदल माना जम्बूवृक्षस्य कथितपरिवाराः । आदरानादरयोः परिवारावासभूतास्ते ।। ६५० ।। जंबू । अचूक्षपरिवारा अम्बूवृक्षप्रमाणाप्रमारणा से चादरानावरयो। परिवारावासभूताः ॥ ६५०॥ परिवारवृक्षों का प्रमाण और उनका स्वामित्व कहते हैं गाथा:-जम्बूवृक्ष का जो प्रमाण कहा गया है, उसका अर्धप्रमाण परिवारजम्बूवृक्षों का कहा गया है। ये सभी परिवारजम्बू वृक्ष आदर अनादर देवों के परिवारों के आवास स्वरूप हैं ।। ६५० ।। विशेषार्ष:-परिवार जम्बूवृक्षों का प्रमाण मुख्य जम्बूवृक्ष के प्रमाण का आधा है तथा परिवार जम्बूवृक्षों की जो शाखाएं हैं उग पर आदर अनादर यक्ष परिवारों के आवास बने श्रय शाल्मलीवृक्षस्वरूपं पाथादयेनाह सीतोदावरतीरे णिसहसमीवे सुरदिणेरिदिए । देवकुरुम्हि मणोहररुप्पयले सामली सपरिवारो ॥६५१॥ सीतोदापरतीरे निषधसमीपे मुरादिनैऋत्यां। देवकुरो मनोहररूप्यस्थले शाल्मली सपरिवारः ॥ ६५१ ॥ होतोया। सोतवापरतीरे निषधसमीपे सुराने नया विशि देवकुरुक्षेत्रे मनोहररुप्यस्थले सपरिवारः शाल्मलीवुमोरित । १४०१२० ॥ ६५३ ॥ दो गाथाओं में शाल्मली वृक्ष का स्वरूप कहते हैंगाचार्य:--सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर, निषधकुलाचल के समीप, सुदर्शन मेरु की नैऋत्य Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा : १५२-६५३ नरलियंग्लोकाधिकार ५५६ दिशागत देवकुरुक्षेत्र में शाल्मली वृक्ष की मनोहारिणी रूप्यमयी स्थली है। वहाँ अपने १४०१२० परिवार शाल्मली वृक्षों सहित मुख्य शाल्मली वृक्ष है ।। ६५ ।। जंघुसमवण्णणो सो दक्खिणसाइम्हि जिणगिह सेसे । दिससाहतिए गरुहवइवेणूवेणादिधारिगिहं ।। ६५२ ।। जम्बुसमवर्णनः स दक्षिणशाखाया जिनगृह शेषे । दिशाशाखात्रये परसपत्तिवेणुवेग्वादिधारिगृहम् ।। ६५२ ॥ जंबू । पनी जम्बू समवर्णनः तस्य दक्षिणशाखायां जिनगृहमस्ति । शेषे विगतशाखाये गहापरयोर्वेणुवेणुषारिणोः गृहाणि संति ।। ६५२ ।। गाषा: शाल्मली वृक्ष का वर्णन भी जम्बूरसदृश ही है । शाल्मली को दक्षिण शाखा पर जिन भवन और शेष तीन शाखाओं पर गरुडकुमारों के स्वामी वेणु और वेणुपारी देवों के भवन हैं ।। ६५२ ॥ विशेषापं:-जम्बूवृक्ष मौर शाल्मली वक्ष का वर्णन एक सा ही है। विशेषता इतनी ही है कि शाल्मली की दक्षिण शाखा पर जिनमन्दिर है और शेष तीन शाखामों पर गरुडपति वेणु और वेणुधारी देवों के आवास हैं तथा शाल्मली वृक्ष के परिवारवृक्षों पर वेणु और वेणुधारी देवों के परिवारों के आवास है। अथ भोगभूमिकममुम्योविभागमाह कृरुयो हरिरम्मगभू हेमवदेरण्णवदखिदी फमसो । भोगधरा वरमझिमवराय कम्मावणी सेसा ।। ६५३ ॥ कुरू हरिरम्यकभुवो हैमवतरण्यवतक्षिती क्रमशः । भोगधराः वरमध्यमावराः कविनयः शेषाः ॥ ६५३ ॥ कुश्मो। देवकुहत्तरकुरक्षेत्र में उत्तमभोगभूमी हरिरम्पकक्षेत्र मध्यमभोगमूमी, हेमवतहरण्यवत क्षेत्रे जघन्यभोगभूमी स्याता। शेषाः सर्गः कर्मभूमयः ॥६५३ ।। नापाम:-देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र में उत्तमभोग भूमि है, हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि है तथा हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि है, इस प्रकार को उसम भोगभूमिया दो मध्यम और दो जघन्य इस प्रकार कुल छह भोगभूमियाँ हैं । घोष बचे सभी क्षेत्रों में कर्मभूमिया है अर्थात् ५ भरत ५ ऐरावत और ५ विदेह-कुल १५ कर्मभूमिया है। अथ यमकगिरे: स्वरूप गाथादयेनाह Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाश।६५४-१४ गीलणिसहादु गता सहस्समुमय तडे वरणईणे । दुगदुगसेला पुष्वो चिचो अवरो विनिसक्यो ।।६५४।। जमगो मेघो वडा पंचसयंतरठिया तदुदयधरा । वदर्ण सहस्समद्धं मिरिमामसुर, दसति गनिमूड ।। ६५ ।। नीलनिषधतो गत्वा सहनमुभये तटे बरनद्योः । द्विकद्विकशैली पूर्व: चित्र: अपर: विचित्राख्यः ॥ ६५४ ।। यमकः मेघः वृत्ताः पञ्चशतान्तरस्थिताः तदुदयधरा। वदनं सहस्रमधं गिरिनामसुरा वसन्ति गिरिकूटे ।। ६५५ ।। गील । नौलनिषषाम्पो पुरस्तात सहस्रयोजनं गत्वा परनयोः सोतासोतोक्योदमयतवे तो दो शैली भवतः । तयोर्मध्ये पूर्वतमगतश्चित्रोऽपरतटगतो विचित्राख्यः ॥ ६५४ ॥ नमगो। यमको मेघश्च सपा ते चत्वारो प्रताः। तत्र चित्रविचित्रयोर्यमकामेधयोश्चान्सर पञ्चश्तयोजनानि, तेषां चतुर्णामुदयभूमुखप्यासा यथासंध्यं सहन १... सहन १०.० तदर्घ ५.. योजनानि । तेषु गिरिफूटेषु तगिरिनामसुरा वन्ति ।। ६५५ ।। यमक गिरि का स्वरूप दो गाथाओं में कहते है नापार्य :-निषष और नील कुलाचलों से ( मेह की ओर ) हजार योजन आगे जाकर उस्कृष्ट सीता और सीतोदा नदी के दोनों तटों पर दो दो पर्वत है। उनमें से सीता के पूर्व तट पर चित्र बोर पश्चिम तट पर विचित्र नाम के तथा सीतोदा के पूर्व तट पर यमक और पश्चिम तट पर मेघ नाम पर्वत हैं। ये चारों पर्वत गोल हैं और पांच पांच सौ पोजन के अन्तराल से स्थित है। इन पर्वतों की ऊंचाई, भूव्यास और मुख व्यास कम से एक हजार, एक हजार और पांच सौ योजन है। इन गिरिकूटों पर पर्वत सदृश नाम वाले ही देव रहते हैं ।। ६५४, ६५५ ।। विशेषाय':-नील और निषध कुलाचलों से मेरु पर्वत की ओर १००० योजन आगे जाकर उत्कृष्ट सोता और सोतोदा नदियों के दोनों तटों पर दो दो पर्वत हैं। इनमें से सीता नदी के पूर्व तट पर चित्र और परिचम तट पर विचित्र नामक पर्वन हैं । इन दोनों पर्वतों के बीच ५०० योजन का अन्तराल है। इसी अन्तराल में ५.० योजन विस्तार वाली सीता नदी है। सीतोदा नदी के पूर्वतट पर • यमक और पश्चिम तट पर मेघ नाम के पर्वत हैं। इन दोनों में भी ५.० योजन का अन्तराल है बोर अन्तराल में ५०० योजन विस्तार वाली सीतोदा नदो है। ये चारों यमगिरि गोल हैं। इन चारों की ऊंचाई १००० योजन, भूव्यास अर्थात् जमीन पर इनको चौड़ाई १००० योजन और ऊपर की चौड़ाई ४०० योजन प्रमाण है। इन गिरि कूटों पर अपने अपने पर्वत के नाम वाले अर्थाच चित्र, विचित्र यमक और मेघ नाम के चार देव चारों कूटों पर क्रम स निवास करते हैं। Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए । ६५६-६५.७ मरतिर्यक्लोकाधिका जय मेरोः पूर्वापरदक्षिणोत्तरदिक्षु स्थितानां हृदानां प्रमाणमेकैकस्य हृदस्य तीरद्वयस्थितानां शैलानां संख्यां च तदुत्सेधेन सह गाथाचतुष्टयेनाह - गमिय तदो पंचसयं पंचसरा पंचसयमिदंतरिया । कुरुमद्दसालमज्झे अणुणदिदीहा हु पउमदद्दसारसा || ६५६ || गत्वा तत पशतं पच सरांसि शतमिलान्वरिताः । ५४१ कुरु भद्रशाळमध्ये अनुन दिदीर्घारिण हि पद्म हदसदृशानि ॥ ६५६ ॥ I गयि । यमकगिरिम्यां पञ्चशतयोजनानि ५०० गत्वा कुरुक्षेत्रयोः पूर्वापर भद्रसालयोश्च मध्ये पंचशतयोजनान्तराणि पञ्च पञ्च सति । धनुन दिवयोग्यदीर्घाण पायामकमलाविना पद्मवसहशानि संति ॥ ६५६ ।। मेरु पर्वत की पूर्व पश्चिम, दक्षिण और उत्तर इन चारों दिशाओं में स्थित द्रहों का प्रमाण तथा एक एक हद के दोनों तटों पर स्थित काखनशैलों को संख्या तथा उत्सेध चार गाथाओं द्वारा कहते हैं: गाथायें :- यमक गिरि से पांच सौ योजन आगे जाकर कुरु और भद्रशाल क्षेत्रों में पांच पांच द्रह हैं। जिनमें प्रत्येक के बीच पांच पांच सौ योजन का अखराल है। ये द्रह नदी के अनुसार यथायोग्य दोघं हैं तथा इनमें रहने वाले कमल आदि का आयाम पद्मद के सदृश है ।। ६५६ ।। विशेषार्थ :- यमकगिरि पर्वतों से पांच सौ योजन आगे जाकर सोता और सोतोदा नदी में देव कुरु, उत्तर कुरु पूर्व भद्रवाल और पश्चिम भद्रशाल इन चार क्षेत्रों के मध्य पाँच पाँच अर्थात् २० द्र हैं। ये द्र नदी के अनुसार यथायोग्य दीर्घं हैं । अर्थात् ये द्रह् सीता सीतोदा नदी के बीच बीच में हैं, अतः नदी की जहाँ जितनी चौड़ाई है, उतनी ही चौड़ाई का प्रमाण द्रहों का है। इन ग्रहों की लम्बाई पद्मद के सदृश १००० योजन प्रमाण है। जिस प्रकार पद्म दह में कमलादिक को रचना है उसी प्रकार इन ग्रहों में भी है। नोट :- उपयुक्त गाथा में सीता, सोतोदा सम्बन्धी देवकुरु, उत्तर कुछ, पूर्व भद्रशाल और पश्चिम भद्रशाछ में ५, ५ अर्थात् २० वह बतलाये गये हैं, किन्तु गाथा ६५७ में मात्र १० द्रहों के ही नाम गिनाये है, बीस के नहीं । अन्य मात्रायें ( विलोयपम्पत्ति एवं लोक विभाग आदि में ) ने कुछ दश ही वह माने हैं, २० नहीं माने। नीलुचरकुरुचंदा एरावदमवंतणिसहा य | देवरसाविज्जू सीददुगदहणामा || ६५७ ॥ नीलोत्तरकुरुचन्द्रा ऐरावत माल्यवन्तो निषेधश्च । देव कुरुसूरसुलसविद्युतः सीताद्विक हदनामानि ॥ ६५७ ॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ त्रिलोकसार बापा । ६५८-६५६ गोलु । मीलोत्तरकुलवन्त रानतम्या दाना: पान निषषदेवकुबसूरसुलसविद्युत: स्येता: पञ्च सोतासोतोक्योः हदनामानि ।। ६५७॥ पापा :-नील, उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावत और माल्यवन्त ये पांच द्रह सीता नदी के हैं तथा निषष, देवकुरु, सूर, सुलस और विद्य त थे पाच सोतोदा नदी के द्रहों के नाम हैं। पइणिम्गम्मदारजुदा ने तत्परिवारवण्णणं चेसि । पउमञ्च कमलगेहे गागकुमारीउ णिवसंति ।। ६५८ ॥ नदीनिगमद्वारयुतानि तानि तपरिवारवर्णनं चैषां। पद्यमिव कमलगेहेषु नागकुमार्यो निवसन्ति ॥ ५८ ।। रगा। तानि सरासि नदोप्रवेशनिगमद्वारयुतानि । एतेषां तस्परिवारवर्णनं च पसर व तपकमलोपरिमगृहेषु सपरिवारा; मागकुमार्यो निवसन्ति ॥ ६५८ ॥ गाचार्य :-ये सभी सरोवर नदी के प्रवेश एवं निगम द्वारों से सहित है तथा इन सरोवरों के परिवार आदि कमलों का वर्णन पद्मदह के सदृश ही है किन्तु सरोवर स्थित कमलों के गृहों में नागकुमारी देवियाँ निवास करती हैं ॥ ६५८ ॥ विशेषाय :-दोनों नदियों के प्रवाह के बीच में सरोवर हैं और इन सरोवों की बेदिकाएं हैं, जो नदी के प्रवेश और निगम द्वारों से युक्त हैं। इन सरोवरों के परिवार कमलों का वर्णन पद्मद्रह के परिवार कमलों के सदृश ही है। विशेषता केवल इतनी है कि इन कमलों पर स्थित ग्रहों में नागकुमारी देवियाँ सपरिवार निवास करती हैं। दुतडे पण पण कंचणसेला सयसयतदद्धसुदयतियं । ते दहमुहा यक्खा सुरा वसंतीह सुगवण्णा || ६५९ ।। द्वितटे पञ्च पश्न काश्चनशैलाः शतशततदर्घमुदयत्रयम् । ते ह्रदमुखा नगात्या। सुरा वसन्ति रह शुकवर्णाः ॥ ६५ ।। चुतडे । तेषां सरसां सिटे पञ्च पञ्च कामचनलाः तेषामुक्यम्मुलग्याता यथासंघपं शत १०० शत १० पञ्चाश ५० योजनानि च शैला हवसम्मुखाः । कपमेतत् । तदुपरिस्यनगरद्वाराणा हवाभिमुसस्यात् । शुक्रबस्तित्तनगाल्या! सुरास्तेषामुपरि वसन्ति ॥ ६५९ ॥ माया:-उन सरोवरों के दोनों तटों पर पाच पाँच काञ्चन पर्वत है जिनका उदय, भूव्यास और प्रसन्यास क्रमशः सौ योजन, सौ योजन और पचास योजन प्रमाण है । ये सभी पर्वत हृदाभिमुख अर्थात् ह्रदों के सम्मुख हैं। इन पर्वतों के शिखरों पर पर्वत सहश नाम एवं शुकसदृश कान्तिवाले देव निवास करते हैं।। ६५६ ।। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरतियग्लोकाधिकार २४५ विशेषार्म 1- प्रत्येक द्रह के दोनों ( पूर्व, पश्चिम ) तटों पर पंक्ति रूप से पांच पांध काञ्चन पर्वत हैं जिनकी ऊंचाई १०० योजन, भू व्यास अर्थात् जमीन पर पर्वतों की चौड़ाई १०० योजन और मुख व्यास अर्थात् शिखर पर ५० योजन चौड़ाई है। ये सभी पर्वत अपने अपने हों के सम्मुख हैं। प्रश्न-पर्वतों में सम्मुखपना कैसे सम्भव हो सकता है ? उत्तर :-कानन शेलों के ऊपर जो देवों के नगर हैं. उनके द्वार सरोवरों की ओर होने से पर्वतों को हदसम्मुख कहा गया है। इन पदेवों पर स्वपर्वत नाम पारी शुक सदृश वर्ण-कान्ति के पारक देव निवास करते हैं। अथ तत तपरि नदीगमनस्वरूपमाह दहदो गंतूणग्गे सहस्सदुगणउदिदोणि वे च कला । णदिदारजुदा बेदी दक्षिणउत्तरगमद्दसालस्स ।। ६६० ॥ ह्रदतः गत्वाग्रे सहस्रद्विकनवतिदि च फले। नदीद्वारयुता बेदी दक्षिणोत्तरगमदशालस्य ॥६६॥ रहयो। हरेभ्यः पने सहनदिकनतिनियोजनामि २०१२ योजनेकोनविशतिभागरिकलाधिकाति भगवा नबोद्वारयुता दक्षिणोत्तरभद्रशालस्य देवो सिति । प्राक्तनाङ्गवासना। दक्षिणो २५० तरभाशाल २५० सहितमन्वर १००.० न्मासं १०५.. विवेहव्यासे १३६४ स्फेटपिरता २३१८४ पर्षीकृत्य ११५६२एतस्मिन् चित्रगिरिकुलगिर्योरन्तरं १००. चित्रनगण्यासं १.०० चित्रनगढ़बरं ५.. पश्चहदायाम ५... लेवामन्तरं च २०.. एतत्सर्वमेकीकृस्य ६५, पपीते परमलवभाशालवेक्षिकयोरमतर २०६२३ मायाति ॥ ६६ ॥ अब द्रहों से आगे नदी के गमन का स्वरूप कहते है___गापा:-द्रहों से आगे दो हजार बानवे योजन और दो कला जाकर नदी द्वारसे संयुक्त दक्षिण-उत्तर भद्रशाल वन की वेदी अवस्थित है ।। ६६० ॥ विशेषापं:-हृद से आगे २०१२ योजन जाकर नदी द्वार से संयुक्त दक्षिण उत्तर भद्रशाल वन को वेदी अवस्थित है । इसकी अङ्कु वासना यथा-भद्रशाल बन दक्षिण दिशा में २५० योजन और उत्तर दिशा में भी २५० योजन चौड़ा है। भूमि पर सुदर्शन मेव की चौड़ाई १०.०० योजन है इन तीनों के योग ( १....+ २५०+ २५० ). १.५०. योजनों को विदेह व्यास ( ३३६८४ा योजन) में से घटा कर अवशेष का आधा करने पर ( ३३६८४.--१.५०० )- ११५९२१ योजन प्राप्त हुए। सीता-सीतोदा दोनों नदियों के पूर्व पश्चिम तटों पर चित्रादि चार पर्वत हैं। चित्र और विचित्र पर्वत के बीच ५०० योजन का तथा यमक और मेघ के बीच ५०० योजन का अन्तराल है। चित्रादि यमक गिरि का भू व्यास १००० योजन है। चित्र पर्वत से सरोबर का अन्तर ५०० योजन है एक द्रह Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा : ६६१-६६१ की लम्बाई एक हजार योजन की है, अतः पाच द्रहों की लम्बाई ५००० योजन हुई । एक द्रह से दूसरे द्रह का अन्तराल ५.० योजन है, अतः पांच द्रहों के चार अन्तरालों का योग २००० योजन हुआ। इन सबके योग । ५.+५.०+१०००+५ +५०.०+२.०० ) ९५.. मोजनों को पूर्वोक्त ११५९२३. योजनों में से घटा देने पर (१५६२२-९५०.)=२.९२२ योजन अवशेष रहे। यही अन्तिमद्रह और भद्रशाल की वेदी के बीच का अन्तराल है। इसीलिए गाथा में कहा गया है कि द्रह से २०६२ योजन आगे जाकर मद्रशाल की वेदी अवस्थित है। अथ दिग्गजपर्वतानां स्वरूपं गायादयेनाह कुरुभद्दसालमज्मे महाणदीणं च दोसु पासेसु । दो हो दिसागइंदा सयतत्रियतद्दलुदयतिया ॥६६१|| कुरुभद्रशालमध्ये महानयोश्च यो। पाश्र्वयोः। द्वौ दो दिशागजेन्द्रो शततावतलमुदयत्रयाणि ॥६६१।। कुरु । कुरुक्षेत्रमनशालयोः पूर्वापरभावालयोषच मध्ये महानयोरुमपपाश्र्वयो द्वौ विग्गजेन्द्रपर्वतो तिष्ठत: सेवामहदिग्गजपतानामुबयम्मुखम्पासा पथासंभयं शत प. शत ... पधाश . योजनानि स्पुः ।। ६६१ ॥ दो पाथाओं द्वारा दिग्गज पर्वतों का स्वरूप कहते हैं : गापार्य :-कुरु अर्थात् देवकुरु और उत्तर कुरु क्षेत्र में तथा पूर्व-पश्चिम भद्रशाल वनों के मध्य में महानदी सीता और सोतोदा के दोनों पाश्वं भार्यो { तटों) पर दो दो दिमाजेन्द्र पर्वत है। इनका उदय, भूश्यास और मुसण्यास ये तीनों कम से १. योजन, सौ योजन और सबल प्रति ५० योजन है ।। ६६ ।। विशेषार्थ :-देवकुरु, उत्तरकुरु इन दो भोगभूमियों में तथा पूर्व भद्रशाल और पश्चिम भद्रशाल वन के मध्य में महानदी सीता और सीतोदा के दोनों तटों पर दो दो दिग्गजेन्द्र पर्वत स्थित हैं । इन आठ दिमाज पर्वतों का उदय ( ऊंचाई ) १०० योजन, भूमि पर पवंतों की चौड़ाई १०० योजन और मुख मर्थात् शिखर पर • योजन चौड़ाई है। तण्णामा पुब्बादी पउमुत्तरणीलमोत्थियंबणया । कुमुदपलासबसयरोचणमिव दिग्गजिंदसुरा ॥६६२॥ तनामानि पदिः पयोत्तरनीलस्वस्तिकासनकाः । कुमुदपलाशावतंसरोवतमिहदिग्गजेन्द्रसुराः ॥ ६६२ ॥ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा : ६६३-६६४ नरतियं ग्लोकाधिका IYA तररणामा । पूर्वाचिद्विशः प्रारभ्य पद्मोसरमोलर स्तिका जन कुमुदवलाशावर्त सरोयन मिति तेथ नामानि । इह बिगजेन्द्रसुरास्तिद्वन्ति ॥ १६२ गाथा : पूर्वादि दिशाओं में उनके नाम क्रम से पद्मोत्तर, नील, स्वस्तिक अञ्जन, कुमुद, पलाश और रोच है। एवंतों के ऊपर दिनाजेन्द्र देव रहते हैं ।। ६६२ ।। विशेषार्थ :- सुदर्शन मेरु पर्वत की पूर्व दिशा में मद्रशाल वन है वहाँ से बहने वाली सीता नदी के उत्तर तट पर पद्मोत्तर और दक्षिण तट पर नीलवान् नाम के पर्वत हैं। इसी सुमेरु को दक्षिण दिशा में देव कुछ भोग भूमि की व्यवस्थिति है, इसके मध्य सीतोदा नदी के पूर्व तट पर स्वस्तिक और पश्चिम तट पर अञ्चन नाम के पर्वत है। सुमेरु की पश्चिम दिशा में जो भद्रशाल वन है, उसके मध्य सीतोदा नदी के दक्षिण तट पर कुमुद और उत्तर तट पर पलाश पर्वत है तथा मेरु की उत्तर दिशा स्थित उत्तर कुछ भोगभूमि के मध्य सीता नदी के पश्चिम तट पर अवतंश और पूर्व तट पर रोचन नाम के पर्वत हैं। इन आठों पर्वतों पर दिग्गजेन्द्र देव निवास करते हैं । अथ गजदन्तपर्वतानां नामादिकं गाथाद्वयेनाह मल्लव महसोमणसो विज्जुप्पह गंधमादणिभदंता । ईमाणादो वेलुरियहप्पतवणीयहेममया ।। ६६३ ।। नीलजिसके सुरहिं पुट्ठा मल्लवगुहादु सीता सा बिज्जुष्पगिरिगुहदो सीतोदाणिस्मरिच गया ।। ६६४ ॥ माल्यवान् महासौमनसः विद्य ुत्प्रभः गन्धमादन इभदन्ताः । ईशानतः वैडूर्यरूप्यतपनीय हेममयाः ॥ ६६३ ॥ नीलनिषध सुराद्विस्पृष्टाः माल्यवद्गुहायाः सीता सा । विद्य ुत्प्रभ गिरिगुहातः सोतोदा निसृत्य गता ।। ६६४ ॥ मला माल्यवान महासमनसो विद्युत्प्रभो गन्धमादन इती भवन्ताः वैडूर्यरूपमीयहेममयाः मेरीशान दिशः प्रारम्य तिन्ति ॥ ६६३ ॥ गील । ते च मलमिषधी सुराच स्पृष्टाः । तत्र माध्यवतो गुहायाः निःसृत्य सा सोता गता विद्युत्प्रभ गिरिगुहायाश्च निर्णस्य सीतोवा गता ६६४ ॥ अब दो गाथाम्रों द्वारा गजदन्त पर्वतों के नामादिक कहते हैं : —— गाथार्थ :- मेद पर्वत की ऐशान दिशा से प्रारम्भ कर चारों विदिशाओं में कम से वैडूर्य रूप्य, सपनीय और स्वणं सह वर वाले माल्यवान, महासौमनस, विद्यप्रभ और गन्धमादन नाम 品 गजदन्त पत हैं। वे गजदन्तपर्यंत सुमे६ पर्वत से नील और निषेध कुलाचल का स्पर्श करते हैं । माल्यवान् पर्वत की गुफा से सीता नदी और विद्युत्प्रभ पर्वत की गुफा से सीतोद। नदी निकल कर गई है । ६६३, ६६४ ॥ ६९. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार वाचा : ६६५-६६६ विशेषार्थ :- मेरु पर्वत के ईशान कोण में वैढूयं मणिमय माल्यवान् पर्वत है । आग्नेय कोण रूप्यमय महासौमनस, नैऋत्य में तपाये हुए स्वयं सहा वर्ण वाला विद्युत्प्रभ और वायव्य कोण में स्वर्ण सह वर्ण वाला गन्धमादन नामक गजदन्त पर्वत है। ये चारों पर्वत मेरु पर्वत से नील और निषेध कुलाचलों तक ( ३०२०९१ योजन ) लम्बे हैं । अर्थात् उन्हें स्पर्श करते हैं माल्यवान् पर्वत की गुफा मे निकलकर सीता नदी मे की अर्ध प्रदक्षिणा देती हुई गई है और विद्युत्प्रभ गजदन्त की गुफा से निकल कर सीतोदा नदी भी मेद की अप्रदक्षिणा देती हुई गई है। ५४६ इदानीं विदेहदेशानां विभागं निदर्शयति उमयं वणवे दिग मझगवेभंगण दितियाणं च । मझगवकस्वार चऊ पुब्ववर विदेश विजयखा ।। ६६५ ।। उभयान्त गवनवेदिकामध्यरात्रिभङ्गनदीत्रयाणां च । मध्यगवक्षारचतुभिः पूर्वापर विदेहविजयाधः ॥ ६६५ ॥ उभयं । उभयप्रान्तगत वन वे विकामध्य गल विभङ्गनपीत्रयाणां मध्यस्थित वक्षारपर्यंतच तुभिः पूर्वापर विदेहदेशाः कृताः । ६६५ ।। अब विदेह देश के विभाग का निरूपण करते है - गाथार्थ :- पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह क्षेत्र के सीता और सोतोदा नदी के द्वारा अर्थ अ भाग हुए हैं। इनमें से प्रत्येक भाग के दोनों प्रदेशों के वनवेदियों के मध्य में तीन तीन विभङ्गा नदी म मध्य में ही चार चार वक्षारगिरि हैं ।। ६६५ । विशेषार्थ :- मेरु पर्वतको पूर्व दिशा में पूर्वविदे और पश्चिम दिशामें पश्चिम विदेह है। पूर्व विदेहके मध्यसे सीता नदी ओर अपर विदेहके मध्यसे सोतोदा नदी बही है । इन नदियों के दक्षिण-उत्तर तटों के द्वारा चार क्षेत्र बन गये हैं इन्हीं एक एक क्षेत्र अर्थात् विभागों में बाठ आठ विदेह देश हैं । इनका विभाग दो वन वेदियों, तीन तीन विभङ्गा नदियों और चार चार वक्षार पर्वतों द्वारा हुआ है । यथा - सर्व प्रथम पूर्व व पश्चिम भद्रशाल की वेदी, उसके मागे वक्षार पर्यंत उसके आगे विभङ्गा नदी, फिर वक्षार पर्वत, फिर विभङ्गा, उसके मागे पुनः दक्षार पर्वत, उसके आगे पुनः विभङ्गा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत और उसके आगे देवारम्य व भूतारण्य वन की वेदियों हैं। ये सब मिलकर नौ हैं। इन नौ के बीच में आठ बाट विदेह देश है। इस प्रकार चार विभागों के कुल मिलाकर ३२ विदेह देश होते हैं । अथ वाक्षराणां विभंगनदीनां च नामादिक गाथाषट् केनाह- तण्णामासीदुचरतीरादो पढमो पदक्खिनदो | चेचादिकूडपमादिमकूडा णलिण एगसेलगगो || ६६६॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ६६६ से ६४० नरतिमेग्लोकाधिकाৰ EYU गाहद कम दिदी तिकूडसवणअंजणप्पादि । व्यंजणगो तचजला मत्चजलुम्मचजल सिंधू ।। ६६७ ।। सङ्घावं जावं सीबिय सुहवहा य बकखारा | खारोदा सीतोदा सोदोवाहिणि नदी मज्मे ।। ६६८ ॥ तो चंद्रसूरणागादिममाला देवमाल बक्खारा | गंभीरमालिनी फेणमालिनी उम्मिमालिनी सरिदा || ६६९|| हेममया वक्खारा बेभंगा रोहिसरिसवण्णणमा । तासि पसतोरणगेहूं णिवसंति दिक्कण्णा ।। ६७० ।। तन्नामानि सीतोत्तरतीशत् प्रथमतः प्रदक्षिणतः । चित्रादिकूट पद्मादिमकूटी नलिनः एकशैलकगः ॥ ६६६ ॥ गाद्रवतीना: त्रिकूट वैश्रवणाञ्जनात्मादिः । अञ्जनकाः समजला मत्तला उन्मत्त ला सिन्धुः ॥ ६६७ ।। श्रद्धावान् विजटावान् आशीविषः सुखावहश्च वक्षाराः । क्षारोदा सोतोदा भोतोवाहिनी नद्यः मध्ये || ६६८ ॥ ततः चन्द्रसूर्य नागादिममालदेवमालाः वक्षाराः । गम्भीरमालिनी फेनमालिनी ऊर्मिमालिनी सरितः ।। ६६९ ।। हेममया वक्षाराः विभङ्गा रोहितसदृशव निकाः । तासां प्रवेशतीरणगेहे निवसन्ति दिक्कन्याः ॥ ६७० ॥ तण्यामा सीतामद्युत्तरतीरं प्रथमं कृत्वा प्रदक्षिणतस्तेषां बाराणां विभङ्गनवीन व नामान्याह । प्रम चित्रकूट पद्मकूटन लिकलारूपाश्चत्वारो नापताः ॥ ६६६ ।। गाह | गाववती तो पदश्यापारितको विमङ्गनद्यः । त्रिकूट वरणञ्जनात्माञ्जनापाश्चत्वारः सीता दक्षिण विकस्यवक्षार पर्वताः । सप्तजलास जलोम्म सजलेति सिनः सत्रस्थनद्यः ॥६७॥ सहावं । श्रद्धावान् विजटावान प्राशीविषः सुखावहश्चेति जवारोऽपरचिदेहसोलोवाक्षिणविकस्यवक्षारा: भारीवासीतोवा स्रोतोवाहिनी चेति तिम्रो नथो वक्षारामध्ये संति ॥ ६६८ तो । ततश्चन्द्रमसः सूर्यमालो नागमालो देवमाल इति परवारोऽप र विदेहसीलोबोरविस्ववक्षाः । गम्भीरमालिनी फेनमालिनी ऊर्मिमालिनोलि तिस्तत्रस्थसरितः ॥ ६६६ ॥ 1 हेम । ते वक्षारा: हेममया विभङ्गनद्यो रोहितसदृशव निकाः । यथा रोहिनिमावी व्यासावयस्तयात्रापि । नवनिर्गम प्रवेशव्यास १२५ । परिवारनद्यः २८००० निर्णमे प्रवेशे च तोरोत्से १८ | १८७३ ज्ञातव्यः । तासां निर्गमप्रवेशतोरणोपरिमगेहे विषकन्या निवसति ||६७०॥ क्षार पर्वतों और विभंगा नदियों के नामादिक छह गाथाओं द्वारा कहते है Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४५ त्रिलोकसा पापा : ६६६ से ६७० गायार्थ :-सीता नदी के उत्तर तट से प्रारम्भ कर प्रदक्षिणा रूप से चार वक्षार पर्वतों के नाम पित्रकुट, पद्य कट, नलिन और एकशैल हैं। तथा गायक्ती, द्रवती और पद्बती नाम की तीन विभंगा नदियां हैं। सीता नदी के दक्षिण तट को आदि करके क्रम से विकूट, वैश्रवण, अनात्मा और अग्लन नामक चार वक्षार पर्वत और तप्तजला, मत्तजला एवं उन्मत्तजला नामकी तीन विभंगा नदियाँ हैं। । पश्चिम विदेह में सीतोदा के दक्षिण तट पर भद्रशाल पेदी से प्रारम्भ कर क्रम से श्रद्धावान, विजटावात्, आशीविष और सुखावह नाम के चार वक्षार पर्वत हैं, तथा इनके बीचों बोच क्षारोदा, सोतोदा और सोतवाहिनी नाम की तीन विभंगा नदियाँ हैं । इसके बाद चन्द्रमाल, सूर्यमाल, नागमाल और देवमाल नाम के चार वक्षार पर्वत तथा गम्भीरमालिनी, फेममालिनी और अमिमालिनी नाम को तीन विभंगा नदिया है । [ उपर्युक्त सोलह । वक्षार पर्वत हेममय है, तथा विभंगा नदियों का सम्पूर्ण वर्णन रोहित नदी के सदृश है । इन नदियों के प्रवेश और निगम स्थानों के तोरणों पर स्थित गृहों में दिक्कन्याएँ रहतीं हैं ।। ६६६ से १७० ॥ विशेषावं :- सौता नदी के उत्तर तट को आदि करके भद्रयाल की वेदी के मागे से प्रदक्षिणा रूप वक्षार पर्वतों के चित्रकूट, पचफूट, नलिन और एक शेल नाम है, तबा गाघवती, द्रहवती और पखवती नाम की तीन विभंगा नदिया है । सीता नदी के दक्षिण तट को आदि करके देवारभ्य की वेदी के मागे क्रम से श्रिकट, वैश्रवण, अखनारमा और अखन नामकेचार वक्षार पर्वत और ताजला. मतजला एवं उन्मत्तजला नाम की तीन विभंगा नदियाँ हैं। पश्चिम विदेह क्षेत्र में सोतोदा नदी के दक्षिण तट पर भद्रशाल की वेदी से प्रारम्भ कर कम से श्रद्धावान्, विजदावान, आशीविष और सुखावह नाम के चार वकार पर्वत है, तथा इन्हीं के बीचों बीच क्षारोदा, सोतोदा और स्रोतवाहिनी नाम की तीन विभंगा नदिया है। सीतोदा नदी के दक्षिण तट के बाद पश्चिम विदेह क्षेत्र में उसी सीतोदा के उत्तर पद पर देवारण्य को वेदी से आगे क्रम से चन्द्रमान, सूर्यमाल, नायमाल और देवमाल नाम के चार वक्षार पर्वत है, तथा इन्हीं के बीचों बीच गम्भीरमालिनी, फेनमालिनी और धमिमालिनी नाम की चीन विभंगा नदियां बहती हैं। पूर्व अपर विदेह सम्बन्धी चारों विभागों के सोलह ही वक्षार पर्वत स्वर्णमय हैं, तथा इन चारों क्षेत्र सम्बन्धी बारह ही विभङ्गा नदियों का वर्णन रोहित नदी के सहश है। जिस प्रकार रोहित नदी के निर्गमादि स्थानों के व्यास आदि का प्रमाण है उसी प्रकार विभङ्गा नदियों का है। ये विभंपा नदिया नील और निषष कुलाचलों के निकटवर्ती कुण्डों से निकलकर सीता-सीतोदा नदियों में मिलीं हैं। ये निर्गम स्थान पर १२६ (३५) योजन और प्रवेश स्थान पर १२५ योजन चौड़ी हैं। प्रत्येक को परिवार नदियों का प्रमाण २८०.. है । कुण्ड की वेदी के तोरण तार अर्थात् कुण के जिस द्वार से Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा: ६६६६७० मरठिग्लोकाधिकार ५४९ ये नदियाँ निकलतीं हैं उसकी ऊँचाई का प्रमाण १०३ योजन और सीठा सौठोदा की वेदी के तोरण द्वार अर्थात् जिस द्वार से सीता-सोतोदा महानदियों में प्रवेश करती है, उन द्वारों की ऊंचाई १८७३ योजन है। इन नदियों के निगम और प्रवेश तोरण द्वारों पर स्थित ग्रहों में दिक्कुमारियां निवास करती है। इन सब पर्वत, नदी एवं देश आदि का चित्रण निम्न प्रकार है : It 40 तिछि कु X २० पदा १४ Pe 24 " THEST W हा ग्रा उ 'पद्मा १३ Renuk ६ मङ्गलव म भुरका १२ मका ही महान वि एत भु heads व त्मी egga केव अ (शुद्ध 老 120 २ का वी エチ २७. गन्धा ३० सुं गं ला लाईभ ३१. गान्धिस PAY मेक rator' के सुक चल ६ TA अहा कन्द START AVYN ४. कानी : उतर कुरु क सङ्गला स भुक ला WACAN पुष्कलावती सार केसरी कुण्ड ५० भ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा । ६७१-६७२-६७३ अप तद्वक्षाराणामुपरिस्थदेवाना वीसदिवक्खाराणं सिहरे तत्सद्विसेसणामसुरा । चिट्ठति तण्णगाणं पूह कंचणवेदियावणेहि जुदा ।।६७१।। विशतिवक्षाराणां शिखरे तत्तद्विशेषनामसुराः । तिष्ठन्ति तन्नगानां पृथक् काश्चनवेदिकावन। युताः ॥६७१॥ धोस । गजवन्तसहितविंशतिवाराणो शिखरे तक्षारपतनामानः सुरास्तिन्ति। ते च नगाः पृषक पृथक् काञ्चनवेविकाभिवनश्च युक्ताः ॥ ६ ॥ उन बछार पर्वतों पर स्थित देवों के सम्बन्ध में कहते हैं गाथार्थ:-चार गज दन्त पर्वत और १६ वक्षार पर्वत, कुल २० पर्वतों के शिखरों पर अपने अपने पर्वत के नामधारी देव रहते हैं। वे पर्वत पृथक पृथक स्वर्णमय वेदियों और वनों से संयुक्त हैं ॥ ६७१ ॥ इदानी देवारण्याना स्थानमाह पन्यवरविदेईते सीतद् दुतडेसु देवरण्णाणि । चारि लवणुवहिपासे तम्सेदी भद्दसालसमा ॥६७२।। पूर्वापरविदेहान्ते सीताद्वयोः द्वितटेषु देवारण्यानि । चत्वारि लवणोदधिपाझे तद्वेदो भद्रसाल समा।। ६७२ ।। पुरख । पूर्वापरविदेहान्ते सीतासोतोक्योक्तिरेषु धेधारण्यानि पत्यारि सन्ति । यथा पूर्वापरभद्रशालविका निषषनौलो स्पृष्ट्वा तिष्ठति तथा लवणोदषिपार्वे देवारपवेविकापि ॥ ६७२ ॥ अब देवारम्य वनों का स्थान कहते हैं-- गाथा:-पूर्व और अपर विदेह के अन्त में सोता और सीतोदा नदी के दक्षिण और उत्तर दोनों तटों पर चार देवारण्य वन हैं । जिस प्रकार पूर्व, पश्चिम भद्रशाल की वेदी निषध और नील पर्वत को स्पा करती है, उसी प्रकार लवण समुद्र के निकट देवारण्य की वेदी निषष और नील कुलाचलों को स्पर्श करती है ।। ६७२ ॥ साम्प्रत तदरम्पवृक्षादिकमाह जंबीरजंबुकेलीफेंकेली मल्लियलिपहदीहि । बहुदेवसरोवावीपासादगिहेहिं जुचाणि ॥ ६७३ ।। जम्बीरजम्बूकदलीकङ्कलिलमल्लिबल्लिप्रभृतिभिः। बहुदेवसरोवापीप्रासादय है: युक्तानि ॥ ६७३ ।। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ६७४ - १७५ निग्लोकाधिकार जंबोर । तान्यरण्यानि सम्बोरजम्बुक लोक स्लीम हिल लिप्रभूतिवृक्षः बहुमिवसरोभवपोभिः प्रासादश्च युक्तानि ॥ ६७३ ॥ उन वनों के वृक्ष आदि के सम्बन्ध में कहते हैं : गाथार्थ :- वे देवारण्य वन जम्बीर, जम्बु, कदली, अशोक, चमेली एवं बेल प्रादि वृक्षों तथा बहुत से देव सरोवरों, बावड़ियों, प्रासादों एवं गृहों से संयुक्त हैं ॥ ६७३ ।। विदेहदेशानां प्रामादिलक्षण गाथाश्रये शाह देसे पुछ पूछ गामा छण्णउदीकोहि णयरखेडा य । खव्व मडंव पट्टण दोणा संवाद दुग्गडवी || ६७४ ।। छब्बीसमदो सोलंचवीसचउक्कमच महदालं । उदीोट्स मडवी कपसो सहस्सगुणा || ६७५ ॥ देशे पृथक् पृथक् ग्रामाः षण्णव तिकोट्यः नगरखेटा: च । खवंडा मड़वा पट्टनानि द्रोणाः सम्बाहा दुर्गाटव्यः ॥ ६७४ ।। पविषमतः षोडशः चतुविशं चतुष्कमेव अष्टचत्वारिंशत् । नवनवतिः चतुर्दश अष्टाविंशं क्रमशः सहस्रगुग्गानि ।। ६७५ ।। ऐसे | विदेहत्थेषु द्वात्रिशद्द शेषु पृथक् पृथक् ग्रामाः चण्ावतिकोटचः ६६००००००० नगरालि खेट: जा: पत्तनानि होलाः सम्बाहाः दुर्गाः ॥ ६७४ ॥ ५५१ goate | नगरावीनt संख्या ययाक्रमं षड्विंशतिसहखाणि २६००० षोडशसहस्राणि १६००० चतुशिति २४००० चत्वारिसहस्राणि ४००० चवादिशत्सहस्राणि ४८००० नवनवतिसहस्राणि ६००० चतुर्दशसहस्राणि १४००० प्रष्टाविंशतिसहस्राणि २८००० भवन्ति ।। ६७५ ।। तीन गाथाओं द्वारा विदेह देशों के ग्रामादिकों का लक्षण कहते हैं : गाथार्थं :- प्रत्येक विदेह क्षेत्र में पृथक् पृथक् छ्यानवे करोड़ ग्राम हैं, तथा नगर, खेट, खड, 'ब, पत्तन, दोरा, संत्राह और दुर्गाटवी छवीस, सोलह चौवीस, चार, अड़तालीस, नित्यानवे चौदह पौर अट्ठाईस क्रम से हजार गुणे हैं । अर्थात् एक हजार में क्रम से छब्बीस, सोलह आदि का गुणा करने से नगर खेट यादि का प्रमाण प्राप्त होता है || ६७४ ६७५ ।। विशेषार्थ :- पूर्व और अपर विदेह के सीता सीतोदा नदियों के द्वारा चार मध्य प्राप्त हुए प्रत्येक विदेह में दो वेदियों, चार वक्षार पर्वों और तीन विभङ्गा नदियों इन ९ विदेह हैं। इस प्रकार चार विभागों में ३२ विदेह क्षेत्र स्थित हैं। ९६ हजार नगर, १६ हजार खेट, २४ हजार खवंड, ४ हजार मबंब, ४८ हजार पत्तन, १४ हजार संवाह और २८ हजार दुर्गाटवी है । I बिभाग हुए थे । अन्तरालों में प ६ करोड़ ग्राम ६६ हजार दोरा, Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ पिलोकसा बाषा:७१-६७७ बइ चउगोउरसालं णदिमिरिणगवेढि सपणसयगाम । रमणमदारिदेलापला गवारिद्वियं कमसो ।। ६७६ ।। वृतः चतुर्गोपुरशालः नदोगिरिनगवेध' सपश्चातग्राम। रत्नपदसिम्बुवेलावलयितः नगोपरि स्थितं क्रमशः ।। ६७६ ॥ वह। वृस्या वृतो प्रामः धतुर्गोपुरशालयुतं नगरं पधादिष्ट खेत नगमित खर्वकं पञ्चशतमामयुतं मडंबं रहमानो स्पानं पप्तनं नहीवेलितो द्रोणः बलपिबेलाबलयितः सम्बाहा मगोपरि स्थिता दुर्गाटवो मशः ॥ ६७६ ॥ गायार्थ :-जो वृत्ति-बाड़, चार दरवाजों से युक्त कोट, नदी, पर्वत और पर्वतों से वेष्ठित होते हैं उन्हें कम से ग्राम, नगर, पेट और सवंड कहते हैं। पांच सौ पामों से संयुक्त को महंव, रत्नादि प्राप्त होने वाले स्थान को पत्तन, नदी वेष्ठित को द्रोण, समुद्र वेला से वेष्ठित को संवाह तथा जो पर्वतों पर स्थित होते हैं उन्हें दुर्गाटवी कहते हैं ॥ ६७६ ।। विशेषार्य :-जो चारों ओर कांटों की वाड़ से वेधित होता है, उसे ग्राम कहते हैं। चार दरवाजों से युक्त कोट से वेष्ठित क्षेत्र को नगर कहते हैं । जो नदी और पवंत दोनों से वैष्ठित होते हैं, बे खेट हैं । पर्वत से वेष्ठित को खवंड कहते हैं । जो ५.. ग्रामों से संयुक्त हैं, वे मईय है। जहाँ रत्न मादि वस्तुओं की निष्पत्ति होती है, वे पत्तन कहलाते हैं। नदी से वेष्ठिव को द्रोण और समुद्र की बेला से वेष्ठित को संवाह कहते हैं। पर्वत के ऊपर जो बने हुए हैं. उन्हें दुटिवी कहते हैं । अथ विदेहदेशस्योपसमुद्राभ्यन्तरदीपस्वरूपमाह छप्पण्णंतरदीवा छब्बीससहस्स रयणआयरया । स्यणाण कुविखवासा सत्चसय उवसमुद्दम्हि ।। ६७७ ।। षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः पद्दिशसहस्र रत्नाकराः। रत्नानां कुक्षिवासाः सप्तशतानि उपसमुद्रे ॥ ६७७ ।। अप्पारणं । विवेहवेशस्योपसमुद्रषट्पश्चाका ५६ पारतीपा: वविशतिसहस्र २६००० स्नाहरा: रस्नानां पविक्रयस्पान भूतकुक्षिवासाः सप्तशतानि ७०० भवन्ति ॥ ७ ॥ विदेह देश स्थित उपसमुद्रों के अभ्यन्तर द्वीपों का स्वरूप कहते हैं : पापा:--[ एक एक विदेह देश में एक एक उपसमुद्र हैं. उन पर एक एक टापू है। वहीं छप्पन अन्तरदीप, छब्बीस हजार रत्नाकर ओर रलाकरों के सात सौ फुक्षि वास हैं ।। ६७७ ॥ ___ विशेषा:-प्रत्येक विदेह देश में प्रधान नगरी और महानदी के बीच स्थित आर्यस्खण्ड में एक एक उपसमुद्र है, और उस उपसमुद्र में एक एक टापू है, जिस पर ५६ अन्तरद्वीप, २६००० रत्नाकर और रत्नों के क्रय विक्रय के स्थान भूत ७०० कुक्षिवास होते हैं। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा।६७-६७९ मपतियंग्लोकाधिकार अय मागादीनां त्रयाणां स्थानमाह : सीतासीतोदाणदितीरसमीवे जलम्हि दीवतियं । पुवादी मागहवरतणुप्पभासामराण हवे ॥ ६७८ ।। सीतासीतोदानदीतीरसमीपे जले द्वीपत्रयं । पूर्वादिना मागधवरतनुप्रभासामराणां भवेत् ॥ ६५८ ॥ सोता। सीतासोतोकानवीतीरसमोपे जले पूर्वापरेण मागषयरतनुप्रभाताख्यध्यन्तरामराणी दीपत्रयं मवेद ॥ ६७ ॥ मागधादि तीन स्थानों को कहते है : गाथा:-सीता सीतोदा नदियों के तीर के समीप बल में पूर्वाद दिशाओं में मागध, बरतनु और प्रभास नाम व्यस्तर. देवों के तीन द्वीप हैं।। ६७५ ।। विशेषा:-सीता-सीतोदा नदियों के तीर के समीप पूर्व और पश्चिम में मागध, वरतनु और प्रभास नाम के तीन देवों के तीन द्वीप हैं। __चक्रवर्ती द्वारा साधने योग्य मागष, वरतनु और प्रभास देवों के स्थान जैसे भरत, ऐरावत के समुद्र में हैं, वैसे ही पूर्व विदेह में सीता के तर के समीप जल में हैं, मोर पश्चिम विदेह में सोतोदा के तीर के समीप जल में हैं। प्रत्येक देश की दो दो नदियाँ जिन द्वारों से सीता-सोतोदा नदी में प्रवेश करती है उन द्वारों के और धन द्वारों के बीच में जो द्वार है उनके समीप जल में उन देवों के द्वीप है। अथ विदेहक्षेत्रगतवर्षादिस्वरूपं गाथाहयेनाह-- बरसंनि कालमेघा सचविहा सच सच दिवसबही । परिसाकाले धवला बारस दोणाभिहाणभा ।। ६७९ ॥ वर्षन्ति कालमेघाः सप्तविघाः सप्त सप्त दिवसाधीन् । वर्षाकाले धवला द्वादपा द्रोणाभिधाना अभ्राः ॥ ६७५॥ परसंलि । सप्तविषाः कालमेघाः सप्तसप्तविसाधीन वर्षापरले वर्षन्ति । बसवणाभिषामा वावशानाः तया वर्षन्ति ।। ६७९ ॥ दो गाथाओं द्वारा विदेहक्षेत्रगत वर्षादि का स्वरूप कहते हैं गाथार्य :-वर्षा काल में सात प्रकार के कालमेघ सात सात दिन तक ( ४६ दिनों तक ) और द्रोण नाम वाले चारह प्रकार के धवल ( श्वेत ) मेघ सात सात दिन तक ( १४ दिनों तक ) वर्षा करते हैं । इस प्रकार वर्षा ऋतु में वहाँ कुल १३३ दिन मर्यादापूर्वक वर्षा होती है ।। ६७६ ॥ ७० Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाय पाथा:१-६८१ देसा दुभिक्खीदीमारिकदेववाणलिंगिमदहीणा | भरिदा सदावि केवलिसलामपुरिसिड्डिसारहिं ।। ६८० ॥ देशा दुभिक्षेतिमारिकुदेववकलिङ्गिमतहीनाः । भृताः सदापि केवलिशलाकापुरुषधिसाधुभिः ॥ ६८० ॥ सा। विवेहल्या देशा भिक्षणातियपानावृष्टिमूषकशलमशुकत्यवाहपरवालक्षणसप्तविधे. तिमिः गोमाविमारिभिः कुदेवताभिरपिलिङ्गिमतश्च हीनाः सवापि केवलिभिः साकापुरुषः ऋद्धिसम्पन्न साधुभिता वर्तन्ते ॥ ६८० ॥ ___गायार्थ :-विदेह देशों में दुभिक्ष, ईति. मारि रोग, देव, कुलिङ्ग और कुमतों का प्रभाव तथा केवलज्ञानी, तीर्थङ्करादि शलाका पुरुषों एवं साधुओं का निरन्तर सद्भाव रहता है ।।६८०॥ विदोषा:-विदेह स्थित देशों में कभी दुभिक्ष नहीं पड़ता। (१) अतिवृष्टि, (२) अनावृष्टि, {३) मूषक, ( ४ ) शलभ ( टिड्डी ), (५) शुक, (६) स्वचक और (.) परचक है लक्षण जिसका ऐसी सात प्रकार की ईतियाँ तथा गाय, मनुष्य आदि जिन में अधिक मरते हैं ऐसे मारि मादि रोग वहाँ कभी नहीं होते । वे देश कुदेव, कुलिङ्ग अर्थात् जिन लिग से भिन्न लिङ्ग और कुमत से रहित तथा केवलज्ञानियों, तीर्थङ्करादि शलाका पुरुषों और ऋद्धि सम्पन्न साधुओं से निरन्तर समन्वित रहते हैं। अथ तीर्थकृत्सकलचक्रार्धकिरणां पञ्चमन्दरापेक्षया अभन्योस्कृष्टसंख्यया वर्तनमाह तिस्थद्धसलपचक्की सद्विसयं पुह बरेण भवरेण । वीसं वीसं सयले खेत्ते सचरिसयं वरदो ॥ ६८१ ॥ तीर्थाघसकलकिरणः षष्टिशतं पृथक वरेण अवरेण । विशं विशं सकले क्षेत्रे सप्ततिशतं वरतः ॥ ६८१ ॥ तिस्पड । तीथंकृत: प्रपंकिरणः सकलकिरणश्च पृथक् पृथगुम्कण्टेन षष्टपुत्तरं शतं १६. जघन्येन ते सोतासीतोपयोक्षिणोत्सरहटे एका इत्येका स्येकमन्दरापेक्षया बायार इति मिलिस्पा पवमवरविवहापेकष विशतिविशतिभवन्ति २० । तेच परत उत्कृष्टत: पञ्चमरतपश्चरावतमरियते सकले क्षेत्र सप्तस्युचरशतं १७० भवन्ति ।। ६८१॥ तीयङ्कर, चक्रवर्ती और अर्धचक्रवतियों की पञ्चमेरुओं की अपेक्षा जघन्योत्कृष्ट संध्या का प्रवर्तन कहते है। गापापी-तीर्थकर, चक्रवर्ती और अर्धचक्री पृथक पृथक यदि एक एक देश में हों तो उत्कृष्टता से १६. होते हैं, और जघन्यता से ही होते हैं, तथा समस्त क्षेत्रों के मिलाकर उत्कृष्टतः १५. होते हैं ।। ६८१॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया : १२ बरतिय लोकाधिकार विशेषापं :-एक मेरु सम्बन्धी ३२ विदेह देश हैं, अतः ५ मेरु पर्वत सम्बन्धी कुछ विदेह देश १६. हुए । प्रत्येक विदेह देश में यदि पृथक् पृथक् एक एक सीधंङ्कर, चक्रवर्ती और अर्धचक्रवर्ती प्रर्याद नारायण ओष प्रतिनारायण हों तो उत्कृष्टतः १६. हो सकते हैं। एक मेरु सम्बन्धी पूर्व अपर दो विदेह क्षेत्रों के सोता-सोतोदा नदियों ने दक्षिणोत्तर तट सम्बन्धी चार क्षेत्र बना दिए हैं। इस प्रकार पाच भैरु सम्बन्धी कुन २० क्षेत्र हुए। प्रत्येक विभाग में यदि पृथक् २ एक एक तीर्यवर, चक्रवर्ती, और अर्धचक्रवर्ती हों तो जघन्यतः कुल ( ४४५) = २० ही होते हैं । पांच भरत, पांच ऐरावत और १६० विदेह देशों के कुल मिलाकर उस्कृष्टत: (१६.+५+५==} १७० तीर्थङ्कर, पक्रवर्ती और अपंचक्रवर्ती पर साथ हो रामले में । इदानी चक्रिरण: सम्पत्स्वरूपमाह चुलसीदिलक्ख मदिभ रहा हया विगुणणवयकोडीमो । णवाणिहि चोइसरयणं चक्मिरथीमोसहस्सचण्णउदी ॥६८२।। चतुरशीतिलक्षभद्रेभाः रथा हया दिगुणनवकोट्यः । नवनिषयः चतुर्दशरनानि चक्रिस्त्रियः सहन षण्णवतिः ॥३८२|| चुलती । चतुरशीतिलक्षमभाः ५४..... स्थाश्म तावन्त: ८४००००. हया निगरगनवकोटयः १८०...... ऋतुयोग्यवस्तुबायो कालः, भाजनप्रवो महाकालः, पान्यप्रदः पाण्ड, प्रायुषादो मारणवक, तूर्यप्रवः शङ्ख, हम्यंप्रदो नैसर्पः, वस्त्रप्रवः पयः, पाभरणप्रब: पिङ्गलः, विविध रत्नामिकरप्ररो नानारत्नः इत्येते नवनिषयः । धासिधवागमणिधर्मकाकिणीगृहपतिसेनापतीभावतआयोषित्पुरोहिता तितुकारत्नानि षण्णवतिसहस्रस्त्रियाच ९६००. चाकणो भवन्ति ।।६८२॥ अब चक्रवर्ती की सम्पदा का स्वरूप कहते हैं : पाथार्थ :-- चक्रवर्ती के कल्याणरूप चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाल रथ, विगुणनवकोटि अर्थात् १८ करोड़ घोड़े, नवनिधियाँ, चौदह रल और ६६ हजार स्त्रिया होती हैं ।। ६५२ ॥ विशेषा:-प्रत्येक चक्रवर्ती को पास कल्याणरूप ४०००.. हाथी, ४...०० रथ, १८००००००० घोड़े, ऋतुयोग्य वस्तु प्रदायि कालनिधि, भाजनप्रद महाकाल निधि, पास्यप्रद पाण्डु, आयुषप्रद माणवकः, तूर्य अर्थात् वादित्र प्रद शंख, प्रासादप्रद नैसपं. वस्त्रप्रद पद्म, आभरणप्रद पिल और नानाकार रत्नप्रद नानारत्न निधि, इस प्रकार ये नवनिधियो चक्र, अप्ति, छत्र, दण्ड, मणि, चमं और काकिणी ये सात अचेतन और गृहपति, सेनापति, हाथी, अश्व, तक्ष ( शिल्पी), स्त्री और पुरोहित ये सात चेतन, इस प्रकार १४ रत्न तथा १६... सनिर्या होती हैं। साम्प्रतं राजाधिराजादोनो लक्षणं गाथात्रयेणाह Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाषा: ६८३-१८४-६ck अपणे सगपदविठिया सेणागणवणिजदंडवइमंती । महयरतलयस्वण्णा चउरंगपुरोहमञ्चमहमच्चा ।। ६८३ ।। इदि अहारससेढीणडिओ राजो हवेज मउडधरो। पंचसयरायसामी अहिराजो तो महाराजो ॥ ६८४ ॥ तह अद्धमंडलीमो मंडलिओ तो मदादिमंडलिओ। नियलखंडाणहिता पहुणो राजाण दुगुणदुगुणाणं ।।६८५|| मन्ये स्वकपदवीं स्थिनाः सेनागणवाणिग्दण्डपतिः मंत्री। महत्तर: तलवर: वणं: चतुरंगपुरोहितामात्यमहामात्यः ॥६८३।। इति अष्टादशणीनामधिपो राजा भवेत् मुकुटधरः । पम्नशतराज स्वामी यिा: ततः महाराज. । तथा अधमण्डलिक मण्डलिकः ततो महादिमण्डलिकः। त्रिकपट्खण्डानामधिपाः प्रभवः राज्ञां द्विगुणविगुणानाम् ।।६५५।। प्रष्णे । प्रत्ये राजादयः स्वकीयस्वकीयपनयोस्थिताः तत्र सेनापतिगणपतिर्मणिपतिवडपतिस्समस्तसेमानायक इत्यर्थः । मन्त्री पक्षोगमन्त्रकुशल इत्यर्णः महत्तर: कुलपूर इत्यर्ण: तलवरः क्षत्रियाश्चितुर्गण। चतुरंगसेनापुरोहित: अमात्यः देशाधिकारीत्यर्गः महामात्यः सर्वाधिकारीस्वर्गः ॥१३॥ इति । इत्यहायशश्रेणीनामधिपो राजा स एव मुकुटधरो मवेत, पञ्चशलराजस्वामी विराजः सहमराजस्थामी महाराजः ॥ ६८४ ।। तह । तथा द्विसहन रामस्वामी वर्षमालिकः, चतुःसहस्रराजस्वामी मण्डलिकः, ततोऽष्टसहस्ररामस्वामी महामएवालिका, षोडशसहस्र राजस्वामी विक्षणाधिपतिः, द्वात्रिंशत्सहस्रराजस्वामी षटमण्डाधिपतिः इत्यषिराजावयः सर्गे राजः सकाशात द्विगुणद्विगुणा ज्ञातव्याः ॥ ६८५ ।। तीन गाथाओं में राजाधिराजों के लक्षण कहते हैं गाथार्थ :-मन्य राजा अपनी अपनी पदवी पर स्थित हैं। वहाँ सेनापति, गणकपति, वणिकपति, दण्डपति, मन्त्री, महत्तर, तलवर ( कोतवाल ), चार वर्ग, चतुरंग सेना, पुरोहित, अमात्य और महामात्य इन अठारह श्रेणियों के स्वामो को राजा कहते हैं । यही मुकुटधारी होते हैं । ऐसे ही पांच सौ राजाओं के स्वामी को अधिराजा और हजार राजाओं के स्वामो को महाराजा कहते हैं, तथा अघमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलोक त्रिलपहाधिप । अषं चकी ) और पट्खण्डाधिप ( चक्रवर्ती ) ये सभी गुने दूने राजाओं से बेवित होते है ।। ६८३, ८४, ६८५ ।। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६८६ से ६९० नरतियग्लोकाधिकार विशेषार्थ:-अन्य राजा आदि मपनी अपनी पदवी पर स्थित है। वही सेना का अधिनायक सेनापति, ज्योतिपशों का अधिनायक गणिक पति, व्यापारियों का अधिनापक वणिकपति, समस्त सेना का नायक दण्डपति, पञ्चाङ्ग मन्त्र में प्रवीण मन्त्री, कुल में जो बड़ा है ऐसा महत्तर, कोटवाल, क्षत्रिय आदि चार वर्ण, चतुरंग सेना, पुरोहित, देश का अधिकारी अमात्य और सर्व राज्य कार्य का अधिकारी महामात्य ऐसी मठारद श्रेणियों का जो स्वामी होता है उसे राजा कहते हैं। यही मुकुटधारी होता है। इसी प्रकार के मुकुटधारी ५०० राजाओं के स्वामी को अधिराजा १०००, राजाओं के स्वामी को महाराजा, २... राजाओं के स्वामी को गह, Yo०० राजाओं के स्वामी को मण्डलीक, ८.०. राजाओं के स्वामी को महामण्डलीक, १६... राजाओं के स्वामी को त्रिखण्डाधिपति ( अधं चक्रवर्ती-नागया और प्रतिनारायण । तथा ३२०० मुकुटबद्ध राजाओं के अधिप को चक्रवर्ती कहते हैं। इदानीं तीर्थकृतो विशेषस्वरूपमाइ सयलभुवणेक्कणाहो तित्थयरो कोमुदीप कुंदं वा । धवलेहि चामरेहिं च सद्विहि विजमाणो सो ।। ६८६ ।। सकलभुवनैकनाथः तीर्थ करः कोमुदीव कुन्दं वा।। धवल चामरैः चतुःषष्टिभिः वीज्यमानः सः ।। ६८६ ॥ सयत । पसालभुवनेकनापः कोपुदीव कुन्दमिव बहिसंस्पर्धवलचामराज्यमानः स तीरी भातम्यः ॥ ६८६॥ अब तीर्थयों का विशेष स्वरूप काहते है-- पाया:-जो सकललोक का एक अद्वितीय नाथ है तया चांदनी एवं कुन्द के पुष्प सदृश चौंसठ चमरों से जो वीज्यमान है, वह तीर्थ कार है ।। ६८६ ।। अथ विदेहविजयाना' नामानि याथाचतुष्टये नाह-- कच्छा सुकरुछा महाकच्छा चउत्थी कच्छकावदी । मावत्ता लांगलावना पोक्खला पोक्खलावदी ।। ६८७॥ बच्छा सुवच्छा महावच्छा चउत्थी पच्छकावदी। रम्मा सुरम्मगा चेव रमणज्जा मंगलाषदी ।। ६८८ ॥ पम्मा सुपम्मा महापम्मा चउत्थी पम्मकावदी । संखा च गलिणी चेव कुमुदा सरिदा तहा ॥ ६८९ ॥ पप्पा सुवप्पा महावप्पा चउत्थी वप्पकावदी। गंधा खलु सुगंधा च गंधिला गंधमालिणी ॥ ६९० ॥ कच्छा सुकच्छा महाकच्छा चतुर्थी कच्छकावती। आवा लागलावा पुष्कला पुष्कलावती ॥ ६८७ ॥ . विजयानां देशाना (२.टि.)। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ त्रिलोकसार पापा १ वत्सा सुबत्सा महावत्सा चतुर्थी वत्सकावती । रम्या सुरम्यका चैव रमणीया मलावती ॥ ६८८ ॥ पद्मा सुपना महापद्मा चतुर्थी पद्मकावती। शङ्खा च मलिनी चैव कुमुदा सरित्तथा ॥ १६ ॥ वप्रा सुवप्रा महावमा चतुर्थी वप्रकावती। गन्धा खल सगन्धा च गन्धिला गन्धमालिनी ।। ६१०।। कच्छा । बच्छा । पम्मा । षप्पा । छायामानमेवार्थः ।। १८७-६९० ॥ चार गाथाओं द्वारा विदेह देशों के नाम कहते हैं गायार्थ :-१ कच्छा, २ सुकच्छा, ३ महाकच्छा, ४ कच्छकावती, ५ बावा, ६ लाङ्गलावा, ७ पुष्कला और = पुष्कलावती ये आठ देश सीता नदी के उत्तर तर पर मद्रशाल की वेदी से आगे क्रम पूर्वक हैं। १ वरसा, २ सुवासा, ३ महावत्सा, ४ वत्सकावती, ५ रम्या, ६ सुरम्यक, ७ रमणीया और ८ मंगलावती ये आठ देश क्रम से सीता महानदी के दक्षिण तट पर देवारण्य बेदी के आगे म पूर्वक है। १ पद्या, २ सुपद्मा, ३ महापद्मा, ४ पद्मकावती, ५ शङ्खा, ६ नलिनी, ७ कुमुद और ८ सरित ये पाठ देश सीतोदा नदी के दक्षिण तट पर भद्रशाल की वेदी से आगे क्रम पूर्वक हैं। १ वा, २ सुवप्रा, ३ महायता, ४ वप्रकावती, ५ गन्धा, ६ सुगन्धा, ७ गन्धिला, ८ गन्धमालिनी, ये माठ देश सीतोदा नदी के उत्तर तट पर देवारण्य को वेदी से आगे यथाकम अवस्थित है ॥ ६८७.-६ ॥ अथ एतेषु देशेषु वण्डानि कथं जानीयादित्युक्त प्राह विजयं पडिवेयड्डो गंगासिंधुसमदोपिणदोण्णि गई । तेहि कया छक्खंडा विदेह बचीस विजयाण ॥ ६९१ ।। विजयं प्रति विजयायः गंगासिन्युसमे दे नथी। तेः कृतानि षट् खण्डानि विदेहे द्वात्रिंशत् विजयानाम् ।। ६९१ ।। विजय । वेशं प्रति देश प्रति एकको विजया!ऽस्ति विजयोवेशो मर्षीकृतोऽस्मारिति विजया इत्यापिकरवात् । लव गङ्गासिन्धुसमाने ते मधौ सतः । तनविषयाः विदेहस्थद्वात्रिशकाना प्रत्येक षटखण्णानि कृतानि ॥ ६॥ इन देशों में खण्ड कैसे जाने ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं गाथा:-प्रत्येक विदेह देश में एक एक विजमा पर्वत और गंगा सिन्धु के सदृश दो दो नदिया है । इन विजया और दो दो नदियों ने बत्तीस विदेह देशों के छह छह खण्ड किए हैं ॥ ६११॥ विशेषार्ष:-३२ विदेह देश हैं। प्रत्येक देश में एक एक विजया पर्वत हैं। ये विजय अर्थात् देश को आधा करते हैं, इसलिए विजयाचं इन का ये सार्थक नाम है। कुलाचलों से महानदी पर्यन्त देशों की जो लम्बाई है, उसके ठोक मध्य प्रदेश में विजयाचं पर्वतों की अवस्थिति है। इन्हीं प्रत्येक देशों में गंगा सिन्धु सदृश दो दो नदियाँ हैं। सो निर्गम स्थान पर ६३ योजन और प्रवेश स्थान पर ६२३ योजन चौड़ी हैं इन दो दो नदियों और एक एक विज या पर्वतों ने विदेह स्थित ३२ देशों में से प्रत्येक के छह छह लण्ड किए हैं । जिनका चित्रण निम्न प्रकार है Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा: ६६ नरतियंग्लोकाधिकार T सुक्न मेंस ) में ARKM * लिम स्वा EAT SC महा ra FREE RAPA0 Hart.P1nt It बुक VL-4 4 TAR य. inty ParaT aratheet 900 न ५ कार | Outanf| RA | Arg TRAमकर "मोका ALEVEL - हा स्वड मामा ney Theaanti कारमा G LATE | नात हा पद RSEE O ASTR प Veg] Tue रेगमरवण . मामलमा PAN ही | REFFe | RA T ER-Inc. काखमा MAROO EXANER समसण, मनमक कष्ट। वृन SE AD Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गापा:९२-९३ अय तत्रस्थविजयार्धानां नदीनां च विन्यासादिकं गाथाद्वयेनाह - ते पुश्वावरदीहा जणवषमज्मे गुइन्दु पुथ्वं वा । गंगादु णीलमूलगकुंदा रचदुग णिसहणिस्सरिदा ॥६९२।। ते पूत्रपिरदीर्घा जनपदमध्ये गुहाइयं पूर्व वा। गङ्गाद्वयं नीलमूलगकुण्डा रक्ताद्विकं निषनिःमृताः ।।६९२॥ ते। विजयार्धाः पूर्वापरदीर्घा जनपबमध्ये सन्ति । तयस्थगुहावयं तु भरतविजयार्योक्तवर ज्ञातव्यं । गंगासिन्धू ने नोलपवंतमूलस्थितकुएशानिर्गत्य सोतासोतोक्योः प्रविष्ट । रक्तारको है निषषपर्वतमूलस्थितकुण्डानि सस्य सीतासोतोक्योः प्रविष्टे ॥ ६९२ ॥ वहाँ स्थित विजयाचं पोर नदियों के व्यास आदि को दो गाथाओं द्वारा कहते हैं मायार्थ :-वे विजयाचं पर्वत जनपद-येश के टोक मध्य में पूर्व पश्चिम लम्बे हैं, तथा उनमें पूर्व (भरत स्थित विजयाचं ) के सदृश दो दो गुफाएँ हैं। नोल कुलाचल के निकट मूल में स्थित कुण्ड से गंगा सिन्धु और निषष कुलाचल के मूल में स्थित कुण्ड से रक्ता रक्तोदा ये दो दो नदियाँ ( प्रत्येक देश में निकली हैं ।। ६९२॥ विशेषार्थ :-वे विजयाचं पर्वत पूर्व पश्चिम लम्बे और जनपद प्रत्येक देशों के ठोक मध्य भाग में स्थित हैं । भरतक्षेत्र स्थित विजयाधं में से दो गुफाएँ कही थीं, वैसी ही दो दो गुफाएँ यहाँ पर जानना चाहिए। प्रत्येक देश में दो दो नदियाँ हैं । सीता और सीतोदा के दक्षिण तट स्थित जो १६ देश है उनमें गंगा सिन्धु नाम की दो दो नदियाँ हैं, और सोता-सोतोदा के उत्तर तट स्थित जो १६ देश हैं, उनमें से प्रत्येक देश में रक्ता रक्तोदा नाम की दो दो नदियां हैं। मंगा-सिन्धु ये दोनों नदियाँ नील कुलाचल के मूल में स्थित कुण्ड के उत्तर द्वार से निकल कर सीधी जाती हुई विजया की गुफा से होती हुई सौता-सीतोदा की वेदी के तोरण द्वारों में से होती हुई सोता-सीतोदा में प्रवेश करती है तथा रक्ता-उक्तोदा ये दोनों नदियाँ निषध कुलाचल के मूल स्थित कुण्ड के दक्षिरण द्वारों से निकल सीधी जाती हई विजयाचं की गुफा में प्रवेश करती हैं । वहां से निकल कर महानदियों (सीता-सोतोदा) की वेदी के तोरण द्वारों से होती हुई सीता सीतोदा में प्रवेश करती हैं। दसदसपणोति पण्णं तीसं दमयं च रूप्पगिरिवासा। खपरामिजोग सेढी सिहरे सिद्धादिलं तु ।। ६९३ ।। दश दश पञ्चान्न पञ्चाशत् त्रिशत् दश च रूप्यगिरिम्यासा। खचराभियोग्या अंगी शिखरे सिद्धादिकूटं तु ॥ ६९३ ॥ वस । तस्य विषयास्य श योजनोत्सेधा प्रथमा श्रेणी पश्चाशयोजनसमध्यासा| तत उपरि बशयोजनोसेषा द्वितीया रिणस्विशायोजनसमयासा, तास उपरि पव्रयोजनोसेघ उपरिमशिखरो Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : मरतिश्लोकाधिकार रशयोमनग्यासः । तत्र प्रयमो प्रयतटगतपयो नबरा निवसन्ति, वितीयायामाभियोग्या शिखरे तु सिवारिनबटानि संति ॥ ६९ ॥ पापाई :-उन विजया पर्वतों को दश योगन, दश योजन और पांच योजन की ऊंचाई तक क्रमशः पचास योजन, तीस योजन और दश पोजन भ्यास-चौड़ाई है। इसकी प्रथम श्रेणी पर विद्याधर, द्वितीय श्रेणी पर आभियोग्य जाति के देव रहते हैं। तथा शिखर पर सिवायतन आदि कूट है ॥ ६६३ ।। विशेषा:-उन विजयाचं पर्वतों की कुल ऊंचाई २५ योजन है जिसमें नीचे से दश योजन की ऊंचाई पर्यन्त ५० योजन चौड़ा है। इसके ऊपर दक्षिणोत्तर दिशा में दश दश योजन को कटनी को छोड़ बीच में दश योजन की ऊँचाई तक तीस योजन चौड़ा है। पुनः दक्षिणोत्तर दिशा में वश-दण योजन की कदनी छोड़ कर पांच योजन की ऊंचाई तक दश योजन चौड़ा है। दक्षिणोत्सर दोनों तटों को प्रथम श्रेणी पर विद्याधर और द्वितीय घणी स्वरूप कटनी पर आभियोग्य जाति के देव निवास करते है, तथा शिखर पर सिद्धायतन आदि नव कूट है। जिसका चित्रण निम्न प्रकार है विजमार्च पर्वत पा LifhidithimuT - TITI अथ तव द्वितीयादिश्रेणी विशेषमाइ सोहम्मआमिजोम्गगमणिचितपुराणि विदियसेदिम्हि । धेयकमारवई सिहरतले पुण्णमदक्खे ॥ ६९४ ।। सौधर्माभियोग्यगमणिचित्रपुराणि द्वितीय श्याम् । विजपाकुमारपतिः शिखरतले पूर्णभद्राक्ष्ये ॥ ६९४ ।। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ त्रिलोकसाथ गाथा : ६९५ से ६९८ सोहम्म । तव द्वितीयायां घेण्यां सौधर्मसम्बन्ध्यासियोग्यानां मणिमयानि विचित्रपुराणि सन्ति । तस्य विवरतले पूर्णमद्रारूपे फूटे विजयाषंकुमारपतिरहित || ६१४ || अब वहाँ ही द्वितीयादि श्रेणी पर विशेष कहते हैं गाथाचं :- द्वितीय श्र ेणी पर सोधर्म सम्बन्धी अभियोग्य देवों के नाना प्रकार के मणिमम नगर हैं तथा शिखर के नीचे पूर्णभद्र नाम कूट पर विजयार्धकुमारपति ( देव ) रहता है || ६६४ ॥ अथ तत्र प्रथम ण्योः स्थितविद्याधरनगराणां संख्यां तनामानि च पञ्चदशभिगामिराहपणदणं पणदणं विदेहवेय पदमभूमिहि । णयराणि पष्ण सट्टी जंबूद्धभयं तदेय ।। ६९५ ।। पञ्चपञ्चाशत् पद्मपखाशत् विदेविज बाघ प्रथमभूमी | नगराणि पञ्चाशत् षष्टिः जम्भयान्तविजयार्थे ॥ ६९५ ।। पर। विदेहविक्रयाप्रयमो भय श्रेण्योः प्रत्येकं यथासंख्यं पञ्चाधिकपचाशत् ५५ पश्चाचिकपञ्चाशत् ५५ नगराणि सन्ति । जम्बूद्वीपो भवान्सभरत रावतस्यविजयार्थे प्रथमो भयौ च पवा ५० षष्टि ६० नगराणि सन्ति ॥ ६६५ ॥ अब वह प्रथम ( दक्षिणोत्तर दोनों ) श्र ेणी पर स्थित विद्याधरों के नगरों की संख्या और उनके नाम पन्द्रह गाथाओं द्वारा कहते हैं गाथायें :- विदेह स्थित विजयार्थ की प्रथम अर्थात् दक्षिण मोर उत्तर श्र ेणी पर पचपन, पचपन नगर हैं, तथा जम्बूद्वीप के दोनों अन्त स्थित भरतेरावत सम्बन्धी विजयाधों को दक्षिणोत्तर श्रेणियों पर ५० र ६० नगर हैं ।। ३६५ ।। विशेषा:--- विदेह स्थित विजयार्थ पर्वत की प्रथम कटनी गठ दक्षिण और उत्तर इन दोनों श्र ेणियों पर यथाक्रम ५४ ५५ नगर हैं, तथा जम्बूद्वीप के दोनों अन्तिम भागों पर स्थित भरतेरावत सम्बन्धी विजयावं की प्रथम कटनी गत दक्षिणोत्तर दोनों में शियों पर ५० रु ६० नगर हैं । सेलायामे दक्खिणसेटीए पण्णमुचरे सट्टी | तृष्णामा पुत्रादी किंणामिद किंणरगीदं ।। ६९६ ।। रमीदं बहुकेद्र पुंडरियं सीहसेदगरुडधजं । सिरिपइधर लोहम्माल मरिजयं नामग्गलड्डूपुरं ||६६७ ।। होइ विमोह पुरंजय सयडचदुग्बहुमुही य भरजखा । विरजक्खा रहस्णूपुर मेइलअग्गपुर खेमचरी ।। ६९८ ।। Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा:१९९से७०८ नरतियंग्लोकाधिकार भवराजिद कामादीपुष्पं गगणनरि विणयचरि सुक्कतो संजयंतिणगरं जयंति विजया वाजयंती य ।। ६९९ ॥ खेमंकर चंदाहं पूराहं चित्तकूड महकूडं । हेमतिमेह विचित्तय कूड वेसवणकूडमदो ।। ७०० ॥ सूरपुर चंद पुरणिच्चुजोदिणि विहिणीचबाहिणियो। सुनही चरिमा पच्छिमभागादो अज्जुणी भरुणी ||७०१।। केलास वारुणीपुरि विज्जुप्यह किलिकिलं च चूडादि । मणि ससिपह वंसालं पुष्फादी चूलमिह दसम ।। ७०२ ॥ तसोवि हंसगन्मं चलाहगं तेरसं सिर्वकरयं । सिरिसोध चमरसिवमंदिर वसुमका वसुमदी य ७०३॥ सिद्धत्यं सत्त्जय धयमालसुरिंदकंत गयणादि । गंदणमवि बौदादिमसोगो अलगा दो तिलगा |७.४।। परतिलग मंदर कुमुद कुदं च गयणपालन्या तो दिव्वतिलय भूमीतिलयं गंधब्बणयरमदो।। ७०५ ।। मुचाहार णेमिसममिगमहलालसिरिणिकेदबुरं । जयवह सिरिवासं मणिवज भस्सपुरं धणंजययं ॥७.६॥ गोखीरफेणमक्खोभं गिरिसिहरं प धरणि धारिनियं । दुग्गं दुदरणयरं सुदंसणं तो महिंद विजयपुरं ।। ७.७॥ गरी सुगंधिणी पद्धतरं रपणपुवायरयं । रयणपुरं चरिमते रयणमया राजधाणीमओ ।। ७.८ ।। शैलाया दक्षिणपया पश्चाशदुत्तरस्यां षष्टिः। सन्नामानि पूर्वादितः किन्नामित किन्नरगीतं ॥ ९॥ नरगीतः बहकेतुः पुण्डरीक सिहश्वेतगडावजे। श्रीप्रभधरं लोहागंलमरि जयं वनागलाढयपुरं ॥६॥ भवति विमोचि पुरसय शकटचतुबह मुखी च अरजस्का। विरजस्का रथनूपुर मेचलानपुर क्षेमचरी ।। ६९८ ।। अपराजितं कामादिपुष्पं यगनचरी विनयचरी सुकान्ता । सनयन्तिनगर जयन्ती विजया वैजयन्ती च ॥ ६९९ ॥ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : ६६५ से ७.८ क्षेमकरं चन्द्राभं सूर्याभ चित्रकूट महाकुटं । हेमत्रिमेघविचित्रकूट वैश्रवणकूट मतः ॥७ ॥ सूर्यपुरं चन्द्रपुरं निस्योद्योतिनो विमुखी नित्यवाहिनी। मीनारमा परि नागात् अजुनी अरुणी ।। ७.१ ॥ कैलाशं वारुणी पुरी विद्युत्प्रभं किलिकिलं च चूडादिः । मरिण; शशिप्रभ वैशालं पुष्पादिः चलमिह दशमं ।। ७०२ ।। सतोऽपि हंसगर्भ बलाहक त्रयोदशं शिवडूरं । श्रीसीधं चमरं शिवमन्दिरं वसुमत्का वसुमती च ।। ७.३ ।। सिद्धार्थ शत्रुञ्जय ध्वजमाल सुरेन्द्रकान्तं गमनादिः। नन्दनमपि वीतादिम शोक: अलका ततस्तिलका ॥ ७०४ ॥ अम्बरतिलक पदरं कुमुदं कुन्दं च गगनवन्नभं । ततो दिधतिलकं भूमीतिक के गन्धर्वन गरमतः ।। ७.१ ।। मुक्ताहार नैमिषमग्निमहाज्वालं श्रीनिकेतपुरं । जयावह श्रीवासं मणिवञ्च भद्रा स्वपुरं धनजयं ॥ ७०६ ।। गोक्षीरफेनमशोभं गिरिशिखरं च परणि धारिणिक । दुर्ग दुधरनगर सुदर्शनं ततो महेन्द्रविजयपुरं ॥४॥७॥ नगरी सुगन्धिनी वनातर रत्नपूर्णमाकरें । रतपुरं चरम ता: रत्नममा राजधान्यः || ७.८ ॥ सेला। भरतरावतविजयाशेलायामे दक्षिणपयो पश्नाश ५० नगराणि, उत्सरणी तु षधि ६० नगराणि । तेषा नगराणां नामानि पूर्वविशः पारम्प कश्यन्ते-१ किन्नामित २ किन्नरपीतं ॥ ६९६ ॥ सरणीवं । ३ नरगीतः ४ बकेतुः ५ पुनरीकं ६ सिंहध्वजं ७ पवेतध्वज ८ गडध्वज श्रीप्रभ १० श्रीधर ११ लोहार्गल १२ परिजायं १३ वज़ार्गलं १४ पञ्चायपुरं ।। ६९७ :। हो । भवति १५ विमोचि १६ पुरं ( पुरोत्तमं ) १७ अयं १ शकटमुली १५ चतुर्मुखी २०१४मुली २१ परजस्का २२ विरजका २३ स्थनूपुर २४ मेखलायपुरं २५ सेमवरी ॥६॥ भवराजिव । २६ प्रपराजितं २७ कामपुष्पं २८ गगनचरी २६ विनयधरी ३० सुकान्ता ३१ सञ्जपतिनगर ३२ अयन्सो ३३ विजया ३४ वैजयन्तो ॥ ६९६ ॥ खेमंकर । ३५ क्षेमधुरं ३६ चन्द्राभं ३७ सय ३८ चित्रकूटं ३६ महाकूट ४० हेमकूट ४१ त्रिकूट ४२ मेघकूटं ४३ विचित्रकूट ४४ वैववरणकूटमतः॥४०॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६६६ से ७०८ निरतियग्लोकाधिकार सूर । ४५ सूर्यपुरं ४६ चनापुर ४७ निरयोयोतिमी ४८ विमुखो ४ निस्पवाहिनी ५. सुमुखी बरमा ५० उसरमण्यो । पश्चिम भागावारभ्य कस्यन्ते-१ पर्जुनी र अवलो।। ७०१॥ केलास । ३ फैलाशं ४ वाणीपुरी ५ विद्युत्प्रभ ६ किलिकिलं ७ पूगमणिः ८ शशिप १ वंशाल १० पूष्पचूमिह वशमम् ।। ७०२ ।। तसोवि । ततोऽपि ११ हंसगर्भ १२ बलाहक १३ शिष १४ पोसौधं १५ चमरं १६ शिवमंदिर १७ वसुमरका च १८ वसुमती ॥ ७.३ ॥ सिद्धस्य। १६ सिद्धार्ग २. अजय २१ वनमाल २२ सुरेशलान्त २१ गगममन्दन २४ अशोको २५ विशोको २६ वीतशोको २७ प्रलका, तत: २८ तिलका ।। ७.४ ।। मंदर । २६ पम्बरतिलकं ३. मम्वर ३१ कुमुद ३२ कुन्वं च ३३ गगनबनम, सतः ३४ विन्यतिलकं ३५ भूमितिलक ३६ घर्वमगरं ॥७०५ ।। मुसा । ३७ मुक्ताहारं ३८ नैमिष ३६ अग्निज्वाल ४० महाज्वालं ४१ श्रोनिकेतपुरं ४२ गयाबाई ४३ बोयासं ४४ मरिणवचाक्ष्य ४५ भावपुरं ४६ पनअयं ५७०६ ।। ___ गोखोर । ७ गोक्षीरफेनं ४८ प्रक्षोभं ४६ गिरिशिखरं ५. परणिपुरं ५१ षारिणीपुरं ५२ दुर्ग ५३ वुरिनगरं ५४ सुदर्शन ततो ५५ महेन्द्रपुरं ५६ विजयपुरं ॥ ७०७ ॥ गरी । ५७ सुगन्धिमी नगरी ५८ पापंसर ५६ रत्नाकर ६. रानपुरं परमं ६० नमया राजधान्यः स्युः ।। ७.८॥ पायापं:-भर रावत सम्बन्धी विजयाधी की पूर्व पश्चिम लम्बाई में दक्षिण श्रेणी पर पचास और उत्तर श्रेणी पर साठ नगर हैं। पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर चन नगरों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं- १ किनामित, २ किन्नरगीत, ३ नरमीत, ४ बहुकेतु. ५ पुण्डरीक, ६ सिंहध्वज, " श्वेतध्वज, ८ गहथ्वज, ६ श्रीपभ, १. श्रीधर, ११ लोहागंल, १२ अरिजय, १३ वप्नार्गल, १४ वनाध्यपुर, १५ विमोचि, १६ पुर ( पुरोत्तम ।, १७ जय, १८ शकटमुखी, १६ चतुमुखी, २० बहुमुखो, २१ अरजस्का, २२ विरजस्का, २३ रपनूपुर, २४ मेम्बलानपुर, २५ क्षेमचरी, २६ अपराजित, २७ कामपुष्प, २८ गगनचरी, २९ विनयचरी, ३. सुकाता, ३१ सजयन्ति नगर, ३२ जयन्ती, ३३ विजया, ३४ वैजयन्ती, ३५ क्षेमकर, ३६ चन्द्राभ, ३. सूर्याभ, ३८ चित्रकूट, ३६ महाकूट, ४. हेमकूट, ४१ त्रिकुट, ४२ मेघकूट, ४३ विचित्रकूट, ४४ वैववरणकूट, ४५ सूर्यपुर, ४६ चन्द्रपुर, ४७ नित्योद्योतिनी. ४८ विमुखी, ४६ नित्यवाहिनो और अन्तिम ५. सुमुखी है ( ये दक्षिण श्रेणोगत २० नगरिया हैं) । अब उत्तर मेणी में पश्चिम भाग से प्रारम्भ कर क्रमशः १ अर्जुनी, २ अरुणो, कैलाश, ४ वारुणोपुरी, ५ विद्य प्रम, ६ फिलिकिल, ७ चूडामणि, शशिप्रभ, ९ वंशाल, १० पुष्पचूल, ११ हेसगर्म, १२ बलाहक, १३ शिवङ्कर, १४ श्रीसौष, १५ चमर, १६ शिव मन्दिर, १५ वसुमत्का, १८ सुमति, १९ सिद्धार्थ, २० शत्रजय, २१ वजमान, Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाया:७०६-७१. २२ सुरेन्द्रकान्त, २३ गगननन्दन, २४ अशोका, २५ विशोका, २६ वीतशोका, २७ अलका, २८ तिल का, २९ अम्बरतिलका, ३० मन्दर, ३१ कुमुद, ३२ कुन्द, ३. गगनवलभ, ३४ दिव्यतिलक, ३५ भूमितिलक, ३६ गन्धर्व नगर, ३७ मुक्ताहार, ३८ नैमिष, ३६ अग्निज्वाल, ४० महाज्वाल, ४१ श्रीनिकेतपुर, ४२ जयावह, ४३ श्रीवास, ४ मरिणवन, ४५ भद्राश्वपुर, ४६ धन सय, ४७ गोक्षीरफेन, ४८ प्रक्षोभ, ४९ गिरिशिखर, ५. घरणिपुर, ५१ धारणीपुर, ५२ दुर्ग, ५३ दुर्धर नगर, ५४ सुदर्शन, ५५ महेन्द्रपुर, ५६ विजयपुर, ५७ सुगन्धिनी नगरी, ५८ बच्चाधंतर, ५ रत्नाकर और अन्तिम १. रलपुर नाम का नगर है । ये सभी नगरियाँ रत्नमयो राजधानियां हैं । अर्थात् राजामों के निवास स्थान पाही नगरों में हैं ।। ६९६ से ७०८।। पायारगोउरलचरियासरवण विराजिया तत्थ । विजाहरा तिविजा वसंति छक्कम्मसंजुत्ता ।। ७.९ ॥ प्राकारगोपुराट्टालचसिरोवनः विराजिता तत्र । विद्याधरा त्रिविद्या वसात षट्कर्मसंयुक्ता ॥ 06 पायार। ताश्च पुनः प्राकारगोपुराट्टालकवर्यासरोवविराजिताः। सत्र साषितकुलजातिविद्याभिः त्रिविद्याः षट्कर्मसंयुक्ताः इज्या भसिमच्याविजीवनोपायव्यापारो पाता पत्तिय स्वाध्यायः संयमस्तपः इत्येतानि षट्कर्माणि एतर्युक्ता विद्यापरा बसन्ति ॥ ७०६ ॥ पापार्ष:-वे समस्त नगरियर्या कोट, दरवाजे, मन्दिर मार्ग, सरोवर और वनों से सुशोभित हैं। वहाँ पर सोन प्रकार की विद्याओं बोर षट्कम संयुक्त विद्याधर निवास करते हैं।। ७० ॥ विशेषार्ष:-भरतरायत क्षेत्र स्थित विजयाध की दक्षिणोत्तर दोनों बेणियों की ११० नगरिया प्राकार, गोपुर ( दरवाजा ), मन्दिर मार्ग: सरोवर और वनों से सुशोभित हैं। वहाँ रहने वाले विद्याधर स्वयं साधना से प्राम, पितृपक्ष ( कुल कम } से प्राप्त बोर मातृपक्ष ( जाति ) से प्राप्त त्रिविद्याओं एवं इज्या, चाता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इन षट्कर्मों से संयुक्त हैं। १. पूज्य पुरुषों को पूजना इज्या कहलाती है। २. असि, मसि पादि जीविका के उपाय रूप व्यापार को वार्ता कहते हैं। ३. स्वपरोपकारार्थ दान देने का नाम दत्ति है। ४. पठन पाठन को स्वाध्याय कहते हैं। ५. अविरतिरयाग का नाम संयम और रत्नत्रय का आविर्भाव करने के लिए इच्छा का निरोध करना तप है। अथ विजयाघकृतषट् खण्डस्थम्लेच्छखहमध्यस्थितवृषभाद्रीणां स्वरूप निरूपयति सचरिसयवसहगिरी मझगयमिलेच्छखंडबहुमज्के । कणयमणिकंचणुदयति मरिया गयचक्किणामहि ॥७१।। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ गाथा : ७११ नरतियालोकाधिकार सातशत वृवापर: मध्यगलमय खरबजय। करकणिकाञ्चनोपयति भृता गतवक्रिनामभिः ॥ ७१०। सप्तरि। मकवर्णा मणिमयाः काञ्चनपर्वतोवय १. भू १.० मुल ५. भ्यासा: गतकिरण नामभिमृताः सप्तायुत्तरं शतं १७. पवमगिरयः मध्यगतम्लेच्छसण्यामध्ये सिga || uton विजयाचं द्वारा किए हुए छह खण्डों में से मदेच्छ खण्क्ष के मध्य स्थित वृषभाचल के स्वरूप का निरूपण करते हैं: पाया:-मध्यगत मेच्छ खण के ठीक मध्य भाग में स्वर्ण वर्ण वाले मणिमय वृषभाचल पर्वत हैं। ये प्रत्येक देश में एक एक हैं, अतः इनकी कुल संख्या १७० है । इनके उदय आदि तीनों प्रमाण कावन पर्वत सदृश हैं। ये पर्वत अतीत कालीन चक्रवर्ती राजाओं के नामों से भरे हुए है ।। ७१० ॥ विशेषा:-विजया पर्वत और गङ्गा सिन्धु नदियों के द्वारा किए हुए खण्डों में जो मध्य का म्लेच्छ खण्ड है, उसके ठीक मध्य में काश्चन पर्वतों के सदृश १०० योजन ऊँचे, भूमि पर १.. योजन चौड़े और शिखर पर ५० योजन चौड़े, स्वगं वर्ण वाले मणिमय १७० वृषभाचल हैं। छह खण्डों पर विजय प्रा8 कर जो चकवी होते हैं, वे इन पर्वतों पर अपना नाम लिखते हैं। मतीत काल में होने वाले चक्रवर्ती राजाओं के नामों से ये पर्वत भरे हुए हैं। अथ तथार्यखण्डमध्यस्थितराजधान्मा म्यासायामो कथयति सहरिसपणयगणि य उपजलधिगजखंडमज्झम्हि । चक्कीण णत्रय बारस वासायामेण होति कमे || ७११ ॥ सतिशननगराणि च उपजलधिगायबण्डमध्ये । चकिया नव द्वादश ध्यासायामाभ्यां भवन्ति क्रमेण ।।७१५॥ सत्सर । उपनलषिगतार्यखणामध्ये यातायामाम्यां कमेण नव वाश १२ पोजनानि सप्तत्युत्तरशतं पकिरणा नगराणि भवन्ति ॥११॥ आयखमों के मध्यस्थित राजधानियों का व्यास और आयाम कहते हैं गाणार्थ :- उपसमुद्रगत आर्यखण्ड के मध्य में चक्रवर्ती के निवास योग्य र योजन चौड़ी और १२ योजन लम्बी १५० क्षेत्रों से सम्बन्धित १७० मुख्य राजधानियां हैं। अथ तेषां नामानि पाथाचतुष्टयेनाह Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा: ७१२७१५ खेमा खेमपुरी घेरिद्वारिद्वपुरी तहा । खगमा य मंजुसा चेव भोसही पुंडरीकिणी ||७१२|| सुसीमा कुंडला चेव पराजिद पईकरा | अंका पउमावदी चेव सुभा रयणसंचया ।। ७१३ ।। मस्सपुरी सींहपुरी महापूरी तइ य दोदि विजयपुरी । अरथा विरया चेव मसोगया वीदसोगा य ।। ७१४ ॥ विजया च वइ जयंती जयंत अवराजिदा य बोदव्या। चक्कपुरी खग्गपुरी होदि अयोमा अबझा य ||७१५|| क्षेमा क्षेमपुरी चैव अरिया अरिष्टपुरी तथा। खङ्गा च मज्जूषा वेव ओषधी पुपरीकिरणी ॥ ७१२ ।। सुसीमा कुण्डला चैव अपराजिता प्रभङ्करा। सहा पद्मावती व शुभा रत्नसंचया ॥७१३।। अश्वपुरी सिहारी महापुरो तथा च भवति विजयपुरी। अरजा विरमा चैव अशोका वीतशोका च ॥ १४ ॥ विजया च वैजयन्ती जयन्ता अपराजिता च बोद्धव्या। चऋपुरी खड्गपुरो भवति अयोध्या अवघ्या च ।। ७१५ ॥ खेमा । फुप्तीमा । प्रस्सपुरी । छायामात्रमेवार्थ ॥ ७१२-७१४ ॥ विजया । छायामानमेवाः ॥७१५ ।। भरतरावतगतमहिमगरयोस्तु माम्मोनियतत्वात एका नाम्ना मध्ये मध्यतमं भवतीति पृषा न गृहोते ॥ चार गाथाओं में उन राजधानियों के नाम कहते है गामा :- पूर्वोक्त कच्छादि विदेह देशों में मुख्य राजषानियों के नाम क्रमशः] १क्षेमा, २ क्षेमपुरी, ३ मरिष्टा, ४ अरिष्ट्रपुरी, ५ खङ्गा, ६ मञ्जूषा, ७ औषधी, ८ पुण्डरीकिणी, ९ सुसीमा, • कुण्डला, ११ अपराजिता, १२ प्रभङ्करा, १३ अङ्का, १४ पद्मावती, १५ शुभा, १६ रत्नसश्चया, १७ अश्वपुरी, १८ सिंहपुरी, १९ महापुरी, २. विजयपुरी, २१ बरबा, २२ विरजा २३ अशोका, २४ वीतशोका, २५ विजया, २६ वैजयन्ती, २७ जयन्ता, २८ अपराजिता, २ चकपुरी, ३० खड़गपुरी, ३१ अयोध्या और ३२ अयध्या ये ३२ नाम है ।। १२-१५ ॥ विशेष-भरतैरावत क्षेत्रों में चक्रवती राजाओं को राजधानियों के नाम कोई एक नियम रूप नहीं हैं, इसलिए पूर्वोक्त नामों में से ही कोई एक नाम होगा, अतः उनका अलग नाम नहीं कहा। Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १५-७१७-१८ नरतिर्यग्लोकाधिकार अथ तेषां नगराणां विशेषस्वरूपं गाथाद्वयेनाह-- रथणकवाडवरावर सहस्सदलदार हेमपायारा । वारसहस्सा वीही तत्थ चउप्पह सहस्सेक्कं ॥ ७१६ ।। णयराण बहिं परिदो वणाणि तिसदं ससहि पुरमज्झे । जिणमवणा णरवाजणगेहा सोहंति रयणमया ॥ ७१७ ।। रत्न कपाटवरावरा सहस्रदलद्वारा हेमप्राकाराः। द्वादशसहस्राणि वीय्य: तत्र चतुष्पथानि सहस्रकम् ।।१६।। नगगणां पहिलवान सष्टिा पुरमध्ये । जिनभवनानि नरपतिजनगेहानि शोभन्ते रत्नमयानि ॥ ७१७ ॥ रयण। तेषो मगराणा रलमयकवाटा उत्कृष्ठसहस्रद्वारा: अधयतद्दल ५०० बारा: हेममपप्राकारा भवन्ति । तबभ्यन्तरे द्वादशसहस्राणि पोप्यः तत्रैकसहस्र चतुष्पपानि स्युः ॥१६ एयराण । नगराणा बहिः परितः बहिसमन्वित्रिशतं ३६० बनानि सन्ति । पुरमध्ये जिनभवनानि नरपतिगृहारिण जनगृहाणि रश्नमयानि शोभन्ते ॥ ७१७ ॥ अब उन नगरों का विशेष स्वरूप दो गाथामों द्वारा कहते हैं : गापाय :-उन नगरों के एक हजार उत्कृष्ट द्वार और पांच सौ जघन्य द्वार हैं । जिनके कपाट रत्नमय हैं। जिनका प्राकार स्वर्णमय है। जिनमें बारह हजार वीथियां (गलियाँ ) और एक हजाय चतुष्पच हैं। नगरों के बाहर चारों ओर ३६० वन (बाग ) हैं, तथा नगर के मध्य में रत्नमय जिन भवन, राजभवन एवं अन्य मनुष्यों के भी भवन शोभायमान होते हैं ॥ ७१६, ४१७॥ विशेषार्थ :--उन नगरों के प्राकार ( कोट ) स्वर्णमय हैं। उनमें १.०० उत्कृष्ट ( बड़े ) द्वार और ५.. जघन्य ( छोटे ) द्वार हैं, जिनके कपाट रत्नमय है उन नगरों में १२००० अभ्यन्तर वीथियाँ और१... चतुष्पय हैं। नगरों के बाहर चारों ओर ३६० वन ( बाग ) हैं, तथा नगर के मध्य में रत्नमय जिनभवन, राजभवन एवं अन्य जन ( अन्य मनुष्यों के ) भवन शोभायमान होते हैं । इदानीं नाभिगिरीणामवस्थितस्थानं तदुत्सेधादिकं च गाथाद्वयेनाह घिरमोगावणिपज्मे नामिगिरीमो हवंति वीसाणि । वट्टा सहस्सतुंगा मूलुवरि तचिया रुंदा ।। ७१८ ॥ स्थिरभोगावनिमध्ये नाभिगिरयः भवन्ति विशतिः । वृत्ताः सहस्रतुङ्गा मूलोपरि तावन्तः रुन्द्राः ॥ ७१०।। ७२ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : ७१६ पिर। स्थिरभोगावनिमध्ये वृत्ता: सहलोत्सेया। मूलोपरि तावन्मात्र १०.. सन्द्रा विशतिनाभिगिरयः सन्ति ॥ ७१८ ॥ अब नाभिगिरि । पर्वतों) के अवस्थान का स्थान और उनका उत्सेधादि दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : ___ गाथा:-स्थिर भोगभूमियों के मध्य में मोलाकार, एक हजार ऊंचे तथा मूल में और ऊपर इतने ( १... योजन ) ही चौड़े बोस नाभिगिरि हैं ।। ७१८ ॥ विशेषाप:-एक मेह सम्बन्धी हैमवत, हरि, रम्यक और हरण्यवत क्षेत्रों में चार स्थिर भोग भ्रमिया हैं, अतः पांच मेरु सम्बन्धी २० स्थिर भोग-भूमिया हई। इन प्रत्येक क्षेत्रों के ठीक मध्य भाग में गोलाकार एक एक. नाभिपर्वत है जिसकी ऊंचाई १.०० योजन, तल भाग की चौड़ाई १००० योजन मोर जपरिम भाग को भी चौड़ाई १०.० योजन है। इस प्रकार खड़े स्तम्भ के आकार वाले पांच मेरु सम्बन्धी २. नाभिगिरि हैं। सहावं विजडावं पउमगंधवण्णाम सुक्किला सिहरे । सस्कदुगणुचर सादीचारणपउपप्पहास पाणसुरा।। ७१९ ।। श्रद्धावान् विजटावान पद्मगन्धवन्नामानि शुक्ला: शिखरे । शकटिकानुचराः स्वातिचारणपद्मप्रभासाः वानसुराः ।। ७१६ ॥ सजवावं । श्रद्धावान् विघटावान पपवान् गषवान इत्येतान्येव प्रत्येक पन्धमभारसम्बन्धिमा चतुर नाभिगिरोणां नामानि । ते च शुक्लवणाः, तेषां शिखरेषु सौषर्मशानयोरनुचराः स्वातिधारणपम्पप्रभावास्यव्यन्तरदेवा निवसन्ति ।। ७१६ ॥ गाथार्ष:- उपर्युक्त नाभिगिरि श्रद्धावान्, विजटावान्, पद्मवान और गन्धवान नाम वाले तथा वेत वणं हैं। इनके शिखरों पर सौधर्मशान इन्द्रों के अनुचर स्वाति, चारण, पद्म और प्रभास नाम के व्यन्तर देव रहते हैं ।। ७१६ ।। विशेषापं:-हैमवत क्षेत्र के ठीक मध्य भाग में श्रद्धावान्, हरिक्षेत्र के मध्य विमटानान्, रम्यक क्षेत्र के मध्य पद्मवान् और हरण्यवत क्षेत्र के मध्य गन्धवान् श्वेत वर्ण नाभिगिरि हैं । इनके विखरों पर सौधर्मशान इन्द्रों के अनुचर स्वातिचारण, पद्म और प्रभाप्त नाम के व्यन्तर देव रहते हैं। पांचों मेख सम्बन्धी २० नाभि पर्वतो के नामादिक यही हैं । इदानी हिमवदादिलगिरीणां विजयाणां चौपरिस्थितवाटानां संख्यादिकमाचष्टे Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ७९० से ७२३ नरतियं ग्लोकाधिकार ककारस हिमादिकूलानि । एक्कारसङ्कणवणव बेयड्डाणं णवणव पृन्त्रगकूल म्हि जिणभवणं || ७२० ।। एकादशाष्ट नव नव अष्टेकादश हिमादिकूटानि । विजयानि नव नव पूर्वगकूदे बिनभवनानि ॥ ७२० ॥ एक्काएका ११८ नव नष्ट ८ एकादश ११ प्रमितानि ययासंख्यं हिमवदादिकूटानि । तत्र पूर्व विग्गतकूटे मिनभवनामि कुलपत६परिस्थितकूटानि विजयार्थाना तुपरि भवन सन्ति ।। ७२० ॥ २०१ अब हिमवन् यदि कुलाचल और विजयार्थी के ऊपर स्थित कूटों की संख्यादि कहते हैंगाथार्थ :- हिमवदादि पर्वतों पर क्रमशः ग्यारह, तथा विजयार्थ पर्वतों के ऊपर तो नो कूट है। है ।। ७२० ।। पूर्व १ कूलादि ( ब०, प० ) । आठ, नो, नो, आठ और ग्यारह फूट हैं दिशा सम्बन्धी कूटों पर जिनभवन I विशेषार्थ :- हिमवन् पर्वत के ऊपर ११, महाहिमवत् पर, निषध पर है, नीच कुलाचल पर ९, रुक्मी कुलाचल पर और शिखरि कुलाचल पर ११ कूट अवस्थित हैं । प्रत्येक विजयापर्यंत पर ९, ९ कूट हैं। ये कूट पर्वतों के ऊपर और गोल माकार के होते हैं। ये नीचे बहुत चौड़े मोर उपरिम भाग में कम चौड़े होते हैं। पूर्व दिशागत सिद्धायतन नामा कूटों के ऊपर जिन मन्दिर है । अथ उक्तकूटानां नामादिकं गाथादशकेन निगदति कमसो सिद्धायदणं हिमचं भरहं इला य गंगा य । सिरिंकूडरोहिस्सा सिंधु सुरा हेमवदय बेसवणं ।। ७२१ ।। पढमे बिदि गेहं देवीओ जुवदिणामकूडे | सेसेसु कूडणामा वैतरदेवावि णिवति ।। ७२२ ॥ बट्टा सच्वे कूड़ा रयणमया सगणगस्स तुरियुदया | तचियभूवित्थारा तदद्भवदणा हु सम्वत्थ || ७२३ ।। क्रमशः सिद्धायतनं हिमवान् भरतं छला च गङ्गा च । श्री कूटं रोहितास्या सिन्धुः सुरा हैमवतके वैश्रवणं ॥ ७२१ ॥ प्रथमे जिनेन्द्र गेहूं देव्यो युवतिनामकूटेषु । शेषेषु कूटनामाना व्यन्तरदेवा अपि निवसन्ति ।। ७२२ ॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ त्रिलोकसार गाथा: ॥१४ वृत्ताः सर्वे कूटा रत्नमया: स्यकनगस्य तुर्योदयाः। ताव विस्ताराः तदधंवदनाः हि सर्वत्र ।। ७२३ ॥ कमसी। कमशस्तेषां नामानि सिद्धायतनं हिमवान् भरतं इलाच गङ्गा न श्रीकूटं रोहितास्या सिन्धुः सुरा हेमवतकं वैषधरणं ॥ ७२१॥ __पढमे । तत्र प्रपमकूटे मिनेन्द्रगेहं यालिङ्गायकूटषु यसरया निवसन्ति । शेष तरफूटनामपन्तरवा निवसन्ति । ७२२ ॥ पट्ट।। ते सर्वे कूटा: दृत्ताः रस्ममयाः स्वकीय स्वकोयनमस्य चतुर्षाशोवया तापमात्रमूविस्ताराहतवर्षववनाः सर्वच खलु भवन्ति ॥ ७२३ ॥ उपयुक्त कूटों के नामादिक दश गाथाओं द्वारा कहते हैं : पापाय:-[ हिमवन कुलाचल के ऊपर स्थित ११ क्रूटों के नाम ] क्रम से १ सिद्धायतन, २ हिमवान्, ३ भरत, ४ इला, ५ गङ्गा, ६ श्रीकूट, रोहितास्या, ८ सिन्धु, ६ सुराकुट, १० हैमवतक, और वैश्रवण हैं। इनमें प्रथम कट पर जिनेन्द्र भवन, स्त्री लिङ्ग नामधारी फटों पर व्यन्तर देवियाँ और शेष कूटों पर कट नाम धारी व्यन्तर देव निवास करते हैं वे सर्व कट गोल और रत्नमय हैं। सर्व कटों की ऊँचाई अपने अपने पर्वतों की ऊँचाई का चतुर्थ भाग है। भू व्यास भी इतना ही है, तथा मुखव्यास भूव्यास का अर्घ प्रमाण है ।। ७२१.७२२, ७२३ ।। विशेषार्थ :-- क्रम से सिद्धायतन, हिमवान्, भरत, इला, गंगा, श्रीकूट, रोहितास्या, सिन्धु, सुरा, हैमवतक और वैश्रवण ये ११ कूट हिमवन् फुलाचल के ऊपर स्थित हैं । इनमें से प्रथम सिद्धायतन कूट के ऊपर जिन मन्दिर हैं, तथा स्त्रीलिंग नाम धारी इला, गंगा, श्रीकूट, रोहितास्या, सिन्धु पौर सुरा कटों पर व्यन्तर देवांगनाएं निवास करती है और मवशेष कूटों पर अपने अपने कूटनामधारी ध्यन्तर देव रहते हैं। वे सर्व कट रत्नमय और गोल आकार वाले हैं। इन कूटों की ऊंचाई अपने पर्वस की ऊंचाई के चौथाई भाग प्रमाण है, ऊँचाई प्रमाण सदृश ही भू व्यास और भू व्यास के अर्धभाग प्रमाण मुख व्यास है । हिमवन् पवंत १०० योजन ऊंचा है, अतः कूटों को ऊँचाई {१° = २५ योजन, जमीन पर चौड़ाई २५ योजन भौर ऊपर की चौड़ाई १२० योजन प्रमाण है। तो सिद्ध महाहिमचं हेमबदं रोहिदा हिरीकूडं । हरिकंता हरिवरिसं वेलुरियं पच्छिमं कूडं ॥ ७२४ ।। ततः सिद्ध महाहिमवान हैमवत्तं रोहिता ही। हरिकान्ता हरिवषं वडूयं पश्चिम कुट ।। ७२४ ॥ तो । पश्चिम परमं इस्पषः। छायामात्रमेवाः॥७४ ।। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७३ गाथा : ७२५-७२६-७२७ नरतियालोकाधिकार गामार्ग :-( महाहिमवन पर्वत पर ) १ सिद्धकूट २ महाहिमवन् । हेमवात ४ रोहिता सीट ६ इरिकाम्या या वयं ने कट हैं ।। ७२४ ।। विशेषार्थ :-उपयुक्त आठ कटों में से सिद्ध कूट पर जिन भवन है । स्त्रीलिंगधारी कटौं पर (व्यन्तर ) देवांगनाएं और शेष कूटों पर व्यन्तर देवों का निवास है। इन सभी कटों की ऊँचाई ५० योजन, भून्यास ५० योजन और मुखल्यास २५ योजन है। सिद्धं णिमहं च हरिवरिसं पुन्चविदेह हरिधिदीकूड । सीतोदा णाममदो अवरविदेहं च रुजगंतं ॥ ७२५ ।। सिद्ध निषधं च हरिवर्ष पूर्व विदेहं हरितिकूट । सीतोदा नाम अतः अपरवि देहं च रुचकान्तम् ।। ७२५ ।। सिहं । सिकं मिषधं च हरिवर्ष पूर्वविदेह हरिकूटं पतिकूट सोतोका नाम पतोऽपरविवेहं पानस हलकं ॥ ७२५ ॥ पापा:-१ सिद्धकूट, १ निषध, ३ हरिवर्ष, ४ पूर्वविदेह, ५ हरिकूट, ६ धृतिकूट, ७ सीतोदा कूट, ८ अपर विदेह कूट और अन्तिम चक कट निषष पर्वत पर हैं ।। ७२५ ।। विशेषा:-जिनगृह और देवों के निवास आदि पूर्वोक्त प्रकार ही हैं किन्तु यहाँ के कूटों की ऊँचाई १०० योजन, भूव्यास १०० योजन और मुखव्यास ५० योजन है । सिद्धं णीलं पुव्वविदेहं सीदा य किचि णरकता। अपर विदेहं रम्मगमपदंसणमंतिम गीले ॥ ७२६ ।। सिद्ध नीलं पूर्व विदेह सीता च कीति: नरकान्ता। अपरविदेहं रम्यक अपदर्शनं अन्तिमं नीले ॥ ७२६ ।। सिद्ध । छायामात्रमेवाः ॥.७२६ ।। पापा:- सिद्ध २ नील ३ पूर्वविदेह ४ सीता ५ कीति ६ नरकान्ता ७ अपर विदेह रम्यक और अन्तिम १ अपदर्शन ये कूट नौल पर्वत के ऊपर हैं ।। ७२६ ॥ विशेषार्थ :-इनका सर्व विशेष वर्णन निषषपर्यतस्थित कूटों के समान ही है। सिद्ध रुम्मी रम्मग णारी बुद्धी य रूप्पकूलक्खा । औरणं कूडमदो मणिकंचणमट्ठम होदि ।। ७२७ ।। सिद्ध रुक्मी रम्यक नारी बुद्धिश्च रूप्यकुलाया। हरण्यं कूटमतो मणिकाश्चनमष्टमं भवति ॥ ७२७ ।। सियं । छायामात्रमेवार्षः ॥ ७२७ ॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ त्रिलोकसार गाथा । ७२८-७२६-७३. पाचार्य :-१ सिद्ध २ रुक्मी ३ रम्यक ४ नारी ५ बुद्धि ६ रुप्यकला ७ हरण्यकूट और ८ मणिकाशन ये आठ कट हामी कुष्ठाचल के ऊपर है ।। ७२७ ॥ विशेषार्थ:-इनका सभी वर्णन महाहिमवन पर्वत पर स्थित कूटों के समान ही है। सिद्धं सिहरि य हेरण्णं रसदेवी तदो य रसखा । लच्छी सुवण्ण रत्तवदी पंधवदीय कूडमदो || ७२८ ॥ एरावदमणिकंचणकूडं सिहरिम्हि सच्चसेलाणं । मृले सिहरेवि हये दहेवि वणसंडमेदस्स ।। ७२९ ।। गिरिदोहो जोपणदलवासो वेदी दुकोसतुंगजुदा । घणुपणसयवासा णगवणणदिदहपदिएमु समा ।।७३०।। सिद्ध शिखरी च हैरण्यं रसदेवी ततश्च रक्ताख्या। लक्ष्मीः सुवर्ण रक्तवती गन्धवती साटमतः ।। ५२८ !! ऐरावतमरिपकाननकूट शिखरे सर्वशैलानाम् । मूले शिखरेऽपि भवेत् ह्रदेऽपि बनखण्डमेतस्य ।। २६ ॥ गिरिदैध्य योजनदलव्यासं वेदी विक्रोशतुङ्गयुता। धनुः पञ्चशतव्यासा नगवननदीह्रदप्रभृतिषु समाः ॥ ७३० ॥ सिद्ध छायामात्रमेवार्थः ।। ७२८ ।। एरावध । ऐरावत मणिकाश्चनकूट ११ शिखरे पर्वते सर्वेषां शैलाना मूले शिमरेऽपि हवेऽपि धमक्ष भवेत् । एतस्य वनखण्डस्य ॥ ७२६ ॥ गिरि । गिरिवंध्यमेव वैज़ योजनार्धव्यासं तस्यदेवी तु पनुः पञ्चशतम्यासा कोशवयोङ्गयुत। स्यात् । सा देवी नगवननदोहनप्रभृतिषु सर्वत्र माना ।। ७३० । पाचार्ग :-१ सिद्धायतन २ शिखरी ३ हैरप्प ४ रसदेवी ५ रक्तानाम ६ लक्ष्मी ७ सुवर्ण ८ रक्तवती । गन्धवती १० ऐरावत ११ मणिकाश्चन, ये ११ कूट शिस्त्ररिन पर्वत पर स्थित हैं। सभी पर्वतों के मूल में, शिखर पर और ह्रदों के चारों ओर वन हैं। इन वनखण्डों की लम्बाई अपने अपने पर्वतों की लम्बाई प्रमाण है, तथा व्यास (चौड़ाई ) अधं योजन प्रमाण है। वन खण्डों की वेदी दो कोश ऊंची और ५. नुप चौड़ी है । पर्वत, वन नदी और ह्रद आदि सभी को वेदियों का प्रमाण समान है ।। ५२८, ७२९, ७३० ।। विशेषार्थ:-शिखरिन् पर्वत स्थित उपर्युक्त ११ कूटों की ऊँचाई आदि का तथा उनमें निवास करने वाले व्यन्तर आदि देवों का वर्णन हिमयन शैल स्थित कटों के सदृश ही है। समस्त कुलाचलों Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ७३१ नरतिर्यग्लोकाधिकार के मूल भाग में और शिखर अर्थात उपरिम भाग में तथा वहाँ के चारों ओर भी वन हैं । इन वन खण्डों की लम्बाई कुलाचलों की लम्बाई प्रमाण और चौड़ाई अर्ध योजन है। वन खण्डों की वेदी दो कोशी ५०० भनु कोही नंत का, नही लोर छन आदि सभी को घेदियों का प्रमाण ( ऊंचाई और चौड़ाई ) सदृश ही है। साम्प्रतं पर्वतादिषु सर्वत्र वेदिकासंख्यामाह तिमदेवकारससेले णउदीकुडे दहाण छब्बीसे । तावदिया मणिबेदी णदीसु सगमाणदो दुगुणा ।।७३१॥ त्रिशतकादशीलेषु नवति कुण्डेषु ह्रदानां षड्विशतो। तावन्त्यः मणिवेद्यः नदोषु स्वकमानतः द्विगुणाः ।। ३ ।। तिस । जम्बूद्वीपस्य त्रिशतकादश ३११ शैलेषु ताइन्स्यो मणिमययेषः नतिकुण्डेषु १० तावनयो मणिमयवेधः हवाना पक्षिातो २६ तावत्यो मणिमयवैद्यः नवीषु स्वकीयप्रमाणतो डिगुणा मरिसमयवेद्यः स्युः । इत उतार्य विवृणोति - को भन्वरः १ षट कुलाबला: ६ पत्यारो यमगिरयः ४ द्विशतं कामचनपता २०० प्रहौ विगपर्वताः योग्य मारा: १६ चत्वारो गजान्ताः ४ बस्त्रियविजयार्थाः ३४ चतुस्त्रिशद् पृषभाचलाः ३४ चत्वाशे नाभिनगाः ४ एतेषु मिलिसेपु त्रिशरोकावश ३११ शैलसंख्या भवति । गङ्गाविमहानदीपतनकुण्डामि चतुर्वत १४ विभङ्गनद्युत्पत्तिकुण्डानि द्वादश १२ गंगासिघुसमान. नस्पत्तिकुण्डानि चतुः षष्टिः ६४ एतेषु मिलितेषु नबतिकुष्टानि ६० भवन्ति । कुलगिरिहवाः षट ६ सोताहरा दम १० सोतोदा हुदा दश १० एतेषु मिलितेषु षविंशति दक्ष २६ भवन्ति । गंगासिन्धुरक्तारक्तोवामा ४ प्रत्येक परिवारमबी १४... स्वगुणकारेण ४ गुयायित्वा ५६००० रोहिणोहितास्यासुपर्णरूप्यकूलाना ४ प्रत्येक परिधारनोः २८.०० वगुणकारेण ४ गुणयित्वा (१२.२० हरितरिकान्तानारीमरकान्तानां ४ प्रत्येक परिवारनवीः ५६... स्वगुणकारेण ४ गुणविस्वा २२४०. देवोत्तरकुरुस्थयोः सोतासोतोक्योः २ प्रत्येक परिवारलीः ८४००० तथा २ गुणयिस्ता १६८०० विभङ्गनाशीनां १२ प्रत्येक परिवारनी: २८०.. तया १२ गुणयित्ता ३३६००० गंगासिन्धुरक्तारक्तोद्वानां विदेहल्थनवीना ६४ प्रत्येक परिवारनीः १४००० सया १४ गुणयित्वा ८९६... एतानि सर्वाश्यकानि मेलपित्या १७६२०००। पत्र गुणकारमुख्यमयी ९० मेलने १७६२०१० जम्बूद्वीपसर्वमदोसंख्या। पत्र स्वप्रमाणतो १७६२०६• ठिगुणा ३५८४१८० मणिमयवेधो सातम्याः ॥ ७३१ ॥ अब पर्वत आदि पर सर्वत्र वैदिकाओं की संख्या कहते हैं : गापाय:-जम्बूदीप में तीन सौ ग्यारह पर्वत, १० कुण्ड और छब्बीस हद है। इनकी इतनी इतनी ही मणिमय वेदियां हैं, तथा नदियों का जितना प्रमाण है, मणिमय वेदियो उससे दूने प्रमाण पाली है । ( क्योंकि नदियों के दोनों पाव भागों में वैदियां होती हैं । ॥ ७३१ ।। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाषा: ७३१ विशेषार्थ:-जम्बूद्वीप में ३११ पर्वतों की ३११ ही मणिमय वेदिया है। सथा . कुण्डों की ६० और १६ द्रहों की २६ ही मणिमय घेदिया हैं। नदियों के अपने प्रमाण से वेदियों का प्रमाण दूना है। इसी कहे हुए अर्थ का विशेष वर्णन करते हैं :-जम्बूद्वीप में । सुदर्शन मेथ, ६ कुलाचल, ४ यमकगिरि, २०० काञ्चन पर्वत, ८ क्षिगज पर्वत, १६ वक्षार पर्वत, ४ गजदन्त, ३४ विजयाध पर्वत, ३१ वृषभाचल और ४ नाभिगिरि हैं, इन सबका योग करने पर (१+६+-४ + २००+++१६+४+ ३४+३४+४-३११ पर्वत होते हैं। गङ्गा, सिन्धु, रोहित् रोहितास्या आदि चौदह महान दियाँ कुलाचल पर्वतों से जहां नीचे गिरती हैं, वहाँ { नीचे ) कुण्ड हैं जिनकी संख्या १४ है। बारह विभङ्गा नदियों के उत्पत्ति कुण्डों को संख्या १२, बत्तीस विदेह देशों में से प्रत्येक देश में गंगा सिन्धु समान दो दो नदिया कुण्डों से निकलती हैं, अतः वहाँ के कुण्डों का प्रमाण ६४ है, इस प्रकार गे पट ! १५:-६ E से है। छह फुलाचलों पर ६ ह्रद, सोता नदी में १. और सीतोदा नदी में भी १० इस प्रकार कुल ह्रयों की संख्या (+१+१० }=२६ है। भरतरायत क्षेत्र स्थित गंगा सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा इन चार महानदियों में से प्रत्येक की परिवार नदियाँ १४०.. हैं, मत। अपने गुणकार का गुणा करने पर कुल प्रमाण ( १४०००x४)= ५६.५. हुआ । हेमवत और हैरण्यवत क्षेत्र स्थित रोहित रोहितास्या, स्वर्णकूला और रूप्यकला, इन प्रत्येक की सहायक २८.०. नदियाँ हैं, अतः परिवार नदियों का कुल प्रमाण (२८...xr)=११२.०. हमा । हरि और रम्यक क्षेत्र स्थित हरित, हरिकाता, नारी और नरकान्ता. इन प्रत्येक की परिवार नदियो ५६००० हैं अत: उनका कुल प्रमाण ( ५६.००x४) = २२४००० हुआ। देवकुरु उत्तरकुरु स्थित सीता-सीतोदा में प्रत्येक को परिवार नदियो ५४००. हैं, अतः उनका कुल प्रमाण ( २४...x २)= १६८००० हुआ। बारह विभङ्गा नदियों में प्रत्येक की परिवार नदियाँ २८. हैं, अतः १८००.४१२= ३३६... परिवार नदियों का प्रमाण हआ। बत्तीस विदेह देशों में गंगा-सिन्धु, रस्ता और रक्तोदा नाम को ६४ नदियाँ हैं, तथा प्रत्येक की परिवार नदियाँ १४००० हैं, अत: इनको परिवार नदियों का कुल प्रमाण ( १४०००४ ६४)-८९६००० हुआ। इन सम्पूर्ण परिवार नदियों का योग करने पर (५६०.०+११२.००+१२४००० + १६८०००+ ३३६००+६६.०.)-१७९२००० कुल प्रमाण प्राप्त हुआ। यहाँ गुणकार स्वरूप मुख्य नदियों का प्रमाण (४+४+४+२+१+ ६४ }=९. है । परिवार नदियों के प्रमाण में इन मुख्य नदियों का प्रमाण मिला देने पर ( १७९२...+९.)= १७६२०६. जम्बूद्वीप स्थित सम्पूर्ण नदियों का प्रमाण प्राप्त हुआ। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ७१२-१३३ भरतियंग्लोकाधिकार जम्बूद्वीपस्थ . प्रमुख नदियों का चित्रण निम्नप्रकार है -- - - PHETMAL महामवन भी पर YE का काम कर नदियों के दोनों तटों पर वेदिया होती है। अतः नदी सम्बन्धी वेदियों का प्रमाण ( १७९२.९.४२ )- ३५८४१८. है। इस प्रकार जम्बूदीप स्थित ३११ पर्वतों की ३११ वेदिया, ६० कुण्डों की ६० वेदिया, २६ हों की २६ वेदिया और १७६२०६० नावियों की ३५८४१० वेदियाँ हैं, जिनका सम्पूर्ण योगफल ३५८४६० ( ३५८४१८०+१+१०+२६ ) होता है। ये सभी वेदियो भणिमय हैं। पथ भरतरावस्थविषयाकटान् तत्रस्यदेवांश्च गाथाचतुष्टयेनाह सिद्धं दक्षिणपद्धादिममरहं खंदयप्पवादमदो। तो पुण्णमद वेयड्डकमारं माणिभदक्वं ।। ७३२ ।। तामिस्सगुहगमुपरमारहकूडं च वेसवण चरिमं । सिद्धत्तरतामिस्सादिमाहगं च माणिमहमदो ॥७३३।। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा : ७३२ से १५ तो यकुमारं पुण्णादीमद खंडयपबादं । दक्खिणरेषतमद्धं वेसवणं पुष्षदो दुवेपतु ।। ७३४ ॥ सिब दक्षिणार्धादिम भरत खण्डप्रपातमतः । ततः पूर्णभद्र विजयाकुमार मारिणभद्रास्य ॥ २२ ॥ तामिश्नगुह मुत्तरभरतकूटं च वैश्रवणं चरमं । सिद्धोत्तरार्ध तामिधादिमगुहं च माणिभद्रमतः ।।७३५॥ ततो विजया कुमार पूर्णादिभद्र खण्डप्रपातं । दक्षिणेरावताधं वैश्रवणं पूर्वतः द्विविजयाधं ॥ ७३४ ।। सिद्ध। फूिटं बक्षिणाधभरतं एडप्रपातं, ततः पूर्णभन्न विभयाकुमारं मारिणभास्य ॥ ७३२ ॥ तामिस्त । तामिस्रगुहं उसरभरतकूट घरमं वैषवणं । इस अपरावतविजयाटानि सिरकूट उसरारावलं तमिमगुहं मारिणभामत: ॥ ७३३ ॥ तो। सतो विजयाकुमारं पूर्णभर घराप्रपातं बक्षिणेरावता पेषवणं , एतानि कटानि १८ भरसरामतस्थयोविण्यायोः भवन्ति ।। ७३४ ॥ भरतरावत स्थित विजयाओं के कूट और उन पर अवस्थित देवों का वर्णन चार पाथाओं द्वारा करते है पायार्थ :--१ सिद्धकूट, २ दक्षिणार्घ भरतकूट, ३ खण्डप्रपात, ४ पूर्णभद्र, ५ विजयाघकुमार, ६ मणिभद्र नामा कूट, ७ तमित्रगुह कूट, 5 उत्तरभरत कूट और अन्तिम हवैश्रवण कूट ये भरतक्षेत्र स्थित विजयाई पर्वत पर ९ फूट है, तथा १ सिद्धफूट, २ उत्तरार्ध ऐरावत कूट, ३ तमिनगुइन ४ मणिभद्र, ५ विजयाकुमार, ६ पूर्णभद्र, खण्डप्रपात, - दक्षिणेरावतार्घ और वैश्रवण ये ऐरावत क्षेत्र स्थित विजयाध पर्वत पर पूर्व दिशा में लगाकर कम पूर्वक हैं ।। ७३२,७३३, ७३४ ।। विशेषार्ष:-उपर्युक्त र कूट भरत रावत स्थित विजमाघ पर्वतों पर है। ये पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर कम से स्थित हैं। कंचणमयाणि खंडप्पवादए णट्ठमाल तामिस्से | कदमालो लक्कूड़े वसंति सगणामबाणसुरा ।। ७३५ ।। कचनमयानि खप्रपाते नृत्यमालः तमिन। कृतमालः षट् कूटेषु वसंति स्वकनामवानसुरः ।। ३५ ।। कंधण। सानि कूटानि काश्चममयामि, तत्र खण्डप्रपातकूटे नृत्यमालास्यो म्यन्तरबोस्ति । तमिनफूटे तमालाख्यः इतरेषु षट्क्षु फूटेषु स्वकीयस्वकीयफूटनाम प्यन्तरवा वसन्ति ॥ ७३५ ॥ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ पाथा : ५३६-७३७ नरतियंग्लोकाधिकार भावार्थ:-भरतरावतस्थित विजयार्थों के सभी १८ कूट काञ्चनमय हैं। इनमें से खण्डपात नाम कूट पर नृत्यमाल और तमिस्र फट पर कृप्तमाल तथा अन्य अवशेष फूटों पर अपने अपने कूटनामधारी ध्यन्तर देव निवास करते हैं ।। ४३५॥ अथ उक्तानां विजयाजिनालयानामुदयादिश्यमाह कोसायामं तद्दल विस्थारं तुरियहीणकोसुदयं । जिणगेई कुडुवरि पुत्रमुई संठियं रम्मं ॥ ७३६ ।। कोशायाम तहलविस्तारं तुरीयहीनकोशोदयं । जिनगेहं कुटोपरि पूर्वमुखं संस्थितं रम्यं ।। १६ ॥ कोसा । सिडकूटस्योपरिकोशायाम २००० तवर्षविस्तारं ... । चतुर्थांश ५०० होनहोशोदर्य १५०० पूर्वमुखं रम्य जिनेन्द्रगेहं संस्थितं ॥ ७३६ ।। उक्त विजमा स्थित जिनालयों के सदय वादि तीन ( उदय, व्यास और लम्बाई ) कहते हैंसिद्ध कूटों पर एक कोश लम्बे, अर्ध कोश चौड़े तथा चतुर्थ भाग हीन अर्थात् पौन कोश ऊंचे, पूर्वाभिमुख अतिरमणीक जिन मन्दिर हैं ।। ७१६॥ विशेषा:-भरतरायत क्षेत्रों के दोनों विजया? पर स्थित सिद्धकटों के ऊपर २००० धनुष ( १ कोश ) लम्बे, १०० धनुष १३ कोस ) चौड़े और १५.. धनुष । कोश ) ऊंचे, पूर्वाभिमुख रमणीक जिनमन्दिर हैं। अथ गज दन्ताख्यानां वक्षाराणामितरवक्षाराणां च कटसंख्यातनामादिकं गायाष्टकेनाह णवसाय गवसत्य ईसाणदिसा दुदंतसेलाणं । वक्खाराणं चउचउकूडं तण्णाममणुकमसो ।। ७३७ ।। नव सप्त च नव सप्त च ईशान दिशः द्विदन्तशैलानां । वक्षाराणा चत्वारि चत्वारि कटानि तन्नामानि अनुक्रमशः ॥७३७॥ णव । ईशानवियः पारम्प जानतशेलामा क्रमेण कूटसंख्या व सप्त ७ नब सप्तरस्युः। इसरवक्षाराणां चरवारि ४ वत्वारि फूटानि तेषां नामाम्यनुहमशः कथयति ॥ ७३७ ॥ अव गवदन्त हैं नाम जिनके ऐसे चार वक्षार और अन्य १६ वक्षार पर्वतों पर स्थित कूटों की संख्या और उनके नामादिक आठ माथाओं द्वारा कहते हैं : गाया:-ऐशान दिशा से प्रारम्भ कर चारों गजदन्त पर्वतों पर कम से नग, सात, नव और सात क्रूट है, तथा सोलह वक्षाय पर्वतों पर चार, चार कूट हैं उनके नाम अनुक्रम से [ निम्न प्रकार ] हैं ।। ७३७ ॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० त्रिलोकसार पापा : ७३५ से ७४२ विशेषार्ष:-ऐशान दिशा में प्रारम्भ कर चार गजबन्त पर्वतों के ऊपर कम से कटों की संख्या ९,७,१ और है, तथा अन्य १६ वक्षार पर्वतों के ऊपर चार, चार कूट हैं । उन कूटों के नाम अनुकम से कहते हैं। सिद्धं मल्लवमुत्तरकउरव कई च सागरं रजदं । पुण्णादिम सीदा हरिसहकूडं हवे णवमे ।। ७३८ ॥ तो सिद्धं सोमणसं कूडं देवकुरु मङ्गलं विमलं । संवा कामेहमी सिद्धं विनमहं ततो ।। ७३९ ।। देवकुरु परम तवणं सोस्थियकूड सदजलं तचो। सीतोदा हरि चरिमं तो सिद्ध गंधमादणयं ।। ७४० ।। उत्तरकुरु गधादीमालिणि नो लोहिदक्खफलिहंते । आणंदं सायरदुग तिया सुभोगा य मोगमालिणिया ॥७४१।। विमलद्गे बच्छादीमिच सुमित्रा य वारिसेण बला । तवणदुगे मोगकर भोगवदी फलिहलोहिदे देवी ।। ७४२॥ सिद्ध' माल्यवान् उ सरकौरवं कच्छ च सागर रजतं । पूर्णादिभद्र सीता हरिसहकूट भवेत् नवमं ॥७३८ ।। सतः सिद्ध सौमनसं कूट देवकुरु मङ्गलं विमलं । काञ्चनं अबशिष्ट्रमन्ते सिद्ध विद्युत्प्रभ ततः ॥ ७३९ ।। देवकुरुः पद्य तपनं स्वस्तिककूटं शतज्वालं ततः। सीतोदा हरि चरमं ततः सिद्ध गम्धमादनका ।। ७४० ॥ उत्तर कुरुः गन्धादिमालिनी ततो लोहिताक्षं स्फटिकमन्ते । आनन्द सागरविक स्त्रियो सुभोगा च भोगमालिनी ।। ७४१ ।। विमलविके वत्सादिमित्रा सुमित्रा च वारिपेणा बला। तपदिके भोगकरी भोगवती स्फटिकलोहितयोः देख्यौ ॥४२॥ सिसिटकटं माल्यवान् उत्तरकौरवं कन्छ व सागरं रजतं पूर्णभद्रं सीता हरिसहकूट मवर्म भवेत् ५७३८ ।। तो | ततः सिडकूट सौमनसकट देवकुश्कूट मङ्गल विमलं कान मन्ते प्रशितत सिटकट विद्युत्ममं ॥ ७३९ ॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:७४३ निरतियंग्लोकाधिकार ५८१ देव । रेबकुछः पन सपन स्वस्तिककूट शासज्वालं ततः सोसोवा परिमं हरिकूट ततः सिडकूट गन्धमापनं ॥७४०॥ उत्तर । उत्तरकुरुः गम्पमालिनी ततो लोहितासं स्फटिक मन्ते मानन्दं ७ तेषां मध्ये सागररमतकूटयोः सुभोपाभोगमालिन्याख्ये व्यन्तरवेष्यो स्थिते ॥ ७४१ । विमल । विमलकाशनकूटयोः वरसमित्रासुमित्राख्ये ध्यन्तरदेण्यो स्तः, तपस्वस्तिककूटयो रिएबलास्ये पन्तादेष्यो स्तः, स्फटिकलोहितकूटयो गकरीमोगवत्याएये व्यस्तरदेव्यो स्तः ॥ ४२ ॥ गापा:-१ सिद्धक्ट, ९माल्यवान्, ३ उत्तर कौरव, ४ कच्छ, ५ सागर, ६ रजत, ७ पूर्णभद्र, ८ सोता और । हरिसहर्ट हैं। ये नौ कूट ऐशान दिशागत माल्यवान् गज दन्त पर नापार्थ :-- इसके बाद १ सिजकूट, २ सोमनस, ३ देव कुरु, ४ मङ्गल, ५ विमल, ६ काश्चन और अन्तिम ७ वशिष्ट नाम सात कुट दूसरे सौमनस गजदन्त पर्वत के अपर स्थित हैं। इसके बाद १ सिद्धकूट, २ विद्युत्प्रभ, ३ देव कुम, ४ पम, ५ तपन, ६ स्वस्तिककूट, ७ शतज्वाल, ८ सीतोदा और प्रन्तिम ६ हरिकूट, ये ६ कूट तीसरे विद्युतप्रभ गजवन्त के ऊपर अवस्थित है। इसके बाद । सिद्धकूट, २ गन्धमादन, ३ उत्तरकुरु, ४ गन्धमालिनी, ५ लोहिताश, ६ स्फटिक मोर अन्तिम ७ आनन्द ये सात कुट चौथे गन्धमादन गजदन्त के अपर अवस्थित है । इन उपर्युक्त कूटों में से सागर एवं रजतकूटों पर सुभोगा और भोगमालिनी व्यन्तर देवियां निवास करती हैं। विमल और काश्चन कुटों पर वत्समित्रा और सुमित्रा, तपन और स्वस्तिक कदों पर वारिषेणा और अबला तथा स्फटिक और लोहित कटों पर मोगरा और भोगवती नाम की व्यन्तर देवियां निवास करती हैं ॥७३८-७४२ ।। विशेषार्थ :- सुगम है। सिद्धं वक्खारक्खं हेतु बरिमदेसणामकूडदुगं । दुगणव पण सोलं दुगकला व वक्खारदीदत्तं ।। ७४३ ।। सिद्ध वक्षाराख्यं अधस्तनोपरिमदेशनामकटद्वयं । द्विनव पञ्च षोडश द्विककला च वक्षारदोघवम् ।। ७४३ ।। सिकं। इत उपरि वक्षारकूटानि, सिजकूट वक्षाराख्यं सर्ववक्षाराणामबस्तनोपरिमवेशनाम कच्छाच्छारिकूटमित्येतान्येव पत्वारि सर्ववक्षाराणा कूटनामानि भवन्ति । बलाराणा वयं तु दिनव पक्ष षोशयोजनानि एकोनविंशतिहिकलाविभानि भवन्ति । कथमेत ? 'चुलसीपिछतीसा पत्तारिफिलेति' गायोक्तविदेहविष्कम्मे ३३६८४ सोतासोतोक्योः विवक्षितनकोव्यास ५०० मपनीय ३३१८४ प्र!कते १६५६२ वक्षारवयमायाति ॥ ७४३ ॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ त्रिलोकसाए पापा : ७१३ गापार्थ :-प्रत्येक वक्षार पर चार चार क्रूट हैं जिनमें एक कट का नाम सिद्ध, दूसरे का अपने अपने वक्षार का जो नाम है, वही नाम कट का है, तथा शेष वो कटों के नाम वक्षार पर्वतों के दोनों पाव भागों में स्थित देशों के जो नाम हैं, वह हैं। प्रत्येक वक्षार पवंतों की लम्बाई सोलह हजार पाच सौ बाप्नवे योजन और भाग अर्थात् १६५६२१ योजन है ।। ७४३ ।। विशेषार्थ:-सोलह वक्षार पर्वत हैं और प्रत्येक पर चार चार कूट हैं, उन फूटों के नाम निम्नलिखित है : |मांक | वक्षार पर्वतों के नाम | | २ रे कूटों के नाम ३ रे कूटों के नाम ४ थे कूटों के नाम १] चित्रकूट कण्या शुरुम्छा सिद्ध कूट , चिकूट - | पद्मकूट पभकूट महाकट्टा कच्छावती नलिन नलिन आवळ एक शैल दुषकला एकसैल त्रिकूट लागलावती पुष्कलावती सुवासा त्रिकूट वत्सा वैश्रवण वैश्रवण महावासा वत्सकाक्ती सजनात्मा अनात्मा एम्या सुरम्यका अञ्जन रमणीया मङ्गलावती श्रद्धावान् पद्मा श्रद्धावान् विजटावान् विजटावान् सुपा पद्यकावती महापद्मा माशीविष आशीविष शड्डा नलिनी सुखावह सुखावह कुमुद सरित चन्द्रमाल चन्द्रमाल वप्रा सुवा सूर्यमाल सूर्यमाल नागमाल देवमाल नागमाल महावप्रा वप्रकावती गन्धा सुगन्धा गान्धिला | गन्धमालिनी १६ देवमाल Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ७४४ नरतियं ग्लोकाधिकार वक्षार पर्वतों की लम्बाई १६५६२ योजन है । इतनी लम्बाई कैसे है ? 'चुलसीदि छत्तीसा' गाथा संख्या ३०३ में विदेह का विष्कम्भ ३३६०४२४ योजन कहा गया है। सीता सीतोदा दोनों नदियों में से विवक्षित नदी व्यास ५०० योजन घटाकर आधा करने पर ( ३३६८४ ५४ - ५०० = ३३१६४२) १६५९२६३ योजन प्रत्येक वक्षार पर्वत को लम्बाई का प्रमाण प्राप्त होता है । कुलगिरिसमी कूडे दिक्कण्णा मो वसंति सेसेसु । राणा कूडपमाहिद नगदीहो कूडमंतर || ७४४ ॥ कुलगिरिसमीपकूटे दिवकन्याः वसन्ति शेपेपु । वानाः कूटप्रसाहित नगर्दयें कूटान्तरं ॥ ७४४ || १८३ फुल फुलगिरिसमीपस्थवक्षारो २० परिमकटे विकन्या बसल, शेषेषु कटेषु ७५२ तदेवातिष्ठन्ति स्वश्वकूटप्रमाः ६।७।४ सतवंध्यें गजदश्ये ३०२०१६ इतरवारदे १६५२] हृते स्वस्वकूटान्तरं स्यात् । नवकूटाम्वराणामेला बति गजवन्त क्षेत्रं ३०२०६१४ एककूटान्तरस्थ कियरक्षेत्रमिति सम्पात्यांशिति ३०२०६ मंभ ३३५६ उभयश हे समच्छेदेन प। न मेलने देने एककूटान्तरक्षेत्रं स्यात् । एतदेव नवकूटान्तरं । एवं सप्तकूटागारस्य राशिकविषय: प्र७३ २०११ स सप्तकूटान्तरं ४३१५३ चतुः कूटान्तराणामेतावति वजार क्षेत्रे १६५६२१] एककूटान्तरस्य किमिति सम्पात्यांशिनांश च भक्त सम्मेलने एककूटान्तरं स्यात् ४१४८] एतवेष चतुः कूटान्तरं स्यात् ॥ ७४४ ॥ गाथार्थ :- कुलाचलों के समीपवर्ती कूटों पर दिवकुमारियों और शेष कूटों पर व्यस्त देव निवास करते हैं। जिन पर्वतों पर जितने फूट हैं, उन कूटों के प्रमाण से अपने अपने पर्वतों की लम्बाई के प्रमाण को भाजित करने पर एक कट से दूसरे कट का प्रन्तर प्राप्त होता है । ७४४ ॥ विशेषार्थ :- चार गजदन्त और १६ वक्षारों को मिलाकर २० वक्षाय पर्वत हैं। इनके ऊपर क्रम से ६,७, ६, ७ और ४, ४ कूट हैं। इन ९६ फूटों में से जो एक एक कूट कुलाचलों के समीपवर्ती हैं उन ( २० कूटों ) पर दिक्कुमारियों का निवास है, तथा प्रत्येक पर्वत के प्रथम सिद्ध या सिद्धामन नामक ( २० ) कूटों पर जिन भवन हैं और अवशेष दो गजदन्तों के सात, सात, दो गजदन्तों के पांच पांच और १६ वक्षार पर्वतों के दो दो इस प्रकार ५६ कूटों पर व्यन्तर देवों का निवास है । 455 गजदन्त पर्वतों की लम्बाई ३०२०६१ योजन तथा वक्षार पवंतों को लम्बाई का प्रमाण १६५२] योजन है। इनको अपने अपने फूट प्रमाण ६, ७ और ४ से भाग देने पर एक कूट से दूसरे कूट के अन्तर का प्रमाण प्राप्त होता है । यथा-जबकि कूटों के अन्तराल पर ३०२०९५५ योजन क्षेत्र Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा: प्रास होता है, तो एक फूट के अन्तर पर कितना क्षेत्र प्राप्त होगा? इस प्रकार बराधिक करने पर ( ३.२०६बर)-३३५६ यो• प्राप्त हुये और योजन अवशेष रहे । योजन में १का भाग देकर महिला देने पर [+txt)]=87 अर्थात् गजदस्त स्थित कटों में एक कूट से दूसरे फूट का अन्तर ३३५६१ योजन है। १ फूटों के परस्पर अन्तराल का प्रमाण भी इतना इसी प्रकार अबकि ७ कूटों के अन्तराल पर ३०२०९० योजन क्षेत्र है, तो एक फूट के अन्तर पर कितना क्षेत्र प्राप्त होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर ( ३.२०६५ ) -- ४३१५६३ योजन द्वितीय गजदन्त ऊपर एक कट से दूसरे कूट का अन्तय है। इसी प्रकार सातों कूटों का जानना चाहिए। एक एक वक्षार पर्वतों की लम्बाई १६५९२ योजन है, और एक एक वक्षार ऊपर चार, चार फूट हैं। जबकि ४ कूटान्तरों पर १६५९२३. योजन क्षेत्र है, तर १ कटान्तर पर कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर ( १६५९२ ) - ४१४८ योजन वक्षार स्थित कुटों में एक कट से दूसरे फूट का अन्तर है। इसी प्रकार चारों कटों में जानना चाहिए। अथ वक्षाराणामुमति तत्रस्थाकृत्रिमचैत्यालयस्थाननिर्देशं च करोति वक्खारसयाणुदओ कुलगिरिपासम्हि पउसयं गुड्वा । णइमेरुस्स व पासे पंचसया तत्थ जिणगेहा ।। ७४५ ॥ यक्षारशतानामुदयः कुलगिरिपाचे चतुःशतं वृद्धया। नदीमेरोश्च पार्ने पश्चशतानि तत्र जिनगेहाः ॥ ७४५ ॥ पक्षार वातवक्षारपर्वतामामुदयः कुलगिरिपार्व पतुःपत ४.. योजनानि, तसः परमनुकमेण पूरपा विहगताना नदीपार्वे गजबन्तानो मेरुपावे पञ्चशत ५०० पोजमायुस्सेषः तत्र पश्चशतयोजनोसेक्स्पकूटे जिनगेहाः सन्ति ॥ ७४५ ॥ वक्षार पर्वतों की ऊंचाई एवं वहाँ स्थित अकृत्रिम चैत्यालयों के स्थान का निर्देश करते हैं: गायार्थ :-[ पश्चमेक सम्बन्धी मजदन्त सहित ] वक्षार पर्वतों का कुल प्रमाण १०० है । कुलाचलों के पाश्र्व भागों में उनकी ऊंचाई ४०० योजन है। इसके आगे झमिक वृद्धि से युक्त होते हुए सोठा-सोतोदा के निकट और मेरु के पाश्वं भागों में . यो• ऊंचे हैं, और उन पर जिनमन्दिर है || ७४५ ॥ विशेषार्थ ।-गजदन्त सहित एक मेरु के २० वक्षार पर्वत हैं, अतः पश्चमेश सम्बन्धी कुल वक्षार पर्वतों का प्रमाण १०० है । अर्थात् वक्षार पर्वत " हैं। जिनकी ऊंचाई कुलाचलों के पार्य भागों Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ७४६ रति ग्लोकाधिकार ५८५ में ४०० योजन है । इसके बाद अनुक्रम से वृद्धि होते हुए विदेहगत सीता सीतोवा नदी के निकट और मैद के पार्श्व भागों में गजदन्तों की ऊंचाई ५०० योजन है जो वक्षार ५०० योजन ऊंचे हैं, उनके ऊपर स्थित कूटों पर जिनमन्दिर हैं । अथ नव। दिकटानामुत्सेवानयने करा सूत्रमाह गिरितुरियं पढमंतिमकूटुदओ उभय से समवद्दरिदं । वेगपदेण चयो सो इट्टगुणो हजुदो ट्ठ ।। ७४६ ।। गिरितुरीयं प्रथमान्तिमकूटोदयः उभयशेषमपहृतं । व्येकपदेन चयः स इष्टगुणः मुखयुक्तः इष्टः ।। ७४६ ।। तिरि । वक्षारगिरीणामुत्सेधः ४०० । ५०० खतुर्थांश एवं तवुपरिमप्रयमान्तिमकूटोबयः १०० । १२५ एसयुभयं विशेषयित्वा २५ प्रथमस्य हानिवृसपोरनावाद विगतैकपदेन ८ ६३ अपहृते सति ३४ भाडे हानिययो भवति । स एव रूपोनेगतिः ३ । ६४ । ३ । १२३ । १४३ | १८३ | २१३ । २५ मुख १०० युतश्चेद १०३ । १०६ । ११२६ ॥ ११८ ॥ कूटस्योत्सेषो शातव्यः । एवं सरसकटचतुः कूटानामानेतव्यम् ॥ ७४६ ॥ १२ १२५ अब नव आदि कूटों की ऊँचाई प्राप्त करने के लिए करणसूत्र कहते हैं: गाथार्थ :- वक्षार पर्वतों का चौथाई भाग प्रथम और अन्तिम कूटों की ऊँचाई होती है । अन्तिम कट की ऊंचाई के प्रमाण में से प्रथम कट की ऊंचाई घटाने पर जो अवशेष रहे उसको एक कम पद से भाजित करने पर हानिचय का प्रसारण प्राप्त होता है । इस हानिचय के प्रमाण में इष्ट ( विवक्षित) कूट का गुणा कम मुख प्रमाण जोड़ देने से इष्ट कूट की ऊंचाई का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ७४६ ।। विशेषार्थ :- वक्षार पर्वतों का उरसेष ४०० और १०० योजन है। इन दोनों का चतुर्थाश हो प्रथम और अन्तिम कूटों को ऊंचाई है । अर्थात् ( ४०० ) = १०० योजन प्रथम कूट की और (१४०) = १२५ योजन अन्तिम क्रूट की ऊंचाई है। इन दोनों को आपस में घटाने पर (१२५-१००) २५ योजन प्राप्त हुए। प्रथम कूट में हानि वृद्धि का अभाव है, अतः २४ योजनों को एक कम पद अर्थात् ( ६– १ ) = ८, ( ७-१ ) =६ और ( ४१ ) = ३ से माजित करने पर () = ३३ ( ) - ४ ओर ( } == हानिचय होता है। इस हानि चय के प्रसारण की एक कम इष्ट गच्छ से गुणित करने पर (१ 1 = ३ ( *x = ६४ ( 1 ) = (x¥=१२ (४ * )=१५५, { ×7 ) १८३ x 1 = २१४, ( x ६ ) = २५ योजन प्राप्त हुआ । इन सभी मे. १०० योजन मुख जोड़ने से ( १००+१३) १०३३ १०६ १०९३ ११२३ ११५३, ११० १२११ म १२५ योजन क्रम से द्वितीयादि इष्ट कूटों को ऊंचाई का प्रसारण जानना चाहिये । तथा इसी प्रकार ? Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ त्रिलोकसार सात एवं ४ कूटों की ऊंचाई भी जानना चाहिये । यथा – १ = ४३=x= १२३ योजन, १ - १६ योजन, १५ x ५ = २०१ योजन और २१४ - २४ योजन, इन सभी को भिन्न भिन्न १०० योजन मुख में जोड़ देने पर १०४१ योजन, १०८ योजन, ११२३ योजन, ११६३ योजन, १२०३ योजन और १२५ योजन, दूसरे एवं चौधे गजदन्तों के ऊपर स्थित द्वितीयादि कूटों की ऊँचाई का प्रमाण प्राप्त होता है । X इसी प्रकार वनार पर्वतों के ऊपर अवस्थित कूटों की ऊंचाई योजन २५ योजन हुई। इनमें १०० योजन मुख जोड़ने से १०० प्राप्त होते हैं । अर्थात् वक्षार पर्वतों पर ४, ४ कूट हैं, उनमें से पहिले की ऊंचाई १०० योजन, दूसरे कूट की १०८३ योजन और तीसरे कूट की १९६३ योजन और चौथे कूट की ऊँचाई १९५ योजन है । वक्षार के कूटों की ऊंचाई भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इदानीं भरतादिक्षेत्राश्रयेण परिवारनदीप्रमाणं गाथाचतुष्केाह पाच ७४७ x १ = 3 x = १६३ ११६ और १२५ योजन धरहरावदसविदा विदेहजुगले च चोद्दमसहस्सा | रित्तो हरिरिति ॥ २७ ॥ भरत रावत सरितः त्रियुगले च चतुर्दशसहस्राणि । नदी परिवारः ततः द्विगुणा हरिरम्यकक्षेत्रान्तं ॥ ७४७ ॥ मरह | भरतरावयोः सरितां ४ पूर्वापर वियोगंङ्गादिसरिता च ६४ प्रत्येकं चतुर्दशसहखाणि १४००० परिवारनद्यः ततः परं भरताद्धरिवर्षपर्यन्तं ऐरावताप्रम्यक क्षेत्रपर्यन्तं द्विगुरद्विगुणक्रमो ज्ञातव्यः ॥ ७४७ ।। अब भरतादि क्षेत्रों के श्राश्रय से परिवार नदियों का प्रमाख चार गाथाओं द्वारा कहते हैं गावार्थ:- भरतरावत क्षेत्र में पूर्व और पश्चिम विदेह युगल स्थित प्रत्येक नदी की चौदह ह हजार परिवार नदियाँ हैं तथा भरत से हरि और ऐरावत से रम्यक क्षेत्र पर्यन्त परिवार नदियों का प्रमाण न दूना है ।। ७४७ ॥ विशेषार्थ :- भरतेरावत दो क्षेत्रों में गङ्गा, सिन्धु और रोहित रोहितास्था इस प्रकार ४ नदियाँ हैं। पूर्व पश्चिम दोनों विदेह के ३२ देशों में गङ्गा, सिन्धु रोहित और रोहितास्या ये ६४ नदियाँ हैं । इन ( ६४ + ४ = ६८ नदियों में प्रत्येक नदी की सहायक नदियां १४००० हैं, जतः इन ३४ देशों की कुल परिवार नदियों की संख्या ( १४००० ४६८ ) = ६५२००० है | भरत ऐरावत से रम्पक क्षेत्र पर्यन्त परिवार नदियाँ दुगुने दुगुने क्रम से हैं। अर्थात् दो क्षेत्र सम्बन्धी चार नदियों में प्रत्येक की सहायक २८ हजार है, अतः दोनों हरिवर्षपर्यन्त और हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों की कुल परिवार Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरतियं ग्लोकाधिकार्य རྣམས पाया : ७४८-७४१ नदियों का ( २८००० x ४ = ११२००० है । इसी प्रकार हृदि और रम्यक इन दो क्षेत्र सम्बन्धी चार नदियों में प्रत्येक की परिवार नदियाँ ५६००० हैं, अतः दोनों क्षेत्रों में चारों नदियों की कुल परिवार नदियों का प्रमाण (५६००० ४४ ) = २२४०० है । बादालसहस्से पुछ कुरुदुणदी दुगदुपास जादणदी | चोदलक्खडसदरी विदेहदुगसइखा || ७४८ ।। द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि पृथक् कुरुद्धयनद्यः द्विकद्विपाएवं जानद्यः । चतुर्दशलक्षाप्रति विदेहद्विक सर्व नदीसंख्या ।। ७४८५ ॥ बाबाल | देवोलरकुर्थी: नवोद्रयोपपापजाता नथ: पृथक पृथक द्वारा शिरसहस्राणि देवकुरुना नद्यः ८४००० उत्तरकुदशा नद्यः ८४००० विवेढयगत सर्व नदीसंख्या मट्टसप्तत्युत्तर चतुवंशलक्षाणि १४०००७८ । तत्कयं ? विदेहगसगङ्गा सिन्धुसमनयोन। ६४ प्रत्येक परिवारनद्यः १४००० विभङ्गनवीन १२ प्रत्येक परिवारनद्यः २८००० देवोत्तरकुर्वीः प्रोतासीतोदयोः २ प्रत्येक परिवारनद्यः ८४००० एतासु स्वश्वगुरुकारेण गुणयित्वा सत्र सत्र मुख्यमदी ७८ सहितं सर्वासु मिलितासु विदेहयगल सर्व नदीसंख्या ॥ ७४८ ॥ गायार्थ :- देव कुरु, उत्तरकुरु दोनों क्षेत्रों को दो नदियों के दोनों पार्श्व भागों पर पृथक पृथक, ४२ हजार ४२ हजार परिवार नदियों हैं, तथा दोनों विदेहों की सम्पूर्ण नदियों की संख्या चौदह लाख उत्तर है | ७४८ ॥ विशेषार्थ :- देव कुरु क्षेत्र में सीतोदा नदी के दोनों पार्श्व भागों से उत्पन्न पृथक पृथक ४२००० परिवार नदियाँ और उत्तर कुरु क्षेत्र में सीता नदी के दोनों पार्श्व भागों से पृथक पृथकउत्पन्न ४२००० परिवार नदियाँ हैं। इस प्रकार देवकुरु गत सोतोदा की सहायक ४००० और उत्तर कुछ गत सीता की परिवार नदियाँ भी ४००० है । - दोनों विदेह क्षेत्रों में सम्पूर्ण नदियों का प्रमाण १४०००७६ है । वह कसे १ विदेहस्य १४ गङ्गासिन्धु और रोहित रोहितास्या की कुल परिवार नदियाँ ( १४०००६४ ) = १६०००, १२ विभङ्गा की कुल परिवार नदियाँ ( २८०००×१२) ३३१०००, देवकुम उत्तरकुछ गत सीता सीतोदा | ७८ हैं । को परिवार नदियाँ ( ८४०००x२) १६८००० तथा मुख्य नदियाँ ( ६४ + १२+२ ) - इन सम्पूर्ण नदियों का कुल योग ( ८६६०००+ ३३६००० + १६८०००+७८ १४०००७८ है । अर्थात् पूर्वपश्चिम दोनों विदेह क्षेत्र गत सम्पूर्ण नदियों का प्रमाण १४०००७८ है । लक्खतियं बाणउदीसहस्स चारं च सव्वणसंखा । भरावद पहूदी इरिरम्मगखेच ओचि नादव्वा ॥ ७४९ ॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ त्रिलोकसा लक्षत्रयं द्वानत्र तिसहस्र द्वादश च सर्वनदीसंख्या । भरतेरावचप्रभूति हरिरम्यकक्षेत्रान्तं ज्ञातव्या ॥ ७४६ ॥ गाथा : ७४९-७५० पक्व लक्षत्रयं नवतिसहस्राणि द्वादश व ३६२०१२ भरतैरावतप्रभूतिरिरम्यक क्षेत्रपर्यतं सर्ववीसंख्या ज्ञातया । तत्कथं ? भरते गङ्गासियोः २ प्रत्येक परिवारनद्यः १४००० हैमवते रोहिद्रोहितास्थयोः २ प्रत्येक परिवारमद्यः २८. हरिक्षेत्रे हरिद्धरिकान्तयोः २ प्रत्येक परिवारमद्य: ५६९०० एवमंशयते रतारतोक्यो: १४००० १२व्यवसे सुवरूप्यक लयोः २८००० रम्यकक्षेत्रे नारीनरकासयो: ५६००० स्वगुणकारेण गुरुयित्वा मिलिले प्रायान्ति ॥ ७४ ॥ गापार्थ :- भरत क्षेत्र से हरिक्षेत्र पर्यन्त और ऐरावत क्षेत्र से रम्यक क्षेत्र पर्यन्त की सम्पूर्ण नदियों का प्रमाण लीन लाख, बानवे हजार, बारह है ।। ७४९ ।। विशेषार्थ :- भरत से इरिक्षेत्र पर्यन्त और ऐरावत से रम्यक पर्यन्त के समस्त क्षेत्रों की सम्पूर्ण नदियों का प्रमाण तीन लाख नाभवे हजार बारह ( ३९२०१२ ) है वह कसे ? भरतक्षेत्र में गंगा-सिन्धु प्रत्येक की परिवार नदियाँ १४००० है। अतः ( १४०००२ ) - २८००० कुल प्रमाण हुआ । हैमवत क्षेत्र गत रोहित रोहितास्या में प्रत्येक को परिवार नदियाँ २८००० है, अतः (२६०००x२ ) = ५६०००, रिक्षेत्र गत हरित् हरिकान्ता प्रत्येक की सहायक ५६००० है, अत: ( १६०००x२ } = ११२०००, ऐरावत में रक्ता रक्तोदा प्रत्येक की परिवार नदियां १४००० है अतः ( १४००० × २ ) = २८००० हैं । हैरण्यवत में सुवरशंकूला - रुप्यकूला प्रत्येक की २५००० परिवार नदियां है, अतः (२८००० × २ ) == ४६००० हैं तथा रम्यक क्षेत्र में नारी-नरकारला प्रत्येक की सहायक नदियों ५६००० है, अत: (५६०००X२) ११२००० हैं । इस प्रकार विदेह क्षेत्र को छोड़कर शेष क्षेत्रों की सम्पूर्ण नदियों का कुल योग (२८००० + ५६००० + ११२०००+२८०००+ ५६०००+११२०००+ १२ ) = ३६२०१२ है । सचरसं बाणउदी णमणवसुण्णं पणईण परिमाणं । गंगासिंधुसुखाणं जंबूदीवप्पभूदाणं || ७५० ।। सप्तदश द्वानवतिः नभोनवशून्यं नदीनां परिमाणं । गङ्गा सिन्धुसुतानां जम्बूद्वीपप्रभूतानाम् || ७५० ।। सत्तरसं । सप्तवश द्वानवसिनं भोनव शून्यं १७६२०० जम्बूद्वीपोभूतानां गङ्गासिन्धुप्रमुखान सनी प्रमाणं स्यात् । एतच्चोगापयोरङ्कानां मेलने स्यात् ॥ ७५० ॥ गायार्थ :- जम्बूद्वीप में उत्पन्न गङ्गा सिन्धु हैं प्रमुख जिनमें ऐसी सम्पूर्ण नदियों का प्रमाण सतह लाख बानवे हजार नवे है ।। ७५० ॥ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ७५: २ गरलियंग्लोकाधिकार ५५१ विशेषार्थ:-पूपिविदेह क्षेत्रोत्पन्न १४०.७८ नदियाँ और भरतादि यह क्षेत्रोत्पन्न ३९२०१२ नदिया मिलाकर १७६२०१० नदियां जम्बुद्वीप में हैं। अथ जाबूद्वीपस्थमन्दगीनां व्यासं निरूपयति गिरिभद्दमाल विजयावाखारविभंगदेवरण्णाणं । पुवावरेण चाम्रा एवं जंबू विदेहम्हि ।। ७५१ ॥ गिरिभद्रशालविजयवक्षारविभंगदेवारण्यानाम् । पूपिरेण व्यासा एवं जम्बुधि देहे ॥७५१ ।। गिरि । मेगिरेः १ मशालयोः २ देशानां १६ वक्षाराणा - विभङ्गनवीना ६ देवारयपयो। २ जम्बूद्वीपस्वविहे पूर्वापरेण व्यासा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण कश्यन्ते ॥ ७५१ ॥ जम्बूदीपस्थित मेह आदि के व्यास का निरूपण करते हैं__गाया :-जम्बूद्वीप स्थित विदेह क्षेत्र में एक मेरू, दो भवशाल, सोलह विदेह देश, आठ वक्षार, पर्वत, छह विभंगा नदी और दो देवारण्यों का पूर्व पश्चिम व्यास { आगे कहे जानेवाले प्रमाण के अनुसार ) है ॥ ७५१ ॥ __ अथ तेषां मेवानां व्यासानयनविधानमाह गिरिपहुदीणं बासं इहणं सगगुणेहि गुणिय जुदं । अवणिय दीवे सेस इडगुणोपट्टिदे दु तन्वार्स ।।७५२।। गिरिप्रभृतीनां व्यासं इष्टोनं स्त्रकगुणः गुणयित्वा युतं। अपनीय द्वीपे शेषं इष्टगुणापयतिते तु तद्व्यासं ।। ७५२ ॥ गिरि । नातम्येष्टमन्दरामन्यतमव्यासं परित्यज्य इतरेषा गिरिप्रमतौना वक्ष्यमाणण्यासं भद्र २२.०० वेश २२१२४ वक्षार ५०० विभंग १२५ वेवारण्य २९२२ स्वकीयस्थकोपगुणकारेण २।१६।।६।२ गुणयित्वा ४४०..! ३५४०६ । ४०००। ७५० । ५८४४ एवं सर्व मेलयित्वा ६०... एतजम्बूद्रोपपासे १००००० अपनीष शेषे १०००० इष्टगुणकारेणापहृते सति जातपेण्यास पापाति १०००० १७५२ ॥ अब उन मेरु आदिकों के प्रयास प्राप्त करने का विधान कहते हैं : गायार्थ :-मेह आदिक किसी इष्ट व्यास को छोड़ कर अन्य सभी के व्यास को अपने अपने गुणाकार से गुणा कर परस्पर में सभी को जोड लेवे। तथा योगफल को जम्बूद्वीप के व्यास में से घटाने पर जो अवशेष बचे उसका इष्ट ( विवक्षित ) मेह आदि के प्रमाण से भाजित करने पर इष्ट पर्वत आदि का व्यास प्राप्त होता है ।। ४५२ ।। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकधार गांचा ७५३ विशेषार्थ :- जिस मेरु, पर्वत और नवी आदि का व्यास प्राप्त करना हो अन्य सभी के व्यासों को अपने अपने गुणकार से गुणा कर जोड़े और योगफल को जम्बूद्वीप के व्यास में से घटाने पर जो अवशेष रहे उसको विवक्षित मेरु आदि के प्रमाण से भाजित करने पर इष्ट पर्वत आदि के व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है। यथा :- सुदर्शन मेरु का ध्यास प्राप्त करना है तो मेरु को छोड़कर मशाल का व्यास २२००० योजन, विदेह देश का २२१२ योजन, वक्षारगिरि का ५०० योजन, विभंगा नदी का १२५ योजन और देवारभ्य का ९९२९ योजन जो व्यास है उसे अपने अपने गुणकार, २, १६.८,६ और दो से गुणित करने पर ( २२०००x२ ) = ४४००० योजन दो भद्रशालों का, (१२१२३ × १६ ) = ३५४०६ योजन १६ विदेह देशों का ( ००x८ ) = ४००० योजन - बछार पर्वजों का, ( १२५४ ६) ७४० योजन ६ विभंगा नदियों का और (२६६२२) २६४४ योजन दो देवारस्य वनों का व्यास प्राप्त होता है। इन सबका योगफल ( ४४००० + ३५४०६+४०००+७४० -- ५८४४ }= ६०००० भोजन प्राप्त हुआ, इसे जम्बूद्वीप के एक लाख योजन व्यास में से घटाने पर ( १००००० ९०००० ) = १०००० योजन अवशेष रहा। हमारा इष्ट सुमेरु पर्वत है और उसकी प्रमाण संख्या एक है अतः अवशेष १०००० योजनों को १ से भाजित करने पर (१०१०० ) = १०००० योजन ही प्राप्त हुआ । यही हमारे इष्ट मेरु पर्वत के व्यास का प्रमाण है। इसी प्रकार अन्य का भी जानना चाहिए । एवमानीयासप्रमाण सिद्धामुच्चारयति ५९० दसबावीस सदस्सा बारसबावीस सचअटुकला | कमसो पणसय पणपण बावीसुगुतीसमंककमो ||७५३ ॥ दशद्वाविशसहस्राणि द्वादशाद्वाविशतिः सप्ताष्टकला । क्रमशः पञ्चशतानि पाचनः द्वात्रिंशंकोनत्रिंशदङ्ककमः || ७५३ || दस । यशसहस्राणि १०००० द्वाविशतिसहस्राणि २२००० द्वादशोत्तस्तू। विशतिः सप्ताहकला २२१२३ क्रमशः पञ्चशतानि ५०० पञ्चषनः १२५ द्वाविंशत्युत्तर एकोनशत् २६२२ इति मन्दराविव्यासको ज्ञातव्यः ॥ ७५३ ।। इस प्रकार ज्ञात व्यास प्रमाण के सिद्ध अ कहते हैं गावार्थ : - दस हजार योजन, बाईस हजार योजन, दो हजार दो सौ बारह मोर सप्ताष्ट कला ( 1⁄2 भाग ) पाँचसो योजन, एक सौ पच्चीस योजन, दो हजार नौ सौ बाईस योजन क्रमयाः मेरु आदि के व्यास के प्राप्त हुए ों का प्रमाण है । विशेषार्थ | मेरु पर्वत का व्यास १०००० योजन, भद्रवशाल का २२००० योजन, विदेह देश का २२१२३ योजन, वक्षारगिरि का ५०० योजन, विभंगा नदी का १२५ योजन और देवारण्य का २६२२ योजन पूर्व पश्चिम व्यास का प्रमाण है । Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवति ग्लोकाधिका इदानीं धातकीखण्डपुष्करार्धं स्थितमेरूणां तद्भदशालवनद्वयस्य च व्यासं निरूपयतिचणउदिसमं णवसडसचिगिलक्खमट्टपणचं | पण्णरसं बेलक्खा खुल्ले तं मसालदुगे || ७५४ || चतुर्भवतिशतानि नवसप्ताष्टसप्ले कलक्षमष्टपन सप्त । पचदशे द्वे क्षे शुल्लके ते भद्रशालद्वये ।। ७५४ ॥ पाया ! ७५४-७५५ 'चतुवशितानि १४०० नवसप्ताह सप्ताङ्कोस रंक लक्षं १०७८७६ प्रस पश्चदशासरे लक्षे २१५७५८ ययासंख्यं तुल्लाह मन्वारघातको खण्ड पूर्वापर भालद्वये पुष्करार्धे पूर्वापर भद्रशालद्वये च ध्यासामो ज्ञातव्यः । घातकीखण्डपर भद्रशालाङ्क १८७८७९ पुशपूर्वापर भालोकं २१५७५८ 'पदमवएडसीसो विवरण उत्तरगभट्सालवण' इत्युक्तरवावाशीत्या मागे कृते तयोदक्षिणोत्तर भद्रशालवनव्यासो भवति १२२५१६ / २४५१ भा ॥ ७५४ ॥ स्थित मेरु पर्वतों और उन सम्बन्धी दोनों भद्रशाल वनों के अब बात की सप और पुष्करा व्यास का निरूपण करते हैं : १९१ गाथार्थ :- चौरानवे सौ योजन एक लाख सात हजार बाठ सौ उन्यासी योजन और दो लाख पन्द्रह हजार सात सौ अट्ठावन योजन कम से क्षुल्लक मेरु और दोनों भद्रशाल वनों के व्यास का प्रमाण है ।। ७५४ । विशेषार्थ :- चारों क्षुल्लक मेरु पर्वतों का व्यास १४०० योजन है, घातकी खण्ड सम्बन्धी भद्रगोल वनों का पूर्व-पश्चिम व्यास १०७८७६ योजन है, तथा पुष्कराक्षं सम्बन्धी भद्रशाल वनों का पूर्व-पश्चिम व्यास २१५७५८ योजन है । "पढमवसीदंसो दक्खिरण उत्तरगभद्र माल वां" इत्यादि पूर्वोक्त गाथा ६१२ के अनुसार घातकी खण्ड सम्बन्धी भद्रशाल वनों के पूर्व-पश्चिम व्यास ( १०७८७१ योजनों को से भाजित करने पर ( 101 ) = १२२५३३ योजन दक्षिणोत्तर भद्रशाल वनों का व्यास प्राप्त होता है, तथा पुष्करार्थ सम्बन्धी भद्रशाल वनों के पूर्व-पश्चिम व्यास (२१४७५८) को से भाजित करने पर ( 322296 ) - २४५१३ योजन दक्षिणोत्तर भद्रशाल वनों काव्यास प्राप्त होता है । अथ द्वीपद्वयावस्थितविजयानां व्याससंख्यामाद तिणमण्णव तिष्णमं तु चउणउदिमण उदेककं । जोयणच उत्थभागं दुदीपविजयाण विक्खंभो ।। ७५५ || १ चतुः शठोत्तरनवतिशतानि ( ब०, प० ) । Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार त्रिभः षण्णव स्यष्टमं तु चतुर्णवति सप्तनवत्येकं । योजनं चतुर्थभागं द्विद्वीपविजयानां विष्कम्भः ।। ७५५ ॥ चतुवतिमनवत्येक योजनानि तिप । त्रिनभः षण्णव योजनानि त्र्यहमांशानि ९६०३ मा योजन चतुर्थभागाधिकानि १६७९४३ क्यासंख्यं बात की खण्ड पुष्करावंडीपद्वयविजयाना विष्कम्भः स्यात् ।। ७५५ ॥ अब दोनों द्वीपों में अवस्थित विदेह देशों के व्यास की संख्या कहते हैं : ५१२ गाथार्थ :- दोनों द्वीपों में स्थित विदेह देशों का विष्कम्भ क्रमशः मी हजार छह सौ तीन योजन और एक योजन के आठ भागों में से तीन भाग ( योजन) तथा उन्नीस हजार सात सौ चोरानवे योजन और एक योजन के चार भागों में से एक भाग ( ) प्रमाण है || ७५५ || पाया : ७५५-७५६-७५७ विशेषार्थ :- धातकी खण्ड द्वीप में स्थित विदेह देशों के व्यास का प्रमाण ६६०३ योजन और पुष्कराधं द्वीप में स्थित विदेह देशों के व्यास का प्रमाण १९७२४) योजन है । साम्प्रतं द्वीपयावस्थितगजदन्तानामायामं गाथाद्वयेनाह सरिसायदगजदंता णवणमदुगसुण्णतिष्णि उच्चकला / तिघणदुगकपणतिय णवपणक दिणवयचवण्णं ।। ७५६ ।। सोलेक डिसिद्विगि णवेक्कदुगदोण्णिदुक दिणमदोष्णि | देउचरकुरुचावं जीवा बाणं च जाणेज्जो || ७५७ ॥ सदृशायतगजदन्ता नत्रन भौतिकशून्यत्रीणि पट्कलाः । त्रिधनद्विषट्पचीणि नवपञ्चकृति नवकपट्पचाशत् ॥७५६॥ बोषिकं नवं कविकद्वय विकृतिनभो । देवोत्तरकुरुवा जीवा वाणुं च ज्ञातव्याः ॥ ७५७ ॥ सरिसा । जम्बूद्वीपश्चसटरा गजबन्ताम४नवन भौद्विक शून्योत्तरत्रियोजनानि षट्कलाविकानि ३०२०९५९ प्रायामः स्यात् । धातकीखाल्यम हा गजबन्तानामायामो यथासंख्यं त्रिघनद्विषट्कपकोलत्रियोजनानि ३५६२२७ नव पक्षकृतिनथषडंकोत्तर पश्र्चयोजनानि स्युः ४६६२५६ ॥ ७५६ ॥ सोले । पुष्करार्षास्वमहागजदन्तानामायामो यथासंख्यं षोडशंकषष्टको तरक योजनाम १६२६११६ नकद्विकयष्टिकृतिभ्योत्तरद्वियोजनानि स्युः २०४२२१६ देवोत्तरकुर्वोश्चापं जीवा बारणं च वक्ष्यमाणप्रकारेण ज्ञातव्याः ॥ ७५७ ॥ अब तीनों (टाई) द्वीपों में स्थित गजदन्त पर्वतों का आयाम दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : : Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 1 नरतियं ग्लोकाधिकार ५६३ गाथा : ७५८ वाघाचं :- जम्बू द्वीपस्य चारों गजदन्तु समान हैं और इनका आयाम तीस हजार दो सौ नो योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग प्रमाण है । घातकी सम्म स्थित दो गजदन्तों का आयाम तीन लाख अप्पन हजार दो सौ सत्ताईस योजन मोर दोष दो गजदन्तों का आयाम पाँच लाख उनहत्तर हजार दो सौ उनसठ योजन है, तथा पुष्कराचं सम्बन्धी दो गजदन्तों का आयाम सोलह लाख बीस हजार एक सौ सोलह योजन और अवशेष दो गजदन्तों का आयाम बीस लाख बयालिस हजार दो सौ उन्नीस योजन है। देवकुरु, उत्तर कुरु का चाप, जोवा और बाग का प्रमाण भी आगे कहे अनुसार जानना चाहिए ।। ७५६, ७५७ ।। विशेषार्थ :- जम्बूद्रीपस्थ चारों गजदन्त लम्बाई की अपेक्षा सदृश हैं। प्रत्येक की लम्बाई का प्रमाण ३०२०६६ योजन है । घातकी खण्डस्य दो छोटे गजदन्त जो लवण समुद्र की ओर हैं उनकी लम्बाई का प्रमाण ३५६२२७ योजन कौर जो दो बड़े गजदस्त कालोदधि की ओर हैं, उनकी लम्बाई का प्रमाण ५६६२५६ योजन प्रमाण है। इसी प्रकार पुष्कराधं स्थित दो छोटे गजदन्त जो कालोदधि की ओर हैं उनकी लम्बाई का प्रमाण १६२६११६ योजन और जो दीर्घं गजदन्त मानुषोत्तर पर्यंत फी ओर हैं उनकी लम्बाई का प्रमाण २०४२२१९ योजन है। देवकु, उत्तर कुरु का चाप, जीवा और वारण का प्रमाण आगे कहे अनुसार जानना चाहिए । क्षेत्र कुरु, उत्तरकुरु क्षेत्र धनुषाकार है क्योंकि दोनों गजदन्तों के बीच कुलाचलों की लम्बाई का जो प्रमाण है वह तो जीवा है, तथा जीवा और मेरु गिरि के मध्य का क्षेत्र बाण है और दोनों गजदन्तों की लम्बाई मिलकर चाप होता है । अथ च पद्यानयनप्रकारं गायानव केनाह- खानास विरयि पढमे दुगुणिदे जुदे मेरुं । जीवा कुरुस चावं गजदंतायाममेलिदे होदि || ७५८ || वक्षारव्यासं विरहितं प्रथमे द्विगुणिते युते मेरी । जीवा कुरो चापो गजदन्तायाममे लिते भवति ॥७४८ || वारव्यास ५०० भद्रशालाएयप्रथमवने २२००० विरहितं कृत्वा २१५०० वक्लार एष्टिगुणीकृत्य ४३००० तत्र मेवव्यासे १०००० युते सति कुरुक्षेत्रस्य जीवा प्रमाणं स्थाय ५३०००। उभयगजदन्तायामे ३०२०१६३०२०६६ मिलिते सति कुरुक्षेत्रस्य चापो भवति ६०४१८६ ॥ ७५८ ॥ चापादिक प्राप्त करने का विधान नी गाथाओं द्वारा कहते हैं बायार्थ :- वक्षार ( गजदन्त ) के व्यास को प्रथम भद्रशाल वन के व्यास में से घटा कर दूना करना तथा जो लब्ध आवे उसे मेह व्यास में जोड़ देने से कुरुक्षेत्र की जीवा का प्रमाण होता है और दोनों गजदन्तों का बायाम मिला देने से कुरुक्षेत्र का चाप होता है ।। ७५८६ ।। ७५ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिलोकसार पाषा: ५५६-७१. विशोषा: - जम्बूदीप में वक्षार (गजवन्तों का व्यास ५०० योजन और पूर्व-पश्चिम भशार: BAIRI (५०५ योपन है। भद्रशाल के व्यास में से गजवन्त का ध्यास घटा कर दूना करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसे मेरु व्यास में जोड़ देने से कुरुक्षेत्र की जीवा का प्रमाण प्राप्त होता है। यया:-२२०.. - ५००-२१५७.४२-४३०००+ १००००-५३... योजन कुछ क्षेत्र की जीवा है । अर्थात् दोनों गज दन्त पूर्व-पश्चिम भद्रशाल की वेदी के समीप कुलाचलों को स्पर्श करते है, अत: दोनों गज दन्तों के बीच मुलाचलों की लम्बाई ५३.०० योजन है । प्रायेक गजदम्त का आयाम (लम्बाई ) ३०२०९५० योजन है। दोनों मजदन्तों की लम्बाई मिला देने पर ( ३.२०६17+ ३०२० -६०४१८२० योजन कुरु क्षेत्र के चाप का प्रमाण होता है । मेरुगिरिभूमिवासं अरणीय विदेहवस्सवासादो । दलिदे कुरुविक्खंमो सो चेव कुरुस्स बाणं च || ७५ || मेमगिरिभूमिव्यासं अपनीय विदेहवर्षभ्यासतः । दलिते कुरुविष्कम्भः स चैव कुरोः बाणः च ।। ७५६ || मेह । एतावच्छलाकाना १९. एतावति क्षेत्रे १.... एतावच्छलाकाना ६४ किमिति सम्पात्यापतिते १४१२०० मिदेहवर्षभ्यास: स्यात् । पत्र मेगिरिमूमिव्यास १०००० समच्छेदेना १९१११° पनीय ५११५० दलिते २३५१- कुरुविष्कम्भः स्व स घर कुरुक्षेत्रस्य बाणः स्याद । तवा जीवाकृति पनुःकृति वामयति । ७५६ ॥ गाथा:-विदेह क्षेत्र के व्यास में से मेरुगिरि का भू व्यास पटा कर आधा करने पर कुरुक्षेत्र के विष्कम्म का प्रमाण होता है, और यही कुरुक्षेत्र के वाण का प्रमाण है ॥ ७५६ ।। विशेवार्थ:-जब कि जम्बूद्वीप को १६. शलाकाओं का १०...योजन क्षेत्र होता है, तब विदेह क्षेत्र की ६४ शालाकाओं का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर 1१०१९४०४11 )=१० योजन विदेह क्षेत्र का व्यास प्राप्त हुमा। इसमें से मेकगिरि का भूम्यास१.... योजन घटा कर आधा कर देने पर ( 22° - 1290° = ४००००००००० १५०५०x२= २३५१०० अर्थात् ११६४२३६ योजन कुरुक्षेत्र का व्यास प्राप्त होता है, और वही अर्थात् १२५६१० योजन हो कुरु क्षेत्र के वाण का प्रमाण है इसीको रखकर जीवाकृति और धनुषकृति का प्रमाण प्राम करते हैं। इसुद्दीणं विखंभं चउगुणिदिसुणा हदे दु जीवकदी । पाणकदि यहिं गुणिदे तत्थ जुदे घणुकदी होदि ।। ७६० ।। इषुहीन विष्कम्भं चतुणितेषुणा कृते तु जीवाकृतिः । बाणकृति षभिः गुणिते तत्र युते धनुःकृतिः भवति ॥७६०॥ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया:७६० नरतिर्मग्लोकाधिकार इसु। प्रने पक्पमापकुरुचविष्कम्मे १२: १ ० बु. २२५०° नभिः समानछेवं कृत्वा २०१७" होनं हत्वा " चतुर्गरिखतेषुल्य ११° पञ्चम्यानि होनराश्यने VA.. स्थापयिता १०१४०१०१००० ताशिस्य हारं १७१ चतुर्गणितेषुस्पनबान सम मभिरपवत्म १९ तविषुस्पहारेण १६ सपतितहारे १९ पुणिते ५६१ कुरक्षेचे बीषायाः कृति: स्यात् ...xy222001 सम्मूलं गृहीत्वा 10000०° स्वहारेण भक्त कुरक्षेत्रे जीवा स्यात् ५३००० । पाए १२५१०० कृति ५०५३१११०००० पभिर्गुणपिस्वा ५०३०००००° एतस्मिन रागोसत्र जीवाकृती २०१४११००००० युते सति 98922000 घनुकृति: स्यात् । तt मूल गृहीत्वा 142 स्वहारेण भक्त ६०४१ कुरुक्षेत्रस्य चापं स्यात् । प्रागानीलबाणकृति ५०० ११०००० मुलं गृहीत्वा १२५०० हारेण भक्त ११८४२ कुरुक्षेत्रस्य बाएं स्यात् ॥ ७६. । गाथाएं :-वारण ( इषु ) से होन वृत्त विष्कम्भ को चौगुणे वारण से गुणित करने पर जीवा की कृति होती है, तथा छह गुणी वारणकृति उस जीवाकृति में मिलाने में धनुष कृति होती - - - विशेषार्थ :-वर्गरूप राशि का नाम कृति है । जम्बूद्वीप में देवकुरु उत्तरकुरु का आगे कहे जाने वाले श्रुत्त विष्कम्भ का प्रमाण १५.७५४९० योजन है तथा कुछ क्षेत्र के पारण का प्रमाण २२११०० घोजन है, इसे ( माज्य भाजक को ) ६ मे समच्छेद करने पर ( २२५४०x)- २०१११०० योजन हए। इन्हें कुरु क्षेत्र के इस विष्कम्भ में से घटाने पर १२.१७४१० - २०२७१००.० ९० योजन अवशेष रहे, इसको घौगुणे वाण अर्थात् (२२५४ )= २०१९०० से गुणित करने पर (1003. x २०११00 }- 70x94180००० योजन हुए । अथवा गुणकार Fo० योजन की पांचों विन्दु गुण्य ० ० योजनों के साथ स्थापित कर देने से २०१४012००००० हए और घोष बचे । इस १७१ भागहार को ९ से अपवर्तन करने पर १ प्राR हुए, सब गुण्य और गुण्यमान दोनों के भागहारों को परस्पर गुणित करने से ( १९x१६ )-३६१ भाग हार प्राप्त हुआ, अतः १.१४०४९०००००० योजन देवकुरु, उत्तरकुम की जीवा को कृति का प्रमाण प्राप्त होता है। इसका वर्गमूल निकालने पर १०००° हुआ, इसमें अपने भागहार का भाग देने पर ५३... योजन देवकुरु जनर कुरु को जीवा का प्रमाण मान हुआ। कुरु क्षेत्र के वाण का प्रमाण २२५९०० योजन को कृति ( वर्ग ) करने पर ( २२५१००४ २२११०) =५०६२५००.०० योजन हुए तथा इन्हें छह से गुणित करने पर ( ५०६२५...००४ - ३०३७५०००.०० योजन हुए यही छह गुणो वाण को कति का प्रमाण है। इस राशि को जीवा को कति में जोड़ देने पर ( १०१४०४९०००००० + ३० ३७५०००००००)= १३१७७६६.००... - -- - 3.1 311 Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ त्रिलोकसार पापा : ७६१ योजन धनुष ( चाप) की कृति होती है, तथा इसी के वर्गमूल १११४ में अपने ही भागद्दार ( ११ ) का भाग देने पर ६०४१०१३ योजन देवकुष उत्तरकुर के चाप का प्रमाण होता है तथा पहिले बात की हुई ५०६२५०००००० योजन वाण की कृति के वर्णसूल ५०० भोजनों को अपने भागद्दार ( १९ ) योजन कुरुक्षेत्र के वाण का प्रमाण प्राप्त होता है। 24 से भाजित करने पर ११८४२ अनन्तरं कुर्वादीनां वृत्तविष्कम्भानयनमाह -- 21 945 १००००० कुरुक्षेत्रेषु २२५००० वा १०६२५०००००० इयं चतुभिर्गुवित्वा २०२५०००००००० एताव १९००००० प्रक्षिप्य १२१५००० २०००० चतुमि शितेपुला ००००० भागीकरो विषय शून्यानि भाक्यस्थपञ्चशून्यैः सहापवत्यं १२१६५४६०००००० हारस्य हारो गुणकोंबरा' रिश्यानतमे कोनविंशति १९ गुहारं भावयस्वंकष किन सह ३६१ । एकोनविंशस्यापवशेषहारयोः १६८९ परस्परगुणने कृते ५४१ हारेण भक्त ७११४ मात्र क्षेत्रस्य वृत्तविष्कम्भः स्यात् ॥ ७६१ ॥ Si 1 अब इसके अनन्तर कुरु आदि क्षेत्रों का वृत्त विष्कम्भ लाने के लिए करण सूत्र कहते इसुमं चउगुणिदं जीवावग्गम्हि पक्खिविचाणं । चउगुणिदिणा भजिदे णियमा बस्स विक्खंभो ।।७६१ ॥ धषुवर्गं चतुर्गुणितं जीवावर्गे प्रक्षिप्य । चतुगु खितेषुणा भक्त नियमात् वृत्तस्य विष्कम्भः ॥७६१ ॥ ܕܩܪ गावार्थ :- चोगुणे वाण के वर्ग में जीवा का वर्ग मिलाकर चौगुणे वाण के प्रभाव से भाजित करने पर नियम से वृत्त क्षेत्र के विष्कम्भ का प्रमाण प्राप्त होता है । ७६१ ।। विशेषार्थ :- जम्बूद्वीप में कुरुक्षेत्र के ५०० योजन वाण का वर्ग करने पर ५०६२५०००००० योजन होता है, तथा इसे चौगुणा करने पर २०२५०००००००० योजन अथवा 345 311 २०१५ और अर्थात् शून्य प्राप्त हुए इसमें जीवा का वर्ग ४ र ६ शून्य अथवा १०१४०४६०००००० योजन जोड़ कर वाण के चौगुणे प्रमाण (0000) का भाग देने पर उष 341 २०२५०००००००० + १०१४०४९०००००० को पहिले की हुई 311 311 अपवर्तन विधि से अपवर्तन करने पर २११५४५५० योजन प्राप्त हुए। इन्हें अपने ही भागहार १७ से भाजित करने पर नियम से कुरुक्षेत्र का वृत्त विष्कम्भ ७११४३५ योजन प्राप्त होता है । यही कुरुक्षेत्र के वाण का प्रमाण हैं । १२१६५४९०००००० ४३१ 111 ६००००० 11 Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ७६१ नपतिपंग्लोकाधिकार अप कुविक्षेत्राणां स्थूलसूक्ष्मक्षेत्रफलानमने करणसूत्रमाह जावा सुपाद जोपारसुददल च पयं । दसकरणिबाणगुणिदे सुहुमिदरफलं च धोखेचे ।।७६२।। जीवाहतेषुपादं जीवाइषुयुतदलं च प्रत्येक । दशकणिबाणगुणिते सूक्ष्मतरफलं च धनुः क्षेत्र ७६२|| नोवा । कुरुक्षेत्रयोः २२१००० चतुर्माश ५५३५ जीबया ५३.० हत्या २१४५३५०००० पृथक् संस्थाप्य बी५३... समसछेदोकृत्य1०१३०० इषौ२२१२०० सयोज्या २५५१००वलयित्वा'१६०वमपि पृषकिनक्षिप्य स्थापितयोरमयोर्मध्ये प्रत्येक प्राक् समापिसं २९८१२५००० विवसंमागेत्यादिना करणि हया ६५१५६२५००००००- मूले गृहीते ६४२७५४०२७४ एतत् कुरुषनुः क्षेत्रस्य सूक्ष्मफल भवति । पुरस्ताव स्थापित तु पारणेन २२५९०° गुपिते करोर्धनुषः स्पूलफल भवति १३८६००००.०.०॥७२॥ अब कुरु आदि क्षेत्रों का स्थूल सूक्ष्म क्षेत्रफस लाने के लिये करण सूत्र कहते है गाभार्थ:-जीवा द्वारा गुणित वाण का चतुर्थपाद तथा जीवा और वाण के योग का अर्थ भाग इनमें से एक का वर्ग कर दशगुणित करने पर और दूसरे को वारण के प्रमाण से गुणित करने पर कम से धनुष क्षेत्र का सूक्ष्म और स्थूल क्षेत्रफल प्राप्त होता है ।। ७३२ ॥ विशेवा:-कुरुक्षेत्र के वाण का प्रमाण २२५९०० योजन है। इसके चतुर्थ भाग ५.३५० को जीवा के प्रमाण ५३००० योजन में गुणित करने पर ( २३५९०० x 390° )= ११८११५१००० योजन लब्ध प्राप्त हुआ। इसे पृथक् स्थापित करना, तथा ५२ से समच्छेद किया हुआ ५३००० योजन जीवा का प्रमाण ( ५३.०४9)=१०२५२०० योजन और वाण के २५००० योजन प्रमाण को जोड़कर { १०१११००+१२५२०० = १२३२००० योजन हुए। इनके अधं भाग ( १९३४ }1180 योजनों को भी अलग स्थापित कर दोनों में से प्रथम स्थापित २५८१३५०००० योजनों का "विष्कम्भवगा" इत्यादि गापा सूत्र ६६ के अनुसार वर्ग कर दश गुणित करने पर( २१८१२५.० x २६८१२५.४.० ४१.) = ८८८७८५१५३२५०००००००० योजन इए सपा इनका वर्गमूल प्रहण करने पर १४२११०२७४ मोजन होता है । यही कुरु क्षेत्र के सूक्ष्म क्षेत्रफल का प्रमाण है । अति कुरुक्षेत्र के तारतम्यता से एक एक मोजन लम्बे चौड़े ५४५४५४०२४ टुकड़े हो सकते हैं। ___ सब पीछे स्थापित "१२०० योजनों को वाण के प्रमाण २२५९०० से गुरिणत करने पर {"१२००४ २२५९०० )='19928०००० योजन होते हैं। यही कुरुक्षेत्र का स्थल क्षेत्रफ है। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार ३६५ - - अथ प्रकारान्तरेण वृत्तविष्कम्भवाणयोरानयने करणसूत्रमाह दगुणिसु कादिजुद जीवामगं चउमाणमाजिए पत्र । जीवा घणकदिसेमो छभनो तप्पदं गाणं ॥७६३ ॥ विगुण्येषु कृतियुतं जीवावर्ग चतुर्मारणभक्त वृत्तं । जीवा धनुः कृतिशेपा षड् मक्तः तत्पदं बाणं ।। ०६३ ।। दुगु । इषु २२५.०० विगुणी कृत्य ४५०००० वर्ग गृहीत्वा २०२५००००००००। पत्र जीवा ५३... वर्ग २८.१०..... समच्छगोकतं १०९४०४६ ०.००० सयोग्य १२१६५४६००.००० प्रस्मिाचतुर्गुणितबारणेम Ress. प्राग्ववपवतविपिना भात कुरुक्षेत्रस्य पुतविष्कम्भः स्याद १२१६५४६ । समच्छेवीकृते श्रीवावर्ग १.१४०४६...... पनुः फूतो १३१७७६६.00... अपनीय ३०३७५००००००० षभिभगवा ५०६२५००.००० मूले पहीते २२५००० कुरुक्षेत्रस्य पाणः स्यात् ॥७६३॥ अब प्रकारान्तर से वृत विष्कम्भ और वारण के प्रमाण को प्रात करने के लिए करण सूत्र कहते हैं: गाथा:-दुगुण वाण के वर्ग में जीवा का वर्ग जोड़ने से जो झन्ध प्राप्त हो उसको चौगणेवाण के प्रमाण से भाजित करने पर वृत्तविष्कम्भ का प्रमाण होता है तथा जीवा की कृति को धनुष की कृति में से घटा कर अवशेष को ६ से भाजित कर वर्गमूल निकालने पर जो प्रमाण प्राप्त हो वही कुरुक्षेत्र के वाण का प्रमाण है ॥ ७६३ ॥ विशेषार्थ:-जम्बूद्वीप के कुरुक्षेत्र का वाण २२५००० योजन है इसके दूने ४५०००० योजनों का वर्ग ( ४५०००० x ११०००० ) - २०२५०००0.00 योजन हुआ। इसमें जीवा के प्रमाण ५३००० के वर्ग ( ५३००० x ५३.० - २८०६०००००० को 2 से समच्छेद कर (१८०९०....0x8)=१०१४.४६.००.०० योजनों को जोड़ने पर ( २०२५०:००००. + १०१४०४९०००००० - १२१६५४६..... योजन लब्ध प्राप्त हुआ। इसको चौगुणे वाण के प्रमाण ... से पूर्वोक्त अपवर्तन विधि के अनुसार भाजित करने पर ( १२१६५४९०००.०० न) = १२१६५४९० योजन कुरुक्षेत्र के वृत्त विष्कम्भ का प्रमाण प्राप्त हुआ। समध्छेद किए हुए जीवा के वर्ग ( १०१४०४६.. ) को धनुष की कृति Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा . ७६४ नरतिपग्लोकाधिकार ५६ ( १३१०७६६००००° ) में से घटा देने पर ५०३७५००००००० योजन अवशेष रहे, इसमें ५ का भाय देने पर ( ३०३७५.१०.०० - ५०६२५०००.०० योजन लब्ध प्राप्त हुआ, और इसका वर्ग मूल २२५००० योजन होता है, यही कुरुक्षेत्र के वाण का प्रमाण है। পথ সন্ধানই অ্য যন যুগঃ जीवा विक्खमाणं वगाविसेसस्स होदि जम्मूले । तं विक्वंमा सोहय सेसद्धमिसुं विजाणाहि ।। ७६४ ॥ जोवाविष्कम्भयोः वर्गविशेषस्य भवति यन्मूलं । तव विष्कम्भात् शोधय शेषामिषु विजानीहि ॥१६॥ जीवा । जीवा ५३००० वर्ग २८०००.००. विकम्म १२:१५४१० वगैरण समं १४४९१११०१०० समच्छेवं फरवा ८२१३७६६६०००००० परस्परं शोषयिरवा ६५८६११७७९४०१०० मूलं सङ्गःह्म ११७४१० तविष्कम्भाव १२.१० गोषय ४०५.०० शेषमई २०२५००० विषाय प्रत्य हार १७१ एकोनविंशतिर्मवेति विषाकृत्य १६x६ तबस्थनवान तस्मिन्नः २०२५०.. भक्त पति कुरोगिमायाति २२५५०० ॥ ७६४ ॥ प्रकारान्तर से वाण प्राप्त करने के लिए करण सूत्र कहते हैं : गाथार्थ :-वृत्त विकम्म के वर्ग में से जोवा का वर्ग घटाने पर जो अबशेष रहे, उसका वर्गमूल निकालना, तथा उस वर्गमूल को वृत्तविष्कम्भ के प्रमाण में से घटा कर, अवशेष का आधा करने पर जो प्रमाण प्राप्त हो वही वाण का प्रमाण है ।। ७६४ ॥ विशेषावं :-जम्बू द्वीप के कुरुक्षेत्र की जीवा का प्रमाण ५३००० योजन है, और इसका वर्ग ( ५३...४५३०००)= २८०९.०.००० योजन है । वृत्त विष्कम्भ के प्रमाण १२१४४९० योजन का वर्ग (१२१६५४६. ) = १४७६६१४६९४० १०० योजन है । जीवा के वर्ग २८०६०००००० योजनों को ३१३ से गुणित करने पर ( २८०६००.०० x ६३ )=८२१३७९६१०००.०० योजन हुए। इसे वृत्त विष्कम्भ के वर्ग में से घटाने पर १४०९१९१५६९४०१००-५२१३७६६६५५८६११५७६४.१०० योजन अवशेष रहे। इस अवशेष के वर्गमूल ८११५४९० योजनों को पत्त विकम् १२१६५४६० योजनों में से घटाकर ( १२१६५४९०-८११५४६० = Mat.. अवशेष का १७. Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाथ चाची ७६४ आधा करने से (४८५०००० x ३ ) = २०२५००० योजन हुआ । इस १७१ भागहार के १६४६ अर्थाद १७५ १७१ १६ और ९ ऐसे दो टुकड़े कर ९२०२५००० को अपवर्तन करने पर २१५००० योजन प्राप्त हुए और भागद्दार १६ ही रहा मन: २२५००० योजत कुरुक्षेत्र के बाण का प्रमाण प्राप्त हुआ । अथवा 1 ६०० २०२५००० को ६ अंक से अपवर्तन अर्थात् अंश और भागहार दोनों में का भाग देने पर २२५००० १७५ ११ योजन कुरुक्षेत्र के बाण का प्रमाण प्राप्त होता है । अथ प्रकारान्तरेण वृत्तविष्कम्भवाणयोरानयने कर सूत्रमाहदुगुणिसुदिघवो बाणोणो मद्धिदो हवे वाम्रो । वासक दिसहिद धणुकादिदलस्स मूलेषि वासमिसुखे ||७६५ ।। द्विगुपु हितधनु बाणोनः अधितो भवेत् व्यासः । व्यायकृतिसहितधनुष्कृतिदलक्ष्य मूलेऽपि व्यासमिधुशेषं ॥७६५|| बुगुइ २२५००० द्विगुणीकृत्य ४५०००० अनेन धनु 18 93 संविधिना भक्त्या १५४१२८ शेष उपरि पभिरपवर्तिते एवं मेला २६३५५६ मिन्सच्या २०२५००० ऊतयित्वा 11 १३१७७६६०००००० प्रावदपय 31 h יך ---- १२१६५४९० भक्त सति ७११४३ कुरो: वृसध्यासः स्यात् । समफलेवेन 180 सम्पासं पत्र स्वां समच्छेदेन प्रषीकृश्य २४३३० ६८० ---" २०१ स्वांश युक्त T १७१ २९९४१ १२१६५४६० वर्ग गृहोल्ला १४७६६६१४६६४- १०० अत्र धनुः कुले १३१७७६९००००० एवं ८८६३५०7400 एकाशीत्या ८१ समच्छेवं कश्या ५३३७०८५६५००० 311 संयोजय 365 २०२४१ २०१३७०००६४४०१०० मूलं गृहीत्वा १४१२०४९० मत्र व्यास १२१६५४६० होनं कृत्वा २०२५००० ग्रस्य हरिमेकोनविंशतिर्नवेतिद्विषा १६४६ अत्रस्थनवान भक्त कुरुक्षेत्रस्य वाणः स्यात् २२२४१ १०१ १७" 791 २२५००० ॥ ७६५ ॥ 13 आगे अन्य प्रकार से वृत्तविष्कम्भ और वास का प्रमाण लाने के लिए करण सूत्र कहते गाथार्थ :- धनुष के वर्ग को दुगु वाण का भाग देने पर जो ध प्राप्त हो उसमें से बारा के प्रमाण को घटा कर अवशेष का आधा करने पर वृत्तविष्कम्भ के व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है, तथा वृत्त व्यास के वर्ग में धनुष का वर्ग जोड़ने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसका आधा कर वर्गमूल निकालना और इस वर्गमूल के प्रमाण में से वृत्त व्यास का प्रमाण घटा देने पर वाण का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ।। ७३५ ।। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा :५६ निरतियरलोकाधिकार 9.1 11 १.. विशेषा-अम्बूद्वीप में कुरुक्षेत्र के वाण का प्रमाण २२५००० योजन है इसका दूना । २२३००४२ )= ४५०००० योजन होता है। इसका माग धनुष के गं १३१७.८९०००.०० योजनों में देना है, अतः १३१७७९६..........- १३१७७९९०० को पूर्वोक्त विधि से अपवर्तन करने पर १५४१५८ योजन प्राप्त हुए और अवशेष रहे। इनको अपर नीचे ५ से अपवसित करने पर हए। इन्हें स्व अंश १५४१२८ योजनों में समच्छेद विधान से मिकाने पर ( १५४१२८४ )=२६३३५६८० योजन हुए । अथवा १३१७७९९,०००° x = २६३५४१८० योजन हुए। इनमें से समुच्छिन्न किया हुआ २०२५.०० योजन वाण का प्रमाण घटाने पर । २६३५५९८० – २०२५०००) = २४३३०९८० योजन अवशेष रहे। इन्हें आधा करने पर ( २४३३०१८. x 1 = १२१६५४२० योजन प्राप्त हुआ। इसमें अपने ही भागहार { १७१ ) का भाग देने पर ७१५४३/30 योजन कुरुक्षेत्र के वृत्तविष्कम्भ का प्रमाण प्राप्त हुआ। तथा समच्छेद द्वारा अपने अंश ७११४३ में जोड़े हुए 8 से प्राप्त हुए २२५६५० योजन यस व्यास के प्रमाण का वर्ग( १२१६५४९० x १२१६५४९० )-- १४७१६६१४६९४०१० योजन होता है। इसमें१३ १४EEMO. धनुष कृति के अर्धप्रमाण ६५८८६६५०... को ८१ से समच्छेन करने पर अर्याद भाज्य भाजक दोनों को ६१ से गुणित करने पर जो ( ६५८८९९५:०००.x ) = ५३३७०८५६५००००० योजन प्रमाण बोड़ कर प्राप्त हुए । १३१७७६६00.000+ ५३३७०८५६५००००० ) -- २०१३७००.६४४०१०० योजनों का वर्गमूल निकालने पर १४१६०४६० योजन प्रार हुए। इसमें से वृत्त व्यास १२१६५४६• योजन घटा कर अवशेष रहे-1 १४१६०९. १२१६५४९० } - २०२५००० योजन के भागहार १७१ के १९ और । अर्थात् १९४६ ऐसे दो हिस्से कर ( २०२५.०० ) ९ के अङ्क से भाजित करने पर २२५... मोजन कुरुक्षेत्र के बाण का प्रमाण प्राप्त होता है। अथ प्रकारान्तरेण धनुःकृतिजीवास्पोरानपने करणसूत्रमाह इसुदलजुदविखंभो चउगुणिदिसुणा हदे द घणुकरणी। चाणकदि बहिं गुणिदं तत्धुणे होदि जीवकदी || ७६६ ।। इषुदलयुतविष्कम्भः चतुर्गुणिलेषुणा हते तु धनुः करणी। बाणकृति षड्भिः गुणितं सोने भवति जीवकृतिः ।। ४६६ ॥ 31 ११ प. x ७६ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : ७६ सु। २३५१ बलविस्था १११° समानछेवेन २०१3५०० वृत्तविष्कम्मे २ ० योजयित्वा १३.६० एतच्चतुणिलेषुणा ००१२०° गुणिते गुण्यराशे १० हरि एकोनविशतिनवेति १६ I & विषाकृत्य गुणकारस्थपञ्चशून्यानि ६०००.. गुण्यापारने संस्थाप्य १३१७७६६००००.० गुणकारनवान गुण्यहारनवामपवर्य शेषहारे १६४१६ परस्परगुणिते ३६१ कुरोषनुःकृतिः स्पात 1310018922200 । भाणकृति ५०.९४११०००० षडभिगुणयित्वा 3030480०.०' एतस्मिन् धनुःहतो कनिते १.०१४23492०००० कुरक्षेत्रस्य जीवाकृतिभवति । एवं 'सुहीणं विखंभ' इत्यादि सप्तगायोक्तरिधानं भरतामिक्षेत्रेषु हिमववादिपर्वतेषु च अब अन्य प्रकार से धनुष की कृति और जीवा की कृति प्राप्त करने के लिए फरण सूत्र कहते हैं :-- गाथार्य :-वृत्त विष्कम्भ के प्रमाण में वाण का अर्ध प्रमाण जोड़ने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको वाण के चौगुणे प्रमाण में गुरिंगत करने पर धनुष की कृति का प्रमाण प्राप्त होता है, तथा वाण की कृति को छह गुणित कर वनुष की कृति में से घटा देने पर जीवा की कति का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ७६६ ___ विशेषार्थ:--जम्बू द्वीप के कुरु क्षेत्र में वाण का प्रमाण २१११०० योजन है। इसके अधं भाग का प्रमाण १५३३०° हुआ। इसको ह से समच्छेद करने पर ( १३५००x१)1°१३५०० योजन प्राप्त हुए इन्हें वृत्त विष्कम्भ के प्रमाण ( २.१७५४१० ) में जोड़ कर प्राप्त हुए १३१७१९५० योजन लब्ध को चौगुणे वाण के प्रमाण ०९१०० से गुणित करने के लिए गुग्य राशि के भागहार १५५ के १६ और ६ इस प्रकार दो भाग कर ( ० x ५०१९१० ) गुणकारस्थ ( ९००.०० के ) ५ शुभ्यों को गुण्य राशि ( १३१७७९९. ) के आगे स्थापन करने से १३१ERE.mo.x* इस प्रकार की स्थिति प्राप्त हुई। इसमें गुणकार के ६ के अङ्क से गुण्यकार के ६ का अपवर्तन कर अवशेष भागहारों को परस्पर में (१९४१९ ) गुणिल करने पर ३६१ अर्थात् १३५७७९९०००००० योजन कुरुक्षेत्र के धनुष की कृति का प्रमाण प्राप्त हुआ। कुरुक्षेत्र के ( २२१२०० योजन ) वाण के वर्ग का प्रमाण ५०६२५०.०० योजन है। इसे ६ से गुरिणत करने पर ३०३७५०००० 0.0 योजन प्राप्त हुए इन्हें धनुष की कृति में से घटा देने पर ( १३१७७६६०.००-३.३७५००००००० = १०१४०४६००.०० योजन = २८.10.10.. योजन कुरुक्षेत्र की जीवा की कृति का प्रमाण प्राप्त होता है। कुरुक्षेत्रों के धनुषाकार क्षेत्र की जीवा बादि का प्रमाण निकालने का विधान जिस प्रकार -१५x1 ST LE Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा । ७६७-७६५ नपतिये ग्लोकाधिकार ६०३ "सुहोणं विष्कम्भं" गाथा ७६० से ७६६ तक अर्थात् सात गाथाओं द्वारा किया गया है, उसी प्रकार भरत आदि क्षेत्रों और हिमवन् आदि पर्वतों में भी लगा लेना चाहिए । अथ दक्षिण भरत विजयार्घोत्तर भरत क्षेत्राणां बालानयने करणसूत्रमाहरूप्पगिरिवीण मरइव्वामदलं दक्खिणभरहह । गजुद णमसरचर भरद्दजुदं मरहखिदिवाणो ॥ ७६७ || रूपनिरिहीन भरत व्यासवलं दक्षिणाधं भरतेषुः । नगयुते नगशरः उत्तर भरतयुते भरत क्षेत्रवाणः ॥ ७६७ ।। रूप । कयगिरिव्यासं ५० मरतध्यासे ५२६१३ होतयित्वा ४७६१४ मर्धीकृते २३८२ दक्षिणार्थं भरसेषुः स्यात् । पत्र विषयाव्यासे ५० युते सति विद्ययार्थवाणः स्यात् २८८६६ प्रत्रोतर भरतब्यासे २३८२६ युते ५२६ सम्पूर्ण भरत क्षेत्राः स्यात् । उक्तानी बाणत्रयाणां समानछेदेन स्वकीयस्वकीयांशं मेलयेत् ५.४ -: १६ अव दक्षिण भारत, विजयाधं और उत्तर भरतक्षेत्र के वाण का प्रमाण प्राप्त करने के लिए करण सूत्र कहते हैं गाथार्थ :- भरत क्षेत्र के व्यास में से रूप्यगिरि ( विजयार्थं ) का व्यास घटा कर अवशेष को आशा करने पर अर्धदक्षिण भरतक्षेत्र के वारण का प्रमाण तथा इसी प्रमाण में विजयात्रं का व्यास जोड़ देने से विजया के वाण का प्रमाण प्राप्त होता है, और इस विजया के बाण में उत्तर भरतक्षेत्र का प्रमाण जोड़ देने से सम्पूर्ण भरतक्षेत्र अर्थात् उत्तर भरत के वाण का प्रमाण प्राप्त होता है । ७६७ ॥ विशेषार्थ :- भरत क्षेत्र का व्यास ५२६ योजन घटा देने पर (५२६४- ५० ) = ४७६ ६६ २३ योजन है। इसमें से विजयाघं का व्यास ५० योजन अवशेष रहे । इन्हें आधा करने पर योजन दक्षिणार्धं भरतक्षेत्र के वाण का प्रमाण प्राप्त हुआ। इस २३८ में विजयार्धं का ५० योजन व्यास जोड़ देने पर २००६ योजन विजयार्धं के वाण का प्रमाण शप्त होता है, तथा इस विजया के बारा में उत्तर भरत का व्यास २३० योजन जोड़ देने से (२०११ + २३८६६ ) = ५२६६६ योजन सम्पूर्ण भरतक्षेत्र अर्थात् उत्तर भरत क्षेत्र के वाण का प्रमाण प्राप्त हुआ । उपर्युक्त तीनों वाणों के अपने अपने अंशों को समान छेद द्वारा मिला देने पर क्रम से ४५३५ और प्राप्त होते है । ५७५ अथ हिमवदादिपर्वतानां हैमवत्तादिक्षेत्राणां च बाणानयने करणसूत्रमाहferingदीवासो दुगुणो मरहूणिदो य सिहोचि । ससाणा जिऩइसरो सुविदेहदलो विदेहस्स ।। ७६८ ।। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाथा:१८ कक १५ प. हिमनगप्रतिव्यासः द्विगुणः भरतोनितश्च निषषान्तम् ।। स्व बाणा निषधशरः सविदेहद: विदेहत्य ।। ७६६ ॥ हिम । एतावतां शलाका १९० एतापति १००००० क्षेत्रे हिमववाविशलाकाम! २।४।। १६ । ३२ किमिति सम्पास्यापतिते हिमवनगमतीनां व्यासः स्यात् । हिमवतो व्यास: २०१० हमवलक्षेत्र ४०२१० महाहिमवगिरी १९२० हरिक्षेत्र १६,००० निषगिरी ३२०० सवृद्धिगुणं कृत्वा ४००००। ८०००० । १६०:०० । ३२००००। ६४०.०० सर्वत्र भरतवासप्रमाणे १०००अपनीते सति हिमषवादोनी निवषपर्यन्तं स्पस्वबाणा: स्युः ३०:००। ७००० । १५०००० । ३१०००० । ६३०००० निषघमाण एव ६२०० विदेहण्यासा ६४०० धैन ३२०:०० युक्तधेत ६५०००० विहाघस्य पाणो भवति । एतान् बाणान् धुरवा तत्तरक्षेत्र पर्वतानां जीवाकृति: धनुः कृति: 'सुहोणं विवर्षभमित्यादिना पानेतण्या। तत्र वक्षिणभरते तावत् समच्छिन्नेषु २५ वृत्तविष्कम्भे समच्छिन्न १६००००० होनयित्या १८९५४०५ एतस्मिश्चतुगुणितेषुणा १० हते सति 33 OFF५०० जीवाकृतिः स्यात् । तस्या मूलं गृहीत्वा १८५३२" स्वहारेण भक्त ९७४८१ वक्षिणभातस्य शुखजीवा स्यात् । सब ६३"कृति २०१२५ षभिगुणयित्वा १२५६५३७५० एतस्मित्तत्र जोवाकतो पोजिसे 1987६५ बाय अनुः कृति: यार। एतन्मूलं गृहीत्वा ८५५५५ वहारेण भक्त बक्षिणभरतस्य धनुः स्यात् १७६६ । विज्या साक्त समच्छिन्नेषु 41 समच्छिन्नविष्कम्भे ११:००० होनयित्वा १८१४५२५ एafrमचतुगुणितेपुणा २१५०० हते सति ४५४५११३७५०० विजयाधनोवाकृतिः स्यात् । प्रस्या मूल गृहीत्वा २०१६.५स्वहारेरण भक्त' १.७२०११ विजयानगस्य मोवा स्यात् । बाप "" फति २२५५१२५ षणियित्वा १०:११३१५० तत्र जीवा कुतो योजिते ४११५१३५१९५० पनुः कतिः स्यात् । तन्मूलं गृहोस्वा २०४१३२ स्वहारेण भक्त १.७४३ विजयानगस्य पनुः स्यात् । उत्सरभरते समचिन्नेषु १० विष्कम्भे 9000 होनायरवा १०००० एतस्मितुणितेषुणा १० हते सति ७५५५११२५००० ओवाति: स्यात् । पस्या मूलं २०५४ स्वहारेण भक्त लब्धः १४४४११ उत्तरभरतजीवा स्यात् । पारण 1902 कृति १009872०० षभिगु गरिरवा ०१५५६००० एतस्मिन् जीवातो योजिते सति १२११६३०००० धनुःकतिः स्यात् । अस्या मूलं "489 स्वहारेण भक्त १४५२८ उत्तरभरतस्य धनुः स्यात् । हिमवरपर्वत इषु १०००० विकम्मे २०१२. होनायावा 1८४११०० एतस्मिश्चतुगुणितेषुणा १२११०० हते सति १२४४४११००००" जीवाकृतिः । पस्या मूलं गृहीत्या ३१०१ स्वहारेण भक्त लरथं २४६३२१२ हिमवतो जीवा स्यात् । वाणति १००१६:०० षभिविस्या ५४०११.५०० तत्र जोवाकृतौ पुस २२१८१४2000 अनुः कृतिः स्यात् । तस्या मूल गृहोस्वा स्वहारेण भक्त २५२३६३ हिमवगिरेधनुः स्यात् । हैमवतक्षत्र Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पप "TER १९ 3ER - - ६१ S " गाथा : ७६८ नरतिर्मग्लोकाधिकार पु ७००० विकरमे १९०००.. अपनीय १८३०००० तरिमश्वगुणितेषुणा २८ हते ५१२४०....... जीवाकृति स्यात् । मस्या मूलं गृहोपा ७१५८२२ स्यहारेण भक्त ३७६७४३५ हमवतक्षेत्रस्य जीदा पात् । वारणकृति ४६०००.०० षड्भि[गयित्वा २९४००००००० एafमस्ता जीवाकृतो युते ५४१८०००.०० धनुःकृत: स्यात् । अस्या मूलं गृहीत्वा ७३६०७० स्वहारेण भक्त' ३८७४०११ हिमवतक्षेत्रस्य धनु: स्यात् । महाहिमपदगिरेरिषु १५:१० विष्कम्मे १६००... हीनयित्वा १७५०... मिश्चतुरितेषुणा ६००००० हते तु १०५००००००.०० जीवा कृतिः स्यात् । प्रस्मा मूलं गृहीत्या १०२४६६५ स्वहारेण भक्त' ५३६३११५ महाहिमवतो जीवा गित । गायक .... भियित्वा १३५०००००.००. एतस्मिस्तत्र जीपाकृती योजिते ११८५००००००... धनुःकृप्तिः स्यात् । अस्या मूलं गृहीत्वा १०८८५७७ स्वहारेण मक्त ५७२९३२१ महाहिमगिरेधेनुः स्यात् । हरिवर्षक्षेत्र इषु ३१०००. विष्कम्मे १६००००० होमयित्वा १५६०००० अस्मिश्चतुगुणि तेषुणा १२४००.० हते तु १९७१६००.००... जीवाकृति: स्यात् । प्रस्या मूलं गृहोस्वा १४०४१३६ स्वहारेण भक्त ७३९०११३ हरिवर्षक्षेत्रे जोवा स्यात् । बाणकति ६६१०००००००० षभिगुणयित्वा ५७६६०००००००० तस्मिन तत्र जोषाकृतो योजिते - २५४८२००.००००० धनुःकृति: स्यात् । प्रस्मा मूलं गृहोत्या १५५९३०८ स्वहारेण भक्त ४.१६ हरिबर्षक्षेत्रस्य अनुः स्यात् ॥ निषगिरी इषु १३१३०० विष्कम्मे १९००००० होन विश्वा १२७०००। परिमाश्यतुगुणितेपुरणा २५२०.०० ते तु ३२००४०....... जीवाफाति: स्यात् । पस्या मूलं गृहौसा १७८८९६६ स्वहारेण भक्ने ६४१५६२२ निषमिरिजोवा स्यात् । चाणकृति ३९६६००००००० षभिगुणयित्वा २३८१४०००००००० तत्र जीवाहतो योजिले ५५८१६००००.०० धनुःकृतिः स्यात् । मस्या मूलं गृहोत्या २३६३५८३ बहारेरण भक्ते लब्धं १२४३४६५ निषगिरी धनु: स्यात् ॥ विवहार्ष इयु १५०००० विनम्मे १९००००० होनायिरवा १५०००० मस्मिश्चतुगुणितेषुणा ३८०.००० हते तु ३६१०००००००००० नोवाकृतिः स्यात् । मन्या मूलं गृहीत्वा १६०... स्वहारेण भक्ते १०.००० विदेहाधजीवा स्यात् । बाति १०२५०००००००० षड्भिगुगयिस्था ५४१५०००...100 सत्र मोवाकलो योजिते ६०२५...:००००• धनुःकृति: स्यात् । प्रस्या मूलं गृहीत्वा ३००४१६४ स्वहारण भरते ल० १५८११४ विदेहाधनुः स्यात् ॥ ७६८ ॥ अब हिमवत् आदि पर्वतों और हैमवत आदि क्षेत्रों के वाण का प्रमाण प्राह करने के लिए करणसूत्र कहते हैं: ST HTTA Trred - - -TET १९ 31 हम Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा । ७३५ गाया :-हिमवत् पवंत आविकों के व्यास को दूना करके उसमें से भरत का ध्यास घटा देने से निषध पर्यन्त अपना अपना वाण अर्थात अपने अपने पर्वत एवं क्षेत्रों के वाण का प्रमाण प्राप्त हो जाता है, तका निषध के वाया में विदेह का अचं व्यास जोड़ देने से अर्घ विदेह के वाण का प्रमाण प्राप्त होता है ॥ ७६८ ॥ _ विशेषार्थ :- जम्बू द्वीपस्थ क्षेत्र एवं पर्वतों की सम्पूर्ण शलाकाएं १६ हैं, अतः जबकि १९० शलाकाओं का १०००.० योजन क्षेत्र होता है, तब क्रम से २, ४, ८, १६ और ३२ शलाकाओं का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर हिमवत् पर्वत का २१२०० योजन व्यास हेमवत क्षेत्र का 1990 योजन, महाहिमवन पर्वत का १००० योजन, हरिक्षेत्र का १३०० योजन और निषघ पर्वत का ३२११०० योजन व्यास है। इन सबको दूना करने पर ४११०० योजन, १६०० योजन, १२०० पो०, ४२११०० योजन और 1xp:०० योजन होता है ! पुन सभी में से भरल का ध्यास (१९०० योजन ) घटा देने पर हिमवत् पर्वत से निषध पर्यन्त के सभी पर्वत एवं क्षेत्रों के वाण का प्रमाण श्रम से ११५०० योजन, १० योजन, ३३०० योजन, ३११९०० योजन और 139900 योजन प्राप्त होता है तथा निषध के वारण 39:०० योजनों में विदेह व्यास १४११०० योजनों का अर्ध भाग ( ३२६९०० योजन ) जोड़ देने पर ( 380°+ ३१३१०० )=५५१६०० योजन अविदेह के बाण का प्रमाण प्राप्त होता है। इन उपयुक्त वाणों के प्रमाण को रख कर "इसुहोणं विक्खम्भं" इस गाथा ७६. के अनुसार प्रत्येक पर्वतों एवं क्षेत्रों को जौवाकृति और धनुषकृति का प्रमाण प्राप्त कर लेना चाहिये। यथा दक्षिण भरत के वाण का प्रमाण २३८५२ योजन है। इसको समुच्छिन्न करने पर १३५ योजन होता है तथा जम्बूद्वीप का एक लाख योजन ध्यास ही यहाँ जम्बूद्वीप का वृत्तविष्कम्भ है । इसे १॥ से समुच्छिन्न करने पर अर्थात् १००००० को ३६ से गुणित करने पर po० योजन होता है । इस वृत्त विष्कम्भ में से दक्षिण भारत के वाण का प्रमाण घटा देने पर ( 901000 --1984)=१८५१०५ योजन अवशेष रहे । इसको चौगुणे वाण के प्रमाण ( १५४३ }=१०० से गुरिणत करने पर ( १४.५४. )- 3639802.५०० योजन जोवा की कृति का प्रमाण प्राप्त हुआ। इसके वर्गमूल का प्रमाण १८१२२४ योजन होगा। इसमें अपने ही भागहार (१९) का भाग देने पर ९७४८१ योजन दक्षिण भरत की शुद्ध जीवा का प्रमाण प्राप्त हुआ। तथा दक्षिण भरत के वाण १३५ की कृति ( वर्ग ) का प्रमारण- २०११३२५ योजन है, इसे ६ से गुणित करने पर १२२११३.५० योजन प्राप्त हुए। इसमें जीवा को कृति जोड देने पर ( 3x30308:५० + १२५६१३०५० ) = ७४४ ३११५१२५० योजन दक्षिण भरत की घनुषकृति का प्रमाण प्रा होता है, तथा Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचा : ७६८ मतिर्यग्लोकाधिकार ६० इसके १८५५५५ वर्गमूल को अपने ही भागहार का भाग देने पर १७६६१४ योजन दक्षिण भारत के धनुष का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । विजया के वाण का प्रमाण २८८१ योजन है। इसका समुच्छेद करने पर ५४३५ योजन हुआ। इसे जम्बूद्वीप के वृत्त विष्कम्भ १६००000 में से घटा देने पर १८१५योजन अवशेष रहे। इसको चौगुणे वाण के प्रभार (१५५ x ३ = २१०० से गुणित करने पर ( १८९४५६xx प्रमारण हुआ और इसके वर्गमूल १३ १९ २१९०० ) = ४१४९००९७५०० योजन विजया की जोवाकृति का १९ उद्द २०३६११ को अपने ही भागहार का भाग देने से १०७२०१३ योजन विजयार्ध पर्वत को जीवा का 15 उ SET की कृति २६६७५६२५ को ६ से गुणित करने पर १७३८५३७५० योजन हुए। इसमें जीवा कृति जोड़ देने पर ( ४९४६००९७५०० + १७९८२३७५० ) = ४१६६९९५१२१०] योजन विजयार्ध की धनुप्रकृति हुई तथा इसके वर्गमूळ २०३३ को अपने ही भागहार का भाग देने पर १०७४२२५ योजन विजयाचे पर्वत के धनुष का प्रमाण प्राप्त हुआ । ६१ 14 JE प्रमाण प्राप्त होता है। विजया के वाण ठु 13 ५९ १ ११ उत्तर भारत में समुच्छिन बारा (५२६१३) के प्रमाण १०००० को जम्बू द्वीप के वृत्तविष्कम्भ १००००० में से घटा देने पर १८६०००० योजन अवशेष रहे। इसको चौगुणे वाण के प्रमाण ४०००० से गुणित करने पर ७५६०००००००० योजन उत्तर भरत की जीवाकृति का प्रमाण हुआ, तथा इसी के वर्गमूल २७४६५४ को अपने ही भागहार से भाजित करने पर १४४७१५२ योजन उत्तर भरत को जीवा का प्रमाण प्राप्त हुआ। उत्तर भरत के वाण १०००० की कृति १०००००००० योजन हुई । इसे ६ से गुणित करने पर ६०००००००० योजन प्राप्त हुए। इसको जीवा की कृति में जोड़ देने पर ( khonevorce+ ६०००००००० ) =७६२०००००००० घनुष कृति प्राप्त होती है, तथा इसके वर्गमूल २०१० को अपने हो भागहार से भाजित करने पर १४५२०१ योजन उत्तर भरत के धनुष का प्रमाण प्राप्त होता है । १९ उदन TES ३६५ 351 q १५ १९ १५ १९ हिमवत् पर्वत के बाल ३०००० योजन को जम्बूद्वीप के वृत्तविष्कम्भ १६००००० में से घटा देने पर १८७०००० योजन शेष रहे। इसको चौगुणे वाण के प्रमाण १२०००० से गुणित करने पर २२४४०००००००० योजन हिमवद् पर्वत की जीवा कृति का तथा इसी के वर्गमूळ ४७२७०६ को अपने ही भागहार से भाजित करने पर २४३२१ योजन हिमवत् पर्वत की जीवा का प्रमाण प्राप्त होता है । हिमवत् पर्वत के वाण ( 8 ) की कृति ६०००००००० को ६ सें गुणित करने पर ५४०००००००० योजन हुए। इसको जीवा की कृति में जोड़ देने पर ( २२४४००००००००+ ५४०००००००० - ११ उ१५ ३१ १ 371 Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०५ त्रिलोमा पाषा: ७५८ 3r .. २२९८0000000 योजन धनुषकति तथा इसी के वर्गमूल ४ ' को अपने ही भागहार (१९) से भावित करने पर २२२३०१६ हिमवत् पर्वत के धनुष का प्रमाण प्राप्त होता है। हमवत क्षेत्र के वाण ७... को वृत्त विष्कम्भ १९..... में से घटा देने पर १६३०००० योजन अवशेष रहे। इसको चौगुणे वाण के प्रमाण २८०.०० से गुगित करने पर ५१२४०००००... योजन जीरा की कृति होती है, तथा इसी जीवा कृति के वर्गमूल ७१५५२२ को अपने ही मागहार से भाजित करने पर ३७१७५५ योजन हैमवत क्षेत्र की बोवा का प्रमाण प्राप्त होता है । हैमवत क्षेत्र के वाण ७०... की कृति ४६.noon... को ६ से गुणित करने पर १९४०.०...०० योजन प्राप्त हए, इन्हें जीवा कृति में जोड़ देने पर-( ५१२४०००.०००+२६४.00000.0 ) = ५४१८०००००.०० योजन हैमवत क्षेत्र की धनुष कृति होती है। तथा धनुषकृति के वर्गमूल ७३६०४० को अपने ही भागहार से भाग देने पर ३८७४०१५ हेमवत क्षेत्र के धनुष का प्रमाण प्राप्त होता है। ___ महाहिमवत् पर्वत के वाण १५०००० योजन को वृत्त विष्कम्भ १९४०.00 में से कम करने पर १७५०००० अवशेष रहे । इनको चौगुणे वाण के प्रमाण ( 8°°) से गुरिणत करने पर १०५००००००००० योजन जीवा की कृति का प्रमाण होता है। तथा इसी के वर्गमूल १०३०५५ को अपने ही भागहार से भाजित करने पर ५३६३१, महाहिमवत् पर्वत की जीवा का प्रमाण होता है । महाहिमवत् पर्वत के बाण १५... की कति २२५०००००००. योजनों को ६ से गुणित करने पर १३५०.००००००० योजन होता है, इसको जीवाकृति में पोर देने पर (१०५००००.०...+ १३५०००००००००)-११८५०००.००.०० योजन धनुष की कृति होती है, और इसीके वर्गमूल १०८८५७.७ को अपने ही भागहार से भाजित करने पर २७९६३३९ योजन महाहिमवत् पर्वत के धनुष का प्रमाण प्राप्त होता है । हरिवयं क्षेत्र के बारण ३t...0 योजनों को वृत्तविष्कम्भ १६००००० योजनों में से घटा देने पर १५१०००० योजन अवशेष रहे । इन्हें चौगुणे वाण के प्रमाण १२४०००० योजनों से गुणित करने पर १९७१६००...... मोजन जीवा की कृति होती है. और इसी जीवाकृति के वर्गमूल १४०४१३६ को अपने ही भागहार से भाजित करने पर ७३९०११० योजन हरिवर्षे क्षेत्र में जीवा का प्रमाण होता है, तथा इसी क्षेत्र के बाण ३१.०.की कृति ९६१००००००.० को ६ से गुरिणत करने पर ५७६६०....००० योजन हए । इसको जीवा की कृति में जोड़ देने पर ( १९७१६०.......+ KT पर पुरा Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धाम उह मरतिमेलोकाधिकार १७६५.०००...)-२४४८२.......० योजन धनुष कृति का प्रमाण होता है तथा इसीके वर्गमून ५ को अपने ही मागहार का भाग ५८४.१२१६ पाणमा हरिव के धनुष का प्रमाण प्राप्त होता है। निषधगिरि के बाण ६३... योजनों को वृत्त विष्कम्भ १९००.०० में से कम करने पर १२५०.०० योजन अवशेष रहे । इसको चौगुणे वाण के प्रमाण २५२०.. मे गुणित करने पर ३९.100.00... पोजन जीवा की कृति होती है, और इसीके वर्गमूल १७८६९६६ को अपने भागहार का भाप देने पर ४१५६ योजन निषधगिरि की जीवा का प्रमाण मा होता है । तपा निषधगिरि के वाण ६३०००० योजन की कृति ३९६६........ योजनों को ६ से गुणित करने पर २३१४.000000 होते हैं। इसको जीवा को कृति में जोड़ देने पर ( ३२.४....... २३८१४०००.0000)=५५८१८०००००००० योजन धनुष की कृति होती है, और इसीके वर्गमूल २३६२५८३ को अपने भागहार का भाग देने पर १२४३ निषष गिरि के धनुष का प्रमाणा प्राप्त होता है। विदेह के प्रमाण १५:००० को वृत्त विष्कम्भ १६00000 में से घटा देने पर ९५०.. मवशेष रहे । इन्हें योगणे वाण ३८००.०० से गुणित करने पर ३६१......1000 जीवा कृति का प्रमाण हुआ, तथा इसी के वर्गमूल ५११०० को अपने हो भागहार का भाग देने पर १०००० अर्घ विदेश की जीवा का प्रमाण प्राप्त होता है तथा अविवेद के वाण ११०० की कृति ५०५५९४११०000 को ६ से गुणित करने पर ५४१५....... योजन हुए। इनको जीवा की कृति 8000०००० में मिला देने पर १०२५००..100 योजन धनुष की कृति का प्रमाण मान होता है, तथा इसी के वर्गमूल १६४ को अपने ही मागहार का प्राय देने पर १५८११४ योवन अविदेह के धनुष का प्रमाण प्राप्त होता है। नोट:-कति स्वकम संख्या का वर्गमूल निकालने के बाद अवशेष पचे प्रकों को घोर दिया गया है। अप दक्षिणभरतादिक्षेत्रपर्ववानां जीवाधनुषोः प्राधानीतागाधानवकेनाह दक्खिणभरहे जीवा माउसगणवय होति पारकला । पापं बाकसमसयणक्यसास व एकाला ।। ७६९ ॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिलोकसा . पाषा: Twe पेयढते जीना मागसगासहस्सेगारकला । तेदालसगणमेक्कं पण्णरसकला य सच्चा ।। ७७. || भरहस्सते जीवा इगिसगचउचोदसं च पश्चकला । चावं महदुपपणचउरेमकं एक्कारसकला य ।। ७७१।। हिमपण्णमंत जीवा दुगतिगणवचउदुर्ग कला घृणा । चावं गभतियगपणवीससहस्सं च चारिकला || ७७२ ॥ हेमपदंतिमजीवा चउसगछस्सगति ऊणसोलकला । घणुहं णमच उसगअतिणि विसेसहियदसयकला ||७७३॥ महहिमवचरिमजीता जातिणलिन तच्चा तियणवदुगसगवण्णसहस्स दसयकला ।। ७७४ ।। हरिजीवा इगिणमणवतियसत्तर्यामह कलावि सचरसा । चावं सोलसणमचउसीदिसहस्सं च चारिकला || ७७५|| पिसहावसाणजीवा छप्पणगिचारिणषयदोषिणकला । घणुपुष्टुं छादालतिचउनीसेक्कं च पवपकला ||७७६॥ दक्षिणभरते जीवा अपचतुः समनव भवन्ति द्वादशकलाः। पापं षट्षट्सप्तशतनवसहन' च एककला ॥१॥ विजयान्तेि जोवा नभोनिकसप्तशसहस्र कादशकला । त्रिचत्वारिंशत् सप्त नमः एक पनदशकलाश्च तथा ॥ .. || भरतस्यान्ते जीवा एक सप्त चतुश्चतुर्दश च पशफलाः । सापं अतिकपश्चचतुरेकं एकादशकलाः ॥ १॥ हिमवनगान्ते बीका विकनिकनवचतुर्वयं फला चोमा। घाप नभस्त्रिदिपञ्चविंशतिसहन व चतुः कलाः ॥ २ ॥ हेमवतान्तिमजीवा चतु:सहषट्सप्तत्रयः नषोडशकला। धनुः नभश्यतुः समात्रीणि विशेषाषिकदशकला ॥७॥ महाहिमवञ्चरमजीवा एकत्रिनवत्रितपपन्न पदककला। तचाप त्रिनवद्विसप्तपत्राशस्सहर' बशकलाः ||४|| हरिजीवा एकनभोनवत्रिसप्तक यह कला अपि सप्तदश । पाप पोग्शनमाचतुरशीविसहन र पतनः कला। ।। ॥ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर तिर्यग्लोकाधिकार निषधावसान जीवा षट् प क चतुर्नवकं हूँ कले । धनुःपृष्ठ षट्चत्वारिंशत् त्रिचतुविपाश्येकं च नव कलाः ॥ ७७६ ॥ दक्षिणभरते जीवा agबस्थार: सप्तनययोजनानि दशकलायच ७४८ अवन्ति। तचाच षट्षदुसरसप्तसहित नवसहस्राणि एक कला व १७६६ स्यात् ॥७६॥ दक्खि वे विजयार्थान्ते जोश नभोदिकसप्तसहितयशसहस्रारिंग एकादश कला च स्यात् १००२०१२ सचचापं त्रिचत्वारिशद् सप्तनभः एक पवश कलाश्च स्यात् १०७४३५५॥७७० ॥ भरत । भरतस्यान्ते जीवा एश सप्त चतुश्चतुवंश पचकलाच १४४७१२ स्यात् । तच्चापं कप ुरे एकावशकलाश्च स्यात् १४५२८१३ ॥ ७७१ ॥ हिमवन्नगान्ते हिम २४९३२८१ तच्चाप नमः २५२३०५ ।। ७७२ ॥ पाषा: ७६१ से ७७६ जीवा द्वित्रिनव चतुर्द्वयं किजिग्न्यूनककला त्रिद्विपञ्चाधिकविशतिसहखाणि ६११ 4 चतस्रः फलाश्च स्यात् स्यात् हेममाखिमजीदा चतुःसप्तषट्सप्तत्रयः किन्नोजकलाइन स्यात् । ३७६७४३३ तद्धनुः नभश्चतुःसप्ताहोति साधिवशकलाश्च स्यात् ३८७४०३१ ॥ ७७३ ॥ मतृ । महाहिमवतश्चरमजीवा एकत्रिनयत्रितयपनयोजनानि षट्कलाश्च स्यात् ५३६३१५ कचापं त्रिनवद्विसहितसप्तपञ्चाशत्सहस्रयोजनानि वशकलाच स्यात् ५७२६३११७७४॥ हरि हरिवर्षे जीवा एकनभोनवत्रिसप्तयोजनानि इह सप्तदशकलाश्च स्यात् ७३६०१२३ सच्चा षोडशनभश्चतुरशीतिसहस्रयोजनानि चतस्रः कलाश्च स्यात् ८४०१६ ॥७५॥ सिहा । निषष्ठावान जीवा षट्प कचतुनंवयोजनानि द्विकलाश्व स्याद २४१५६१३ धनुः पृष्ठ' च षट्चत्वारिंशत् त्रिचतुविशत्येक योजनानि मवकलाइच स्वाद १२४३४६४॥७७६॥ अब दक्षिण भरतादि क्षेत्र और पर्वतों की जीवा एवं धनुष के पूर्व प्राप्त अंकों को तो गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाथार्थ :- दक्षिण भरत क्षेत्र में जीवा दो हजार सात सो अड़तालीस योजन और एक योजन के उन्नोस भागों में से बारह भाग ९७४८३ यो० ) प्रमाण है तथा उसी के चाप ( धनुष ) का प्रमाण नौ हजार सात सौ उघास योजन और उन्नीस फलानों में से एक कला अर्थात् ६७६१५ योजन प्रमाण है । विजया के अन्त में जोवा दश हजार सात सौ बीस योजन और ग्यारह कला ( १०७२०३२ यो० } प्रमाण तथा चाप दश हजार सात सौ तेतालीस योजन पन्द्रह कला (१०७४३१५ यो ) प्रमाण है। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६११ बिलोकसार पापा : ७ भरत क्षेत्र के अन्त में जीवा चौदह हजार चार सौ इकहत्तर योजन बोस पाच कला (१४७१ यो०) प्रमाण है, तथा उसी का चाप चौदह हजार पाँच सौ अट्ठाईस पोजन औष ग्यारह कला ( १४५२८ यो.) प्रमाण है। हिमवत् पर्वत के अन्त में जीवा चोबोस इजार नौ सो बत्तीस योजन और कुछ कम एक कला ( २४९३२ यो०) प्रमाण है तथा उसी का चाप पच्चीस हजार दो सौ तीस योगन चार कला ( २५२३० यो०) प्रमाण है। हैमवत क्षेत्र के अन्त में जीवा संतीस हजार छह सौ चौहत्तर योजन और कुछ कम सोलह कला ( ३७६७४१७ यो ) प्रमाण है, तथा धनुष अत्तीस हजार सात सौ चालीस पोजन और कुछ अधिक दश कला ( ३८७४० यो०) प्रमाण है। महाहिमवत् पवंत के अन्त में जोवा ओपन हजार नौ सौ इकतीस योजन और छह कला ( ५३९३१२५ पो.) प्रमाण है तथा चाप सनादन हजार दो सौ तेरावे योजन और बश कला (१७२६३५९ यो०) प्रमाण है। हरिक्षेत्र में जीवा तिहत्तर हजार नौ सौ एक योजन और सत्रह कला ( ७३६-११ यो०) प्रमाण है, तथा चाप चौरासी हजार सोलह योजन और धार कला ( ८४.१६. यो. ) प्रमाण है। निषध पर्वत के अन्त में जीवा १४१५६३३ योजन प्रमाण है तथा चाप एक लाख चौबीस हजार तीन सौ छियालीस योजन और नौ कला १२४३४६२, योजन प्रमाण है ॥ ७६६-४७६ ।। जीवद विदेहमज्मे लक्खा परिहिदलमेवमवरद्ध । माहवचंदृद्धरिया गुणधम्मपसिद्ध सम्वकला ॥७७७।। भीयातयं विदेहमध्ये लक्षं परिधिलं एवमपरार्धे । माधवचन्द्रोद्धता: गुणधर्मप्रसिद्धाः सर्वकलाः ।। ७७७ ॥ जीव । विदेशमध्ये जीवा धनुरिस्येतद्वयं पाप लभयोजनानि । ल जम्बूद्वीपपरिये ( ३१६२२७ को ३० १२८ अं १३ भा) पंधमारणं न स्यात १५८११४ एवमेवरावताचपरायेऽपि गुरषो ज्या धर्मो धनुः सयोः प्रसिधाः पूर्वोक्ता: स: कला योजनाकामसंनया. माषणबहान १९ उम्रताभक्ता पक्षे गुरणेषु धर्मे । प्रतियाः सर्वाः कला भाषचन्द्रविद्येशिनोवताः प्रकाशिताः ॥७७७॥ गाथार्थ :-विदेह के मध्य में जीवा और धनुष ये दोनों कम से एक लाख योजन और जम्बू होप की परिधि के अभाग प्रमागा हैं। ऐरावतादि भेषों और मवम्बू दीप में भी ऐसा ही मानना, Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा: नरतियग्छोकाधिकार तथा पूर्वोक्त कही हई गुण अर्थात् जीवा और धर्म अर्थात् धनुष के प्रमाण की सम्पूर्ण कला माधव मर्थात् १ और चन्द्र= १ अर्थात् १६. भाग रूप हैं ॥ ७ ॥ विशेषार्थ:-विदेह क्षेत्र के मध्य में जीवा का प्रमाण १००.०० योजन और धनुष का प्रमाण जम्बूद्वीप की परिधि ३१६२२० योजन ३ कोश, १२८ दण्ड और १३३ अंगुल के अधं भाग प्रमाण अर्थात् कुछ कम १५८११४ योजन है । इसी प्रकार ऐरावत आदि क्षेत्र, पवंत और अर्ध जम्बूद्वीप में भी जानना । गुण अर्थात् जीवा और धर्म अर्थात् धनुष के प्रमाणों की पूर्वोक्त कही हुई सम्पूर्ण कला अर्थात् योजन के अंश माधव ( नारायण ) के ९और चन्द्र का एक अर्थात १६ भाग स्वरूप है तथा पम में-जानादि गुण और अहिंमादि धर्मों में प्रसिद्ध जो सम्पूर्ण चातुर्य है वह माधव चन्द्र विद्यदेव के द्वारा उद्धृत अर्थात प्रकाशित है। अथ जीवानो धनुषां च चूलिका पार्श्वभुजं चाह-- पुश्वकरजीवसेसे दलिदे इह चूलियाति णाम इथे । घणुगुगसेसे दलिदे पामभुजा दक्खिणुचादो ||७७८।। पूर्वापरजीवाणषे दलिते इह चूलिका इति नाम भवेत् । धनुर्विकशेधे दलिते पाश्वभुजः दक्षिणोत्तरतः ॥ ७७८ ।। पुञ्च । दक्षिणे भातादौ उत्तरस्मिन्नरावतारी प पूपिरजोधपोरषिके हीनं शेषविस्वा दलिते शेषस्य धूलिकति नाम भवेत् । पूर्वापरधनुषोयं प्राग्वच्छेषयिस्वा मधित पार्वभुमः स्यात् । एतदेव विवरपतिसलिणभरतजीवा १७४८८३ विजयापजोक्यो १७७२० रषिके होनं शेषपिया ९७२ तवंशे इतरोशस्य : शोधनाभावात् मंशिनि १७२ एक गृहोरवा ९७१ समच्छेवं करमा प्रोतका २३ मपनीय शिमेलयेत राशे १७१ विषमत्वादेकमपनीय ६७० अर्षविस्वा xey संशं चापिस्वामपनीतकमपितरायंशत्वादविस्वा ३ वमपिताशं च परस्परहारगुणनेम समस्येवं कुरवा मेलयेत् एनायता विजयाधुलिका स्मात् वक्षिणभरतचाप ७६६ विजपा वापयो १०४४३२१ रन्योन्य शेषयित्वा १७७१ प्राविवर्षों इस्य ४८ ग्रंशयोः+ से प्रारबम्मेलने विजयास्य पार्श्वभुजः स्यात् । एमितरत्र पूलिका पाश्र्वभुजः चानेसण्या ॥ ७ ॥ अब जीवा की चूलिका और धनुष की पाश्च भुजा कहते हैं : गापार्ष:-दक्षिणोतर में पूर्वापर जोवा को ( परस्पर में ) घटा कर अवशेष को आषा करणे पर जो लन्ध प्राप्त हो उसका 'चूलिका' यह नाम होता है, और पूर्वापर धनुष को परस्पर घटा कर अवशेष को प्राधा करने.पर जो लब्ध प्राप्त हो उसका नाम पार्थ भुजा है ।। ७७८ ॥ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिकोनसार पापा विशेषार्ष:-दक्षिण में भरतादि क्षेत्र और हिमवन् मावि पर्वतों की तथा उत्तर में ऐरावतादि क्षेत्र और शिखरिन् आदि पर्वतों की जो पूर्वापर अर्थात् पहिले मौर पीछे कही हुई जीया के प्रमाण में जो अधिक प्रमाण वाली जोवा है उसमें से होन प्रमाण वाली को घटाकर अवशेष को आधा करने पर बो लब्ध प्राप्त हो जसका नाम चूलिका है तथा पूर्वापर कहे हुए धनुष के अधिक प्रमाण में से होन प्रमाण को घटाकर अवशेष का आधा करने पर जो लब्ध प्राव हो उसका नाम पार भुना है । जैसेदक्षिण भरत की जीवा का प्रमाण ९७४८५३ योजन है और विजया की जीवा का प्रमाण १०.२० योजन है, जो दक्षिण भरत की जीवा के प्रमाण से अधिक प्रमाण वाली है, अतः १०७२०१६ - ९७४८९२९७२ योजन अवशेष रहे, किन्तु अंशों में से २३ अंश नहीं घट सकते अतः।७२ प्रशो में से १ अङ्क ग्रहण करने पर १७१ योजन रहे मोर उस एक मंक को भिन्न रूप करने पर हए । इनमें से 3 ग्रंश घटाने पर {2-13)- अवशेष बचे जो में जोड़ देने से ( + ) अर्थात् १७११६ योजन अवशेष रहे। इस राशि का अर्घ भाग करना है किन्तु विषम राशि का अधं भाग नहीं होता, अतः ९१ में से १ अङ्क घटा कर शेष १७. का अधं भाग ४८५ योजन और ग्रंश का अध मागहा । घटाए हए .१ अंक का अर्धभाग होता है। इस और २ अंश को समच्छेद करने पर (३४)-32 और (ix) प्राप्त हुए । इन दोनों को मिलाने पर (32+3 ) अर्थात् ४८५३ योजन विजया पर्वत को चूलिका का प्रमाण है। अथवा :-विजया की जीवा २०१11 (१.७२०) योजन और दक्षिण भरत की "" (५७४८५३) योजन है इसे घटा कर आधा करने पर चलिका का प्रमाण प्राप्त होता है, अत:५०१५ - १८५१२४= २०३८५३२४ = "1" (७१२९) x g " अर्थात् ४८५३ योनन विजया की चूलिका का प्रमाण है। दक्षिण भरत का चाप ९७६६२० योजन और विजयाचं का चाप १.७४३१५ योजन है। इन्हें परस्पर घटाने से ७७ योजन अवशेष रहे। इन्हें पूर्वोक्त विधि के अनुसार आधा करने पर ४८ पोजन हुआ । शेष प्रश को मंशी में पूर्वोक्त विधि से मिलाने पर अर्थात ४८८ योजन बिजया पर्वत की पारवं भुजा का प्रमाण है। अथवा:-विजया का धनुष २०१३३२ मोजन और दक्षिण भरत का धनुष ०२५५५ योजन है। इन्हें परस्पर घटाने पर २०१२ - १८५५५५=१५५*x'='' अर्थात् ४ योजन विजया की पार्श्व भुजा का प्रमाण है । इसी प्रकार विदेह पर्यन्त अन्य सभी क्षेत्रों और पर्वतों की चूलिका का प्रमाण निम्न प्रकार है तथा उत्तर विदेह से उत्तर ऐरावत पर्यन्त की चलिका का प्रमाण पयाक्रम इन्ही क्षेत्र पर्वतों के सदृश है : [पया चार्ट अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा : निरतियोकाधिकार नाम क्षेत्र-पर्वत अपरजीवा! अन्तर দুভিক্ষা কা সায় उत्तर भरत | २०३६६१ | २०४६५४ १२६३ । ७१२६३४१- १८७५३ योजन हिमवन् पर्वत | २७१५४ | ४७३७०१ १९८५५५ १९६७१५४२-२२३०१३हमवत क्षेत्र | ४७३" | १५६१२ २४२११३ २४२११३४१-६३७१४. महाहिमवन् | ७१५८२२ | १०२५६६५३०८६७२ ३०८६७३४३-८१२८ - परिक्षेत्र ३७१४४१४:- REETE - निषध पर्वत । १४:४१३६ | १७६६६६६६८४६३० । ८४८३० x =१०१२०६ . | वहिण विदेह | १७६६६६६ | १९:००.० १११०३४ | १११:३४x = २९२१ " ५ विजया पर्वत की पावं भुजा का प्रमाण ऊपर कहा जा चुका है। उत्तर भरत से दक्षिण विदेह पर्यन्त पाश्च भुजा का प्रमाण निम्न प्रकार है तथा उत्तर विदेह से उत्तर ऐरावत पर्यन्त पावं भुजा का प्रमाण यथाक्रम इन्ही क्षेत्र पर्वतों के सहय है। पपा पार्ट.मयो पृष्ठ पर देखिए ] Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रीकसार गामा. . माम पर्वत-क्षेत्र पूर्व धनुष | उत्तर पनुष | अन्तर पावं मुजा का प्रमाण उत्तर भारत २०४१३२ २७६०४३ हिमवन् २७१०४३ ४७९३७४ २५६६३ हेमवत क्षेत्र ४४४३७४ महाहिमवन् । २०७० | १०६६५७७ हरिक्षेत्र १०८८५० १५६६३०८ | निषधपर्वत v•ད २३६२५८३ पक्षिण विदेह ! २३६२५८३ | २००४१६४ १९११४१८९७ योजन २०१३३५-३-३५० - २५६६९६४-६७५५१ - ३५२५०७ । ३५२५.०x१-१२०६३ " ५०४१४३-१३२६ ७६६२७५। ६६२७५ x =२०१ky" ६४१५८१ | Kekxt-१९८८३५५० ५.४७३१ प. पक्षिण भरत से उत्तर ऐरावत क्षेत्र पर्यन्त न्यास, बाण, पीवा, पलिका, धनुष और पाएवं पुवामा एकत्रित प्रमाण ( योजनों में ) निम्न प्रकार है: रूपमा पार्टनयले पृष्ठ पर लिए ] Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा। गति लोकपिकार नाम व्यास वाण | जीवा चुलिका धनुष पाश्वमुजा ३०००० | र ६५ दक्षिण भरत | २३८१ २३८१ ६७४८१३ - ९७६६१ २. विजया ५. योजन २८८ १०७२० १०७४३२१ ४६८ ३ उत्तर भरत | २३ ५२६ पर १४४७१३ | Purn १४५२८१३ १८५२४ ४ हिमवान् पर्वत | २.... २४६३२१२ ५२३०४२ / २५२३०१ ५३५ ५/ हेमवत ४००.. 0000. ३७६७४१३ | ६३७११५, ३८४४०१ ६७५५११ ६/ महा हि. core. १५०००. ५३६३१० ५१२८१४४२९३२६ | १२०६३ हरिक्षेत्र १६०.०० ३१००.. .३६०११ | ९८५६ । ८४०१६३६ १३३६१३३ निपध ३२०००. ६३०... । १४१५६.३६ । १०१९७३, १२४३४६,१ | २०१६५४३ है। दक्षिण विदेह ३५०००० १००००० | २६२१३६ | १५८११४ । १६८८३३ उत्तर वि. __ ३२०००० १०.००० | २९२१. १५८११४ | १६८८३ नील ९४१५६६ | १०१२७४२ १९४३४६, २०१६ १६०... ७३९०१९ | Rics | ४.१६४ | ११३६१३३ १३| रुक्मी ८०.०. ५३६३१६० । १२८१२ | ५५२९३३९ | १२०६६ R हैरण्यवत ४०००० ३७६७४१५ | ६३७ १३३ | ३८७४०१५ | ६०५५। १५| शिखरिन् २४६३२५५ । ५२३०१३ | २५२३०. ! ५३५०१३ १६ ६० ऐरावत २३८ । ५२६१ ! १४४७१ | १८७५३६ | १४५३८ । १८९२१५ ২. বিল মাছ ५० यो । २८८६२ । १०७२० । ४८५३ | १०७४३२५ । ४८५ १८| उ. ऐरावर २३ । २३८ | ९७४८१३ x ९७६१२५ x ५०००० पर ३२००० १४.०००। ३.००० Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ विलोफसा गाषा: 01-950 अथ भरतरायतक्षेत्रेषु कालवतनक्रम प्रतिपादयति भरहेसुरेखदेस य ओसप्पुस्सप्पिणिपि कालदुगा । उस्सेधाउवलाणं हाणीबड्डी य होतिचि ॥ ७७९ ॥ भरतेषु ऐरावतेषु च अवसर्पिण्युत्सपिणीति कालद्वयं । उन्सेषायुबलानां हानिवृद्धी च भवत इति ।। ७७६ ॥ भरहे । पञ्चमरतेषु पर्श रावतेषु पावसपिणपुरसपिणीति मालवयं वर्तते । तरपीवानामुत्सेपापुर्वलानां ययासंख्यं हानिधी मयत इति मातम्यं ॥ ७७६ ॥ अब भरतैरावत क्षेत्र में कालवतेन क्रम का प्रतिपादन करते हैं। पाया:-पञ्च मेरु सम्बन्धी पाच भरत पोर पांच ऐगपत जेत्रों में अवसपिसी सोय उत्सपिणी नाम के दो काल वर्तते हैं। इन क्षेत्रों में स्थित जीवों के शरीर की ऊंचाई, प्रायु और बल की क्रमशः अवसपिणी काल में हानि और उत्सपिणी काल में वृद्धि होती है, ऐसा जानना चाहिए || ७७९ ।। थकालनुयभेदानां संज्ञाः कथयति सुसमसुसमं च मुसमं सुसमादी अंतदुस्समं कमसो ! दुस्सममतिदुस्सममिदि पढमो पिदियो दु षिवरीयो ।।७८०|| सुषमसुषमः च सुषमः सुषमादिः अन्तदुःषमः कमशः । दुषमा अतिदुःषम इति प्रथमः द्वितीयस्तु विपरीतः ॥ ७० ॥ सुसम । १ सुषमसुषमः २ सुषमः ३ सुषमःषमः ४ कुषमसुषमः ५ दुःषमः ६ प्रतिषमः इति मेण प्रथमोऽवतपिरणीकाला पड़मेवः। द्वितीय उत्सपिरतीकालः एतत परीत्येन षड्भेः ॥ ७० ॥ दोनों कालों के भेद एवं नाम कहते हैं। पाचार्य :-प्रथम अवसर्पिणी काल सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादुःषमा, दुःषमा-सुषमा, दुःपमा और अतिदुःषमा के नाम से ६ भदवाला है, तथा दूसरा उत्सपिणी काल इससे विपरीत कम पाला है ॥ ७० ॥ विशेषार्थ :-प्रथम अवसर्पिणी काल कम से सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुःषमासुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा के नाम से छह भेद वाला है। तथा उत्सपिणी काल भी कम से अतिदुःषमा, दुःषमा, दुःषमासुषमा, सुषमादुःषमा, सुषमा और अतिसुषमा के भेद से छह प्रकारका है। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाय।। ७८१-७२ मपतियालोकाधिका अप प्रथमादिकालानां स्थितिप्रमाणमाह चदुतिदुगकोडकोही वादालसहस्सवासहीणेक्कं । उदधीणं हीणदलं तत्तियमेतद्विदी ताणं ।। ७८१ ।। चतुस्त्रिद्विककोटीकोटि वाचत्वारिंशत्सहन्नवर्षहीनकम् । उदधीनां हीनदलं जावमात्रा स्थितिः तेषां ॥१॥ च । तेषा षट्कालान कमेण स्थितिः चतुः कोटीकोटिलागरोपमात्रिकोटोकोटितापरोपमा दिकोटोकोटिसापरोपमा ठाणस्वारिंशरस हम्नवर्षहीनककोटोकोटिसागरोपमा। होनस्य ४२० बलं उभयत्र प्रस्पेस २१००० तावन्मात्रा प माता ॥ ७८१ ॥ प्रथमादि कालों का स्थितिप्रमाण कहते हैं___ गाथार्य :-उन सुखमा सुखमा आदि कालों की स्थिति कमशः चार कोडाकोडी सागर, तीन कोजाकोडी मार दो कोटाकोटी नगर, नयालिस हजार वर्ष हीन एक कोडाकोडी सागर, धयालिस हजार वर्ष का अध अर्थात् इक्कीस हजार वर्ष और इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है ।। ७१॥ अन षटकालजीवानामायुः प्रमाणं निरूपयति तत्थादि अंत आऊ विदुगेक्कं पन्लपुषकोडी य । वीसहियमयं वीसं पण्णरसा होति वासाणं ।। ७८२ ।। तत्रादौ भन्ते आयु: त्रिद्विकैकं पल्यं पूर्वकोटिः । विशाधिकशत विशं पञ्चदश भवन्ति वर्षाणां ॥ ७६२ ।। तस्यादि । तेषु कालेषु प्रथमकालस्यायो नोवानामाबुस्विपल्पोपमं तस्यान्ते विपश्यं एतदेव द्वितीयकालत्यादौ तस्यान्ते एकपल्यं एतदेव तृतीपकालस्यादो तस्यान्ते पूर्वकोतिः एतदेव चतुर्घकालस्थायी सस्यान्ते विशत्यधिक शतं एतदेव परुचमकालस्मायो तस्यान्ते विशतिः एतदेव पढकालस्यादौ तस्याम्ते पञ्चवश एar: Raf: संख्या पर्वाणा भवन्ति ॥ ७२ ॥ अब छह काल के जीवों की आयु का प्रमाण कहते हैं : गायार्थ :-उन छह कालों के आदि और अन्त में आयु का प्रमाण कम से तीन पल्य और दो पल्य, दो पल्म एवं १ पल्य, एक पल्य एवं पूर्वकोटि, पूर्व कोटि एवं १२० वर्ष, १२. वर्ष एवं २० वर्ष तपा २० वर्ष एवं १५ वर्ष प्रमाण है || २ || विशेषार्थ:-उन छह कालों में से प्रथम काल की मादि में जीवों की आयु का प्रमाण तीन पस्योपम और अन्त में दो पन्योपम प्रमाण है। दूसरे काल के प्रारम्भ में दो पल्योपम और मम्स में एक परयोपम प्रमाण है । तीसरे काल के प्रारम्भ में आयु का प्रमाण एक पल्पोपम और अन्त में Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० त्रिलोकसार गापा:४८३-. पूर्वकोटि प्रमाण है। चतुर्थ काल के आदि में पूर्वकोटि और अन्त में १२० वर्ष प्रमाण है । पञ्चम काल की आदि में १२० वर्ष और अन्त में २० वर्ष प्रमाण है, तथा छठे काल की आदि में २० वर्ष और अन्त में १५ वर्ष प्रमाण है। . | "-!!... . तथा मनुष्योत्सेधमाइ-- तिदुगेकोसमुद्रथं पणसयचावं तु सच रदणी य । दुगमेकके चय रदणी छक्कालादिम्हि अंतम्हि ।। ७८३ ।। त्रिविकोशमुदयः पञ्चशतचापं तु सप्तरत्नयः च । द्विकमेकं च रनिः षटकालादो अन्ते ॥ ३ ॥ तिम् । प्रयमकालस्यादौ त्रिकोशमुदयः तस्यान्ते शिमुदयः स एव वितीयकालस्यावी सस्याले एककोशमुसः स एव तृतीमकालस्यानो सस्यान्ते पञ्चशत ५०.० चापोरसेषः स एव चतुर्षकालस्थाको लस्यान्ते सासरयुस्सेषः स एव पन्चमकालस्याको तस्यान्ते विरल्युदयः स एष वकालत्याची तस्यान्ते एकरल्युसेधः । एवं षटकालानामावो मन्ते च मत्र्यानामुत्सेधो मासष्यः ॥ ३ ॥ वैसे ही मनुष्यों की ऊंचाई का प्रमाण कहते है : गाथा:-उन्हीं छह कालों के कादि और अनल में मनुष्यों के शरीर को ऊँचाई कम से तीन कोश और दो कोश, दो कोश और एक कोश, एक कोश और ५०० धनुष, ५०० धनुष और ७ हाथ, ७ हाथ और दो हाथ तथा दो हाथ और एक हाथ प्रमाण है ।। ७८३ ॥ विशेषार्ष:-प्रथम काल के मादि में मनुष्यों के शरीर की ऊंचाई तीन कोश और अन्त में दो कोश प्रमाण है। दूसरे काल के आदि में दो कोश और अन्त में एक कोश प्रमाण है। तीसरे काल के सादि में एक कोश और अन्त में ५०० धनुष प्रमाण है। चौथे काल के आदि में ५.० धनुष और अन्त में हाय प्रमाण है। पञ्चम काल के आदि में ७ हाथ और अन्त में दो हाथ प्रमाण है तथा छठे काल के आदि में दो हाथ और अन्त में एक हाथ प्रमाण है। अथ षटकालवतिनां मत्यांना वर्णकम निरूपयति-- उदयरवी पुर्णिण प्रियंगुसामा य पंचवण्णा य । लुक्खसरीरावणणे धूमसियामा य छक्काले ।। ७८४ ।। उदयरवयः पूर्णेन्दवः प्रियंगुश्यामाश्च पश्चवर्णाश्च । रूक्षशरीरावण: धूम श्यामा: च षट्काले ।। ७८४ ।। जाय। प्रथमकाले नराः उबपरविषय वितोयकाले पूर्णेन्दुवाः , तृतीयकाले fist Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा : ७५५ नरतियंग्लोकाधिकार ६२१ हरितस्यामवर्णाः, अतुर्पकाले पनववर्णाः, पन्चमकाले कान्तिहीनमिबपञ्चवर्णाः षष्ठे काले घूमश्याम वर्णाश्च । एवं षट्काले वर्णकमो ज्ञातव्यः ॥ ७८४ ॥ अब छह कालवों के वर्णमामाले हैं।... गाथार्य :- छहों कालवर्ती मनुष्यों के शरीर का वर्ण क्रम से उदित होते हुए सूर्य के सदृश, सम्पूर्ण चन्द्र सदृश, हरित-श्याम सदृश, पांचों वर्गों के सदृश कान्ति हीन पांचों वर्गों के सदृश और अन्तिम काल में धूम सहश श्याम वर्ण का होता है ॥ ७८४ ।। विशेषार्ष:-प्रथम कालवर्ती मनुष्यों के शरीर का वर्ण उदित होते हुए सूर्य के सदृश, द्वितीय कालवर्ती मनुष्यों के शरीर का वर्ण पूर्ण चन्द्र सदृश, तृतीय कालवर्ती मनुष्यों के शरीर का वर्ण प्रियंगुहरिव श्याम वर्ण सदृश, चतुर्थ कालवर्ती मनुष्यों के शरीर का वर्ण पांचों वर्गों सदृश, पञ्चम कालवर्ती मनुष्यों के शरीर का वर्ण कान्ति हीन पांचों वर्णो सद्दश और षष्ठ कालवी मनुष्यों के शरीर का वर्ण घूम सदृश श्याम होता है। अथ तेषामाहारक्रम निरूपति अहमढचउत्थेणाहारो पडिदिणेण पायेण | अतिपायेण य कमसो अकालणरा हवं तिचि ।।७८५|| अष्टमषष्ठचतुर्थेनाहारः प्रतिदिनेन प्राचुर्येण । अतिप्रात्रुर्येण च कमशः षट्कालनरा भवन्तीति ।। ७८५ ॥ प्रद। प्रथमकाले अहमवेलापां त्रिविनायरिया इत्यर्थः, द्वितीयकाले षष्पवेलाया विनयमन्तरिक्वेत्यर्थः, तृतीयकाले व्रतुर्षवेलायो एकदिनमन्तरिक्वेस्वयः, बर्षकाले प्रतिदिनमेकवार, पसमकामे बहुवार, षष्ठकालेऽतिप्रचुरपस्या । एवं षट्काले नराणामाहारसमो भवति ॥ ७८५ ॥ उनके आहार कम का निरूपण करते हैं : गापाय :-छह काल के मनुष्य क्रम में अष्टमवेला अर्थात तीन दिन के बाद, पष्ठ बेला अर्थात दो दिन के बाद, चतुर्थ वेला अर्थात् एक दिन बाद, प्रतिदिन, प्रचुरता से और अतिप्रचुरता में भोजन करते हैं ।। ७०५ || विशेषार्थ :--प्रथमकालवर्ती मनुष्य तीन दिन के बाद, द्वितीय कालवी दो दिन के बाद, तृतीय कालवर्ती एक दिन के बाद, चतुर्थ कालवर्ती प्रतिदिन अर्थात् दिन में एक बार, पत्रम कालवी बहुत वार और षष्ठ कालवर्ती मनुष्य अति प्रचुर इति से अर्थात् मारम्वार आहार करते हैं। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ चिलोकसार पाथा:७५६ छह फालों के नाम, काल का प्रमाण, मनुष्यों की आयु, उत्सेच, परोष का वर्ग पौष आहार बादि का सखित वर्णन : कालों के नाम स्थिति प्रमाण ! मनुष्यों को आयु शरीर का उत्सेध वर्ण माहारा सहाशा । सुषमासुषमा ४ कोड़ा सागर ३ पल्य-२ एल्य तीन कोश-दो कोश वदित सूर्य के तीन दिन बाद २ सुषमा कोड़ा. . | २ पल्म-६ पल्म दो कोश-१ कोश पूर्ण चन्द्र सदृश दो , , सुषमा-दुषमा २ " . १ पल्य-पूर्वकोटिकोश-५०० धनुष प्रियंगु . | एक . . ४२.०.वर्ष दुःषमा-सुषमा कम १ को सा. १ पूर्वकोटि-१२० ५०० धनुष- हाथ पांचों वर्ण - प्रतिदिन एक बार वर्ष कान्ति होनदुःषमा २१००० वर्ष १२० वर्ष-२० वर्ष ७ हस्त-दो हस्त पांचों वर्ण बहुत वार दुःषमादुःषमा २१००० " १० वर्ष-१५ वर्ष | दो हस्त- हस्त घूम वर्ण » | बारम्बार अब भोगभूमिमानामाहारप्रमाणे निवेदयति बदरखामलयप्पमकप्पडुमदिण्णदिब्वहारा | वरपडदितिभोगक्षुमा मंदकसाया विणीहारा ।। ७८६ ।। बदराक्षामलकप्रमकल्पद मदत्तदिव्याहाराः । करप्रभृतित्रिभोगभूमाना मन्दकषाया विनीहाराः ॥७६६।। बर। उत्कृयाविधिविषभोगभूमिजाः कमेण नवराक्षामलकप्रमाणकल्पनुमवत्तविन्याहारा: मत्वकषाया विनोहारा भवन्ति ।। ७६ ॥ भोग भूमिज मनुष्यों के आहार का प्रमाण कहते हैं: माथा:-कल्प वृक्षों द्वारा प्रदत्त उत्कृष्टादि तीनों भोग भूमिज मनुष्य क्रमशः बदरी फल, अक्ष फल और अविका प्रमाण दिव्य आहार करते हैं । ये सभी जीव मान्य कषायी और निहार में रहित होते हैं । ५८६ ॥ विशेषार्थ :---उत्तम भोग भूमिज मनुष्य वदो (बेस) फल के बराबर, मध्यम भोगभूमिज मनुष्य, पक्ष ( बहेड़ा ) फल के बराबर और जघन्य भोग भूमिज मनुष्य आंवले के बराबर कल्पवृक्षों द्वारा प्रदत्त दिव्य आहार करते हैं। ये सभी जीव मन्द कषायी तथा निहार अर्थात् मलमूत्र में रहित होते हैं। Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ७६७-७८-७८९ मरतिर्यग्लोकाधिकार ६२३ अथ तस्कल्पतरूणां प्रमाणमाह - तूरंमपञ्चभूसणपाणाहारंगपुष्पजोइतरू | गेहंगा वत्थंगा दीवंगेहि दुमा दसहा ।। ७८७ || तूर्याङ्गपात्रभूषण पानाहाराङ्गपुष्पज्योतितरवः । गेहाङ्गा वस्त्रागा दीपाङ्ग: द्रुमा दशधा ॥ ७ ॥ तुरंग । तूर्याङ्गपात्राङ्गावरणाङ्गामाङ्गाहाराङ्गपुष्पांगम्योतिरंगगृहागपत्रांगवीपांग: कल्पद्रुमा बाधा भवन्ति ॥७८७ ॥ भोग भूमिज कल्पवृक्षों का प्रमाण कहते हैं गाया :-तूर्याङ्ग, पात्राङ्ग. भूषणांग, पानांग, माहाराङ्ग. पुष्पांग, ज्योतिरंग, गृहांग, वस्त्रांग और दीपांग ये दस प्रकारतक्ष तोगों भोगने में होते हैं । १८ ॥ अथ भोगभूमे: स्वरूपमाह दप्पणसम मणिभूमी चउरंगुलसुरसगंधमउगतणा । रवीरुच्छनोय महुधदपरीदवावीदहाइण्णा ।। ७८८ ।। दर्पणसमा मरिणभूमिः चतुरङ गुलसुरसगन्धमृदुतृणा । फोरेक्षुतोयमधुघृतपरीतवापीलदा कोर्णा ॥ ७८८ ।। वापरण । ओरेक्षुरसतोपमघुघूतपूरितवापोहवाको चतुरंतुलसुरसगन्धमृवुकतृणा वरणसमा मरिखमयभोगभूमि तम्या ७८८ ।। भोगभूमि का स्वरूप-- गाथार्ष:-भोगभूमि दर्पण सदृश, मणिमय, चार अंगुल ऊंची, उत्तम रस गन्ध वाली कोमल घास युक्त तथा दूध, इक्षुरस, जल, मधु और घृत से भरी हुई पापियों एवं ह्रदों से व्याप्त होती - - - ---- अथ भोग भूमिजानामुत्पत्त्यवसानान्तविधानं गाथात्रयेगाह जादजुगलेसु दिवसा सगसग अंगुठ्ठलेहरगिदए । अथिरथिरगदि कलागुणजोवणदंसणगहे जाति ॥७८९|| जातयुगलेषु विवमा सप्तसम अंगुष्ठलेहे रङ्गिो । अस्थिरस्थिरगत्योः कलागुणयोधनदर्शनग्रहे यान्ति || जाय। उपायुगलेषु अंगुष्ठलेहे उसानपरिवर्तने अस्थिरगतो स्विरमतो कलागुणग्रहणे पौवनः पहले वनमाणेच प्रत्येक सप्त सप्त दिवसा यास्ति ॥ ७९ ॥ - --- Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ पिलोकसाय पाषा: .-७९१ भोगभूमिओं को उत्पत्ति से मरण पर्यन्त के विधान को तीन गाथाओं में कहते हैं गाया :- युगलिया उत्पन्न होने वाले भोगभूमिज क्रममा सात सात दिन तक मंगुष्ठ चूसते हैं, आँधे सीधे होते हैं अर्थात रेंगते हैं, अस्थिरगति से चलते हैं, सिथरपति से चलते हैं, कलागुणों से सम्पन्न होते हैं, यौवन प्राप्त करते हैं और परस्पर दर्शन करते हैं अर्थात स्त्री पुरुष रूप में एक दूसरे को देखते विशेषार्थ :- भोगभूमि में स्त्रीपुरुष युगल उत्पन्न होते हैं । उत्पत्ति दिन से सात दिन तक वे अपना मंगुष्ठ चूसते हैं, सात दिन तक ओंधे होते हैं अथवा पोधे ओंधे रेंगने लगते हैं, तीसरे समाह में अस्थिरगति से और चौथे सप्ताह में स्थिरगति से चलते हैं। पांचवें सप्ताह में सम्पूर्ण कलाओं एवं गुणों से युक्त हो जाते हैं। छठे सप्ताह में सम्पूर्ण योवन युक्त हो जाते हैं पौर सातवे सप्ताह में एक दूसरे को स्त्री पुरुष रूप से देखने लगते हैं। नपदीणमादिमसंहदिसंठाणमज्जणामजुदा । सुलहेसुवि णो तिची तेसिं पंचक्खविसएसु ॥७९०|| तपतीनामादिम संहतिसंस्थानं सायनामयुताः। सुलभेषु अपि नी तृप्तिः तेषां पनाविषयेषु ।। ४५० ।। तहप। तद्दम्पतीनामाविमसंहननसंस्थाने स्याat बखावृष मनारायसंहननसमचतुरस्रसंस्थाने इत्यर्थः । ते चायनामयुताः तेषां सुलमेष्वपि पञ्चाविषयेषु न तृरितः ।। ७६० ॥ मापार्य :- दम्पत्ति, आदि संहनन, आदि संस्थान एवं प्रायं नाम से सहित होते हैं। पञ्चेन्द्रियों के विषय प्रति सुलभ होने पर भी वे कभी तृप्ति को प्राप्त नहीं होते ॥ १० ॥ विशेषार्थ :- भोगभूमिज प्रत्येक युगल दम्पति अर्थात् स्त्री पुरुष दोनों के प्रथम ( बज्रवृषभनाराष ) सहनन और प्रथम ( समचतुरस्र ) संस्थान होता है। वे 'बाय' नाम से युक्त होते हैं । अर्थात स्त्री, पुरुष को 'आर्य' और पुरुष, स्त्री को आर्या नाम से सम्बोधन करते हैं। पश्चं न्द्रियों के विषय अति सुलभ होते हुए भी वे कभी तृप्ति अर्थात् सन्तोष को प्राप्त नहीं होते। चरमे खुदर्जभवसा णरणारि विलीय सरदमेधं षा। भवणतिगामी मिच्छा सोहम्मदुजाइणो सम्मा ।। ७९१ ।। घरमे शुतज़म्भवशात् नरनार्यो विकीय शरमेचं का। भवनविगामिनः मिथ्याः सौष्ठमंद्वियायिनः सम्यवः ।। ७६१ ॥ परमे । मायुरुपावसाने अलजम्भयोवंशावयासंख्य रमाय: परकासमेघपहिलीय सत्र मिथ्याटपो भवमत्रयणामिनः सम्यग्हाया मौषमरिकमायिक स्युः ॥ ७९१ ॥ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाथा : ७६२ से १४ नरतियंग्लोकाधिकार ६२१ जापा:-आयु के अन्त में पुरुष और स्त्री क्रमशः छींक और जम्भाई के द्वारा मरण को प्राप्त होते हैं। मृत्यु के बाद उनके शरीर शरद् ऋतु के नंध में समा गयोग ले जाते है ! इनमें मिध्याइष्टि जीव भवनतिक में और सम्यग्दृष्टि जीव सौधर्मशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं ॥ १ ॥ अथ कर्मभूमिप्रवेश क्रमं तत्रस्थमनूनां च स्वरूपं गाथात्रयेण प्रतिपादयति-- पग्लट्ठमं तु सि? तदिए कुलकरणरा पडिस्सुदिमो । सम्मदिखेमंकरघर सीमकरधर विमलादिवाहणवो ।। ७९२ ॥ चक्खुम्मजसस्सी अहिचंदो चंदाहमो मरुद्द मो । होदि पसेणजिदंको णामी तण्णंदणो वसहो ।। ७९३ ॥ वरदाणदो विदेहे बद्धणराऊय खायसंदिहि । इह खचियकुलजादा केहआइन्भरा मोही ।। ७९४ ।। पल्याष्ट में तु शिष्टे तृतीये कुखकरनराः प्रतिषतिः। सम्मतिः क्षेमकरघरा सीमकरधरः विमलादिवाहनः ॥७६२।। चक्षुष्मान् यशस्वी अभिचन्द्रः चन्द्राभः मरुद्दवः। भवति प्रसेनजिताङ्कः नाभिस्तन्नन्दनो वृषभः ॥ १३ ॥ वरदानतो विदेहे बद्धनरायुषा क्षायिकसंदृष्टयः । इह क्षत्रियकुलजाताः केचिजातिस्मरा अवषयः ॥ ७६४ ।। परल । तृतीयकाले पल्याटम भागेऽवशिष्टे कुलकराः मरा: उत्पयन्ते। ते के। प्रतितिः सन्मतिः क्षेमकरः क्षेमधरःप्लोमर सीमन्बर। विमलवाहमः ॥७६२ ।। चा। चक्षुष्मान यशस्वी अभिचन्द्रश्चन्द्राभः मवद्दयः प्रसेनजिद नाभिः तन्नन्दनो वृषभो भवति ।। ७६३ ।। वर । सत्पात्रमानवशानिनेहे बहनरायुषः शापिकसम्यापः भाविनि भूतवपचार' इति ध्यायेनेह क्षत्रियकुले जाता: केधिग्जासिस्मराः केचितवषितानिनः ॥ ७६४ ॥ अब तीन गायामों द्वारा कर्मभूमि के प्रवेश का क्रम और वहाँ स्थित कुलकरों के स्वरूप का प्रतिपादन करते है-- गाथा:-तृतीयकाल में पल्य का आठवा भाग अवशिष्ट रहने पर प्रविश्रुति, सन्मति, क्षेमकर, क्षेमन्धर, सीमङ्कर, सीमन्धर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित्, नाभिराय और उनके पुत्र वृषभदेव ये कुलकर मनुष्य उत्पन्न हुए हैं। विदेह में मस्पात्रदान के फल से जिन्होंने मनुष्यायु का बंध करने के बाद क्षायिक सभ्यवस्व Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ विलोकमार पापा : ७६५-७११ प्राप्त किया है। अर्थात् सायिक सम्पष्टि हुए हैं, वे यहाँ क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होते हैं। उनमें से कोई तो जातिस्मरण से और कोई अवधिशान से संयुक्त होते हैं ॥ ॥२, ७९३, ७५४ ॥ विशेषार्थ :-इस अवसर्पिणो काल के तृतीयकाल ( सुषमादुःषमा ) में जब मात्र पल्य का आठवा भाग अवशेष रहा तब कुलकर उत्पन्न हुए। वे कौन हैं ? १ प्रतिश्रुति, २ सन्मति, क्षेमङ्कर, ४ क्षेमन्धर, ५ सीमकर, सीमन्धर, " विमलबाहन, ८ चक्षुष्मान, ! यशस्वी, १० प्रभिचन्द्र, ११ चन्द्राभ, १२ मरुदेव, १३ प्रसेनजितांक और १४ नाभिराय ये चौदह कुलकर मनुष्य उत्पन्न हुए हैं तथा नाभिराय कुलकर के पुत्र वृषभदेव प्रथम तीर्थकर हुए हैं। ये सभी कुलकर विदेह में सत्पात्र दान से मनुष्यायु बांध कर पीछे क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो यहा क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होते हैं। यद्यपि इनको उत्पत्ति के समय कुलादि की प्रवृत्ति प्रारम्भ नहीं हुई थी फिन्तु 'भाविनि भूतबदुपचारः' इस न्याय के अनुसार भविष्य में भूत सदृश उपचार कर क्षत्रिय कुल में उत्पत्ति कही गई है। इन कुलकरों में कोई तो जातिस्मरण और कोई अवधिज्ञान सहित थे। अय कुलकराणां शरीरोत्सेधमाह अट्ठारस वेरस अडसदाणि पशुवीसहीणयाणि तदो। चावाणि कुलयराणं सरीरतुंगनणे कमसी ।। ७९५ ।। अष्टादश त्रयोदश अष्टाशतानि पञ्चविंशतिहीनामि ततः। चापानि कुलकराणां शारीरतुणत्व क्रमश: || ७९५ ॥ अट्ठारस | महावशशतानि १८०० त्रयोदशशतानि १३०० प्रशतानि ८०० ततः परं मशा पञ्चविंशतिहीनानि ७७५ । ७५० । ७२५ । ७००। ६७५ । ६५० । ६२५। ६०० | ५७५५५०। ५२५ । ५०० एतानि सर्वाणि चापानि कुलकराणां शरीरतुङ्गवमिति मातव्यम् ।। ७६५ ॥ कुल करों के शरीर का उसेष कहते हैं गापा:-कुलकरों के शरीर की ऊंचाई क्रमपाः १८०० धनुष, १३०० धनुष, ८०० धनुष और इसके बाद पच्चीस पच्चीस धनुषहीन अर्थात् ७७५, ७५०, ७२५, ८००, ६४५, ६५, ६२५, ६००, ५४५१ ५४०, ५२५ और ५०० धनुष प्रमाण थी॥ ७६५ ।। तेषामायुष्यं कथयति-- माऊ पन्लदसंसो पढमे सेसेसु दसहि मजिदकमं । परिमे दु पुब्बकोडी जोगे किंचूण तण्णवमं ।। ७९६ ।। आयुः पल्यदाया: प्रथमे शेषेषु दशभिः भक्त कमः । भरमे तु पूर्वकोटिः योगे किचिदून तनवमं ॥ ७९६ ॥ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा ७६ नरतियरलोकाधिकार माऊ। प्रथमकुलकरे भायुः पम्पबशमांशः पर. शेषेषु वभिभक्तामः प, प, m. , ... म । एल की । इसको । यो । १.५१ को १४.। पाप चरमे तु पूर्वकोटिः। एतेषा पूर्वकोटिव्यतिरिक्तानां समानछेदेन मेलने ५ १११११११११११११ पुनरपवतमाधमत्रतावरणं पल्प ............समच्छेदेन - . EEEEEEEEEEEEE प्रक्षिप्य ५ १००००००००००००० अपवर्य प. प्राक् प्रक्षिप्तऋणे ५६.000000000000 ००००००००००००० अपवस्य प प्रा प्रक्षिप्तऋणे निष्कासिते प .............. तरिकञ्चिन्यूनपल्पनवमांशः स्याद । एतदेव करणपण सापयति प्रतिषणं प गुस १. गुरिणम प पाधि प .. समन्छेवेग 4 ८०.००.00.. १०००००००० .....०.००००० REEEEEEEERE रऊणतर भजियंEBERREERRREER २००००००००००० मतावहणं प.............. प्रक्षेप्य ५ 222880 अपवयं प . पत्र प्राक् प्रक्षिप्त करणं म्यूनं कसंयंपामस्य प्रकारमडूसही दर्शयति-पस्मिनाशा वेतावरण ३१ मपनीय भक्त मल्लन्यमुपलभ्यते १० तस्मिन्नेव राशौ । हार ४ मषिकं कृत्वा " भक्त ऽपि तावरेज सम्बं स्यात् १० । प्रषिकप्रमाणं भयं जायत इतिवेद, ऋणे २० लन्धेन १० भक्त सति २ हाराधिकप्रमाणामागच्छति; कि छ, ऋणे प्रज्ञाते प्रधिकोकेन २ लग्थे गुणिते ऋणप्रमाण २० मागच्छति ॥ ७९ ॥ अब उनको ( कुलकरों की ) आयु कहते हैं : गाथा:-प्रथम कुलकर की आयु पक्ष्म के दसवें भाग प्रमाण थी तथा शेष कुछकरों की दश से भाजित अर्थात् पूर्व पूर्व कुलकरों की आयु को दश से भाजित करने पर अपर अपर कुलकरों की आयु का प्रमाण प्राप्त होता है । अन्तिम कुलकर की आयु पूर्वकोटि प्रमाण थी। ( इसके बिना) सम्पूर्ण आयु का योग करने पर कुछ कम पल्प का नबर्मा भाग प्राप्त होता है । ७६६ || विशेषाः।-प्रथम कुलकर की आयु पल्य के दशवे भाग अर्थात् पल्प प्रमाण थी तथा शेष १२ कुलकरों की आयु कमा: उत्तरोत्तर दश से भाजित मर्यादा पल्प, प- पल्प, T... पल्य, पल्य, 23 प०, १००००००० ५०, १०००००००. प., १००००००००० प०, १००००००.०.. प०, १००००००००००० ५०, १०००००००००००० ५०, १००००००००००००० पल्य तथा अन्तिम चौदहवें कुलकर की बायु एक पूर्व कोटि वर्ष की थी । इस पूर्व कोटि के अतिरिक्त । Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ frothare पापा : ७६७ शेष १३ कुलकरों की आयु का जोड़ 80% पल्य होता है। यदि इसमें पल्य का इ००००००००००००० भाग मिला दिया जाय तो - (40010339392323 ९९९९९९९९ = 1 ) है 888999999999 पल्य- पत्य होता है; क्योंकि अंश और हर के TOOOOOOODDOGGO १३ शून्यों का अपवर्तन हो गया है। यदि इसमें से उपयुक्त ऋण ६० लाख करोड़ ) को कम कर दिया जाय तो कुछ कम २ पल्म होता है । १ ( ०००००० 1 concocoop= 1 - ९००००000030od से प्रारम्भ कर इसको करण सूत्र से इस प्रकार सिद्ध किया जा सकता है:--: १ १० लाख करोड़ उत्तरोत्तर १० गुणा किया जाय तो अन्तिम धन के पत्थ प्राप्त होता है इसको १० से गुणित करने पर अर्थात् १ पल्य होता है। इसमें से आदि घन १० ला०क० अर्थात् पल्य को घटा देने पर BEEEEEEETI १००००००००scond पत्य अवशेष रहते हैं। इसमें एक कम गुणकाय अर्थात् E2ELIFE↓↓↓ 10000000000000 १ 1000000OOODUGO 418LEEEEE १००००००००००००० x ६ } प्राप्त 0000000pconod ( १० १) = का भाग देने पर ( होता है। इसमें पूर्वोक्त ऋण १००० होता है। इस पल्प में से मिला देने पर 29988888888888 - है पल्य १० लाख करो० ऋण ( कम ) कर देने पर कुछ कम १ पल्य प्राप्त होता है। इसी करण सूत्र को दृष्टान्त (असंदृष्टि ) द्वारा दिखाते हूँ :- मानलो राशी है। इसमें से ऋण घटाने पर (६ - १० = ० अवशेष रहते है । ४० को ४ से भाग देने पर १० प्राप्त हुए राशि ओर के हर ४ में १ अधिक ( जोड़ने ) करने से ६ प्राप्त होते हैं। इस ६ से ६० को भाग देने पथ १० ष आता है। अधिक का प्रमारण कैसे जाना जाता है ? ॠण २० को लब्ध १० से भाग देने पर हर के अधिक का प्रमाण २ प्राप्त हो जाता है। विशेष यह है कि ऋण के अज्ञात होने पर अधिक के प्रमाण २ से लब्ध १० को गुणित करने पर ऋण का प्रमाण ( १०२ ) २० प्राप्त हो जाता है । पलासीदिममंतरमादिमभवसेसमेत्य दसमजिदा | जोगे बावचरिमं सयलजुदे अट्टमं दीणं ॥ ७९७ ॥ पल्याशीति ममन्तरमादिममवशेषमत्र दशभक्त । योगे द्वासपतिः सकलते अमो हीनः ॥ ७९७ ।। नोट :- इस टान्त का पूर्वोक्तकरण सूत्र से कोई सम्बम्ब दिखाई नहीं देता। विद्वज्जन इस पर विचार करें। अथ तेषां मनूनामन्तरकालमाह Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ७६७ नरतियंग्लोकाधिकार Eo८०. 05. पल्ला । पल्पस्याशीतितमभागे मादिममन्तर ५१ शेषान्तरं तु सदेव पशभक्त' भवतिEoI सकी .की.कालने पर एतेषां समकछेदेन मेलनं कृत्वा ५ १११११११११११११ मन लधकरणा ६.०००००००००००० ५. ममि: समग्छवं कृत्वा EEEEEEEEEEEEER.प.१०००००००............. ७२००००००००००...आप ७२००००००००००००० प. प्राक्त मऋणे अपनोते की पस्यस्य किञ्चिन्यूमवासप्तस्यंशः स्यात् ५। एतदेव करणसूत्रणानयति । अंतघणं पर गुण १० गुणिय प १० मावि प. समच्छेदेन अपवर ७२ल.को प... पERELEEEEEEEEऊणुत्तरभजिय प१००.००.००००० ܘ ܩܣܘܙܘܗܗܘܘܘܘܕܟ ल.को ८००००००००००००० - - - H INEEL a तावणं १६............ संयोज्य ७२००००००...... ७२००००००००००००० अपवर्य ५१ प्राक् प्रक्षिप्तपणे म्यूनं कृते किश्चिन्यूनपल्यासप्तत्यंशः स्यात् । सर्वेषामायुयाणा ५१ मन्तराणां च ११ पटभिः समच्छेनं कृत्वा पद संयोज्य प मभिरपवतित किञ्चिन्यूनपल्याहमांशः स्यात ११ ॥ १७ ॥ अब उन कुलकरों का अन्तर काल कहते हैं। गाथार्थ:-कुलकरों के अन्तरालों में से प्रथम अन्तर, पल्य का ८०वी भाग पा। शेष अन्तय उत्तरोत्तर दश दश भाग प्रमाण था। इन सम्पूर्ण अन्तरालों का जोड़ पल्प और सम्पूर्ण अन्तराल एवं आयु का जोड़ कुछ कम पत्य प्रमाण होता है ।। ७६७ ।। विशेषा-प्रथम अन्तर पल्प और शेष अन्तर दश दश का भाग देने पर प्राप्त होते है। जैसे :-०० पल्य, ८०... ५.०। ६०००००६००:01 ८०००००००, ५००००००००० ५००००००००। ८०००००००००० ८००००००००००००००....... और ............. पन्य है, इनका समच्छेद करके जोड़ने पर १११११११११११११ पल्य प्राप्त होते हैं । इसको संक्षिप्त ८००००००००००००० '- को मे मास्ट करने के लिए ..ऋणराशि मिलाना है, अत: ७२ लाक ८००००००००००००० .. AREERELIER करने पर ०००००००००० ..पल्य प्राप्त हुए। इनमें ऋणराशि २०........... मिलाने Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० पर १००००००००ooooo **200*#*#**#0 अपवर्तन करने पर रे पल्य प्राप्त हुए । इन पर पलय में से त्रिलोकसार १ooooooo०००००० 50000000000000 करने पर ९९९९९९९९९९९९९ [500000000000 पल्या होत हैं। इनमें शके १६ शून्यों का हर के ७२ लाख ६० : कम और पल्य अवशेष रहता है। इसे ही करण सूत्र द्वारा सिद्ध करते हैं कर प्रत्येक को दश दश करने पर x * - से गुणित करते हुए अन्तधन दे पल्य प्राप्त होता है। इसमें से आदि धन RAILERIEStEE GR00000000000 १०००novoooooo ७२०००००००००ongs ऋण घटा देने पर कुछ से प्रारम्भ ६ लॉ० क० " प्राप्त हो जाता है। गुणकार १० से गुणा घटाने के लिए समच्छेद प० १ ला० क० घटाने पर १० १ मला० क० परय प्राप्त होते हैं। इनमें से आदि धन पत्य अवशेष रहे। इसमें एक कम गुणकार (१० - १ प० १ ७१.००००००००००० ऋण को पल्य में से कम कर देने पर कु कमरे पल्य अवशेष रहते हैं । प्राप्त हुए। इसमें पूर्वोक्त ऋण पश्य होते हैं और इनका अपवर्तन करने पर उरे पल्य हुए तथा भाषा : ७१८ १३ शून्य से =१ का भाग देने पर ड) हुए। अर्थात् कुछ कम पल्य का आठवाँ ( कुछ कम है पल्य ) भाग प्राप्त होता है । अथ मनुभिः क्रियमाण शिक्षा तेषामङ्गवर्ण चाह मिलाने पर - हा हामा हामाधिक्कारा पणपंच पण सियामलया | चक्खुम्मदुग पसेणाचंदाहो भवलसेस कणपणिहा ।। ७९८ ।। हाहामा हामाधिक्काराः पच पच पच श्यामलों । चक्षुष्मद्विकं प्रसेनचन्द्रामी धवली शेषाः कनकनिभाः ॥ ७३८६८|| इन कपल्यों में सर्व फुलकरों की आयु का प्रमाण कुछ कम हे पल्य जोड़ देने से (उई+ पल्य से कुछ कम प्राप्त होते हैं। इन्हें से अपवर्तित करने पर कुछ कम ( ) है पल्य प० १ पर ला०क० हा हा । प्रथमपचमभवः अपराधिनो हाकारेण वच्चयन्ति ततः परं पञ्च मनवः हामाकारेण ण्डयन्ति लघुपरिमपञ्चमनवः हामाधिक्कारेण दण्डयन्ति । चक्षुष्मान् यशस्वीति द्वौ श्यामलौ प्रसेनचन्द्राभो घवली, शेषाः सर्वे कनकनिभाः ॥ ७३८ ॥ अगे कुलकरों के द्वारा किया हुआ दण्ड विधान ( शिक्षा ) एवं उनके शरीर का वर्ण कहते हैं : गावार्थ :- आदि के पांच कुलकर अपराधी पुरुषों को 'हा'; आगे के अन्य पाँच कुलकर 'हा- मा' तथा अवशेष अन्तिम पाँच कुलकर 'हा-पाधिक' इस प्रकार दण्ड देते थे। चक्षुष्मान् औष Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३१ पापा : ७६१-200-2०१ नतिर्यग्लोकाधिकार यशस्वी ये वो कुलकर श्यामवणं, प्रसेनजित् और चन्द्राभ ये दो धवल वणं तथा अवशेष सभी कुलकर स्वर्ण सदृश वर्ण के धारक थे ॥ ७ ॥ विशेषार्थी-बादि के पाँच कुलकर अपराधियों के लिए हा प्रयत् हाद यह पुरा किया मात्र इतमा ही दण्ड देते थे। आगे के अन्य पाँच कुलकर 'हा-मा' अर्थात् हाय बुरा क्रिया अब नहीं करना; इतना दण्ड देते थे तथा अवशेष अन्तिम पाँच कुलकर 'हा-मा-धिक' अर्थात् हाय ! मत करो तुम्हें धिक्कार है, इस प्रकार का दण्ड देते थे। नोट :-वृषभनाप सीकर को भी कुलकर माना गया है, इसीलिए उपयुक्त गाथा में १५ कुलकर कहे गये हैं। चक्षुष्मान् और यशस्वी ये दो कुलकर श्यामवणं, प्रसेनजित् और चन्द्राभ ये दो धवलवर्ण तथा शेष कुलकर स्वर्ण सदृश वर्ण के धारक थे। अथ तत्तत्काले तैः क्रियमाणकृत्यं गाथाचतुष्टयेनाह इणससितारासावद विभयं दंदादिसीमचिण्हकादि । तुरगादिवाहणं सिसुमुहदसणणिन्मयं यति ।। ७९९ ।। यासीवादादि ससिपहुदिहि केलिं च कदिचिदिणमोचि । पुचेहि चिरंजीवण सेदुवा हिचादि तरणविहिं ।। ८..॥ सिक्खंति जराउछिदि शामिविणासिंदचावतडिदादि । चरिमो फलमकदोसहिसुचिं कम्मावणी तपो ।। ८.१॥ इनशशिताराश्वापदविभय दण्डादिसीमचिह्नकृति । तुरगादिवाहनं शिशुमुखदर्शननिर्भयं अरन्ति ।। RA || आशीर्वादादि शशिप्रभूतिभिः केलि प कतिचिद्दिनातम् । पुत्रः चिरं जीवनं सेतुहित्रादिभिः तरणविधि ।। ८०० ॥ शिक्षयति जरायुछिदि नाभिविनाशं इन्चापतडिदादि। चरमः फलाकृतौषधिभुक्ति कर्मावनिस्ततः ॥ ८०१॥ इस । प्रथमो मनुः प्रजानामिनशशिर्वानाज्जातभयं निधारमति, हिलीयस्ताराशनमय, तृतीयः करमृगाभय तर्जनेन, बतुर्षस्तावद्भय पुनर्वण्याविना निवारयति, पञ्चमोल्पफलरायिनो कल्पने झकटं दृष्ट्वा सोमां करोति तपापि झकटे जाते षवः सीमाबित करोति, सप्तमो गमने तुरगादिवाहन करोति मामः शिशुमुखदर्शनानिभयं भवोति ॥ ७ ॥ मासी । नवमः शिशूनामाशीर्वादादिकं शियति, वशमा कतिचिदिनपर्यन शशिप्रभृतिभिः Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३३ शिलोकसाथ गया : ७९९ से ८०१ केलि च शिक्षयति, एकादशः पुत्रेदिवर जीवनभयं निवारयति द्वादशः सेतुमहित्राभिस्तररण विधि शिक्षयति ॥ ८०० ॥ सिक्तं । त्रयोदशो जरायुवि शिक्षयति, परमो नाभिखिवि शिक्षयति, इखावादर्शनभयं निवारयति फलाकृतीषषिभुक्ति च शिक्षयति ततः परं कर्मभूमिवर्तते ॥ ८०१ ॥ अब कुलकरों के काल में उनके द्वारा किए हुए कार्यों का वर्णन चार गाथाओं द्वारा करते नाथार्थ :- प्रथमादि चौदह कुलकरों ने क्रमशः सूर्य चन्द्र से, तारागणों से एवं श्वापद आदि से उत्पन्न भय का निवारण, उनका दण्डादि से तर्जन, कल्पवृक्षों की सीमा का निर्धारण, सीमा की चिह्नाकृति, घोड़े आदि को सवारी, सन्तान के मुख दर्शन से उत्पन्न भय का निवारण, आशीर्वादादि वचनों की प्रवृत्ति, सन्तान के समक्ष कुछ काल तक जीवित रहने वाले माता पिता को चन्द्रमा आदि दिखा कर बच्चों को क्रीड़ा आदि कराने की कला का शिक्षण, सन्तान के समक्ष बहुत काल तक जीवित रहने से उत्पन्न होने वाले भय का निवारण, पुल, नाव आदि द्वारा नदी आदि पार करने का विधान, जरायु छेदन, नाभिछेदन इन्द्रधनुष दिखने एवं बिजली आदि चमकने से उत्पन्न होने वाले भय का निवारण तथा फलो की आकृति में यह औषध है. यह भोजन योग्य है इत्यादि का निर्धारण किया था। यहीं से कर्मभूमि का प्रारम्भ हुआ था ॥ ७६६, ८००, ८०१ ॥ विशेषार्थ :- प्रथम प्रतिवति नामक कुलकर ने पूर्व में कभी नहीं देखे गए ऐसे सूर्य चन्द्र को देख कर भयभीत हुए प्रजाजन के भय का निवारण किया था। ( २ ) सम्मति कुलकर ने ताराम्र को देखने से उत्पन्न हुए भय का निवारण किया था । ( ३ ) क्षेमङ्कर कुलकर ने र पत्रपद आदि के शब्दों को सुनकर उत्पन्न हुए भय का निवारण किया था। ( ४ ) क्षेमम्बर कुलकर ने अत्यन्त करता को धारण करने वाले पशुओं को लाठी ( दण्ड ) आदि से तर्जन करना सिखाया था । (५) सीमङ्कर कुलकर के समय में कल्प वृक्ष विरल रह गए थे और फल भो अल्प देने लगे थे इसलिए लोगों को आपस में झगड़ते देख कर इन्होंने उन कल्पवृक्षों की सोमा ( मात्र वचन से ) का विधान बना दिया था । ( ६ ) सीमन्धर कुलकर ने कल्पवृक्षों की उपर्युक्त सीमा को झाड़ी आदि चिह्नों से चिह्नित किया था । ( ७ ) विमलवाहन कुलकर ने घोड़े आदि की सवारी का विधान बताया था। (८) चक्षुष्मान् कुलकर के समय में संतानोत्पत्ति के भर बाद माता-पिता का मरा होने लगा था अतः सन्तान का मुख देखने से जो भय उत्पन्न हुआ था, उसे चक्षुष्मान् ने दूर किया। ( ६ ) यशस्वी कुलकर के समय में माता पिता कुछ अधिक समय तक जीवित रहने लगे मतः इन्होंने सन्तान को आशीर्वाद आदि देने की शिक्षा दी थी। (१०) अभिचन्द्र कुलकर ने सन्तानोत्पति के बाद कुछ दिनों एक जीवित रहने वाले माता पिता को चन्द्रमा आदि दिखा कर बालकों को कीड़ा कराने की शिक्षा Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा : ३-८०३ निरलिमंग्लोकाधिकार दी थी। (११) चन्द्राम कुलकर ने सन्तानोत्पनि के बाद बहुत काल तक जीवित रहने से जो भय उत्पन्न हुआ था, उसका निवारण किया था। (१२ ) मरुदेव ने नदी आदि को पार करने के लिए नाव एवं पुल कादि बनाने की तथा पर्वतादि पर चढ़ने के लिए सीढ़ी आदि की शिक्षा दी थी। (१३) प्रसेनजित् ने जरायु पटल के छेदने का उपाय निर्दिष्ट किया था। (१४ ) अन्तिम कुलकर नाभिराय ने नाभिनाल छेदने का उपाय बताया था, तथा इंद्रधनुष के देखने और बिजली आदि चमकने से उत्पन्न हुए भय का निवारण किया था । फलाकृति में कोन फल औषधि रूप हैं और कौन भोजन योग्य हैं, यह भी सिक्षाया था। यहां से ही कर्मभूमि की रचना प्रारम्भ हुई थी। पुरगामवणादी लोहियसत्थं च लोयवहारो। धम्मा वि दयाभूलो विमिम्मियो मादिषम्हेण 11८.२|| पुरग्रामपट्टनादिः लौकिकशास्त्रं च लोकव्यवहारः। धर्मोऽपि दयामूलः विनिर्मित: आदिग्रह्मणा ।। ८०२॥ पुर। पुरप्रामपत्तनाविलौकिकशास्त्र व लोकव्यवहारो क्यामूलो षोऽपि माविब्रह्मणा विनिर्मितः ॥८०२॥ गापा:-नगर, ग्राम, पत्तन आदि की रचना; लौकिक शास्त्र, मसि मसि कृषि आदि लोकव्यवहार; बोर व्याप्रधान धर्म का स्थापन आदिब्रह्मा श्री ऋषभनाथ तीर्थंकर ने . किया। ८०२॥ अथ चतुर्थकालसमुत्पन्न शलाकापुरुषानिरूपयनि चवीसगारतिषणं तित्थयरा अधिखंड मरहबई। तुरिए काले होति हु तेवद्विसलामपुरिसा ते ॥ ८.३ ॥ चतुर्वितिः द्वादश त्रिधनः तीर्थकराः पत्रिखण्डभरतप्रतयः । तुर्ये काले भवन्ति हि त्रिषष्टिशलाकापुरुषास्ते ॥ ८०३ ॥ चवीस । शितितो करा: श षट्खण्डभरतपतयः सप्तविंशतिस्त्रिखण्डभरसपतयः इत्येते त्रिषष्टि ६३ शालाकापुरवाश्चतुकाले भवन्ति ॥ ३ ॥ चतुर्थ काल में उत्पन्न हुए शलाका पुरुषों का निरूपण करते हैं : गाथा:-चतुर्थ काल में चौबीस तीर्थङ्कर, बारह षट्खण्ड भरतक्षेत्र के अधिपति ( चक्रवर्ती ) और तीन का धन अर्थात् सत्ताईस विखण्ड भरत के अधिपति ये वेशठ शलाका पुरुष होते हैं ।। ८०३ ॥ विशेषा : -२४ तीर्थकर, १२ षट्खण्ड भरतपति अर्थात् चक्रवर्ती और (३४३ x ३ = Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाथा । २०४-०५-01 २७ त्रिखण्ड भरतपति अर्थात् ह नारायण प्रतिनारायण और बलभद्र ये ६३ शलाका पुरुष चतुर्थकाल में होते हैं। अथ तीर्थकरशरीरोत्सेधमाह धणु तणुतुंगो तित्थे पंचसयं पण्ण दसपणूणकर्म । बहसु पंचसु भट्ठसु पासदुगे णवयसचकरा ।। ८०४ ।। धनू षि तनुतुङ्गः तीर्थे पञ्चशतं पञ्चाशदशपश्चोनक्रमः । अष्टसु पञ्चसु अष्टसु पाश्वंद्वियोः नव सप्तकराः ॥ ०४॥ पशु । प्रथम तीर्थकरे तनुतुगः पशत ५.० घनषि, तत उपष्टिसु तीर्थकरेषु पञ्चाशत पश्चावादून ४५० । ४०० । ३५० । ३०. । २५ । २०० । १५० । १०० धषि । ततः पञ्चसु सीकरेषु यशवशोनयनषि 1०1०। ७०। ६० । ५० जतोष्टसु तौकरेषु पञ्चपनोनपनषि सनुतुङ्गः स्यार ४५ । ४० । ३५ । ३२ । २५ । २० । १५ । १. पाश्र्वजिनो वईमामजिन इति तयोः तनुस्सेषो नव र सप्त ७ हरसो भवतः ५८०४॥ तीर्थकरों के शरीर का उत्सेध :___गाया -प्रथम तीथंकुर के शरीर की ऊंचाई पांच सौ धनुष, इससे आगे आठ तीर्थंकरों में प्रत्येक की ५० धनुष कम, अन्य पाँच की १० धनुष कम और अन्य आठ को १, ५ धनुष कम तथा पाश्वंद्विक अर्थात् पाश्वनाथ और महावीर को नव हाथ एवं सात हाच प्रमाण थी॥८०४।। विशेषार्थ :-प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान के शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष, द्वितीयादि पाठ तीर्थकरों की ५०-५० धनुष कम अर्थात् ४५०, ४००, ३५०. ३००, २५०, २००, १५०, १०० धनुष थी। दशवें आदि पांच तीथंकरों की १०-१० धनुष कम अर्थात् ००, ७०, i• और ५० धनुष थी, तथा पन्द्रह आदि बाट तीर्थकरों की ५-५ अनुप कम अर्थात् ४५ । ४० । ३५ । ३. । १५ । २० । १५ और १० धनुष प्रमाण, पार्श्वनाथ भगवान को हाथ और महावीर भगवान के शरीर की ऊँचाई ७ हाथ प्रमाण थी। अथ तीर्थकरायुष्यं गाथाद्वयेनाह तित्थाऊ चुलसीदीबिहचरीसहि पणसु दसहीणं । विगि पुब्बलक्खमेतो चुलसीदि पिहलरी सट्ठी ।।८०५|| तीसदसएक्कलक्खा पणणवदीचदुरसीदिपणवणं । वीसं दसिगिसहस्सं सय पावत रिसमा कमसो ।।८.६।। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा:०७-405 नरतियंग्योहाधिकार ६३५ तीर्थायुः पतुरशीविद्वासप्ततिषष्टिः पञ्चसु दशहीन । द्वपके पूर्वलक्षमात्रं चतुरशीतिः द्वासप्ततिः षष्टिः ॥ ८०५ ।। विशद्दर्शकलक्षाणि पश्चनवतिचतुरशीतिपञ्चपञ्चाशत् । विशत् दर्शकसहन शतं द्वासमतिसमाः क्रमशः ।। ८०६ ।। तिस्था। तार्णकराए कमेगाथुः तुरशीतलक्षपूवाणि ५४ हासप्ततिलक्षपूर्वाणि ७२ बहिलसापूर्वाणि ६० । इत उपरि पञ्चसु तीर्थकरेषु पूर्वस्माका वश होनसक्षपूर्वाणि ५.ल.पू.1 ४० ल० पू०। ३० ल.पू०।२० म.पू० । १० स० पू० । ततो विलशपूर्वरमेकलक्षपूर्व व त्यात । इत उपरि पतरशोति लक्षाणि ५४ रसप्ततिलमाणि ७२ षष्टिसमारिण ६० ल प ८०५॥ तीस । त्रिपाल्सक्षारिण ३० वशलक्षाणि १० एकलक्षाणि । तत उपरि पञ्चनवतिसहस्राणि ६५००० चतुरशीतिसहस्राणि ८४००० पञ्चपञ्चाशत् सहस्राणि ५५००० त्रिशरसहस्राणि ३०००० वशसहस्राणि १०००० एकसहस्राणि १००० शतं १०० हासप्तति: ७२ एतानि कमशो वरिण प्युः ॥ ०६॥ भागे तीर्घकरों को आयु दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : पापाय :-तीर्थकरों की आयु कम से चौरासी लाख पूर्व, बहत्तर लाख पूर्व, साठ लाख पूर्व, इससे आगे पांच तीर्थकरों को १०-१० लाख पूर्व कम, इसके आगे दो लाख पूर्व और एक लाख पूर्व, इसके आगे चौरासी लाख वर्ष, बहत्तर लाख, साठ लाख, तीस लाख, दश लाख और एक लाख वर्ष थी। इसके आगे ५५ हजार वर्ष, ८४ हजार, ५५ हजार, ३० हजार, १० हजार, १ हजार वर्ष, १०० वर्ष और ७२ वर्ष प्रमाण थी ।। ८०५, ८७६ ॥ विशेषार्प:-तीर्थकरों की आयु क्रम से ८४ लाख पूर्व, ७२ लाख पूर्व, ६० लाख पूर्व, ५० लाख पूर्व, ४० लाख पूर्व, ३० लाख पूर्व, २० लाख पूर्व, १० लाख पूर्व, २ लाख पूर्व, १ लाख पूर्व, ८४ लाख वर्ष, ७२ लाख वर्ष, ६० लाख वर्ष, ३० लाख वर्ष, १० लाख वर्ष, १५००० वर्ष, ८४००० वर्ष, ५५००० वर्ष, ३०००० वर्ष, १०००० वर्ष. १००० वर्ष, १०० वर्ष और ७२ वर्ष प्रमाण थी। इदानीं तीर्थकराणामन्तराणि गाथासाकेनाह उबहीण पण्णकोडी सतिवासहमामपक्खया पढमं । अंतरमेचो तीसं दस पत्र कोडी य लक्खगुणा ।। ८०७ ।। दसदसभजिदा पंचसु तो कोडी सायराण सदहीणा। छब्बीससहस्ससमा छावडीलक्खरणावि ।।८.८ ।। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ त्रिलोकसाय पापा : ८०७ से ११ चउवण्णतीमालदिति एनिमिणगावणं । पल्लस्स दलं पादो सहस्सकोडीसमाहीणो ॥ ८०९ ।। पस्या कोडिसहस्सा चउवण्णवपंचलखवस्माणि । तेसीदिसहस्समदो सगसयपण्णाससंजुत्वं ॥ ८१० ॥ सदलबिसदं समातिय पक्खडमायूगमंतिम तनु । मोक्खंतरं सगाउगहीणं तमिणं जिणंतरयं ।। ८११ ।। उदधीनां पञ्चाशत्कोटिः सत्रिवष्टिमासपक्षकः प्रथम।। अन्तरमितः विशत् दश नव कोटिश्च लक्षगुणा ।। १०७॥ दश दश भक्तानि पञ्चसु ततः कोटिः सागराणां शतहीना । षविशसहस्रसमा पट पष्टिलक्षकेनापि ॥ ८०८ ॥ चतुः पश्चाशत् विशन्नवचतुर्जलषित्रयं पल्यत्रयादोनं । पल्यस्य दलं पादः सहनकोटिसमाहीनः ।। ८० | वरिण कोटिसहस्राणि चतुष्पश्चाशत् षट् पञ्चलक्षवर्षाणि । व्यशीतिसहस्रमतः सप्तशतपञ्चाशसंयुक्त' ।। ८१ ।। सदल द्विशतं समात्रयं पक्षाष्टमासोनमन्तिमं तत्तु । मोक्षान्सरं स्वकायुष्कहीनं तदिदं जिनान्तरं ।। १५ ।। व। प्रथममन्तरं पनाशरकोटिलभसागरोपमारिण ५० को० ल. सा. त्रिवर्षा ३ण्ट मास ८ एकपक्ष १५ सहितानि, इस उपरिकमेण शिरकोटिक्क्षसापरोपमारिण ३. दशकोटिलासापरोपमारिण १.नवकोटिलक्षसागरोपमारिण को० स० सा० ॥८०७ ।। दश । तत उपरि पञ्चस्वन्तरेषु प्रमाणानि प्राक्तननवकोटिलक्षसागरोपमास्येव यश दश महानि RO...को. सा.१०.०को सा०९.० को० सा०१० को. सा. ६ को मा तत उपरि शत... सागरोपमः षडविंशतिसहस्रोत्तर पदविंशतिसहस्रोत्तरषट्पष्टिलक्षवश्व होनान्येककोटिसागरोपमाणि अन्तरं सातव्यं ELEELo u पर। तस उपरि चतुः पञ्चाश ५४ रसागरोपमाणि त्रिशरसागरोपमाणि नव सागरोपमाणि भावारि ४ सागरोपमारिण पस्यत्रिपाबोनानि नोरिष सागरोपमाणि सा०३ ५१ पल्पस्या : सहस्रकोटीवर्षहोमः पल्यवतुषांशः पर-१००० को पतरं स्यात् ।। 50 ॥ वस्ता। सत उपरि सहस्त्रकोटिषर्षारिण १००० को० चतुः पञ्चाशनवर्षाणि ५४ ल षडलावर्वाणि ६ पश्चलमवर्षाणि ५ सप्तशतपन्धाशसहितानि ध्यशीतिसहनाण्यात उपरि अन्तरं शातव्य ५३७५० ॥८१.n Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा । ८०७ से ११ सतिग्लोकाधिकार -- सदख । मन्तिमान्तरं तु समा प्रयकपमाष्टमातोमं बलसहिततिशत २५० २०३५० मा.८ शेष २४६ मास ३५० १ पूर्वोक्तमन्तरं सर्व मोक्षमोक्षान्सरं ज्ञातव्यं । एतदेव स्वकीयस्वकीयायुहीन भेद जिनाव जिनान्तरं स्यात् ॥ ११ ॥ अब तोकिरों का अन्तरकाल मात गाथाओं द्वारा कहते हैं गाथा:--प्रथम अन्तर पचास करोड लाख सागर तीन वर्ष आठमाह और एक पक्ष प्रमाण था। अर्थात् ऋषभदेव भगवान के बाद ५० करोड लाख सागर ३ वर्ष ८६ माह व्यतीत हो जाने पर अजित नाथ भगवान् हुए । इसके बाद दूसरे आदि अन्तराल क्रम से तीस लाख करोड़ सायर, दश लाख करोड़ सागर, ९ लाख करोड़ सागर इसके बाद पांच अन्तराल पूर्वोक्त अन्तरालों में कम से १०-१० से भाजित हैं । अर्थात् ( ९ लाख करोड़ सागर) = ६०000 करोड़ सागर, { 90° )=800 करोड़ सागर, (१° )800 करोड़ सागर, (2)-10 करोड़ सागर और १५:)- करोड़ सागर था इसके बाद दशवा अन्तराल ६६ लाख ६ हजार 100 ) ह करोड़ सागर ( ३३७३१.. सागर ) था। इससे आगे चौवन सागर, तीस सागर, नो सागर, बार सागर, पौन पल्य कम तीन सागर, अर्ध पक्य, हजार करोड़ वर्ष कम चौथाई पत्य, हजार करोड़ वर्ष, चौवन लाख वर्ष, छह लाख वर्ष, पांच लाख वर्ष, तेरासी हजार सात सौ पचास वर्ष और अन्तिम तेईसवा अन्तर दो सौ पचास वर्ष में तीन वर्ष आठ मास, एक पक्ष होन अर्थात् दो सो छयालीस वर्ष तीन मास, एक पक्ष प्रमाण का था। यह मोक्ष से मोक्ष का अन्तर है। इस अन्तर में से अपनी अपनी आयु का प्रमाण कम कर देने पर एक जिनेन्द्र से दूसरे जिनेन्द्र भगवान का अन्तर प्राR हो जाता है || ८०७-११ ॥ विशेषापं:-पूर्व तीर्थीकर के जितने काल बाद दूसरे तीर्थकर होते हैं, उस बीच के काल को अन्तराल कहते हैं । वृषभनाथ भगवान के मोक्ष जाने के पचास करोड़ सागर, ३ वर्ष मास बाद अजितनाथ भगवान मोक्ष गए थे। अजितनाथ के बाद दूसरा अन्तराल ३० लाख करोड़ सागर, (३) दश काख करोड़ सागर, ( ४ ) ९ लाख करोड़ सागर, (५) ६ लाख करो० सागर = Ever करोड़ सागर, (६) 28°-६००० करोड़ सागर, (७) १ ९५० करोड़ सागर, (८) = ९० करोड़ सागर, (६): %९ करोड़ सागर, (१०) १ करोड सागर-६६ ला• २६ हजार १०० सागर { १००००००० --- ६६२६१००)३३०३९.० सागर, (११) ५४ सागर, (१२) ३० सागर, । १३ ) ९ सागर, (१४) चार सागर, (१५)३ सागर- पाय-२ सागर ERERLESE LELERY परय, ( १६) आषा पल्य, (१७)पल्य--१००० करोड़ वर्ष अर्थात् हजार करोड़ वर्ष कम पाव पाल्य, (१८) १००० करोड़ वर्ष, (११) ५४००००० वर्ष, (२०) ६००००० वर्ष, (२१) ५.०००० वर्ष, ( २२) ८२७५० वर्षे और अन्तिम ( २३ । अन्तराल २५० वर्ष-३ वर्ष मास = २४६ वर्ष, मास, १ प प्रमाण था। यह मोक्ष से मोक्ष फा अन्तराल है। अर्थात् एक तीर्थकर के मोक्ष जाने के 10 Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફર त्रिलोकसाब गाथा : ५१२-६१३ जितने काल बाद दूसरे तीर्थंकर मोक्ष गए वही उनका अन्तराल काल है। इसी अन्तराल काल में से अपनी अपनी आयु का प्रमाण होत कर देने से एक जिन से दूसरे जिन के अन्तराल के काल का प्रमारण प्राप्त हो जाता है । जैसे :- प्रथम अन्तराल के प्रमाण ५० करोड़ सागर, ३ वर्ष, १३ माह में से अजितनाथ भगवान् की आयु का प्रमाण ७२ लाख पूर्व घटा देने पर जो अवशेष बचे वह प्रथम तीर्थंकर को मुक्ति के समय से द्वितीय तीर्थंकर के जन्म काल के अन्तर का प्रमाण है। दूसरे अन्दराल के प्रमाण ३० लाख करोड़ सागर में से सम्भवनाथ भगवान् को आयु का प्रमाण ६० लाख पूर्व घटा देने पर जो अवशेष बचे वही अजितनाथ भगवान के मुक्तिकाल से सम्भवनाथ भगवान के जन्मकाल के अन्तर का प्रमाण है। इसी प्रकार सर्वत्र लगा लेना चाहिए। वीरजिण तित्थकालो इगिदी ससदस्सवास दुस्समगो । इह सो वेचियमेचो अदुस्समगोविं मिलिदच्व ।। ८१२ ।। तदिए तुरिए काले तिवासमासपखपरिसे से । वसो वीरो सिद्धो पुव्वे तित्थेय उस्सं || ८१३ ॥ बोर जिन तीर्थं कालः एकविंशतिसहस्रवर्षाणि दुःषमः । इह सः तावन्मात्रः अतिदुःषम कोऽपि मेलयितव्यः ॥। ८१२ ।। तृतीये तुर्ये काले त्रिवर्ष प्रष्टम सपक्षपरिशेषे । वृपभो वीरः सिद्धः पूर्वे तीर्थंकारायुष्यं ॥ ८१३ ॥ बोर । दुःषयाख्यः वीरजिनतीर्थकाल: एकविशतिसहस्रवर्षाणि २१००० इहातिदुःषपादपः । स प्रसिद्धोऽपि सावन्मात्र २१००० एष मेलयितव्यः ॥ १२ ॥ तदिए। सूखीये तु काले त्रिवर्षाष्टमाकपक्षावशेषे सति यथासंख्यं वृषभो वीरजिनश्य सिद्धिमगमत्। पूर्वपूर्वतीर्यान्तरे उत्तरती करायुष्यं विद्युतीति ज्ञातव्यं । वीरजिनमुक्तं स्वशेषकालं व० ३ मा० ८ ५० १ पार्श्वभट्टारकान्तरे २४६ मास ३प० १ मेलयित्वा २५० प्रस्माद्यथायोग्यं सर्वेष्वन्तरेषु मिलिष्ककोटोफोटिसागरोपमं भवति ॥ ८१३ ॥ गाथार्थ :- इक्कीस हजार वर्ष हे प्रमाण जिसका ऐसे दुःषम नाम पचमकाल में वीर जिनेन्द्र का सीर्घकाल है । अतिदुःषम नामक षष्ठ काल भी इक्कीस हजार वर्ष का है, उसे भी इसी में मिला देना चाहिए। तृतीय काल के तीन वर्ष साढ़े आठ मास अवशेष तव वृषभनाथ सिद्ध हुए धौर चतुर्थ काल का भी इतना ही समय अवशेष था तत्र वीर प्रभु मुक्त गए, पूर्व पूर्व वीकर के अन्तरकाल में उत्तर उत्तर तीर्थंकर की आयु का प्रमाण सम्मिलित है ।। ८१२-६१३ ।। विशेषार्थ : - दुःषम नामक पचम काल २१००० वर्ष का है, इसमें वीर नाथ भगवान् का तीर्थंकाल वतं रहा है। अतिदुःषम नामक छठव काल भी २१००० वर्ष का है उसे भी इसमें मिला देते Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया:१४ मरतियरलोकाधिकार ६३६ Re-1. हो जाते हैं। तृतीय काल का ३ वधं ८ मास १ पक्ष अवशेष था तब प्रथम लीधीकर वृषभदेव भगवान् मोक्ष गए और चतुर्थ काल का भी ३ वर्ष, ८ मास १ पक्ष अवशेष या तब वीर प्रभु मोक्ष गए । पूर्व पूर्व तीर्थङ्कर के अन्तर में उत्तर उसर तीर्थङ्कर की आयु संयुक्त ही जानना चाहिए। जैसे:-प्रथम अन्तराल काल वृषभदेव का तोयंकाल है, इसमें अजितनाथ भगवान् की आयु मिली हुई है । अर्थात् वृपभदेव के मुक्ति काल से अजित देव के मुक्ति काल पर्यन्त वृषभदेव का ही तीर्थकाल रहा है। अजित नाथ के मुक्तिकाल से सम्भवनाय के मुक्ति काल पर्यग्व अजितनाथ का तीर्थकाल रहा । ऐसा ही अन्यत्र लगा लेना चाहिए। वीरनाथ के मुक्तिकाल के बाद चतुर्थ काल के अवशेष रहे ३ वर्ष ८ मास १ पक्ष को पावं जिनेश के अन्तर काल २४६ वर्ष, ३ मास, १ पक्ष में मिला देने पर २५० वर्ष होते हैं और सम्पूर्ण अन्तर कालों को मिला लेने पर एक कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण होता है। इदानी जिनषोच्छित्तिकाले दर्शयति पल्लतुरियादि चय पयंतचउत्घृण पादपरफालं । न हि सद्धम्मो सुविधीदु संति अंने सगंतरए ।।८१४।। पल्लतुर्यादिः चया पत्यमन्तं चतुर्थोनं पादपरकाल। .. न हि सद्धर्मः सुविधितः शान्त्यन्ते सप्तान्तरे ।। ८१४ ।। पहा । पत्य चतुषांश मादिः परतावानेव चय। एकपल्यमन्तं ततः पर पल्पचतुर्थाशोन यावत्पस्यपाहावसानकालं प. ।।३।३।। एतेषु सुविधितः पुष्पवताबारम्प शान्तिमायावसानेषु सप्तध्वन्तरेषु वक्त बोतृवरिष्णूनामभावात' सबो नास्ति ॥ १४ ॥ अब जिनधर्म का उच्छेद काल दर्शाते हैं : गाथा:-सुविधिनाथ से शान्तिनाथ पर्यन्त के सास अन्तरालों में से प्रथम अन्तराल में पल्य के चौथाई भाग (पल्य ) प्रमाण, इसके आगे पल्य पर्यन्त इसी : पल्य को चय वृद्धि के क्रम से और वहाँ से ३ पल्य पर्यन्त इतने ही चय की हानि के कम से धर्म विच्छेद रहा है ॥ १४ ॥ विशेषा-प्रथम मन्तराल में पल्य के चतुर्थाश अर्थात पत्य भाग तक धर्म विच्छेद रहा। इसके आगे पल्य पर्यन्त इसी चय बुद्धि से बढ़ते हुए और पल्य को हानि क्रम से पल्प पर्यन्त काल तक अर्थात् है पत्य पर्यन्त काल तक सातों अन्तरालों में वक्ता, प्रोता और धर्माचरण करने वालों का अभाव होने से सद्धर्म अर्थात् जैनधर्म का विच्छेद रहा है। १ बक्त मोनृणामभावान (प.)। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाथ गाथा : ८१५६१६-८१७ पुष्पदन्त और शीतलनाथ के अन्तराल में पत्थ तक, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ के अन्तराल में ३ पल्यतक, यांस और वासुपूज्य के अन्तराल में पल्प तक, वासुपूज्य और विमलनाथ के अन्तराल में १ पल्प तक, विमलनाथ और अनन्तनाथ के अन्तराल में पल्य तक अनन्तनाथ और धर्मनाथ के अन्तराल में पलय तक धर्मनाथ और शान्तिनाथ के अन्तराल में पल्य तक जैनधर्म का अत्यन्त प्रभाव ( विच्छेद ) रहा है । अर्थात् चतुर्थ काल में ४ पल्य तक जैनधर्म के अनुयायियों का सर्वथा अभाव रहा है। अथ चत्रिणां नामान्याहू ६४० चक्की भरो समरो मघव सणकुमार संतिकुंथुजिणा | अरजिण सुभोममहपउमा हरिसेणजय ब्रह्मदचक्खा ।। ८१५ ।। चक्रिणः भरतः सगरः मघवा सनत्कुमारः शान्ति कुन्थुजिनौ । अरजिनः भौममहापद्मो हरिषेणजय ब्रह्मदत्ताख्याः ।। ८१५ ।। चक्को भरतः सगरो मघवान् सनत्कुमारः शान्तिजिनः कुन्थुजिनः परजिनः सुभीमो महाहरिषेणो जयो ब्रह्मदसाध्यः । एते द्वावश १२ चक्रिणः ॥ ८१५ ॥ चक्रियों के नाम :-- गाथार्थ :- भरत, सगर, मधवान, सनरकुमार, शान्तिजिन, कुन्थुजिन, अरजिन, सुभौम, महापद्म, हरिषेण जय और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती हुए है ।। ८१५ ।। एतेषां वर्तनाकालं गाथाद्वयेनाह महदु बकाले मघव धम्मदुगभंतरे जादा | तिजिणा सुभोमचक्की अरमल्लीणंतरे होदि ।। ८१६ ।। मलिज्मे वो मुणिसुत्रव्यणमिजिणंतरे दसम | मिदुविरे जयक्खो हो यमिदुग अंतरगो ।। ८१७ ।। भरतद्वयं वृषभयकाले मघवद्वौ धर्मद्वयान्तरे जाती । त्रिजिनाः सुभीमचको अरमल्ल्योरन्तरे भवति ॥ ८१६ ॥ मलिद्वयमध्ये नवमो मुनिसुव्रतनमिजिनान्तरे दशमः । नमिद्विविरहे जमाख्यो ब्रह्मो नेमियान्तरगः ।। ८१७ ।। भर रसवरी ही वृषभाजितयोः काले जातो मघवसनत्कुमारौ द्वौ घमंशा सि जिनयोरन्तरे जातो, ततः परं शान्तिकुन्दरायो बिना पत्र स्वयमेव मिलत्वाज्जिनान्तराभावः सुभमचक्री घरमणि जिनयोरन्तरे भवति ॥ १६ ॥ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया : ८१-८१९-८२० नरतियंग्लोकाधिकार मनि। मनिमुनिसुवायो मध्ये मनमो महापनो मात: मुनिसुव्रतनामिबिनयोरन्तरे दशमो हरिणो जातः, मिनेमिभिनयोरगारे अथाल्यो मातः' नेमिपा जिमयोरम्सरे ब्रह्मवत्तारूपो जासः ||८१७॥ दो गाथाओं द्वारा इन घातियों का वर्तना काल कहते हैं :-- गाथा:-भरत और सगर ये दो चक्रवर्ती क्रमशः वृषभ और अषित जिनेन्द्र के काल में, मघवान और सनत्कुमार पर्व और शान्तिनाथ के अन्तराल में, शान्ति, कुन्थु और अर ये तीन चक्रवर्ती स्वय जिन थे। सुभीम चक्रो अर और मलिनाथ के अन्तराल में, महापद्म चक्रवर्ती मल्लिनाथ बीर मुनिसुयत नाय के अन्तराल के मध्य में, हरिषेण, मुनिसुव्रत और नमि के अन्तराल में. जय चक्रवर्ती नमि और नेमिनाथ के अन्तगल में और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नेमिनाथ और पाश्र्धनाथ के अन्तराल में अथ चपराणां शारीरस्य वर्गमुत्सेधं तदायुष्यं च गाथात्रयेणाह - सब्वे सुअण्णवण्णा नद्देदो घणुण पंचसयं । पण्णामूर्ण सदलं दालिमिदालयं तालं ।। ८१८ ।। पणतीस तीस महदुखवीसं पण्णरसमाउ चुलसीदि । बावच रिपुल्याणं पणतिगिवासाणमिह लक्खा ॥ ८१९ ।। संबच्छरा सहस्सा पणणउदी चउरसी दि सट्ठी य । तीसं दसयं तिदयं सचसया बादस्म ।। ८२० ॥ सर्वे सुवर्णवर्णा तद्द होदयो धनुषां पश्वगतं । पश्चासानं सदल द्वाचत्वारिशदेकचत्वारिंशत् चत्वारिंशत् ॥१८॥ पत्रिशत् त्रिशदष्ट दिःविशतिः पञ्चदशकमायु: चतुरशीतिः । द्वासप्ततिपूर्वाणा पश्चत्रिकवर्षाणामिह लक्षाणि ॥८१६ ॥ सवत्सरा। सहस्राः पचनति: चतुरशीतिः षष्टिश्च । त्रिशस्त दवा त्रितयं सप्तशतानि ब्रह्मदत्तस्य ॥ ८२०॥ साये। सर्व वणिः सुवर्णवरणः तेषा व्होत्सेपः मेण धनुषा पब्बशतं ५०० पञ्चावून तदेव ४५० बल सहिता द्वावरवाशित १५ बलसहितंकवल्बारिश बारिश ॥ctun पाग । पञ्चत्रिशव ५ त्रिशव ३. महाविशतिः २८ साविति: २२ विशतिः २० पञ्चाश १५ . ममिनेम्पोमध्ये जयास एकादको बात (40, 4.)। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ त्रिलोकसार गाथा . २१ सप्त ७ घनूषि भवन्ति । इतः परं तेषामायुयंचासंख्यं चतुरशीतिपूर्वलक्षवर्षाणि ५४ पू.ल. द्वासप्तति पूर्वलक्षवणि ७२ पलक्षवर्षाणि ५ ल. विलक्षवर्षाणि ३ ल. एकलशवर्षाणि १ ल० ॥६॥ संध । पञ्चनजतिसहलवा ५५०.. चतुतिसहस्त्रवर्षाणि ८४.०० हिमहलबाणि ६०... शिरसहनवर्षाणि ३०... शसहस्रपरिण १०००० त्रिसहस्रवर्षाणि ३००० ब्रह्मवत्तस्य प्रपतवर्षाणि ७०० ॥ २०॥ अब चक्रवतियों के शरीर का वर्ण, उस्मेष और उनकी आयु तीन हाथाओं द्वारा कहते हैं : गामा:-सर्व चक्रवर्ती स्वर्ण सदृश वर्ण वाले थे। धनके शरीर की ऊंचाई क्रम में पांच सौ. पवास कम ( ४५०), अर्घ सहित ४२ ( ४२३ ), अर्ध सहित इकतालीम ( ४१३), चालीम, पतीस, तीस, अट्ठाईस, बावीस, बोस, पन्द्रह और सात घनुष प्रमाण है तथा उनकी आयु क्रम से चौरासी लास पूर्व, बहत्तर साख पूर्व, पांच लाख वर्ष, तीन लाख वर्ष, एक लाख वर्ष, पञ्चानवे हजार वर्ष, चौरासी हजार वर्ष, साठ हजार वर्ष, तीस हजार वर्ष, दश हजार वर्ष, तीन हजार वर्ष और सात सौ वर्ष प्रमाण है 11 ८1८-८२०॥ विशेषार्थ :- मरतादि सभी चक्रवर्ती ग सदृश वर्ण वाले थे। भरल चक्रवर्ती के शरीर का उत्सेध १०० धनुष और प्रायु ८४..... पूर्व की थी। मगर चक्रवर्ती का उन्मेध ४५० धनुष और आयु ७२००.०० पूर्व, मघवान् का उन्मेध ४२३ धनुष और आयु १००.०० वर्ष, सनत्कुमार का उत्सेध ४१३ घनुष और आयु ३००००० वर्ष, शान्तिनाथ का उसेघ ४. धनुष और आयु १०००.. वर्ष, कुन्थुनाथ चकवर्ती का उत्सेध ३५ धनुष और आयु : ५.०० वर्ष, मरनाथ चक्रवर्ती का उरसेघ ३. धनुष और आयु ४००० वर्ष, सुभीम का उत्से घ २८ धनुष और आयु ६००० वर्ष, महापद्म का उत्सेध २२ धनुष और आय ३०००० वर्ष, हरिषेण का उत्सेध २० धनुष और आयु १०००० वर्ष, जय चक्रवर्ती का उत्सैघ १५ धनुष और वायु ३००० वर्ष तथा अन्तिम ब्रह्मदत्त चक्रवती का उसेघ ७ घनुष और आयु ७०. वर्ष प्रमाण ची। अथ तेषा नवनिधिसंज्ञामाह कालमहकालमाणवपिंगलणेमप्पपउमपाइ तदो। संखो णाणारयणं गणिरियो दति फलमेदं ।। ८२१ ।। ' काममहाकालमाणवक पिङ्गल सर्पपद्मपापस्ततः। शङ्खः नानारत्न नवनिधयः ददति फल मेतत् ॥ २१ ॥ काल । सालमहाकालो मारपवक पिङ्गलो नैसर्पः पनः पाण्स्ततः शङ्खो मानारानालय इति नवनिषयः एसब वक्ष्यमारणं फलं वदति ॥ २१ ॥ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६२२-८२३ नरतियरलोकाधिक ६४३ नवनिधियों के नाम गाणा : - काल, महाकाल, माणवक, पिङ्गल, नैसर्प, पद्म. पाण्डु, शङ्ख और अनेक रल ये मानपिपा आगे बह जाने जा करती हैं . अथ नवनिधिभिदीयमानफलमाह उडुजोगकुसुमदामप्पहुदिं भाजणयमाउहाभरणं । गेहं पत्थं धष्णं तूरं बहरयणमणुकमसो ।। ८२२ ।। ऋतुयोग्यकुसुमदामप्रभूति भाजनायुधाभरणं ।। गेह वस्त्र धान्यं सूर्य बहुरस्नमनुक्रमशः ।। ८२२ ।। उखु । ते निषयोऽनुक्रमेण ऋोग्यकुसुमबामप्रतिभाजनमायुषमाभरणं गेहूं वस्त्र धान्य तूर्य बहराने व बयते ॥ २२ ॥ नवनिधियों द्वारा दिए जाने वाले फल को कहते हैं : गामार्ण :-वे निधियां क्रमशः ऋतु योग्य पुष्प, भाला आदि, वर्तन, आयुध, अलकार, गृह, वस्त्र, धान्य, तूयं ( बाजे ) और नाना प्रकार के रत्न देती हैं ।। ८२२ ।। विशेषा :-काल नाम की प्रथम निधि ऋतुयोग्य पुष्प, माला आदि देती है। महाकाल, वर्तन देती है। माणवक निषि आयुध, पिङ्गल निषि अलङ्कार नैसर्प निधि गृह-मकान, पद्म निधि वस्त्र. पाण्डुनिधि पाम्म, शङ्खनिधि दावित्र और नानारत्न नामक निधि नाना प्रकार के रत्न देती है। इन निधियों का आकार आठ चक्के की गाड़ी के सदृश होता है, उनमें से ये वस्तुएं निकालती रहती हैं। अथ चतुर्दशरलानां संजापूर्वक मुत्पत्तिस्थानमाह सेणिगिहथवादि पुरहो गयहयजुबई हवंति वेयड्ने । मिरिंगेहे कागिणिमणिचम्माउहगेसिदंरचमरी ।। ८२३ ॥ मेनागृहस्थपति: पुरोधा गजो यो युवतिः भवन्ति विजयाचें । श्रीगेहे काकिणीमणिच युधके असिण्डछत्रमरी' ॥ ८२३ ।। लेरिण । सेमापतिः गृहपतिः स्यतिः पुरोधा: पो हपो पुतिरित्येते विजया भवति भौगेहे काकिणो मामणिधर्मरत्नमित्येतानि भवन्ति । पापुषोहे पसिनाकारत्नमित्येतानि भवन्ति ॥ २३ ॥ १ अरा विद्यन्त यस्य सोहरी, चकरलमित्यर्थः । Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिलोकसाय चौदह रातों के नाम व उत्पत्तिस्थान कहते हैं गावार्थ:-सेनापति, गृहपति, स्थपति ( कारीगर ), पुरोधा ( पुरोहित ), गज, घोड़ा मोर युबती ये सात रत्न विजयाघं पर्यंत पर, काकणी रत्न, चूड़ामणि रन और चर्मरत्न ये तीन रत्न श्रीगृह में तथा असि, दण्ड, छत्र और चकरन चार रत्न आयुधशाला में उत्पन्न होते हैं ।। ८२३ ॥ ६४४ विशेषार्थ:-सेनापति-सेनानायक, गृहपति भण्डारी, स्थपति-कारीगर, पुरोधाः पुरोहित, गज, घोड़ा ओर युवति ये सात रश्न विजयार्ध पर्वत पर उत्पन्न होते हैं। वृषभाचल पर नाम लिखने का कारणभूत काकणी रत्न, विजयावं की गुफा में प्रकाश का कारणभूत चूड़ामणि रत्न और जल बाधा निवारण का कारण भूत चर्मरत्न श्री गृह में उत्पन्न होते हैं तथा असि. दण्ड, छत्र मोर चक्ररल आयुधशाला मे उत्पन्न होते हैं । य श्रथ तेषां गतिविशेषमाह - aaj meकुमारी सणक्कुमारं सुमोम बम्हा म । सक्षम पुढ पत्ता मोक्खं सट्टचक्कद्वरा ।। ८२४ ॥ पचचात् सनत्कुशः स्व सुनो बहाव समपृथिवीं प्राप्ती मोक्षं शेषाष्टचक्रधरा ॥ ८२४ ।। १] सनत्कुमारा ( २० ) । गाया : ६२४ मघवं । मघवान् सनत्कुमारतच सनत्कुमारं ' स्वर्गमापत, सुभौमो ब्रह्मदत्तश्च सप्तमी पृथ्वी प्रापत शेषा प्रवृचक्रधरा मोक्षमापुः ॥ ८२४ ॥ उन चक्रवर्तियों की गतिविशेष कहते हैं गावार्थ :- मघवान् और सनत्कुमार, सरनरकुमार स्वर्ग गए हैं। सुभम और ब्रह्मदत्त सप्तम पृथ्वी (सातवें नरक) गए हैं तथा शेष आठ चक्रवर्ती मोक्षपद को प्राप्त हुए हैं । ८२४ ॥ [ कृपया चार्ट अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 पाया : ८२४ क्रमाक फुलकरों के नाम २ सन्मति ३. क्षेमङ्कर ४ क्षेमन्धर १ प्रतिश्रुति १५०० पल्य प धनुष ᄃ नरतियं ग्लोकाधिकार कुलकरों, तीर्थङ्करों ओर चक्रवर्तियों के नाम - उत्सेध एवं प्रयु आदि - तीर्थंकरों के चक्रवर्तियों के चक्षुष्मान उस्सेध आयु 2. यशस्त्री ५ सीमङ्कर ७५० ६ सोमन्धर ७२५ ७ विमलवाहन ७०० १३०० ८०० १२ मरुद्द व | ६७५ ७७५००ः ६५० १० अभिचन्द्र ६२५ ११ चन्द्राभ ६०० T ५७५ | १३] प्रसेनजित् ५५० नाभि पल्य 100 पश्य 아이 पल्य पल्प १ लाख पल्य १० ला० क्रमाक नाम १ २ अजित वृषभ १ ला. क. सुपाश्वं ८ चन्द्र ९ पुष्प १० शीतल | ११ श्रेयांस ३ सम्भव ४ अभिनंदन ३५० ५० ७. मुमत २०० ४० ६ पद्म पल्य ११ करोड १२ वासपूज्य पल्य १३ विमल १०करोड़ १४ अनन्त १५ धर्म पल्य | १०० क० ११६ शान्ति पल्य १००० क १७, कुन्थ | पल्य १८ मरह १०. क. १६ मि पल्य उसे ध धनु आयु मं | ५०० ८४ला. पू. भरत ५२४ पूर्व कोटि २३ पाश्र्वप्रभु धनुष वर्ष २४ वर्धमान I ४५०७२ १५. ॐ 800 to 1 २५० ३०० " २०० २० ૪. | ३५ 4 १५० | १०४ END २. " Eo ?" " ८० ८४ वर्ष ४ १. ७० ७२.७ ६० ६०० ५० २० 77 ४५ १०, ३०८ २५५५ २० मुनिसुव्रत । १० ३० १० " २१ नमि पश्य | १०ला. २२ नेमि १" " ९५ हजार वर्ष " 1 SP १५ १०० " | १० { " " ६ हाथ १०० वर्ष u g་༥། ७२ " नाम उत्सेध आयु २ सगर ४५०७२ 8 ३ मघवान् ४२ ३५ वर्ष ४ सनत्कु० ४१३ ३ ५ शान्ति ४० घ कुन्धु | ५०० ८४ लाख मोक्ष धनुष पूर्वं । ११ ७ अरह ३० ४ १" " ३५. ९४ हजार वर्ष ८ सुभीम २८ ६०" १५ " | १२ ब्रह्मदत्तं ७ धनुष जय प्राम गति 庐 24 ” स्व‍ ६४५ महापद्म, २२ ३ " " मोक्ष: हरिषेण २०० १० ०" नरक ९निधियों नानारत्न ३ माणवक, ४ पिङ्गल, ५ नैसर्प, ६ पद्म, ७ पाण्डु = शख और नापति, गृहपति, स्थपति, पुरोहित, गज, अश्व, युवति, का करणी रत्न, चूड़ामणिरत्न, चर्मरन, अखि, दण्ड, छत्र, चक्र १४ रन १ काल. २ महाकाल, " """ ७०० वर्ष ७ नरक Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ त्रिलोकसार गाथा।१५-१६ साम्प्रतमपंचक्रिरणा नामान्याह तिविद्वविठ्ठसयंभू पुरिसुचमपुरिससिंहपुरिसादी। पुंडरियदर पारायण किण्हो अद्धचक्कारा ।। ८२५ ॥ त्रिपृष्ठविपृष्ठस्वयम्भूः पुरुषोत्तमः पुरुषसिंहः पुरुषादिः । पुण्यारोकदत्त: नारायणः कृष्णः अधचक्रधराः।। ८२५ ।। तिबिटु । त्रिपृष्ठो निपृष्ठः स्यम्भूः पुरुषोत्तमः पुरुषसिंहः पुरवपुण्डरीका पुरुष नारायणा हमणश्यति नवायचपराः स्युः । प्रसङ्गन बलवासुरेनमोर्यपासंख्य मायुपरलमाह मिलो धनरुप मणिः शक्तिका हरेः । रत्नमाला हलं भावनामस्य मुशल गया ॥ ८२५ ॥" अब मधं चकी ( नारायण ) के नाम कहते हैं : पावार्य :-त्रिपृष्ट, दिपष्ट, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुष पुण्डरीक पुरुषदत्त, नारायण मोर कुष्ण ये नव अर्ध चक्रवर्ती ( नारायण ) हए हैं ॥ ८२५।। विशेषार्थ:-1 त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, ३ स्वयम्भू, ४ पुरुषोत्तम, ५ पुरुषसिंह, ६ पुरुष पुरीक, . पुरुषरत, ८ नारायण ( लक्ष्मण ) और ९ कृष्ण ये ६ अर्धचको हुए हैं। प्रसङ्ग पाकर यहाँ कमशः बमभद्र धौर नारायण के छायुधरत्न कहते हैं :-१ असि, २ शङ्ख, ३ धनुष, ४ चक, ५ मणि, ६ शक्ति और गदा ये सात नारायण के आयुध रत्न हैं, तथा १ रत्नों को माला, २ हल, ३ भूसल और४ गदा ये पार बलभद्र के आयुध रस्न हैं। अथ तेषां चल देववासुदेवप्रतिवासुदेवानां वर्तनाकालमाह सेयादिपणसु हरिपण छट्ठरदुगविरह मन्लिदुगमज्मे । दो अहम सुब्बयाविरहे गोमिकालजी किण्डो ।। ८२६ ।। श्रेयोबादिपश्चसु हरिपञ्च षष्ठः अरद्विकविर हे मल्लिद्विकमध्ये । दत्तः अष्टमः सुव्रतद्वयविरहे नेमिकालजः कृष्णः ।। ८२६ ।। सेया। श्रेयोखिमारिपचतोयंकरकालेषु त्रिपृष्ठावयः पञ्च भान्ति। पठः पुरुषपुण्डरीकोऽरमम्मितीयंकरयोरन्तरे भवति, पुषवत्तो मल्लिमुनिसुव्रतयोर्मध्ये भवति, ग्रहमो नारायणो मुनिसुव्रत. ममिनितयोविरहकाले म्यात, कृष्णस्तु नेमीश्वरकाले उत्पन्नः ॥ २६ ॥ अब उन बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेवों का वर्तना काल कहते हैं :पापा:-श्रेयांसनाथ आदि पांच तीर्थंकरों के काल में कम से त्रिपृष्ट भावि पांच नारायण Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा: ८२७-८२८ नरलियंग्लोकाधिकार हुए हैं। अरनाथ और मल्लिनाय के अन्तराल में छठवी नारायण, मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ के अन्तराल में सातवा पुरुषदत्त नारायण, मुनिसुत्रत ओर नमिनाथ के अन्तराल में आठवां और नेमिनाथ के काल में नवमा कृष्णा नामक नारायण की उत्पत्ति हुई थी। ८२६॥ विशेषापं :-बेयांसनाथ भगवान के समय में विपृष्ठ नारायण जत्पन्न हुआ था, वासुपूज्य के ममय में द्विपृष्ठ, विमलनाथ के समय में स्वयम्भू, अनन्तनाथ के समय में पुरुषोत्तम, पमनाथ के समय में पुरुषसिंहअर और मल्लिनाथ के अन्तराल में पुरुष पुण्डरीक, मल्लि और मुनिसुव्रतनाथ के अन्तराल में पुरुषदत्त, मुनिसुव्रत और नैमिनाथ के अन्तराल में लक्ष्मण और नेमिनाथ के काल में कृष्णनारायण को उत्पत्ति हुई थी। नारायणी का जो वतना काल है वही वतना काल बलदेव और प्रतिनारायणों अथ बलदेवप्रतिवासुदेवानो नामानि गाथाद्वयेनाह वलपेपा विजयारला मुबंगणा दी। ' तो शंदिमित्त रामा पउमा उपरि तु पढिसच ।। ८२७ ।। अस्सग्मीयो तारय मेरयय णिसुंम कइडईत मह ।। बलि पहरण रावणया खचरा भूचर जरासंधो ।। ८२८ ।। बलदेवा विजयाचलसुधर्मसुप्रभसुदर्शना नन्दी। ततो गदिमित्रः रामः पद्मः उपरि तु प्रतिशत्रवः ।। ८२७ ।। अश्वग्रीवः तारक: मेरकश्च निशुम्भः केटभान्तो मधुः।। अलि: प्रहरणः रावणः खचराः भूवरो जरासन्धः ॥ ८२८ ।। बल । विजयोल: सुधर्मः सुप्रभः सुशंभो नयी ततो नन्दिमित्रो रामः पन येते न बलदेवाः स्युः । इत उपरि तेषां प्रतिशत्रवः कस्यन्ते ॥२७॥ पस । अश्वनीवरतारको मेरकच निशुम्भो मधुकैटभो बलिः प्रहरणो रावरणश्चेति सचराः भूचरोवरासन्धः । इत्येते नव प्रतिवासुदेवाः ।। २८ ॥ बलदेव और प्रतिवासुदेव के नाम दो गाथाओं द्वारा कहते हैं :- . गाया:--विजय, अचल, सुषम, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दी, नन्दिमित्र, राम और पाये नव बलदेव हैं। इनके प्रतिशत्र अश्वग्रीव, तारक, मेरक, निशुम्भ, मधुकैटभ, बलि, पहरण और रावण ये आठ विद्याधर और भूमिगोचरो जरासिन्धु ये नौ प्रतिवासुदेव है ।। २२७-१२८॥ अथवलदेवादित्रयाणामुत्सेधमाह Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ त्रिलोकसार गापा: ८२९-41. वेदमो चापाणं सीदी तिसु दसयहीण पणदालं । नवदुगनीसं सोलं दस बलकेसव समत्तर्ण ।। ८२९ ।। देहोदयः चापानां अशीतिः त्रिषु दशहीन पश्चचत्वारिंशत् । नवतिकविंशतिः षोडश दशवलकेशवाना सशत्रूणां ।। ८२९ ॥ । माग पलकेशधामारीरोत्सेधो यथासंख्यं पशोति ६० चापानि, ततरित्रषु पशवशहोनानि ७० । ६० । ५० ततः पञ्चमवारियात ४५ नविशति:२६ वाविशतिः २२ षोडश १ ब १० बनू वि भवन्ति ।। ८२६॥ अब बलदेवादि तीनों का उत्सेष कहते हैं:__ गाथार्ग :-बलदेव, नारायण और प्रतिनारायणों के शरीर का उत्पेय प्रयमादिक के क्रम से ८० धनुष, तीन में दस इस धनुष हीन अर्थात ... ६० और १० अनुष, ४५ धनुष, २९, २२, १६ और १. धनुष प्रमाण था ॥ १२६ ।। विशेषाय :-बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव इन तीनों के शरीर की ऊंचाई समान ही होती है। प्रथम बलदेव, नारायण और प्रतिनारायण के शरीर की ऊंचाई ८० धनुष प्रमाण थी। इसके बाद द्वितीयादिक की पथाकम ७०, ६०, ५०, ५५, २६, २२. १६ और अन्तिम की १० धनुष प्रमाणु थी। अब वासुदेवप्रतिवासुदेवानामायुष्यमाह मम चुललीदि वहरि पट्टी तीस दम लक्ख पणसट्ठी । रचीसं बारेकं सहम्ममाउम्समद्धचकीणं ॥ ८३० ॥ ममा चतुरशीतिः वाममति: पष्टिः त्रिंशत् दश लक्षाणि पञ्चषष्टिः । द्वात्रिंशत् द्वादशाक सहर' आयुष्यमचक्रिणाम् ॥ ३० ॥ सम। पर्षण वासुदेवाना प्रतिवासुदेवानामापुष्यं चतुरशीतिसक्षपर्वाणि ४ ल. nanलक्षवर्वाणि ७२ पहिलावर्षाणि ६० त्रिशल्लमवर्षागि ३० शसक्षवर्धारित १० पाहिलाहन ६१००० वर्षाणि दानिशसहस्रवर्षाणि ३२००० वाहनवर्षाणि १२०० एकसहस्रवर्षाणि १०.० मन्ति ॥५३ ॥ अ वासुदेव और प्रतिवासुदेवों की आयु का प्रमाण कहते हैं :-- पायार्थ :-दोनों की आयु सदृश ही होती है। प्रपमादिक के कम से इनकी आयु यषाकम २४ लाश , २ लाख वर्ण, ६. लाख वर्ण, ३० लास वर्षा, १० लाख वर्ष, ६५ हजार वर्ण, ३२ हजार वर्ण, १२ हजार वर्षे और एक हजार वर्ष प्रमाण थी॥1॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४९ नपतिर्यग्लोकाधिकार पापा : ८३१-६३२-८३३ विशेषार्थ ::- नारायण और प्रतिनारायण इन दोनों की आयु सदृश हो होती है। प्रथम नारायण और प्रतिनारायण की आयु ८४००००० वर्ष की थी। इसके बाद द्वितीयादिक की यथासंख्य ७२००००० वर्ष ६०००००० वर्ष, ३०००००० वर्ष, १०००००० वर्ष, ६५००० वर्ष, ३२००० वर्ष, १२००० वर्ण और अन्तिम की १००० वर्ष प्रमाण थी । इतो 'बलानामायुष्यमाहु सगसीदि दुसुदन सगतीसं सचरससमा लक्खा । समसतीस सचर सहस्स चारसय माउ बले || ८३१ ।। सप्ताशीतिः द्वयोः दशोनं सप्तत्रिंशत् सप्तदशसमा लक्षाणि । सप्तषष्टिः त्रिशत् सप्तदश सहस्रं द्वादशमायुः बले ।। ८३१ ।। सग । बलदेवानामायुः प्रमाणं सप्ताशीतिलक्षवर्षारण ८७ ततो द्वयोवंशवशोमं ७७ल० । ६७ ल० । ततः सप्तत्रिशल्लक्षवर्षाणि ३७ ल. सप्तवशलक्षवर्षाणि १७ ल० सप्तर्षसहस्रवर्षाणि ६०००० सप्तत्रिंशत्सहस्रवर्षाणि ३७००० सप्तवशसहस्रवर्षाणि १७००० द्वादशशतवर्षाणि १२०० wafie #GA?!! बलदेवों को आयु का प्रमाण कहते हैं गाथार्थ :- बलदेवों की आयु क्रमशः ८७ लाख वर्ण, दो की दस दस कम अर्थात् ७७ लाख वर्ण, ६७ लाख वर्ष, इसके बाद ३७ लाख वर्ण, १७ लाख वर्ष, ६७ हजार वर्ष, ३७ हजार वर्ण, १७ हजार वर्ष और १२०० वर्ष प्रमाण थी । अथ वासुदेवादित्रयाणां प्राप्तगति गाथाद्वयेनाह पदम सचमिमण्णे पण बडी पंचमि गदो दसो | नारायणो चउत्थी कसिणो तदियं गुरुयपावा ।। ८३२ ।। रियं गया परिवो बलदेवा मोक्खमट्ठ चरिमो दु । ग्रहं कप्पं कि वित्थयरे सोबि सिज्देहि || ८३३ || प्रथमः सप्तमीमन्ये पश्च षष्ठीं पञ्चमीं गतो दत्तः । नारायणः चतुर्थी कृष्णः तृतीया गुरूपापात् ॥ ८३२ ॥ निरयं गताः प्रतिरिपवो बलदेवा मोक्षं अष्ट चरमस्तु । ब्रह्म कल्पं कृष्णे तीर्थंकरे सोऽपि सेत्स्यति ॥ ८३३ || पढमो । प्रथम स्त्रिस्तप्तम पृथिवीं प्राप । प्रग्ये पञ्च ष पुमापुः पुरुषवतः बलदेवाना - ( ब०, प० ) । ८२ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. त्रिलोकसार पाथा: E१४-८३५ पखमो यो गतः नारायणः चतुर्थी' मिपाप, कृष्णस्मृतीयो भुवं मापत् । एते गुरुपापाः ॥ ३२॥ गिरय। एतेषां प्रतिस्पिषश्च तत्तन्नरक गता | पष्टौ बलदेवाः मोक्षं पता:, घरमस्तु 'पद्यो ब्रह्मकल्पं गतः सोऽपि कृष्णे तीर्थकरे सति तस्मिन् काले स्यति सिदि प्राप्स्पति ।। ३३ ।। अव वासुदेवादि तीनों जिस गति को प्राप्त हुए हैं, उसे दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : पाथा:- महद पाप के भार से प्रथम नारायण सप्तम नरक, अन्य पांच नारायण छठवें नरक, पुरुदत्त पाच नरक, नारायण ( लक्ष्मण ) चौथे नरक और कृष्ण तीसरे नरक गए हैं। इनके प्रतिशत्रु प्रतिनारायण भी उसी उसी नरक में गए हैं जिनमें नारायण गए हैं। आदि के पाठ बलदेव मोक्ष गए हैं और अन्तिम बलदेव ब्रह्म स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं वो भी कृष्ण नारायण का जीव जब तीर्थकर होगा तब वे मोक्ष प्राप्त करेंगे॥८३२, ८३३ ।। विशेषार्थ:--पहिला नारायण त्रिपृष्ट और पहिला प्रतिनारामण अश्वग्रीव ये दोनों सप्तम नरक गए हैं। अन्य द्विपृष्ट, स्वपम्भू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिह और पुरुष पुण्डरीक ये पांच नारायण तथा तारक, मेरक, निशुम्भ, मधुकैटभ ओर वळि में पांच प्रतिनारायण छठे नरक गए हैं। पुरुषदत्त, नारायण और प्रहरण प्रतिनारायण ये पांचवें नरक लक्ष्मण नारायण और रावण प्रतिनारायण ये चौथे नरक तथा कृष्ण नारायण और जरासन्धु प्रति नारायण ये तीसरे नरक को प्रात हुए हैं । आदि के आठ बलभद्र मोझ गए हैं तथा पद्म नाम का नौवां चल भद्र ब्रह्मस्वर्ग को प्राप्त हुआ है किन्तु जब कृष्ण का जीव तीथंङ्कर होगा उस समय वे भी सिद्धगति प्राप्त करेंगे। अथ नारदाना नामादिकं गाथाद्वयेनाह भीम महमीम रुद्दा महरुद्दो कालभो महाकालो । वो दुम्मुह णिस्यमुहा महोमुबो गारदा एदे ।। ८३४ ।। कलहप्पिया कदाई धम्मरदा वासुदेवसमकाला | मच्या णिरयगदि ते हिंसादोसेण गच्छति ।। ८३५ ।। भोमो महाभोमः रुद्रो महारुद्रो कालो महाकालः । ततो दुर्मुथो निरयमुखः अधोमुखो नारदा एते ।। ६३४॥ कलहप्रियाः कदाचित मरताः वासुदेवसमकाल!! 1 भव्याः नरकगति ते हिसादोषेण गच्छन्ति ।। ८६५ ।। भीमा : भीमो महाभीमो द्रो महानः कालो महाकालस्ततो दुर्मुसो नरकमुखोऽधोमुख इस्येते परमारथाः॥८३४ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:८३६-३७ नरतिर्यग्लोकाधिकार ६५१ कलह । कलहप्रियाः कवाविव मरता: वासुदेवसमकाला भस्मारते हिसायोमेल नरकात गच्छन्ति ॥ ८३५ ।। अब नारदों के नामादि दो गाथाओं द्वारा कहते हैं पायाय :-भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, दुमुष, नरकमुख पौर अधोमुख ये ६ नारद थे। ये कलहप्रिय, कदाचिद्ध मरत और भव्य होते हैं। इनका वर्तना का नारायणों के सदृश है। ये हिंसा दोष के कारण नरक गति को ही प्राप्त होते हैं ।। ८३४, ८३५ ॥ विशेषा:- भीम, २. महाभीम, ३ रुद्र, ४ महारा, ५ काल, ६ महाकाल, ७ दुमुख, ८ नरकममा और अधोसुस्त गे ना मारत होते हैं ! इनका स्वभाव कलहप्रिय होता है, ये कदाचिद्धमरत भी होते हैं। इनका वर्तनाकाल नारायणों के सदृश हो होता है । अर्थात ये नारायणों के काल में ही होते हैं । ये मध्य हैं अतः परम्परा सिद्धि प्राप्त करेंगे किन्तु वर्तमान पर्याय में हिंसा दोष के कारण नरकति को ही प्राप्त होते हैं। इदानी रुद्राणां संज्ञापूर्वक संख्यामाइ भीमावलि जिदसत्त रुह विसालणयण सुप्पदिद्वचला । तो पूंडरीय अजिदंधर जिदणाभीय पीड सच्चाजो ।।८३६।। भीमावलिः जितशत्रुः रुद्रः विशालनयनः सुप्रतिष्ठोऽचलः । तता पुण्डरीक अजितन्धरो जितनाभिः पीठः सस्यकिजः ||८३६॥ भीमा। भोमालिशितशः को विज्ञापनयन: सुप्रतियोऽचलस्ततः पुण्डपोकोऽजित धरो जितनाभिः पीठः सत्यकात्मज हत्येते एकादश का स्युः ।। ८३६ ॥ रुद्रों के नाम और उनकी संख्या कहते हैं गाया:- भीमावलि, जितशत्र, रुद्र, विशालनयन, सुप्रतिष्ठ, अचल, पुग्दरीक, अजितन्धर, जितनाभि, पीठ और सत्यकात्मज ये ग्यारह रुद्र हुए हैं ।। ८३६ ॥ अथ तैः प्रवर्तितकाल माद उसहदुकाले पढमदु मचण्णे सच सुविहिपहुदीसु । पीडो संतिजिणिदे वीरे सच्चइसुदो जादो ।। ८३७ । । वृषद्विकाले प्रथम सप्तान्ये सह मुविधिप्रभृतिषु । पोठः शान्तिजिनेन्द्रे वारे सत्यकिसुतो जातः ॥ ८३७ ।। उसह। वृषभाजितयो: काले प्रथमढितोयो भवतः ततः परमन्ये सप्त सप्त सुपुष्षयसारिजिनकालेषु च भवन्तीति । पोठः शान्तिजिनेन्द्रकाले स्पात् । सस्यकिसुतो वोरनिनेन्द्रकाले जातः ८३४॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ विछोकसार पापा:५३- 18 अब इनका प्रवर्तन काल बताते हैं पामापं :--वृषम और अजित मिनेन्द्र के काल में क्रमशः प्रथम और द्वितीय रुद्र हए । अन्य सात रुद्र पुष्पदन्तादि सात जिनेन्द्रों के कालों में हुए। पीठ नामक दसवा रुद्र शान्ति जिनेन्द्र के काल में और अन्तिम सस्यकारमज वोर जिनेन्द्र के काल में उत्पन्न हुआ।। ८३०॥ विशेषार्ष:-वृषम जिनेन्द्र के काल में भीमावलि, अजितजिनेन्द्र के काल में जितशत्र तथा गुष्पदन्त मे धर्मनाथ पर्यन्त सात तीथंकरों के काल में रुद्र से जितनाभि पर्यन्त सात, पान्तिनाथ के काल में पीठ और वीर जिनेन्द्र के काल में अन्तिम सत्यकात्मज नामक रुद्र हुए हैं । अथ तेषां शरीरोसेघमाह पणसय पण्णूणसयं पंचसु दसहीणम चउवीसं । तक्कायधणुस्सेहो सच्चहतणयस्ससत्करा || ८३८ ।। पञ्चशतं पश्चाशदून शतं पञ्चसु दशहीने अष्ट चतुर्विषतिः। गलामालेमा प्राधिकापस्य सप्तकरः ॥ १८ ॥ पण । तेषां शरीरोसेघः कमेण पञ्चशतवापानि ५०. ताम्येव पश्चाशदूनानि ४५० शतचापानि १०० ततः परं पश्नसु वाहीनानि 01 0०१७०।६।५०प्रविशतिचापानि २८ पविशतिजापानि २४ सस्यक्तिमयस्य तु सप्त हस्ताः स्युः ॥ ८३n अब उनके शारीर का उत्लेष कहते हैं पापापं:-उन रुद्रों के शरीर की ऊंचाई क्रमश: ५०० धनुष, ४५० धनुष, १०० धनुष, १० धनुष, ८० धनुष, ७७ धनुष, ६० धनुष, ५० धनुष, २८ धनुष, २४ धनुष तथा अन्तिम पस्यकितनय की (ऊँचाई ) सात हाथ प्रमाण पी॥ ३८ ॥ अथ तेषामायुष्यमाइ तेसीदिगिसत्तरि विगि लक्खा पुवाणि वास लक्खाओ । चुलसीदि सहि दसु दसहीणदलिगि वस्सणवसठ्ठी ।।८३९|| पशीतिरेकसप्ततिः तय के लक्षपूर्वाणि वर्षलक्षानि । चतुरशीतिः पष्टिः द्वयोः दाहीनदल के वर्षनवषष्टिः॥ १३ ॥ देसी । तेषामायुः कमेण ज्योति ८३ लभारिण, एकसप्तति ७१ लक्षपूर्वारिण, वि २ लक्षपूर्वाणि, एकलक्षपूर्वाणि । लतः परं चतुरशीति ८४ लमवर्षाणि षष्टि ६० लक्षवर्वाणि इतो द्वयोवंश बहीनानि ५० । ४० IND तलमितानि २० स० एकलवाणि । न० नवहिणि ६९ स्युः ॥८३६॥ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबा:४-८४१ नातियंशोकाधिकार अब उनको आयु बताते हैं : गापार्ष:-उन रुद्रों की आयु क्रमशः ८ लाख पूर्व, ७१ लाख पूर्व, २ लाव पूर्व, एक लाख पूर्व, २४ लाख वर्ष, ६० लाख वर्ष, ५० लाख वर्ष, ४० लाख वर्ष, २० लाख वर्ष, एक लाख वर्ष और ६६ वर्ष प्रमाण घी ।। ८३९॥ इतस्तैरापनगतिविशेषमाइ पढमदु माधषिमण्णे पण मघवि भट्ठमो दु रिमहि । दो अंजणं पवण्णा मेघ सच्चाता जादो || ८४.।। . प्रथमद्री माधवीमन्ये पञ्च मघवीपष्टमस्तु अरिष्टमहीं। दो बचना प्रपत्रो मेघां सत्यकितनुजतिः ॥ १४ ॥ पवम । तेषु यमद्वितीयो माघी ७ मापतुः, ततोऽन्ये पश्च मघयो ६ मापुः, प्रष्टमसबरिष्ट ५ महीमाप, ततः परं धावखना ४ प्रपन्नो, सत्यकितनूजातो मेघा ३ गतः ।।८४०।। अब उन रुद्रों द्वारा प्रIH को पई गति के सम्बन्ध में कहते हैं पापा:-प्रथम और द्वितीय रुद्र माधवी ( सातवीं ) पृथ्वी को प्राप्त हुए हैं। अन्य पाँच रुद्र मघवी (छठी ) को; अष्टम रुद्र अरिष्ट ( पांचवीं ) पृथ्वी को; नव और दसवा रुद्र अजना ( चौथी) पृथ्वी को तथा अन्तिम कद्र सत्यकितनु मेघा (तीसरी ) पृथ्वी को प्राप्त हुए हैं ।। ८४०॥ अब तेषां विश्वेषस्वरूपमाह निजाणुवादपढणे दिडफला गट्ठसंजमा भब्वा । कदिचि मवे सिजति गहिदुझियसम्ममहिमादो ॥८४१|| विद्यानुवादपठने दृष्टफला नष्टसंयमा भव्याः । कतिषिद्भवेषु सिध्यन्ति हि गृहोतोज्झितसम्यमहिम्नः ॥४॥ विना। विद्यानुवावपठने रष्टफला नन्दसंयमा म्यास्ते गृहोतोज्झितसम्यक्त्वमाहाल्याव कतिविभवेषु सिष्यन्ति ।। ५४१ ।। अब उनका विशेष स्वरूप कहते हैं गापार्थ:-वे रुद्र विद्यानुवाद नामक पूर्व को पड़ते हुए वह लोक सम्बन्धी फल के मोक्ता, महण किए हुए संयम को नष्ट करने वाले, भव्य और ग्रहण किए हुए सम्यक्त्व को छोड़ देने के माहात्म्य से अनेक पर्यायों को धारण करने के बाद सिद्ध पद प्रात करेंगे ।। ८४१ ।। विशेषार्थ:-वे सभो रुद्र विद्यानुवाद नाम दशम पूर्व के पढ़ते समय श्यामोह में आकर वह लोक सम्बन्धी फल के भोक्ता, ग्रहण किए हुए संयम को नष्ट करने वाले और भव्य है तथा ग्रहण किए हए सम्यक्त्व को छोड़ देने के कारण अनेक प्रव धारण करने के बाद सिद्ध पद के स्वामी होंगे। Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलमदों, नारायणों, प्रतिनारायणों-रद्रों और नारदों के नाम- उत्सेप और आयु आदि बलभद्रों के नारायणों एवं प्रतिनारायणों के रुद्रों के नारदों के प्राम क्रमांक नारायण प्रति नाम आयु प्राप्ति गति क्रमांक आयु | उसंघ धनुषों प्राप्त गति कमांक नाम उत्सेध ( धनुष) आयु प्राप्त गति माम क्रमाक नारायण सत्सेध | वर्ष नयन " , | सुप्रतिष्ठा विजय ०४.ला. मोक्ष १ त्रिपृष्ट- - '८०.९४ लाख सप्तम् सप्तम् १ भीमावलि ५०० ८३ लाख ७३ अश्वग्रीव । वर्षे नरक वनुष पूर्व नरक । मंचल ७० - ७. | मोश|२| हिपृष्ट- ७०६.७२ . - बष्ठम् || जितशत्रु ४५०१२ महाभोम , तारक । नरक सुधर्म ६० ६.. मोक्ष ३ | स्वयंभू- ६. ६.. . :: रुद्र ! मेरक धनुष नरक | सुप्रभ १०.३७ पोझ ४ पुरुषोत्तम- ३०. विशालनिशुभ सुदर्शन ४५० १७. . मोक्ष पुरुपसिह ४५ - १०1 - | 1 ८४. | । मधुकै । वर्ष तन्दी २६-६७ | मोक्ष ६ पुरुष-बलि २६ - ६५ हजार » |६ अचल ० ६...| महाकाल नन्दिमित्र २२ - २७, ! मोक्ष ७ पुरुषदत्त- २२ । ३२ . . पञ्चम् पुण्डरीक ६०-५०n -- |- | प्रहरण राम | मोन) = | लक्ष्मण- १६ - १२ - | चतुर्थ ८ अजितघर .. १८. ५३ नरकमुख रावण | पद्म ब्रह्मा कृष्ण- १० | १. ” तृतीय ९/ जितनाभि २८- २०.. ४ थे अधोमुख , | जरासिन्धु नरक नरक १० पोठ २४- "- . ११ सक्तिनम हाथ ६६ वर्ष | ३ रे नरका वेष त्रिलोकसार नारदों के उत्सेध और आसु आदि का उपदेश प्राप्त नहीं है। पापा:८४१ नरका Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निचतिग्लोव्हाधिकार ere are वर्तनाकालं पुनरपि युगपदेव रचना विशेषेण गाथापश्यदाहजिसको विदा समकाले सुष्णहेट्ठिमे रविदा | उदयजिणंतरजादा सण्णेया चक्कहररुदा || ८४२ ।। गाथा : ८४२-६४३ जिनसमकोष्ठस्थापिताः काले शून्यस्तते । उभयजिनान्तरजाता संज्ञेया चकधररुद्राः ॥ ६४२ ॥ ६५५ जिए। मिनेन्द्राणां समकोष्ठे स्थापितावचक्रपचविदाः तेषां समकाले जाता इति जाण्याः शुन्यावस्तन भागे रचितास्ते उभयजिनान्तराले जाता इति ज्ञातव्याः || ८४२ ॥ चक्र, अत्री और रुद्रों का वर्तनाकाल पुनः युगपत् रचना विशेष द्वाचा पाँच गाथाओंों में कहते हैं गाथार्थ : -- जिनेन्द्र के समान कोठों में स्थापित किए हुए चकवर्ती, अर्धचक्रवर्ती एवं रुद्रों को उनके समकालीन जानना तथा शून्य के नीचे स्थापित चक्रवर्ती आदि को दो जिनेन्द्र देवों के अश्वराल में उत्पन्न हुआ जानना चाहिए ॥ ८४२ ॥ तेषां कोष्टानां विष्यासक्रमः कथमिति चेत् पण्णर जिण खदु तिजिणा, सुण्णदु जिण गगणजुगल जिण खदुगं । जिण खं जिण खं दुजिणा, इदि चोचीसालया गेया ॥ ८४३ ॥ पचदशजना खद्वयं त्रिजिनाः, शून्यद्वयं जिनः गगनयुगलं जिना खयं । जिनः खं जिनः खं द्विजिनो इति चतुस्त्रिशदालया शेयाः ॥ ८४३ ॥ परणर। पञ्चदशजिनातस्तान्यद्वयं ततस्त्रयो मिनाः ततः शुन्यद्वयं ततः पुनशन त शून्ययुगलं ततो जिनस्ततः शून्यद्वयं ततो जिनस्ततः शुभ्यं ततो जिनस्ततः शुभ्यं हो जिनो इति पंक्तिक्रमेण चतुस्त्रिको जातयाः ७ ८४३ ॥ उनके कोठों का विन्यास क्रम कैसे है ? उसे कहते हैं :-- गाथार्थ :- वृषभादि पन्द्रह जिन, उससे आगे दो शून्य, उससे आगे तीन जिन, आगे वो शून्य, फिर जिन, फिर दो शून्य आगे एक जिन, फिर दो शून्य, उससे आगे एक जिन. एक शून्य, फिर एक जिन, एक शून्य और उसके बाद दो जिन इस प्रकार चौतीस कोठे जानना ।। ६४३ ।। विशेषार्थ :- प्रथमादि पन्द्रह कोठों में वृषभादि पन्द्रह जिनेन्द्रों के नाम लिखकर वो कोटों में दो धून्य रखना, उससे आगे सीन जिनेन्द्रों के नाम पुनः स्थापन करना, उससे आगे के कोठों में दो Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६५६ - - त्रिलोकसार पाषा:४४-६४५-८४६ शून्प फिर एक जिन दो शून्य फिर एक जिन दो शून्य पुनः एक जिन एक शून्य, उससे आगे एक जिन एक शून्य और उसके आगे दो जिनेन्द्रों का स्थापन करना चाहिए। तदधस्तनपंक्तो किमिति चेत चक्किदु तेरस सुण्णा छन्चरकी गयणविदय चक्की खं । चक्की गभग पक्की गयणं चक्कहर सुग्णदुर्ग ।। ८४४ ॥ दसमयणपंचकेसवछस्सुण्णा पउमणामणमविण्हू' । गयणति केसव सुग्णदु मुरारि सुण्णचियं कमसो ।।८४५॥ रुद्ददुर्ग छम्सुण्णा सत्त हरा गयणजुगलमीसाणो । पण्णर णमाणि तचो सच्चइतणओ महावीरे ॥ ८४६ ॥ चकिती त्रयोदशशन्यानि षट्चकिरणः गगनत्रितयं चकी खं । चक्रो नभोदिक चक्री गगनं चक्रधरः शून्यद्वयं ॥८४४ ।। दशगगर्ग पञ्चकेशवाः षट्शन्यानि पद्मनामनभोविष्णुः। गगनश्रयं केशवः शून्यद्वयं मुरारिः शून्यत्रयं क्रमशः ।। Exk || रुद्रद्विक षट्शन्यानि सप्तहराः गगनयुगलमीशानः। पञ्चदशनमांसि तता सत्यकीतनयः महावीरे ।। १४६ ।। विक। किरणो तो सत्पुरस्तात त्रयोदशशून्यानि, ततः षट्वकिरणततो गगनत्रयं, सतश्च ततः सं सतरचकी ततो वमोतिकं तसाचक्री ततो गानं ततश्चक्रधरा ततः शून्यदमित्येवं स्थापनीयं ॥४४॥ वस । तृतीयपंक्ती तु पशशून्यानि ततः पुरस्तात् पञ्चकेशवाः ततः षट्शून्यानि ततः केशवस्ततो नमस्ततो विष्णुस्ततो गगनवयं तत: केशवस्ततः शून्यद्वयं ततो मुरारिस्तत: शून्यत्रय इत्येवं कमेण स्थापनीयं ।। ८४५ ॥ १६ । चतुर्षपंक्तो पुना तोही ततः षट् शून्यानि ततः सप्तशातलो गगमयुगलं ततः शामतः पञ्चबानासि ततः सत्यकितनयः श्रीमहावीरजिमकाले स्यात् । इत्येवं कमेण संस्थासमीयं ॥ ४६॥ उसके नीचे को दूसरी पंक्ति में क्या रखना ? उसे कहते हैं गाचार्य :--दो चक्रवती उससे आगे तेरह शून्य उसके आगे छह चक्रवर्ती और तीन शून्य उसके आगे एक चक्रवर्ती एक शून्य इसके आगे एक चकवी दो शून्य उसके मागे एक चक्री Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा : ८४४-८४५-१६ नरतिर्यग्लोकाधिकार एक शुन्य और इसके भी आगे एक चक्री और दो शन्य द्वितोम पंक्ति में स्थापन करना चाहिए। इसके आगे तीसरी पंक्ति में दश शून्य पांच नारायण उसके आगे छह शूग्य एक नारायण उसके आगे एक शन्य एक नारायण, उसके बागे तीन शून्य एक नारायण उसके आगे दो शन्य एक नारायण और उसके आगे सीन शून्य स्थापन करना चाहिए । इसके बाद चौथी पंक्ति में दो रुद्र छह शन्य उसके आगे सात रुद्र, दो शन्य उसके भागे एक रुद्र और पन्द्रह शम्य तथा इसके पागे महावीर जिनेन्द्र के काल में होने वाले ग्यारहवें सत्यकितनय रुद्र की स्थापना करना चाहिए ॥ ८४४,८४५,४६ ॥ विशेषा:-वरुदेव धीर प्रतिनारायण की दो पंक्तियों सहित विशेषार्थ का चार्ट निम्न प्रकार है : [कृपया चा अपले पृष्ठ पय देखिए । Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाब गाषा:८४४-४५-४६ तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण । तीर्थङ्कर वृषभ . सं. अ.मु. E'FEE या वास. विम | अनन्त | লক্ষ ३ बल देव . • विजय | अचल | सुधर्म सुप्रभ सुदर्शक ४ | नारायण • त्रिपृष्ट ! दिपृष्ट स्त्र यंभू पुरुषो- पुरुष- . ह प्रतिनारा.. ०० • अश्व- तारक मेरक निशुभ म त्रु कैटभ नारद । . . भीम : महा- | रुद्र महारुद्र| फाल | रुद्र भीमा-जित..]01010101. मद्र विशाल सुम० अचल पुण्ड- अजितं- जित.. वलि | शत्रु रीक । धर नाभि Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा। ८४४-४५-८४६. मरतिषग्लोकाधिकार और रुद्रोंका-वर्तना काल • नेमि | • पाय राश्य वर्धमान सन. 10. अ.सु. • • • महा० • हरि० . . | | • ब्रह्म० . | |...नन्दी |.न.मि.. . |. राम |. ० प . . पुरुष |• पु.दत्त, . |. |• बधमण. .कृष्ण . -- . |रीका बलि प्रह- ० . रामप 10. महा । • दुर्मुख . सत्यकि Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० त्रिलोकंसार अथ तीर्थकदशरीरवर्णादिकं तदशं व गाथात्रयेाह गाथा : ८४७-४८-६४६ पप्पहज्जारचा घवला हू चंद्रपसुविधी | नीला सुपासपासा सोमीमुनिसुव्वया किडा ।। ८४७ ॥ सेसा सोलस हेमा वज्जो मलिमिवासचिणा । बी कुमारसवणा महवीरो पाइकुलतिलओ ।। ८४८ || पासो दु उसो इरिवंसो सुन्दओ बि शमीसो । धम्मजिणो कुंभु भरा कुरुजा इक्खाउया सेसा || ८४९ ॥ पद्मप्रभवासुपूज्यो रक्तौ घवली हि चन्द्रप्रभसुविधी | नीली सुपादपाश्व नेमिमुनिसुव्रती कृष्णो ॥ ८४७ ॥ शेषाः षोडश हेमा वासुपूज्यो महिनेमिपादवं जिना: । वीरः कुमारमणा महावीरो नायकुलतिलकः ॥ ८४८ ॥ पारवस्तु उग्रवंश: हरिवंश: सुब्रतोऽपि नेमीशः । धर्मजिनः कुन्थुः अरः कुरुजा: इक्ष्वाकवः शेषाः ॥ ८४६ ॥ पवम । पद्मप्रभवासुपूज्यो रक्तवर्णी बद्रप्रभपुष्पदन्तो धवलवण सुबाइयाश्वंजिनौ नीलव विमुनिसुव्रत ८४७ ॥ सेसा । शेषाः षोडशीर्षक हेमबर: वासुपूज्यो मल्लिनेंमिपार्श्वविमो वीरचिन इति पञ्च कुमारथमणाः महावीरो नाथकुलतिलकः ॥ ८४ पासो | पार्श्वविमस्तुप्रबंधो मुनिसुव्रतो नेमीश्वरश्च हरिवंश: धर्मकुन्थ्वरजिना: कुरुवंशजाः शेषाः इक्ष्वाकुवंशजाः ॥ ८४६ ॥ तीर्थङ्करों के शरीर का वर्णादि और उनके वंश को तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं। : गाथा :- पद्मप्रभ और वासुपूज्य ये दो तीर्थङ्कर रक्त वर्ग, चन्द्र प्रभु और पुष्पदन्त ये दो श्वेत व सुपार्श्वनाथ और पाश्यंनाथ ये दो नील वर्ण, मुनिसुव्रत और नेमिनाथ ये दो कृष्ण व तथा शेष सोलह सीकर स्वर्ण सदृश वर्णं वाले थे । वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ये पाँच तीर्थंकर कुमार श्रमण हैं। महावीर नाथवंश के तिलक हैं। तथा पार्श्वनाथ उग्रवंश में, मुनिसुत्रल और नेमिनाथ हरिवंश में, धर्म, कुन्यु और बरनाथ कुरुवंश में तथा अवशेष संग्रह तीर्थंकर इत्राकुवंश में उत्पन्न हुए थे || ८४७ ८४८,८४ विशेषार्थ :- पद्मपन और वासुपूज्य ये दो तीर्थंकर रक्तवर्ण, चन्द्रप्रभ पुष्पदन्त दवेतवर्णं, सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ नोलवर मुनिसुव्रत और नेमिनाथ कृष्णवणं तथा शेष सोलह तीर्थंकर Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: E५० से ५४ नरतियंग्लोकाधिकार स्वर्ण सदा वर्ण वाने थे। वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पाश्वनाथ और महावीर ये पांच तो कर कुमार श्रमण अर्थात् बालब्रह्मचारी हुए हैं । अवशेष १९ तीर्थंकरों का विवाह हुआ था। महावीर नापवंश में, पाश्वनाय उग्रवंश में, मुनिसुव्रत और नेमिनाथ हरिवंश में धर्म, कुन्थु और अरनाथ कुरुवंश में तथा अवशेष सत्रह तीर्थंकर इक्ष्वाकुवंश में सत्पन्न हुए थे। इंसानी शककल्किनोत्पत्तिमाह पणछस्सयवस्सं पणमास जुदं गमिय वीरणिध्वुझ्दो । सगराजो तो कक्की चदुणवतियमाहियसममासं ।। ८५.॥ पत्रपटक्षतवर्ष पश्चमासयुतं गत्वा वीरनिवृतेः। पाकराजो ततः कल्की चतुणंवत्रिकमधिकसममासं ॥८५०॥ पण । पीवीरनाथमिव ते सकाशात पश्वीसरबट्छतवर्धारित ६०५ पञ्च ५ मासयुतानि गत्वा पश्चात विमाशकराजो जायते । तत नपरि चतुर्णवस्युत्तरत्रिशव ३६४ वर्षाणि सप्तमातापिकानि त्या पश्चात कल्की जायसे ।। ८५.॥ अब शक और करिक की उत्पत्ति कहते हैं गावार्थ :-श्री वीर प्रभु मोक्ष जाने के छह सौ पाँच वर्ष पांच माह बीत जाने पर शक राजा उत्पन्न हुआ था और इसके तीन सौ चौरानवें वर्ष सात माह बीत जाने पर करिक को उत्पत्ति हुई थी ।। ८५० ।। विशेषाई।-श्री वर्धमान स्वामी के मोक्ष जाने के ६०५ वर्ष ५ माह बाद विक्रमनामका शक राजा और इसके ३६४ वर्ष ७ माह बाद कलिक उत्पन्न हुआ अर्थात् वीर जिनेश के मोक्ष जाने के { ६०५,५ + ३९४,७) १००० वर्ष बाद कल्कि की उत्पत्ति हुई। इदानीं करिकनः कृत्यं गाथाषट्केनाह सो उम्मगगाहिमहो चउम्मूहो सदरिबासपरमाऊ । चालीस रज्जओ जिदभृमी पुरुका समंतिगणं ।।८५१|| अम्हाणं के अरसा जिग्गंथा अस्थि केरिसायारा । णिद्धणवत्था मिक्खाभोजी जहसत्यमिदिवयणे ।।८५२।। तप्पाणिउडे णिवडिद पढमं पिंडं तु सुक्कमिदिगेज्म । इदि णियमे सचिवकरे चचाहारा गया मुणिणो || ८५३ ।। तं सोदुमक्खमो तं णिहणदि बजाउहेण असुरवई । सो भुजदि रयणपट्टे दुक्खग्माहेकजलरासिं ।। ८५४ ।। Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ त्रिलोकसार गाथा! ८५१ से ३५६ तकायदो तस्म सुतो अजिदंजयसण्णिदो सुरारिं तं । सरणं गच्छद चेलयसण्णाए सह समहिलाए ॥ ८५५ ॥ सम्मइसणरयणं हिययाभरणं च कृणदि सो सिग्छ । पञ्चक्खं दट्टाणिह सुरकजिणधम्ममाहप्पं ।। ८५६ ।। सः उन्मार्गाभिमुखः चतुर्मुखः सप्ततिवर्षपरमायुष्यः । चत्वारिंशत् राज्य: जितभूमिः पृच्छति स्वमन्त्रीगणं ॥ ६५१ ।। अस्माकं के अवशा निग्रन्थाः सन्ति कीशाकाराः । निर्धनवस्त्रां मियामोजिम अधाशास्त्र मे ॥ ५ ॥ तत्पाणिपुटे निपतितं प्रथमं पिम्हं तु शुल्कमिति ग्राह्य । इति नियसचिवकृते त्यक्ताहारा गताः मुनमः ।। ५३ || तं सोनुमक्षमः सं निहन्ति वज्रायुधेन असुरपतिः। स भुङ्क्ते रत्नप्रभायां दुःखग्राहकजलराशि ॥८५४ ।। तद्भपतः तस्य सुतः अजितमसंज्ञितः सुरारित। शरणं गच्छति चेलकासंज्ञया सह स्वमहिलया ॥ ४५ ॥ सम्यग्दर्शनरत् हृदयाभरणं च करोति सः शीन। प्रत्यक्ष दृष्ट्वा इह सुरकृतजिनधर्ममाहात्म्यं ॥ ८५६ ।। सो । स कस्को उम्माभिमुखातुमुंखाल्पः सप्ततिवर्षपरमायुष्यश्चत्वारिशवर्ष ४. राज्यो मितमूमिः सन् स्वमन्त्रिगणं पृच्छति ॥ ८५१ ।। पम्हा। परमाक के पबशा इति ? मन्त्रिणः कथयति-निम्याः सन्ति इति । पुन: पृच्छति ते कोदशाकारा इति ? निषनवस्त्रा यथाशास्वं भिक्षामोजिनः। इति मन्त्रिणः प्रतिवचन अस्वा ॥ ५२ ॥ सप्पाणि । तेषां निन्याना पारिणपुटे निपतितं प्रपपिण्डं शुल्कमिति प्राह्यमिति रामो नियमे सधिवेन कृते सति स्यक्ताहाराः सन्तो मुनयो गताः ॥ ५३ ।। तं। तमपराध सोढुमममोऽसुरपतिश्चमरेखो वसायुधेन तं राजानं निहन्ति स मृत्वा रत्नप्रभाषा हुःसपाटे कजलराशि भुक्त। ५४ ।। तभय । समावसुरपति भवात्सल्य राज्ञः सुतोऽनित लयसहित बेलकासगया स्वमहिलया सहित सुरारिशरणं गच्छति ।। ८५५ ॥ सम्म स पुन: सुरकृतजिनधर्ममाहात्म्य प्रत्यक्षं दृष्ट्वा शीघ्र सम्पम्वनिदर्शनरलं हवयाभरणं करोति ॥ ८५६ ॥ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरतियं ग्लोकाधिका अब छह गाथाओं द्वारा कल्कि राजा के कार्य कहते हैं : -- गाथा ८५७ से ८६१ गाथा : वह कल्कि उन्मार्गाभिमुख होता है। उसका नाम चतुर्मुख और परमायु सप्तर वर्ष की होती है। उसके राज्यकाल की अवधि चालीस वर्ष प्रमाण है। भूमि को जीतला हुआ वह अपने मन्त्रीगणों से पूछता है कि कौन हमारे वश में नहीं है ? मंत्रीगण बोले- निर्ग्रन्थ साधु नहीं हैं। उसने पूछा--उनका आकार कैसा है | मन्त्री बोले- वे षन वस्त्र रहित होते हैं और शास्त्रानुसार भिक्षावृत्ति से भोजन लेते हैं । मन्त्री के ऐसे वचन सुनकर कल्कि ने मन्त्रियों सहित नियम बनाया कि उन निन्यों के पाणिपुट में रखा गया प्रथम ग्राम शुल्क रूप में ग्राह्य है नियमानुसार प्रथम ग्रास टेक्स रूप में मांगे जाने पर मुनि आहार छोड़ कर वन को चले गए। इस अपराध को सहन करने में असमर्थ असुरपति ( चमरेन्द्र ) ने वष्त्रायुध द्वारा उस कल्कि को मार डाला। वह कल्कि रत्नप्रभा पृथिवी में दुःख स्वरूप एक सागर प्रमाण आयु को भोग रहा है। उस असुरपति के भय से उस कल्कि का अजितञ्जय नामक पुत्र अपनो बेलका नाम को स्त्री के साथ उस पिता के शत्रु असुरपति की शर को प्राप्त हुआ तथा असुरेन्द्र के द्वारा किए हुए जैन धर्म के माहात्म्य का प्रत्यक्ष फल देख कर उसने शीघ्र हो सम्यग्दर्शन रूपी रश्न को अपने हृदय का श्राभरण बनाया ॥ ८४.१ से ८५६ तक || 1 विशेष :- सुगम है अथ चरमकल्कीस्वरूपं गाथाप नाह १६३ हदि पचिसहस्व वीसे कक्कीणदिक्कमे चरिमो । जलमंथ भविस्सदि कक्की सम्ममामत्थणओ || ८५७ ।। इंदरायसिस वीरंगद साहु चरिम सव्वसिरी । मञ्जा अग्मिल सावय वरसाविय पंगुसेणावि ॥ ८५८ ॥ पंचमचरिमे पक्खढमासतिवा सोसेसर तेण 1 मुणिपढमडिगणे मण्णणं करिय दिवसतियं ।। ८५९ ।। सोहम्मे जायंते कचियमत्रास मादि पुष्व । जलदी मुणिणो सेमतिए साहियं पल्लं । ८६० ।। तच्चासरस्स आदीमज्झ ते धम्मराय अम्गीणं । णासो तचो मणुसा नग्मा मच्चादिआहारा ॥। ८६१ ।। इति प्रतिसहस्रवर्ष विशली कल्कीनामतिक्रमे चरमः । जलमन्थनो भविष्यति कल्की सम्मागं मन्थनः ।। ८५७ ।। इह इन्द्रराजशिष्यों वोराङ्गदः साधुचरमः सर्वश्रीः । आर्या अगिलः धावकः वरश्राविका पंगुसेनाऽपि ॥ ६५८ ॥ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा : ६५७ से ११ पञ्चमचरमे पक्षाष्टमासत्रिवर्षे अवशेषे तेन ।। मुनिप्रथमपिण्डग्रहणे सन्यसनं कृत्वा नियस त्रयं ।।८५६ ।। मौष में जायन्ते कातिकामावस्या स्वाती पूर्वाल्हे । एफजलधिस्थितयो मुनयः शेषत्रय: साधिक पल्यं ।। ६६० ॥ तवासरस्य आदिमध्यान्ते धर्मराजाग्नीनां । नाशः ततो मनुषया नाना मत्स्याद्याहारा: ॥ ८६१ । इदि। इत्येवं प्रतिसहस्रवर्ष विशतिकल्किमामसिक्रमे सति शरमो मतमन्यनाम मनामन्यन: कस्को भविष्यति ॥ ९५७ ।। इह । तस्मिन् काले इन्द्र राजाचा शिष्यो बोराङ्गवश्वरमः साधु: प्रापिका सर्वमीः भाषकोऽगिसो वरषाविका पंगुसेनाऽपि ।। ८५८ || पचम । ते चत्वारः पश्चमकासचरमे एकपक्षे प्रहमासे त्रिवर्षे अवशिष्टे सति तेन राशा मुनिप्रथमपिण्णग्रहणे ते सति विषसत्रयं सल्यसनं कृत्वा ।। ६५ ।। सोहम्मे । तत्र मुनया 'कातिकामावस्या स्वातिनक्षत्रे पूर्वाह्न एकसागरोपमायुषः सौधर्मे जायते शेषास्त्रयस्तव साविकपस्यायु जायन्ते ॥८६॥ तम्बासर । सदासरस्यादौ मध्ये पन्ते च सपाम धर्मस्य राशोऽग्मेश्व माशः । ततः परं मनुष्या नम्ना मत्याचाहारा ॥८६१ ॥ अब अन्तिम कल्कि का स्वरूप पांच गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाचार्य:-इम प्रकार एक एक हजार वर्ष बाद एक एक कल्कि होगा, तथा बीस कलिंकयों का अतिक्रम हो जाने पर सम्मागं का मन्थन करने वाला जलमन्यन नामका अन्तिम कल्कि होगा। पसी काल में इन्द्रराजा नामक प्राचार्य के शिष्य वीराङ्गद नामक अन्तिम साधु, सर्वत्रो नाम को आयिका, अग्गिल नामक उत्कृष्ट श्रावक और पंगुसेना नाम की प्राविका होगो । पश्चमकाल के अन्त में तीन वर्ष, ८ माह और एक पक्ष अवशिष्ट रहने पर उस कल्कि द्वारा पूर्वोक्त प्रकार मुनिराज के हस्तपुट का प्रथम ग्रास शुल्क स्वरूप ग्रहण किया जाएगा। तब वे चारों तीन दिन के सन्यास पूर्वक कातिक बड़ी अमावस्या को स्वाति नक्षत्र एवं पूर्वाह्न काल में मरण को प्राप्त हो सौधर्म स्वर्ग में नि तो एक सागर आयु के घारी और शेष तीनों साधिक एक पल्य की आयु के धारी पत्पन्न होंगे। उसी दिन आदि मध्य और अन्त में कम से धर्म, राजा एवं अग्नि का नाश हो जाएगा इसलिए उसके बाद मनुष्य मत्स्यादि का भक्षण करने वाले और नग्न होंगे ।। ८५७ से ८६१ ॥ १ कातिकमासेमावस्यायों ( २०, ५० ). Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा | ८६२-८१३ नरखिर्यग्लोकाधिकार ६ ६५. विशेषार्थ :- इस प्रकार इस पचम काल में प्रत्येक एक हजार वर्ष बाद एक कल्कि राजा होगा तथा बीस कल्कि राजाओं के हो जाने के बाद सन्मार्ग का मभ्थन करने वाला जलमन्थन नाम का अन्तिम कल्कि होगा। उसी काल में इन्द्रराज आचार्य के शिष्य वीराङ्गद नाम के अन्तिम मुनि, सो नामको लायिका, अग्गिल नामक उत्कृष्ट श्रावक ओर पंगुसेना नामकी धाविका छोपी । जब म काल के ३ वर्षमा अवशेष रहेंगे तब वह जल मन्थन नामक कल्कि राजा पूर्वोक्त प्रकाय मुनिराज के पाणिपुर में जाए हुए प्रथम ग्रास को शुल्क स्वरूप से ग्रहण करेपा, तब वे चारों यम सल्लेखना धारण कर लेंगे और सल्लेखना धारण करने के तीन दिन बाद ही कार्तिक वदी अमावस्या को पूर्वाकाल एवं स्वाति नक्षत्र में मरण को प्राप्त हो सोषमं स्वगं में मुनिराज वो एक सायर की आयु लेकर और अवशेष तीन साधिक एक पल्य की आयु लेकर उत्पन्न होंगे। उसी दिन के आदि में अर्थात् प्रातःकाल धर्म का, मध्याह्न में राजा का और सन्ध्याकाल में प्रग्नि का नाश हो जाएगा । इसके बाद मनुष्य नग्न रहेंगे और मत्स्यादि का आहार ( भक्षण ) करेंगे । अथ धर्मादीनां विनाशकारणमाह- पोग्गलमहरुकखादो जलणे धम्मे सिएण ददे । असुरवरणा परिंदे सयलो लोभो हवे अंघो || ८६२ || पुद्गलातिरौक्ष्पात् कालने घर्मे निराश्रयेण हते । सुरपतिता नरेन्द्र सकलो लोको भवेत् अन्धः ||८६२ ।। पोल | पुगलानामतिरौक्ष्यात ज्वलने नष्टे निराधये धर्म ते असुरपतिना नरेन्द्र व हते सति पश्चात् सकलो लोकोऽन्धो भवेत् ।। ६६२ ॥ ana र्मादिक के नाश का कारण कहते हैं गावार्थ :-- पुद्गल द्रव्य में अत्यन्त रूक्षता आ जाने से अग्नि का नाश, समीचीन धर्म के आश्रयभूत मुनिराज का अभाव हो जाने से धर्म का नाश तथा असुरेन्द्र द्वारा राजा का नाश हो जाने से सम्पूर्ण लोक अदा हो जाएगा अर्थात् मार्गदर्शक कोई नहीं रहेगा ।। ६२ ।। अथ तस्यजीवानां गत्यन्तरगमनागमनस्वरूप माइ एत्थ मुदा गिरयदुगं णिरयतिरक्खादु जणणमेत्थ हवे । थोबलदार मेहा भ्रू णिस्सारा जरा तिच्वा ॥ ८६३ ।। अत्र मृदा निश्यद्वय नरकतिर्यग्भ्यां जनतमत्र भवेत् । स्तोक जलदायिनो मेघा भूः निस्सारा नास्तीत्राः ॥ ८६३ ॥ ए । अत्र मृता नरकद्वयं गच्छन्ति माम्यत्र, नरकाग्गिश्यागतानामेवात्र जननं मवेत् नान्येषा । अत्र मेघाः स्तोकजलवामिमो भूः निःसारा नशस्तीचा: ८६३ ॥ ८४ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार . पाषा: ८६४-६५ उस काल में स्थित जीवों के गति में गमनागमन का स्वरूप कहते है-- गाथा:-यहां से मरे हुए जीव नरक तियंञ्च इन दोनों गतियों में जाएंगे, अन्यत्र नहीं। नरक और नियंश्च . गति से झागत जीवों का ही यहाँ जन्म होगा. अन्य का नहीं । इस काल में मेष बहुत थोड़ा जल देंगे, पृथ्वी सारभूत पदार्थों से रहित होगी और मनुष्य तीन कषायी होंगे || ६६३ ।। इदानी अतिदुःषमचरमवतनाक्रमं गाथाचतुष्टयेनाह संवत्तयणामणिलो गिरितरुभूपनदि चुण्णणं करिय । भमदि दिसंत जीवा मरंति मुच्छति बढते ।। ८६४ ।। सम्वतंकनामानिल: गिरितभूप्रभृतीनां चूर्ण कृत्वा । भ्रमति दिशान्तं जीवा म्रियन्ते मूछन्ति षष्ठान्ते ॥ ८६४ ॥ संघसय । सम्वतंकनामानिल: षकालान्ते गिरितभूप्रभतीना चूर्णनं कृत्वा विशान्तं भ्रमति । तनस्था जोवा मूर्यन्ति नियन्ते च ॥ ८६४ ।। ___ अब अतिदुःषमा काल के अन्त में होने वाली वर्तना के क्रम को चार गाथाओं द्वारा कहते हैं गापा-छुटे काल के अन्त में संवतंक नाम की वाय पर्वत, वृक्ष और पृथ्वी आदि का चूर्ण करती हुई ( स्वक्षेत्र अपेक्षा ) दिशाओं के अन्त पर्यन्त भ्रमण करती है, जिससे जीव मूछित हो जाते है और मर जाते हैं ।। ८६४ || विशेषार्प:-छठे काल के अन्त में संवतंक नाम की वायु, पर्वत, वृक्ष और भूमि आदि का चूर्ण करती हुई दिशाओं के मन्त पर्यन्त भ्रमण करती है जिससे वहाँ स्थित जीव मूछित हो जाते है और कुछ मर भी जाते हैं। खगगिरिगंगदुवेदी खुद्दविलादि विसंति आमण्णा | णति दया खचरसुरा मणुस्सजुगलादिबहुजीधे ।। ८६५ ।। खगनिरिगङ्गादयवेदी क्षुद्रविलादि विशन्ति मासना।। नयन्ति व्याः स्युचरासुराः मनुष्य युगलागिबहुजीवान् ।।८६५।। लग। विनयापंगासिन्धूनां देवो तस्थुवबिलाधिक तपासनाः प्रापिनो विशति सक्याः साराः सुराश्च मनुध्ययुगलारिवहजोवान् नयन्ति च ॥ १६५ ।। गाचार्य :-विजयापर्वत, गङ्गमा सिन्धु को वेदी और क्षुद्र बिल आदि के निकट रहने वाले जीव इनमें स्वयं प्रवेश कर जाते हैं तथा दयावान विद्याधर और देव मनुष्य युगलों को मादि कर बहत से जीवों को वहाँ ले जाते हैं ।। ८६५ ॥ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाथा : ८६६-६६७-६८ नरतिग्छोकाधिकार छद्रुमचरिमे होति मरुदादी सत्सत दिवसबही । मदिसौदखारविसपरुसम्मीरजधूमवरिसामो ।। ८६६ ।। षष्ठचरम भवन्ति भरुदादयः सप्तसत दिवसावधि । अतिशीतक्षारविषपरुषाग्निरनोधूमवर्षाः।। ८६६ ॥ छटुम । षटकालघरमे मश्चादयः सप्त सप्त विवसावधि भवन्ति । ते 22 मतिचीतमारविषपरुषाग्निरखोघूमवृद्धयः ।। ८६६ ॥ ___ गापा :-छठे काल के अन्त में क्रमशः पवन, मतिशोत, क्षाररस, विष, कठोर अग्नि, धूल और धुआ-इन सातों को सात सात दिन पर्यंत अर्थात् ४९ दिनों तक वर्षा होती है। तेहिंतो सेसजणा पसंति विसग्गिवरिसदङमही । इगिजोयणमेसमधो चुण्णीकिजादि कालबमा ।। ८६७ ॥ तेभ्यः शेषजनाः नश्यन्ति विषाग्निवर्षादग्यमही । एकयोजनमात्रमधः चक्रियते हि कालवशात् ।। ८६७ ॥ तेहिं । तेभ्यो वर्षेम्पोऽयशेवनमा: नश्यन्ति विषाग्निवर्षग्यमही एकयोजनमात्रमयः कालवशाल चूर्णोभवति ॥ ६७ ॥ नाथार्य :- अवशेष रहे मनुष्य भी उन वर्षाओं से नष्ट हो जाते हैं । काल के वश से विष एवं अग्नि को वर्षा से दग्ध हुई पृथ्वी एक योजन नीचे तक चूर्ण ( चूर चूर ) हो जाती है ॥ ८६७ ॥ इदानीमुरसपिणीप्रवेशकर्म गाथात्रयेणाह-- उस्सपिणीयपढमे पुक्खरखीरघदमिदरसा मेघा । सचाहं बरसति य णग्गा मचादि माहारा ॥ ८६८ ।। उत्सपिणीप्रथमे पुष्करक्षीरतामृतसान मेधाः । सप्ताह वर्षन्ति च नग्ना मृताद्याहारा ८६८ ।। उस्स । उत्सपिणीप्रथमकाले मेघाः उबकक्षीरघतामृतरसान सप्त सप्ताहं वर्षन्ति । तत्कालत्या जीवा नाना मृत्तिकाद्याहारा: ॥६८।। अब उत्सर्पिणी काल के प्रवेश का कम तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं-- गावार्थ :--उत्सपिणी के प्रथमकाल में मेव कमशः जल, दूध, घी, अमृत और रस की वर्षा सात सात दिन तक करते हैं । इस काल में स्थित जोत्र नग्न रहने वाले और मृत्तिका (मिट्टी का) आहार करने वाले होंगे ॥ ६८ ।। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० त्रिलोकसाब माथा। ५६-८७-८४१ उण्हं छंडदि भूमी बर्षि सणिद्धचमोसहि धरदि । वन्लिलदागुम्मुतरू बड्डे दि अलादिवरसेहिं ।। ८६९ ॥ उष्णं त्यजति भूमिः छवि सस्निग्धत्वौषधि धरति । बल्लिलतागुल्मतरवो वर्धन्ते जलादिवर्गः ॥ ६९ ।। उण्हं । जलादिवर्षेभूमिकरणं त्यजति छवि सस्निग्धवं न्यायोधि च परति । वल्ल्यावयो पर्षन्ते समभूमौ । सुरक्षा सती जी वृक्षाश्रयेण प्रमरम्ती सत्ता कदाचिदपि स्पूलाकन्यतामप्राप्नुवन्तो गुल्माः स्यूलक योग्यावृक्षाः एते वर्धन्ते जलाविवर्षः ॥ ८५६ ॥ __गाचार्य :- जलादिक की वर्षा के कारण पृथ्वी उष्णता को छोड़ती है, शोभा, सचिकणता, अन्त और ओषधि पादि को धारण करती है तथा बेल, लता, गुल्म और वृक्ष वृद्धि को प्राप्त होते है ।। ६६॥ विशेषापं :-जलादि की वर्षा से पृथ्वी उष्णता को छोड़ तो है, वि-शोभा, स्निग्धता और धान्य औषधि आदि को धारण करती है तथा बेल आदि बढ़ती है। जो भूमि पर जड़ के बिना फैलती है उस बेल कहते हैं। जो वृक्ष का आश्रय लेकर फैलती है उसे लता कहते हैं । जो कदाचित् भी स्थूळ वृश्चपने को प्राप्त नहीं होते उन्हें गुल्म कहते हैं और जो स्यूल वृक्ष होने योग्य होते हैं उन्हें वृक्ष कहते हैं। जल आदि की वर्षा से ये सब वृद्धि को प्राप्त होते हैं। णदितीरगहादिठिया भूमीयलगंधगुणसमाइया । णिग्गमिय तदो जीवा सब्वे भूमि भरंति कमे ।।८७०॥ नदीतीरगुहादिस्थिता भूशीतलगन्धगुणममाहूताः। निर्गस्य ततो जीवाः सर्वे भूमि भरन्ति कमेण ।। ८७० ॥ रणवि । नवोतोरगुहादिस्थिता जोषा मुशीतलगन्धगुणसमाहूताः सन्त: सर्व ततो निस्य कमेण भूमि मरन्ति ।। ८७॥ गायार्थ :-(गङ्गा सिन्धु ) नदी के तीर तथा ( विजया को ) गुफा आदि में स्थित जीव पृथ्वी के शीतल, गन्ध गुण से बुलाए हुए ही मानों वहां से निकल कर सम्पूर्ण पृथ्वी को भर देते हैं।। ८..॥ इदानीमुरसर्पिणी द्वितीयकालादिवर्तनकममाह उस्सप्पिणीयविदिए सहस्ससेसेसु फुलयरा कणयं । कणयप्पहरायद्धयपुंगव तह गलिण परम पहपउमा ||८७१।। उत्सपिणीद्वितीये सहनशेषेषु कुलकरा: कनकः । कनकप्रभराजध्वजपुङ्गवाः तथा नलिनाः पद्माः महापमः ॥४१॥ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ७२ गपतियंग्लोकाधिकार ६६५ TER । उत्सपिरणोद्वितीयकाले सहस्रवर्षे प्रशिष्टे सति कुलकरा: भवन्ति । ते तु कनका कनकप्रमः कनकराबः कनकध्वजः कमलापुङ्गवस्तथा नलिनो मलिनप्रमो लिनराको मलिनमजो नलिनपुङ्गवः पपः पाप्रमः पराज: पप्रध्वजः पापुङ्गवः महापान इति योगश ममयः स्युः ।।७१॥ अब उत्सपिणी के द्वितीय आदि कालों में वर्तना का कप कहते हैं : गापाय--उत्सपिणी के द्वितीय काल में एक हजार वर्ष अवशेष रहने पर कनक, कनकप्रभ, कनकराज, कनकध्वज, कनकपुङ्गव तथा नलिन, नलिनप्रभ, नलिनराज, नलिनध्वज, नलिनपुङ्गव, पद्म पद्मप्रभ, पद्मराज, पद्मध्वज, पद्मगुङ्गा और महापद्म ये सोलह कुलकर होंगे ॥ ८७१ । विशेषा-उत्सपिरणो काल के दूसरे दुःपमा नामक काल में जब एक हजार वर्ष अवशेष रहेंगे तब १ कनक, २ कनकप्रभ, ३ कनकराज, ४ कनकध्वज, कनकपुङ्गव, नलिन, नलिनप्रभ, नलिनराज, ६ मलिनचज, १० नलिनपुङ्गव, ११ पद्म, १२ पाप्रम, १३ पद्मराज, १४ पध्वज, १५ पद्मपुङ्गव और १६ मह पता थे सोलह गुमगार सोरी । मोट-तितोयपनाति में १४ कुलकरों का कथन है, पद्म व महा पद्य इन दो कुलकरों का नाम नहीं है। अथ हैवां कृत्यं तृतीयकालस्थत्रिषष्टिवालाकापुरुषांश्च माथाचतुष्टयेनाह तस्सोलप्तमणुहि कुलायाराणलपक्कपहदिया होति । तेवढिणरा तदिए सेणियचर पढ़मतित्थयरो ।। ८७२ ।। तत्षोडशमनुभिः कुलाचारानलपश्वप्रभृतयो भवन्ति । त्रिषष्टिन रास्तृतीये धेणिकचर। प्रथमतीर्थकरः । ८७२ ॥ सस्सोलस । तो षोडशमनुभिः कुलाचारानलपपत्रप्रभृतयो भवन्ति । तृतीये काले पुनस्त्रिातशलाका पुरुषा भवन्ति । तत्र रिणकचरः प्रयमतीकरः स्यात् ॥ ९७२ ॥ अब उन कुलकरों के कार्य और तृतीय कालस्थ वेसठ शलाका के पुरुषों को पार गायाओं द्वारा कहते हैं : नापार्थ :-उन सोलह कुलकरों के द्वारा कुलानुरूप आचरण और अग्नि आदि से पाचन आदि कला सिखाई जाती है । इसके बाद तृतीय काल में प्रेसठ शलाका के पुरुष होंगे जिनमें श्रेणिक राजा का जीव प्रथम तीर्थकर होगा ॥ ५७२ ॥ विशेषा:-धन सोलह कुलकरों के द्वारा क्षत्रिय आदि कुलों के अनुरूप आचरण धौर अग्नि द्वारा पाचन मादि का विधान सिखाया जाएगा। इसके बाप दुषमा सुषमा नामका तृतीय काल प्रारम्भ होगा जिसमें राजा श्रेणिक का जीव प्रथम तीर्थकर होगा। Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ि० त्रिलोकसार बाया: 5७३ से ५७६ महपउमो सुरदेवो सुपासणामो सयंपहो सुरियो । सध्यप्पभूद वादाची होहिं खुलपुत्रो ।। ८७३ ।। तित्थयरूदक पोटिल जयकिती मुणिपदादिसुम्वदओ। भरणिप्पावकसाया विउलो किण्हचरणिम्मलभो ।। ८७४ ।। चिचसमाहीगुचो सयंभु अणिवायो य जय विमलो। तो देवपाल सम्वइपुत्तचरोऽणतविरिपंतो ।। ८७५ ।। महापपः सुरदेवः सुपाश्वनामा स्वयम्प्रभः तुर्य।। सर्वात्मभूतो देवादिपुत्रो भवति कुलपुत्रः ॥ ८७३ || तीर्थकर उदंकः प्रोधिलजयकीर्ति। मुनिपवादिसुनतः । अरनिष्पापकषाया विपुल: कृष्णवरो निमलः ।। ८७४ ।। मित्रसमाषिगुप्तः स्वयम्भूरनिवतंकश्च जयो विमलः । ततो देवपाल: सत्यकिपुत्रचरोऽनन्तवीर्योन्तः || १ || महपसमो। महापमा सुरवेवः सुपापनामा स्वयम्प्रभासुयं: सस्मिभुतो देवपुत्रः कुलपुत्रो भवति ॥ ५७३॥ तिस्थये । उबकुतीर्थकर: प्रोठिलो जपकीतिमुनिसुक्तोऽरो निष्पापो निष्कषायो विपुलः कृष्णचरो निर्मलः ॥९७४॥ वित्त । चित्रगुप्तः समाषिगुप्तः स्वयम्भूरनिवसंकास जयो विमलप्ततो देवपालस्सत्यठिपुत्र. घरोनन्तवीर्यश्चरमः । एते चतुर्विशतितीर्थकराः स्युः ।। ८७५ ।। गाथाप-महापद्म, सुरदेव. सुपारच, स्वयम्प्रभ, सरिमभूत, देवपुत्र, कुलपुर, उदङ्कतीर्थ छुर, प्रोविल, जयकीति, मुनिसुव्रत, अर. निष्पाप, निःकषाय, विपुल, कृष्ण नारायण का जीव निमंछ, चित्रगुप्त, समाघिगुप्त, स्वयम्भू, अनिवतक, जय, विमल, देवपाल और सत्यफितनय अन्तिम रुद्र का जीव अन्तिम तीर्थकर अनन्तवीर्य होगा ।। ५७३ - १५ ॥ अप तत्र प्रपमाम्तिमतीर्थकरयोरायुस्त्सेधावाइ पढमजिणो सोलससयवस्साऊ सत्तहत्थदेहुदमो । चरिमो दु पुनकोडीमाऊ पंचमयधणूतुंगो ।।८७६|| प्रथमजिन: षोडशशतवर्षायुः सप्तहस्तदेहोदयः । चरमः तु पूर्व कोट्यायुः पञ्चशतधनुस्तुङ्गः ॥ ८७६ ॥ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ८५७ से ८८ नरगिलो का घिका पढम प्रथमजिनः षोडशोत्तरतवर्षायुः ११६ सप्तहस्त देहोययः परमोजिम पूर्वकोटाः पचयतषनुस्तुङ्गः ॥ ८७६ ॥ अब वहाँ के प्रथम और अन्तिम तीर्थकर की आयु एवं उरसेष कहते हैं 11 मामा:- उत्सव पोकाल के प्रथम तीर्थंङ्कर महापद्म की आयु ११६ वर्ष और शरीर की ऊँचाई सात हाथ प्रमाण तथा अन्तिम सोथंङ्कर अनन्तवीर्य की आयु एक पूर्वकोटि और शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष प्रमाण होगी ।। ८७६ ॥ अथ चकर्षचकिबलदेवानां नामानि गायाचतुष्के लाहचक्की रहो दीवादिमतो गूढदंताय । सिरिसेणभूदी सिरिकंतो पउम महपउमा ! | ८७७।। तो मिलवाहण अरिसेणो बलो वदो चंदो । महचंद चंदहर हरिचंद। सीहादिचंद वरचंदा || ८७८ || तो पृष्णचंदहचंदा सिरिचंदो य केसवा णंदी | तं पुचमिरासेणा णंदी भृदी यचलणामा || ८७९ ।। मामला तिविट्ठो दुवि पडिसचुणो य सिरिकंठी । हरिणील अस्ससिहिकंठा अस्स हयमोरगीवा य ।। ८८० || चक्रिणः भरतः दीर्घादिमदन्तो मुक्तगूढदन्तो । श्री पूर्वसेनभूती श्रीकान्तः पद्मो महापद्मः ॥ ८७ ॥ ततः चित्रविमलवाहनी अरिष्टमेाबलाः ततः चन्द्रः । महाचन्द्रः चन्द्रधयः त्रिचन्द्रः सिंहादिचन्द्रो वरचन्द्रः ||६७८ ॥ ततः पूर्णचन्द्रः शुभचन्द्रः श्रीचन्द्रः च केशवा: नन्दी | सत्पूर्वमित्रसेनो नन्दिभूतिश्चाचलनामा ॥ ८७ ॥ महातिबली त्रिपृष्ठ द्विपृष्ठः प्रतिशत्रवः च श्रीकण्ठः । इरिनीला सुशिखिकण्ठाः अश्वहयमयूरग्रीवादच ॥ ८६ ॥ eet | प्रादौ चक्रिणः कथ्यन्ते - भरतो दोघंन्तो मुक्तवन्त गढ़वन्तश्च बीषेणः श्रीमूर्तिः श्रीकान्तः पद्यो महावचः ॥ ८७७ ॥ तो । ततचित्रवाहनो विमलवाहनो अरिसेनः इति द्वादश चक्रिणः । ततो बलदेवाः कथ्यन्ते चन्द्रो, महावन्द्रश्नाबरो हरिचन्द्रः सिचयो वरचन्द्रः ॥ ८७ ॥ - सो पुराण । ततः पूर्णचन्द्रः शुभचन्द्रः श्रीचन्द्ररलि नवबलदेवाः । इतः परं केशयाः कथ्यते-नम्बी सन्विमित्रो नम्बिवेल नन्दि मूमिश्चाथलनामा ॥ ८७ ॥ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ त्रिलोकसार याथा: E८९ मह। महाबलोऽतिबलस्त्रिपृष्ठो हिपुश्चेति नव वासुदेवाः । इससरतिकात्रय कम्यतेपीकठो हरिकण्ठो नीलकण्ठोऽश्वकरठः सुक: शिस्निकण्ठोषवीवो हपनीबो मयूरप्रीवरति मम प्रतिवासुदेवाः ।। अब चक्रवर्ती, अर्घ चक्रवर्ती और बलदेवों के नाम चार गाथामों द्वारा कहते हैं__गापा :-भरत, दीर्घदन्त, मुक्तदन्त, गूढदन्त, श्रीपेण, श्रीभूति, श्रीकान्त, पय, महापद्म, चित्रवाहन, विमलवाहन और अरिष्टमेन ये बारह चक्रवर्ती होंगे। तथा चन्द्र, महाचन्द्र, चन्द्रघर, हरिचन्द्र, सिहचन्द्र, वरपन्द्र, पूर्णचन्द्र, शुभचन्द्र और ६ श्रीचन्द्र ये ६ बलदेव होंगे तथा नन्दी, नन्दिमित्र, नम्दिषेण, नन्दिमून, अचः, मामल, अतिसार, भिष्ट और सिर न पत्र अर्थात् नारायण होगे और इनके ही प्रतिशत्रु श्रीकण्ठ, हरिकण्ड, नीलकण्ठ, अश्वकण्ठ, सुकण्ठ, शितिकण्ठ, अश्वग्रीव, हपग्रीव और मयूर नीव ये नव प्रतिनारायण होंगें ।। ८७७ से ८६० ॥ विशेषा-सर्व प्रथम चक्रवतियों के नाम कहते हैं-१ भरत, २ दीर्घदन्त, ३ मुक्तदन्त, ४ गूढदन्त, ५ श्रीषेण, ६ श्रीभूति, ७ श्रीकान्त, ८ पद्म, महापा. १० चित्रवाहन, ११ विमलवाहन और १२ अरिष्टसेन ये बारह चक्रवर्ती होंगे। १ चन्द्र, २ महानन्द्र, ३ चन्द्रधर, ४ हरिचन्द्र, ५ सिंहचन्द्र, ६ वरचन्द्र, . पूर्णचन्द्र, ८ शुभ चन्द्र और ९ श्रीचन्द्र ये ९ बलभद्र होंगे। १ नन्दी, २ नन्दिमित्र, ३ नन्दिरण, ४ नन्दित, ५. अचल, ६ महाबल," अतिबल, ८ त्रिपृष्ठ और विपृष्ठ ये तव नारायण तथा इनके प्रतिशत्रु १ श्रीकण्ठ, २ हरिकण्ठ, ३ नीलकण्ठ, ४ अक्कण्ठ, . सुकण्ठ, ६ शिक्षिकाठ, ७ अश्वग्रीव, 5 हयग्रीव और ६ मयूरग्रीव ये ९ प्रतिनारायण होंगे। इदानीमुक्तार्थानां निर्गमनमाह-- एसो सब्बो मेमो परूविदो विदियतदियकालेसु । पुन्वं व गहीदवो सेसो तुरियादिभोगमही || ८८१ ।। एषः सर्को भेदः प्ररूपितः द्वितीयतृतीय कालयोः । पूर्वमिव गृहीतव्यः शेषः तुर्यादिभोगमही ॥ ८८१ ।। एसो। एक सर्वोऽपि मेद उत्सपिरणीहितोयतृतीयकालयोः प्रपितः, शेषः चतुर्याविभोगमहीति पूर्वमिव महोतव्यः ।। १ ॥ कहे हए अर्थ का उपसंहार करते हैं गावार्थ :-उपयुक्त सब भेद उत्सपिणी के दूसरे तोसरे काकों के प्ररूपित किए गए हैं। अवशेष चतुर्षादि कालों में भोगभूमि की रचना है, ऐसा पूर्वोक्त प्रकार से ग्रहण करना चाहिए। ८८२ ॥ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया:-८३ शक्षियं धिमान १३ विशेषा:-चतुषं सुषमा-दुषमा काल में जघन्य भोगभूमि की रचना है, पश्चम सुपमा काल में मध्यम प्रोर छठे सुषमासुषमा काल में उत्कृष्ट भोगभूमि को पचना है। एवं भरत रावतक्षेत्रेपूक्तगठ कालान क्षेत्रान्तरे नियमेन योजयितु गाथात्रयमाह पढमाद: तुरियोति य पढमो कालो भवद्विदो कुरवे । हरिरम्मगे य हेमवदेरण्णवदे विदेहे य ॥ ८८२ ।। प्रथमतः तुर्यान्तं च प्रथमः काल; अवस्थितः कुर्योः।। हरिरम्यके च हैमवद्धरण्यवतयोः विदेहे च ।। ८८२ ॥ पढमा। प्रथमकालत भारम्प चतुकालपर्यन्तं नियमः कप्यते । क त्र प्रथमः कालो बेवोत्तरपुर्वोरमस्थित एष, द्वितीयः कालो हरिरम्यकक्षेत्रयोरवस्थित एव, तृतीयः कालो हमवत रपयपतक्षेत्रयोरस्थित एच, धतुशालो विहे वापस्थित एव ॥ ८५२ भरत रावत क्षेत्रों में कहे हुए छह कानों को नियम पूर्वक अन्य क्षेत्रों में जोड़ने के लिए तीन गाथाएँ कहते हैं गावार्थ:-प्रथम काल से चतुथं काल पर्यन्त का नियम कहते हैं-प्रथम काल देव कुरु पौष उत्तर कुरु में अवस्थित है। दूसरा काल हरि ओय रम्यक क्षेत्रों में, तीसरा काल हैमवत और हैरण्यवत में तथा चतुर्थकाल विदेह क्षेत्र में अवस्थित है ।। ८१२ ।। विशेषार्थ:-प्रथम काल से चतुथंकाल पर्यन्त को अवस्थिति का नियम कहते हैं-सुषमासुषमा नाम का प्रथम काल देवकुछ और उत्तर कुरु में अवस्थित है । अर्थात् प्रथमकाल के प्रारम्भ में आयु उत्सेध एवं सुग आदि की जो वर्तना है वैसी ही वर्तना देवकुह और उत्तरकुरु में निरन्तर रहती है। भी प्रकार सुषमा नामक द्वितीय काल की जो वर्तना है वैसी ही वर्तना हरि और रम्यक क्षेत्रों में मिरात र रहती है तथा सुषमा-दुषमा नामक तृतीय काल मी वर्तना के सदृश हेमवत और हरण्यक्त क्षेत्रों में निरन्तर रहती है। इसी प्रकार दुषमा-सुषमा नामक चतुर्थ काल की जो वर्तना है वैसी ही वना विदेह क्षेत्र में निरन्तर अस्थित्त रहती है। मरह इरावद पण पण मिलेच्छखंडेसु खपरसेढीम् । दुस्समरुसमादीदो अंतोनि य हाणिबड्डीः य || ८८३ ॥ . भरतः रावत: पश्च पञ्च म्लेच्छखंडेषु खचरगिषु। दुःषमसुषमादितः अन्त इति च हानिवृद्धी च ।। ८३ ॥ भरहे। भरतरावस्थितपश्चपञ्चम्लेच्छमण्डेषु खचरणिपु व दु:षमतुषमयादितः पारस्य तस्वातपर्यन्तं पपिएपामायुरावहामि: स्यात्। तत्र पञ्चमष कालो न प्रवर्तते । उसविख्या तु Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाच तृतीयकालस्यादित प्रारभ्य तस्यैवान्तपर्यन्तं बुद्धिरेव स्यात् । प्रवर्तन्ते ॥ ६८३ ॥ ६७४ पाया : ८८४ तत्र चतुर्थपञ्चमषकाला न गावार्थ:- भरत पर ऐरावत क्षेत्रों के पाँच पाँच म्लेच्छ खण्डों में तथा विद्याधरों की शियों में दुःषमा- सुषमा काल के आदि से लगाकर उसी काल के अन्त पर्यन्त हानि वृद्धि होती है ॥ ८६ ॥ विशेषार्थ :- भरत पौर ऐरावत क्षेत्रों में स्थित पाँच पाँच म्लेच्छ खण्डों में तथा विजयाचं की विद्याधर की श्रंरियों में अवस पिरणी के चतुर्थकाल के आदि से उसी काल के अन्त तक पायंखण्ड में आयु और उत्सेध आदि की जैसी हानि होती है वैसी ही हानि होती रहती है। वहाँ अवसर्पिणी के पांचवें और छटवें तथा उत्सर्पिणी के पहिले और दूसरे काल सदृश वर्तना नहीं होती। जो अवपिणी का चतुर्थकाल है वही उत्सर्पिणी का तृतीय काल है अतः आर्य खण्ड में उत्सर्पिणी के तृतीय काल में आदि से अन्त तक अध्यु आदि में जैसा कमिक वृद्धि होती है वैसी ही वृद्धि वहाँ होती रहती है। उसी के चौथे, पांचवें और छठवें काल सदृश बर्तन भी वहाँ नहीं होती । अर्थात् प्रायं खण्ड में जब उत्सर्पिणी के चौथे, पांचवें और छठवें काल का तथा अवसर्पिणी के पहले, दूसरे और तीसरे काल का प्रवर्तन होता है तब भी वहाँ आर्यखण्ड की उत्सर्पिणी के तृतीय काल के अन्त की वर्तना सदृश एक रूप ही वर्तना पाई जाती है । वर्तते वर्तते ॥ ५८४ | पदमो देवे चरिमो रिए तिरिए णरेत्रि चक्काला | तदियो कुणरे दुस्सममरिमो चरिमुवहिदीवद्धे ।। ८८४ ॥ प्रथमः देवे चरमः निरये तिरश्चि नरेऽपिषद् कालाः । तृतीय: कुमरे दु:षमसदृशः चरमोदधिद्वपार्थे ॥ ८८४ ॥ पदमरे । देवगतौ प्रथमकासरे वर्तते नरके चरमतालो वर्तते, तिर्यग्गतो मनुष्यवती च षट्काला मनुष्य भोगभूमी तृतीयकालो वर्तते, स्वयम्भूरमणद्वीपा तत्समुळेच दुःसहाः कालो गामार्थ:-- देवगति में प्रथम काल सहा और नरक गति में छटवें काल सहा बना होती है । मनुष्य और तिर्यख गति में श्रद्दों कालों का वसंत है मनुष्य ( भोगभूमि ) में तृतीय काल सहा और स्वयंभू रमण द्वीप और सम्पूर्ण स्वयम्भूरमण समुद्र में निरन्तर दुःषम काल सदृश वर्तना रहती है || ४ || . विशेषार्थ :- देवगति में निरन्तर प्रथम काल सदृश और नरकगति में निरन्तर छ काल स वर्तना होती है । ( यहाँ अत्यन्त सुख एवं अत्यन्त दुःख को विवक्षा है मायु आदि की नहीं । मनुष्य और तिर्यख गति में छहों कालों का पतन है । कुमानुष अर्थात् कुभोगभूमि में तृतीय काल सहरा Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५-६ नरतियंग्लोकाधिकार (७४. एवं अधस्वयम्भूरमण द्वीप और सम्पूर्ण स्वयम्भूरमण समुद्र में दुषमा नामक पञ्चम काल सदृश वर्तना होती रहती है। एवं जम्बूद्वीपवर्णनं परिसमाप्य लबणार्णववर्णनमुपक्रममाणस्तयोमध्यस्थितप्राकारस्वरूपनिरूपणव्याजेन शेषद्वीपसमुद्रान्तस्थितान् प्राकारान गाथा येन निरूपयति चउगोउरसंजुचा भूमिसुद्दे वार चारि बह दया । सपलरयणप्पया ते बेकोसवगाढया भूमि ।। ८८५ ॥ बजमयमूलभागा घेलुरियकयाइरम्मसिहरजुदा । दीयोवहीणमंते पायारा होति सम्वत्थ ।।८८६ ।। : चतुर्गोपुर संयुक्ता भूमिमुवे द्वादश चत्वारः अष्टोदयाः। सकल रस्नात्मकाने द्विकोशावगाढ़ा भूमि ॥ ८ ॥ वनमयमूल भागा बड्यंकृतातिरम्यशिखरयुताः। द्वीपोवधीनामन्ते प्राकारा भवन्ति सर्वत्र ।। ८८६ ॥ घर। चतुर्गोपुरसंयुक्ता मी सामानोरमभ्या मुले पोजमण्यासा: भयोवनीच्या सकलरत्नामकारते भूमि विकोशोषयमवगाम स्थिताः । ८८५ ॥ पमा पझामपमूल मागा: बडूर्यकृतातिरम्पशिखरयुताः प्राकारा: वेडिका इत्यर्षः जोपामामुनपीनामन्ते सर्वत्र भवन्ति । ५८६ ॥ ____ अब जम्बूद्वीप के वर्णन की परिसमाप्ति कर लवणसमुद्र का वर्णन प्रारम्भ करते हुए भाचार्य सर्वप्रथम जम्बूद्वीप प्रौय लवण समुद्र के मध्य में स्थित कोट के स्वरूप निरूपण के बहाने ( मिष से ) सर्व द्वीप समुद्रों के अन्त में स्थित प्राकारों का स्वरूप दो गाथाओं द्वारा प्ररूपित करते हैं : गाथा:- सम्पूर्ण दीप समुद्रों के अन्त में ( परिधि स्वरूप ) प्राकार होते हैं । वे प्राकार चार धार गोपुर द्वारों से संयुक्त होते हैं। उनकी भूमि ( नीचे ) बारह योजन और मुख ( ऊपर ) चास योजन चौड़ा तथा ऊंचाई आठ योजन प्रमाण होती है। भूमि पर उनका अवगाह ( नींव ) दो कोश प्रमाण है। वे सर्वकोट रत्नमय है । वे वजमय मूल भाग ( नींव ) तथा वैडूर्यरत्नों से निर्मित अत्यन्त रमणीक शिखर से संयुक्त हैं ।। ६५, ८८६ ।। विशेषाध:-सम्पूर्ण द्वीप समुद्रों के अन्त में परिधिस्वरूप एक एक प्राकार है । जो चार चार गोपुर द्वारों से संयुक्त हैं। जो नीचे ( भूमि ) बारह योजन और ऊपर ( मुख चार योजन चौड़े तथा थाठ योजन ऊंचे है। धे सम्पूर्ण हो प्राकार रत्नमय हैं। दो कोश भूमि को अवगाह कर स्थित है। Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ त्रिलोकसाथ 9191: 550-555-55% अर्थात् पृथ्वी के नीचे इनकी नींव दो कोश प्रमाण है जो वज्रमय मूलभाग ( नींव ) और वंड्यं से निर्मितत्यन्त रमणीक शिखरों से संयुक्त हैं। अथ तेषां प्राकाराणामुपरि स्थितवेदिकां निरूपयति — पद्मदेविकारित पायाराणं उवरिं पुह मज्के उमवेदिया हेमी | aster गाविस्थाया कमसो ॥। ८८७ ॥ प्राकाराणामुपरि पृथक मध्ये पद्मवेदिका हैमी । द्विकोशपञ्चशतधनुस्तुङ्ग विस्तारा क्रमशः | ८८७ ।। पायारा । तेषां प्राकाराणामुपरि पृथक् पृथक् मध्ये द्विकोशोत्तुङ्गा पञ्चशतधनुर्थ्यासा हैमी ८७॥ अब उनके ऊपर स्थित वेदिका का निरूपण करते हैं गाथार्थ::- उन प्राकारों के ऊपर मध्य में पृथक् पृथक् दो कोस ऊँची और पांच सौ धनुष चौड़ी स्वप्रिय पद्मवेदिका है । अदिहिः स्तवनादिकं गाथाचतुष्केण निवेदयति तिस्से तो पाहिं हेमसिलातलजुदं वर्ण रम्मं । बावी पासादोवि य चिचा अत्यंति तहिं वाणा ॥ ८८८ || तस्या अन्तर्बहिः हेमशिलातलमृतं वनं रम्यं । वाप्यः प्रासादा अपि च चित्रा असते तत्र वानाः ॥८८॥ लिसो । तस्था: पबेदिकाया अन्तर्य हिम शिलातलयुतं रम्यं धनमस्ति तत्र चित्राः वाप्यः सावाश्च सति । तत्र प्रासादेषु वानाध्यन्तरा प्रासते ॥ ८८ ॥ अब चार गाथाओं द्वारा उन वेदिकाओं के भीतर और बाहर स्थित वनादिकों का निरूपण करते हैं गायार्थ:- उन वेदिकाओं के बाह्याभ्यन्तर दोनों ओर स्वर्णमय शिला से संयुक्त रमणीक वन, नाना प्रकार की बावड़ियां और प्रासाद हैं। प्रासादों में व्यन्तर देव निवास करते हैं ।। ६८ ।। बरमज्झणाणं वावीणं चाव विसद बिश्थारा । पणा कमसो गाढा सगवादसमामी ॥८८९|| वरमध्यजघन्यानां वापीनां चापः द्विशतं विस्ताराः । पञ्चाशदून क्रमशो गाधः स्वकथ्या सदशमभागः ॥ ६८९ ॥ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ८९.-६६१ नरतियंग्लोकाधिकार ६७७ पर। बरमध्यमजयन्याना गामोन निस्सहमेशा fer: २.० चापाः पाशस्पश्चाशदूमबापाच १५० । १०० | तास गापास्तु खकोवपासवशमभागः स्यात् २०॥ १५ ॥ १० ॥are u गापा:- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य वापिकाओं का विस्तार चौड़ाई क्रमशः वो सौ धनुष और पचास पचास धनुष कम अर्थात् डेढ़ सौ और सौ योजन प्रमाण है, तथा गान (गहराई) अपने अपने व्यास के दावें भाग प्रमाण है ।। ८८९ ॥ विशेषार्थ:-उत्कृष्ट बावड़ियों की चौड़ाई २०० धनुष तथा गाध (२९) २० धनुष प्रमाण है। इसी प्रकार मध्यम बावड़ियों का विस्तार १५० धनुष और गाष १५ धनुष तथा अन्य पावड़ियों का विस्तार १०० धनुष और गाघ ( गहराई ) १० धनुष प्रमाण है। वासुदयादीहत्तं जहष्णपासादयस्स चावाणं । पण्णपणसदरिसय मिह दारे छब्बार चउगाढो ।।८९०॥ मझिमउकस्साणं विगुणा तिगुणा कमेण वासादी । दोदोदारा मणिमय गणकीडादिगेहावि ।। ८९१॥ ध्यासोदयदीर्घत्वं जघन्यप्रासादस्थ चापानां । पञ्चाशत्पश्चसप्ततिशत इह द्वारे षट् द्वादश चतुर्गाढः ॥१६॥ मध्यमोत्कृष्टानां द्विगुणास्त्रिगुणा क्रमेण व्यासादिः। द्वितिद्वारा मणिमया ननिकीमादिगेहा अपि ॥ ११ ॥ वासु । जघन्यप्रासाबस्य ज्यासोक्यदोपत्वं यासंख्यं पञ्चाशव ५० पञ्चसप्तति ७५ शत १. चापाः। वह वारे व्यासोदयौ षट् ६ द्वारश १२ पापी तनावस्तु चतुश्चामा ।। ८६० ॥ मझिम । मध्यमोकप्रासाना व्यासावया क्रमेण जघन्यव्यातादेटिगुणास्त्रिगुणाव भवन्ति तद्वारेऽपि तथा ते जघन्यादयः प्रासावा द्विद्विद्वाराः तत्र मणिमया मसनकोडाविगेहा प्रपि च भवन्ति' || E६१॥ ___ गाथार्थ:-जघन्य प्रासादों की चौड़ाई ( ध्यास ), ऊंचाई ( उदय ), और लम्बाई क्रमशः पवास, पचहत्तर और एक सौ धनुष प्रमाण है । इनके द्वारों की चौड़ाई ६ धनुष, ऊंचाई बार धनुष और गाघ चार धनुष प्रमाण है। मध्यम एवं उनकृष्ट प्रासादों का ब्यासादिक जघन्य प्रासादों के व्यासादिकों से यथाक्रम दुगुणा और तिगुणा है। उनके द्वारों का व्यासादिक भी जघन्य प्रासाबों के द्वारों के व्यासादिक की अपेक्षा दुगुणा तिगुगणा है । जघन्यादि प्रासाद दो दो दरवाजों से संयुक्त तथा नृत्यगृह और कीड़ागृह आदि की रचना से सहित हैं ॥६०, ८९१ ।। १ सन्ति ( ब०, प.)। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाषा: १९ विशेषा:-जघन्य प्रासादों का ध्यास ५० धनुष, उदय ७५ धनुष और लम्बाई १०० धनुष है। इन्हीं के द्वारों की चौड़ाई ६ धनुष, ऊंचाई १२ धनुष और गाय ४ धनुष प्रमाण है। मध्यम प्रासादों का व्यास १०० धनुष, उदय १५० धनुष और लम्बाई २०० धनुष है। इन्हीं के द्वारों की चौड़ाई, केंचाई एवं गाध क्रम से १२, २४ और = धनुष प्रमाण है। इसी प्रकार उत्कृष्ट प्रासादों का व्यास, उदय और लम्बाई कम से १५०, २२५ और ३०० धनुष प्रमाण है, तथा दरवाजों की चौड़ाई ऊंचाई और पाय क्रम से १८ धनुष, ३६ धनुष और १२ धनुष प्रमाण है। बावड़ियों, प्रासादों और दरवाजों का प्रमाणः बावड़ियों का प्रासादों का दरवाजों का कमांक गाध चौड़ाई | चौड़ाई | ऊँचाई | लम्बाई | गाघ । चौड़ाई | ऊंचाई - - जघश्य ५. घ. 4.10 ४ मध्यम | १५ २. | १५० ६० | १.३० | १५० - २०० + | १५०, २२५ " | ३०० उस्कृष्ट | ३६० इवानी प्रकृतप्राकारद्वारा संख्यातद्वयासादिकं चाह विजयं च वैजयंत जयंत अपराजियं च पुन्बादी । दारचउकाणुदभो अडमोयणमद्धवित्थारा ।। ८९२ ।। विजयं च वैजयन्तं जयन्तमपराजिनं च पूर्वादि । द्वारचतुष्काणामुदयः अष्टयोजनानि अधविस्ताराः || विनयं । विजयं च वैजयन्तं जयन्तमपराजितमिति प्राकाराणां पूर्वाधि द्वाराणि । तेषा दारपतुकारणामुदयोपोजनानि विस्तारस्तव,योजनानि ॥ ८६२ ॥ अब प्रकृत प्राकारों के दरवाजों की संख्या और उनका व्यासादिक कहते हैं गाथा:--विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम वाले क्रमश: पूर्वादि दिशाओं में एक एक द्वार हैं । इन चारों दरवाजों की ऊंचाई आठ योजन और चौड़ाई इसके अर्धप्रमाण है॥१२॥ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ८९१-६९४-९५ नरनिग्लोकाधिकार ६७९ विशेषार्थ:-: :- उन प्राकारों को पूर्व दिशा में विजय, दक्षिण में वैजयन्स, पश्चिम में जयन्त और उत्तर में अपराजित नामवाले द्वार हैं। इन चारों दरवाजों की ऊंचाई आठ योजन और चौड़ाई चार योजन प्रमाण है । अथ तद्द्द्वारोपरिमस्वरूपादिकं गाथायेणाह - तोरणददारुवरिं दुगवास चउक्कतुंग पासादो । बारसहस्सायद दलवाएं विजयपुरमुवरि गयणतले ||८९३ || एवं सतिठाणे विजयादिहिंदी दु साहियं पलं । जगदीले बारस दाराणि नदीण णिग्गम्भणे || ८९४ ॥ पायात मागे वेदिदं जोयणद्भवास बणं । दारुणपरि हितुरियो विजयादीदारअंतरयं ।। ८९५ ॥ तोरणद्वारोपरि द्विव्यासः चतुष्कतुङ्गः प्रासादः । द्वादशसहखायलाएं विजयपुरमुपरि गगनतले ॥८३॥ एवं शेषत्रिस्थाने विजयादिस्थितिस्तु साधिकं पल्यं । जगतीमूल्ये द्वादश द्वाराणि नदीनां निर्गमने ॥ ८६४ ॥ प्रकारान्तर्भागे येदीयुतं योजनाएं व्यासं वनं । द्वारोनपरिचितुर्यो विजयादिद्वारान्तरं ॥ ८६५ ॥ तोरण । तेषां तोरणयुतचतुर्द्वारा लामुपरि द्रियोजनव्यासः चतुर्योजनोत्तङ्गः प्रासावोऽस्ति, विजयाख्यं द्वादश महत १२००० योजनायामं तद्दलध्यासं ६०००. तस्योपरि गगनतले पुरमस्ति ॥ ८३ ॥ एवं । शेषारत्रयेप्येवं ज्ञातव्यं तत्पुरस्थितविजयाविपन्तलामा पुष्य साधिकवत्यं स्यात् । पुनर्जगतीमूले सीतासोसोवासन दोनिर्गमने द्वावश द्वाराणि सन्ति । सीतासोसोदयो। पुनः पूर्वापरद्वारेण निर्गमनत्यात् पृथवाभावः ॥ ८६ ॥ पायारं । तत्प्राकारान्तर्भाग वेदिकायुतं योजना धंन्यासं वनमस्ति चतुर्द्वारण्यासं १६ जम्बूद्धोपस्य सूक्ष्मपरिषी ३१६२२८ न्यूनविश्वा ३१६२१२ भिक्तात् ७६०५३ विजयादिद्वाराट्र द्वारान्तरं स्यात् ॥ ८९५ ॥ द्वीपसमुद्रमध्य स्थितप्राकारवनसहित जम्बूद्वीपवर्णनं परिसमाप्त। अब उन द्वारों के उपरिम स्वरूप आदि को तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं : -- गाथा:- तोरण से संयुक्त विजय द्वार के ऊपर दो योजन चोड़ा और पार योजन ऊंचा Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. त्रिलोकसार माया : १४६ प्रासाद है। उस प्रासाद के ऊपर गगनतल में बारह हमार योजन सम्बा और लम्बाई के अचं भाग प्रमाण चौड़ा विजय नाम का नगर है। अवशेष तीन द्वारों पर भी ऐसे ही प्रासाद एवं वैजयस्ताविक नाम के नगर हैं। उन चारों नगरों में साधिक पल्य प्रमाण आयु वाले व्यन्तर देव रहते हैं। जम्बूद्वीप को जगती के मूल भाग में नदी निकलने के बारह द्वार हैं उन प्राकारों के अभ्यन्तर ( भीतर बाले) भाग में वेदिका सहित अर्धयोजन व्यास वाले बन हैं। चारों द्वारों के व्यास से होन सुक्ष्म परिधि को चार से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो वही विजयादि द्वारों का परस्पर में अन्तर है।। ८५, ८६४, ६१५|| विशेषार्ग:-तोरणद्वार से संयुक्त विजय द्वार के ऊपर दो योजन चौड़ा और चार योजन ऊंचा प्रासाद है जिसके ऊपर आकाश तल में १२.०० योजन लम्बा और ५००० योजन चौड़ा विजय नाम का नगर है। अवयोष तीन द्वारों के ऊपर भी ऐसे ही प्रासाद एवं वैजयन्तादि नगर बसे हुए हैं। पुन विजयादि चारों नगदों में विजयादिक नाम वाले ही पन्तर देव रहते हैं जिनकी आय साधिक एक पल्प प्रमाण है । जम्बूद्वीप को वेदी के मूलभाग में सीता-सीतोदा को छोड़कर अवशेष गङ्गादि १२ महानदियों के निकलने के १२ द्वार बने हुए हैं। सीता-सीतोदा नदी जगती के पूर्व-पश्चिम द्वारों से ही समुद्र में प्रवेश करता है अतः इनकामगभदाय अलग से नहीं हैं। उन प्राकारों के भीतर की ओर पृथ्वी के ऊपर वेदिका माहित अर्ध योजन चौड़े वन हैं। प्राकार के चारों द्वारों का व्यास सोलह योजन है, इसे जम्बूद्वीप की सूक्ष्मपरिधि ३१६२२८ योजनों में से घटा देने पर ३१६२१२ योजन अवशेष रहे । मुख्य द्वार चार ई अतः ३१५२१२ को चाय से भाजित करने पर ( २२).५३ योजन विजयादि एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर प्राप्त होता है । इस प्रकार द्वीप मौर समुद्रों के मध्य में स्थित प्राकारों सहित जम्बूद्वीप का वर्णन पूर्ण हा । अथ लवणार्गवाभ्यन्तरवर्तिनां पातालानामवस्थान तत्संख्यां तत्परिमाणं चाह लवणे दिसवि दिसंतरदिसासु चउ चउ सहस्स पायाला । मज्भुदयं तलवदणं लक्खं दम तु दममममं ॥ ८६६ ।। लवणे दिशाविदिशान्तरविश्वासु चत्वारि चत्वारि सहस्र पातालानि । . मध्योदया तलवदनं लक्ष दशमं तु दशमक्रमं ॥८९६ ॥ लपणे । लबरणसमुद्र विशु ४ विविक्षु ४ अन्तरविक्षु च = यथासंह घरपारि चत्वारि सहन पातालानि । तत्र दिग्गतपातालाना मध्यमेकलक्षव्यासं १० उदयश्च तथा १ ल. तलव्यासो प्रत्य १ लामाः १.०० यमयासक तथा विविगतपातामानो विग्गतपातालवशमांशकमो नातव्यः असरविणतपातालान - विक्षिातपातालवशासमोशातयः ।। ९६ || Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरतियं ग्लोकाधिकार ६५१ आगे लवण समुद्र के अभ्यन्तरवर्ती पाठालों के नाम, उनका बवस्थान, संख्या एवं परिमाण पापा : ८६६ कहते हैं गाथा :-लवस्तु समुद्र की मध्यम परिधि की चार दिशाओं, चार विदिशाओं और बा अन्तरालों में क्रम से चार चार और १००० पाताल है। दिशा सम्बन्धी पातालों के उदय के मध्यभाग का व्यास एक लाख योजन, सम्पूर्ण पाताल का उदय ( ऊंचाई ) एक लाख मोजन, तल व्यास उदय का दश भाग और मुख व्यास भी उदय का दश भाग है। दिशा सम्बन्धी पातालों के व्यासादिक का दaat भाग विदिशा सम्बन्धी पातालों का अनुक्रम है मोद विदिशा सम्बन्धी पातालों के व्यासादिक का दश भाग अन्तराल सम्बन्धी पातालों का अनुक्रम है || ८६ ॥ विशेषार्थ :- लवर समुद्र को मध्यम परिधि को चाय दिशाओं में चाय पाताल, चार विदिशाओं में चार पाताल और आठ अन्तरालों में १००० पाताल ( गड्ड े ) हैं। दिशा सम्बन्धी पातालों का उदय (ऊंचाई) एका योजन ई के ठीक मध्य में पाताल का व्यास ( चोड़ाई ) १००००० योजन है । पाताल का तल पास कोर मुख व्यास ये दोनों व्यास ऊँचाई के दसवें भाग अर्थात् ( 1999.99 ) दश दश हजार योजन प्रमाण हैं । शंका- पातालों (गड्ढों ) की एक लाख योजन की गहराई किस प्रकार सम्भव है ? समाधान - रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है जिसमें ५० हजार मोटे अब्बहुल भाग को छोड़ कर खरभाग और पङ्कभाग पर्यन्त इन पातालों की गहराई है। विदिशा सम्बन्धी पातालों का व्यासादिक दिग्गतपावालों का दशव भाग है। अर्थात् विदित पातालों की गहराई ( 190800 ) १०००० योजन, मध्यव्यास भी १०००० योजन है । तल व्यास एवं मुख व्यास (०) एक हजार एक हजार योजन के हैं । अन्तर दिग्गत पातालों का व्यासादिक विदिग्गत पातालों का दशव भाग है। अर्थात् अन्तरदिग्गत पातालों को गहराई और मध्य व्यास १००००० ) - एक इजाय, एक हजार योजन के हैं तथा तल व्यास और मुख व्यास ये दोनों ( 1989 लो सौ योजन प्रमाण को लिए हुए हैं । निम्नङ्कित चित्रण द्वारा स्पष्ट विवेचन ज्ञातव्य है --- ८६ [ कृपया चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८१ ^ चिलोकसाथ Rथ दिग्गतपातालानां संज्ञादि म्हैं। THI मु पाचा : १७ वामु कदंबगवायालं जवकेसरं वडा | पुब्वा दिवज्जकुड्डा पणसय बादल दसम कमा || ८९७ ॥ वडवामुखं कदम्बक पाठालं यूपकेशरं वृत्तानि । पूर्वादिवज्रकुटानि पशतबाल्य दशमं क्रमात् ॥८७॥ aar सुखं कदम्बक पातालं यूपकेसर मिति पूर्वादिदिग्ातपातालनामानि तानि वृत्तानि वमयकुयानि, विग्गतपातालानां कुडाल्यं पशतयोजनानि ५०० एतद्दशमांशी ५० विदिग्गालपातालकुडवा हयं तद्दशमांश ५ अन्तरविग्गतपाताल कुख्यवाहस्यं स्यात् ॥ ८६७ ॥ अब दिग्गत पातालों के नाम आदि कहते हैं गाथार्थ :- बढ़दामुख, कवम्बक, पाताल और यूपकेशर ये क्रमश: पूर्वादि दिशा सम्बन्धी पातालों के नाम हैं । सर्व पाताल गोल और वज्रमयी कुण्डों से संयुक्त हैं। दिशा सम्बन्धी पातालों के कुण्डों का बाहुल्य ( मोटाई ) पाँच सो धनुष है। इनसे विदिग्गत पातालों के कुण्डों का बाहुल्य दशव भाग तथा इनसे भी अन्दर विग्गत पातालों के कुण्डों का बाहुल्य १० में भाग प्रमाण है ।। ६६७ ॥ विशेषार्थ :- पूर्व दिशा में बढ़वामुख, दक्षिण में कदम्बक, पश्चिम में पावाल और उत्तर में यूपकेबाद नामके पाताल हैं। इन पातालों के कुण्डों का बाहुल्य ५०० योजन है तथा विदिशागत पातालों के कृयों का बाहुल्य ( मोटाई ) दिग्गत पाताल कुम्बों का दसवाँ भाग अर्थात् ५० योजन और Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८३ पापा : CLE मरतिपग्लोकाधिकार अन्तरविगत पाताल कुण्डों का बाहुल्य विदिग्गत पाताल कुण्डों का दसवां भाग अर्थात् ५ योजन प्रमाण हैं। ये सभी कुण्ड गोलाकार और पत्रमयी हैं। तपातालोदरवतिनोजलानिलयोवतनक्रममाह हेटुवरिमतियभागे णियदं वादं जलं तु ममम्हि । जलवादं जलवड्डी किण्हे सुस्के य वादस्स ।। ८९८ ॥ अघस्तनोपरिमविभागे नियतः वातो जलं तु मध्ये। जलवान: जलवृद्धिः कृष्णे शुक्ले च वातस्य ।। ८९८ ॥ हेटठुन । तेषां पातालानामधस्तनतृतीयभागे विशः ३३३३३३ विदिशः ३३३३१ मतारिशः ३३३% वात एष नियतः, उपरिमतृतीपभागे प जलमेव नियतं । मध्यमसृतीयमागे तु मलयातमिमः । कृष्णपक्षे तन्मध्यमतृतीयभागस्थनलस्य वृद्धिः, शुमलपो पुनस्तत्र वासस्म शिः स्यात् neten उन पातालों के अभ्यन्तरवर्ती जल और वायु के प्रवर्तन का क्रम कहते हैं गापा:-उन पातालों के अपस्तन भागों में नियम से वायु है तथा उपरिम भाग में जल और मध्यम भाग में जल, वायु दोनों हैं । कण पक्ष में जल की ओर शुक्ल पक्ष में वायु की वृद्धि होती है ।। ८९८ ॥ विशेषाप:-इन पातालों के ऊँचाई की अपेक्षा तीन भाग करने पर दिग्गतपातालों का तृतीय भाग [ १०१००० -३३३३३१, विदिग्गत पातालों का (229)३३३१४ और अन्तरदिगत पातालों का तृतीय भाग ( ११०० )- ३.३३, योजन प्रमाण होता है। इन पातालों के अधस्तन तृतीय भाग में वायु, मध्यम तृतीय भाग में जलवायु मिश्र और उपरिम तृतीय भाव में मात्र जल पाया जाता है। कृष्ण पक्ष में मध्यमतृतीय भायसय जल की वृद्धि होती है और शुक्ल पक्ष में उसी मध्यमतृतीय भाषस्थ वायु की वृद्धि होती है। स्था Lपया चित्र मगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ for चिलोकसre जलवायु मिश्र इदानीं तद्धानिवृद्धिप्रमाणमाह वा शु Forces BTEEETE - اته THI: SEL तम् पच्झिमतियभागे लवणसिह परिमपणसहस्से य । पण्णरदिहि भजिये इगिदिण जळवादवडि जलवडी || ८९९ || तम्मध्यमत्रिभागे लवणशिखा चरमपन सहस्र च । दशदिने भक्त एकबिने जलवासवृद्धिः जलवृद्धिः ॥८६॥ मध्यमतृतीयभागे ३३३३३३ दि तम । तेषां पाताला २३३३३ अन्तरदिशः ३३३३ मवरणसमुद्रशिलाचरमयासह ५००० पञ्चदश १५ विमंर्गत सति वि० २२२२३० २२२३ म० वि० २२३ इदं मध्यमतृतीयभागे एकंकविमस्य जलवालहानिवृद्धिः स्यात् ३३३३ इदं लवणसमुद्रशिवाय प्रतिदिनं जलहानिवृद्धिप्रमाण' स्यात् । प्रमुमेवागं विवृपोति पावश १५ दिनानामेतावति ३२३१२ हानिचये एकविनस्य १ विदिति सम्पादय समच्छेदेनशिशिन 33+ मेलनं कृत्वा १०००० हा ३ हारेण १५ गुरपयित्वा ४५ तेन भवा २२२२ शेषे पञ्चभिश्वलिते सति २२२२३ विवाहानिवृद्धिप्रमाणं स्मात् । एवं लवणसमुद्रशिखायामितरपातालद्वये च क्रमेल मध्यम शिसपोनि वृद्धिको शातव्यः ॥ ८६॥ अब उस हानिवृद्धि के प्रमाया को कहते हैं : गाउन पातालों के मध्यम त्रिभाय को पन्द्रह दिनों में भाजित करने पर ( कृष्णपक्ष के serefer की ) जलवृद्धि का और (शुक्लपक्ष के प्रत्येक दिन में ) वायु वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : १०० नरतियंग्लोकाधिकार 4 ग्था छवण समुद्र की शिक्षा के अन्तिम पांच हजार योजनों को पन्द्रह से भाजित करने पर लवण समुद्र की शिक्षा में प्रतिदिन पलवृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ८ ॥ विशेषार्थ:-उन पातालों में से दिग्गत पातालों के मध्यम त्रिभाष को १५ से भाजित करने पर ( ३३३३३३ )=२२२२६ योजन, विविग्नत पातालों के मध्यम विभाग को भाजित करने पर ( ३३३३) = १२२१ योजन और अन्तर दिग्गत पातालों के मध्यम विभाग को भाजित करने पर ( ३३३) २२१ योजन जल और वायु की वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है । अर्थात् कृष्ण पक्ष में बल की मौर शुक्ल पक्ष में वायु को पति होती : समा गालातों मध्यम विभागों में नीचे पवन बोर ऊपर जल है अत: कृष्ण पक्ष में प्रत्येक दिन पवन के स्थान पर बल होता जाता है और शुक्ल पक्ष में प्रत्येक दिन जल के स्थान पर पवन होता जाता है। लवण समुद्र में सम भूमि से ऊपर जो अल राशि है उसका नाम शिवा है। इस शिण के अन्तिम ५००० योजनों को १५ से भाजित करने पर {१२)-३३३३ योजन प्राप्त हुआ, यही लवण समुद्र में प्रतिदिन जल वृद्धि का प्रमाण है। लवण समुद्र में समभूमि से ११... योजन ऊंचा जन तो स्वाभाविक ही है, इसके ऊपर शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन ३३३१ योजन की जलवृद्धि होती हुई पूर्णिमा को जलराशि को सम्पूर्ण ऊँचाई १६००० योजन हो जाती है तथा कृष्ण पक्ष में इसी क्रम से घटती हुई अमावस्या को जल की ऊँचाई मात्र ११.०० योजन रह जाती है । यथा:-जबकि १५ दिनों में हानिचय का प्रमाण ३३३३३३ योजन है तब एक दिन में हानिचय का क्या प्रमाण होगा? इस प्रकार राशिक कर समच्छेद विधान से अंश और प्रशी को मिला देने पर 10 योजन प्राप्त हुए । इस ३ हार को १५ हार मे गुणित करने १९४५ हुए । इसका ( BARE ) भाग देने पर २२२२ योजन प्राप्त हुए और ३ अवशेष रहे। इनका ५ से अपवर्तन करने पर २२२२४ योअन मध्यम तृतीय भाग में जल एवं पवन को हानि एवं वृद्धि का प्रमागा प्राप्त हुआ। यह दिग्गत पातालों को हानि चय का प्रमाण है । इसी विधान से लवण ममुद्र की शिखा का तथा विदिग्गत एवं अन्तरदिग्गत पातालों में क्रम से जल, वायु एवं शिखा को हानि वृद्धि का प्रमाण प्राप्त कर लेना चाहिए। एवं हानिवृद्धियुक्तस्य लवणसमुद्रस्य भूमुखव्यासावाह पुण्णदिणे अमवासे सोलक्कारससहम जलउदयो । . चासं सहभूमीए दसयसहस्सा य वेलक्खा ।। ९.. ।। पूर्ण दिने अमावास्यायां षोसर्शकादशसहस्र जलोदयः । व्यास: मुखभूम्योः दशसहस्र' च विलक्ष्यं ॥ ९०० ॥ पृथए । परिणमादिने पमावास्या छ पचासंख्यं षोडशसहल १६... मेकाशसहस्त्रच Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकमार पाषा:०१ ११.०० लपणे लोवयः स्यात् तस्य षोडशसहनोदये मुस्खध्मालो दशसहस्र'१००० घोडशसहस्रोग्यस्य १६००० एतावद्धानो १.० पञ्चसहस्रोक्यस्य ५.०० किमिति सम्पास्यापार्य गुणमित्या महारेर जाला ६३ पान 18000 युज्यात ६९३७५ । इनमेकावशसहसो ११००० क्ये मुहपाठः स्यात् । व्यासस्तु द्विलक्षयोजनं स्यात् ।। ६० ।। इस प्रकार हानि वृद्धि युक्त लवण समुद्र का भूव्यास और मुख व्यास कहते हैं : पाया:- लवण समुद्र के मध्य में समुद्र का जल पूर्णिमा को सोलह हजार ऊंचा और अमावस्या को ग्यारह हजार ऊँचा होता है। सोलह हजार ऊंचाई वाले जल का भूम्यास दो लाख योजन और मुख व्यास यश हजार योजन प्रमाण है ॥ १० ॥ विशेषा -लवण समुद्र के मध्य में अमावस्या के दिन जल की ऊंचाई समभूमि मे ११.०. योजन रहती है। इसके बाद प्रतिदिन ३३३३ योजन की वृद्धि होती हुई पूर्णिमा को वह ऊंचाई १६००० योजन हो जाती है । पुनः प्रतिदिन ३३३३ योजन की हानि होती हुई ममावस्या को जल की ऊंचाई ११.०० योजन रह जाती है। जब जल १६००० योजन ऊंचा होता है तब उसका भू व्यास अर्थाद नीचे की चौड़ाई दो लाख योजन और मुख व्यास अर्थात् ऊपर को चौड़ाई १०००० योजन को रहती है। जबकि १६.०० योजन की ऊँचाई पर १०००० योजन की चौदाई का ह्रास होता है, तब ( १६००-११०..)=५.०० योजन की ऊंचाई पर कितना दास होगा ? इस प्रकार राशिक कर { '१५१०४१०" ) शून्यों का शून्यों से अपवर्तन एवं गुणन राशि का गुणा कर अपने भागहार का भाग देने से ६३५५ योजन प्राप्त हुए। इनमें मुख व्यास १...० योजन जोड़ देने से ( ५९३७५ + १०...)६९७५ योजन मुख व्यास का प्रमाग प्रास हमा। अर्थात् जब जल समभूमि मे १९... योजन ऊंचा होता है तब उसकी ऊपर की चौबाई ६६३४५ योजन सोच भूण्यास अर्थात् जमीन पर जल को पाई दो लास पोजन होती है। इदानी जम्बूद्वीपस्थ चन्द्रादित्ययोलंवगाज लम्य तिर्यगन्तरमाह-- पुरवायारो अलही हाणिदलं सोदयेण संगुणियं । विसमाचारमंचुहिजचंदरवि अंतरयं ।। ९०१ ॥ मुरजाकारः पलाषिः हानिदलं स्वोदयेन सगुण्य । विसमुद्रचारमम्बुधिजम्चन्द्रख्यन्तरं ॥ १.१ ॥ पुरषा। मुरणाकारो जलषिः हानिपलं मूमेः सकाशासमन्ता ८० वित्ययो २०० वत्सेधेन मंगुखियं तु विगतसमुद्रचारं यत सबम्युजम्बूद्वीपहचादरम्योरितगतरं स्मात् ॥ ममुमेवार्य विवरयति-सत्कय ? मुखं १००० भूमो २ ल. शोधमिरवा १९०००० पर्षोकरय ६५... Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरतियंग्डोकाधिकार १७ पाचवेताषयोजनोपयस्य १६.०० एतावद्ध नौ ६५. एकयोजनोपयस्य किमिति सम्पात्यापतिते एकयोजनोवयहानिः स्यात् । एक योजनोदयस्य एतावद्धानिमये कर एतावत: ८० किमिति सम्पात्य १५। ८५० षोडशभिस्तियंगपवर्य ५। ५५ गुणमित्या ५२२५ प्रब समुद्रपारक्षेत्र ३३० मपनीय ६५ मत्रैकं गृहीत्वा रविधिम्बेण समच्छेदं कृत्वा । प्रत्र बिम्बे अपनीते " पन्नाम्बुष्योस्तियंगन्तरं स्यात् । तटात एतावमतो एकयोगमोदये एताबगतो ३३० किमिति सम्पास्य चारक्षेत्र ३३० रविनिम्न समछेवीकृस्याग्योन्य मेलयिस्मा २१ एतबारस्य ६५ हारेण । १६ गुणविश्वा । भक्त लाभ ५५ शेष १३ चन्धपरिणधिजलधेः बलोदयः स्यात् । एसचन्द्रोगये ५० प्रपीते म२४ शेष धन्नार्णवोतिरं स्मात । साम्प्रत स्वेस्तिर्पगन्तराधिकमानीयते । एकयोजनोग्यस्य १ सटादेतावनतिम एतावत: ८०० किमिति सम्पास्य षोडयमिस्तियंगपवरयं । ५० गुणविश्वा ४७५. प्रत्र समुद्र बारे ३३० प्रपनीले ४४१सति सूर्यारम्वतिसकीनासरं स्यात् । चमायोतिरे ६२४ 0 प्रशोति ८० पोजने अपनीते ७४४ । सारर्णवोचन्तिरं स्यात् । अथ प्रसङ्गन लवससमुनसम्बन्धिसूर्यप्रतिषी अलोवयः साध्यते । रविनिम्बस्य व्यासं ३ विगुणीकृस्य तत्समच्छेगीकृते लवणम्यासे १२२१००० अपनयेत् । १११ सन्तिरालक्षेत्र स्यात् । मोरन्तरयोरेतावति क्षेत्रे 8990 एकान्तरस्य किमिति सम्पात्य द्वाभ्यामपवर्ष 199%१ भक्त ELELE भा १३ इवं लवरणसमुद्रोयमर्गयोरन्तरं स्यात् । प्रस्मिन्नषिले ४EEEE शे ३५वं लवणसमुद्रोपसूर्यवेदिकान्तरं स्यात् । एतवेव समच्छेगोकस्य वर्जिन मेलयित्वा 30४११०पश्चादेनाववायामे एकयोजनोवपश्येद एतावायामे 3. किमिति सम्पास्य हारस्य हारेण संगुण्य " " भक्त ८४२० शे सतीवं लवणसमुद्रीय प्रणियों जलोबमः स्यात् ॥६॥ अब जम्बूद्वीपस्य चन्द्र सूर्य से लबण समुद्र के बल का नियंग् अन्तर कहते हैं : गापा:-लवण समुद्र मुरजाकार है। इसकी हानि के प्रमाण को आषा कर (३५ ) चन्द्र, सूर्य की अपनी अपनी ऊंचाई के प्रमाण मे गुणा करने पर जो लब्ध प्रान हो उसमें से समुद्र सम्बन्धी चार क्षेत्र घटा दन पर लवए समुद्र के जल का चन्द्र सूर्य से तिर्यगन्तर का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। ९.१॥ विशेषार्थ:-लवण समुद्र का जल मुरजाकार है तथा चन्द्रमा भूमि मे १८० योजन और सूर्य भूमि स १०० योजन की ऊंचाई पर स्थित है। लवण समुद्र की हानि के प्रमाण को आधा कर ११५००) चन्द्र सूर्य को अपनी अपनी ऊंचाई के प्रमाण से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उसमें से समुद्र सम्बन्धी चार क्षेत्र का प्रमाण घटा देने पर जम्बूदीपस्य चन्द्र सूर्य का लवण समुद्र के जल से तियंग अन्तर प्राप्त होता है। इसी अर्थ का विवेचन करते हैं :- लवण समुद्र के जल में जहाँ १६००० योजन की वृद्धि होती Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ त्रिलोकसार गाथा । ६०१ है वहाँ मुख १०००० योजन और भूमि २००००० योजन है। भूमि में से मुख का प्रमाण घटा कर आधा करने पर ( २००००० १००००=१६००००÷२) = ६५००० योजन एक पार्श्व भाग में हानि का प्रमाण प्राप्त हुआ। जबकि १६००० योजन की ऊंचाई पर ९५००० योजनों की हानि होती है तो १ योजन को ऊँचाई पर कितनी हानि होगी । इस प्रकार त्रैराशिक करने पर (14888 ) = १ योजन हानि चय प्राप्त हुआ। जबकि १ योजन की ऊंचाई पर योजन की हानि होती है, तो चन्द्रमा की ८०० योजन की ऊंचाई पर कितनी हानि होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर ( को १६ से अपवर्तन करने पर प्राप्त हुआ। इनका परस्पर में गुणा करने पर ५१२५ योजन हुए। समुद्र सम्बन्धी चार क्षेत्र का प्रमाण ३३०६ योजन है । ५२२५ योजनों में से ३३० ६ योजन घटाने पर ५२२५ – ३३० ४०५ यो० हुए। इसमें से १ अ ग्रहण कर घटाने के लिए एक का मच्छेद करने पर दे योजन हुए, अतः अवशिष्ट रहे । अर्थात् ४८९४३३ योजन अवशिष्ट रहे । यही चन्द्रमा और समुद्र जल का तिथं अन्तर है। अर्थात् लवण समुद्र के तट से ३३०योजन तिर्यग् जाने पर चन्द्रमा की ऊंचाई ८८० योजन प्राप्त होती है और समुद्र तट से ५२२५ योजन तिर्यग जाने पर समुद्र जल को ८०० योजन की ऊंचाई प्राप्त होती है अत: ५२२५-३२०१६४८९४१३ योजन चन्द्रमा और समुद्र जल का नियंगन्तर प्राप्त हुआ । — २०१७८४१८ चन्द्र और समुद्र जल का ऊर्ध्व अन्तर- जबकि योजन जाने पर जल को ऊँचाई १ योजन प्राप्त होती है तो समुद्र तट से ३३०६ योजन आगे जाने पर जल की कितनी ऊंचाई प्राप्त होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर १६४३२०६६ प्राप्त हुआ। इसमें ३३० चार क्षेत्र को समच्छेद कर रविविम्ब के प्रमाण में मिला देने पर ११ योजन प्राप्त हुए। इन्हें ९५ भागद्दार से और १६ अंश से गुणा करने पर प्राप्त हुए इसमें अपने भागहार का भाग देने पर १५३ योजन प्राप्त हुए । यही चन्द्र के नीचे समभूमि से जल को ऊँचाई है । अर्थात् समुद्र तटसे ३३०१६ योजन भीतर जाकर चन्द्रमा की अन्तिम गली अर्थात् चारक्षेत्र को समाप्ति होती है। वहीं चन्द्रमा भूमि से ८५० योजन ऊपर है और वहीं समुद्र का जल समभूमि से ५५६३१ योजन ऊंचा है। चन्द्रमा को ऊँचाई ८८० योजनों में से जल को ऊँचाई ५४३ योजन घटा देने पर (CNY) = योजन समुद्र जल और चन्द्रमा के बीच का ऊध्ये अन्तर प्राप्त हुआ । ८२४ 1991 $22 VVTC सूर्य से समुद्र जल का तिगन्तर :- जबकि समभूमि से एक योजन की ऊंचाई पर समुद्र तट से आगे योजन क्षेत्र प्राप्त होता है, तब ८०० योजन की ऊँचाई पर कितना क्षेत्र प्राप्त होगा ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर प्राप्त हुए। इन्हें १६ से अपवर्तित कर अवशेष ९५ और ५० का गुणा करने पर ४७५० योजन क्षेत्र प्राप्त हुआ। इनमें से समुद्र सम्बन्धी चार क्षेत्र ३३०६ घटा देने पर ४६) = ४४१६१६ योजन सूर्य और समुद्र जल का सिगम्बर है । (४५५० २०१७८ - Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : ०१ पतियंग्लोकाधिकार ६॥ सूर्य और समुद्र जल का ऊध्य मन्तर :- असा मोम बगुटक न मास्तर २४ में से ( ८८०-८०० ) योजन घटा देने पर (२४ -.)- योजन सूर्य का समुद्र जल से ऊऽवं अन्तर का प्रमाण है। अब प्रसङ्ग प्रा लबण समुद्र सम्बन्धी सूर्यों के समीप जल की ऊंचाई को साधते है :-लवण समुद्र में चार सूर्य है, जो एक एक परिधि में दो दो है । एक सूर्य के विमान का व्यास योजन है, बात: दो सूर्य विमानों के व्यास का प्रमाण ( ३)- योजन हुमा। लवण समुद्र का ध्यास २००... योजन है इसे " से समच्छेव करने पर ( २०००.०४%)- २३११००० योजन हुए। इसमें से ११ योजन घटाने पर ( २५६१%2२० -11) 48. योजन प्राप्त हुए। यह सम्पूर्ण ( दोनों) अन्सालों का प्रमाण है। जबकि दो अन्तरामों का प्रमाण १२११०४ योषन तब अन्तराल का क्या प्रमाण होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर ( २ } = १९५१ योजन हए। इनमें अपने ही भागहार का भाग देने पर ९९९९९३ योजन लवण समुद्रस्य एक सूर्य से दूसरे सूर्य के बीच का अन्तराल का प्रमाण है । अर्थात् दोनों परिधिवर्ती दो सूर्गों के बीच का अन्तराल है इसी को आषा करने पर (१९९२ )= L यो० लवण समुद्र सम्बन्धी सूर्य और वेदिकाओं का अन्तर है। अर्थात जम्बूद्वीप को वेदी से xHELP योजन दूर प्रषम परिधि का प्रथम सूर्य है और लवण समुद्र की वेधी से अभ्यन्तर की ओर YEER योजन पर दूमी परिधि का दूसरा सूर्य है । इस प्रकार जम्बूद्वोप की वेदी से NEELERY योजन दूर प्रथम सूर्य, योजन सूर्य बिम्ब, ९९९९९३ योजन सूर्य से सूर्य का अन्तर योजन सूर्य बिम्ब और RREE योजन हितोय सूर्य से लवण समुद्र की वेदी का अन्तर है, और इन सभी का योग करने पर २००.०० योजन लवण समुद्र का व्यास प्राप्त हो जाता है। सूर्य और वेविका के ४RIES योजन अग्गाल को 2 से समच्छेव करने पर ( x ) = 3 3 प्राप्त हुए। इनमें अवशेष अंश ३१ जोड़ देने से ( ३०४१३१+11)- 30 " योजन हुए। जबकि समुद्र तट से योजन आगे जाने पर योजन ऊंचा जल प्राप्त होता है, तब Bor" योजन दूर जाने पर जल की कितनी ऊँचाई प्राप्त होगी? इस प्रकार राशिक कर (1x1080) भागहार को भागहार से और अंश को मंश से गुणा करने पर "TR" योजन हुए। इनको अपने ही भागहार मे भाषित करने पर ८४२.18 योजन लवणसमुद्र सम्बन्धी सूर्यों के समीप जल की ऊंचाई का प्रमाण है। वेदी से HERE योजन दूर सूर्य को वीथी है, वहां सूर्य सो भूमित से ८.. मोअन कपम है और जल ८४२० योजन ऊपर है. अता यहाँ सूर्यादिकों का सवार जल के भीतर हो होता है । यथा : [ रुपया चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए ] ८19 Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० पुख एजसीको है। त्रिलोकसाथ इदानी पाताळातामन्वराचं निरूपयति कुन - ...2 011 . भाषा : ६०१ मज्झिमपरिधिचउत्थं विवरदं संषि मन्यमुदमद्धं । सयगुणपणचणीपणं तं सयछन्त्री सभाजिदे विरहं ।। १०२ ।। मध्यमपरिधिचतुर्थं विवर मुखं तदपि मध्यभुखमर्थं । शतगुण पंचधनहीचं तत् शतब विभाजिते विरह ॥९०३॥ मझिम लवण समुद्रस्य मध्यव्यासस्य ३ ल० स्थूलपरिषी हल० चतुभिर्भक्त सति दिग्गतपासाला मुखाग्मुप्रान्तक्षेत्र ध्यात २२५००० इव विगतमध्ये १ ल० घेत विध्यतपातालयमध्यान्तरं स्यात् १२५००० एतदेव विगतमुखं १०००० बेत् तयोः पातालयोमुखयोरन्तरं स्यात् २१५००० एतदेव विदिग्गतपातालमुख १००० होन २१४००० मा बेत विग्विस्तिपातालयोर्मुस Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा। ९०२ नरतिपंग्लोकाधिकार योरम्तरालक्षेत्र स्पात १७.०० । एतस्मिन् पुनः शतारिणतपश्च धनं १२५०० होनं करवा ४५०० एतस्मिन् परविशत्युत्तरशतेम १२६ मागीकृते दिग्विविगतपातालान्तरं पातालमुखान्तरं स्वाव ७५० ॥ ६.२॥ अब पातालों के अन्तरालों का निरूपण करते हैं : गायार्थ :-लवण समुद्र को मध्यम परिधि का चतुर्थ भाग ( 020 ) विशा सम्बन्धी एक पाताल के मुख के अन्त से दिशागत दूसरे पाताल के मुख के अन्त तक के क्षेत्र का प्रमाण होता है। इसमें से पातालों का मध्य व्यास घटा देने पर एक पाता पान के प्र. का अन्तर प्राप्त होता है । तथा इस मध्यम अन्तर के प्रमाण में से उसी पाताल का मुख ध्यास घटा देने पर मुख से मुख का अन्तर प्राप्त होता है. इस अन्तर के प्रयास में से विदित पातालों का मुख ध्यास घटाकर उसे आधा करने पर जो प्रमाण प्राप्त हो वह दिशा सम्बन्धो पातालों और विदिशा सम्बन्धी पाताओं के मुख का अन्तर प्राप्त होता है। इस अन्तर के प्रमाण में से सौगुणा पांच का धन अर्थात् बारह हजार पांच सो घटाकर अवशेष को एक सौ छन्धीस का भाग देने पर दिशा विदिशा सम्बन्धी पातालों के मुख से अन्तर दिगगत पातालों के मुख का अन्तर प्राप्त होता है । ९०२ ।। विशेषार्थ:-लवण समुद्र का मध्यम सूची ध्यास तीन लाख योजन है। इसकी स्थूल परिधि ६०.०० योजन की हुई. इसका चतुर्थ भाग अर्थात ( ५०००० )-२२५००० योजन एक दिशागत पाताल के मुख के अन्न से प्रारम्भ कर दिशागत द्वितीय पाताल के मुख के अन्त तक अन्तर है। इस मुखगत २२५०.. योजनों में से दिग्यत पातालों का मध्यम व्यास १००००० योजन घटा देने पर (२२५००० -१०००००)-१२५००० योजन अवशेष रहा । यही दिग्गत पातालों के मध्य का अन्तर है। उस दो लाख पच्चीस हजार में से दिशागत पातालों का मुख व्यास दश हजार योजन घटा देने पर ( २२५००० - १०००.)=२१९००० योजन पातालों के मुखों के बीच का अन्तर है। यथा: जन-दिसत 1. . दोशे दिमात . . . . २२५.यो. . . . . E : 15.." HE जलवायु .. .--- १२५०००dia -. -(.. अल-बायु वायु .. .. -२Reason - . - - Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ त्रिलोकसार पापा:०३ इस २१५००० योजन बस्तर प्रमाण में से विदिशा सम्बन्धी पातालों का मुख व्यास १०.० पोजन घटा कर अवशेष रहे-[ ..-. :.; ..कोजी आधा करने पर (२१४००० ) १०७००० योजन दिशागत और विदिशागत पातालों के मुखों का अन्तर है। इस १.४.० योजन अन्तर प्रमाण में से सौगुणा पाच का घन अर्थात् ५xxxk-१२५x १००-१२५०० योजन घटा देने पर (१०७... - १२५०.)=१४५०० योजन अवशेष पहे। इन्हें १२६ (दिशागत पाताल और विदिशागत पाताल के बीच में १२५ अन्तर दिगत पाताल हैं अतः १२७ पातालों के १२६ अन्तराल होते हैं) से भाजित करने पर दिशा विदिशा सम्बन्धी पातालों के बीच में जो पाताल हैं उनके मुस्खों के बीच का अन्तराल (१११° )=v५० योजन प्रमाण प्राप्त होता है। पथा: असर दिग्गत पाल -----७५०सी०-.... अन्तर दिसत अनन्तरं लवणोदकपरिपालकानां भुजगाना विमानसंख्यां स्थानत्रयाश्रयणाह बेलंधर भुजग विमाणाण सहस्साणि शहिरे सिहरे । अंते पावचरि अडवीसं बादालयं लवणे ।। ९०३ ।। बेलन्धरभुजगविमानानां सहस्राणि बास शिखरे। अन्ते द्वासप्ततिा मष्टविशतिः वाचत्वारिंशत् लवणे ।।६०३॥ बेले । जम्मूढीपापेक्षया लवणसमुद्रस्य बाह्य जिबरे अम्पन्तरे यासंख्य वेलंपाभुमानt विमानानि द्वासप्ततिसहस्राणि ७२००० अष्टाविशतिसहस्राणि २८०..वावारिशसहस्राणि १२०.. स्युः ।। ६०३ ॥ प्रब लवणोदक समुद्र के प्रतिपालक नागकुमार देवों के विमानों को संख्या को तीन स्थानों के मामय से कहते हैं __ गापाय :-लवण समुद्र के बाह्य में, शिखर में और अन्यन्तर में वेलन्धर जाति के नागकुमार देवों के विमानम मे बहत्तर हजार, अट्ठाईस हजार और भ्यालीस हजार है ॥ ६०३ ॥ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ९०४ से ९०८ नरतियंग्लोकाधिकार ६९३ विशेषार्थ:-जम्बूद्वीप की अपेक्षा लवण समुद्र के बाप में, बेलन्धर जाति के नायकुमार देवों के ७२.०० विमान हैं। शिखर मैं ( १६००. ऊंची जलराशि के ऊपर) २८०० और अभ्यन्त य में + निमा। अथ तविमानानामवस्थान विशेष तपासं चाह दुतडादो सत्सयं दुकोसमहियं च होइ सिहरादो। णयराणि हुगयणतले जोयणदसगुणसहस्सवासाणि ||९०५॥ द्वितटात सप्तशत द्विकोशापिकं च भवति शिखरात् । नमराणि हि गगनतले योजनदशगुणसहस्रन्यासानि ॥९०४॥ तुतडा । लवण समुस्योभयतदारसप्तशतयोजनानि ७०० तच्छिमारा विकोशाधिकामि सप्तशतयोजनानि ७.० को २ स्यबस्था गगनतले दशसहस्रयोजनम्याप्तानि १०००० मराणि सन्ति ।। ९.४॥ अब उन विमानों का अवस्थानविशेष और व्यास कहते हैं। गापार्थ -लवरण समुद्र के दोनों । बाह्य, अभ्यन्तर ) तटों से सात सात सौ योजन और शिखर से दो कोस अधिक सात सौ योजन ऊपर जाकर अर्थात् जल से ऊपर मात्र प्राकार में दस दस हजार ( प्रत्येक ) योजन व्यास वाले नगर हैं । दिग्यतपातालपाश्वस्थपर्वतान् तस्मिन्निवासिदेवादिकं च पाथाचतुष्टयेताह-- वरवाहपहुदीणं पासदुगे पव्वदा हु एक्केरका । पुज्ये कोत्थुमसेलो इय विदियो कोत्युमासो दु ॥९.५॥ तहि तण्णामवाणा दक्खिणदो उदगउदगवासणगा । इहसिवसिवदेवसुरा संखमहासंखगिरिदु पन्छिमदो ॥९०६।। तत्युदयुदयासमरा दगदगवासद्दिजुगलमुसरदो । लोहिदलोहिदभंका सहि वाणा विविहवण्णणया ॥९.७॥ धवला सहस्सामुग्गय मुवणगा पद्धघडसमायारा | उभयतडादो गया नादालमहस्समत्थंति ।। ९.८॥ . वडवामुखप्रम नीनां पाश्वंद्वये पर्वा हि एककाः । पूर्वस्यो कोस्तुभशैलः यह द्वितीया कोस्तुभातस्तु ॥६०५५) तत्र तन्नामद्विवानो दक्षिणद्वये उदाउदकवासनगौ। बह शिवशिवदेव सुरो घरमहापाली गिरिद्वयौ पश्चिम बये 180411 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ घिलोकसार पापा: E0 से 5 तत्रोदकोदवासामरी दकदकवासादियुगलमुत्तरदये। लोहितलोहिवाको लत्र बाणा विविषवर्णनकाः ॥ ६0 H धवलाः सहसमुद्गताः सर्वनगा: अघटसमाकाराः । उभयतटाल गत्वा वाचत्वारिंशत्सहस्रमासते ॥ ६०८ ।। गः | बात:ला सानां पर एककाः पर्वताः सन्ति । तत्र पूर्वदिकस्य. पातालस्य पूर्वरिशि कौस्तुभशैलः इह द्विीपस्तु कौस्तुभासाल्यः ॥ ९०५ ।। सहि । तयोरुपरि तमामानी सो व्यन्तरी स्तः, दक्षिण विक्रयपातालस्य पाश्वंद्वये उदकोवकपासास्यो नगी , अनयोपरि शिवशिवदेवात्यो सुगै स्तः । पश्चिमपातालल्य पावतये शशमहाशङ्खाल्यो गिरी स्a ut.६॥ तस्यु । तयोः पतयोपरि उनकोवयासाख्याबमरौ हतः । उत्तरपातालपारद्वये वकवकवासाख्याद्रियुगलमस्ति तयोपरि लोहितलोहिताको प्रमौ तः। ते सर्वे व्यस्तराः षिवनायुताः ॥ ६ ॥ धवला । ते सर्वे पर्षता घालवणाः जलायुपरि सहस्रपोजमोत्तुङ्गाः प्रघटसमाकाराः उभयतटावाचवारिसपोजनानि ४२००० गत्वा मासते ॥६०८॥ विगत पातालों के पार्श्वभागों में स्थित पर्वतों को और उन पर निवास करने वाले देवादिकों के बारे में चार गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाथार्ष:-वडवामुख आदि पातालों के दोनों पाव भागों में एक एक पर्वत हैं। पूर्वदिशा सम्बन्धी पाताल को पूर्व दिशा में कोस्तुभ पर्वत और उसी की पश्चिम दिशा में कोस्तुभास पर्वत हैं इन दोनों पर्वतों के ऊपर पर्वत समान नाम वाले देव रहते हैं । दक्षिणदिग्मत पाताल के दोनों पाव भागों में उदक और उदकवास पर्वत हैं, जिन पर शिव और शिवदेव नाम के देव रहते हैं। पश्चिम दिग्गत पालाल के दोनों पार भागों में शङ्ख और महाशङ्ख नाम के पर्वत हैं, जिनके ऊपर उदक और उदकवास नाम के देव रहते हैं, तथा उत्तर दिग्गत पाताल के दोनो पाश्वभागों में दक और दकवास नाम के युगल पर्वत हैं, जिनके ऊपर लोहित और लोहिताङ्क नाम के व्यतर देव रहते हैं। वे व्यस्तर देव नाना प्रकार की विभूति से सहित है, तथा वे सम्पूर्ण ( बाठों ) पर्वत धवल वणं वाले, जल से हजार योजन ऊँचे, अर्घघटाकार वाले तथा दोनों सटों से ४२००० योजन दूर जाकर स्थित हैं ॥ १०५ से १८ ॥ विशेषार्थ:-- इवामुख आदि पातालों के दोनों पार्वभागों में एक एक पर्वत है। वहाँ पूर्वदिशा सम्बन्धी वढवामुख पाताल की पूर्व दिशा में कौस्तुभ पवंत और पश्चिम दिशा में कौस्तुभास नाम का पर्वत है। इन दोनों पर्वतों पर कौस्तुभ और कौस्तुभास नामधारो ही व्यन्वर देव रहते हैं। दक्षिणविक सम्बन्धी कार पाताल की पूर्वदिशा में उदक और पविचम में उदकवास पर्वत हैं जिनके ऊपर शिव और शिवदेव नाम के देव निवास करते हैं। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा। ९.t-et. मरतिर्मग्लोकाधिकार पश्चिम दिग्गत पाताल नाम के पाताल की पूर्व दिशा में शङ्ख और पश्चिम दिशा में महाराज नाम के पर्वत है, जिन पर ऋम से उदक और उनकवास नाम के देव रहते हैं, तथा उत्तर दिगत : यूपकेशर नाम के पाताल की पूर्व दिशा में दक और पश्चिम दिशा में दकवास नाम के पवंस हैं, जिनके ऊपर कम से लोहित और लोहिताङ्क नाम के देव रहते हैं। ये सर्व व्यन्तय देव नाना प्रकार की विभूतियों से सहित हैं। सवं ही पर्वत श्वेत वर्ण और मधंघट सदृश आकार वाले हैं। जल से १००. योजन ऊपर है, तथा दोनों तटों से ४२००० योजन दूर जाकर स्थित है। लवणसमुद्राम्यात द्वीपान् तद्वपासादिकं च गाथाचतुष्टयेनाह तहदो पर टेन्निसमेनियवाला विदिस अंतरगा । मडमोलस ते दीवा बट्टा पूरक्खचंदक्खा ।। ९०९ ॥ तडता गत्वा तामात्रव्यास हि विदिक्षु अन्तरका।। अषोडश ते द्वीपा वृत्ताः सूर्यास्य चन्द्राख्या 100 सडदो। उभयताटातावमात्राणि योजनाति ४२००० गत्वा तावमात्रव्यासा ४२०००। विवियन्तरविक्षु च यथासंख्यं मन्नु षोडशसंख्या सूर्यास्यचन्द्रापास्ते डोपाः वृत्ताः स्युः ॥EDEI लवण समुद्र के अम्पन्तर द्वीपों और उनके व्यासाविक को चार गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाया:-जितने योजन ध्यास वाले द्वीप हैं दोनों तटों से उतने ही योजन दूर जाकर विदिशा और अन्तर दिशाओं में सूर्य नामक माठ ओय चन्द्र नामक सोलह वृत्ताकार द्वीप हैं ॥1॥ विशेषार्थ:-अभ्यन्तर सट से बाहर की ओर और बाह्य तट से भीतर की ओर ज्यालीस ध्यालीस हजार योजन दूर जाकर विदिशाओं और अन्तरदिशाओं में ४२००० योजन ध्यास वाने द्वीप हैं। वहीं चारों विदिशाओं के दोनों पाश्र्वभागों में पाठ सूर्य नाम के द्वीप है तथा अन्तय दिशाओं के दोनों पापवं भागों में सोलह चन्द्र नाम के द्वीप है। ये सर्व द्वीप गोल आकार वाले हैं। तडदो बारसहस्सं मंतूणिह तेत्तियुदयविस्थारो । गोदमदीयो चिट्ठदि वायव्य दिसम्हि बटुलभो ।।९१०॥ सटतो द्वादशसहस्र गस्वेह ताव दुदयविस्तारः । पौतमद्वीपा तिष्धति वायदिशि चतुलः ॥ ६१०॥ सराह लवणे प्रयतरसाद साबससहन्न १२००० योजनानि गरवा वाग्मानोडपः १२... तावमाविस्तारः १२०० वृत्ताकारोधायच्या निशि गौतमामो द्वीपस्तिति ॥ ६१. ॥ गाथा:-जितने योजन विस्तार और ऊँचाई वाला दीप है, लवरण समुद्र के मम्यन्त र तट Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गापा। ९११-१२-१३ से बाहर की ओर उतने ही योजन दूर जाकर वायव्य दिशा में गोल आकार वाला गौतम नाम का द्वीप है ॥११॥ विशेषा:-क्षण समुद्र के अभ्यन्तर तट से बाहय की पोर वायव्य दिशा में १२००० योजन दूर जाकर १२००० योजन ऊँचा और १२००० योजन चौड़ा गोल आकार वाला पोतम नाम का द्वीप है। पहुवण्णणपासादा वणवेदीसहिय तेसु दीयेसु । तस्सामी पेलंधरणामा सगदीवणामा ते || ९११ ।। बहुवर्णनप्रासादाः वनवेदोसहितेषु तेषु द्वीपेषु । तत्स्वामिनो बेलन्धरनागाः स्वकद्वोपनामानरुते ।। ९११ ॥ बह। बनविकाभिः सहितेषु तेषु टोपेषु सर्वेषु बहुवर्णमोपेता प्रासावा: सन्ति । तदीपस्वामिनो ये बेलपरमागास्ते स्वकीयस्वकीयद्वीपमामानः ॥ ११ ॥ गामार्ग:-4 सब द्वीर बनी और वेदिकाओं से युक्त हैं, उनमें महान विभूति युक्त प्रासाद हैं, उन द्वीपों के स्वामी अपने अपने द्वीप सदृश नाम वाले वेलन्धर जाति के नागकुमार देव हैं ।। १११॥ मागहतिदेवदीवविदयं संखेनजोयणं गचा । तीरादो दक्षिणदो उचरभागेवि होदिति ॥ ९१२ ॥ मागपत्रिदेवढीपत्रितयं संख्यानयोजनं गत्वा। तीस दक्षियातः उत्तरभागेऽपि भवतीति ॥ ९१२ ।। मागह । भरतक्षेत्र दक्षिरगतस्तोरात संख्यातयोगमानि गरवा मागषवरतनुप्रभाताख्यामराणा प्रमाण देवानां तत्तन्नामद्वीपत्रममस्ति, ऐरावतोसम्भागेऽपि लया द्वीपत्रयमस्ति ॥ १२ ॥ पाथाय :-समुद्र के दक्षिण सट से संख्यात योजन आगे जाकर मागध आदि तीन देव हैं और इन्हीं नाम के पारी तीन द्वीप है। उत्तर भाग अर्थात् ऐरावत क्षेत्र में भी तीन द्वीप हैं ॥११॥ विशेषाय:-भरत क्षेत्र को गङ्गा सिन्धु नदियों के प्रवेशद्वार और एक जम्बूद्वीप का वाय इन तीनों दारों के सम्मुख संख्यात योजन आगे जाकर मागष, वरतनु मोर प्रभास नामक तीन देवों के इसी नाम वाले तीन द्वीप हैं। इसी प्रकार उत्तर भाग अर्थात् ऐरावत क्षेत्र में मा तीन द्वीप हैं। साम्प्रतं लवणकालोदकसमुद्रान्तस्थितान् षण्णवतिकुमानुष्येद्वीपानाह दिसिविदिसंतरगा हिमरजताचलसिहरिरजदपणिधिगया। लवणदुगे पल्लठिदी कुमणुसदीवा हु छण्णउदी ।। ९१३ ।। Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ पाषा:१३ नपतियंग्लोकाधिकार दिशाविदिशान्तरकाः हिमरजताचलशिखरिरजतणधियताः। लवणद्विक पल्यस्थितयः कुमनुष्यतीपा हि षण्णवतिः ॥ ११ ॥ विसि | लवरण समुद्रस्य विक्ष चरवारो ४ विदिक्ष चत्वारो ४ प्रातरियो - हिमरमशिखरिरजतपर्वतानामुभयप्रान्सप्राणषिगतो प्रत्येकं वो को पति मिलिवानो ८ इति सर्वेऽपि मिलिरवा सतासमुदस्याम्पतरतटे पविशतिः २४ बाह्यतटेऽपि चतुविशतिः २४ मिलित्वाचवारिशत ४८ | एवं कालाकोभयतटेप्चस्वारिंशत् ४८ इति सर्वेऽपि मलित्वा घणवतिसंख्याप्रमिता: ९६ कुमनुष्यतोपाः पति। तत्रस्था मनुष्याः पश्यसिपत्तिका भवन्ति ॥ ३॥ ___ अब लवण और कालोदक समुद्रों के अभ्यन्तर तटों पर स्थित अमानुषों के ९६ दीपों को कहते हैं : गायर्य:-लवण एवं कालोदक समुद्र को दिशाबों, विदिशामों एवं अन्तर दिशाओं में तथा हिमवन कुलाचल, भरत क्षेत्र सम्बन्धी विजयाष, शिनरी कुलाचल और ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी विजमार्ष पर्वत के निकट ९६ कुमानुष्य द्वीप हैं जिनमें रहने वाले मनुष्य एक पत्य को आयु वाने होते हैं ।। ६१३ ॥ __विशेषा:-लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट की विशाओं में चाय कुमानुष द्वीप हैं, विदिशाओं में चार मोर आठ अन्तर दिशाओं में आठ द्वीप है तथा हिमवन् कुलाचल, भरत सम्बन्धी विषयावं, शिखरी कुलाचल और ऐरावत सम्बन्धी विजयाचं इन चारों पर्वतों के दोनों अन्तिम भागों के निकट एक एक अर्थात् माठ द्वीप है। इस प्रकार छवण समुद्र के अभ्यन्तर तट के कुल द्वीपों की संख्या (४+४++-)=२४ है। इस के बाह्य तट पर भी २४ द्वीप हैं अतः लदरा समुद्र सम्बन्धी ४८ द्वीप हए। इसी प्रकार कालोदक समुद्र के दोनों तटों के ४८ हैं अतः कुल कुमानुष दोपों का प्रमाण (४८+ ४८ )=१६ है। यथा : [कृपया पिच मगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलोकसा छपण समुद्रगत कुभोग भूमियों का विषण : AN पिमतनपा--- मीरजवार--- काचोदक समुद्र में भी इसी प्रकार जानना चाहिए । उममवटासैषामन्तर विस्तारं च क्रमेणाह दसगुण पण्णं पण्णं पणवणं सद्विसपाहिम हिगम्म | सय पणवणं पण्णं पणुवीसं वित्यहा कमसो || ९१४ ।। पधगुणं पञ्चाशत् पञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् षष्ठिरुदधिमधिगम्य । पर पनपत्राशत् पलाशय पविषति। विस्तार क्रमशः ॥९॥ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा:११५ मरतियंग्लोकाधिकार ६६ दस । विगतीपा गुणपक्षाश ५.. योजनानि गत्वा विदिग्मता शरिणतपत्राय ५०० योनमानि गरवा पन्तरविणता पशगुरिणतपञ्चपनामा ५५० छोमनानि गत्वा पिरिणिधिपताश्च यशगुणितष्टि १०० योजनानि गत्वा सिन्ति । तेषां विस्तार कमेण पतयोजनानि १- पश्चपञ्चाश ५५ खोबमानि पश्वाशधोबनानि ५० पञ्चविंशतियोजनानि २५ भवन्ति । EUR दोनों तटों से उन द्वीपों का अन्तर और उनका (दोपों का विस्तार क्रम पूर्वक गाथा:-वे द्वीप समुद्र तट से जल को और यया क्रम व गुरणा पचास ( पोष सौ), दवा गुणा पचास ( ५.०), दश गुणा पचपन ( ५५० ) और दशगुणा साठ (20) योजन भीतर जाकर हैं। उन द्वीपों का विस्तार भी कम से १. योजन, पचपन मोगन, पचास योजन और पच्चोस योजन प्रमाण है ।। ६१४॥ विशेषार्ग:--दोनों समुद्रों के अभ्यन्तर तटों से बाहर की मोर और बाह्यतटों मे भीतर की और दिशा सम्बन्धो, १.., ... योजन विस्तार वाले ८ द्वीप ५०० योजन दूर ( जल को ओर ) माकन हैं । विदिशा सम्बन्धो ५५, ४५ योजन विस्तार वाले द्वीप ५०० योजन दूर हैं। अन्तच विशा सम्बन्धी, ५०, ५० योजन विस्तार वाले १६ द्वीप ५५० योजन दूर है और पर्वतों के निकटवर्ती, २५, २५ योजन विस्तार वाले १६ द्वीप ६०० योजन दूर जाकर स्थित है। तेषो द्वीपानां जलाध पर्यषरचोदयमाह-- इगिममधे पणणउदिमतुंगो मोलगुणमुवरि कि पयदे । दुगजोगे दीउदमो सदिया जोयणुग्गया जलदो ।९१५॥ एकगमने पश्चनवतितुङ्गः षोडशगुणमुपरि कि प्रकृते । द्विकयोगे दीपोदयः सवेदिका योजनोद्गता जलतः ॥ १५ ॥ इगि । भूमी २ला प्रषोमुखं १००.० शेषयित्वा १६....पोंकृत्य १५००० परवातावधानो १५... सहनोदये १०.. एकपोननहानी रियानुबय इति सम्पास्यापतिते एकपोजनगमने जलोरयः प्यात एवं घरमा एकयोजनगमने १ यद्यपोजनपचनवतितममागः न तुङ्गः स्यात् तवा पशताबि योजनगमने ५०० । ५०० । ५५० । ६०० किमान तुङ्गा पति सम्पारय भस्वा शेधे सर्वत्र पच्चभिरपतिते सति । पञ्चशतारियोजनगते तत्र साषोडलोवयः स्पान ५ो । ५ । ५ शेष ।मे । इस उपरि बलोदप पानीयते-बोडशसहस्रोदये १६००० एतावतानो ९५००० एकयोजनोबये किमिति सम्पास्यापतिले एकयोजनोपयहानि: स्पात पुस्मा एमावरक्षेत्रगतो. पोकयोजन जलोरपस्ता एकपो जनगमने किमिति सम्पातिते लन्ध एकयोगनगमने उपरि जलोत्यः Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा . ११५ स्यात एकयोजमगती पचनवत्येकमागः षोडशगुरिणतः परि प्रलोक्याचे प्रकृतपनशतादि. योवनगमने ५०० । ५०० । ५५० । ६० किमिति सम्पास्य सर्वत्र पञ्चभिरपवर्त्य ! | * | TO भक्त पञ्चशतावियोजनगमने तत्तबुपरिजलोदयः स्यात् ८४ शे । ८४ को २ शे है। १०१ 0 प्रप अपरिमजलोषपयोोंगे जलमिततत्तद्वीपोरय: जलापरि ते दीपाः सवेविका एकपोजनोवयाः तदेकयोमनमपि जलगतोद मिलिते सर्वोदयः स्यात् । लब्धं शे यो । शे । १०८ को एवमुक्त विषाने सर्व कौस्तुभादिष्वपि पम् ॥ ११५ । उन द्वीपों का जल से ऊपर और नीचे का उदय ( ऊंचाई ) कहते हैं : जापार्थ;-( तट से लवण समुद्र में ) एक योजन प्रवेश करने पर जल की गहराई र योजन और सोलह से गुणित अर्थात् योजन ऊपर ऊचाई है, तो प्रकृत दूर जाने पर कितनी होगी ? गहराई और ऊंचाई दोनों का योग दोप का उदय है तथा वेदिका सहित द्वीप जल से एक योजन ऊंचा है ।। १५ ॥ विशेषार्थ:-लवण समुद्र के जल का व्यास ( भूमि तल पर ) दो लाख योजन है, यही भूमि है तथा समभूमि से नीचे की ओर कम से ह्रास होते हए जहां एक हजार योजन को गहराई है वह। जल का व्यास दश हजार योजन है यही उसका मुख है। भूमि में से मुख घटाने पर (२००००।१...]= १६०००० योजन अवशेष रहे। एक पाश्र्व ग्रहण करने के लिए इसे आधा किया जिसका प्रमाण (१५१०००)-५००० योजन प्राप्त हुआ। जबकि जल मास में ६५००० योजन की हानि होती है, नत्र ( नीचे से ) जल को ऊँचाई १००० योजन है, तो १ योजन की हानि पर जल की ऊंचाई कितनी होगो ? इस प्रकार राशिक करने पर (2X' ) योजन जल को ऊंचाई प्राप्त हुई। जब कि समुद्र तट से १ योजन भोलर जाने पर जल की ऊंचाई योजन प्राप्त होती है. सब ५०० योजन ( दिशा सम्बन्धी ), ५०० योजन ( विदिशा सम्बन्धी), ५५० योजन ( अन्तर दिशा सम्बन्धी ) और ६.० योजन ( पर्वतनिकटवर्ती ) दूर जाने पर जल की कितनी गहराई प्राप्त होगी? इस प्रकार धारों पैराशिक मित्र भित्र करने पर क्रम से ४१, , और १० योजन प्राप्त होता है। इन्हें पांच से अपवर्तित कर अपने अपने भागहार का भाग वेने पर कम से वहाँ वहाँ जल की ऊंचाई ५१ योजन, ५१६ योजन, ५३५ यो० और १ योषन प्राप्त होता है। अर्थात दिशा एवं विदिशा सम्बन्धी आठ, आठ द्वीप समुद्र तट स ५००, ५०० योजन भीतर जाकर हैं और वहाँ नीचे से जल की ऊँचाई ५ वीर ५२ योजन है। इसी प्रकार अन्तर दिशा सम्बन्धी दीप . योजन दुर हैं और वहां जल की ऊंचाई ५५५ योजन है, तथा पर्वतों के निकटवर्ती द्वीप समुद्र वट से ६०० योजन दूर हैं और वहाँ जल को 'चाई ६५ पोजन है। इस कचाई का अयं गहराई है। अर्थात् समुद्र तट से ५०० योजन दूर जाने पर समुद्र की गहराई ५५ योजन प्राप्त होती है। Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ९१५ नरतिर्मग्लोकाधिकार ७०१ अब समभूमि से ऊपर जल की ऊंचाई प्राप्त करने के लिए कहते हैं :-समभूमि पर मालव्याम दो लाख योजन है, यह भूमि है, तथा सोलह हजार की ऊंचाई पर जल का व्यास दश हजार योजन है यह मुख है । भूमि में से मुखपटा कर बाधा करने पर ( २०००००-१०००=१९०.००२) १५००० योजन की हानि प्राप्त हुई । समभूमि से जाल १६००० योजन ऊपर है । जब कि जल की १६.०. अचाई है तब । १००० जल व्यास की हानि होती है, तो जल को एक योजन को ऊंचाई पर कितती हानि होगी ? इस प्रकार राशिक करने पर (12)- योजन जल व्यास की हानि प्राप्त हुई। ___ जबकि तट से+योजन जाने पर जल की ऊंचाई १ योजन प्राप्त होती है, तब एक योजन दूर बाने पर जल की कितनी चाई प्राप्त होगी। इस प्रकार के श्रराशिक से २५ योजन जल की ऊंचाई एक योजन पर प्राप्त होती है। जबकि तट से एक योजन की दूरी पर जल की ऊचाईयोजन है, सब कम से ५०० योजन, ५०० योजन, ५५. योनन ओर ६०० योजनों की दूरी पर जल की ऊंचाई क्या प्राप्त होगी। इस प्रकार चार राशिक करने पर कम में ४५००, ५००, ११४५५० और १४६०० योजन प्राप्त हुए। इन्हें ५ से अपवर्तन करने पर 12°, १०, ११० और १२० हुए । इन्हें अपने भागहार से भाजित करने से प्रत्येक स्थान पर जल को चाई का प्रमाण प्राप्त होता है। यथा-जही दिशा और विदिशा सम्बन्धी द्वीप हैं वहाँ अल की ऊंचाई समभूमि से 12, ४ योजन है मग्तर दिशा सम्बन्धी द्वीप जहाँ है वहाँ के जल की ऊँचाई १२२ योजन है और पर्वतों के निकटवर्ती द्वीप जहा है वहाँ के जल की ऊंचाई १.१ योजन प्रमाण है। ___ इस प्रकार समभूमि से नीचे जल की गहराई और समभूमि से जल की ऊंचाई इन दोनों का योग कर देने पर जो जल के अवगाह का प्रमाण प्रात होता है वही उन इन द्वीपों की ऊंचाई का प्रमाण जानना । प्रत्येक द्वीपों की वेदी एक योजन की है अतः वेदी महित द्वीप जल से एक योजन ऊंचे हैं। यथा:-जहाँ जहाँ द्वीप स्थित हैं, वहाँ वहाँ के जल की गहराई + अचाई = अवगाह + वेदिका - वेदी सहित बोपों की ऊंचाई। १. ५० + ८४ - ८ + - १० योजन दिशा सम्बन्धो । २. + ८४ - ८ + १ = ६०५ यो• विदिशा सम्बन्धी। ३. ५५५ + ६२३३ = ८१६ + १ - Ravi * अन्तरदिशा » । ४. ६१ + १०१९- १०४५१ + १ = १०८२-पर्वतों के निकटवर्ती द्वीपों को ऊँचाई। इसी उपयुक्त विधान द्वारा कौस्तुभ आदि पर्वतों ( द्वीपों ) की ऊँचाई भी ज्ञातव्य है। Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाथ इदानीं तेषु भोगभूमिषु उत्पन्नानां मनुष्याणामाकृति तत्स्थानं गाथापचकेनाह— एगुरुगा लांगलिगा वेसणया भासमा य पुष्वादी । सक्कुलिकण्णा कण्णप्पावरणा लंबकण्ण ससकण्णा || ६१६ || हिमाण हिवराहमुहा धयपिवदणा | झमकालमे सगोमुद्दमेवमुद्दा विज्जुदध्वनिमत्रणा ||९१७ ॥ दिसादी सक्कुलिकण्णादी सिंहवदणणरपमुद्दा | एगुरुगसक्कु लिसुदिपहूदीणं अंतरे णेया ।। ९१८ ॥ गिरिमत्थयत्थदीवा पुल्चा सगणगस्स पुष्बदिसि । पच्छा मणिदा पच्छिमभागे अत्यंति ते कमसो ॥ ११९ ॥ एगोरुगा गुहाए वसंति जैमंति मिङ्कतरभट्टि । सेसr aedearer कप्पद मदिष्णफलभोजी ।। ९२० ।। एकोहका : लांगूलिकाः वैषाणिकाः प्रभाषकाः च पूर्वादिषु । शकुलकर्णाः कर्णप्रावरणाः कम्बकर्णाः शशकः ।। १६ ।। सिहाश्वश्व महिषवाहमुखाः व्याघधूक कपिवदनाः । झषकालमेषगोमुखमेवमुखाः विद्य ुद्दपंणेभवदनाः ।। ६१७ ॥ अग्निदिशादिषु शष्कुलिक दियः सिंहवदननरप्रमुखाः । एको शष्कुलिश्रतिप्रभृतीनां अन्तरे शेषा: ॥ ९१८ ॥ गिरिमलकस्थाद्वीपाः पूर्वोक्ता स्वकनयस्म पूर्वदिशि । पश्चात् भरिणताः पश्चिमभागे आसते ते क्रमशः ॥ ६१६ ।। एstoar गुहायां वसंत जेमति मृष्टतरमृत्तिको । शेषाः तरुतलवासाः कल्पद्र मदत्तफलभोजिनः ॥ १२० ॥ एगुद | एकका: लांगलिका: पुच्छवन्तः इत्यर्थः नैषालिकाः शृङ्गिणः इस्पर्थः प्रभावका प्रभावरणाः सूकाः इत्यर्थः एते यप्पासंरूपं पूर्णादिविधु तिन्ति । शष्कुलिकरण: करप्रावरणाः सम्बरणः शशकः एते विदितु तिष्ठति ॥ १६ ॥ ७०२ गाथा : ९१६ से ९२० सिंह सिंहमुद्रा: प्रश्वमुखाः शुकमुखा: महिषमुखाः वराहमुखाः यामुलाः घुकवदनाः कपिवदनाः इत्य झषमुखाः कालमुखाः मेषमुखाः गोमुखाः मेघमुखाः विद्युद्वदनाः दर्पणवदनाः भवमा: स्यट्टौ ॥ १७ ॥ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमा : ११६ से १५० भरतियरलोकाधिकार पग्यि । मग्निदिशाविषु विविध शकुलिकणावयश्चरवारः सन्ति । सिंहबपनारप्रमुखा हो एकोतकशकुलिश्रुतिप्रभृतोमामन्तरे तिष्ठन्ति इति शेया: n६१८ ॥ गिरि। हिमरजतशिखरिणतालाव्यनिरिमस्तस्यद्वीपरवाना झषमुलारियुगलानां पाये पूर्वोक्ताः कमेण स्वकीयस्वतीयनगस्य पूर्वविन तिम्ति । पश्चाइ मरिणतात पन्नास्य परिकममाणे पामते । एगोवगा। तत्रापि एकोषकाः गुहायों सम्ति मृत मृतिका मन्ति । कोषा:समें ततलवासाः कल्पा महत्तफलमोजिनो भवति ॥ २० ॥ अब कुभोगभूमि में उत्पन्न मनुष्यों को आकृति और उनके रहने के स्थान पाच माया दास गावार्थ:-लवण समुद्र की पूर्वादि दिशाओं के द्वीपों में कम से एकोक, लांगुलिक, वैषाणिक और अभाषक ये चार प्रकार के मनुष्य रहते हैं तथा [ चारों विदिशाओं में कम से ] शालिकर्ण, करप्रावरण. लम्ब कर्ण और पाशकणं ये चार प्रकार के मनुष्य बहते हैं । सिंह, अश्व, श्वान, भंसा तथा वराह मुख वाले तथा व्याघ्र, घुग्घु और बन्दर सदृश मुख वाले शोर मष मुख, काल मुख, मेषमुन, पोमुख, मेघमुख, विद्य त्मुख, दर्पणमुन और हम मुख वाले मानुष पहते हैं। इनमें से आग्नेयादि विदिशाओं में शुष्कुलिकरणं आदि तथा एकोहक और शकुलिकर्ण थादि के अन्तरालों में सिंहवयन हैं प्रमुख जिनमें ऐसे आठ प्रकार के मनुष्य रहते हैं। पर्वत के मस्तक ऊपर स्थित दीपों में सषमख मादि युपलों में से जिनका नाम पहिले आता है वे चाय अपने पर्वत के पूर्वभाग में और जिनका नाम पीछे जाता है वे पश्चिम भाग में रहते हैं। ___एकोरुक आदि कुमनुष्य गुकानों में रहते हैं और वहाँ को अत्यन्त मीठी मिट्टी का भोजन करते हैं; शेष मानुष वृक्षों के नीचे रहते हैं और कल्पवृक्षों द्वारा दिए हुए फलों का भोजन करते हैं ॥ ११६ से १२०॥ विषा:-सवण समुद्र की पूर्व दिशागत द्रोपों में एकोरुक-एक जङ्घा वाले, दक्षिण में सांगलिक-पूछवाले, पश्चिम में वैषारिणक-सींग वाले और उत्तर दिशा में अभाषक अर्थात् गूगे कुमनुष्य पहते हैं। ये चारों प्रकार के कुमानुष गुफाओं में निवास करते हैं और वहाँ की अत्यन्त मीठी मिट्टी का भोजन करते हैं । तथा पाग्नेय में शषकुलि कर्ण-शकुलि सदृश कर्ण वाले, नैऋत्य में कर्ण प्रावरणामिनके कान वस्त्र में सरण शरीर का आच्छादन आदि करते हैं, वायत्य में लम्बकर्ण - लम्बे करणंवाले बोर ईशान विदिशा में शशकर्ण-सुसा सदृश कर्ण वाले कुमानुष रहते हैं। चार दिशाओं में रहने वाले एकोषक आदि और चारों विदिशाओं में रहने वाले शकुलिकर्ण आदि माठ प्रकार के मनुष्यों के आठ अन्तरालों में कम से सिंहमुख, अश्वमुख, श्यानमुख, भैसामुख, सूकरमुख, ज्याप्रमुख घुग्घूख और Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ त्रिलोकसार पाथा ९९१ चन्दर मुख मनुष्य रहते हैं तथा हिमवत् कुलाचल, भरत वैद्यालय, शिखरी कुलाचल और ऐरावतवैशालय इन चारों के मस्तक पर स्थित द्वीपों में अर्थात पर्वतों की दिशा में भीनमुख, मेषमुख, मेघमुख और दर्पणमुख मनुष्य रहते हैं। पर्वतों की पश्चिम दिशा में कालमुख, गोमुख, विद्युत्मुख और हाथीमुख मनुष्य पहले हैं। उपर्युक्त सभी मनुष्य वृक्षों के नीचे निवास करते हैं और कल्पवृक्षों द्वारा प्रदत फलों का भोजन करते हैं । यहाँ जन्मादिक की सर्व प्रवृत्ति जघन्य भोगभूमि सहश है। उपयुक्त सभी मनुष्यों का जो कर्ण एवं मुख आदि का विशेष आकार कहा है उसके अतिरिक्त उनका सम्पूर्ण आकार मनुष्य ही है। तेषां षण्णवतिद्वीपानां संरूपाया विशेषविवरणमाह चडवीसं चडवीसं लक्षणदुतीरे कालदुतडेवि । दीवा तावदियंतरवासा कुणरा वि तष्णामा ।। ९२१ ।। चतुविशं चतुर्विंश लवाद्वितीरयोः कालद्वयोरपि । दीपाः तावदन्तरण्यासाः कुनरा अपि तत्रामानः ॥ ६२१. ॥ भजवी । लवण समुद्रस्य द्वयोरसोरयोः चतुविशतिः चतुविशतिहार कालोवकसमुहस्य पोस्टयोरपि पालटावन्तराणि व्यासाच लवर समुद्र बतावतः । राजस्थाः कुन प्रपि तद्वीपसमानमामानः स्युः ६२१ ॥ उन १६ द्वीपों की संख्या का विशेष विवरण कहते हैं :-- गाथायें :- लवण समुद्र के दोनों तटों पर चौबीस चौबीस तथा कालोदक समुद्र के दोनों तटों पर भी चौबीस चोबीस द्वीप है। यहाँ कालोदक सम्बन्धी द्वीपों का अन्तर और व्यास उतना ही है जितना लवण समुद्र गत द्वीपों का है। उन सभी द्वीपों में स्थित कुमनुष्यों के नाम अपने अपने द्वीप सहा ही है ।। ६२१ ॥ विशेषार्थ :- लवण समुद्र के बाह्याभ्यन्तर दोनों तटों पर चोबीस चौबीस और कालोदक समुद्र के दोनों तटों पर भी चौबीस चौबीस द्वीप हैं। इनमें दिशा, विदिशा और अन्तर दिशा सम्बन्धी हो तो सर्वत्र अर्थात् चारों तटों की दिशाओं, विदिशाओं एवं अन्तर दिशाओं में ही हैं, किन्तु पर्वत सम्बन्धी द्वीप लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट पर तो बम्बूद्वीप सम्बन्धी पर्वतों के दोनों अन्तिम भागों में स्थित है तथा लवण समुद्र के बाह्य तट पर और कालोदक के अम्पस्तर तट पर घातकी खन्ड सम्बन्धी पर्वतों के एक एक अन्तिम भाग में ही हैं । (देखिए चित्रण ग० मं० १३) । तटों से द्वीपों का अन्तराल एवं द्वीपों का व्यास जितना लवण समुद्र में कहा था उतना हो कालोद मनुष्यों के नाम अपने अपने द्वीपों के नाम सदा ही है । में है। उन टोपों में रहने वाले Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबा : १२२ से २४ नपतियेोकाधिकार तेषु कु मनुष्यद्वीपेषु उत्पद्यमानान् गाथाश्रमेणाह— जिणलिंगे मायावी जोइसमंतोषजीवि घणकंखा | अगउग्वण्णजुदा करंति जे पर विवाहबि ।। ९२१ ।। दंसणविराहया जे दोसं णालोचयंति दूसणमा । पंचग्गतवा मिच्छा मोणं परिहरिथ जंति ।। ९२३ ।। दुध्याव अमुचिद्गपुप्फबई जाइसंकरादीदि । कदाणा वि व जीवा कुणरेसु जायते ।। ९२४ ॥ जिन लिङ्ग मायाविनो ज्योतिमंस्त्रोपजीविनः घनकांक्षिणः । अतिगाव संज्ञायुताः कुर्वन्ति ये परविवाहमपि ॥ ६२२ ।। दर्शन विराधका ये दोषं नालोचयन्ति दूषणका । । पश्चाग्नितपसः मिथ्याः परिहृत्य भूते ।। २७ ।। दुर्भावाशुचित पुष्पवतीजादिसङ्करादिभिः । कृतदाना अपि कुपात्रेषु जीवाः कुन रेषु जायन्ते ||२४| yok जिल | जिनलिङ्ग मायाविनो जिनलिङ्ग ज्योतिर्मवैखायुपजीविनो बिमलिङ्ग धनकशिरण जिन लिङ्ग ऋद्धियशः सातगारवयुक्ता: जिनलगे माहार भयमैथुन परिप्रहसंयुक्ताः ये जिनलगे पर विवाहं कुर्वन्सि ।। ६२२ ।। सरप ये जिनलगे दर्शनविराधका ये व बिनलगे स्वदोषं मालोचयन्ति मे जिन लिगे परका: ये मिध्यादृय: पश्चातपसः ये मौनं परिहृत्य भुजते ॥ ६२३ ॥ भाष । दुर्भावनाच्या सूतकेन पुष्पवती संसर्गेण जातिसङ्करादिभिश्व ये कृतवानाः ये कुपात्रषु च कृतवानास्ते जोवाः कुनरेषु जायते ॥ ६२४ ॥ कुमनुष्य द्वीपों में कोल उत्पन्न होते हैं ? सो तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं गाथार्थ :- जो जीव जिनलिङ्ग धारणकर मायावादी करते हैं, ज्योतिष एवं मन्त्रादि विद्याओं द्वारा आयोजिका करते हैं, घन के इच्छुक हैं, सीन गारव एवं चार संज्ञाओं से युक्त हैं, गृहस्थों के विवाह आदि करते हैं, सम्यग्दर्शन के विराधक हैं, अपने दोषों की आलोचना नहीं करते, दूसरों को दोष लगाते हैं, जो मिध्यादृष्टि पञ्चानि तप तपते हैं, मौन छोड़ कर आहार करते हैं तथा जो दुर्भावना, अपवित्रता, सूतक आदि से एवं पुष्पवती स्त्री के स्पर्श से युक्त तथा जातिसङ्कर आदि दोषों से सहित होते हुए भी दान देते हैं और जो कुपात्रों को दान देते हैं वे जीव मरकर कुमनुष्यों में उत्पन्न होते हैं ।। ३२२ - ६२४ ॥ ८६ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ विक्षोकसाब पाथा । ९२२ से १२४ विशेषार्थ:-जो जीव जिनलिङ्ग धारणकर मायाचारी करते हैं। जिनलिप में ज्योतिष एवं मन्त्र आदि विद्याओं का प्रयोग र आजीविका ( आहारादि को) प्राप्त करते हैं । जिनविङ्गधारण कर धन के इच्छुक हैं । ऋद्धि यश और सात गारव से युक्त हैं। जिनलिङ्ग में आहार, भय, मथुन और परिग्रह संज्ञा से युक्त हैं तथा जो जिनलिंग धारण कर दूसरों के विवाह करते हैं (करवाते हैं)। जो जिनलिङ्ग में सम्यग्दर्शन के विराधक है । जो जिनलिन धारण कर अपने दोषों की आलोचना नहीं करते तथा जो जिनलिङ्गी होकर दूसरों को दूषण लगाते हैं । जो मिथ्याष्टि पश्चाग्नि तप तपते हैं तथा जो मौन छोड़ कर भोजन करते हैं। जो दुर्भावना मे, अपवित्रता मे, मृतकादि के सूतक से, पुष्पवनी के संसर्ग मे तथा विपरीत' कुलों का मिलना है लक्षण जिसका ऐसे जातिसंकर मादि दोषों से संयुक्त होते हुए भी दान देते हैं और जो कुपात्रों को दान देते हैं वे सभी जीव कुमनुष्यों में उत्पन्न होते हैं।। इसी विषय का प्रतिपादन तिलोय पणतो के चतुर्थ महाधिकार में निम्न प्रकार से किया गया है :-- अविदा लेक कुमार निजि कमाई। सम्मत्ततवजुवाणं जे रिणगंथारण दूपणा देति ।। २५०३ ।। जे मायाचाररदा संजमतवजोगवजिना पाया । इड्डिरस सादगारवगरवा जे मोहमायणा ॥२५०४।। यूसुहमादिचार जे पालोचंति गुरुजण समावे। सज्झाय वदणाओ जे गुरुसहिदा ण कुवंति ।। २५०५।। जे छरिय मुगिसंघ वसंति एकाकिणो दुराचारा। जे कोहेण य कलह सम्वेसितो पकुठनंति ॥२५०६।।। आहारसमणसत्ता लोइकसाए जणिद मोहा जे । धरिऊरण जिण लिंग पावं कुवंति ने पोरं ॥२५०८।। जे कुवंति ण भत्ति अरहताणं तहेव साहूण । ज वच्छल्ल विहीणा चाउचमम्मि संघम्मि ॥२५०८॥ जे गेण्हंति सुवाप्पहदि जिलिंग धारिणो हिट्ठा । कण्णाविवाहपदि संजदरूपेण जे पकुम्वति ॥१५॥ जे भुजति विहीणा मोणेश घोरपाव संलग्ना । अण अगद रुव यादो सम्मत जे विणासंति ॥२॥१०॥ ते कालबसं पत्ता फलेए पावाणविसम पाकाणं । उपज्जन्ति कुरुवा कुपाणुमा चलहि दोसु॥२५१९॥ गाणार्थ :-जो लोग तीव अभिमान के पवित होकर सम्यारव और तप से युक्त साधुओं का फिश्चित भी अपमान करते हैं; जो दिगम्बर साघुमों को निन्दा करते हैं; जो पापी संयम, लपकविमायोग से रहित होकर मागचार में रत रहते हैं, जो ऋद्धि, रस और सात इन तीन गारवों से महान होते हुए मोह को प्राम है, जो स्थल व सूक्ष्म दोषों की आलोचना गुरुजनों के समीप नहीं करते हैं, जो गुरु के साथ स्वाध्याय व वन्दना कर्म को नहीं करते हैं; जो दुराचारी मुनि संघ को छोड़ कर एकाकी नि. सारहिन्यो . टोडरमल जी, पृ. ३१२ । Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ११५ नरतियंग्लोकाधिकार ७०७ रहते हैं; जो कोष के कारण सबसे कलह करते हैं; जो अरहन्त तथा साधुओं को भक्ति नहीं करते। जो चातुर्वण्यं संघ के विषय में वात्सल्य भाव से विहीन होते हैं, जो जिन लिग के घारी होकर हर्ष पूर्वक स्वर्णादिक ग्रहण करते हैं; जो संयमी के देष में कन्या विवाहादिक करते हैं जो मौन के बिना भोजन करते हैं; जो घोर पाप में संलग्न रहते हैं, जो अनन्तानुबन्धि चतुष्टय में से किसी एक के उदय होने से सम्यक्त्व को नष्ट करते हैं। वे मृत्यु को प्राश होकर विषम परिपाक वाले पाप कर्मों के फल से समुद्र के इन तोपों में कुत्सिन रूप से युक्त कृमानुष उत्पन्न होते हैं ।। २५०३ - २५११ ।। नोट :-जम्बूद्वीप पहात्ती में भी सर्ग १• गाथा नं० ५९ से ७९ तक यही विषय द्रष्टव्य है। साम्प्रतं घातकोखपुष्कराधपोरेकप्रकारलादने वक्ष्यमाण क्षेत्रविभागहेतून तयोरुभय पाईस्थितमिध्वाकारपर्वानाह चउरिसुगारा हेमा चउड सहस्सवास णिसहुदया । सगदीववासीहा इगिडगिनसदी हु दक्खिणुत्तरदो ॥९२५।। चतुरिष्वाकाग हेमा: चतुःकूटाः सहस्र यासा निषधोदयाः। स्वकद्वीपव्यासदीर्घा एककवसतयः हि दक्षिणोत्तमतः ।। १.२५ ।। घउ । घातकीर एउपुरकरायोमिलित्वा हेमपयाश्चतुः कूटाः सहस्रमासाः निषधोवया ४०० वस्कीयद्वीपक्ष्यासदाः एककवसतयश्चत्वार इष्वाकारपर्वतासपोर्वोपयोक्षिणोत्तरतस्तिम्ति Eun घातको खण्ड और पुष्कराध में क्षेत्र व पर्वतादि एक प्रकार के हैं। इनमें क्षेत्रों का विभाग, करने वाले दोनों पार्व भागों में स्थित इष्वाकार पर्वतों को कहते हैं : पाया :- दोनों द्वीपों के दक्षिणोत्तर दिशा में चार इवाकार पर्वत हैं जो स्वर्णमय और चार चार कूटों से संयुक्त हैं। जिनका एक हजार योजन व्यास, निषध कुलाचल सहा उदय बोय अपने अपने द्वीपों के व्यास प्रमाण म्बाई है तथा जो दक्षिण मोच उत्तर दिशा में एक एक स्थित हैं, .. एवं दक्षिणोत्तर क्रम्बे हैं || ६२५ ॥ विशेषा:-घातको खण्ड और पुष्कराध द्वीपों को दक्षिणोतर विद्या में स्वर्ण पय चार इष्वाकार पर्वत हैं । ये चारों पर्वत चार चार कुटों से सयुक्त हैं, उनकी पूर्व पश्चिम चौडाई १... योजन प्रमाण है निश्ध कुलाचल मदृश ४.० योजन ऊंचे हैं तथा अपने अपने द्वीपों के व्यास सदृश चार और आठ लाख योजन प्रमाण लम्बे हैं। ये दक्षिण और उत्तर दिशा में एक एक स्थित है तथा दक्षिणोत्तर लम्बे हैं। अथ तदद्वीपतयावस्थिताना कुलगिरिप्रभृतीनां स्वरूपं निरूपति-- Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाषा:२६-१७ कुलगिरिवाखारणदीदहवणकुंडाणि पुखरदलोपि । ओपेधुस्सेहसमा दुगुणा दुगुणा दु विस्थिण्णा ।। ९२६ ।। कुलगिरिवक्षारनदीदव नकुण्डानि पुष्करवल इति। अवगाघोत्सेघसमा विगुणा द्विगुणाः तु विस्तीर्णाः ।। ९२६॥ कुल । घातको खगरादारभ्य पुष्करागात्र समायाः पकिरी बहार : १५० हराः५२ पमानि ३ कुराहानि १८० । एते सर्वे जम्बूद्वीपासकुलगिरिप्रभृतीनामवगापोत्सेवाम्या समानाः एतेषां विस्तारास्तु जम्बूद्वीपस्यविस्तारे म्यो विगुणद्विगुणाः ॥ ९२६ ॥ मागे दोनों द्वीपों में अवस्थित कुलाचल आदि का स्वरूप कहते हैं: गापाय:-धासकी खण्ड से पुष्कराध पर्यन्त अवस्थित कुलाचन वक्षार गिरि, नदी, दह, वन और कुण्डों की गहराई एवं ऊँचाई जम्बूद्वीपस्य कुलाचलादि के सदृश है तथा विस्तार दुगुना दुगुना है। अर्थात् जम्बूद्वीपस्थ कुलाचनाविक के व्यास ने घालको खण्ड स्थित कुलाचलादिकों का व्यास दुगुना है और घातकी खण्ड की अपेक्षा पुष्कराघं का विस्तार दुगुना है ।। ६२ ।। विशेषार्ष:-धातकी बण्ड से शरम्भ कर पुष्कराध पर्यन्त एक एक दीप में दो दो मेन सम्बाधी कुलाचल १२, पजदन्तों सहित वक्षार पर्वत ४०, गङ्गा सिन्धु और विमङ्गा आदि तथा कश्छादि विदेह सम्बन्धी दो दो नदियों और सब मिलाकर कुल नदिय! १८.कुलाचलों और मद्रशाल वनों में सियत दह ५२, पवंतों और नदियों के पावभागों में स्थित वन संख्यात तथा गङ्गादि नदियों के गिरने के और विभङ्गादि नदियों के निकलने के कुल कुम्ड १८० हैं । इन सबकी गहराई और ऊँचाई तो जम्बूद्वीपस्य कुलापलादिकों के सदृश है, किन्तु जम्बूद्वीपस्थ कुलाबलाविकों के विस्तार से घातको खण्डस्थ कुलाचलादिकों का विस्तार दूना हे तपा घातको खण्ड की अपेक्षा पुष्कराध द्वीपस्थ इलाचलादिकों का विस्तार दूना है। मथ पर्षद्वीपस्थितय वर्षधरपर्वतानामाकार निरूपति सयलुद्धिणिमा वस्सा दिवड्डदीवम्हि तत्थ सेलायो। अंते अंकमुहामो खुरप्पसंठाणया पाहि ॥ ९२७ ॥ शकटोद्धिनिभा वर्षा घर्षद्वीपे तत्र शैलाः। अन्तः अङ्कमुखाः भुरप्रसंस्थानका बहिः ।। १७॥ सयलु | धंती वर्षाः बाटोधिकामिभाः तत्र शैला पम्यन्तरे प्रमुखा पाय हरमसंस्पानाः ॥२७॥ भब सेव द्वीप में स्थित क्षेत्र और कुलाचकों का प्राकार कहते हैं Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा : तिर्यग्लोकाधिकार गावार्थ:-हमीपे मर्यात डेवतोप में स्थित क्षेत्रों का माकार तो शकटोलिका अर्थात गाड़ी के पहिये के सहय है तथा वहाँ के कुलाचलों का अभ्यन्तर आकार अङ्क मुख एवं बाह्य बाकाय क्षुरप्रसंस्थान सदृश है ॥ १२ ॥ विशेषा:-धातकी खण्ड और अर्ष पुष्कर बर द्वीप में क्षेत्र का आकार गाड़ी के पहिये के यो धारों के बीच के आकार सदृश है तथा पर्वतों का आकार पहिये के आरों सदृश है । जिनके अभ्यन्तर की ओर का आकार अङ्ग मुख और बाघ की ओर का आकार खरपा मुख है। जिसका चित्र निम्न प्रकार है: . "FTtosmummmmmmm. घा महामिन मना ank मप पातकीसहपुष्करायोः पर्वतावनक्षेत्रमनुवदन् तयोः परिधीमानयति-- दुगचउरट्ठहसगइगि दुकला चउरहपंचपणविणि | चाकलमणापरा आणादिममजापरिमपरिहि ।।९२८॥ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार द्विचतुरटाटस के द्विकले चतुरष्टषट् पपश्री रिए । -- की- ४ल X ८४ ---- चतुष्कळमगरुद्धधरा जानीहि आदिममध्यचरम परिधीन् च ॥ २८ ॥ बुग विकचतुष्टाष्टसप्त कयोजना नि एकान्तविशतिभक्त टिकलाधिकानि १७८८४२४ घातकीरस्य पर्वतावस्तुक्षेत्र' स्यात् । चतुरदृषट्पञ्च पञ्चत्रीणि योजनानि एकान्नविंशतेशचतुः कलाधिकानि ३५४६८४ ष्करार्षस्य पर्णतावा स्यात् । तयोर्भरता विक्षेषव्यासज्ञानार्थमाहिममध्यम बाह्यपर्शिष बानीहि । पर्वतावर क्षेत्रानयनप्रकारं यति । सर्ववर्धत समस्त क्षेत्र शलाकामिश्र णान्मि शलाकेयु च्यते । एतावन् मिश्रशलाकामा : १६० एतावति निषक्षेत्रे १ ल० एता बचपनालाकयोः किमिति सम्पातिले जम्बूद्वीपस्य पर्वतावरुद्ध क्षेत्रं स्यात् १९८४ एवं पुरवा एकशलाकाक्षेत्रस्य द्विगुणविस्तारेएतावत् शलाकाक्षेश्य १४८४ किमिति सम्पातिते जातीवस्येक मागे पर्वतावरुद्धक्षेत्र २ल ४८४ एकनि भागे १ एतावति क्षेत्रे २५ ४८४ उभवीभगयोः किमिति सम्पातिते धातको सर्वपर्णतावरुद्ध क्षेत्र स्यात् एतावच्छुद्ध शलाकायाः १६८ एतानि तिष्ठति पति ४४८४ एतावन्निशलाकायाः ३८० किमिति सम्पाध्यलच्छ ३० या सम्भेद्य १६०४२ तेन द्वपेन चतुरशीति संगुण्या ४ पतिते ४ ल० बालकोखण्यास्थ विमपिण्डः स्यात् । एतावमिश्रशलाकानां ३८० एतावति क्षेत्र ४० एतावच्छुद्ध पर्वतालाकानां १६८ किमिति सम्बाध्य ४ १६८ द्वापर ४ इच्छा ८४ संगुण्य ६३०००० भक्त्वा १७६८४२३ प्रत्रका कारमोन्यसे २००० युले १७८८४२ धातकीवस्य पर्णतावस्य क्षेत्र स्थात् । तदेव १७६८४२६ मद्विगुणीकृत्य ३५३६८४५४ पत्राकारयो २००० मिलिते ३५५६८४२ पुष्करार्धस्य वर्णतःवरुद्ध क्षेत्र स्यात् । इवानों घातकीखण्डस्य व्यासं ४ ल० त्रिस्थाने संस्थाप्य 'लवरपाबीनां वास' मित्यादिना सस्यादि ५७० मध्यम २ ल० बाह्यसूची १३ ल० मानीय बिमसंभवग्यबह्गुण' इस्मादिना तत्र तत्र कररिंग कृत्वा प्रा २५००००००००००० म ८१००००००००००० मा १६६००००००००००० भूले गृहोते यथा सं घातकी हस्याभ्यन्तरपरिधिः १५८१९३९ मध्यमपरिषिः २८४६०५० बाह्यपरिषिः ४११०४६१ स्यात् एषु त्रिषु परिचिषु प्राणानीतघातकीखण्डस्य वर्णतवद्ध क्षेत्र १७८८४ पनी यथासंख्यं ग्रन्यन्तरपरिषौ परहित क्षेत्र १४०२२९७ मध्यमपरिषौ पर्यंत क्षेत्ररहितं २६६७२०८ बाह्यपरियो पर्वतरहित क्षेत्र ३९३२११६ स्यात् ।। ६२८ 6 अत्र घातको खण्ड और पुष्कराचं द्वीपों में स्थित पर्वतों द्वारा अवरुद्ध क्षेत्र को कहते हुए उन दोनों द्वीपों की परिधि को लाते हैं। ७१० -ठ-* - बाथ : ३२८ "पठ० गामार्थ :- घातकी खण्ड स्थित पर्वतों द्वारा दो, चार, आठ, बाठ, सात, एक और दो कला अर्थात् १७८८४२३ योजन क्षेत्र अवरुद्ध किया गया है और पुष्करार्धस्य पर्वतों द्वारा चाथ, आठ छह, Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा: १२ बरतियालोकाधिकार पांच पाच तीन और चार कला अर्थात ३५५६६योजन क्षेत्र अवरुद्ध किया गया है। अब इन द्वीपों में स्थित भरतादि क्षेत्रों का प्यास ज्ञात करने के लिए हे शिष्य तू इन द्वीपों की शादि, मध्य बोय माझ परिधि को जान ॥६२८॥ विशेषार्थ:- धातकी खण्ड के पर्वतों से अवरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण १८४२ योजन है और पुष्कराध के पर्वतों में अवरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण ३५५६६४ योजन है। इन दोनों नीपों में स्थित भरतादि क्षेत्रों का व्यास ज्ञात करने के लिए हे शिष्य तुम इन द्वीपों को मादि मध्य और बाह्य परिधि जानो। पर्वत अवरुद्ध क्षेत्र प्राप्त करने का विधान प्रगट करते हैं : सर्व पर्वतों और सर्व क्षेत्रों को पालाकाओं के मिश्रण को पिशलाफा कहते है। यथा--जम्बू द्वीपस्थ भरतादि क्षेत्रों की शलाकाएं कम से एक, चार, सोलह, चौसठ, सोल है, चार और एक है, न सबका योग (१+४+१६+६४+१३+४+१)-१०६ प्राप्त हुआ तथा इसी द्वीप सम्बन्धी पर्वतों की शलाकाएं क्रम में दो, पाट, बत्तीस, बत्तीस, माठ और दो हैं. इनका योग (३++३+३++ २)=४ हुआ। इन सम्पूर्ण क्षेत्र और पर्वतों की शलाकाओं का मिश्रण (१०+८४)-१९० होता है और इन्हीं को मिश्र शलाकार कहते हैं । जबकि १९० सलाकाओं का मिथ ( पर्वतों एवं क्षेत्रों द्वारा अवरुद्ध ) क्षेत्र १००००० योजन प्रमाण है, तब क्षेत्र रहित पर्वतों की २४ शुद्ध शलाकाओं का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर ( २००९११४८४ ) ला४८४ योषन पर्वतों द्वारा अवरुद्ध क्षेत्र का प्रमारा प्राप्त हुआ। जम्बूदीप की प्रत्येक शलाका से धातकी खण्ड की प्रत्येक शलाका दुने दूने प्रमाण वाली है. अत:-जबकि अम्बूदीपस्थ एक पालाका क्षेत्र का विस्तार पातकी खण्ड में दूना है, तब ला xcx शलाका क्षेत्र का कितना क्षेत्र प्राप्त होगा? इस प्रकार राधिक करने पर २ ला०४८४ योजन घातकी पण्ड के एक मेरु सम्बन्धी एक माग में पर्वतों द्वारा अवरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त हमा। जबकि एक भाग में श्ला० x ८४ योजन क्षेत्र है, तब दोनों मेक सम्बन्धी दोनों भागों में कितना क्षेत्र होषा ? इस प्रकार औराशिक करने पर पातकी खण्ड के सम्पूर्ण कुलाचलों से अबरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण ला.४८४ पोजम प्राप्त होता है। सब इसी का दूसरा विधान कहते हैं: जम्बूद्वीपस्प पर्वतों भीष क्षेत्रों के विस्तार में धातकी खण्डस्थ पर्वतों और क्षेत्रों का विस्तार दूना दूना है, इसलिए जम्बूद्वीपस्थ पर्वतों की शुद्धशालाका ८४ से धातकी खण्यस्थ पर्वतों की शुद्धशलाकाए दूनी अर्थात ( ५४४९ }=१६८ होंगी । इसीप्रकार मिश्र शलाकाएं भी थी दूनी अर्थात् ३० होगी। . PTES - - T . Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ त्रिलोकसा पाया १२८ जबकि पर्वतों को शुद्ध शलाका १८ का ४ ला० x ६४ योजन क्षेत्र प्रा होता है, तब ३६० मिश्र शलाकामों का कितना क्षेत्र प्राप्त होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर ला•४८४४ ३८० योजन प्राप्त हुए। यहां इच्छा राशि ३८० को दो से सभेद्यने पर १९० रहे और ८४ को दो से गुणित करने पर १६८ हुए अतः ४ ला.xkxयोजनों का परस्पर में संभेय करने पर पातका त्रा का मिश्र क्षेत्रफल ४ लाख योजन का हुआ। षकि ३८० विश्रशलाकाओं का क्षेत्र ४००००. योजन होता है, तब पातकी भण्डस्थ पर्वतों को शुद्धधलाका १६८ का कितना क्षेत्रफल होगा ? इस प्रकार शशिक करने पर ४ला० x १६८ योजन प्राप्त हये । इन्हें दो से अपवर्तन कर ला०४६४ योजन हुए। ४..... लाख को ८४ से गुणित कर ( 420 ) अपने भागहार का भाग देने पर १५१८४२३ योजन हुए। इनमें से सरकारों का कारः २००८ औजा। पिता और १७८४२२ पोजन धातकी खण्ड के पर्वतों द्वारा अवरुद्ध क्षेत्र प्राप्त हो जाता है और इसी प्रमाण को दूना कर दो इष्वाकारों का ध्यास २०.० योजन मिला देने पर ( १७०८४२१. ४२-३५३६८४ +२०००-३५५६८४ योजन पुष्कराध द्वीप के पर्वतों द्वारा अवरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। अब क्षेत्रव्यास प्राप्त करने को कहते हैं :-धानको भण्ड के व्यास ४ लाख योजन को तीन जगह स्थापन कर "लवणादीणं वाम" गाया ३१० के अनुमार धातकी खण्ड को कवण मन के निकट आदि सूची ५ लाख योजन, मध्य में मध्यम सूफी ध्यास ९ लान योजन और कालोदक समुद्र के निकट बाह्य सूची व्यास १३ लाख योजन प्राप्त होता है । यथा :-विवक्षित समुद्र या द्वीप के व्यास को दो, लीन और चार से गुरिणत कर प्रत्येक में से ३ घटा देने पर कम से अभ्यन्तर, मध्य मौर बाल सूची ध्यास होता है। ( गा० ३१०) अत:-ल.४२८ल. --- ३०५ लाब योजन पातकी खण्डका सम्पन्तर सूची व्यास । ४०.४३=१२ल० - ३ ल०६ ल न यो० मध्यम सूची व्यास और ४ला.x ४-१६म.- ३ल०-१३ लाख यो. बाह्य सूची व्यास है। शासकी खण्ड के उपयुक्त प्रकार से प्राप्त हए अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य सूची भ्यास का "विष्कम्भवम्गदहगुणकरणो" गाथा ६६ के अनुसार वर्ग कर उसे दश से गुणित करने पर वर्गरूप अम्यातर परिधि का प्रमाण (५ला.४५ला.४१.)=२५००००००००००० योजन, वर्गरूप मध्यम परिधि का प्रमाण (ला.xkal.x१०)-८१०००.0.... योजन और वर्गरूप बाह्य परिधि का प्रमाण ( १३का.x१३ला०x१. )=१६६.०००००००००० योजन प्राप्त होता है। इन.तीनों का मथारूम वर्गमूल ग्रहण करने पर घातकी स्त्रण्ट की अभ्यन्तर परिधि १५८१९३९ योजन, मध्यम परिधि २८४६:५० योजन मोर बाझ परिषि ४११०६६१ योजन हुई। इन तीनों परिधियों में से पहले प्राप्त किए घातको सब के एवंत अवरुद्ध क्षेत्र का प्रमाण १०८८४२११ योजन घटा देने पर यथाक्रम अभ्यन्तर परिधि में पर्वतरहित क्षेत्र का प्रमाण (१५८११३९ -- १७८८४२१-१४०२१९६५५ योजन, मध्यम परिधि में (२८४६०५.-१७८८४२१९ ) =२६६ २०७१ योजन और शाह्य परिधि Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया । ९२९ मरतियंग्लोकाधिकार में पर्वत रहित क्षेत्र का प्रमाण ( ४११०४६१ - १७८८४२२) ३९३२१११ योजन प्राप्त होता है। पर्वत रहित सो क्षेत्र का प्रमाण है, वही भरतादि सात सात क्षेत्रों द्वारा अवरुद्ध होता है। इमानि त्रीणि पर्वनरहितक्षेत्राणि धृत्वा भरतादीनामभ्यन्तरादिविष्कम्भमाह भरहहरावदवस्सा विदेहवस्सोचि चउविगुणा वस्सा । गिरिविरहियपरिहीणं हागे विग्णिसयवारं च ।। ९२९ ।। भरत रावतवर्षात् विदेह वर्षान्त चतुः द्विगुणा वर्षाः ।। गिरिविरहिनपरिधीनां हारः द्विशतं द्वादश च ॥ १२ ॥ भरह । भरतवर्षादरावतवर्षाचारभ्य विवेहपर्यन्तं वर्षाश्चतुगुणिताः । मर.१+४+१+ ६४+१+४+ १६ एषां मेलनं कृत्वा १०६ उभयभागामस्मित् द्विगुणोकृते द्विशतं वायोत्सरं २१२ गिरिविरहितपरिधीनां हार: म्याद। कपं ? एतावासशिलाकाया २१२ एतावस्यम्पन्तरपरिषौ पसरहित मेत्र १४.२२९७ मरतादीनामेकाविस्वस्वशालाक्षायाः १+४+१६+६४+१३+४+t किमिति राशिकं करवा लावभरतशलाकापेवा भक्तं भरतस्य प्रथमविकम्भः ६६१४:१३ स्यात् । एवं सम्मातेन ताप मध्यमविष्कम्भ १२५८१वाझविष्कम्भ १८५४७३२३ वामयद। मवताविश्ववि कत्तंब्य । या भरताम्पसरविमादिषु प ६६१४३३३ 5 १२५८१३ बा १८५४०२१ चतुमिगुणितेषु हैमवतस्य प्रथमानिविभ: स्यात् . वि. १६४५८११ म० वि०-५.३२४ बा. 140 = ७४१६.३६ प्रस्मिन्नेव चतुभिर्गणिते हरिणस्प प्रमानिविष्कम्भः स्यात् । २. वि== १०५८३३६६ म०वि० - २०१२५८३६३ बा० वि०- २९६७६३२१ बस्मिन् पुनश्चतुभिगीण विवेहस्य प्रथमादिविरुकाम: स्यात् । प्र. वि.४२३३३४११३ म० वि० - ८०५१९४६ मा० वि०११८७०५४१ई एवमरावतावारम्य विवेहपर्यन्तं ज्ञातव्यं । पुकरास्थाम्न्तराविपरिषौ म०प०६१७०६०५ म०प०=११७.०४२७ था०प०=१४२३०२४९ प्रत्येक पर्गतावनक्षेत्र ३५५६८४ अपनीले प्रभ्यन्तरादिपरिधो पानिरहितक्षेत्र याव। . ८८१४९२१ म० ११३४४७४३ वा० १३८७४५६५ पस्मिन् भरतशलाकमा १ संगुण्य द्वादशोत्तरतिशतेन भक्त पुष्कराधभरतस्याम्यन्तरापिविष्कम्भः स्यात् । प्र. वि.४१५७६३१३ २० वि० ५३५१२३१३ बा० वि० ६५४४६ पस्मिश्चतुभिर्गुपिते हेमवतस्याभ्यन्तराविधिकम्भः स्यात् । ० वि०-१६६३१६ म. वि.= २१४०५१ मा०, fo= २६१३८४ कस्मिन् पुनश्चमाणिते हरिवल्याभ्यन्तराविधिकम्मः स्यात् । वि०६६५२७७१३ म.fav=८५६२०७१ बा० वि०-१०४७१३६ मस्मिन्नपि बदभि गिते. विवहस्याम्पन्राविषिष्कम्भः स्यात् । प- वि०-२६६११०८६ म. वि.= ३४२४५२८ गा. वि० = ४१८५५४.११ एवमरावतारम्म विदेह यन्त ज्ञातव्यं ९२६ इन तीनों पर्वत रहित क्षेत्रों को रखकर अब भरतादि क्षेत्रों का अभ्यातरादि विष्कम्भ कहते है - Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाषा:२१ ___ गापा:-भरतक्षेत्र से विदेह क्षेत्र पर्यन्त और ऐरावत से विदेह पर्यन्त क्षेत्रों का विष्कम्भ क्रम से चौगुणा है जिनकी शलाकाओं का योग १०६ है । दोनों भागों का ग्रहण करने के लिए इन्हें दूना किया। अर्थात् ( १०६ ४ ३)-२१२ घालाकाएँ हुई । यही २१२ शलाकाएं एवंल रहित परिधि का भागहार हैं । ९२९ ।। विशेषार्ष:-भरतक्षेत्र से और ऐरावत क्षेत्र से विदेह पर्यन्त क्षेत्रों का विष्कम्म चौगुणा है अतः भरत को शलाका १, हैमवत की ४, हरिकी ११, विदेह को ( चौसठ ) ६४, ऐरावत की , हेरण्यवस की ४ और रम्यक की १६ । इन सबका योष (1+४+१६+६४+१-४+१६=१०६ हा। दो मेम सम्बन्धी दोनों भागों का ग्रहण करने के लिए इन्हें दूना करने पर ( १०६x२)-२१२ प्राप्त हए । यही ११२ शलाकाएं पवंत रहित परिधि का भापहार हैं । कैसे ? उसे कहते है-जबकि २१२ शलाकाओं का सम्पन्सर परिधि में पर्वत रहित क्षेत्र १४.२२६० योजन प्रमाण है. तब भरतादि क्षेत्रों को अपनी अपनी १,४, १६, ६४, १, ४, १६ शलाकाओं पर पर्वत रहित क्षेत्र कितना होगा ? इस प्रकार राशिफ करने पर भरत की एक शलाका की अपेक्षा पर्वत रहित क्षेत्र को २१२ से भाजित करने पर भरत का अभ्यन्तर विष्कम्भ ( १५५३३" ) = ६६१४३३३ योजन प्राप्त होता है । इसी विधान से भरत का मध्यम विष्कम्भ ( १३०८ )=१२५८१३१३ योजन और बाह्य विष्कम्भ ( ३२३११1)= १८५४७३५५ योजन प्राप्त होता है । इसी प्रकार हैमवत आदि क्षेत्रों का भी विष्कम्भ प्राप्त कर लेना चाहिए । अथवा-रत के अभ्यन्तर विष्कम्भ ६६१४१३६, मध्य वि० १२४१और बाहा विष्कम्भ १८५४७१६५ को चार से गुरिणत करने पर हैमवतका अभ्यन्तर वि० २६४५८२ योजन, मध्यम विष्कम्भ ५.३१४३५ योजन प्रौप बाय विष्कम्म ७४१६०२ योजन है । इसी को पुन: चार से गुणित करने पर हरिवई क्षेत्र का अभ्यन्तर विष्कम्भ ( २३४५८१३४४)१.५८३३३१४ योजन, मध्य विष्कम्भ ( ५०३२४३४४४४)=२०१२१८३२३ योजन और बाह्य विष्फम्भ ( ५४१९०२११४४ )२०६७६३३१० योजन प्रमाण प्राम होता है। इस उपयुक्त विष्कम्भ को चार से गुणित करने पर विदेह क्षेत्र का सम्यन्तर वि. ( ११८३३३५३४४ )=४२३३५४३१३ योजन, मध्यम विष्कंभ ( २०१२९८३३४४ ) - ८. योजन और बाह्य विष्कम्भ ( २६७६६x४)=११८७०३४३१६ योजन प्रमाण हमा । इसी प्रकार ऐरावत से विदेह पर्यन्त जात कर लेना चाहिए। पुष्करा दीप का कालोदक के समीप अभ्यन्तर सूची व्याम २९ साख योजन, व्यास के मध्य में मध्य सूची व्यास ३७ लाख पोजन और मानुषोत्तर पर्वत के निकट बाह्य सूची व्यास ४५ लाख योजन प्रमाण है। यभा [ रुपमा चित्र अगमे पृष्ठ पर देखिए । Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा: मपतियोगिता ar R पुष्कराध को अभ्यन्तर परिघि १०६०५ योजनों में से, मध्यम परिधि ११७... योवनों में से थोर बास परिधि ४२३०२४९ यो०मसे अवरुद्ध क्षेत्र ३५५५८४ पोजन (प्रत्येक में सावटा देने पर अभ्यन्तर परिधि में पर्वत रहित क्षेत्र ८१४९२१ योजन, मध्य परिषि में ११३१४ पंजन और बाह्य परिधि में पर्वत रहित क्षेत्र-१३७४५५५ योजन अवशेष रहता है। इनमें भरत क्षेत्र की एक शलाका का गुणा कर २१२ शलाकामों का भाग देने पर पुष्कराघस्य भरतक्षेत्र का अभ्यन्तर विडम्भ ( 1823) = ४१५३१ योजन, मध्यम विष्कम्भ (Tax)५३५१२३१५ योजन जोस बाह्य विष्कम्भ (E xt=५४६ योअन प्राप्त हुआ। इनमें पुना पार का गुणा कर देने पर हेमवत क्षेत्र का अभ्यन्तर वि. १६६३ योजन, मध्यम विलम्भ २१४.५१११३ योजन और नाम विष्कम्भ २ ४१३योजन प्राप्त होता है। इन्हीं विष्कम्मों को पुन पास से गुणित करने पर हरिक्षेत्र का अभ्यन्तर विष्कम्म ६६५२४७१९ पोजन, मध्यम विष्कम्भ ८४६२००० योजन और बाह्य विष्कम्भ १.४०१३६३९६ योजन प्राप्त होता है। इनको भी पार से गुरिणत करने पर विदेह का अभ्यन्तर विष्कम्भ २६६११०५४६ योजन, मध्यम विष्कम्भ ३४२४८२८.५५ योजन और बाह विष्कम्म ४१५५४५० यो० है। इसी प्रकार ऐरावत से प्रारम्भ का विवह पर्यन्त जानना चाहिए। Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाई दीपस्थ-मरतादि-सात क्षेत्रों-का-विष्कम्म क्षेत्र-नाम बम्बूद्वीपस्थ क्षेत्रों कमांक घातको खण्ड में स्थित भरतादि क्षेत्रों का- पुष्करा द्वीप में स्थि.. भरतादि क्षेत्रों कापत्र-नाम | को विष्कम्भ | - - अभ्यन्तर वि० | मध्य विष्कम्भ | बाह्य विष्कम्भ अभ्यन्तर वि. मध्य विष्कम्भ बाह्य विष्कम्म | ५२६१ योजन ६६१४३३३ योजन १२५८१३१६ यो० १८५४७३२३योजन ४१५७९३५५यो०५३५११६यो ०.६५६४६३ योजन हमवत २१० , २६४५८१३ - ५०३२५३११ - ४१६०१५ -१६६३१९१२ - २१४४१३१६ - २६१७८४३३३३ हरि ८४२१ , १०५५३३ ... २०१२५८९१३ - २९६७६३१६ - ६६५२७७१३८१६२०७२१२१०४७१३६३१ विशोकसा विदेह ३३६८४. ४२३३३४३५३. - ८०५१५४६ ११८७.५४११६ - २६६११०८३"३४२४८२८१४१८८५४७३ रम्यक ८४२१ - ५८३३३१६ - २०१२२८५३ -२९६७६३३१६ - ६६५२४७१३. १५६२८७१२ - १०४७१३६३१६ हैरण्यवत | २१० , २६४५८५१२ - ५०३२४१ १६० १६६३१६: ५ २५४०५१३१३,२६१७८४१३ ऐरावत | २२६ , ६६९४६१६ | १२५६१ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया। नरतिबंग्लोकाधिकार इदानी घातकीबण्डस्य विदेहस्यकच्छादीनामायाम पायावयेनाह गिरि जुद दु महसालं मझिमसाइम्हि घणरिणे धई। पुव्ववरमेरुबाहिर मभंतरमहसालमैतस्स ।। ९३. ।। गिरियुत विभद्रशाल मध्यमसूची धनणे सूची। पूर्वापर मेहबाह्याभ्यस्त रभद्रशालान्तस्य || १३०॥ गिरि। घातकोखण्डस्थपूर्वापरमवरयोरधि गृहोस्वा एकमन्दरल्यास कृपया १४०० तत्र तयोर्बाह्य भद्रशालापव्यासं २१५७५८ मेलपित्वा २२५१५८ वं मध्यमसच्या ६००००० भने कृते ११२५१५८ पूर्वापरमेढे ह्यभाशालयोर्वाह्यसूचिर्भवति । सासूच्या दल. पुनरस्मिन् २२५१५८ ऋणे छते योरभ्यन्सरसूषि: स्यात् ६५४८४२ तवभ्यन्तरभासालसूचोव्यासं ६७४८४२ विकम्मवग्गेत्यादिना कररिण करवा ४५५४११७२४६६४० प्रस्य मूले गृहोते २१३४०३७ सासूचीपरिषि। स्यात् । बस्मिन् पर्वताबाडक्षेत्र १७८८४२ प्रपोते गिरि हि.परिषिः स्यात् १९५५१६५ ॥६३०॥ ___अब धातकी खण्ड के विदेह क्षेत्र में स्थित कच्छादि देशों का बायाम ( लम्बाई ) हो पाषाओं वाचा कहते हैं : गाया :--मेरु पर्वत का व्यास और दोनों बाल भदशालयनों के दुगुने व्यास को पातकी खण्ड के मध्यम सूची व्यास में जोड देने पर पूर्व पश्चिम मेस पर्वतों के दो भदशाल बनों का ( कालोदा की मोर ) बाह्य सूची व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है और उसी मध्यम सूची ध्यास में से मेह का व्यास और भद्रशाल बतों का दुगुना ध्यास घटा देने पर दोनों मशाल धनों का ( लवण समुद्र को ओर ) अभ्यन्तर सूची व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है | ॥ विशेषाप:- घातको वश सम्बन्धी विवहस्थ कम्बादि देशों की दक्षिणोत्तर लम्बाई परिधि में है, इसलिए वहाँ को परिधि कहते हैं : धातकी खण्ड के पूर्व पश्चिम मेरु पर्वतों का अचं अभ्यास ग्रहण करने पर एक मेरु का व्यास ६४.० योजन हमा। इसमें दो मेरु सम्बन्धी कालोदक को ओर के दोनों बाहरभद्रशाल वनों का ध्यास २१५७५६ योजन जोड़ देने पर { २१५७५८+४..- २२५१५८ योजन हुआ, इसे मध्यम सूचीभ्यास ७.०२० योजनों में जोड़ देने पर ( २.....+२२११५८ )=११२४१५८ योजन पूर्व पश्चिम मेरु पर्वतों के बाह्य भद्रशाल वमों का ( कालोदक समुद्र की ओर ) बाह्य सूची मास प्राप्त होता है. सथा उसी मध्य सूची व्यास १ लास योजनों में से उन्हीं दोनों मेरु पर्वतों का अर्ष अर्थ ध्यास ओर अभ्यन्ता भद्रग्राउ धनों का २१५५८ योजन मिलाकर प्राप्त हुए (२१५७५+९४०० )=२१४१५८ योजनो को घटा देने पर ( १0000०-२२५१५८ )=६४४८४१ योजन दोनों अम्यन्तर पदशाल बों का Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ footere माया : १११ (अवण समुद्र की ओर ) अभ्यन्सर सूची ध्यास प्राप्त होता है। इस ६७४८४२ योजना अभ्यन्तर भवशाल के सूची व्यास का विष्कम्भवदह गुण" गाया ९६ के नियमानुसार वर्ग कर देश से गुणित कहने पर ४५५४११७२४९६४० योजन होने हैं, उनका वर्गमूल निकालने पर ११३४०३७ योजन उस अभ्यन्तर भद्रवाल की सूची व्यास की परिधि हुई । इस परिधि के प्रमाण में से धातकी खण्वस्थ पर्वतों द्वारा अवरुद्ध क्षेत्र १७६८४२ योजन घटा देने पर ( २१३४०१७ १७८८४२ ) == १९५५१९५ योजन पर्वत रहित परिधि का प्रमाण प्राप्त हुआ । यथा: 161 dg S'ka Trol — गिरिरदिप रिद्दिगुणिदं भडकदिणा विसयवारसेहि हिदं । दिहीणदलं दीहं प्रच्छादिमगंध मालिणी भंते ।। ९३१ ।। पिरितिपरिधिगुणितं वष्टकृतिना द्विशतवादः हितं । नदीहीनदनं दीर्घ पछादिमं गन्धमालिनी अन्ते ।। ३१ ।। गिरि । एतावदलायोः २१२ एतावति क्षेत्रे ११५५१९४ एसावद्विशलाकयोः ६४ किमिति सम्पात्य गिरिरहितपरिषिमनुश्या संगुष्य १२५१३२४८० प्रमाणेन द्वादशोत्तरद्विशतेन २१२ हृसं दिभ्यन्तरसूचीस्थले विदेहविक्रमः स्यात् । ५६०२४७३१२ प्रत्र मवोण्यास १००० होमविश्वा ५६४२४७३२३ ते २९४६२३२ गन्धमासिन्यादयदेशयात्यायामः स्यात् । प्रागामीत धातकीखण्डबाह्य मशाल सूचीण्यास ११२५१५८ पूर्वक कृत्या १२६४९८०५२४९६४० सूने गृहोते तत्परिधिः मात् ३५५८०६२ अस्मिन् पर्वतावरुद्ध क्षेत्र १७८८४२ प्रमीय ३३७६२२० प्रात्ौशिक विधिना कृत्या ६४ संगुट २१६२७००८० डावलोवेन २१२ भको बाह्मभवास जोमाने विदेहबिचकभः Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाषा : २ नरतियंग्लोकाधिकार ७१६ स्यात १.२०१४१३१ । पत्र मबीव्यास १.०० मपनीय १०१११४१३ दलिते ५.४५७०३६३ कच्छाया प्राधायाम: स्यात् ३१॥ माथा:-अभ्यन्तर भद्रशाल को पर्वत रहित परिधि को आठ की कृति से गुणित कर दो सौ बारह का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो जसमें से नदी ( सोतोदा) का व्यास घटाकर शेष को माधा करने कर गधमालिनी देश की लम्बाई का प्रमाण प्राप्त होता है और बाह्य भद्रशाल की पर्वत रहित परिधि को माठ की कृति से गुणित कर दो सौ बारह का भाग देने पर जो उब्ध प्राप्त हो चसमें से सीता नदी का व्यास घटा कर अवघोष को बाधा करने पर कच्छदेश के भायाम का प्रमाण प्राप्त होता है ॥३१॥ विशेषार्थ :-जबकि २१२ शलाकाओं का पर्वत रहित पर्वतों के क्षेत्र का प्रमाण १९५५१२५ योजन है, तब विदेश की ६४ शलाकानों का कितना क्षेत्र होगा? इस प्रकार राशिक करने पर ( ११५५५९५४५४ ) पर्वत सहित क्षेत्र के १९५५२९५ योजन प्रमाण को ६४ से गुणित करने पर १२५१३२४८ : पोजन हुए। इन्हें २१२ से भाजित करने पर लवण समुद्र की ओर अम्यन्तर भद्रगाल की अभ्यन्तर सूची पर विदेह क्षेत्र का विष्कम्भ ५९०२४७३१३ योजन प्राप्त हुआ, इसमें से सोतोदा नदी का 1.1., योजना पर सपा को बाघा करने पर अभ्यन्तर भदशाल की वेदी के समीप पन्धमालिनी नाम देश के अन्त में दक्षिणोत्तर लम्बाई का प्रमाण ( ५६०२४७११३ - Pra ५८९२४४३३३:२)=१९४६२१३१३ योजन प्राप्त होता है । पूर्व में लाए हुए पासको खण्ड के बारच भगशाल के ११२५१५८ मोजन सूची म्यास का वर्ग कर उपे १० से गुणित करने पर १ ११२५१५८४ ११२५१५८x१०)=१२६५९८०५२४६६४० योजन हुए और इसका वर्गमूल ग्रहण करने पर उसकी परिधि का प्रमाण ३५५८०६२ मोजन हुआ। इसमें से पर्वत अवरुद्ध क्षेत्र १७४२ योजनों को पटाकर अवशेष रहे ( ३५५८०६९ -- १७९८४२ )= ३३४६२२० योजनों का पूर्वोक्त प्रकार रागिक विधि से आठ की कृति ६४ से गुणित करने पर २१६२७००८० योजन हए, इन्हें २१९ से भाजित करने पर कालोदक की ओर बाप भद्दशाल फी सूवी के स्थान पर उस भद्रशाल की वेदी के निकट विदेह क्षेत्र का विस्तार ( २१२११८.)१०१०१४१३१६योजन प्राम हमा। इसमें से सीता नदी का १००० योजन व्यास घटा देने पर १०९५१४१३६६ योजन अवशेष रहे. इनका अर्थ भाग अर्थाद ( १.१६१४१३१२)=५-१५७०३११ योजन बाध्य भदशाल की वेदी के निकट कच्छ देश का अभ्यन्तर आयाम ( लम्बाई ) है। प्रदानी कच्यादिविजयादीनां मध्यायाममन्त्यायाममानेतुमवतारं गायावयेनाह विजयावाखाराणं विभंगणदिदेवरण्ण परिहीमो । रिणिसयबारभजिदा बचीसगुणा नहिं पड्डी ।। ९३२ ।। Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. चिलोकस पापा : ६५२-९३३ सगसगवड्डी णियणियपढ मापामम्हि संजुदा मज्मे । दीही पुणरवि सहिदो तिरिए णियचरिमदीदचं ॥ ९३३ ।। विजयवक्षाराणा विपनदीदेवारपयानां परिषयः । द्विशतद्वादशभक्ता द्वात्रिंशद्गुणा तस्मिन् वृद्धयः ॥ ६३२ ।। स्वस्वकवृद्धयः निजनिजप्रथमागमे संयुता मध्ये ।। योघा पुनरपि सहिता तिर्यक निज चरमदीपं त्वम् ॥ ९३३ ॥ विजया। विनयवक्षारविभङ्गनदोवेवारपाना चतुणों परिषय: त्रिशरिणता डावशोत्तर विशतेन २१२ भक्ताश्चेस्मितस्मिन पक्षपो भवन्ति ॥ ६३२॥ सग। विजयावीतो चतुणा यकीयस्वकीयद्धयः मिनिजषमाथामे संयुक्ताश्चेत् तत्र तत्र मध्ये बीघत्वं स्यात् तत्समध्यायामे पुनरपि सहिताश्वेत् तत्र तत्र निजरिजवरमवोर्घत्वं स्यात् । पाथायमेव विवरयति भातकोखणब्यासे ४ ल. गिरियुक्तभवशालदये २२५१५८ अपनीते विवेहस्य पूर्वापरप्रान्तयोः क्षेत्र स्मात् । १७४८४२ प्रस्मिन्नधितेऽर्धप्रान्त क्षेत्र स्पात ८७४२१ मस्मिन पुनर्वक्षारचतुरयव्यासं ४००० विभङ्गत्रयम्पास ७५. देवारण्यच्यासं च ५८४४ सर्व मेलयिस्मा १०५६४ प्रपनीते शेष विधेहस्यंकप्रान्तशुरुक्षेत्रण्यासः स्यात् ७६८२७ एतं धुत्वा वेशाकस्य ५ एमावति मे ७६८२७ एकस्य वेशस्य किमिति सम्पात्य भक्त कच्छाया व्यासः स्यात् ६६०३३ अत्र समच्छेनांशशिनोमलनं कृत्वा 18. प्रभु विखंभवग्गेस्याविना कररिंग कृत्वा "१०१-१६१११५० मूलं गृहीत्वा २०२८ भरत फछाम्पासपारथिस्यात् ३०३६८१ पस्मिन्नंशांशिनोः समन्छेवनमेलने कृत्वा ०५३" एकभाषाय १ तावत्परिधी .०३. यो २ भागयोः किमिति सम्पास्य ०५४.४२ पश्चात् पर्वतामा समव्यासरन वृद्धचभावात सच्छालाका १६८ षातको मण्डसबंशलाफासु ३५० पपनीयावशिया क्षोत्रशालाका: २१२ पुः । एतावताना शलाकाना २१२ एतावति वृद्धिशेत्रे १०५३०४२ एतातिदेहश लामानां ६४ किमिति सम्पासिते बिहसमिक्षेत्र स्यात् ६०७३७ ४ २४ ६४ उभयोः प्रान्तयोरेतावति विक्षेत्र ६०७३७ x २ x ६४ २१२४२ २१२४२ एकस्मिन् प्रान्ने समिति सम्पातिते करछाया अन्त्यामामतिकोत्र स्यात् ६०७३७ x २x६४ २१२x२x२ मस्मिन् मुख मूमिसमासामिति न्यायेनार्षीकृत्य ६.७३७४२ ४ ६४४१ यथायोग्यमपतिते १२x२x२x२ ६०७३७४३२ 'बत्तीसगुणालेहि बलोति' गायोक्त स्यात् । पुर्वाभ्यामपतिते १६ गुणमित्या 13 २१२४२ भक्त कच्छाया मध्यायामद्विोत्र स्यात् ४५८३ अस्मिन् कच्छाया माथायामे ५.६५७०३९९ युक्त ममायामो भवति ५१४१५४३१६ मस्मिन् पुनस्सदेव वृद्धिक्षेत्र पति कमाया बायायाम: Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा : ५२-५ नरतियंग्लोकाधिकार -२१२ १२ स्यात् ५५५७३८ साम्प्रतं वक्षारख्यासं १... विखं पाण्याविना करिंग कृत्वा १००००० मूले गृहोते बझारपरिधि: स्यात् ३१६२ एकस्मिन् मागे एमावतिक्षेत्र ३१६२ यो २ भागयोः सिमिति सम्पास्य ३१६२४२ पश्चातापाइलाकाना २१२ मेतावति वृद्धि ३१६२ x २ एतापालाकानी ६४ किमिति सम्पातिते विवहगतपरिविधिः ३१६२४ २ x ६४ स्यात् । उपप्रान्तयोरेतावति कोत्रे ३१६२४२४६४ एकस्मिन् प्रान्ते सिमिति सम्पास्य ३१६२ x २ ४६४४१ इवं मुखभूमिसमासेति ३१६x२ युबस्पार्षीकृत्य ३१६२ ४२४६४४१ प्रपति सीलगुणिते गायोक्त स्यात् ११३६३२ पुनर्गुणकारेस २१२x२x२ २६ पुणविक पाले म मादि क्षेत्र' स्यात ४७७.प्रागामीतकमचायायामान एवं बनारस्याद्यायामः ५१८७३८३०६ । प्रतिमा प्रागानोलबमारवृतिकोत्र ४७७२५९ पुक्त मध्यायामा स्पात. ५१६२१६ मस्मिन् पुनस्तद्धिोत्रे पुक्त बाह्यायामः स्यात ५१९६६३२ पक्षारस्य पाहायाम एव सुकन्छाया प्राद्यायामः। प्रत्र प्रामीसवेशवृदिशेनं ४५८३५ युक्त तस्या मव्यायामः ५२४२७७१२ । मस्मिन् तदतिशेत्र युक्त तस्या वाहपायामः ५२८८६१११. स्यात् । विभङ्गव्यासं २५. विक्खंभवागेत्यादिना करणि कृत्वा ६२५८० मूले गृहोते ७६• विभङ्गपरिषः । प्रमुअवा एकस्मिन् भागे १ एतापति कोत्रे ७९. पोगियोः किविति सम्पास्य ७०४२ पश्चादेतावच्छलाकामा २१२ एतावति धात्रे ७० x २ एमावस्यालाहाना ६४ सिमिति सम्पातिते विवद्धिक्षेत्र स्यात ९० x २४६४ उभपप्रारतयोरेतावति कोत्र ७६० ४२४६४ एकप्रातस्य झिमिति सम्पास्ये ७६० x २४६४ मुखमूमिसमासायमिति युक्त्या कृत्य ७९०x२x६४ अपवर्य २२x२ २१२x२x२ •AHAR गुणयित्वा २५३६ भक्त ११६५५२ विभङ्गवद्धिः स्यात् । सुकच्छाचाहयायाम एव विभङ्गल्याधायामः ५२८८६१.४४ एलस्मिन् वृद्धिसो ११९५३ युक्ते विभंगस्य मध्यापामः ५२८६८० प्रस्मिन् वृद्धिक्षेत्र युक्ते सत्य बाह्मायामः ५२६ ० ६ स्यात् । इतः परं महाकपछाविदेशामामा: क्षारापामाः विभंगापामा तसद्धियोत्रमेलनेनानेतव्याः । वेवारण्यवास ५८५४ विपक्षमवारयादिना कररितमानीय ३४१५२३३६० मूले गृहीते देवारण्यपरिधिः स्यात, १८४८० । एकभागस्पतावति उयोगियोः किमिति सम्पास्य १८५८०४२ एतावसलाकामा २१२ एतापति १५४०x२ एतावच्छलाकान ६४ किमिति सम्मातिते विहगतदेवारण्यवृद्धि स्पात १५४८०x२x६४। उमयप्रान्तयोरेतावति क्षेत्र १८४८. x२x६४ एकस्मिन् प्रान्ते सिमिति २१२ सम्पास्ये १८४८ ४२४ ६४ व मुखमूमिसमासामिति युस्त्यार्थीकृत्य १८४८०x२x६४४१ अपक्षम २१२४२ २१२x२x२ १४८.४ ३२ गाथा त्या पुनरपि गुणकारेण ३२ पुयिया ५ भयो देवारण्यमध्यक्षेत्रपति २१२ २१२ २१२ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ त्रिलोकसाब गाया : ९३२-१३३ श्या २७८९२२३३२ पुष्कलावतोवाद्याधाम एव देवारयश्वाद्यायामः १८७४४७२१। प्रस्यानयनप्रकारं विवृणोति - वैशवृद्धि ४५८३३३३ षोडशनि १३ साथिका ७३३२८३३क्षावृद्धि ४७७०१९ भि गुमला ३८१६३६३ विभंगबुद्धि ११६२३२ षभिर्गु विश्वा ७१४३३३ फच्छाया प्राणायामशि ३१३ सहितान् सर्वानात्मलमिया शुभा १२१ कला स्यात् । सहल १६ मेशिन मेलमिश्या कच्छाद्यायामति २०६५७० सहितानां सर्वेषामशिन मेलने १८७४४७ बेवारस्यायाद्यायामः । अत्र देवारय्यबुद्विक्षेत्र २७८१३ युक्त मध्यायाः ५६०२३६२२३ मस्मिन् पृमहल शिक्षेत्र युक्त मायामः ५९३०२६२ स्थात् । एवं सोलाया दक्षिणतटेऽपि विजयबारविभंगदेवानां व्यासपरिधिवृद्धिक्षेत्रापामास्तत्रातव्याः । एवं पुष्करार्धेऽपि विजयवक्षारविपर्ववारण्यध्यासानां परिषीनामोम उभयो म भागोरपन्नगुणकार द्विकेम गुरुपिश्वाद्वावशोचरशिल्पा क्षेत्रलाकाभि २१२ या चतुःषट्टा विवेशलाकाभि ६४ विश्वा लब्धं विदेहवद्धि क्षेत्र द्विकेन भक्तं लब्धमेकप्रावृद्धिक्षेत्रं मुखमूमिसमासार्थमित्यर्ष विश्वापवरथं तत्तल्लब्धवृद्धिक्षेत्रं तत्तदाखायामेषु युज्यात् । तथा सति तत्तम्मध्यायाम प्रागच्छति, पुनस्तत्तवृद्धिक्षेत्रे तत्तन्मध्यापामेषु प्रक्षिप्ले लत्त ह्यामामा प्रागच्छन्ति ॥ १३३ ॥ श्रत्र कच्छ्रादि देशो का मध्य आयाम और अन्तायाम प्राप्त करने का व्याख्यान दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : : गावार्थ:- विदेह वक्षार, विभङ्गानदी और देवारश्य की परिधि को बत्तीस से गुणित कर दो सौ बारह का भाग देने पर वहाँ वहाँ की वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है तथा अपनी अपनी वृद्धि का प्रमाण अपने अपने प्रथम आयाम में जोड़ देने पर मध्यम ब्रायाम मोर मध्यम आयाम में जोड़ देने पर अपने अपने अन्तिम आयाम का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ९३१, ९३३ ।। विशेषार्थ:- विदेह देश, वक्षार पर्वत, विभङ्गानदी और देवारण्य वन इन चारों की परिधियों को पृथक् पृथक ३२ से गुणित कर २१२ का भार देने पर निज निज स्थानों की वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है। उस निज निज स्थानों को वृद्धि के प्रमाण को निज निज स्थानों के प्रथम आयामों में जोड़ देने से मध्यम आयाम और मध्यम आयाम के प्रमाणों में जोड़ देने से अपने अपने स्थानों का अन्तिम मायाम प्राप्त हो जाता है । दोनों गायों का विशेष दर्शन करते हैं :- धातकी खण्ड के ४०० ००० व्यास में से मे और दोनों भद्रशाल वमों का २२५१५८ योजन व्यास घटा देने पर विदेहस्य भद्रशाल वनों के जागे पूर्व परिश्रम में अम्त का क्षेत्र १७४८४२ योजन अवशेष रहता है। इसे आधा करने पर मेस मे एक ओर के माघे प्रान्त क्षेत्र की कम्बाई ८०४२१ योजन प्रमाण प्राप्त होती है। अर्थात् पूर्व पश्चिम में भद्रशाल की बेदी से मागे समुद्र पर्यन्त विदेह क्षेत्र को लम्बाई का प्रमास ८०४२१ योजन है। इसमें से चाद चक्षार Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ५३२-१३३ नरतियंग्लोकाधिकार ७२३ पर्वतों का ध्यास ४००० योजन, तीन विभङ्गा नदियों का पास ५० योजन और देवारण्य का व्यास ५८४४ योजन मिलाकर प्राप्त हुए (४..+५० + ५४४)- १०५६४ योजनों को घटा देने पर पवंतादि से रहित विदेह के एक भाग सम्बन्धी शुद्ध क्षेत्र का व्यास (८७४२१---४)-०६८२७ योजन होता है । यह क्षेत्र का प्रमाण आठ विदेह देशों का है। ___ जबकि ( गाठ) - विदेह देशों का शुद्ध क्षेत्र ७६८२७ योजन है, तब १ देश का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर (७६६२७४१-६६० योजन व्यास कच्छ देश के पूर्व पश्चिम भाग का हुमा । यहाँ समबछेद विधान से प्रश और प्रशिक्ष को मिलाने पर "६* योजन हुए, इसका "विष्कम्भवग्गदह गुण" गाथा ६६ के नियमानुसार करणि रूप परिषि ५१७२१२९० योजन हुई । इसका वर्गमूल ग्रहण करने पर २४३३४० योजन हुए इसे स्वभागहाय से भाषित करने पर कच्छ देश के व्यास की परिधि का प्रमाण ३०३६८१ योजन प्राप्त हुया । यहाँ समच्छे विधान से अंश मशि को मिला देने पर 0930 योजन होते हैं। जबकि घातकी बण्ड के एक भाग में कछ देश के व्यास की परिधि का प्रमाण ०१ योजन है. तब दोनों भागो का कितना प्रमाण होगा ? इस प्रकार साशिक करने पर ६०४३४४ २ योजन प्राप्त हुए । यहाँ पर्वतों का व्यास समान है अतः उनमें वृद्धि का अभाव है. इसलिए पर्वतों की १६८ शलाकाएं घातको खण्ड की ३०० मिम शलाकारों में से घटा देने पर २१२ शलाकाएं अवशिष्ट रहीं। जबकि २१२ शलाकाओं का वृद्धिक्षेत्र ६०४३७४२ योजन है, तब विदेश की ६४ शलाकाओं का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर विदेह का सर्व वृद्धि क्षेत्र का प्रमाण १०७३७४६४४५ X२१२ योजन हुआ। जबकि ( नदी के दक्षिणोत्तर तट रूप ) दो प्रान्तों का वृद्धि क्षेत्र ६७३७४१४६४ २x२१२ योजन है, तब एक एक प्रान्त का कितना होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर भटशाल को वेदो के आयाम से कच्छ देश के अन्त में मायाम का वृद्धि प्रमाण क्षेत्र ३.४३.x२x६४ योजन हुआ। २१२४२४२ 'मुखभूमि समासा मध्यफ' इस भ्याय से आदि मे मन्त पर्यन्त वृद्धि का ओ यह प्रमाण है, उसको आधा करने के लिए दो का भाग देने पर १०.३०x२x६४ पोजन होता है। इसको यथायोग्य अपवर्तन २१२x२x२x२ करने पर ६०.३७४३२ योजन रहा। जो "बत्तीसगुणा तेहि वड्डीं" गावा ६३२ को अनुसार सिन हुआ । अर्थात् गाया में कहा गया था कि कच्छ देश के व्यास की परिधि को ३२ से गुणित कर २१९ का भाग देने पर ६०७३७४ ३२ योजन वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है अतः यह पूर्वोक्त कपन सिद्ध हुआ। २१२x२ २१९४२ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ त्रिलोकसार पाषा : ३२-९३३ अब पुनः इस कच्छदेश के वृद्धि प्रमाण ६०५३७ x 4 के बत्तीस की भागहार दो से अपवर्तन करने पर १२x२ १६ गुणकार रहा । अर्थात ६०७३७४१६ हुआ, इसमें गुणकार का गुणा करने पर ५५५र योजन २१२ हुए। इन्हें अपने भागहार से भाजित करने पर कच्छ देश सम्बन्धी मध्यायाम क्षेत्र ४५०३:१६ योजन प्रमाण प्राप्त होता है । इमको भद्रशाल के अन्न आयाम सदृश जो कच्छ देश का अम्यन्तर आयाम ५०९५७०३६३ योजन है, उसमें जोर देने ये ( ५०.५७०२६३ + ४५८३३१)-५१४१५४३१५ योजन प्रमाण मध्यायाम होता है और इस मध्यायाम में पुन: पूर्वोक्त वृद्धि क्षेत्र जोड़ देने पर । ५१४१५४१ + ४५८३३१५ )-५१८७३८११ईयोजन कच्छ देश के अन्त में मायाम का प्रमाण प्राप्त हुमा। वनार पर्वत का व्यास १००० योजन प्रमाण है। "विष्कम्भवम्गदहगुण' गाथा ९६ से १००० की करणि रूप परिधि १०००००.० योजन हुई, इसका वर्गमूल ग्रहण करने पर ३१६२ योजन हुए, यही ३१६१ योजन प्रमाण वक्षार व्यास को परिधि का प्रमाण है । जबकि १ भाग का ३१६२ योजन क्षेत्र है, तब दोनों भागों का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर ३१६२४२ योजन हए । पश्चात् जबकि २१२ शलाकामों का ३१६२ ४ २ योजन वृद्धि क्षेत्र है तब विदेह की ६४ शलाकाओं का किसना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर विदेह में प्राप्त परिधि का वृद्धि क्षेत्र ३१६२x२x६४ योजन प्रमाण हुआ। ( यदि नदी के दो तट रूप ) दो प्रान्तों के क्षेत्र में परिधि का वृद्धिगत क्षेत्र ३१६२ x २४६४ योजन है, तो एक प्रान्त में कितना होगा ? इस प्रकार राशिक करने २१२ पर ३११२x२x६४ योजन हुआ। यही वक्षार के अन्त में परिधि के वद्धि का प्रमाण है। २१२४२ "मुखभूमि समासाचं मध्यफलं" इस ग्याप से इसका आधा करने पर ३१६२४२४६४ योजन १२x२x२ हुए । इन्हें यथायोग्य अपवर्तित करने पर "बत्तीसगुणा तहि बड्डो" गाथा १३२ में कहा हा ३१६२ x ३२ अर्थात् वक्षार की परिषि ( ३१६२ यो०) को ३२ से गुणित कर २१२ का भाग देने पर १२ परिधि में शेषद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है, इस कथन को सिद्धि हुई । यहाँ गुणकार ३२ से गुणित करने पर 20 योजन हुए, इन्हें अपने ही भागहार ( २१२ ) से भाजित करने पर ४७७१३ पोजन वक्षार के अभ्यन्तर आयाम से मध्यायाम की वृद्धि का प्रमाण हुआ। पूर्वोक्त कच्छदेश का बाहायाम २१८७३८१ योजन ही वक्षार का अभ्यन्तर मायाम है, अत: इसमें पूर्व में निकाला हुआ यक्षार में क्षेत्र वृद्धि के प्रमाण ४७७१ योगनों को जोड़ देने पर बझार के मध्य में आयाम का Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जात गाथा: ९२२-१३ नरतिर्यग्लोकाधिकार प्रमाण ( ५१८७३८६+४७ )=५१:२१० योजन होता है, इसमें पुनः उसी खिक्षेत्र को मिला देने पर ( ५१५२१६ +४७७१५१९६६३ योजन वक्षार के अन्त में पायाम का प्रमाण प्राप्त हुआ। वक्षार के बाह्य आयाम का ५१६६६३५ योजन प्रमाण ही सुकच्छा देश का आद्यायाम है। इसमें पूर्व में प्राप्त किए हुए देश सम्बन्धी वृद्धि होत्र के ४५८३३१ योजन जोड् देने पर सुकच्या देश का मध्यापाम ( ५१९६६३ ४५८३५)= ५२४२७७.१० योजन प्रमाण होता है। इसमें एसो वृद्धिक्षेत्र का प्रमाण जोड़ देने पर सुकच्छा देश का बायायाम (१२४२०७२+४५८३१३)५२८८६१३१. योजन प्रमाण होता है। विभङ्गानदी का व्यास २५० योजन है, इसकी "विष्कम्भवग्ग" गाथा १६ से करणि रूप परिधि का प्रमाण ६२५.० योजन हुआ। इसका वर्गमूल ग्रहण करने पर ७९० योजन हए यही विभंगा की परिधि का प्रमाण है। जबकि १ भाग में ७५० योजन क्षेत्र होता है, तब दोनों भागों में कितना छोत्र होगा ? इस प्रकार शाणिक करने पर ५६ ० ४२ योजन हुए। पश्चाव २१२ शलाकाओं का ७० ४ २ योजन क्षेत्र में तो विह को १४ शलाकाओं का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार पुनः राशिक करने पर विदेह सम्बन्धी वृद्धिक्षेत्र का प्रमाण ७०x२x६४ योजन हपा । (पश्चात् नदी २५२ के तट रूप) दो प्रान्तों का 10४२४ ६४ योजन क्षेत्र है, तो एक प्रान्त का कितना क्षेत्र होगा ? इस २१२ प्रकार राशिक करने पर ७.४२ ६४ योजन हुए। २१२४२ इसे 'मुखभूमिसमासाद्य इस न्याय से आधा करने को दो का भाग देने पर utox२x६४ ११२४२४२ योजन होता है। इसका यथायोग्य अपवर्तन करने पर x ३२ योजन रहा और इसी से गाथा ॥३१ १२ में कहे हुए 'बत्तीसगुणा तहि बड्डी' की सिद्धि हुई । यहाँ ३२ गुणकार का गुणा करने पर २५३६० योजन हुए, इन्हें अपने मामहार से भाजित करने पर विभङ्गा नदी सम्बन्धी वृद्धि का प्रमाण १९९५३३ योजन प्राप्त होता है सुकच्छा देश के बाहयायाम का प्रमाण ५२८८६ योजन है और यही प्रमाण विभंगा नदी के आद्यायाम का है, अतः इसमें विभंगा सम्बन्धी वृद्धि क्षेत्र का प्रमाण मिला देने पर विभंगा के मध्य में आयाम का प्रमाण ( ५२८८६१२१५ --११९५३ )=५२८९८० योजन होता है और इसी में पुन: वही बुद्धि का प्रमाण मिला देने पर विभंगा के अन्त में मायाम का प्रमाण ( ५२८९८०११+ ११६.५३ ) - १२६९६ योजन होता है। इससे मागे महाकच्छादि देशों का, बक्षार आदि पदों का और विभंगा आदि नदियों का आयाम पूर्व पूर्व प्रमाण में निन निज वृद्धि का प्रमाण जोड़कर प्राप्त कर लेना चाहिए। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ त्रिलोकसार पाषा : ९३२-१३५ देवारण्य का ध्यास ५८४४ योजन है। "विष्कम्भवम्मदहगुण" गाथा ६६ से इसकी करणि रूप परिधि ३४१५२३३६० योजन होती है। इसका वर्गमूल ग्रहण करने पर देवारण्य की परिषि का प्रमाण १८४८० योजन होता है। जबकि एक भाग का परिधि क्षेत्र १८४८० योजन है तब दो भागों का कितना होगा? इस प्रकार राशिक करने पर १८४८०४२ योजन होत्र प्राप्त हुआ। यदि २१२ शलाकाओं का १८४०x२ योजन क्षेत्र है, तब विदेह की ६४ शलाकाओं का कितना क्षेत्र होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर १८४८०४२x६४ योजन विदहगत देवारण्य की वृद्धिक्षेत्र का प्रमाण प्राप्त होता है। जबकि २१२ २प्रान्तों का १८४८०x२x६४ याजन क्षोत्र है, तब एक प्रान्त का कितना धोत्र होगा ? इस प्रकार २१२ राशिक करने पर-१८४८०४२ ४६४ योजन हुए। इन्हें “मुख भूमिसमासामिति" इस युक्ति से २१२४२ भाषा करने पर १८४८.४२४६४ योजन हुष । इसे यथायोग्य अपवतंन करने पर गायोक्त देवारण्य १६x२x२ सम्बन्धी वृद्धिोत्र का प्रमाण १८४८०४३२ योजन प्राप्त होता है। इसे ३२ गुणकार से गुणित करने पर ५११३० योजन हुए और अपने भागहार में भाजित करने पर देवारण्य सम्बन्धी मध्य धोत्रवृद्धि का प्रमाण २७८०१३ योजन हमा। पुष्कलावती का बाहय आयाम ५८७४४०३१३ योजन है और यही देवारभ्य का प्राधायाम है । अर्थात पुष्कलावती का बाहर आयाम ही देवारण्य का आद्यायाम है। इसी प्रमाण को प्राप्त करने का विधान कहते हैं : नधी के एक तट पर आठ देश, चार वक्षार और तीन विभंगा नदिया है तथा मादि आयाम से मध्य में और मध्य सायाम से अन्त में, इस प्रकार प्रत्येक में दो दो बार स्व वृद्धि का प्रमाण बढ़ता है। यथा-देश वृद्धि का प्रमाण ४५८३३५ योजन है। इसे १६ ( देशों ) से गुणा करने पर ७३३२८२ योजन हुए । वक्षार पर्वत की वृद्धि का प्रमाण ४७७६ योजन है। इसको ८ ( वक्षार पर्वतों) से गुणित करने पर ३८१६३१ योजन हुए। विभंगा नदी की वृद्धि का प्रमाण ११९३५३ योजन है, इस प्रमाण को ६ (विभागा नदियों ) से गुणित करने पर १४३१३ योजन हए । यहाँ उपयुक्त तीनों प्रमाणों में जो अंश है, उन्हें जोड़कर उनमें कच्छदेश के आयायाम के ३० अंश भी जोड़ देने पर( + + ३१३+३१३-१५२ प्राप्त हुए । इन्हें अपने भागहार ( २१२ ) मे भारित करने पर १६ योजन प्राप्त हुए और १३ मंश अवशेष रहे, ये देवारण्य के आद्यायाम के अंश हैं। यहाँ १९ मोजम तो ये प्राप्त हुए तथा १६ देश, ८ वक्षार एवं ६ विभंगा की वृद्धि का प्रमाण-(७३३२८+ ३८१६+१४)= ७८५८ योजन और कच्छ देश के प्राद्यायाम के अंशि का प्रमाण २०६५७० योजन का योगफल ( ५०९५७+७७८+१९)-५८७४४७ योजन हमा, यही देवारण्य का आद्यायाम है। अर्थात् कच्छदेश के बाधायाम का प्रमाण ५.५५७ ३११ योजन, १६ देशों का वृद्धि प्रमाण Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरतियं ग्लोकाधिकार lo ७३३२८३योजन, वक्षार पर्वतों का वृद्धि प्रमाण ३८१६६६२ योजन और ६ त्रिभङ्गा नदियों का वृद्धि प्रमाण ७१४३३३ योजन है। इन चारों का योग ५८०४४७१११ योजन हुआ। यही देवारण्य का आद्यायाम है इस माद्यायाम में देवारण्य सम्बन्धी वृद्धि क्षेत्र १७०६२२ योजम जोड़ देने पर देवारम्य के मध्यमायाम का प्रमाण ५६०२३६३३३ योजन तथा इसी में पुन: वही वृद्धि प्रमाण जोड़ देने पर कालोदक के निकट देवारण्य के बाह्यायाम का प्रमाण ५६३०२६२ योजन होता है। पापा ६३४-६३५ इस प्रकार जैसे सीता नदी के उत्तर नट का वर्णन किया है, उसी प्रकार सोता के दक्षिणतट के विदेह देश, वक्षार पर्यंत, विभङ्गा नदी और देवारभ्य के ध्यास, परिधि, वृद्धिक्षेत्र और आयाम का प्रमाण वहाँ वहीं प्राऊ कर लेना चाहिए जिसमे कवं दिशा में अधिक अधिक अनुकम सेवन किया है, उसी प्रकार मेरु की पश्चिम दिशा में भद्रशाल वन से हीन होन अनुकम द्वारा वर्णन करना चाहिए। वहाँ हानि का प्रमाण वृद्धि प्रमाण सदृश ही है । इसी प्रकार पुष्करा में भी देश, वक्षार, विभङ्गा बोर देवारण्यके यथासम्भत्र व्यास सोय परिधि का प्रमाण निकाल कर दोनों भागों के यह हेतु दो से गुणित कर २१२ शलाकाओं से भाजित कर प्राप्ता को विदेहशलाका ६४ से गुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो, वह विदेह वृद्धिक्षेत्र है । उसको दो से भाजित करने पर एक प्रान्त सम्बन्धी वृद्धि क्षेत्र प्राप्त हुआ, उसे "मुखभूमिसमासाचं" न्याय द्वारा आधा कर अपवर्तन करने से स्व स्व स्थान का लब्ध मात्र वृद्धि क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त हो जाता है, उस वृद्धि क्षेत्र को अपने अपने आदि आयाम में जोड़ देने पर अपना अपना मध्यायाम मोय स्व स्व मध्यायाम के प्रमाण में जोड़ देने पर अपने अपने बाह्यायाम का प्रमाण प्राप्त होता है। पूर्वपूर्व का बाह्यायाम हो उस उत्तर का आदि आयाम होता है । मेरु को पश्चिम दिशा में हीन रूप से जानना चाहिए। trainstoryoneद्वीपयोः किञ्चिद्विशेषस्वरूपं गायाद्वयेन --- arry दीवा धादपुक्खरतरूहिं संजुचा । तेसिं च वण्णणा पुण जंबूदुमंत्रणणं व हवे ।। ९३४ ।। वादगंगारच हिमसिहरिणोवरि उजु बादि । णवणमतिणविगि चलणं जंबू व पुक्खरे दुगुणं ||९३५ ।। arantyesरोप घातकीपुष्करतदभ्यां संयुक्तौ । तयोः पवना पुनः जम्बूद्रुमवरांना इव भवेत् । ९३४ ॥ धातकीगङ्गरक्ता हिमशिखरिनगोपरि ऋजु यातः । नवनमस्त्रिये चलन अम्बू व पुष्करे द्विगुणं ॥ ९३५ ॥ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गामा ६३६ धावई पासकोड पुष्करहोपो घातकीपुष्करतरुम्या संयुक्तौ तयोव योगा पुनम्बूवर्णनाद्भवेत् ॥ ६३४ ॥ ७२८ धार। बालकखण्डस्थपङ्गासिन्धू रक्तारतोदे नखौ ययासंख्यं हिमवच्छारिनगयो परि नवनभस्त्रिनवाोत्तरेकयोजनानि १६३०६ ऋजु यातः चलनाविकं पुनम्बूद्वीपयत् ज्ञातव्यं । पुष्करद्वीपे पुनगोपरि नवीगमनं एतस्माद्विगुणं शातव्यं २६६१८ ॥ ३५ ॥ ॥ एव नश्लोको व्याख्यातः U ar araat ass और पुष्कराधं द्वीपों का कुछ विशेष स्वरूप दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : गामार्थः – घातकी खण्ड और पुष्कर द्वीप क्रमशः घातकी और पुष्कर वृक्षों से संयुक्त हैं। इन मां वृक्षों का वर्णन जम्बूदीपस्य जम्बूवृक्ष के वर्णन सदृश ही होता है । घातकी खण्ड सम्बन्धी गंगासिन्धु और रक्ता रक्तोदा क्रमशः हिमवन और शिखरी पर्वत पर उनीस हजार तीन सौ नो योजन सोधी जाती है। इसके आगे उनके मोड़ आदि का वर्णन अम्बूद्वीप सद्दश है। पुष्करार्ध द्वीप में पर्वत के ऊपर नदियों का सीधा गमन दुगुना अर्थात् ३८६१८ योजन है ।। ६३४, १३५ ॥ विशेषार्थ :- -घातकी खण्ड द्वीप घातकी वृक्ष मे और पुष्करार्ध द्वीप पुष्कर वृक्ष से संयुक्त हैं । इन दोनों वृक्षों का वरन जम्बूद्वीप के जम्बूवक्ष सदृश हो है । घातकी खण्डस्थ गङ्गा सिन्धु नदियाँ हिमवत् पर्वत पर १६३०६ योजन नीर रक्ता रक्तोदा शिखरी पर्वत पर १६३०६ योजन सीधी जाती हैं। इसके बाद इनके मोड़ आदि का वर्णन अम्बूद्वीप सम्बन्धी गंगा सिन्धु आदि के सट्टा ही है । पुष्कर प में इन्हीं नदियों का पर्वत के ऊपर सीधा गमन ३८६१८ योजन प्रमाण है । इस प्रकार नरलोक का व्याख्यान समाप्त हुआ । इदानीतियंश्लोकं प्रतिपादयन् तावदुभयत्रापि स्थितानां शेलार्णवानां गाधं बोषयति-मेरुणरलोय बाहिरसेलागाढं सदस्सपरिमाणं | साणं समतुरियं सम्वद्दीणं सहस्सं तु ॥ ९३६ ॥ मैदनरलोकबदलाव गावं सहस्रपरिमाणं । . शेषाणां स्वयं सर्वोदधीनां सहस्र ं तु ॥ ९३६ ॥ मेरा । मैदनगस्य मानुषोत्तरं वर्जयित्वा मरलोकबहिः स्थानां' शेलामाम वगार्थ सहस्र २००० परिमाणं ज्ञातव्यं तदभ्यन्तरहिताना शेषारण हिमद वा बिलानामवगामः पुनः स्वकीयस्वकीयोचतुर्थांशो ज्ञातव्यः । सर्वेषामुदधीनामवगाधं तु सहस्रयोजनं जानीयात् ॥ ३६ ॥ १ मध्येषां च ( प० । Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्लोकाधिकार २७२६ तिर्यग्लोक का प्रतिपादन करते हुए आचार्य मनुष्य और तिर्यग्लोक में स्थित पर्वत एवं समुद्रों का गाध - अववाह कहते हैं गाथा: ३३७-६३८ - गाथा - पतों का और नवलोक के बाह्य भाग में स्थित सम्पूर्ण पर्वतों का अवगाव एक हजार योजन प्रमाण है। शेष पर्वतों का गाध अपनी ऊंचाई के चतुर्थ भाव प्रमाण है । सर्व समुद्रों का अत्रगाह- गहराई भी १००० योजन प्रमाण ही है ।। ६३६ ॥ विशेषार्थ : – मे पर्वतों का और मानुषोत्तर बिना मनुष्यलोक के बाह्य भाग में स्थित सर्व पर्वतों का अर्थात् मे पर्वत और बढ़ाई द्वीप के बाहर के सर्व पर्वतों का गाव (नींव या जमोन के भीतर पर्वतों की गहराई ) १००० योजन जानना चाहिए तथा मनुष्य लोक के अभ्यस्सर भाग में स्थित हिमवन् आदि पर्वतों का अवगाव अपनी अपनी ऊंचाई के चतुर्थ भाग प्राण है । स समुद्रों की गहुबाई भी १००० योजन प्रमाण है । अनन्तरं मानुषोत्तर स्वरूपं गाथायेणाह : अंते कच्णि माहिं कमवद्धिहाणि कणयणिहो । दिणिग्गमपचादसगुदाजुदी मारगो ।। ९३७ ॥ अन्तः टङ्कच्छिलो बाह्यं श्रमवृद्धिहानिकः कनकनिभः । नदीनिगं मपथचतुर्दश गुहायुत। मानुषोत्तरः ॥ ३७ ॥ अंते । अभ्यन्तरे दो बाह्य शिखरा कमवृद्धः मूलाय नवनिर्गमाहाभिर्वृतो मानुषोत्तरापर्शलो ज्ञातव्यः ॥ ९३७ ॥ अब मानुषोत्तर पर्वत का स्वरूप तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाथा: - पुष्कर द्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है। वह अभ्यस्व में टङ्कचिन्न और वाच भाग में कमिक वृद्धि एवं हानि को लिए हुए है। स्वयं सह वर्ण वाला एवं नदी निकलने के गुफाकारों से युक्त है ।। ३७ ।। विशेषार्थ :- पुरुकर द्वीप के मध्य में मानुषोत्तर नाम का पर्वत स्थित है। वह अभ्यन्तरमनुष्य लोक की ओर टछि अर्थात् नीचे से ऊपर तक एक सदृश है तथा बाह्य तिर्यग्लोक की ओर शिखय से श्रमिक वृद्धि और सूख से क्रमिक हानि को लिए हुए है। उसका व स्वर्ण सदृश है तथा महानदियों के निर्गम स्वरूप चौदह गुफाद्वारों से युक्त है। मसुचरुदयभूमुहमिगिवीसं सगस्यं सहस्सं च । यात्रीसहियसहरू चयीसं चउसयं कमसो || ९३८ || मानुषोत्तरोदय भूख मेकविशं सप्तशत सहस्र च । द्वाविणाधिकसहस्र चतुविशतिः चतुःशतं क्रमाः ॥ ३३८ ॥ ९२ कम हानियुक्तः कनकनिभः Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पाया : ३२६-१४० मसु । मानुषोंसोयसुमुखण्यासाः क्रमेण एकविध सिसम तो सरसहयजमान १७२१ प्राविधिक सहस्र योजनानि १०२२ चतुविशत्युत्तर चतुः शतयोजनानि ४२४ भवन्ति ॥ ९३८ ॥ ७३० पापा : - मानुषोत्तर पर्वत का उदय, न ध्यास और मुख व्यास कमशा एक हजार सात सौ इक्कीस योजन, एक हजाब जावीस योजन और चार सौ चोबीस योजन प्रमाण है ।। ९३८ ॥ विशेषा:- मातृषोवर परंत की ऊंचाई १७२१ योजन, भू व्यास अर्थात् मूल में चौड़ाई १०११ योजन और मुख व्यास अर्थात् ऊपर की चौड़ाई ४२४ योजन प्रमाण है, तथा इसकी नींव 13 ४३० भोजन १ कोश है । तण्णग सिहरे वेदी चागं चदुसरा | सोss वलयायारा चरणण्णिदकोस वित्थारा ।। ९३९ ।। गशिखरे वेदी चापानां चतुः सहस्रतुङ्गयुता । शोभते बलयाकार चरणान्वितको विस्तारा ।। ६३६ ॥ सरग | सम्मानुषोत्तरमगस्य शिखरे पापानां चतुः सहस्रतुङ्गता चतुर्थांशान्बितकोश विस्तारा २५०० वलयाकार वेदी शोभते ॥ ९३६ ॥ गाथा: -- उस मानुषोत्तर पर्व के शिखर पर चार हजार धनुष ऊंचो श्रोर सवा कोस (१३) चौड़ी वखयाकार वेडी शोभायमान है ।। ६३ । अधा स्थितानि कूटानि कथयति मइरिदिवायव्यादिसं वञ्जिय बस्तुनि दिसासु कूडाणि । तियतिमावलियाए वाण मंतर दिसासु चजवसई ।। ९४० ।। नैऋती वायव्य दिशं वर्जयित्वा षट्स्वपि दिशासु कूटानि । त्रित्रिकमावल्या तेषामभ्यन्तर दिश। सु चतुष्क व सत्यः ।। ९४० ।। हवाय च दिशं वर्जयित्वा षट्स्वपि विशासु पंक्तिक्रमेण श्रीणि त्रीणि फूटामि सन्ति । तेषामभ्यन्तरविशासु चतुरस्रा वसत्यः सन्ति ॥ २४० ॥ अब इस पर्वत के ऊपर स्थित कूट कहते हैं। गावार्थ:-स्य और वायव्य इन दो विदिशाओं को छोड़ कर अवशेष यह दिशामों में पंक्तिरूप तीन तीन फूट हैं तथा उन कूटों के अभ्यन्तर की ओर चार दिशाओं में चार वसतिका हैं ॥ ६४० ॥ विशेषार्थ :- उस मानुषोत्तर पर्वत पर ऋश्म और वायव्व इन दो दिशाओं को छोड़ कर Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया : २४१-२४२ नरसिग्लोकाधिकार ७३१ अवशेष छह दिशाओं में पंक्ति स्वरूप तीन तीन कूट हैं तथा उन कूटों के अभ्यन्तर अर्थात् मनुष्य लोका की ओर चार दिशाओं में चार वसतिका अर्थात् जिन मन्दिर हैं। अथ तस्कूटवासिदेवानाह माणकूडे गरुडकुमारा वसंति से दु । दिग्गयवार सकूडे सुष्णकुलादेवकुमारी भो ।। ९४१ ॥ अग्नीशान षट् कूटे गरुडकुमारा वसन्ति शेषेषु तु । दिग्गतद्वादशकटेषु सुवर्णकुलदिक्कुमार्यः ।। ९४१ धनेशानविकस्येषु षट्सु कटेषु गरुडकुमारा वसति शेषेषु पुनविद्वाशकूटेषु सुपसंकुल दिवकुमार्यो वसन्ति ॥ १४१ ॥ उन कूटों में बसने वाले देवों को कहते हैं। - नाथार्थ :- आग्नेय और ईशान दिशा सम्बन्धी छह कूटों में गरुड़कुमार देव तथा अवशेष दिशागत बारह कूटों में सुवर्णकुमार देव एवं दिक्कुमारी देवांगनाएं निवास करती है || ६४१ ॥ अथ मानुषोत्तरस्य स्थानादिकमाह पणदाललक्खमाणुमखेषं परिवेदिऊण सो होदि । उदय चवत्थोगाढो पुक्खरविदियद्धपदमहि ।। ९४२ ॥ पचचरत्र शिल्लक्ष मानुषक्षेत्रं परिवेष्ट्य स भवति । उदय चतुर्थावगाधः पुष्करद्वितीया प्रथमे ॥ ९४२ ॥ पण | पचोत्तर बारिशएलसयोजन ४५००.०० प्रमितमानुषक्षेत्रं परिवेषु स्य प्रथमभागे स मानुषोत्तरो भवति । तस्यावगान: उदयचतुषः ४३०३ ॥ पुष्करद्वीप द्वितीया ४२ ॥ आगे मानुषोत्तर पर्वत का स्थान आदि कहते हैं : गाथार्थ :- पुष्कर द्वीप के द्वितीय अर्थ भाग के प्रथम भाग में, ४५००००० योजन प्रमाण मनुष्य लोक को वटित किए हुए मानुषोत्तर पर्वत है। जिसका अगाध ऊंचाई का चतुर्थ भाग प्रमाण है ।। ६४२ ॥ विशेषार्थ : - ४५००००० योजन प्रमाण मनुष्य लोक को घेरे हुए पुष्कर द्वीप के द्वितीय अर्थ भाग के प्रथम भाग का जो आदि क्षेत्र है उसमें मानुषोत्तर पत है। इसकी नींव गाव ऊँचाई का चतुर्थांश अर्थात् (२) ४३०१ योजन है । अथ कुण्डलकाच लयोरुदयादित्रयमाह Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसाब पापा : सेल कुंडलगो दसगुणिो पणसदारिसहस्स तुममो समगे। चउरासीदिसहस्सा सम्पत्थुमयं सुवण्णमयं ।। ९४३ ।। कुण्डलगौ दशगुणितो पञ्चसमतिसहस्र तुङ्गो रुचके । चतुरशीतिसहस्राणि सवंत्रोमो सुवर्णमयी ।। ६४३ ॥ कुंडल । मानुषोसरभूमुखल्यासाव कुण्डलपर्वतस्य प्रमुखज्यालो बनरिणतो F१०२२० मुख ४२४. सतुङ्गास्तु पश्नसप्ततिसहरूयोजनानि ७५०.० रुचके सर्वत्र उपये घ्या चतुरशीसिसहनयोजनानि ८४०००। उभयो कुण्डलयको सुवर्णमयो स्यातां ॥ १४३ ।। बन कुण्डल गियि और रुचक गिरि के उपयादि तीनों कहते हैं : गाचार्य :-कुण्डलगिरि का भूव्यास और मुख व्यास मानुषोत्तर के भू मुख व्यास से दशगुणा है और ऊँचाई पचहत्तर हजार योजन है तथा स्वक गिरि सर्वत्र चौरासी हजार योजन प्रमाण है। ये दोनों पर्वत स्वर्णमय हैं ॥ ६४३ ।। विशेषार्य :-मानुषोत्तर पर्वत के भू मुख ध्यास से कुशालगिरि का भु मुल व्यास दशगुणा है । अति कुण्डल गिरि का भून्यास १०२२० योजन, मुखव्यास १२४० योजन और ऊँचाई ७१०. योजन है तथा रुचकगिरि का उदय, भू व्यास और मुख व्यास ये तीनों ८४४०० योजन प्रमाण हैं। दोनों पर्वत स्वर्णमय है। साम्प्रतं कुण्डलस्योपरिमकूटानि गाथात्रयेणाह चउ चउ कूडा पडिदिसमिह कुंहलपपदस्स सिहरिम्मि । ताणभंतर दिग्गय चत्वारि जिणिंदडाणि || ६४४ ॥ वज्ज तप्पह कणयं कणयप्पह रजदकूड रजदाई । सुमहप्पड अंककम्पह मणिकूलं च मनिपहयं ॥ ९४५ ॥ रुजगहजगाह हिमर्व मंदरमिह चारि सिद्धकहाणि | मत्थंति सेसि कूठे कूटखसुरा कदावासा || ९४६ ॥ पस्वायि चरवानि कूटानि प्रतिदिशमिह कुमालपर्वतस्य शिखरे । तेषामभ्यन्तरदिगवानि पत्वाय जिनेन्द्रकूटानि ॥१४४॥ वज्ञ तत्प्रभ कनक कनकप्रभ रजतकूटं रजताभ । मुमहाभ अमममं मणिकूटं च मणिप्रमं ॥ ४५ ॥ रुचकरुचकाभं हिमवत् मन्दामिह चत्वारि सिडकूटानि । थासते शेषेषु फूटेषु कूटारूपसुषाः कृतामासाः ||४॥ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबा : ६४४ से ३४६ मति ग्लोकाधिकार च। इह कुण्डलपर्वतस्य शिखरे प्रतिदिशं बाधारि ४ अरवारि ४ कूटानि । सेवामस्यारदिग्गतानि चत्वारि ४ जिनेवानि ॥ २४४ ॥ व वा वज्रप्रभं कनके कनकप्रभं जलकूट रजताभं सुप्रभं महामने मधङ्कप्र मणिकूटं मणि ॥ ६४५ ॥ दजग। रुच दचका हिमवत् मम्बरं ४ एम्प: कूटेम्पः सकाशादन्यानि दह चत्वारि सिद्धदानि सन्ति । शेषकूटेषु १६ फूटायाः सुराः कृतावासा मूल्या प्रासते १६ ॥ ६४६ ॥ जव कुण्डल गिरि के ऊपर स्थित कूटों को तीन पाथाओं द्वारा कहते हैं 3 11 गावार्थ :- इस कुण्डल गिरि के शिखर पर एक एक दिशा में चाय पात्र कूट हैं। इनके अभ्यन्तर की ओर चारों दिशाओं में | एक एक ) चार फूट जिनेन्द्र भगवान सम्बन्धी है उनके नाम१ वज्र, २ वज्रप्रभ, ३ कनक, ४ कनकप्रभ, ५ रजतकूट, ६ रजताभ ७ सुप्रभ महात्रम, १ म १० अङ्कप्रभ, ११ मणिकूट १२ मणिम १३ रुचक १४ रुचकाभ, १५ हिमवत और मन्दर ये सोलह कूट है । अभ्य चार सिद्धकूट हैं जिनमें भगवान के वैश्यालय हैं। अवशेष १६ कूटों में अपने अपने फ्रूट नाम वाले देव निवास करते हैं ।। 8९४५ ४६ ।। [ कृपया चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए ] विशेषार्ग:- इस कुण्डलविषि के शिखर पर पूर्व दिशा में वज्र वध्र्वप्रभ कनक और कनकप्रभ ये चार एवं एक सिद्ध कूट इस प्रकार कुल पाँच कूट हैं। इसी प्रकार दक्षिण में रजतकूट, रजताभ, सुप्रभ, महाप्रभ जी एक सिद्धकूट पश्चिम में मङ्क अङ्कप्रभ, मस्किट, मणिप्रभ और एक सिद्धकट तथा उत्तर में रुचक, रुचकाभ, हिमवत्, मन्दर और एक सिद्धकूट है। इस प्रकार कुल कूट २० हैं। जिनमें ४ सिद्ध कूटों में बेस्यालय हैं और अवशेष सोलह कूटों में अपने कूट नाम घाची देव निवास करते हैं । यथा : Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ त्रिलोकसाथ पापा: ALol . and 84 इवानी रुचकोपरिमकूटानि तन्निवासिनीदेवीस्तकृत्यं च त्रयोदशगाथाभिराह पुष्वादिसु पुह मा मह अते चउ चारि चारि कूडाणि । रुजगे सन्वन्मंतरचचारि मिणिंदकूडाणि ॥९४७ ।। पूर्वादिषु पृथक अष्टौ अष्टो अन्तः चतमृषु चत्वारि चत्वारि कूटनि । रुचके सर्वाभ्यन्तरचत्वापि जिनेन्द्रकूटानि ॥४॥ पुड्या । चकगिरी पूर्वादिषु चतसषु विक्षु पृथक् पंहितामेरणादायको कूटानि । तेषामभ्यन्तरे चतम बिच एकवारं चत्वारि फूटानि । तवयम्तरे पुमरप्येकवार परवारि फूटानि तबम्यन्तरे व पुमरप्येकवारं घरवारिकूटानि एषमभ्यस्तो प्रतिविक बोरिण त्रीणि कूटानि सेषु सर्वाभ्यन्तराणि पत्यारि जिनेखकूटानि ॥ ६४७ ॥ अब रुचक पर्वत के ऊपर स्थित कट, उनमें निवास करने वाली देवांगनाएं बोर उम देवांगनाओं के कार्य तेरह गाथाओं द्वारा कहते हैं: गाथार्थ :-रुचक गिरि पर्वत के ऊपर पूर्वादि चारों दिशाओं में पृथक पृथक आठ आठ कर हैं। जिन अभ्यस्तर को ओर चारों दिशाओं में चार कूट हैं। उन चार कूटों को अभ्यन्तर चार दिशाओं में पुनः चार कूट है और सर्व अभ्यन्तर चार दिशाओं में चार जिनेन्द्र कूट हैं ।। ९४५ ।। विशेषार्थ:-चक पर्वत पर पूर्व, दक्षिण, पविचम और उत्तर हन चार दिशाओं में से पृथक पृथक् दिशा में पंक्ति कम से अर्थात पंक्ति बद्ध आट बाट कूट हैं। इन आठ कूटों की मम्वन्तर चारों Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : ९४८ से १५१ नरतियंग्लोकाधिकार दिशामों में चाय कट हैं । अर्थात् प्रत्येक दिशा में एक एक कट है । इन चारों कूटों के अभ्यन्दर चार कूट हैं जो एक एक दिशा में एक एक है। इस प्रकार प्रत्येक दिशा में आठ कूटों के अभ्यन्तर में तीन तीन कूट और हैं जिनमें चार सर्व अभ्यन्तर कूट जिनेन्द्र सम्बन्धी हैं। अर्थात् इन चारों कटों पर जिनेन्द्र भवन हैं, देवियों का वास नहीं है। कणयं कंषण तवणं सोषियकूहं सुमहमंजणयं । अंबणमूलं व तत्थेदा दिक्कुमारी भो ।। ९४८ ।। विजयाय वहजयंती जयंति भवरजिदाय गंदेसि | गंदवदी गंदुचर गामांतो गंदिसेोचि ||९४९|| कनक काश्चन तपनं स्वस्तिककूटं सुभद्रम जनकं । असन मूलं बच्चतता दिक्कुमार्यः ॥ ९ ॥ विजया वैजयन्ती जयन्ती अपराजिता नादा इति । नन्दवती नन्दोत्तरा नाम्नामन्ते नन्दिपेरणा इति ॥ ४ ॥ करणयं । कनक काश्चनं तपनं स्वस्तिककट सुभामजनक प्रब्लममूलं घनमित्येतानि पूर्वरिश्यो कटामि। ता पने वक्ष्यमाणा विक्कुमार्यो निवसन्ति ।। ६४८n विजया। विजया वंजयन्ती जयन्यपरामिता नवा नन्ववती नम्बोत्तरा नविषेरणेमहौता दियकुमार्यः ॥ ४६॥ गाचार्य:-रुचक पर्वत के ऊपर पूर्व दिशा में १ कनक, २ काखन, ३ तपन, ४ स्वस्तिक कूट, ५ सुभद्र, ६ असनक. ७ अन्जानमूल और वन नाम के फूट है, जिनमें कम से विजया, वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता, नन्दा, नन्दावती, नन्दोत्तरा और नन्दिषेणा ये आठ देव कुमारिया निवास करती है || EYE, ४६ विशेषा:-कचक पर्वत के ऊपर पूर्व दिशा के कनक कट में विजया काश्चन में वैजयन्ती, तपन में जयन्ती, स्वस्तिक में अपराजिता, सुभद्र में नन्दा, अजनक में नयावती, अखनमूल में नन्दोत्तरा और बजट में नन्दिषेणा देवकुमारी निवास करती है। ये भङ्गार धारण कर माता को सेवा करती हैं। फलिइ रजदं व कुमुदं गलिणं पउमं ससीय सवर्ण । वेलुरियं देवीमो इच्छापढमा समाहारा ।। ९५. ।। सुपइण्णाय जसोहर लच्छी सेसवदि चिचगुचोति । चरिम वसुंधरदेवी ममोहमह सोस्वियं कूडं ।। ९५१ ।। Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ त्रिलोकसार पापा । 8५८ में ६५६ तो मंदर हेमबदं रज्ज रज्जुत्तमं च चंदमाये । पच्छिम सुदंसणं पुण इलादिदेवी सुरादेवी ।। ९५२ ।। पुढवी पउमबदी इगिणासो देवी य णवमिया सीदा । भद्दा तो विजयादी चउकूडं कुंडलं रुजगं ।। ९५३ ।। तो रयणवंत सवादीरयणं उत्तरे अलंधूसा । विदिया दु मिस्सकेसीदेवी पुण पुडरीगिणि सा ।।९५४|| वारुणि भासासच्चा हिरिसरि पुवायदिक्कुमारीभो । भिंगारं धरिहि दक्खिणदेवीउ मुकुरुंदै ॥ ९५५ ॥ पश्चिमगा छत्तयं उत्तरगा चामरं पमोदजुदा । तित्थयरजणणिसेवं जिणजणिकाले पकुव्वति ॥ ९५६ ।। स्फटिक रजत वा कुमुदं नलिन पा राशि बंधवणं। बंडूर्य देव्यः इच्छाप्रपमा समाहाराः ॥ ९५० ।। सुप्रकोण यशोधरा लक्ष्मीः शेषवती चित्रगुप्ता इति । चरमा वसुन्धरा देव्यः अमोघमथ स्वस्तिकं कूट ॥९५।। तत्तो मन्दर हैमवत राज्य राज्योत्तमं च चन्द्रमपि । पश्चिम सुदर्शनं पुनः इलादिका मुरादेवी ।। ९५२ ।। पृथ्वी पद्मावती एकनासा देवी च नवमिका तीठा । भद्रा ततो विजयादिचतुष्कटानि कुण्डल कचकं ।। ९५३ ।। ततो रत्नवत् सर्वादिरलं उत्तरे अलभूषा' । द्वितीया तु मिभकेशी देवी पुना पुनरीकिनी सा ||९५४|| वारुणी आशासस्या ह्री: श्रीः पूर्वगतदिक्कूमार्यः। भृङ्गारं घृत्वा ३६ दक्षिणदेव्यो मुकुरुन्द ॥ ९५५ ।। पश्चिमगाः छत्रत्रये उत्तरगा: चामर प्रमोदयुताः। तीर्थकरजननीसेवां जिननिकाले प्रकुर्वन्ति ॥ ९५६ ।। फलिह । फिटिक रजत कुमुवं मलिनं पम शशि श्रवण गैडूर्य इस्पष्टो र बक्षिणविक्कूटानि । पत्रस्याप्या इच्छासमाहारा1१५० ॥ . असंनुसा (प.) Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाषा : ६५० से १४६ नरतियंग्लोकाधिकार सुपा। सुप्रकीर्णा यशोषरा लक्ष्मीः शेषवती चित्रगुप्ता वसुन्धरा इत्यो देव्यः प्रमोघमय स्वस्तिकं कूटं ॥५१॥ तो। ततो मदर हैमवतं राज्य राज्योत्तमं चन्द्रमपि सुरक्षनमित्यष्टौ ८ पश्चिमविक्कूटानि सत्र स्थिता वेण्यः इलायती सुरायो ।। ६५२ ॥ पुरुयो । पृम्बी पावतो एक्षमासा देवी नवमिका सोसामना इस्यष्टोता देव्यः । ततो विषयजयन्तजयन्तापरागितामीति सस्मारिकूटानि कुण्डलं मकं ॥ ५३॥ तो। ततो रनवर सरिस्ममिस्यष्टौ ८ उतरविक्कूटानि, तत्र स्पितास्तु देव्यः पलंसूषा मिसकेशी वेवी पुपरीकिरणी ॥ १४ ॥ वाणि । मारणो प्राशासस्या हो भीरयष्टौ वेश्यः । एतासु तावत्पूर्नपतविपकुमार्यो नृङ्गार धृत्वा इह वक्षिणव्यो मुकुन्द षत्वा ।। ६५५ ।। पनिछ । पश्चिमदिग्गता वेयरछत्रयं पुत्वा उत्तरविणता वेग्पश्चामराणि घरवा प्रमोरमुता सत्यस्ता सा देख्यो जिनजननकाले तीयंकरजननीसेवा प्रकुर्गते ॥ ६५६ ॥ गापार्थ : दक्षिण दिशा में { स्फटिक, २ रजत, ३ कुमुद, ४ नलिन, १ पद्म, ६ शशि, ७ वैववरण पोर ८ वडूयं ये साठ कट हैं। इनमें कम से इच्छा, समाहारा. सुप्रकोण, यशोषया, लक्ष्मी, शेषवतो, चित्रगुप्ता और वसुन्धरा ये आठ देवांगनाएं रहती हैं तथा १ अमोध, २ स्वस्तिक कूट, ३ मन्दर, ४ हैमवत, ५ राज्य, ६ राज्योत्तम, " चन्द्र और ८ सुदर्शन ये पश्चिम दिशा के आठ कर है और इन पर कम से इलादेवी, सुरादेवी, पृथ्वी, पद्मावती, एकनासा, नवमिका, सोता और भद्रा ये आठ देवकुमारियो रहती हैं। इसके बाद १ विजय, र वैज पन्त, ३ जयत, ४ अपराजित, ५ कुण्डल, ६ चक, रत्नवत् पौर ८ रल ये उत्तर दिशा सम्बन्धी माठ कूट हैं इनमें कम से बलभूषा, मिश्रकेशी, पुणरी किणी, वारुणी, आशा, सत्या, हो और धो ये आठ देव कुमारिया निवास करती है। पूर्व दिशा सम्बन्धी देवकुमारियाँ भृङ्गार धारण कर दक्षिणगत देखियो मुकुरुग्द (दर्पण), पश्चिमयत देवियाँ तीन छत्र और उत्तरगत देवियां चमर धारण कर महाप्रमोद से युक्त होती हुई तीर्थङ्कर के जम्मकास में तीर्थङ्कर की माता की सेवा करती हैं ।। १५० से १५६ ।। विशेषायं :-वक्षिण दिशा में सटिक कूट में इच्छा नाप को देवकुमारी वास करती है। रजत कट में समाहारा, कुमुद में सुप्रकीर्णा नलिन में यशोधरा, पल में लक्ष्मी, शशि में शेषवती, वश्रवण में चित्रगुप्ता और वैडूर्य में वसुन्धरा ये आठ देवांगनाएं रहती हैं। ये आठों देवकुमारियां हाथ में दर्पण लेकर माता की सेवा करतो हैं। पश्चिम दिशा के अपोष कट में इलादेवी, स्वस्तिक में मुगादेवी, मन्दर में पृथ्वी, हेमवत में पद्मावती, राज्य में एकनासा, गग्योत्तम में नबमिका, चन्द्र में Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ त्रिलोकसार पाया: ९५७-९५८-१३९ सीता और सुदर्शन में भद्रा नाम की देवकुमारियाँ रहती हैं। ये हाथ में दोन छत्र धारण कर अति प्रमोद युक्त होती हुई जिन माता की सेवा करती है। इसके बाद उत्तरदशागत विजयकट में बलभूषा, वैजयन्त में मिश्रकेशी, जयन्त में पुण्डरीकिणी, अपराजित में वाणी, कुण्डल में आशा, रुचक में सत्या, रत्नवत् में ह्री और रत्न में श्री देवियाँ रहती हैं। ये सभो जिनेन्द्र भगवान के जन्मकाल में चंवर धारण कर अतिप्रमोदपूर्वक जिनमाता की सेवा करती है । フ पुच्चे विमलं कूलं णिच्चालोयं सयंपदं वरे । णिच्चुओदं देवी कमसो कणया सदादिदद्दा || ९५७ ।। कणयादिचिच खोदामणि सम्बदिसम्पसनद देति । वित्यरजम्मकाले कूलं वेलुरियरुजगमदो ।। ९५८ ।। मणिकूढं रज्जुसममि रुजगा रुजगकिचि हजगादी | कंता रुजगादिपा जिणजादयकम्मकदिकुमला ।। ९५९ ।। पूर्वयो: त्रिमले कटं नित्यालोक अपरयोः । १ नित्योद्योतं देव्यः क्रमशः कनका शतादिदा ।। ६५७ ।। कनकादिचित्रा सौदामिनी सर्व दिशा प्रसन्नतां दधते । तीर्थंकर जन्मकाले कुटं वैड्यं रुचकमतः । ६५८ || मणिकूट राज्योत्तममिहू रुचका रुचककीर्तिः रुचकादिः । कान्ता रुचकादिप्रभा जिनजातककर्म कृति कुशलाः ॥ ३५४ ॥ god | चाभ्यन्तरकूटेषु तावत्पूर्वविशि बिसलंकूट बक्षिण दिशि नित्यालो पर विशि स्वयंप्रभं उत्तरदिशि मिश्योद्योतमिति चत्वारि कुटानि । मत्रस्थिताः वेष्यः क्रमशः सदा ॥ ६५७ ॥ कनका करणया । कनकचित्रा सौदामिनी चतस्ररता वैष्य: तीर्थकरणन्मकाले सर्व प्रसन्नतां बधने । तो परे पूर्वाविविक्षु मंजूयं च ॥ १५८ ॥ मरिण । मणिकूट राज्योत्तममिति धरवारि कूटानि इहल्या देव्यः स्वकर चचककोतिः थककाला चकप्रभा चतस्रो वेथ्यो जिनखातकर्मकृती कुशलाः ।। ६५६ ।। गाथार्थ :- रुचक पर्वत के अभ्यन्तर कूटों में से पूर्व और दक्षिण में क्रमशः त्रिमल और नित्यालोक तथा पश्चिम श्रोर उत्तर में क्रमशः स्वयम्प्रभ और नित्योद्योत नाम के कूट हैं। इनमें कम से कनका, शतह्रदा, कनकचित्रा और सौदामिनी ये चार देवियों रहती हैं। ये 6 तीर्थंकर के जन्मकाल Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा। ९. नरतियंग्लोकाधिकार में सर्वदिशाओं को निर्मल करती हैं। इन कटों के अभ्यन्तर की ओर चारों दिशाओं में कम से वैडूर्य, रुपक, मरिणकट और राज्योत्तम ये चार फट हैं। इनमें क्रम से रचका, रुचककोति, ववकान्ता और रुचकप्रभा ये चार देवियों रहती हैं। ये सीर्थङ्कर के जम्म समय जात कर्म करने में कुशल होती है ।। १५७-५८-९५३ || विशेषार्ग:-रुचक पर्वत के अभ्यन्तर बूटों में पूर्वदिशा में विमल कूट है जिसमें कनका देवी वास करती है। दक्षिण के निरयालोक कूट में शतहदा, पश्चिम के स्वयम्प्रभ कट में कनकचित्रा और उत्तर के निस्योयोत कट में सौदामिनी देवी रहती है। ये चारों देवियाँ तीर्थकर के बमकाल में सम्पूर्ण दिशाओं को प्रसन्न रखती है। इन कटों के अभ्यन्तर की ओर पूर्व के देहर्य कट में रुचका, दक्षिण दिशा के रुचक कट में रुचककीति, पश्चिम दिशा के मणिकट में चक्रकान्ता और उत्तर दिशा के राज्योत्तम कट में रुचकप्रभा ये चार देविया रहती हैं। तीर्थर के जन्म समय ये जात कम करती हैं। ये सभी जात कर्म में अतिनिपुण होती है । यथा: H Relamat.14 SHARAN. RC/PCS CA GANA Hand loss AU HTTP Hij AATANI Ah Nagar S... MEANIuurNENTANIN/ Kyr 5 Kaus .. .44 hargrl भय कुण्डलरुचकस्पटानां व्यासादिकमाह ससि कूडाणं बोयणपंचसय भूमिविस्थारो | पणसयमुदमो बदल हवासो कुण्डले रुजगे ।। ९६.॥ सर्वेषां कटानां योजनपब्रशतं भूमिविस्तार। पशमुदयः तहसमुखज्यासः कुडले बचके ॥१॥ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yo पिलोकसाब पाषा : ६६१ से १६५ सध्धे । कुण्डले कम च सर्वेषां कुटामा योजनपञ्चशतं ५०० भूमिविस्तार: उसयाच पञ्चशतयोजनानि ५०० तेषां मुक्षव्यासस्तु पञ्चशतार्धपोजनानि २५० ।। ६६० ॥ आगे कुण्डल और रुचक पर्वतस्य कटों का ध्यासादिक कहते हैं : पायार्थ । कुण्डल गिरि और रुचक गिरि के ऊपर स्थित सम्पूर्ण कटों का भूमि विस्तार पच सौ योजन, उदय पांच सौ योजन और मुख विस्तार उदय का अचं प्रमाण अर्थात् २५० योजन है ।। ६६० ॥ विशेषार्ष:-कुण्डलगिरि के ऊपर स्थित २० कट और रुवक गिरि सम्बन्धी ४४ कट इस प्रकार कुल ६४ ही क टों का भूव्यास अर्थात् जमीन पर क टों की चौड़ाई ५०० योजन मुखव्यास-ऊपर की चौड़ाई २५० योजन और ऊंचाई ५०० योजन प्रमाण है। अथ दीपसमुद्राणामधीशान गाथापचकेनाह-- जंदीवे वाणो अणादरो सुट्टिदो य लवणेवि । घादइखंडे सामी पभासपियदसणा देवा ।। ९६१ ॥ कालमहकाल पउमा पुंडरियो माणुसुत्तरे सेले । चक्खुमसुचक्खुमा मिरिपहधर पुक्खरुवहिम्हि ॥९६२|| वरुणो वरुणादिपहो मझो मनिझमसुरो य पंडुरमो। पुफ्फादिदंत विमला विमलप्पह सुप्पहा महप्पहो ।।९६३॥ फणय कणयाह पूण्णा पुण्णप्पहा देवगंधमहागंधा । तो गंदी गंदियहो महसुमहा य अरुण अरुणपहा ||९६४।। ससुगंध सब्वगंधो अरुणसमुद्दम्हि इदि पहू दो हो । दीवसा पढमो दक्षिणभागम्हि उत्तरे विदियो ।।९६५।। जम्बूद्वीपे वानी अनादरः सुस्थितश्च करणेऽपि । धातकीखण्डे स्वामिनी प्रभासप्रियदर्शनी देवो ।। ६६१ ॥ कालमहाकाली पद्मः पुण्डरीक: मानुषोत्तरे शंले। चक्षुष्ममुचक्षुष्माणो श्रीप्रभधरौ पुष्करोदधौ ।। ३१२ ॥ वक्षणो वरुणादिप्रभो मध्या मध्यमसुर व पाण्डुरः। पुरुषादिदन्तः विमलो विमलप्रभः सुप्रभः महाप्रभः ।। ६६३ ।। कनका कनकाभः पुण्यः पुण्यप्रभो देवगन्धमहागन्धौ। तसो नन्दी नन्दिप्रमः भद्रमुभद्रौ च अरुणः अरुणप्रमः १९६४| Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६६१९६५ मरतियंग्लोकाधिकार ७४१ ससुगन्धः सर्वगन्धः अरुणसमुद्र इति प्रभू वो तो। द्वीपसमुद्र प्रथमः दक्षिणभागे उत्तरे द्वितीयः ।। ६६५ ॥ जंबू । जम्बहा लवरणसमा चामनी व्यन्सरावनादरसुस्थितायो पातकोखण्डे स्वामिनी प्रभासप्रियवर्षानी देवो ।। ६६१ ॥ काल । कालोबकासमु नापी कासमहाकालो पुस्कराधैं मानुषोत्तरे वाधीशो परपुण्डरीको पुष्करद्वीपे द्वितीया प्रभू चक्षुष्म पुचष्माणी पुकारोबषौ नायो श्रीप्रभषोघरी स्यातां ॥ ६६२ ॥ वरुणो । थारुणीसोपे नाचौ वरुणवरणप्रभो, वारणासमुई नापी मध्यमध्यमदेवी, सीरखोपे नामो पाण्डरपुष्पदन्ती, कोरसमुळे नाथी विमलविमलप्रभो घुतहीपे नायौ सुप्रममहाप्रमो॥ ६६३ || करणय । घृतसमाप्रमू कामककनकभी, झौद्रद्वोपे प्रभू पुण्यपुण्यप्रभो भोइसमुदं प्रभू वेवगन्धमहागम्यौ। ततो मन्दीश्वरती प्रभू नन्दीनन्धिप्रभो नन्दीश्वरसमु प्रभू भासुभद्रौ, प्राणद्वीप प्रभू मरुणारुणप्रभो ॥१६॥ ससुगंध । परुषसमुद्र नामको ससुगन्धसर्वगन्धो इति द्वीप समुत्रे च नौ नौ प्रभू भवतः । तत्र दक्षिणभागे प्रथमोक्तः स्यात उत्तरमागे द्वितीयोक्त: पाव ।। ६६५ ॥ अब द्वीपसमुद्रों के स्वामियों के सम्बन्ध में पांच गाथाएं कहते हैं :गाथार्थ:-जम्बूद्वीप और सपणसमुद्र में अनादर और सुस्थितनामके घ्यन्तर देव स्वामी हैं। धातकी खण्ड में प्रभास और प्रियदर्शन देव स्वामी है। कालोदक समुद्र में काल और महाकाल तथा पुष्कराध एवं मानुषोत्तर में पद्म और पुण्डरीक, बाघ अधं पुष्कराधं द्वीप एवं पुश्कर समुद्र में कम से चक्षुष्मान और सुबक्षुष्मान तथा श्रीप्रभ और श्रीधर देव हैं। वारुणी द्वीप में वरुण और वरुणभ, बामणी समुद्र में मध्य और मध्यम, बोरद्वीप में पाष्टुर और पुष्पदन्त, क्षीर समुद्र में विमल ओर विमलप्रम तथा घृत द्वीप में सुप्रभ और महाप्रभ स्वामी हैं। घृत समुद्र में कनक और कनकप्रभ, क्षौद्र द्वीप में पुण्य और पुण्यप्रभ, झौद्र समुद्र में देवगन्ध और महागन्ध, नन्दीश्वर द्वीप में मन्दि और नन्दिप्रम, नन्दीश्वर समुद्र में भद्र और सुभद्र, अरुण दीप में अक्षण और अरुण प्रभ, अषण समुद्र में सुगन्ध और सर्वगन्ध नाम के देव स्वामी हैं। इसी प्रकार प्रत्येक द्वीप और समुद्र में दो दो व्यन्तय क्षेत्र स्वामी है । इन सभी में जिनका नाम पहिले कहा है वे दक्षिण भाग में और जिनका नाम पीछे कहा है वे उत्तर भाग में स्थित है ।। ६६१-६६॥ विशेषार्थ :-जम्बू द्वीप के दक्षिण भाग में अनादर और उसर भाग में स्थित देव स्वामी हैं। -.. --- - .. .-. -. ..-- Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ त्रिलोकसार पाया १६६ पुण्यप्रभ २ लवण समुद्र के दक्षिण भाग में अनादर और उत्तर भाग में सुस्थित देव स्वामी है। ३ घातकी खण , , प्रभास . " प्रियदर्शन . । ४ काळोवक . . काल , महाकाल . . ५ पुष्कराषं एवं मानुषोसर ५ पद्म पुण्डरीक . .. ६ राम पुष्कराध द्वीप , चष्मान् में सुचक्षुष्मान् ॥ । ७ पुष्कर समुद्र - - पीप्रम भोघर + वाणी द्वीप . बता सरुणप्रभ १ वारणी समुद्र , मध्य मध्यम १.क्षीर वीप " पाण्डुर पुष्पदन्त १५ क्षीर समुद्र * विमल " विमलप्रभ १२ घृत दीप , सुप्रभ महाप्रम १२ घृत समुद्र , कनक कनकप्रभ १४ क्षौद्र द्वीप » पुषय " १५ क्षौद्र समुद्र - देवगन्ध - महागन्ध १६ नन्दीश्वय दीप . नन्दि नविभ १७ नन्दीश्वव समूद्र" १८ अरुण द्वीप . . अरुण . . अरुणप्रभ - १६ अरुण समुद्र . . सुपन्ध » सर्वगन्ध » »। इसी प्रकार माग भी प्रत्येक द्वीप समुद्रों में दो दो व्यन्तर देव स्वामी हैं। बवानों नन्दीश्वरद्वीपं सविशेष प्रतिपादयन् तावत्तस्य वरूपन्यासमाह भादीदो खलु अनुमणंदीसरदीयवलयविक्खंभो । सयसमझियतेवढीकोडी चुलसीदिलक्खा ये ।। ९६६ ।। भावितः खलु अमनम्वीश्वरद्वीपवलयविष्कम्भः । शतसमधिकत्रिषष्टिकोटिः चतुरशोतिलक्षश्च ।। १६६ । पारीयो । अम्मी पावारम्यामनन्दीश्वरमीपवलयविष्कम्मः शतसमधिकत्रिषष्टिकोटिचतुरपीतिलायोजनप्रमितः खलु १६३८४००००० एतावस्कर्ष नन्दीश्वरद्वोपसहितमातमीपसमुद्राणी संख्या १५ कृत्वा ऊपाहियपमित्यादिना कृते सति भवति ॥ ९ ॥ अब नन्दीश्वर दीप का सविशेष वर्णन करते हुए सर्वप्रथम उसका बलय व्यास सुभा Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरतियं ग्लोकाधिकार ७४३ गाया : ९६७ गावार्थ:- जम्बूद्वीप से प्रारम्भ कर प्रा नदीवर द्वीप पर्यन्त का वलय व्यास एक सौ त्रेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन प्रमाण है ।। ३६६ ॥ विशेषार्थ :- जम्बूद्वीप से प्रारम्भ कर नन्दीश्वर द्वीप का वलय व्यास एक सो मठ करोड़ चौरासी लाख योजन प्रमाण है। इतना प्रमाण कैसे होता है ? जम्बूद्वीप से नन्दीश्वर द्वीप पर्यन्त के समस्त द्वीप समुद्रों की संख्या १५ है । इमे "रूऊाहिय पत्रमित्र" गाया ३०६ के नियमानुसार पद (गच्छ) स्वरूप करके पद में से एक कम करके ( १५- १) अवशेष १४ का विरलन कर प्रत्येक के ऊपय दो का अक देय स्वरूप देकर परस्पर में गुणा कर, लब्ध में से ० (शून्य) घटा देने पर तथा ५ शून्य से सहित करने पर नन्दीश्वर द्वीप का वलय व्यास १६३८४००००० योजन प्रमाण है। यधा :- पद - १६३८४ प्राप्त हुए इन्हें ५ शुभ्यों से सहित १५ - १-१४३३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३३२२ 10311 >} - १६३८४००००० योजन नन्दीश्वर द्वीप के कर एक शून्य घटा देने पर ( १६३८४००००० वलय व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है । 33 . - D मात्र दिचतुष्टयस्थितानां पर्वतानामाख्या संख्यामवस्थानं च निरूपयति एक्कच उक्कड जगद दिनुहरहरणमा पडिदिसहि । मज्मे चदिसावी मज्मे तच्चा हिरदुकोणे ।। ९६७ ।। एकचतुष्काष्ठाखनदधिमुखरतिकरनगाः प्रतिदिशं । मध्ये चतुर्दिग्वापीमध्ये तद्वावद्विकोणे ॥ ६६७ ॥ एक्क । प्रतिविशं मध्ये चतुरस्यवापोमध्ये तद्वापीवाद्विको च ययासंख्यं एक चतु४हकासंख्याकाः प्रज्ञ्जनदधिमुखरतिकराख्याः नगा श्वोश्वरी ज्ञातयाः ॥ ९६७ ॥ आगे इस द्वीप की चारों दिशाओं में स्थित पर्वतों के नाम, संख्या और अवस्थान का विरूपण करते हैं : : पायार्थ :- नन्दीश्वर द्वीप की प्रत्येक दिशा के मध्य में एक, चारों दिशा सम्बन्धी बावड़ियों के मध्य में चाय और बावड़ियों के ब्राह्म दो दो कोनों में एक एक अर्थात् क्रमशः अञ्जन, दधिमुख और रतिकर नाम के पर्वत हैं ।। १६७ ॥ विशेषार्थ:- नन्दीश्वर द्वीप की प्रत्येक दिशा के मध्य भाग में अखन नाम का एक एक पर्वत है। इस पर्वत की चारों दिशाओं में चार बावड़ियां हैं जिनके मध्य में दधिमुख नाम का एक एक अर्थात् ४ दधिमुख पर्वत हैं तथा इन बावड़ियों के दो दो बाह्य कोनों पर एक एक अर्थात् आठ रतिकर पर्वत है। इस प्रकार एक दिशा में ( अञ्जन १, दधिमुख ४ और रतिकर ) - १३ पर्वत और ४ बावड़ियों है अतः चारों दिशाओं में ( अञ्जन ४, दधिमुख १६ ओर रविकर ३२ = ५२ पवंत और ४ बावड़ियाँ हैं । = Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ त्रिलोकसार पाषा: E६.-१६६-१७० अथ तगिरीणां वर्ण परिमाणं च प्रतिपादयति अंजणदहिकणपणिहा चुलझीदिदहक्कजोयणसहस्सा । वट्टा वासुदएणय सरिसा चावण्णसेलाओ ।। ९६८ ।। अमनदधिकनकनिभाः चतुरशीतिदर्शकयोजनसहनाः। वृत्ताः ध्यासोदयेन सहशाः द्वापखाशमछला: ॥१८॥ अंगण । अजनावयस्त्रयः पर्वताः पथासंख्यं प्रसनवाधिकनकाभाः तेषां प्रमारणं चतुरशतिसहन E४000 यशसहस्र १०००० कसहस्र १००० योजनानि । ते च वृत्ताः ध्यासोबयेन सदृशाः सर्वे मिलिया पश्चाशच्छला ५२ भवन्ति ॥६६८ ॥ अब उन पर्वतों के वर्ण और प्रमाण का प्रतिपादन करते हैं : गापार्ष:-अखन, दघिमुख और रतिकर पवंत यथाक्रम प्रचन, दधि और स्वर्ण सदृश वर्ण वाले हैं। ये कमश: चौरासी हजार, दस हजार और एक हजार योजन प्रमाण वाले हैं। इनका उदय ( ऊँचाई) और व्यास सहश है । आकार गोल है। इस प्रकार ये बावन पर्वत हैं ॥ ६६८॥ विशेषा।-चार अञ्जन पर्वत अञ्जन-कजल सरश, १६ दधिमुख पर्वत दधि सदृश ( श्वेत) और ३२ रतिकर पर्वत तपाए हुए स्वर्ण सदृश वर्षे वाले हैं । अचन पर्वतों की ऊचाई एवं भूमुख व्यास -४००० योजन, दधिमुखों का १०००० योजन और रतिकरों का एक-१००० योजन है। अर्थात इन पर्वतों की जितनी ऊंचाई है, उतनी ही नीचे ऊपर चौड़ाई है। ये खड़े हुए ढोल के सदृश गोल साकार वाले हैं। इनकी सम्पूर्ण संख्या ५२ है। इदानीं तद्वापीनां नामानि गाथाद्वयेनाह गंदा गंदवदी पुण गंदार दिसेण अरविरया । गयवीदसोगविजया वईनयंती जयंती य ।। ९६९ ।। अबराजिदा य रम्मा रमणीया सुप्पभा य पुख्वादी। स्यणतड़ा लक्खपमा चरिमा पूण सव्वदोमदा ।। ९७.॥ नन्दा नन्दवती पुनः बन्दोत्तरा नन्दिषेरणा अरविरजे । गतवीतशोकाविज याः वैजयन्ती जयन्ती च ॥९६९॥ अपराजिता व रम्या रमणीया सुप्रभा च पूर्वादितः । रत्नतट्यः लक्षप्रमाः चरमा पुनः सर्वतोभद्रा ।। ६७०॥ वा । मन्वा नमवली पुनर्नोत्तरा मन्विषेरणा प्ररणा विरमा शोका बीतशोका विजया वनपती जयन्ती च ।। ६६६ ।। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा:७१-७२ नरतियंग्लोकाधिकार ७४५ प्रवरा । अपराजिता च रम्या रमणीया सुम्मा च चरमा पुमः सर्वतोभद्राः। एताः सर्वा रमासटयो लक्षयोजनप्रमिता पूर्वविभागादितो बातम्याः ॥ ७० ॥ ___ अब उन वापियों के नाम दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाथा:-पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा, नन्दिषणा, परजा, विरजा, गतशोका, बीतशोका, विजया, वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता, रम्या, रमणोपा, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा रत्नमय तट से युक्त ये सर्व वापिकाएं पक लाख योजन प्रमाण वाली हैं ॥ १६॥-100 ॥ विशेषार्थ -नन्दीश्वर दीप की पूर्व दिशा में नन्दा, नमवती, नन्दोत्तर मोर नन्दिपणा ये चार वापिकाएं हैं । दक्षिण दिशा में अरजा, विरजा, गतशोका और वीतशोका, पश्चिम दिशा में विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता तथा उतर दिशा में रम्गा. रमणीया, समभा और सर्वतोभद्रा ये चार गापिकाएं हैं। इन सब वापिकाओं के तट रत्नमय है तथा ये १००००० योजन प्रमाण वाली हैं। अनन्तरं सासां वापीनो स्वरूपमाह सव्वे समचउरस्सा टंकुक्किण्णा सहस्तमोगाका । वेदियचउवण्णजुदा जलयरउम्मुकबलपुण्णा ।। ९७१ ।। सर्वाः समचतुरस्राः टोत्कोः सहस्रमवगाधाः । वेदिकाचतुर्वयुता जल चरोन्मुक्तजलपूर्णाः ॥ ९४१ ॥ सम्वे । ताः सर्वाः समचतुरनाटोकोणाः सहस्रयोजनावगाथा: पेरिकाभिश्चतुर्वनैश्व युक्ताः गलचरोन्मुक्तजालपूर्णाः स्युः ॥ ९७१ ॥ अब उन वापिकाओं का स्वरूप कहते हैं : गावार्थ:--वे सर्व वापिकाएं समचतुरन, टलोत्कीर्ण, एक हजार योजन अवगाह युक्त, चार चाय वनों से साहित, जलचर जीवों से रहित और जल से परिपूर्ण है ॥ ६७१॥ . विशेषार्थ :-थे सर्व वापिकाएं एक लाख योजन लम्बो और एक लाख योजन पौड़ी अर्थात् समचतुरस्त्र आकार वाली है । टस्कोरकीर्ण अर्थात ऊपर नीचे एक सदृश हैं। उनकी गहराई १०. योजन प्रमाण है ये वेदिकाए चारों दिशाओं में एक एक वन अर्थात् प्रत्येक चार चार वनों से संयुक्त है। ये जलचर जीवों से रहित और जल से परिपूर्ण हैं। अथ तद्वापीनां वनस्वरूपमाह बावीणं पुनादिसु असोयससच्छदं च चंपवणं । चूदवणं च कमेण य सगबाबीदीहदलवासा ।। ९७२ ।। Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ त्रिलोकसार वापीनां पूर्व चिपु अशोकसप्तच्छदं च चम्पवयं । नूतवने च क्रमेण च स्वकापीदी दलव्यासानि ॥७२॥ गाथा : ९७२ से ९७७ घाटी । तद्वापोनां पूर्वादिविक्षु यथाक्रमेण स्वकोयस्वकीयथापीदीर्घाण १ ल० तद्दलण्यासानि ५०००० प्रशोकसप्लवचम्पकलवनानि भवन्ति ॥ ७२ ॥ raउन वाविकाओं के वनों का स्वरूप कहते हैं। गामा:- उन वापिकाओं की पूर्वादि दिशाओं में कमशः अपनी वापी को दीर्घता के सहश लम्बे (१००००० यो• ) और लम्बाई के अर्धप्रमाण चौड़े ( ५०००० यो० ) अशोक, सप्तच्छुक, चम्पक और आम के वन हैं ।। ६७२ ।। : इदानीमञ्जनादिगिरीन्द्रषु प्रत्येकमेकैकं चैत्यालयं प्रतिपादयन् तेषु चतुनिकायामरैः कालविशेषायेण क्रियमाण पूजाविशेषं प्रतिपादयितु ं गाथापना तच्चावण्णणगेसुषि बावण्णजिनालया दवंति तईि | सोहम्मादी बारसकप्पिदा ससुरमवणतिया ।। ९७३ ॥ यस रिवस सारसपिकसको कगरुडे य । मयरसिहिकमलपुष्य विमाणपहृदि समारूढा ॥ ९७४ ॥ दिव्य फलपुष्कत्था सत्थामरणा सचामराणीया । बहुधयत्रारावा गत्ता कुन्यंति कन्लाणं || ९७५ ॥ पडिवरिस आसाढ़े तह कचियफग्गुणे व अद्भुमिदो । पुण्णदिणोचि यभिक्खं दो दो पहरं तु ससुरेहिं ।। ९७६ ।। सोहम्मो ईसाणो चमरो वइरोचणो पद क्खिणदो । पुच्चचरदक्खिणुचर दिसासु कुव्वंति कल्ला || ९७७ ।। तद्वापाशस्त्रष्वपि द्वापञ्चाशजिनालया भवन्ति तेषु । सौधर्मादिमो द्वादशकल्पेन्द्राः ससुरभवनत्रिकाः ।। ६७३ ।। गजकेसरिवृषभानु सारस पिक हंस को क गरुडान् च । मकर शिखिकमल पुष्पकविमानप्रभृति समाहताः ॥ ६७४ ।। दिफलपुष्पस्ता शस्ताभरणाः सचामरानीकाः । बहुत्रञतुर्यरावाः गत्या कुर्वन्ति कल्याणं ॥ ३७५ ।। प्रतिवर्ष माषा तथा कार्तिके फाल्गुने च अष्टमीतः । पूर्वादिनान्तं चाभीदणं दो दो प्रहृो तु स्वसुरै ।। ७६ ।। Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४७ पाथा : ६७३ से. नरतियंग्लोकाधिकार सौधर्म ईशानः अमगे वैरोचनः प्रदक्षिणतः । पूपिरवक्षिणोत्तर दिशासु कुर्वन्ति कल्याणं ।। ६७.॥ सम्याव । तेषु तापश्चाश ५२ नगेष्वपि द्वापचाश ५२ जिनालया भवन्ति । तेषु इतरसुरैः भवमत्रयवेवेश्च सहिताः सोधवियो द्वादशकल्पेन्द्राः ॥ ६७३ ॥ गय । गज हमकेसरिषभान सारसपिकहंसकोकगायच मकरशिखिकमलपुष्पक विमानप्रभात समाहदाः ।। ३७४ ॥ दिन्छ । विष्यफलपुष्पहस्सा शास्ताभरणा: समामरानोकाः बावजसूर्या राषाः सन्तो गत्वा ऐन्द्रध्वजाविकल्याणं कुर्वन्ति ॥ ६७५ ॥ परि । प्रतिवर्षमाषाढमासे तथा कातिकमासे फागुनमा चामोत प्रारम्प पूणिमाधिनपर्यन्तमभीक्षणं वो द्वौ प्रहरी स्वस्थसुरैः सह ॥ १७६ ॥ सोह। मोपचारो परोध २६ प्रकि स. पूर्वानरवक्षिणोत्तरबियास कल्याणं पूजा कुर्वन्ति ॥ ६७७ ॥ अब अखतादि प्रत्येक पर्वत के ऊपर एक एक चैत्यालय का प्रतिपादन करते हुए आचार्य उन चंत्यालयों में चतुनिकाय देवों द्वारा काल विशेष में की हुई पूजा विशेष को पांच गाथाओं द्वारा कहते हैं: गापा:-उन बावन पर्वतों पर बावन हो जिनालय हैं। उनमें अन्य कल्पवासी देवों और भवनत्रिक देवों सहित सौधर्मादि बारह कल्पों के इन्द्र, हाथी, घोड़ा, सिंह, बैल, सारस, कोमल, हंस, चकया, गड़, मगर, मोर, कमल और पुष्पक विमान आदि पर समारूढ़ हो ( अपने परिवार देवों सहित ) हायों में दिव्य फल और दिव्य पुष्प धारण कर प्रशस्त आभरणों, चामरों, सेनाओं, ध्वजारें एवं वादित्रों के शब्दों से संयुक्त होते हुए, नन्दीश्वर द्वीप जाकर प्रत्येक वर्ष को आषाढ, कातिक और फाल्गुन मास की अष्टमी से प्रारम्भ कर पूरिनमा पर्यन्त निरन्तर दो दो पहर तक कल्याण अर्थात् ऐन्द्रध्वज आदि पूजन करते हैं ।। ६७३-७६ ।। किस प्रकार करते हैं ? : गाथार्य :-सोधर्मेन्द्र, ईशानेन्द्र, चमर और वेरोचन ये प्रदक्षिणा रूप से पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में पूजा करते हैं ।। ६५७।। विशेषा:-मन्दीश्वर द्वीप के (४+१३+३२)=५२ पर्वतों पर ५२ ही जिनमन्दिर हैं। उनमें अन्य देवों और पवनविक के साथ सोधर्मादि कल्पों के बारह इन्द्र, हाथी, घोड़ा, सिंह, बैल, सारस, कोयल, हंस, चकवा, गा, मगर, मोर, कमल और पुष्पक विमान आदि पर आरूढ़ हो, हाथों में दिश्य फल एवं पुष्प धारण कर प्रशस्त आभरणों, पामरों, सेनाओं, बजाओं एवं वादिनों के शब्दों Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४5 गिलोकसार पाषा: १.३ से १५७ से सहित होते हुए नन्दीश्वर द्वीप जाकर प्रत्येक वर्ष की आषाढ, कार्तिक और सारगुन मास की अष्टमी से प्रारम्भ कर पूर्णिमा पर्यन्त निरन्तर दो दो पहर तक पूजा करते हैं। प्रथम युगल के सौधर्मेशान एवं असुर कुमारों के चमर औच वैरोचन ये चारों इन्द्र प्रदक्षिणा रूप पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर दिशाओं में पूजा करते हैं । अर्थात् पूर्व दिशा में पूजन करने वाले देव जब दक्षिण में आते हैं, तब दक्षिण दिशा वाले देव पश्चिम में और पश्चिम वाले उत्तर में तथा उत्तर दिशा वाले पूर्व में आकर ऐन्द्रध्वज साद महापूजा करते हैं। उपयुक्त ५२ चैत्यालयों का चित्रण निम्न प्रकार है: +- 14 Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा:७८-11-७०० नरतियंग्लोकाधिकार URI इदानी त्रिलोकस्थिताकृत्रिमचैत्यालयानां सामान्येन व्यासादिकमाह आयामदलं वासं उभयदलं जिणधराणमुरुच । दारुदयदलं वासं माणिहाराणि तस्सद्ध ।। ९७८ ॥ मायामदतं व्यासं उमयदळ जिनगृहाणामुञ्चत्वं । वारोदयदलं व्यासः अणुद्वाराणि तस्या ।। ९७८ ।। पावामा उत्कृष्टावित्यालयानामायामा १.५० २५ तेवा यास: ५०। २५ । ५ मायाममासयोरुमयो उ० १५. म.७५ ०१ दल जिनगृहाणामुख्यत्वं ५५ । । तेषा बारोदयः १६ । ८ । ४ बल द्वार मासः ८ । ४ । २ क्षुल्लकाराणि धूहद्वारार्थोक्यन्यासानि ॥ ७ ॥ अन त्रैलोक्यस्थित अकृत्रिम चैत्यालयों का सामान्य से व्यासादिक कहते हैं: गाथा:-उत्कृष्ट आदि चैत्यालयों के आयाम के अचं भाग प्रमाण उनका ध्यास है तथा आयाम और ध्यास के योग का अर्थ भाप प्रमाण उन जिनालयों का उदय ( ऊंचाई ) है। दारों को ऊँचाई के अर्धमाग प्रमाण द्वारों का ग्यास ( चौड़ाई) है तथा बड़े दारों के व्यासादि से छोटेदारों का व्यासादिक अधं मधं प्रमाण है ।। ६७८ ॥ विशेषार्थ:-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों का आयाम कम से १. योजन, ५० पोजन और २५ योजन प्रमाण है। पनी जिनालयों का व्यास ( चोड़ाई) आयाम के अर्घ भाग प्रमाण अर्थात ५० योजन, १६ योजन और १२३ योजन प्रमाण है तथा इनकी ऊंचाई, लम्बाई और चौड़ाई के अर्ष भाग प्रमाण अर्थात् (१००+५ =१५०-२७५ योजन, (५०+१५)=७५:२०७१ योजन और ( २५+१२)-५=१५१ योजन प्रमाण है । उत्कृष्ट, मध्यम और अपग्य जिनालयों के द्वारों की ऊंचाई कम मे १६ योजन, - योजन और ४ योजन प्रमाण है तथा इन्हीं दारों को चौड़ाई, ऊंचाई के अभाग प्रमाग अर्थात् ८ योजन, ४ योजन और २ योजन प्रमाण है। छोटे दारों का उदय एवं यास बड़े द्वारों के उदय एवं व्यास से अध अर्घ प्रमाण है । अर्थात् उस्कृष्ट, मध्यम और बम्प जिनालयों में जो छोटे छोटे दरवाजे हैं उनकी ऊंचाई कम से ८ योजन, ४ योजन पोर २ योजन है तथा उनका व्यास ( चौडाई) ४ योजन, २ योजन बोर एक योजन प्रमाण है। उक्तार्थमेव विशेषतो गायावयेनाह परमझिममवराणं दलक्कम मसालणदणगा | गंदीसरगविमाणगजिणालया हवि जेट्ठा हु ।। ९७९ ॥ सोमणसरुजगकुंडलवक्खारिसुमारमाणुसुचरगा | पुरुमिरिगा वि य मनिमम जिणालया पहिगा भवरा ।।९८०॥ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० त्रिलोकसार गाथा ।९७९-९८०-९८१ बरमध्यमावराणां दलकम भद्रशालनन्दन काः। मन्चीश्वरकविमानगजिनालया भवन्ति ज्येष्ठाः हि ||९७६ ॥ सोमनसरुचककुण्डलवक्षोरध्वाकारमानुषोत्तरगाः । . कुलगिरिगा अपि च मध्यमा जिनालया पाण्डुगा अवराः ॥९॥ वर। उस्कृष्टमध्यमजघन्यचंयालयानां न्यासादिकमर्षिकम जानीहि। भवशाल नवनभन्दोश्वरविमानगतजिनालया ज्येष्ठाः खलु भवन्ति ॥ ६ ॥ सोमण | Rौमनसरुवककुण्डलवक्षारेष्वाकारमानुषोत्तरगा: फुलगिरिगता प्रपि च जिनालया: मध्यमाः, पारडकवनगता जघन्याः ॥१८॥ । इस कहे हुए अर्थ का हो विशेष-दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाया:-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों का व्यासादिक कम से आधा आया है। भद्रशा बन, मन वन, नीश्वर डीपीस मानिक देवा के विमानों में जो जिनालय हैं, वे उत्कृष्ट व्यासादिक प्रमाण वाले हैं तथा सौमनस् वन, रुचकगिरि, कुण्डलगिरि, वक्षार, इष्वाकार, मानुषोलर पर्वत और कुलाचलों पर जो जिनालय हैं, उनका ध्यासादिक मध्यम और पाण्डक वन स्थित जो जिनालय हैं, उनका व्यासादिक जघन्य प्रमाण वाला है ।। १७९-८० ॥ विशेषार्थ :-उत्कृष्ट जिनालयों के व्यासादिक से मध्यम जिनालयों का व्यासादिक अधंभाग प्रमाण है और मध्यम से जघन्य जिनालयों का व्यासादिक अर्घभाग प्रमाण है। भद्रशाल वन, नन्दन वन, नन्दीश्वर द्वीप और देवों के विमानगत जो जिनालय हैं, वे उत्कृष्ट प्रमाण वाले हैं। सौमनस् वन, रुचक गिरि, कुम्हलगिरि, वक्षार, इप्वाकार, मानुषोत्तर पर्वत और कुलाचलों पर जो जिनालय हैं, वे मध्यम तथा पाण्डक वनस्थ जिनालय जघन्य प्रमाण वामे हैं। __ तदनन्तरं ज्येष्ठजिनालयानामायामागाद्वारोसेघानाह:-- जोयणसय मायाम दलगाई सोलसं तु दारुदयं । जेट्ठाण गिडपासे आणिदाराणि दो दो दु ।। ९८१ ।। योजनशतमायामः दलावगाहः पोडश तु द्वारोदयः। ज्येष्ठानां गृहपार्वे प्रणुद्वारे तु हूँ तु || ६८१ ।। जोयण । ज्येजिनालयानामायामो योजनशतं मधयोजनावगाढः षोडशयोजनानि तछारोदयः सजिनगृहपावर्षे लल्लकद्वारे भवतः ।। ६१ || इसके बाद उत्कृष्ट जिनालयों का आमाम, गाध (नींव ) और द्वाशों की ऊंचाई कहते हैं :गाथार्थ 1- उत्कृष्ट जिनालयों का आयाम सौ योजन प्रमाण और गाघ अध योजन प्रमाण है। Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ८२-८३ नरतिर्यग्लोकाधिकार ७५१ इनके द्वारों की ऊंचाई सोलह योजन प्रमाण है। उत्कृष्ट द्वारों के दोनों पाव भागों में वो दो छोटे द्वार है ।। २५१ ।। विशेष :-- उत्कृष्ट जिनालयों को लम्बाई १०० योजन और अवगाह अर्थ योजन प्रमाण है 1 इन जिनालयों के उत्कृष्ट द्वारों की ऊंचाई १६ योजन प्रमाण है । उत्कृष्ट द्वारों के दोनों पाश्र्व भागों में दो दो छोटे दरवाजे हैं । उत्कृष्टादिविशेषणविरहितानां वसतीनामायामः कियानित्युक्त बह वेपथु मामलिजिण मवणाणं तु कोस आयामं । साणं सगजोग मायामं होदि चिणदि ।। ९८२ ।। विजयार्थ जम्बुशाल्मलि जिन भवनानां तु कोश आयामः । शेषाणा स्वकयोग्य: आयामो भवति जिनदृष्टः || ६८२ ॥ de | विजमावि जम्बूवुझे शाल्मलीबुद्धे च विनभवनानामापान एकक्रोशः पोषाणां भवन। दिजिनालयामां स्वयोग्यायामो जिनंहः ॥ ८२ ॥ उत्कृष्टादि विशेषण से रहित जिनालयों का आयाम कितना है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं : गाथा: - विजयाचं पर्वत, जम्बू और शाल्मली वृक्षों पर स्थित जिनालयों का आयाम एक कोस प्रमाण है तथा अवशेष जिनालयों ( भवनवासियों के भवनों एवं व्यश्वरदेवों के आवासों में स्थित ) का अपने अपने योग्य मायामादिक का प्रमाण जिनेन्द्र देव के द्वारा देखा हुआ है अर्थात् अनेक प्रकार का है अतः यहाँ कहा नहीं जा सकता ।। ६२ ।। उक्तानां जिन भवनानां परिकरं गाथारासकेनाह चउगोरमणिमालति वीहिं पढि माणथंभ णवथूद्दा | raचेद्रियभूमी जिणमवणाणं च सन्धेसिं ॥ ९८३ ॥ चतुर्गोपुरमणिशालत्रयं वीथ प्रति मानस्तम्भानवस्तूगः । वनध्वजाचैत्यभूमयः जिनभवनानां च सर्वेषां ॥ ९८३ ॥ । सर्वेषां जिन भवनानां चतुर्गापुरयुक्तमखिममशालत्रय प्रतिषोध्येकंक मानस्तम्भाः । नव मव स्तूपाश्च भवन्ति । तच्छात्रयान्तराले बाह्यावारम्य मेरा वनध्वजचैत्यभूमयो भवन्ति ॥ ८३ ॥ ऊपर कहे हुए जिनालयों का परिवार सात गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाथार्थ :- समस्त जिन भवनों के चाय गोपुर द्वारों से संयुक्त मणिमय तीन कोट हैं। प्रत्येक वीथी में एक एक मानस्तम्भ और नव नव स्तूप हैं। उन कोटों के अन्तरालों में क्रम से वन, ध्वजा और चैत्यभूमि है ।। ८३ ।। Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार गाथा । ९६४-६८४ - १८६ संयुक्त मणिमय तीन प्रारम्भ कर प्रथम ओर विशेषार्थ :- समस्त जिन भवनों के चारों ओर चार गोपुर द्वारों से कोट हैं। प्रत्येक चीधी में एक एक मानस्तम्भ और नव नव स्तूप हैं। बाहर से द्वितीय कोट के अन्तराल में बन हैं। द्वितीय और तृतीय कोट के अन्तराज में ध्वजाएँ तथा तृतीय कोट के बीच चैत्यभूमि है। ७५२ जिणमवणे महसया गमगिद्दा स्यणथंभवं तत्थ । देवच्छेद हमो दुगमहचउबासदीहुदो || ९८४ ॥ जिभवनेषु अष्टतानि गर्भगृहारिण रत्नस्तम्भवान् तत्र । देवच्छंदो हैम: द्विकाष्टचतुर्यासदीर्घोदयः ॥ ६८४ ॥ जिए। तेषु वनभवष्योत्तरशतप्रमिलानि गर्भगृहारिण सन्ति । तत्र जिनभवनमध्ये रत्नसम्भवान् हेममयद्विकाष्ट चतुर्योजनव्या सवीद्यदयो वन्वोऽस्ति ॥ ६४ गाथार्थ :- उन समस्त जिन भवनों में प्रत्येक में एक सो बाठ गर्भगृह है तथा जिभवनों के मध्य में रत्नों के स्तम्भों से युक्त स्वर्णमय एक एक मण्डप है जिसकी लम्बाई ८ योजन, चौड़ाई दो योजन और ऊँचाई चार योजन प्रमाण है । सिंहासनादिसहिया विणीलकुंतल सुवञ्जमपदंता । विद्दुमहरा किसलयसोहायरहत्थपायतला ।। ९८५ ।। दस तालमाणलक्खणभरिया पेक्खंत इव वदंता वा । पुरुजिणतुंगा पडिमा रगणमया बहू अहियस्या ||९८६ ।। सिंहासनादिसहिता विनीलकुन्तलाः सुवज्रमयदग्तरः । विद्रुमाधराः किसलयशोभाकर हस्तपादतलाः ॥ ६८५ ॥ दशतालमानलक्षणभरिताः प्रेक्ष्यमाणा इव वदंत इव । पुरुजिनतुङ्गाः प्रतिमा: रत्नमय्यः अष्टाधिकशताः ।। ६८६ ।। सिहासरणादि सिहासनादिसहिता विनीलकुन्तलाः सुवञ्चन्यदन्ताः वियाधराः किसलयशोभाकरहस्तपादतलाः ।। ६८५ ।। दस । वशतालमामलक्षरण भरिताः प्रेक्षमाला इव वयं इव पुरुषजिनतुङ्गाः ५०० रनमध्यः पट्टाधिकशतमिताः जिनप्रतिमास्तेषु गर्भगृहेष्वे के काः सन्ति ॥ ६८६ ॥ गार्ग:- उन गर्भगृहों के मध्य में सिहासनादि से सहित तथा विशेष नीले केश, सुन्द वस्त्रम दाँत, मुँगा सहा ओठ तथा नवीन कपल की शोभा को धारण करने वाले हैं हाथ और पैर के सलमान जिनके दश ताख प्रमाण लक्षों से भरी हुई, देख रही हों मानों, बोल ही रहीं हो मानों और Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५३ बाथा : 10 से IEL नतिर्यग्लोकाधिकार आदिनाम भगवान् के बराबर है (१०. पनुष ) ऊंचाई धिन की ऐसी रत्नमय एक सौ आठ प्रतिमाएं हैं। ९८५, ६८६ ॥ विशेषा:-उन १०८ गर्भरहों के मध्य में सिंहासनादि से सहित रत्नमय १०८, १०८ प्रतिमाएं हैं। जिनके विशेष नीले केमा, सुन्दर बनमय दांत, मूगा सहा मोह तथा नवीन कोंपल की शोभा को धारण करने वाले हाथ पैर के तल भाग हैं । जो दश ताल प्रमाण लक्षण से भरी हुई है। पो देखती हुई के सदृश, बोलती हुई के सदृश एवं आदिनाथ भगवान के सदृश ५०० धनुष ऊँची हैं। ताः कपम्भूता: चमरकरणागजक्खगनची संमिहणगेहि पुह जुला। सरिसीए पंतीए गम्भगिहे सुद्द सोहंति ।। ९८७ ॥ सिरिदेवी सददेवी सव्याहमणकुमारजखाणं । रूवाणि य जिणपासे मंगलमढविहमवि होदि ।।९८८।। भिंगारकलसदप्पणवीयणघषचामरादवचमहा । सुबइठ्ठ मंगलाणि य अट्ठहियसयाणि पचेयं ।। ९८९ ।। चमरकरनागयक्षगद्वात्रिंशन्मिथुनेः पृथक् युक्ताः । महश्या पंक्त्मा गभंगृहे सुष्ठ योभन्ते ॥८॥ श्रीदेवी व तदेवी सर्वाह्नसनत्कुमारयक्षाणां । रूपाणि च जिनपारा मङ्गलमष्टविधमपि भवति भृङ्गारकलशदर्पणवीजनचजचामरातपत्रमय । सुप्रतिष्ठ मङ्गलानि च अष्टाधिकशतानि प्रत्येकम् ।।६८६॥ घमर । अमरकरमागयक्षगतहाविशन्मिथुमः पृषक पृषक् गर्भगृहे सनाया पंपस्या युक्ताः सुन्छु जोमम् ॥ ७ ॥ सिरि। सचिनप्रतिमापाचे मोदेवो भूतवेषो सर्वाङ्गसनत्कुमारयशाणा स्पाणि अष्टविधानि मङ्गलानि च भवन्ति ।। ९८८ ।। भिगार । भङ्गारकलपवणयोजनध्वजयामरातपत्रसुप्रतिष्ठापसमङ्गसानि । हानि मंगलाव पुनः प्रत्येकमष्टाधिकशतप्रमितानि भवन्ति Recen वे प्रतिमाएं कैसी है ? गापार्थ :-वे जिन प्रतिमाएँ, चमरधारी नागकुमारों के बत्तीस युगलों और पक्षों के तीस युगलों सहित, पृथक् पृथक एक एक मभंगृह में सहन पंक्ति मे भगे प्रकार शोभायमान होती है। उन Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५.४ त्रिलोकसाब पापा : ६६० से ९६३ जिन प्रतिमाओं के पाश्व भाग में श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाह्न यक्ष और सानत्कुमार यक्ष के रूप अर्थात् प्रतिमाएं हैं तथा अष्टमङ्गल द्रव्य भी होते हैं। मारो, कलश, दर्पण, पङ्खा, ध्वजा, चामर, छत्र ओ ठोना ये आठ मंगल द्वय है। ये प्रत्येक मंगल द्रव्य १०८, १०८ प्रमाण होते हैं ॥ ६८७ ८८ ८ विशेषार्थ:- के जिन प्रतिमाएँ चौसठ चमरों से वीज्यमान है । अर्थात् हाथों में हैं चमर जिनके ऐसे नागकुमार के ३२ युगलों और यक्षों के ३२ युगलों से सहित है। पृथक् पृथक् एक एक गर्भगृह में सदृश पंक्ति में भली प्रकार शोभायमान होती है। उन प्रतिमाओं के पार्श्वभाग में श्री (लक्ष्मी) देवी, श्रत (सरस्वती) देवी, सर्वाह्न यक्ष और सरनरकुमार यक्ष की प्रतिमाएं तथा अष्ट मंगल द्रव्य हैं । झारी, कलश, दर्पण, पला, ध्वजा, चामर, छत्र जोर ठोना से आठ मङ्गळ द्रव्य हैं। ये प्रत्येक मंगल द्रव्य एक सौ आठ, एक सौ आठ प्रमाण होते हैं । इसी प्रकार तिलोय पण्णत्ती में भी कहा है : सिरिददेवीतहासवासकुमार जखाएं। रूवारिं पत्तेक्कं प्रति वररया इरइदाणि ।। १८८१ ॥ ( चतुर्थ अधिकार ) अर्थ -प्रत्येक प्रतिमा के प्रति उत्तम रत्नादिकों में रचित श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाङ्क्ष व साकुमार यक्षों की मूर्तियां रहती हैं ।। १८८१ ॥ K अथ गर्भगृहाद्वाह्मस्वरूपं गाथाचतुष्टयेनाह मणिकण पुण्फ मोद्दिपदेवच्छंदस्य पुष्पदो मज्मे | बसईए रूपकं चणघडा सहस्साणि बत्तीसं ॥ ९९० ॥ महदारस्य दुपासे चवीससइस्समत्थि धृवघडा । दारवहिं पासदुगे मट्टसहस्वाणि मणिमाला ।। ९९१ ।। सम्मज्स हेममाला चउवीसं वदणमंडवे हेमा | कलसामाला सोलस सोलसहस्त्राणि धूवघडा ||९९२ || महुरझणझणणिणादा पोचियमणिनिम्मिया सकिंकिणिया । बहुविहघंटाजाला रहदा सोहंति तम्भज्के ।। ९९३ ।। म किनकपुष्पशोभितदेवन्द्रन्दस्य पूर्व तो मध्ये | वसत्यां रूप्यकश्चनघटसहस्राणि द्वात्रिंशत् ॥ १६० ॥ महाद्वारस्य द्विप चतुविशसहस्र सन्ति धूपघटाः । द्वावहि पाश्वंद्वये अष्टसहस्राणि मणिमालाः ।। ६१ ।। तन्मध्ये ममाला चतुविशतिः वदनमण्डपे हैमाः । काका: षोडश बरेपासह आणि धूपघटाः ।। १३२ ।। Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बापा: १५४ नरतियंग्लोकाधिकार मधुरानामनिनादाः मौक्तिकमणिनिमिताः सकिङ्किणिकाः । बहुविधघण्टाजाला रचिताः शोमन्ते तन्मध्ये ॥ १३ ।। ___ मरिण । मरिणकनकपुष्पशोभितदेवच्छन्वरूप पूर्वती बसस्या मध्ये रूप्यकाञ्चनमयानि शानिशघटसहस्राणि भवन्ति ।। ६६ मह । महावारस्य द्वयोः पारवयोश्चतुविशतिसहस्राणि २४००० धूपघटाः सन्ति । तलवारबाही पावटये असहमाणि ५०० मणिमाला: सन्ति ॥ १ ॥ सम्म । तासा मणिमालाना मध्ये पविशतिसहस्राणि २४... हेममाला: सन्ति । मुखमापे पुनाममयानि कलशानि तम्मयमालाच षोडषोडशसहस्राणि सन्ति १६.००। १६.०० तव पूना घोरशसहस्राणि १६००० धूपघटाश्च सन्ति ॥ १२ ॥ मह । सन्मणपस्मैव मध्ये पुनर्मपुरझणझणनिनादा मौक्तिकमरिणनिमिताः किङ्किणिकाः बहुविषघण्टाजाला भनेकर बनायुक्ताः शोभन्ते HEER . अब गर्म र बाह्य करार रहते हैं: गाचार्य :- मरिण और स्वर्ण के पुष्पों से सुशोभित देवच्छन्द के पूर्व में मागे जिनमन्दिर है, उसके मध्य में चांदी और स्वर्ण के बत्तीस हजार घड़े हैं। महाद्वार के दोनों पाश्वं भागों में चौबीस हजार धूपघट हैं तथा उस महाद्वार के दोनों बाह्य पाश्र्वभागों में पाठ हजार मणिमय मालाएं हैं। उन मणिमय मालाभों के मध्य में चौबीस हजार स्वर्णमय मालाए हैं तथा मुखमण्डप में स्वर्णमय सोलह हजार कलश, सोलह हजार मालाएं और सोलह हजार धूपष्ट है तथा उसी मुख मण्डप का मध्य भाग मोती और मणियों से बनी हुई मधुर मण सण शब्द करने वाली छोटी छोटो किकिणियों से युक्त नाना प्रकार के घन्टा जालों की रचना से शोभायमान है ॥ ३१-६६३ ॥ विशेषार्थ :- मरिश और स्वण के पुष्पों से सुशोभित जो देवच्छन्द है, उसके पूर्व में आगे जिन मन्दिर का मध्य चाँदी और स्वर्ण के बत्तीस हजार घड़ों से युक्त है। मन्दिर के महाद्वार के दोनों पाव भागों में २४.०० धूपघट हैं तथा उसो महाद्वार के दोनों वाह्य पाश्वं भागों में ८०. मणिमय मालाएं है और उन्हीं मणिमय मालाओं के मध्य में २४००० स्वरणंमय मालाएं हैं तथा उस महाद्वाय के प्रागे मुखमा है जिसमें स्वर्णमय १६००० फलश, १६००० मालाए' और १६०० धूप के घड़े हैं । उसी मुखमण्डप का मध्य भाग, मोती एवं मणियों से बनी हुई मधुर झन झन शब्द करने वाली छोटी छोटी किकिणियों से संयुक्त नाना प्रकार के घंटाओं के समूह की रचना से शोभायमान है। तदसतेः क्षुल्लकद्वारादिस्वरूपमाह वसईमज्जगदक्खिणउत्तरतणुदारगे सदद्ध तु । तप्पुढे मणिकरणमालडचउवीसगसहस्सं ।। ९९४ ।। Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1. ७५६ वसई लसतेः पृष्ठभागे स्युः ॥ ६६४ ॥ त्रिलोकसार बाबा : ६६५ से १००१ वसतिमध्यगदक्षिणोत्तरतनुद्वारे तदर्थं तु । तत्पृष्ठे मणिकाञ्चनमाला अष्टचतुविशकसहस्राणि ॥६६४|| लक्षिणोत्तर पार्श्व मध्यगतसुद्ध कद्वारे मुख्यद्वाक्तविधानं सर्वमर्थ भवति । मणिमालाः काचनमालाश्वासहस्राणि ८००० चतुविशतिसहस्राणि २४००० च उस मन्दिर के छोटे द्वारों का स्वरूप कहते हैं गाथा: - जिन मन्दिर के दक्षिणोत्तर पाश्वं भागों में छोटे छोटे द्वार है। उनकी मालादिक का प्रमाण महाद्वार के प्रमाण से अर्थभाग प्रमारा है । उस मन्दिर के पृष्ठभाग में आठ हजार मणिमय मालाएं और २४००० स्वर्णमय मालाए हैं ।। ६६४ ॥ उक्तस्य मुखमढपादेर्यासादिकं ततः पुरस्तात् स्थितानां सर्वेषां स्वरूपं गाया पञ्चदशकेनाहजिमिवासायामो वरदो सोलसोच्द्रिभो होदि । हमंडम तदग्गे पिक्खण चउरस्स मंडरयो ।। ९९५ ।। सदवित्थारो साहियमोलुदमो हेमपीडियं पुरदो | चउरस्सं लोयणदुणसमुच्चयं सीदिवित्यारं ।। ९९६ ।। सम्म उरस्सो मणिमय चविंदवास सोलुदओ । अट्टणमंडओ तपुरदो तालुदयध्रुवमणिपीढं ।। ९९७ ॥ तं पुण चउगोउरजुदद्वारंबुचवेदियाहि संयुतं । मज्मे मेहल तियजुद चउघणदी हृदयवास बहुरयणो ॥ ९९८ ॥ यो जिण विवचिदो दण्डमेवं कमेण तप्रदो । वासायामसहस्सं वारसवेदिजूद हेममयपीठं ।। ९९९ ।। तहिं चउदीहिगिवासकखधा बहुमणिमया ससालतिया । बारहजोयण आयदच महसाहा मोयतगुसाहा || १००० || बारनोयणवित्थड सिहरा सिद्धत्य चेचणामतरू । णाणादलपुष्पफला पंचहियापउ परिवारा ।। १००१ ॥ जनगृहव्यासायामः तत्पुरतः पोच्छ्रितो भवति । मुखमण्डप तदमे प्रोक्षणः चतुरस्रः मण्डपः ॥ ९९५ ॥ शतविस्तारः साधिक षोडशोदयः हेमपीठं पुरतः। चतुर योजनद्विकसमुच्छ्रयं अशीतिविस्तारं ॥ ३६ ॥ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाय ६५ से १००१ नरतियं ग्लोकाधिकार तम्मध्ये चतुरस्रः मणिमयः चतुवृन्दव्यासः षोडशोदयः । आख्यान मण्डपः तत्पुरतः चरवारिशदुदयस्तूपमणिपीठं ।। ९९७ ।। तत पुनः चतुर्गापुरयुतद्वादशाम्बुज वेदिकाभिः संयुक्त । मध्ये मेखलात्रययुतः चतुर्घनदोर्योदयव्यासः बहु रत्नः ॥ ६६८ ॥ स्तूप: जिनबिम्बचितः नवानामेवं क्रमेण तत्पुरतः । व्यासायामसहस्र द्वादशवेदीयुतं हेममयपीठं ।। ९९९ ।। तस्मिन् चतुर्दो कन्या सरकन्वी बहुमणिमयो सशालत्रयो । द्वादशयोजनायत चतुर्महाशाखो अनेकलनुशाखौ ॥ १००० ॥ द्वादश योजनविस्तृत शिखरो सिद्धार्थ चैत्यानामतरू । नानादलपुष्पफलो पचाधिकपद्मपरिवारों ।। १००१ ।। जिए | जिनगृहव्यासा ५० यामः १०० षोडश १६ योजनोतो मुखमरडपः तजिनपुरतो भवन्ति । तस्याप्रे चतुरस्र अशा मण्डपश्च स्यात् ॥ ६५ ॥ सद 1 स च कियानिति चेतु शतयोजन १०० विस्तार: साषिक षोडश १६ योजनोदयः । सत्प्रअ मण्डपस्य पुरतो योजनद्विकसमुच्छ्रयमशीतियोजन ८० विस्तारं चतुरस्र हेममयपीठमस्ति ।। ६९६ ।। तम | तरपीठमध्ये चतुरस्री मणिमयश्वतुर्धन ६४ व्यासः षोडश १६ योजनोवय प्रास्थानमण्डपः स्यादतपुरतः पुनश्चत्वारि ४० योजनोनय स्तूपस्य मणिमयं पीठमस्ति ।। ६७ ।। ७५७ तं पुरष । तपीठं पुनश्च पुराव शाम्बुवेदिकाभिः संयुक्त' । सत्पीकमध्ये मेखलाययुतश्चतुर्धन ६४ बोधयध्यासो बहुरतः ॥ ६६८ ॥ हो। निमबिम्बचितः स्तुवोऽस्ति भवानी स्तूपानामेवं क्रमेण स्वरूपं स्यात् । ततः स्तूपस्य पुरतो व्यासायामासहरू द्वावश १२ वेवीयुतं हेममयपीठमस्ति || ६ || हि । तमिन् पोठे चतुर्योजन दीर्घक योजनव्या सह कन्धो बहुपलिमय झालयसहितो - योजनायत चतुर्महाशाली पतनुशासो ॥ १००० ॥ बारह द्वादशयोजनविस्तृतशिखरों नानादलपुष्यफलो पञ्चाधिकपद्मपरिवारों सिद्धार्थचैश्यनामानौ तह स्तः ।। १००१ ॥ कपर कथित मुख मण्डपादिकों का व्यास आदि तथा उनके आगे स्थित रचना का स्वरूप पन्द्रह गाथाओं द्वारा कहते हैं : : गाथा: -- जिन मन्दिय के आगे जिनमन्दिर सहा ही व्यास एवं मायामवाला और १६ योजन ऊंचा मुखमण्डप है। उस मुखमण्डप के आगे चौकोर प्रोक्षण मण्डप है, जिसका व्यास सौ योजन और Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार पापा : ९९५ से १००१ ऊँचाई साधिक सोलह योजन है । यस प्रेक्षण मण्डप के भागे दो योजन ऊंचा, अस्सी योजन चौड़ा, चौकोर और स्वर्णमय पीठ है। उस पीठ के मध्य में चार के धन ( ६४ योजन ) प्रमाण चौड़ा और सोलह योजन ऊंचा, चौकोर मणिमय मास्थान मण्डप है। उसके आगे चालीस योजन ऊँचे स्तूप का मणिमय पोळ है । जो चार द्वारों और बारह पवेदियों से संयुक्त है। उस पीठ के मध्य में तीन मेखलाओं कटानियों से महित, चार के घन प्रमाण पत्र योपन IED योजन पौड़ी और ६४ योजन ऊंचा, बहरत्नों मे रचित और जिनविम्ब से उपचित स्तूप है । नवों स्तूपों का स्वरूप इसी क्रम से है । उस स्तूप के आगे हजार योजन सम्बा. हजार योजन चौहा बारह वेदियों से संयुक्त स्वर्णमय पीट है। उस पीठ के ऊपर मणिमय तीन कोटों से संयुक्त सिद्धार्म और चत्य नाम के दो वृक्ष हैं। उन वृक्षों के स्कन्ध ४ योजन बम्बे और एक योजन चौड़े हैं। बारह योजन लम्ची चार महाशाखाएँ एवं अनेक छोटी शाखाएं हैं। उन वृक्षों का उपरिम भाग बारह मोजन चौड़ा है । वे वृक्ष नाना प्रकार के पत्र, फल और फलों से सहित हैं। उनके परिवार वृक्षों को संस्था पद्मबह के मुख्य कमल के परिवार कमलों के प्रमाण से पाच अधिक है ॥९६५ से १००१ तक ॥ { सप्तक) विशेषा:-जिनमन्दिर के धागे जिनमन्दिर के हो सदृश १०० योजन लम्बा, ५० योजन चौड़ा और १६ योजन ऊंचा मुखमण्डप है । उस मुख मण्डप के आगे धोकोर प्रेक्षण मण्डप है। जो ५०० योजन बोया १०० पोषन लम्बा और साधिक १६ योजन ऊंचा है। उस प्रकरण मण्डप के आगे ८० योजन लम्बा, मोबन पाया और वो पोजन ऊंचा ( चौकोर ) स्वर्णमय पीठ है। चबूतरे का नाम पीठ है। उस पोठ के मध्य में चौकोर, मणिमय, १४ योजन लम्बा, चौड़ा और १६ योजन ऊंचा मास्थान मण्डप है । सभामण्डप का नाम आस्थान मण्डप है। इस आस्थान मण्डप के मागे ४० योजन ऊंचे स्तूप का मणिमय पीठ है । वह पीठ चार गोपुर द्वारों एवं बारह पा वेदियों से सहित है । उस पीठ के मध्य में तीन मेवलाओं अर्थात् कटनी से सहित ६४ योजन लम्बा, ६१ योजन चौड़ा और ६४ योजन ऊंचा, बहुरत्नों से रचित और जिन बिम्ब से उपचित स्तूप है। इसी प्रकार के नव स्तूप हैं । अर्थात नव हो स्तूपों के स्वरूपों का वर्णन इसी स्तूप सहश है । इन स्तूपों के ऊपर जिनबिम्ब विराजमान हैं। इस स्तूप के आगे अर्थात् चारों ओर १०.० योजन लम्बा, १००० योजन चौहा बारह वेदियों से संयुक्त स्वर्णमय पीठ है । उस पीठ के ऊपर सिजामं और चैत्य नाम के दो वृक्ष हैं। गिन वृक्षों का स्कन्ध ४ योजन लम्बा और एक योजन चौड़ा है । जिनके चार चार महाशाखाओं की लम्बाई १२ योजन प्रमाण है। इनमें छोटी पानाएं अनेक है । इनका उपरिम भाग अर्थात् शिखर १२ योजन चोड़ा है। ये वृक्ष नाना प्रकार के पत्र पुष्प और फलों मे सहित हैं। इनके परिवार वृक्षों की संख्या पद्रह के मुख्य कमल के परिवार कमलों के प्रमाण से ५ अधिक है अर्थात् एक काख चाळीस हजार एक सौ बीस है। Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : १००२ त्यति हानिकारा मूलनपीठणिसण्णा चउद्दिमं चारि सिद्धनिणपडिमा | तप्रदो महके पीठे चिति विविहवण्णणा ।। १००२ ॥ लगपीठनिषण्णा चतुर्दिक्षु चतस्रः सिद्धजिन प्रतिमाः । उत्पुरतः महाकेतवः पोठेतिष्ठन्ति विविधयनकाः ॥ १००२ ।। LA मूलग । तचर लगतपीठमिघरामचतुविक्षु चतस्रः सिद्धसरसूले सिद्धप्रतिमा वरयतमूले चिनप्रतिमाः सन्ति । तपुरतः पोठे विविषवनका महाकेतवस्तिम्ति ।। १००२ ॥ गायार्थ :- चारों दिशाओं में उन वृक्षों के मूल में जो पोठ अवस्थित हैं उन पर चार सिद्ध प्रतिमाएँ और चार अरइन्त प्रतिमाएँ विराजमान है। उन प्रतिमाओं के आगे पीठ हैं जिनमें नाना प्रकार के वर्णन से युक्त महाध्वजाए स्थित हैं ।। १००२ ।। विशेषार्थ :- चारों दिशाओं में स्थित सिद्धार्थ वृक्ष की पीठ पर सिद्ध प्रतिमाएं और चैत्यवृक्ष की पीठ पर अरहन्त प्रतिमाएं विराजमान हैं उन प्रतिमाओं के आगे पीठ हैं जिनमें नाना प्रकार के वन से युक्त महाध्वजाए स्थित हैं। शंका :- सिद्ध प्रतिमा और अरहन्त प्रतिमा में क्या प्रस्तर है ? समाधान :- अरहुन्छ प्रतिमा बष्ट प्रातिहार्य संयुक्त ही होती है, किन्तु सिद्ध प्रतिमां बट प्राविहाय रहित होती है । यथा :-- १ वसुनन्दि प्रतिष्ठा पाठ तृतीय परिच्छेद : प्रातिहार्याष्टको पेतं सम्पूर्णावयत्रं शुभम् । भावरूपातुविद्धाङ्ग, कारयेद् विम्बमहंता ।। ६९ ।। प्रातिहार्येविना शुद्ध सिद्ध बिम्बमपीयाः । सूरीणां पाठकानां च साधूनाम् च यथागमम् ॥ ७० ॥ अर्थ :- अष्टप्राविहाय से युक्त, सम्पूर्ण अवयवों से सुन्दर तथा जिनका सन्निवेष ( प्राकृति ) भाव के अनुरूप है ऐमे अरहन्त बिम्ब का निर्माण करें ॥ ६३ ॥ सिद्ध प्रतिमा शुद्ध एवं प्रातिहार्य से रहित होती है। बागमानुसार माचार्य, उपाध्याय एवं arya की प्रतिमाओं का भी निर्माण करें ।। ७० । २ जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के बिम्ब निर्माण प्रकरण में भी कहा है कि सल्लक्षणं भावविवृद्ध हेतुकं सम्पूर्ण शुद्धावयवं दिगम्बरं । सत्प्रातिहाय्यनिज विश्वभासुरं, संकारये विम्बमथाईतः शुभम् ॥ १८० ॥ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार सिद्ध श्वराणां प्रतिमाऽवियोज्या, तत्प्रातिहार्यादि विना तथैव । आचार्य सत्पाठक साधु सिद्ध क्षेत्रादिकानामपि भाववृद्धये ।। १८१ ।। अर्थ :- प्रशस्त हैं लक्षण जिनके, जो भावों की विशुद्धि में कारण हैं, निर्दोष सर्व अवयवों से सहित, नग्न विगम्बर, सुन्दर प्रतिहार्य एवं स्वकीय चिह्न मे समन्वित हैं ऐसे मनोहर अरहन्त बिम्ब का निर्माण करावं | इसी प्रकार भावों को विशुद्धि के लिए प्रातिहार्य विना सिद्धों की ( आगमानुसार ) छाचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं की भी प्रतिमाओं का निर्माण करावें । सिद्ध क्षेत्र आदि की प्राकृतियों की भी स्थापना करें ।। १८०, १८१ ।। ७६० हुए हैं। गाथा : १००३ मे १००८ ३ श्रीपाद सिदार के प्रथम अध्याम में भी कहा है कि : शान्त प्रसन्नमध्यस्थ, नासावस्था विकार एक् । सम्पूर्ण भावरूपानु, विहान लक्षणावितम् ॥ ६३ ॥ द्राविदोष निर्मुक्त प्रातिहार्यमक्षयुक् । J निर्माप्य विधिना पीठे, जिनबिम्बं निवेशयेत् ॥ ६४ ॥ अर्थ :-- शान्त, प्रसन्न, मध्यस्थ, मामाय और अधिकार दृष्टि, सम्पूर्ण भावानुरूप, स्वकीय लक्षण से समति रौद्रादि ( कर व्यादि ) दृष्टि से रहित तथा यक्ष यक्षरणी सहित बिनबिम्ब का निर्माण कराकर विधिपूर्वक वैदिका में विराजमान करें ।। ६३, ६४ ।। लोढ :- उपयुक्त प्रमाण पं० बारेलालजी जैन राजवंध टीकमगढ़ के सौजन्य से प्राप्त सोलुदय कोवित्थड कणयत्थं भागा हु रयणमया । चिवतिया बहुगा बणणयणमणरमणा ।। १००३ ।। तप्रदो जिणभरणं तच्चउदिस विविधकुसुम चड दहगा । दस गाढसयदलायदवासा मणिकणय वेदिजुदा ।। १००४ ।। पुग्दो सुरकीचणमपिपासाद होंति पीहिपा सदुगे । पद दलवासी वप्पुरदो तोरणं होदि ।। १००५ ।। तं मणिथंभगाठियं सुताघंटासुजाल पण्णुदयं । तदलजोषणवासं जिणविक दंवरमणि ।। १००६ ॥ पुग्दो पासाददुगं फलिहादिमसालदारपासगे | मन्मंतरे सद्दयं दलवासं रणसंघडियं ।। १००७ || जं परिमाणं भणिदं पुषगदार म्हि मंडवादीणं । . दक्षिण उत्तरदारे तदद्धमाणं गहदव्वं ।। १००८ ॥ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। १००३ से १००३ नदति ग्लोकाधिका नंदण भिसेयणच णसंगीयवलोय मंडयेहिं जुदा । कीडणगुणण गिहि य विसालवर पसालेहिं ।। १.०९॥ षोडशोदयाः कोयविस्ताराः कनकस्तम्भायगा हि रत्नमयाः । चित्रपट त्रितया बहुका जननयनमनोरमणाः ॥ १००३ ।। तत्पुरतः जिनभवनं तच्चतुर्दिक्षु विविधकुसुमाः चत्वायो ह्रदाः । दशविद्याषशतदलायलव्यासाः मरिणकनकवेदीयुताः ॥ १००४ ॥ पुरस्तात् सुरक्रीडन मणिमयप्रासादद्वयं भवन्ति वीविपाश्वंद्वये । पचादुदयं वलव्यासं सरपुरतस्तोरणं भवति ॥ १०५ ॥ तत् मणिस्तम्भाव स्थित मुक्ताघण्टासुजानं पचाशदुदयं । बद्दल योजनव्यासं जिनबिम्बकदम्बरमणीयं ॥ १००६ ।। पुरतः प्रासादद्वयं स्कटिकादिमशाला पावद्वये । अभ्यन्तरे शतोदयं दलव्यासं रत्नसङ्घटितम् ।। १००७ ।। यत् परिमाणं भणितं पूर्वद्वारे मण्डपादीनाम् । दक्षिणोत्तरद्वारे तदद्यमानं ग्रहीतव्यं ॥ १००८ ॥ वन्दनाभिषेकनर्तनसङ्गीताव लोकमण्डप युतानि । कीडनानगृहैव विशाल पट्टशालः ॥ १००६ ॥ ०६१ सोलुदय । षोडश १६ योजनोरया एककोशविस्तारा: तत् केतून कनकस्तम्भ ! नेषामप्रगा रानमया बहुकाः जननयम मनोरम खाचित्रपट त्रत्रया शोभन्ते ।। १००३ ॥ तप्पुर । तदात्पुरतो जिनभवनमस्ति तस्य चतुविच विविषकुसुमा दशयोजना वा घाः शतयोजनातास्तवर्ष ५० व्यासा मरिकनकवेदीयुताश्चरखारी हवाः सन्ति ॥ १००४ ॥ पुरष । ततः पुरस्ताद्वयीपाददये पाश ५० योजनोवयं तद्दल २५ व्यासं सुरजनममिकप्रासादयं भवति । तस्य पुरतस्तोरगं भवति ।। १००५ ।। तं मणि । तोरणं मणिस्तम्भाषस्थितं मुक्तापष्टासुजाले पचाश ५० चोजनोवल २५ योजनव्यासं जिनविस्वकदम्बरमतीयं भवति ॥ १००६ ॥ पुरवो तोरणस्य पुरतः स्फटिकमयादिमशालस्यास्पन्सरे द्वारपार्श्वद्वये शतयोजनोयं लद्दल ५० प्रश्नघटितं प्रासादयमस्ति ॥ १०७ ॥ परि । पूर्वस्मिन् द्वारे मण्डपबोनो यत्परिमाणं मणितं तस्याप्रमाणं दक्षिणद्वारे उतरद्वारे ब्रहीतव्यम् ॥ १००८ ९६ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसारद पामा १००३ से १००३ बंदा सानि चंन्यासयानि पुनर्वन्नाभिषेकनर्तनसङ्गीत लोक मडपे तानि क्रीडनगुनगृहश्व विशालवर पट्ट्या लेश्च युतानि भवन्ति ॥ १०६ ।। ७५२ गावार्थ :- चनाओं के स्वमय स्तम्भ सोलह योजन ऊंचे और एक कोश चौड़े हैं। उन स्वर्ण स्तम्भों के अग्रभाग रश्नमय एवं मनुष्यों के नेत्र और मन को सुन्दर लगने वाले बहुत से नाना प्रकार के बजा रूप वस्त्रों एवं तीन छत्रों से शोभायमान हैं। उस ध्वजापीठ के आगे जिन मन्दिर है, जिनको चारों दिशाओं में नाना प्रकार के फूलों से एवं मणिमय और स्वर्णमय वेदियों से संयुक्त, सी योजन लम्बे, ५० योजन चांड़े और दश योजन गहरे चार द्रह है। इन ग्रहों के आगे जो वीथी ( मार्ग ) हैं उनके दोनों पापों में देवों के क्रीडा करने के मणिमय दो प्रासाद हैं, जिनकी ऊंचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन है। इन प्रासादों के आगे तोरण है। वे तोरण मणिमय स्तम्भों के अग्र भाग में स्थित, मोतोमाल और घन्टाओं के समूह से युक्त तथा जिनबिम्बों के समूह से रमणीक है। उनकी ऊँचाई पचास योजन और चौड़ाई पश्चीस योजन प्रमाण है। उस तोरण के आगे स्फटिकमय प्रथम कोट है । उस कोटद्वार के दोनों पार्श्व भागों में कोट के भीतर सौ योजन ऊंचे और ऊंचाई के अभाग प्रमाण अर्थात् ५ योजन चौड़े रत्ननिर्माति हो। जो कहा 1 था उसका अर्थ प्रमाण दक्षिणोत्तर द्वारों में ग्रहण करना चाहिए । वे दोनों मन्दिर बन्दना मण्डप, अभिषेक मण्डप नर्तन, संगीत और अबलोकन मण्डपों से तथा गृह, गुणन गृह (शास्त्राभ्यास आदि का स्थान ) और विशाल एवं उत्कृष्ट पट्टशाला से संयुक्त हैं ।। १००३ से १००६ विशेषार्थ :- उन ध्वजाओं के स्वर्णमय स्तम्भ १६ योजन ऊंचे और एक कोश चोड़े हैं । उन जाओं के स्त्रमय स्तम्भों के अग्रभाग रत्नमय एवं मनुष्यों के मन और नेत्रों को रमलीक लगने वाले, तथा नाना प्रकार के ध्वजा रूप वस्त्रों से युक्त बहुत सी ध्वजाओं और तीन छात्रों से शोभायमान है । सम्पूर्ण ध्वजा रत्नमय है । अर्थात् पुद्गल का ही परिणमन वस्त्र रूप हुआ है। इस ध्वजा पीठ के आगे जिनमन्दिर हैं, जिनकी चारों दिशाओं में विविध प्रकार के पहलों से एवं मणिमय और स्वमय वेदियों से संयुक्त, सौ योजन लम्बे ५० योजन बीड़े और दश योजन गरे चार द्रह हैं। इन द्रहों के का जो मार्ग है, उनके दोनों पार्श्व भागों में देवों के कोड़ा करने के मणिमय दो प्रासाद हैं जिनकी ऊंचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन है। इन प्रासादों के आगे तोरण है; जो मणिमय स्तम्भों के अग्रभाग में स्थित मोतीमाल और घण्टाओं के समूह से युक्त एवं जिनबिम्बों के समूह मे रमणीक हैं। उनकी कचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन प्रमाण है। उन तोरणों के आगे स्फटिकमय प्रथम फोट है। उस कोटद्वार के दोनों पार्श्व भागों में कोट के भीतर १०० योजन ऊंचे और ५० योजन चौबे, रत्ननिर्माति दो मन्दिर हैं । पूर्वद्वार में मण्डपादिक का जो प्रमाण कहा था उसका अर्थ प्रमाण शि और उत्तर द्वारों में ग्रहण करना चाहिए। वे दोनों मन्दिर वन्दना मण्डप अभिषेक मण्डप, रतन मण्डप, Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषा1१.१०-१०११ नरतिमंग्लोकाधिकार संगीत मण्डप और अवलोक मण्डपों से तथा कोडागृह, गुरणन गृह (शास्त्राभ्यास आदि का स्थान) और विशाल एवं उत्कृष्ट पट्टाछा (चित्राम आदि दिखाने का स्थान ) से संयुक्त है। साम्प्रतं प्रथमद्वितीयशालयोरन्तरामस्वरूपमाह सिहमपर सहगरुडसिहिदिणहंसारविंदचक्कषया । पुद अट्ठसया चउदिसमस्के के मनुसय खुल्ला ॥१.१०॥ सिंहगजवृषभगरुडशिखींद्विनहंसारविन्दचक्रध्वजा।। पृथक् अष्टशतानि चतुर्दिश मेककस्मिन् अष्टशत झुल्लाः ११.१०॥ सिह । सिंहाजवषमगजशिशोदिनहंसारविन्धचक्रवमा पक् पृषधोतरशतानि । एवं प्रत्येक चतुविक्षु भवन्ति । अत्रककस्मिन पुरुषम्बजे अष्टोत्तरशतमुल्लकाममा भवन्ति । १०१०॥ छ। प्रथम और द्वितीय कोटों के अन्तराल का स्वरूप कहते हैं 1 पापा:-प्रत्येक जिन मन्दिर की चारों दिशाओं में सिंह हाथी, वृषभ, गरुड, मयूर, चन्च, सूर्य, हस, कमल और चक्र के आकार की १०८, १०८ बजाए हैं तथा इन १०८,१०८ मुख्य इजाओं में प्रत्येक को १०८, १८ छोटी वजाएँ हैं।। १०१०॥ विशेषार्म 1--प्रत्येक जिन मन्दिर की चारों दिशाओं में सिंह, हाथी, वृषभ, पकड़, मयुर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल और चक के चिह्नों से चिह्नित १०८, १०८ मुख्य बजाए हैं तथा ल १०८, १०८ मुख्य ध्वजाओं में प्रत्येक की १०८, १०८ ही छोटी वनाएं हैं। प्रथम और द्वितीय कोट के बीच के अन्तराल में ध्वजाए हैं। प्रत्येक जिन मन्दिर को, एक दिशा में मिह चिह्नाङ्कित ध्वजाएँ १०५ हाथी चिन्हाङ्कित १०८ इसी प्रकार वृषभादि चिह्नाङ्कित भी १०८, १० मुख्य ध्वजाएं हैं। अर्थात मन्दिर की एक दिशा में सिंह आदि दश प्रकार के चिह्नों को धारण करने वाली ( १०८x१. )= १०८० मुरुप ध्वजाए हैं। एक दिषा में १०८० है, अत: चाय दिशामों में ( १८०x४)=४३२० मुख्य ध्वजाएं हुई । एक मुख्य ध्वजा की छोटी परिवार ध्वजाएं १० हैं अत: ४३२० मुख्य ध्वजाओं को ( ४३२०४१०%)-४६५५६० परिवार वालों का प्रमाण है और एक मन्दिर सम्बन्धी सम्पूर्ण ध्वनाओं का प्रमाण (४६१५६+४३२० ४७.८० है। ये वजाएँ प्रथम और द्वितीय कोट के अन्तराल में हैं। द्वितीयप्रकारप्राकारबायोरन्तरालस्वरूपं गाथात्रयेणाह चउवणमसोयसपच्छदचंपयचूदमेत्थ कप्पतरू | कणयमयकुसुमसोहा मरगयमयविविहएचड्ढा ॥१०११।। " -.-.' . L A %D . . . - Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार बेलुरियफला विमविसालसाहा दसप्पयारा ते । पल्लंकपाहिहेरग चउदिसमूलगय जिमपडिमा ॥१.१२॥ सालचयपीढग्यजुत्ता मणिसाइपचपुष्फफला । तच्चउवणमझगया चेदियरुक्खा सुसोहंति ॥१.११॥ चतुर्वनमशोकसप्तच्छदचम्पक चूतमत्र कल्पतरवः । कनकमयकुसुमशोभाः मरकतमर्यावविधपत्राठ्याः ॥१०११।। वैडूर्यफला विद्रमविशालशाखाः बशप्रकारास्ते । पल्यङ्कप्रातिहार्यगाः चतुर्दिशामुलगता विनप्रतिमाः ॥१०१२।। शालपपोत्रमयुक्ताः मणिशाखापत्रपुष्पफला।। तम्चतुर्वनमध्यगता: चैत्यवृक्षाः सुशोभन्ते ।। १०१३॥ च। प्रशोकसतहदम्पकतमयानि प्रत्वारि वनानि सन्ति । अत्र पुनः कनकमयकुसुमशोभिता: मपविविश्पा पर मल ॥१॥ पेरिय । ते च पुन: बसूर्यफला विनुमविशालशासा: यशप्रकाराः स्युः । तत्रैव पर्ने पुना पल्यातिहाप्रयुक्तविरमगजिनप्रतिमाः ॥ १०१२ ॥ साल । शासत्रयपोठत्रययुक्ताः मणिमयशाarपत्रपुष्पफलाचतुर्वनमध्यातायचयपृक्षा: सुशोभन्ते ॥ १०१३॥ अब वितीय कोट और तृतीय ( माल ) फोट के अन्तराल का स्वरूप चीन पाथाओं द्वारा माहते हैं: गापा:-द्वितीय और तृतीय कोट के अन्तराल में अशोक, सप्तच्छव, चम्पक और आम्र के पार वन है। उन वनों में भोजनाङ्गादि दश प्रकार के कल्पवृक्ष है, जो स्वर्णमय फूलों से सुशोभित, मरकत मणिमय नाना प्रकार के पत्रों से सहित, वैडूर्य रत्नमस फलों से युक्त और विद्र म म गामय ढालियों से संयुक्त हैं। उन चारों वनों के मध्य में तीन कोट और तीन पीठ से संयुक्त तथा मणिमय हामी, पत्र, पुष्म और फलों से युक्त चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं। उन चैत्य वृक्षों के मूल की चारों दिशाओं में पल्यासन प्राय प्रातिहायों से युक्त विन विम्ब विराजमान हैं ॥ १.११-१०१३।। वियोवार्य :-दूसरे और सोसरे कोट के अन्तराल में अशोक, सप्तच्छद, पम्पक और मात्र के चार वन हैं। उन वनों में स्वर्णमय फूलों से सुशोसिस, मरकत मरिणमय नाना प्रकार के पों से सहित वहयरत्नमय फलों से युक्त और विद्रम मूगामय हालियों से संयुक्त भोजनाङ्गादि दश प्रकार के कल्प वृक्ष हैं। उन चारों वनों के मध्य में तीन कोट एवं तीन पीठ से संयुक्त तथा मणिमय डाली, पत्र, पुष्प और फलों से युक्त पार चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं । इन चैत्यवृक्षों के मूल की चारों दिशाओं में पत्यशासन एवं छत्र, पमरादिप्रासिंहागों से युक्त जिन बिम्ब विराजमान हैं। Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावा: १.१४ नरसियातलोकाधिकार .. नन्दादिवापीना मानस्तम्मानां च विशेषस्वरूपमाह गंदादीय तिमेहल तिवीढया मंति धम्मविहवापि । पढिमाघिडियमका वणभूचठवीहिमज्झन्दि ।। १.१४ ।। नन्दादिका निमेखलाः त्रिपीठका भान्ति प्रविमा पपि। प्रतिमाधिष्ठितमूर्षानः बनभूचतुवीमध्ये ॥ १०१४ ॥ वंदा । प्रागुक्ता ममाविषोमवाप्यस्त्रिमेखलायुक्ता भान्ति । भूपरिणषिचतुर्वोषीमध्ये प्रतिमाधिष्ठितमूर्षानः धर्मविभवा पपि मानस्तम्भा इस्य: त्रिपाठपुक्ता भान्ति ॥ १०१४ प्रति धोनेमिनाबाविरचिते निसोकसारे मरसिर्पग्लोकाधिकार ॥६॥ नन्दादि वापियों और मानस्तम्भों का विशेष स्वरूप कहते हैं। गाया:-नन्दादि सोलह वापिकाएं सीन कोटो से संयुक्त है तथा वन की भूमि के निकट पतुपं वीथी के मध्य में तीन पीठौ युक्त जिन प्रतिमा से अधिष्ठित है, अ ( अ ) भाग: जिनका नया पो धर्म रूपी वैभव से युक्त हैं ऐसे मानस्तम्भ शोभायमान होते है ॥ १०१५ । विशेषाण-पूर्वोक्त मन्दावि सोलह वापिकाएं तीन फोटो से संयुक्त शोभायमान होती है, और उन्हीं वनों की भूमि के निकट चतुर्थ वीथी के मध्य में, तीन पीठों से मुक्त, उपरिम भाग पर जिन प्रतिमा से अधिष्ठित तपा धर्म पी वैभव से युक्त मानस्तम्भ शोभायमान होते हैं। ... . . .... इति श्रीनेमिचन्द्राचार्यविरचित त्रिलोकसार प्रन्थ में नरविर्यग्लोकाधिकार का वर्णन पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G त्रिलोकसार अथ प्रशस्तिः अन्त्यमङ्गलार्थं सर्वेषां सर्वज्ञप्रतिरूपाणां वन्दन करोति--- वाचा : १०१५-१०१६ जिणसिद्धाणं पहिमा किडिया किट्टिमा दु अदिसोहा । रयणमया हेममया रूपमया ताणि वंदापि ।। १०१५ ।। जिन सिद्धानां प्रतिमा अकृत्रिमाः कृत्रिमास्तु अतिशोभाः । रत्नमया हेममया रूप्यमय्यः ताः वन्दे ॥ १०१५ ।। जिए । मत्रिमाः कृत्रिमा प्रतिशोभा रत्नमथ्यो हेममथ्यो रूप्यमभ्यो जिनानां सिद्धा च प्रतिमास्तानि विम्वर्धन वन्दे ॥ १०१५ ।। अन्त्यमङ्गल हेतु सर्वज्ञ के सम्पूर्ण प्रतिविम्बों की वन्दना करते हैं गामार्थ:-- अत्यन्त शोभा संयुक्त रत्नमय, ड्रेममय और रूप्यमय लकुत्रिमत्रिम सभी अहंत और सिद्ध प्रतिमानों को नमस्कार करता हूँ ।। १०१५ ।। पुनरश्य मङ्गलार्थमेव गणना समेतानां समुदिताकृत्रिमजिनगृहाणां वदनां कुर्वनादकोही लक्ख सह अट्टय पण सत्चणउदी य । चउसदमेगासीदी गणणगए चेदिए बंदे ।। १०१६ ।। कोटयः लक्ष्याणि सहस्राणि ष्ट षट् पाशत् सप्तनवतिः च । चतुः शतमेकाशीतिः गणनागतानि संत्यानि वन्दे ।। १०१६ ।। फोडो । प्रटो कोटयः षट्पञ्चाशल्ल आणि सप्तनवतिसहस्राणि चक्षुः शतानि एकाशीतिप्रमितानि ८५६७४८१ नागामि चैत्यालयानि वन्दे ॥ १०१६ ॥ पुनः मन्तिम मंगल हेतु संख्या सहित समुदायरूप अकृत्रिम जिनमन्दिरों को नमस्कार करते है : गायार्थः :- आठ करोड़ छप्पन लाख सत्तानवे हजार चार सौ इक्यासी चंस्यालयों को मैं नमस्कार करता हूँ ।। १०१६ ।। विशेषार्थः - भवनवासी, वैमानिक एवं मध्यलोक सम्बन्धी ५५६९७४८१ जिनमन्दिरों को नमस्कार हो । ज्योतिष व्यन्तर देवों के जिनमन्दिर असंख्यात हैं, अतः वे गणना में नहीं आते किन्तु उपलक्षण से उन्हें भी नमस्कार हो । साम्प्रतं शास्त्रमिदं परिसमापयन्नममंगलार्थमेव त्रिलोकगोचराणां कृत्रिमाकृत्रिमजिनभवनाना बन्द कुर्वन्नाह -- Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बापा १०१७-२०१८ अथ प्रशस्तिः ७६७ तिहुबणजिणिदगेहे अकिट्टिमे किट्टिमे विकालभवे । वणकुमरविहंगामरणरखेचरवंदिए वंदे ॥ १०१७ ॥ त्रिभुवनजिनेन्द्रगेहान् अकृत्रिमान कृषिमान त्रिकालभवान् । वानकुमारविध तांयामरनरखेचरवावतान् बन्दै ॥ १.१७॥ तिह। प्रकृत्रिमान् कृषिमान् त्रिकालभवान् पन्तरभवनवासिज्योतिष्ककल्पवासिनरखेचरपन्दितान त्रिभुवनजिनेन्द्रगेहान् बच्चे ॥ १०१७ ॥ अब इस शास्त्र को पूर्ण करते हुए आचार्य अन्तिम मंगल हेतु जिलोकयोचर अकृत्रिम कृत्रिम समी जिनमन्दिरों को दादना करने के लिए कहते हैं गाथार्थ :-व्यस्तर, भवनवासी, ज्योतिष्क, कल्पवासी, मनुष्य एवं विद्याधरों से वन्दित त्रिकालसम्बन्धी तीन लोक स्थित कृत्रिम अकृत्रिम जिनमन्दिरों की वन्दना करता हूँ ।। १०.१७ ॥ विशेषार्थ :--अतीत, अनागत और वर्तमान सम्बन्धी, कर्व, मध्य और पाताल लोक में ध्यातर, भवनवासी, ज्योतिष्क, कल्पवासी, मनुष्य और विद्यापरों द्वारा वन्दित सम्पूर्ण अकृत्रिम कृत्रिम चैत्यालयों की मैं वन्दना करता हूँ। अन्त्यमंगलानन्तरं ग्रन्थकारः स्वकीपौनत्य परिहरति इदि थेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणमयमंदियच्छेण | रहयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया ॥ १.१८॥ इति नेमिचन्द्रमुनिता अल्प तेनाभयनदिवसेन । रचितस्त्रिलोकसारः क्षमन्तु तं बहुश्रुताचार्याः ॥ ११ ॥ इति । इत्येवं प्रकारेणापश्रुतेनामयनन्दिसिद्धान्तक्रिवरसेन धोनेमिचन्न सिद्धान्त चरण' गणिना मिलोकशाराख्यो ग्रन्थो रचितः संबहुमतावाः क्षमन्तु ॥ १०१८ ॥ अन्तिम मंगल के बाद ग्रंथकार अपने योद्धस्य का परिहार करते हैं गामार्य :- अभयनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती के वत्स { शिष्य ), अल्प श्रुतज्ञान के पारी प्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा यह पिलोकसार ग्रंथ रचा गया है। उन्हें बहुश्रुतधारक आचार्य क्षमा करें॥ १.१८॥ विशेषाप:-अभय नन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती के अल्पश्च तशानधारी शिष्य आचार्य श्रीनेमिचन्द्रसिद्धास्तचक्रवर्ती द्वारा प्रस्तुत बिलोकसार ग्रंथ लिखा गया है । इसमें यदि किसी प्रकार की भूल हुई हो तो बहुश्रुतधारी आचार्य क्षमा प्रदान करें। १ पति {40)। Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ त्रिलोकसार पापा: १-२ टीकाकारवक्तव्यम् तं त्रिलोकसारमलरिष्णुमत्रिवचन्द्रत्रविद्यदेवो अपि आत्मीयमीद्धत्यं परिहरति गुरुग्णेमिचंदसम्मदकदिवयमाहा तहि तहिं रइदा | माइवचंद तिपिज्जेणिणमणुसरणिज्जमज्जेहिं ।। १ ॥ गुरुने मिचन्द्रसम्मतकतिपयगाथा: तत्र तत्र रचिनाः। माघवचन्द्र विद्य दमनुसरणीयमायः ॥१॥ सकीयगुक्नेमिचन्द्रसिद्धासहित सम्मता: प्रयया प्रयाणां नेमिचन्द्रसिदान्तवेवानामभिप्रायानुसारिणः कतिपयगाथा: माधवचनावियेनापि तत्र तत्र रचिताः । इसमप्यायेंगचार्यमुसरणोपम ॥१॥ इस त्रिलोकसार ग्रन्थ को अलङ्काररूप करने वाले भाषवचन्द विद्यदेव भी अपने औद्धत्य का परिहार करते है गाचार्य :- अपने गुरु श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती को सम्मति से अथवा उनके अभिप्रायानुसार कुछ गापाएं मावचन्द्र विद्यदेव द्वारा भी मत्र तत्र रची गई है। ऐसा प्रधान आचार्यों द्वारा जानना चाहिए ॥१॥ साम्प्रतमल सारकाप्यन्त्यमङ्गलं कुर्वन्नभीष्टाशंसनं करोति मरहंतसिद्ध बाइरियुवज्झपासाहु पंचपरमेट्टी । इय पंचणमोकारो मवे भवे मम सुई दितु ।। २ ॥ अरहन्तसिद्धाचार्योपाध्यायसाघवा पक्षपरमेष्टिनः। इति पञ्चनमस्कारः भवे भवे मम सुखं वदतु ।। ५॥ इति टीकाकारयतम्यम् । अब ग्रन्थ को अलंकृत करने वाले माषवचन्द्र विद्यदेव भी अन्तमंगल करते हुए अपने अभीष्ट हल की याचना करते हैं गापार्य':-अरहन्त, सिख, प्राचार्य, उपाध्याय और साषु ये पञ्च परमेष्ठी है। पश्चपरमेष्ठी स्वरूप पश्चनमस्कार मंत्र मुझे भव भव में सुखकारी हो ।। २ ।। संस्कन टीकाकार का वक्त पूर्ण हआ। Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकसार प्रशस्तिः स पातु पावनायोऽस्मान् सुरासुरकृतानतिः । अगाषासारसंसारसागरोत्तारकारणम् ॥ १॥ कुन्दकुन्दान्वये पुत्ते विश्रुते गगनोपमे । सूरिः सूर्यनिभो जात आचार्य: शान्तिसागरः ।। २ ।। तस्थाचार्यपद लेभे मुनिपो चीरसागरः। कृशाङ्गस्तस्य सतिष्यो जातः श्रीशिवसागरः ||३॥ शिव्यानुग्रहसंदक्षो मेधावी च मुशिक्षकः । विवेकश्वयंसम्पन्नो गुरुवारपीप्रसारकः ॥ ४ ।। अशुद्धमतिमाप्रित्य पतिताहं भवार्णवे। आर्थिकायाः पदं दत्त्वा गुरुणा तेन तारिता ।।५।। मां विशुद्धति कृत्वा दत्वा च ज्ञानसम्पदम् । स्वयं समाधि सम्प्राप्य स्वर्गलोकं समाभितः।।६।। तस्य पट्ट स्थितः सूरिधर्मसिन्धुमुनीश्वरः । प्रसन्नवदनो योगी विनयेन समन्वितः ।। ७ ।। गुणज्ञः सन्मति: सिन्धुर्ज्ञानामृनसुपूरितः । उपदेष्टा वतज्येष्ठो गरिष्ठः सर्वसाधुषु ॥ ५ ॥ शरणप्रासंत्राता श्रुतसिन्धुः प्र ताम्बुधिः । ज्ञानाम्भोधिः कृपाम्भोधिः शरण्यो मे सदा भवेत् ।।९।। वात्सल्यादिगुणोपेतो लोकाचारधुरन्धरः। बालवंद्यः सुमर्मज्ञो निष्णात अतसागरे ॥१०॥ तत्प्रसादास्कुता टीका झाष्ट्रभाषामयी मया । ग्रन्थत्रिलोकसारस्य नेमोन्दुरचितस्य वै ॥११॥ अभोशाज्ञानतायुक्तोऽजितसिन्धुमुनीश्वरः । मम विद्यागुरुर्जीयाद् देववाणीविशारदः।। ११। अतन्द्रालुभवादभीती भवान्धेः सेतुसनिमः । शान्तस्त्रान्तः सुधी शिष्टो हृषीकजयतत्परः ।। १३ ।। ज्ञानध्यानसपोरक्ताः सर्वे निग्रंन्यसाधवः । कुर्वन्तु मङ्गलं मेऽत्र भक्त्या तान् विनमाम्यहम् ॥१४॥ राजस्थान प्रदेशस्य रम्ये जयपुराभिधे । पत्तने खानियाक्षेत्रे निमंलवायुमण्डले ।। १५ ।। जनानायसे भव्ये भासेते जिनमन्दिरे । तत्र श्रीवासुपूज्यस्य मन्दिरेऽतिमनोहरे ॥ १६ ॥ पर्वतोपरिय कापान्ते रम्बारामविभूषिते । वारादरीति विख्याते प्रकोष्ठे स्वामनस्थिता || १७॥ ज्येष्ठमासे सित पक्षे राकायां शुक्रवासरे । एकानसार्धसहल-दयेऽदे वीरवत्सरे ।। १८ ॥ (२४६५) मस्त्रिशून्य नयन-मिते विक्रमहायने । पूई चकार सक्षिप्तो टोकामेतामहं शुभाम् ॥१६॥ (२०६०) राबतां भुवि टोकपा मावचन्द्रदिवाकरो । कुर्वाणाज्ञानविध्वंसं दधानामोदसम्भरम् ।। २० ॥ ग्रन्थनिलो कसाराख्यो गम्भीरः सागरो यथा । स्खलितं तत्र क्षन्तव्यं बुधर्मेमन्द मेधसः ।। २१ ।। -मायिका विशुद्धमति Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट खंड १ करणसूत्र गात. १७, ११, ११ या तगुणो स्कूल सिधि होती है। पास के वर्ग को १० से गुणा करी वर्गमूल प्राप्त करने पर सूक्ष्म परिधि होती है। ___ व्यास के चौथाई से परिधि को गुणा करने पर क्षेत्रफल होता है। क्षेत्रफल को वैध से गुणा करने पर खातफल ( घनफल ) होता है । ध्यास के अर्घभाग का घन करना चाहिये । उस धन का पुनः अर्घ भाग कर ए से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो वही गोष्ट वस्तु (गेंद आदि ) का घनकल है। परिधि के ग्यारहवें भाग को परिषि के छठवें भागके वर्गस गुणित करने पर शिमाउ का धनफल ( शिक्षाफल ) प्राप्त होता है। मुख भोर भूमि में से जिसका प्रमाण अधिक हो उसमें से होन प्रमाण को घटाकर, एक कम पद से भाजित करने पर चय' का प्रमाण प्राप्त होता है इस चय को विवक्षित पद की संख्या से गुणा कर, गुणनफल को होन प्रमाण में जोड़ने पर विवक्षित पद का प्रमाण प्राप्त होता है। मुख और भूमि को जोड़कर मारा करके पद से गुणा करने पर पदधन या क्षेत्र फल की प्राप्ति होती है। एक कम पद का चय में गुणाकर, गुणानफल को भूमिमें से षटा देने पर मुख की प्राप्ति होती है तथा मुखमें जोड़ने से भूमि की प्राप्ति होती है। पद में से एक घटाकर दो से भाजित करके उत्तर (चय ) से गुणा करने पर, उसमें प्रभव ( मुख जोकर पदसे गुणित करने पर पद पन प्राप्त होता है। विवक्षित गृथ्वी के इन्द्रक विौंको संख्यामें से एक घटा कर आधा पारने पर, जो लब्ध प्राप्त हो, उसका वर्ग कर, उसमें उसका वर्गमूल जोड़ देनेसे तथा ८ से गुणा कर ४ जोड़ने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको इन्द्रक विलोंको संख्यासे गुणित कर देने पर विवक्षित पृथ्वी का सङ्कलित धन प्राप्त होता है। पद का जितना प्रमाण है, उतनो बाय गुणाकार का परस्परमें गुणाका प्राप्त गुणानफलमें से एक घटा कर, एक कम गुणाफारसे भाजित करने पर जो इन्ध ११४, १६३ १६३ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट खंड ३ परिशिष्ट खंड ३ वासना गाथा १७ : पृष्ट १९-२० परिधि व्यास की तिगुणी होती है। इसकी वासना इस प्रकार है- एक लाख योजन व्यास वाले गोलाकार क्षेत्र को आधा कर पुनः दोनों अर्धभागों का आधा आधा करने से चार भाग हो जाते हैं। इन चारों खण्डों में से मध्य के दो खण्डों को मिला देने पर मध्य में अक्षेत्र हो जाता है। इस अर्धभाष में करण के हो जात है. इनमें से पुनः प्रत्येक का अर्थ भाग करके मध्य के दो खण्ड मिला देने से परिधि के अर्धव्यास बराबर छह खण्ड हो जाते हैं। छह खण्डों में से दो दो खण्डों को मिला देने से व्यास के बराबर परिधि के तीन खण्ड हो जाते हैं । एतत्सम्बन्धी चित्रों के लिए पृष्ठ ९० देखना चाहिए। त्रिज्या ( अर्ध व्यास) से वृत्त की परिधि पर किसी एक बिन्दु से परिधि पर चाप लगाकर, पुनः परिधि पर उस चाप के बिन्दु से पुनः परिधि पर चाप लगाने से और परिधि पर चाप बिन्दु को केन्द्र मानकर पुनः परिधि पर चाप लगाते लगाते त्रिज्या ( अर्थ व्यास ) बराबर परिधि के छह खण्ड हो जाते हैं । अर्धव्यास बराबर छह खण्ड व्यास- बराबर तीन खण्डों के समान है। इस प्रकार स्थूल रूप से परिधि व्यास को तिगुणी सिद्ध हो जाती है । गाथा १९ : पृष्ठ २६-२८ गेंद सह गोल वस्तु का घनफल ममचतुरस्र घनात्मक के घनफल का होता है। इसकी वासना इस प्रकार है एक व्यास और एक खात वाले गेंद जैसी पोल वस्तु को आषा करके, उसमें से एक अर्धभाग का उपरि भाग, जो कि पूर्ण वृत्तरूप है के तीन खण्ड करके, उनमें से एक तृतीय अंश के ऊपर से नीचे तक दो खण्ड करके, इस प्रकार रखा जावे कि एक चतुरस्र क्षेत्र बनजावे । गोलक रूप गेंद के अ खण्ड के मध्य भाग में वेध यद्यपि तथापि दोनों पाश्वं भागों में क्रमश: हीन होता गया है। इस हीन स्थान में चतुर्थांश अर्थात् आधे का चौथाई ( ३३ ) ऋण रूप से निःक्षिप्त करने पर समस्थल हो जाता है । इस समस्थल का तिरंगरूप से छेदकर ऊपर रख देनेसे और ऋण निकाल लेने पर वेष {{{{×} } }= रह जाता है । अभंगोलक के तीसरे खण्ड की भुजा और कोटि ३३ है । भुजा और फोटि ३ को परस्पर गुणा करने से (३ x) क्षेत्रफल प्राप्त होता है। इस क्षेत्रफल Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासना -7- १९ को वेध (३४) से गुणित करने पर अर्धगोलक के तोसरे भाग का पन चल (xsxs) प्राप्त होता है। पूर्ण गद के इस प्रकार के छह भाग होते हैं। जबकि अगेिंद के एक विभाग का अनफल (2x3x10-३ तब पूर्ण गोलगेंद के छह भागों का कितमा क्षेत्रफल होगा ? इस प्रकार राशिक करने पर छह भागों अर्थात् पूर्ण गेंद का घमफल xxx प्राप्त होता है। { वित्र ग्रंथ में देखने चाहिए। गाया २२ ! पृष्ठ ३. कुण्ड की शिखा के घनफल की वासना बनाकार क्षेत्र में ध्यास स तिगुणी परिधि होती है। परिधि को चौथाई व्याससे गुणा करने पर वृत्ताकार का क्षेत्रफल होता है । कुण्ड को शिखाउ भरनेसे शिक्षा की ऊंचाई परिधि की ग्यारहवां भाग होता है। शिखाउ चोटी से नीचे तक ढालु रूप होनी है अतः उसका क्षेत्रफल तिहाई होता है। अत: शिखा का घनफळ = पास x ३४ व्यास x परिधि x =व्यास x व्याम - परिधि व्यास - व्याय र परिधि-३ व्यास ४ ३ व्यास x परिधि =( परिधि } x परिधि अर्थात् परिधि के कारटचे भाग में परिधि के छठवें भाग के वर्ग को गुणा करने से शिखाउ का घनफल प्रा होता है । गाथा ९६ : पृष्ठ ९.-९१ वृताकार क्षेत्र की परिधि विष्कम्भ से V१०गुणी होती है, इसकी वासना इस प्रकार है गोल घेरे के व्यास के बाबर समाचतुरस्र क्षेत्र को भुजा व कोटो वि १ व वि १ है। इस चतुर्भुज के करण का वर्ग वि १४ft १+वि १x वि १ है। अर्थात २ वि वि है । इस कमणवर्ग को आधा करने पर दो अधं भाग हो जाते हैं। पुनः अधं करने पर चतुर्थाश हो जाता है । इसका भी आधा करने पर आठवां पंच हो जाता है। इस अष्टमांश को मुजा वि वि २ अर्थात् विवि और काटि विवि-विवि है। भुज और कोटि का समान छेद करने पर भुग - वि वि २४२४२ और कोटि विवि हो जाता है । इन दोनों को जोडने पर वि वि १० प्राप्त होता है । जब कि एक अष्टमांश का प्रमाण वि वि १० तब ६ पंशों का प्रमाण कितना होगा? वर्ग राशि का गुणाकार वर्ग रूप होता है। अत: आठ अंशों का प्रमाण वि वि १० x x ८ अर्थात् विवि १० अर्थात् परिधि का वर्ग विमम्म वर्गम दस गुणित है। वर्ग मूल करने पर १० के बगंमूल में गुणित-व्यास परिधि का प्रमाण होता है। (चित्र पृथ ९०-९१ पर हैं। गाथा १०३ : पृष्ठ ९८ ___ लवण समुद्र अर्थात् अन्तरंग भौर बहिरंग दो वृत्तों के बीच के क्षेत्र का क्षेत्रफल चतुरन रूप में प्राप्त करने को वासना-लवण समुद्र के वलय व्याम को ऊपर से छेद कर फैला देने पर एक विषप T ." Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामा गाषा पठ . गाथा गापा वं. पृष्ठस. ११ १५ ५१६ ५३३ ६६३ पुश्वावरेण परिही पुटवुनरदक्विणदिस पुष्वे विमझ कुल पोग्गलबाइकक्खायो पोराणि या तदा ते २६६५ १४८ १५ ५६५ फरिणयरससमाणं फलिहरजदं क कुमुरं ८.५ ६८२ ४२३ ४५० ४०४ २३५ २१७ १२२ पल्को सायरसूई পৰাৱা पंचमचरिमे पार पंच. मारमा पंचाहदिपिरज्जू पंचुत्तरसत्तसया पाकपांडुकंगक पायारगोउरदठल पायारंतम्भागे पायाराणं उरि पासे उववादगिमं पासो दु सम्गवसो पिठकपमित्तपहा पुश्वरसयंभुरमा पुखरसिंघुपयधणं पुत्रिदय मेगुणं पुढवी पउमदी इगि पुणरपि छिष्णे पश्चिम पुषणविणे अमवासे पुषणापरणागपूरी पुण्णा सहमयावत्या पुरगामवट्टणादी पुरदो भतूण वहि . पुरखो पासाददुगं पुरको सुरकोष्णमणि पुरसपिया पुकता पुरुसा पुष्सुत्तमम पुम्बवरजीबसेसे पुश्ववर विदेइते पुम्बादिसपुर अब भर ८९७ ६४७ 4 , U बरमामुह कद वय ४४६ बत्तीसट्टावास बत्तीसमट्ठबीस बत्तीस वे महम्सा बलगोविमिहामणि बलदेवा विजयाचल १६६ बलभद्दणामकुले पहुवणणपासावा २७ नादान मगाइगि नावाल सहस्स पूह बाबाल सोलसकदि बारस चोइस सोपस ६३३ बारहझोपणविरपर बापत्तरि बादाक्षी वावीसं च सहस्सा ७६० बावीस सोलसिग्णिय बासट्ठो सेटिगया गहिसुई बलय बाहिरसुई वर्ग | विगुणणपतीदे A .. २८ २६ ८०२ १००१ ७५६ २८ २००७ १०० २७१ २३१ १८ २६५ ४२१३०१ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा सं० पृष्ठ सं. ४२४ ३८३ गाषा सं० पृष्ठ सं. २६१ २३२ २॥ __२३५ २१. माथा भुजगा भुगसाती मूदाणं तु सुरूवा सूबारादो १२८ भूदाण रखसा भूभहमाल साणुग भूमजनगो वासो भूमीदो दसभागो भोमिन्दकं प्रज्मे Rio दिगुणे सगिटु इसुपे विषिये बारे पुष्ण विदिये पदम कुम वेयादि विउत्तरिया बेरुवतदियचन बैरुववम्गधारा बेम्वविदधारा बेलपर सुजमविमाणाण बेसदछप्पण्णगुल २४५ ५२० १०३ ६२ २५४ २४१ ५४ १७८ ८.१ ८. ३ ६७७ ४०० ७४६ ५८६ . ६३४ ५३. ७५४ ६३० ७७t मघमणकुमारो मज्जारसाण सूपर ६७३ मजिझम उमकस्सारणं मज्झिमचउजुगलाणं मज्झिमपरिधि जथं ६४० मझे दीओ जलदो मज्झसिहासणयं ६१. मणिकरणयपुष्फ सोहिय मरिणाड रज्जुत्तम मणितोरणारयणुम्भव मणुसुत्तरसेलायो मणुसुत्तरुदयभूमुह मणुसुसरोत्ति मणुसा मल्लव महसोमणसो मल्लिदुपज्झे णवमो महाबला तिनिहो ६५. महकायो अतिकायो २३४ महगंध भुजग पोटिक ६५५ महामेट्टि मिदगदी २३४ महकारस दुपासे १३॥ ' महपउमो सुरदेवो ६१८ भज्जस्सद्धच्छेचा भरह इरावद पणपण भरहारावधवस्या मरह इराबदसरिता भरहदु वसहदुकाले मरहवर विवेहेरा भरहस्सले जीवा भर इस्स व विश्वंभो भरहे पण कदिमचहां मरहे सुरेवसु य भवणवितरजोइस भवणे भवणपुराणिय भवणावासादोरणं भवणेसु सत्तकोडी भिगारकलंसदप्पण भीम महाभीम रुदा भीममहाभीम विग्धवि भीमावलि जिदसत भीमो य महामीमो भुखकोहि दिसमासो २१९ २४८ १२३ २१८ 4.? २०० ८१७ ICE ८८ २६२ २९२ २३२ २६. E७३६७० Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पासं पृ०सं० भाषा सं० पृष्ठ सं. २२३ २. २०२ १५८ k४ ५६२ २२४ ३४० २८६ २८५ १२ ४०७ ५२४ লাজা यणप्पहपगड्ढे श्यरणप्पमूढवीए रयणप्पहपुढवीदो रयणप्पहा तिहा खा रविखंडादो वारस रायजुर्वतेतराए हपिट गंतू राहनिविमाणा रिट्ठसुरसमिदियम्हं बचक मंदरसोकं रुगचिाक फलिहं रुजगरजयाह हिमवं बद्दलच पद्दरिसिण दुगं छस्सुष्णा रूकासलाबारस ऊपाहियपदमिद रूऊगाद्विगुणं रूप्पगिरि हीणभरह रूपसुयग्णयषाय स्वाहियपुढाविसंख रोमहदं पक्केसन महपूजासु जिणा महिमव चरिमजीवा महरमाणमाणिणावा मंवरकुलवरिसु मंदरपिरिमज्मादो मंदारदचंपयः मापहतिदेव देवदीय माघे सत्तमि किन्हे माणं दुविह लोगिगः मारणीचारणमंध माणुसखितपमाणे माणुसखेत्तपमाण माहरचंदुवरिया मुत्ताहारं गेमिस मुर वदले सत्तमही मुर वायारो जलही मुह भूमीण विससे मूलबपीठरिणसण्णा भेगरि भूमिवास मेरुण सलोयचाहा भेक्तलादु दिवा मेरूविदेहममे मेहकरइददी ४६७ ४६५ ४६५ ३१४ २८७ ४६ ६५६ ute ७२८ १०४ ४५८ ४०३ •४६ .. ५२७ ९५२ ११५ रज्जतयस्सोसरणे रज्जुदुगहारिणठाणे एज्जूछिदे मंदिर पतिपियजा इंदा पाकमायराबा लतियं वारणउदी लस सिकार वग्गिव लवणदुर्गससमुई लवणबुहिकालोबम लवणं बुहिमुहमहले सवणं वाणितियमिदि लपणादिणं पास ज्य दिपिदिय २९५ ३१. ३१. २६५ २६ २३१ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ गाया . पृष्ठ सं. ६७४ ६६३ ४ ७५ ५५८ ४६२ १००६ २ ७४५ द १ गाथा पाथा सं पृष्ठ सं० । गाचा झवणे दु परिदेषक ३५ ३०१ | वरविरह छम्मासं लोगो अकिट्ठिमो अलु घरसंति काल मेहा लोयतले वादतये वरणो वरुणादिपहो लोगबहुमज्झदेसे १४३ ववहाद्धारदा लोहोदयभरिदाओ १६. ववहावमोग्गाणं १८८ ववहारेयं रोम वसई मझगदक्षिण बड़गोउरसालं वस्ससदे वस्ससदे वासारवास विरहिम वसहि काम परणि वचारसयाणुदयो ५४ वस्सा कोडिसहस्सा वग्गसलागगतिदयं वंदणमिमेयएच्चरण वसलागापही वंसतदगे शिया वग्गसला रूवहिमा वाणि मासासच्चा वरणादुवरिमवग्गे वावीणं पुश्वाविसु वग्गिदवारास वासनकद तिगुणा पच्छा सुवच्या महादच्छा । वासवधरणं दलियं মৃত্যশিলিগাথা १७७ १८२ वासदिणमास बारस पज्जमय मूल भागा वासायांमोगाई बज्जमुहको जणित्ता ५८२ ४३ वासिगि कमले संखमु व तप्पह कणयं यासुदपभुज रज्यू पटलवणरोगोनग वासुदरादीहत पट्टादीण पुराणं २०० वासो तिगुणी परिही वट्ठा सम्वे फूमा ঘিয় वस्वामुहपहदोणं विच्छियसहस्सवेयण वदक्खामलयप्पम १२२ विजगावखाराणं वप्पा सुवमा महावापा विजयकुल ही दुगुणा पवग्धधूगकागद विजय च वै अयंत वरदाणको विदेहे ७५४ ६२४ विजयं पडि देकडो बरमज्मजहणार CEL विजया च वजयंती वरमज्झिमसवाणं WAL | विषया यणंद १. १२६ ४ १३८ १४८ . ८८ ६३ 11 ७१९ ५०% ८९२ '--:- - . .. - सा Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बामा सं. पृष्ठ सं. गामा सं० पृष्ठ सं० २१ ४१८ ७४२ ५८० ८३१ १०६ ३६५ १४० १११ १५२ २४७ पाथा विजयो दुनेमालो विजाणुवश्वपढणे विधुरिणघिणगणव विमलदुगे वच्छादी विरलिज्जमाण रासि विरलिदरासिच्छेदा विलियरामोटो पुण विरलिहीण विविहतवरयणभूसा वितरणिलयतियारिणय बोयणसयलुट्ठीए वीरजिणतित्यकायो वौसदिवाखाराणं देगपब छाणं इयि वेगपदं चयगुणि धेयासद्विगुणते घेवालगिरी मीमा दी वरण भयपासे वेयडु जंबु सामलि वेय ते जीवा वेलंधर भुजपविमा वेलुरियफलाविहम वेंवर अप्पमहड्डिय तर सोयिसिपायं २६४ ४४२ १२ गाथा ग: परिधि परिधिय पगसा वढी गियणिय सगसग संखेज्जूणा सगसग हाणि विहीगे सक्सीवि दुसु बसूरणं सचिवम सिसियमा सटि हिदपढपरिहि सट्ठीसप्तएहि सडढाव विजडावं सतवं दिन, पउ. सत्तपदे अट्ठम सत्तपदे देवीरा सत्तपदे वल्लभिषा सत्तमखिदिपरिणधिम्हि र सत्तमखिदिबहममे . सत्तम जम्मा गोणं सत्तरस वाण उदी अत्तरिसपण्यराणिय सत्तरिसयबसहगिरी सत्तासीदि गुस्सव सातपंचम चअविव से सशेष य मणीया ६३८ ५०६ ५.८ ४३७ ४२८ १४ ६१३ ५१५ ५६७ ०३ ६६२ २३. ४१५ २० ११. ६३६ बामाविमूलवर्मा समविदल निषणा सपसय चरिमिदयघय समसग जोपहार' २३१ सदभिस भरणी अदा सदमविसद समातिय सदविस्पारो साहिप सप्पुरुसमहापुरुसा ३११ समकदिसल विकदीए ४०४ चमचुलसीदि वहत्तर २१३ । सम्मईसक र ६४६ १६२ ८५६ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 १०५ पाषा सं• पृष्ठ सं. गाषा सं. पृष्ठ संग सिक्छति जराउछिदि ८०१ cिh सिनत्यं सत्तमम सिद्ध णिसह च हरि ५७३ सिरणील पुज्यवि सिद्ध दक्लिए बड़ा ७३R सिमश्लवमुत्तर ५८० सिवम्मी रम्मप ७२७ सिवाचारका ७४३ ५८१ सिद्ध सिहरिय हेय ७४० सिवाणियोदसाहिय ४५ 4 . सिरिगिहदलमिदगिह सिरिगिहसीसठियंपुष ८१८ ५६. ४१५ सिरिदेवी सुददेवो E८८ ___६६५ ७० सिरिमति राम सुसीमा सिरिहिरिधिवि कित्तीविय ५७२ सिंहगयवसहयरुहसि १०१. सिंहगणवसहजहिल ३४॥ सिंहस्ससाणमहिसव ८१४ सिंहाउ विउल काला सिंहासणावि सहिमा ७५२ पोतासीतोबाणदि QUR ५५५ ११५ ११३ सीतोदावरतीरे सीमकर खेमभयं सोमत रिणग्यौरव १५४ १६. सुक्कदसमी विसाहे सुस्कमहासुभकादो ४५३ सुबखर जलाए ३२५ १०१३७६४ सुपाहम्णाय जसोहर ३३. सुरगिरि दरवीण ०२ ४६५ । सुरपुर पंदपुर ५४२ गापा सम्मे धादेऊणं सयलमुषणेकणाहो सयसुद्धिणिभा वस्ता सरजा गंगा सिंधू सरिता सुवणारूपम सरिसायदगजर्दता सम्वट्ठोत्ति सुद्धिी सध्वं च लोयगालि सव्वागासमांत सचे समपरस्सा सम्वेसि कुशाग सध्ने सुवण्णकपणा ससुगंधपुष्फसोहिय ससुगंध सम्बो संखमसंखमणंत संखेजरूवसंखुद संखजासणिए संवधरासहस्सा संवतयणामणिलो सारणकुमारजपसे सादिकुहिवातिगंध सामणं दो मायद सामण्णं पसंयं सायरदसमं सुरिये साहस्सद भाइचम् सारसद मइया सालत्तवपीछत्तय सावणमा सम्व साहियपल्लं अवरं ४६ १८२ ११ ५२. ७३५ १ ३२४ ५६३ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ पापा सं• पृष्ठ 6 ६१४ पापा से० पृष्ठ सं० । गाथा सोलुदय कोसविस्तर सोलेकद्विविटिगि ७२० सोहम्म बामिजोरगण २७७ २३० सोहम्मवरं पल्क मोहम्मादिचउक्के ४७१ सोहम्मादीवारस सोहम्मीसारणसण सोहम्मे जायते सोहम्मो ईसाणो सोहम्मो वरदेवी ४५ ४२४ ८६ ४५२ ८६. ४३५ गाषा सुरपुर असोय सुमोहियावि मिच्छा सुसमसभ र सुसम सुस्सम अरिंग दिदखा सुसीमाकुडला चंच सुहसयराग्गे देवा सूरपुषचंदपुराणि सूरादो दिण रस्ती सेहोछरज्जु चोहस संदीप विच्चा हिर सेढोण विचार सेगिहपदिपुरहो सेपाययमुवावर सेरणादेवागं पुण सेणाम हत्तरायं सेरामिहत्तरासु सेणावईण मवरे सेण्णावदितणुरमा सेयादिपणसु हरिपण मे लायामे दक्षिण सेसा सरपंता दद्द सेसा सोलस हेमा सोहम्मगाहिमुझे सोचिवठाणासिवपरि सोमणसद्गे बन सोमएसजगकुणाल सोमवकरणपाऊ २०९ ७.5 የህ ४०१ १२३ ६४५ हत्यपमाणे गीच इत्थं मूलतिय विम ४४४ २३॥ २१५ हरिजीवा इगिणपणव हरिसेणो हरिकतो २८१ हा हामा हामाधिक हाहा हाहू णारय हिटिममझिम उयरिम ६२६४६ हिमपा णीला पेका ६६६ २६२ हिमग पहदीवासो हिमवणत जीवा ८४ हिमवं महादिहिमवं ५१ ६१ हेतु रिमतियभागे हेमजणं उवणीया हेममया तुगधरा ६२. ५२४ हेममयावस्थामा हेमवदंतिम जीवा १२॥ | होश विमोइ पुरंजय १६३ ६०३ ४८१ ६८३ ४८२ ४२७ ६४७ ६२६ ६७० ७७३ ६५० ६१. Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारादिक्रम से विशिष्ट शब्दों की सूची आ अकृति द्वारा ४६,५३ श्रधन धारा १,५५५६ अखा १५६,१५७ अजन मूटिका १५६,१५७ अजना १५५.१५६,१४७ अद्धापरय ६१.६२ भधिक दिन ३६५,५६७ अधिकमास ३७१.७२ अधि देवता ३८८,३६६ अधोलोक ११३-१२० अनन्त १४,५४,७२ बनवत्या १५,३४,२५,३३,४० अनस्तानात १४,५३,५४,२ अनप ६३,३५१ अग्धेन्द्राबिन १६०,१६१ बनाक २०८,२०९,२१२,२१४ अपवर्तना पात ४५० अपबहत्य भाग १५६,१५७ अभव्य ४५.४६ अर्धच्छेद ११,१२,१०,११,६२,५३, ६७,६८,-20101 १७.१०६ जर्ष स्तम्म भ्लोक १२५, १२८,१२६ अपहन्त प्रतिमा ५.६. मरिधा १५५ अलोकालाश ..२ अलोकिकमान १२,१३ अवताकृति १० सबकान्त १६०,१६१ अवगाहना (सिद्ध) १५९-१५४ अवमान १२.५ पवधिशाम ४८,७४-. अवसनासन २३ अस्थात १४,५४,१ प्रसंख्यातासंच्यात १४,४०,४१, | काचन शैल ५४१,५४२ ४२,५३,५४ काल १२,६३ असम्भ्रान्त १६.१६१ किल्विषिक २०८.२०६ कृति १८ कृति धारा ६,१२.५३ माकाश ,१०,६२.६३,७१ आकाश प्रतर ६२,६३ कति मातृका पारा १५७ आकाश श्रेणी ६२,६३ केवल ज्ञान ४८.५४.५६,६४, माठ मध्य प्रदेश ७ ६५ आत्माल १२४ शाभियोग्य २.८,२०॥ का बिल १६०,१५१ आर। बिल १६०,१६५ सहिका बिल १६०,१६१ मावली ४०... परमाग १५६,१४७ आवास २०० बात फल १८,१५ आसन्न धन ५४,५५,५.८,५६ गजदत पर्वत ५४४ इन्द्र २०८, २०६ गणना १८ इन्द्रक बिल १५५-१६१ गरिशमान १२,१३ गत दिवस ३६५-३१० उज्ज्वलित बिल १६०१११ ग्रहण २८६, उत्तरायश ३३० गिरिकटक अधोलोक ११, उत्सेध १७ उरसेधांगुल २३ गुणकार राशि १०६,१०० उदभ्राम्त बिल १६०,१६१ गुणकार शलाका ७४.७०,७८ उद्वार पल्य ८०६४ गोमेदा १५६,१५. सम्मान १२.१५ पोल पा घनफन २५-२६ उपमा प्रमाण १३,१४,५ गोस्तनाकार ७ ऊर्दायत अधोलोक ११३,११४ लोक क्षेत्र फल १२५-१00 म जंगुम १९,२३२४ घटा पिक १११ धन धारा ४६,५४,५५, घन फल १६,११०-११२ धनमातृका धारा ४४५८ घनलोक ८६,१०६,१०५.११८ धन वातवनय १३७-५५२ पनांगुल १२,७१,८१,१०३-१.५ पाटा बिल १६०,१११ करणी प६६ कईशशि शE.३२ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातायुष्क ४४४.४६.१४६५ ] हमको विन १६०,१६१ घनोदधिवातवजय १३७-१५२ । तमप्रभा १५४,१५५,१५० तापन बिल १६०१६१ चन्दना १५६.१७ तारा बिल १६०,१६१ चन्द्र। २११,२१२ तिमिसका बिल १५०,१६१ चय ११०-११२ सियंगायत अधोलोक ११३-११५ चर्चा १६०,१६१ तेजस्काय स्थिति ७४.८० तेजस्कायिक जोब ७४-८० चामुण्डराय ३,४,६ चित्रा १५६,१७७ पूलिका ६१३-६९७ दक्षिणायन ३३० दिग्गज पर्वत १४४ जगत् प्रतर ७१,८६,१०० दिगिन्द्र २०८,२०१ अपतषणी ११,१२,६१,६५ विरूप धन धारा४६,६६ जघन्य अतजान ६४.६५ ७-७४ अभ्य क्षायिक सभ्यग्दर्शन द्विरूप घनाघन पारा ४६,६६, पडू भाग १५६,१५७ पटल १५६,१५. पथ व्यास ३५१, परिषि १८,१५,८.८६.१३५,१३६ परिवार नदियां ५-६-५८८ परिषद २०८,२.५ परीतानन्त १४,५३,५४,६२,६३ परीतासंख्यात १४,३३४०,४१. द्विरूप वर्ग घास,५६.६.,६६ दृष्य अधोलोक ११६,१२२.१२३, जतु २११२१२ बम्बू वृक्ष ५४,१३८ ज्योतिरसा १५६.१५७ बिहा बिल १६०,१६१ जिहिक बिल १६०,१६१ जीव ६२.६३,५१ देयराशि ४०,४१,४२,४३.४६, ४७,६६,७५-. पर्याय श्रुत शान ६४,६५ पल्य ६१.६२,५१,८६,,१००, १०२,१०६ पृथ्वी (0) १५३-१५५ प्रकीरणक १०,२०८, प्रज्वलित बिल १६०,१६१ प्रतरावली ६०,६१,७० प्रतरांगुल १२,६१,६२,८६,१०३ प्रतिमान १२,१३ प्रतिशलाका कुण्य १५,१७,२८॥ प्रतीन्द्र २०८,२०१ प्रत्येक कध्वंशोक १२४-१२०, १२८-१३४ प्रबाला १५६,१५७ प्रमाण १४ प्रमाणांगुल २५ पाण्डक शिला ५३०-५३६ पावभुमा ३४५,६१३-१७ पिनष्टि ऊर्वलोक १३०१३४ पुदगल ३२,३ . जो २३ घ १५ घूम प्रभा १५४,१५५,१५७ सषका विस १६०,१६१ ततक बिल १६.१६१ तत्प्रतिमान १२,१३ हनुरक्षक २८,२०॥ सनुवाचवलय १३७-१२३ तपन बिल १६०,१६१ तह बिल १६०,१६१ तपित बिल १६०,१६१ तबका दिल १६.१५ नरक १४४-२०. निगोर ८२,८३ निगोद काय स्थिति १-८५ नियोदपरीय८१-८२ निदाघ १६०,१६१ निरय बिल १६०,१६१ नीचोपाद देव ४५-२४७ मोकति १० बकुला १५६,१५७ बृहद पाश परिकम ८६ बालुका प्रभा १५४.१४४,१५७ बिल १५८ पल प्रभा १५४,१५,१५० Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ļ | I I f भ भवन २०७ भ्रमका बिल १६०- १६१ भारत बिल १६०- १६१ मुक्ति ३६२-३६६ भूमि ११०-१११ भूमि (७) १५२.१५४ म मकर राशि ३२८,३२ मघवी १५५ मध्य प्रदेश ७ मनक बिल १६०, १६१ मण्डर अधोलोक ११८-१२२ मसार करूपा १५६.१४.७ महातम प्रभा १५४, १५.५ महाशलाका कुण्ड १५, १७,३६ माघवी १५५ मान १२,१३,१६ मारा बिल १६०,१६१ मुख ११०,१११ मेघा १५५ य यमक गिरि ५४० यवमध्य अधोलोक ११६-११८ यवमुरज अधोलोक ११५-११७ युक्क्तानन्त ५३, ५४,६२,६३ युक्त संख्यात १४, ४०.४१.५३,५४ योग ८१,८२,८३,८४ र रत्नप्रभा १५४-१५६ रेणु २३ रज्जु ११ राच मल्ल (मनुष्यका नाम) ४, ६ बाजू ११ रेणु २३ ३ रोम ८७,६२,६३,६६, १०० रोरव बिल १६०,१६१ ल लडकि बिल १६०,१६१ लोक ७,६,७४-७७.८६, ११० लोक परिधि १३५, १६६ लोकिक बिल १६०, १६१ लोकिक मान १२,१३ लोलक्रस बिल १६०,१११ लोहित १५६, १५७ व कान्त बिल १३०,१६९ कुल १५६,१५७ बच्चा १५६, १५७ चनक बिल १६०-१६१ मातृक धारा1 ५७ वर्गमूल ६०,६१,७४ वर्गशलाका ६०,६१,६७,६६, ६६,७४-६०१०१-१०४ गितसंगित ७५,७६, ७, ८० दंसा १५५ व्यवहार पल्य ८०, ६३ व्यवहार योजन २२, २४ व्यास १७,८८,८६ वाभवलय १३७,१४२ वादलिल बिल १६०, १६१ वासना १६ विक्रान्त बिल १६०,१६१ विभ्रान्त बिल १६०,१६१ विमान २०७ विरलन ४०-४३,४६.४७,६६, ७४ विष्कम्भ ८६-२ विषम धारा ४६.५१,५२ विषुप - ३८०-३८३ ४ १८.१३ १५६,१५७ 可 पार्कमा १५४, १५५ शलाका कुण्ड १५,३२,३८ शलाका त्रय निgापन ४३, ७५ कलाकाराशि ४०-४३,४६, ४७, ७४ नज्ञान ४८,६४,६५ श्रेणीबद्ध बिल १५६१६० शालमली वृक्ष ५३८ शिखा फल २४, २६, २८, ३० शिखा वेध ३०.३१ त्रा १४६, १५७ श्रेणी (देखो जगत् श्र ेणी ) स सज्वलित १६०,१६१ सन्नासन २३ ममधारा ४६-५२ सम्यज्वलित १६०,१६१ सम्भ्रान्त बिल १६०,१६१ समित २११,२१२ सर्वधारा ४६-५२ सर्वाधिक १५६, १५७ संख्या प्रमाण १४ संख्यात १४,१८,२६,७२ स्तनक बिल १६०, १६१ न लोला १६०,१६१ सम्मको १२६ स्थिति बंध कषाय परिणाम ८१-०३ स्फटिका १५६,१५७ सागर ६,६५,३६,६६, १०१, १०६ सामान्य अधोलोक ११३.१९४ सामान्य कम्वलोक १२५, १२६ सामानि २०६२० Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रफल १८.१५,३१,३२ सिद्ध ( अश्वगाहना) १५२-१५४ | सिद्ध प्रतिमा ७५६,७६० सीमन्त बिल १६०,१११ सूच्यंगुल १२,६१,६२,८६, १०२.१०३ सूचीफल २५,२६,२ प्रस रेणु २३ त्रस्त बिल १६०.१६१ त्रसित बिल १६०,१६१ त्रास्त्रिय देव २०,२. त्रुटि रेणु २३ क्षेत्र ( अवधिज्ञान का ) ७४ मयिक सात ! जमन्य ६४.६५ हानि ११.-११२ हिम बिल १६०११ सनाको १५४ ® समाप्त Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ११ * १५ २२ २४ २४ २५ २८ २३. ३० ३३ ४१ ४४ ४५ ४६ ४८ ૪ ५. ५३ ५० ६४ ६० ધર્મ ७६ - ८८ ܀ १०३ १०३ १०४ {u १०५ १११ १११ ११५ पंक्ति २६ १७ ५ २१ १७ २४ २७ 1 २० ११ १ २५-२६ १५ · २-३ २६ २८ ३ १३ १२ २५ १५ ** १६ २४ १२ ६ २७ १० २१, २३ १६-२० प ६ ६ अशुद्ध ( ४२ = ) = त्रिकवारम् अनवस्था शलाका गुणक: शुद्धि - पत्र ३ हार गुणाकार यति ७६, शिखार्फ योगात्कृष्टः वषाध्यवसाय माज्जानीहि पर रेल x ( १ळ x ३४ x ३) जघन्य'- (जधन्यपीता संख्यात) ( जधन्यपीतासंख्यात) मधश्यप रोतासंख्यात जघग्ययुक्तासं ख्यात योगोत्कृष्टः वैषाध्यवसाय समधान ४० नं० गुव एव सप्तममलं धन ६४ एतस्मिम्योम्या शलाकारशक्षासु (२३) ४= x असं • ( छे छे छे ३ ) बिरज्जि ܕ शुद्ध ( ४२- ) द्विकवारम् ( जपण्यपरीतान) जध.प. अमन्द (जधन्यपरीतानन्त) जघन्यपरीतानन्त कुमात् अनवस्था शाका क ४ की शलाकाओं विशेषे ५ सति अर्ध चतुर्थस्य ( नं० १ और नं० २ ) ३.ल. हार अंश का गुणाकार गुणितं ,, शिखा फलं पक्ष १ल x ((5×(2×3) = कमात् कमाज्जानीहि सर्वसा ४० पं णव पण सप्तममूलं व ६४ एतस्मिनन्योन्या गुलालाका ३ (2) ४१-० ( छे छे ३ ) विरलिज्ज कीवालाका विशेषे सति य (०३ और २ ) Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 118 (14) 120 29. 125 127 अर्थ चतुर्थोदयस्य अर्थ अर्ववतुर्योदयस्य धर्ग राजू 6 128 14 121 146 -- --- 166 कुल बिलों 24674.5 4408333 174 :47. . . . . . . . . . . कुल भणीबद्ध बिलों 2497305 4408333 6240.0 174 17 176 3249 324 (7-3-6-0-3-.) 324 (7-3-6)-10-4 ) 167 214 215 263 2 // 26 127560.. 120/56... (1.6.5425+125) ( +5+25+125) लवण समुद्र के xx 265 अर्थच्छेद 6 है। अर्घच्छेद-६ हैं। 42472+144+152 43+7+114+148--152 एष. मान से एक से एक वर्ष कोनों अयम गेशनों में योजनों में पब्ववर पुवव N 458 550 56 ::: 725 176842 6240.0 625000 625.0 62500 कट ४ापडियां पावलिया