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त्रिलोकधार
गांचा ७५३
विशेषार्थ :- जिस मेरु, पर्वत और नवी आदि का व्यास प्राप्त करना हो अन्य सभी के व्यासों को अपने अपने गुणकार से गुणा कर जोड़े और योगफल को जम्बूद्वीप के व्यास में से घटाने पर जो अवशेष रहे उसको विवक्षित मेरु आदि के प्रमाण से भाजित करने पर इष्ट पर्वत आदि के व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है। यथा :- सुदर्शन मेरु का ध्यास प्राप्त करना है तो मेरु को छोड़कर मशाल का व्यास २२००० योजन, विदेह देश का २२१२ योजन, वक्षारगिरि का ५०० योजन, विभंगा नदी का १२५ योजन और देवारभ्य का ९९२९ योजन जो व्यास है उसे अपने अपने गुणकार, २, १६.८,६ और दो से गुणित करने पर ( २२०००x२ ) = ४४००० योजन दो भद्रशालों का, (१२१२३ × १६ ) = ३५४०६ योजन १६ विदेह देशों का ( ००x८ ) = ४००० योजन - बछार पर्वजों का, ( १२५४ ६) ७४० योजन ६ विभंगा नदियों का और (२६६२२) २६४४ योजन दो देवारस्य वनों का व्यास प्राप्त होता है। इन सबका योगफल ( ४४००० + ३५४०६+४०००+७४० -- ५८४४ }= ६०००० भोजन प्राप्त हुआ, इसे जम्बूद्वीप के एक लाख योजन व्यास में से घटाने पर ( १००००० ९०००० ) = १०००० योजन अवशेष रहा। हमारा इष्ट सुमेरु पर्वत है और उसकी प्रमाण संख्या एक है अतः अवशेष १०००० योजनों को १ से भाजित करने पर (१०१०० ) = १०००० योजन ही प्राप्त हुआ । यही हमारे इष्ट मेरु पर्वत के व्यास का प्रमाण है। इसी प्रकार अन्य का भी जानना चाहिए । एवमानीयासप्रमाण सिद्धामुच्चारयति
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दसबावीस सदस्सा बारसबावीस सचअटुकला |
कमसो पणसय पणपण बावीसुगुतीसमंककमो ||७५३ ॥ दशद्वाविशसहस्राणि द्वादशाद्वाविशतिः सप्ताष्टकला ।
क्रमशः पञ्चशतानि पाचनः द्वात्रिंशंकोनत्रिंशदङ्ककमः || ७५३ ||
दस । यशसहस्राणि १०००० द्वाविशतिसहस्राणि २२००० द्वादशोत्तस्तू। विशतिः सप्ताहकला २२१२३ क्रमशः पञ्चशतानि ५०० पञ्चषनः १२५ द्वाविंशत्युत्तर एकोनशत् २६२२ इति मन्दराविव्यासको ज्ञातव्यः ॥ ७५३ ।।
इस प्रकार ज्ञात व्यास प्रमाण के सिद्ध अ कहते हैं
गावार्थ : - दस हजार योजन, बाईस हजार योजन, दो हजार दो सौ बारह मोर सप्ताष्ट कला ( 1⁄2 भाग ) पाँचसो योजन, एक सौ पच्चीस योजन, दो हजार नौ सौ बाईस योजन क्रमयाः मेरु आदि के व्यास के प्राप्त हुए ों का प्रमाण है ।
विशेषार्थ | मेरु पर्वत का व्यास १०००० योजन, भद्रवशाल का २२००० योजन, विदेह देश का २२१२३ योजन, वक्षारगिरि का ५०० योजन, विभंगा नदी का १२५ योजन और देवारण्य का २६२२ योजन पूर्व पश्चिम व्यास का प्रमाण है ।