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________________ निवेदन वि० [सं०] १०२१ का चातुर्मास अज मेष में सम्पन्न करने के अनम्सर आचार्य कल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज का किशनगढ़ में ससंघ पदार्पण हुआ। शरद अवकाश के कारण संयोग से मेरा किशनगढ़ जाना हुआ। उन दिनों श्री शिवसागर स्मृति ग्रन्थ प्रेस में था और पूज्य आर्यिका विशुद्धमति माताजी त्रिलोकसार की हिन्दी टीका लिखने में व्यस्त थीं। पूज्य पिताजी श्री महेन्द्रकुमारजी पाटनी (वर्तमान क्षुल्लक १०१ श्री समता सागरजी महाराज ) के सानिध्य में प्रथमानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के कतिपय ग्रन्थों का स्वाध्याय तो किया था परन्तु करणानुयोग के किसी धन्य का अब तक स्पर्श भी नहीं किया था। पूज्य माताजी के सम्पर्क से करणानुयोग के विषय में भी रुचि जागृत हुई और मैंने इच्छा व्यक्त की कि किसी बड़े अवकाश के समय आकर इसका अध्ययन करूँगा । किंचित् काल के बाद संघ का किशनगढ़ से विहार हो गया और मैंने जिज्ञासावश शास्त्र भण्डार से तिलोय+ पत्ती बोर जम्बूद्वीपपण्णत्ती लेकर स्वाध्याय प्रारम्भ किया। वि सं० २०३० का चातुर्मास निवाई में हुआ। दीपमालिका के अवकाश में संघ के दर्शनों हेतु निवाई जाना हुआ। वहाँ उन दिनों पं० रतनचन्दजी मुख्तार ( सहारनपुर) और पण्डित पनाचाचणी साहित्याचार्य (सागर) पूज्य श्री अजितसागरजी महाराज तथा पू० विशुद्धमति माताजी के साथ त्रिलोकसार की मुद्रित प्रति का दो तीन हस्तलिखित प्रतियों में मिलान कर आवश्यक संशोधन कर रहे थे। पूज्य बड़े महाराज व पू० माताजी की प्रेरणा से मैं भी इस महदनुष्ठान में सम्मिलित हो गया । प्रतियों से मिठान एवं संशोधन का काम पूरा हो चुकने पर समस्या आई शुद्ध प्रेस कापी तैयार करने की। मेरे अचानक सम्मिलित होने से पूर्व यह सुनिश्चित था कि यह गुरुतर उत्तरदायित्व पं० पन्नालालनी सा० सँभालेंगे क्योंकि वे विषय और भाषा दोनों के विशेषज्ञ हैं। पूज्य पण्डितओं ने मुझसे कहा कि "तुम्हें तो समय मिलता ही होगा, क्यों न यह काम तुम कर दो ? मेरो व्यस्तताओं के कारण मुझ से विलम्ब सम्भव है।" पण्डितजी के इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से मैं इतप्रभ हुआ । कार्य की परिमा जटिलता, गम्भीरता एवं विशालता से मैं आतंकित था अतः मैंने निवेदन किया कि "यह कार्य गलत हाथों में नहीं जाना चाहिये, मेथी इस विषय में गति नहीं है अतः आप ही इस वृहत्कार्य को सम्पादित करें; ऐसे ग्रन्थों के शुद्ध प्रकाशन में यदि विलम्ब भी हो तो कोई हर्ज नहीं ।" परन्तु मेरा निवेदन शायद उन्हें नहीं भाषा और उन्होंने पं० रतनचन्दजी से परामर्श कर पूज्य बड़े महाराज व माताजी के समक्ष अपनी बात दोहराई। न जाने क्यों पण्डितजी का निर्णय ही सर्वमान्य रहा। अपनी सीमाओं से मैं परिचित था परन्तु पूज्य गुरुजनों के आदेश की अवज्ञा करने का दुस्साहस मैं न कर सका
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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