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________________ गाथा: ४०५ ज्योतिलोंकाधिकार अभिजिव और चन्द्रमा के आसन्न मुहूतौ का प्रमाण है । अर्थात् ११७ मुहूतं तक चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र के निकट रहा । ( इसे ही नक्षत्रभुक्ति कहते हैं, अथवा इन दोनों को निकटता को चन्द्रमा द्वारा अभिजित् नक्षत्र का भोग कहते हैं। अथवा इसी को चन्द्रमा और अभिजित् नक्षत्र का योग कहते हैं।) इसी प्रकार जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट नक्षत्रों के आसनमुहत निकालने पर निम्नलिखित प्रमाण प्राप्त होता है । यथा-जघन्य नक्षत्रों के गगनखण्ड १०.५ हैं, अतः ११५ मुहुर्त अर्यात ६ जघन्य - नक्षत्रों के साथ चन्द्रमा की १५ मुहूर्त निकटता रहती है। इसी प्रकार मध्यम नक्षत्रों के मगनखण्ड २०१० और उत्कृष्ट के ३०१५ गगनखण्ड हैं, अतः २११ = ३० मुहूर्त। 3834=४५ मुहूर्त । अर्थात् चन्द्रमा की मध्यम नक्षत्रों के साथ ३० मुहूर्त और उत्कृष्ट नक्षत्रों के साथ ४५ मुहूर्तों को निकटता रहती है। ३. मुहून का एक दिन होता है. अतः उपयुक्त दिनों के मुहूत बनाने पर क्रम : अर्थात प्राधा दिन । ३१ दिन और ५-१३ अर्थाद डेढ़ दिन प्राप्त हुए, यही चन्द्रमा के द्वारा अघम्पादि नक्षत्रों के मुक्तिदिन ( काल ) हैं। सर्य, नक्षत्र से ५ गगनखण्ड पीछे रहता है, अतः चन्द्रमा के सदृश सूर्य का भी भुक्तिकाल निकालने पर कम से निम्नलिखित प्रमाण प्राप्त होता हैं, या !-x= पिटमा लिन ६ मुहूर्त अभिजित् नक्षत्र का भुक्तिकाल | 1881%-=६* दिन या ६ दिन २१ मुहूतं जघन्य नक्षत्रों का भुक्तिकाल है। ५१११११११३३ दिन या १५ दिन १२ मुहूर्त मध्यमनक्षत्रों का सूर्य द्वारा भुक्तिकाल है । इसीप्रकार ३१५- २० दिन या २० दिन ३ मुहूर्त उत्कृष्ट नक्षत्रों का सूर्यद्वारा भुक्तिकाल है। अथ राहोगंगनखण्डाभिधानद्वारेण तस्य नक्षत्रभुक्तिमाह रपिखंडादो पारममागूणं बज्जदे जदो राहु । तम्बा तत्तो रिक्सा चारहिदिगिसद्विखंडहिया ॥ ४० ॥ र विखण्डतः द्वादशभागोमं प्रति यतो राहुः । तस्मात्ततः ऋक्षारिण दशहितकवष्टिखण्डाधिकादि ॥ ४०५ ।। रविडायो । रवेगंगमरवणेभ्यः १८३० द्वावशमागो १२ नंतावस्मयामि १२ को एकस्मिन्मुहूर्त प्रति राहयतः तस्मात् ततो राहगगननम्यः १८२६ से ११ भमण्डागि १३५ द्वादशहतकविखएडाधिकानि ३३ । एलावाषिर्क क ? राहगगनजरमानि १८२६ कोई नक्षत्रगणनाखण्डपु १८३५ अपनीय, शेषं ६ तरधरण १६ समच्छेवीकृत्य २३ मा तमशेषे ६ अपनीते ि अधिकक्षाप्रमाणं मवति । ११ एताधिकं घस्पा 'पहियहिरिवललण्डेति' न्यायेम राहोरेशावर
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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