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________________ पाया : ३१० ३०५ चतुः परिसंख्याय ६३४६४४२ निक्षिप्य सद्गुणकारगुरिकरूपं ६४x२ निक्षिप्य सर्वत्र उधरणगुरास मछरिया भवितव्यमित्येतदर्थं द्वात्रिंशदवशिष्यते यथा तथा सम्मेलन पूर्वद्विकं संगुण्य ३२x६ म६िर२२६४४४ मेलने १७६४६४ x ४ चतुर्गुणप्रधयो भवतीति शालव्यं । एवं सयंत्र घनं चतुर्गुणोशर क्रमेण गच्छति । ऋामपि प्रकृतिमुखं उपर्युपरि द्विगुणोरक्रमः च स्यात् ॥ ३६० ॥ अब ज्योतिबिम्बों की संख्या लाने के लिये जो गच्छ कहा है उसको आदि कहते हैं : ज्योतिर्लोकाधिकार वाचा:- चार के घन ( ६४ ) से गुणित १७६ पुष्कर समुद्र का उभय (आदि-उत्तर) घन है, यही यहाँ प्रभव ( मुख ) है, और जागे प्रत्येक द्वीप समुद्र में चतुर्गुण अर्थात चौगुणा चौगुणा प्रचय ( वृद्धि क्रम ) है, तथा ऋण में भी आठ को कृति ( ६४ ) मुख है, और ऊपर ऊपर द्विगुण क्रम अर्थात् कम से दुगुणा दुगुणा प्रचय वृद्धि क्रम ) है ।। ३६० ।। विशेषार्थ :- जितने स्थानों में अधिक अधिक होता जाय, उन सब स्थानों की संख्या को पद या गच्छ कहते हैं। प्रथम स्थान को आदि, मुख या प्रभव कहते हैं। प्रति स्थान में जितना जितना अधिक होता है, उस अधिक के प्रमाण को प्रवय कहते हैं। वृद्धि के प्रमाण विना आदि स्थान के प्रमाण के समान जो धन सर्व स्थानों में होता है, उसके जोड़ को आदि धन कहते हैं। आदि धन के बिना सर्व स्थानों में वृद्धि का जो प्रमाण है। उसके योग को उत्तर धन कहते हैं । जेसे- ४, ४x२=६, ८x२= १६, १६x२=३२, ३२x२=६४, ६४४२ = १२८ | इस प्रकार ४, ८, १६,३२,६४ और १२५ ये छह स्थान है, अतः गच्छ तो ६ है । प्रथम स्थान ४ है, बादि ४ है । प्रत्येक स्थान दुगुना दुगुना होता गया है, अतः प्रचय दुगुना है। आदि के सदृश छहों स्थानों में कुल द्रव्य ४x६ - २४ है, अत: आदि घन २४ है । दूसरे स्थान में ( ८-४ } =x की वृद्धि हुई है। तीसरे स्थान में (१६४१२ ) १२ की वृद्धि हुई है चौथे स्थान में ( ३२-४ १२८ की वृद्धि हुई है। पांचवें स्थान में ( ६४ - ४ ) ६० की वृद्धि हुई है। टों मान में ( १२६-४ ) - १२४ की वृद्धि हुई है। अतः वृद्धि घन ४ १२,२८,६० और १२४ का योग २२८ उत्तर धन है । पुष्कर समुद्र का आदि घन व उत्तर धन दोनों मिलकर (६४ x १७६ ) - ( ८२६४ ) है । इसको निम्न प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है। - पुष्कर द्वीप के आदि वलय में १४४ सूर्य हैं, और उससे दुगुने सूर्य ( १४४x२ ) पुष्कर समुद्र के आदि वलय में हैं ( पा० १५० ) । पुष्कर समुद्र का वलय व्यास ३२००००० ( ३२ लाख ) योजन है, अतः उसमें ३२ वलय हैं। प्रत्येक वलय में चार चार की वृद्धि है। इस प्रकार ३९
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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