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________________ गाथा : ३६० ज्योतिर्लोकाधिकार ३०५ चतुः पहिरन संस्थाप्य ६३४६४ ४२ मिक्षिप्य प्रतद्गुणकारगुरिणतकरूपं ६४४२ निक्षिप्य सर्वत्र चउपरणगुणतयछहसरिता भवितव्यमित्येतवर्ष वात्रिंशदवशिष्यते यया तथा सम्मेध तष्टिकन पूर्वतिक मंगण्य ३२x६४४४ पानिधन १४४४६४४४ उत्सरवनयोः ३२xexxy मेलने Verma चतुर्गणतचयो भवतीति शालव्यं । एवं सर्वत्र पनं चतुर्गणोरक्रमेण गच्छति । ऋएमपि प्रतिमुखं उपर्युपरि विगुणोत्तरक्रमः च स्याना ॥ अब ज्योतिबिम्बों की संख्या लाने के लिये जो मच्छ कहा है उसको आदि कहते हैं : गाथा:-चार के घन ( ४ ) से गुणित १७६ पुष्कर समुद्र का उभय ( आदि+उत्तर) धन है, यही यहाँ प्रभव ( मुख ) है, और आगे प्रत्येक द्वीप-समुद में चतुगुण अर्थात् चौगुणा चौगुणा प्रचय ( वृद्धि कम } है. तथा ऋगा में भी आठ को कृति ( ६४ ) मुख है, और ऊपर ऊपर द्विगुण क्रम अर्थात् कम से दुगुणा दुगुणा प्रचय ( वृद्धि कम ) है ।। ३६७ ।। विशेषा:-जितने स्थानों में अधिक अधिक होता जाय, उन सब स्थानों की संख्या को पद या गच्छ कहते हैं । प्रथम स्थान को आदि, मुख मा प्रभव कहते हैं। प्रति स्थान में जितना जितना अधिक होता है, उस अधिक के प्रमाण को प्रचय कहते हैं। दृद्धि के प्रमाण बिना आदि स्थान के . प्रमाण के समान जो धन सर्व स्थानों में होता है, उसके जोड़ को आदि धन कहते हैं। आदि धन के बिना सर्व स्थानों में वृद्धि का जो प्रमाण है, उसके योग को उत्तर धन कहते हैं। जैसे-४,४४२=८,६४२-१६, १६४२-३२, ३२x२६४, ६४४२१२८ । इस प्रकार ४, ८,१६, १२, ६४ और १२८ ये यह स्थान है, अतः गच्छ तो है। प्रथम स्थान ४ है, अतः आदि ४ है । प्रत्येक स्थान दुगुना दुगुना होता गया है, अतः प्रचय दुगुना है । प्रादि के सदृश छहों स्थानों में कुल द्रव्य ४४६२२४ है, अत: आदि धन २४ है। दूसरे स्थान में (८-४}=४ को वृद्धि हुई है। तीसरे स्थान में (१६-४-१२) १२ की वृद्धि हुई है चौथे स्थान में 1 ३२-)-२८ की वृद्धि हुई है। पांचवें स्थान में (६४-४) = ६० की वृद्धि हुई है। छठवें धान मे ( १२४-४ ) - १२४ की वृद्धि हुई है, अत: वृद्धि धन ४, १२, २८, ६० और १२४ का योग २२८ उत्तर धन है। पुष्कर समुद्र का आदि धन व उत्तर धन दोनों मिलकर (६.४ १७६ )-(१६४है। इसको निम्न प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है : बाह्य पुष्कराध द्वीप के आदि वलय में १४४ सूर्य हैं, और उससे दुगुने सूर्य (१४४४२) पुष्कर समुद्र के आदि वलय में है (पा० ३५. }। पुष्कर समुद्र का बलय व्यास ३२०.००. । ३२ लाख योवन है, अत: उसमें ३२ वलय हैं। प्रत्येक वलय में चार चार की वृद्धि है । इस प्रकार
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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