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________________ ४५८ त्रिलोकसार पाषा:५१३ १।५।१५। २१ । २६ । ३३ । ३७ । २० ५ ।१५। २१ | २९ । ३३ । ३७ । २० । २२ २।२।२।२।२ । २।२। ।२।२।२।२। ।.। ऊरणखा ३० सनत्कुमारावियुगले प्रासनस्पचरमपालस्यवावि१। ।१।१।१।१।२।. स्वात्तत्र तत्र रूपन्यूने सप्ताविरेव ७ । ४ । २ । १ । १।३।३ हिवाम्म हाणिमिति कृते सौधर्मयुगले हानिचयमेतत् । पर्वसागरोपमस्योपरि समानछेदेन मेलयेत । एतद्विमलेन्द्रकस्योत्कटायुः स्यात् । एषमुपरि सर्वत्र पटलं प्रत्याने सध्यं । सनरकुमार द्वि के हानिचर्य ब्रह्मयामे ३ लान्सबबुगे २ शुकयुगले २ शतारद्वन्द्वे २ मानतद्वये मारणतये । एवं हानिष नात्वा तत्तस्पटलं प्रति प्रायुरानेतव्यम् । प्रघातायुके पावि मन्त २ विसेसे ३ करण्ठा ३० हिम्मि हारिपचय त्रिभिरपतितं एवं एतवानिचय पद्धसागरोपमस्योपरि स्वचरमपटलपर्यन्त मेलयेत् । एवं सनत्कुमारावारण्याच्युतपर्यन्तं सत्तरपटलावुहानिचय ज्ञातव्यम् ॥ ५३३ ॥ घातायुष्क सम्यग्दृष्टि के प्रत्येक पटल की मार कहते हैं : पापाय :-[ सोयम युगल में J घातायुरुक सम्यग्दृष्टि जीव को आयु बाधा सागर अधिक है। इस प्रकार सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त जान ना, ( क्योंकि सहस्राय स्वर्ग से ऊपर घातायुष्क की उत्पत्ति नहीं होती,) ऋतु पटल की उत्कृष्टायु भाषा सागर है, इसी से (प्रथम और चरम पटल की आयु रखकर ) प्रत्येक पटल का हानि चय जानना चाहिये ॥ ५३३ ।। विशेषार्थ :-आयु का धात दो प्रकार का है- अपवर्तन घात, २ कदली घात । अपवर्तन घात बधमान आयु का और कदलीघात मुज्यमान आय का होता है । देवों का कदलीघात नहीं होता किन्तु बद्धघमान का अपवर्तन घात होता है। जैसे-मनुष्य पर्याय में संयमादि अवस्था में ऊपर के स्वर्ग विमानों का उत्कृष्ट आयु वध किया, पश्चात् संयमादि से च्युत होकर बद्धयमान आयु का पात कर दिया, इसे अपवर्तन धात और उस जीव को पातायुक कहते हैं । जो सम्यग्दृष्टि पातायुष्क जीव है, उनकी अपने अपने स्वगं पटल की उत्कृष्टायु से मन्नमुंहूतं कम अध सागरोपम आयु अधिक होती है। जैसे-सौधर्म यगल में सम्यम्हष्टि की उत्कृष्ट आयु दो सागर की है किन्तु घातायुष्क की अन्तमुहत कम २३ सागरोपम प्रमाण होती है। इसी प्रकार सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त बानना चाहिए। इससे ऊपर घातायुष्क जीवों की उत्पत्ति का प्रभाव है। सोधर्म युगल के प्रथम पटल में ऋतु नामक इन्द्रक को उत्साष्टाय अपंगागरोपम प्रमाण है । इस प्रकार प्रथम और चरम पटल की मायु रख कर प्रत्येक पटल का हानि चय जानना चाहिए । आदी अन्त विसे से.... ...या २०० के अनुसार प्रत्येक युगल को अन्तिम पटल की उत्कृष्ट वायु में से मादि । प्रयम ) पटल था युगल की उत्कल बायु घटा देने पर जो अवशेष पहे. उसमें एक कम पच्छ का भाग देने पर हानि जय प्राप्त होता है। पा
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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