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________________ त्रिलोकसार गाथा:३६. मुख १४४४२ ओर वलय ३२ इन दोनों का परस्पर में गुणा करने से (१४४४२४ ३२-१४४x ६४) पुष्कर समुद्र के ३२ वलयों में आदि धन प्राप्त होता है। एक कम गफ्छ ( ३२-१-३१) का आधा कर (१)चय के प्रमाण ४२ को गुणा करे (४४-३१४२) जो प्राप्त हो, इसका एक ( ३२ ) से गुणा करने पर ( ३१४२४३२-३१४६४ ) उत्तर घन' प्रान हो जाता है। यदि उत्तय धन (३१४६४ ) में ६४ जोड़ दिये जाय और ६४ ही घटा दिये जाय तो उत्तर धन ज्यों का त्यों रहेगा, किन्तु आगामी द्वीप समुद्रों के सूर्यों का प्रमाण प्रात करने में सुविधा हो जायगी। ३. ४६४+१x६४-६४-३२x६४-६४ मह उत्तर धन का प्रमाण प्राप्त होता है । इसमें आदि धन १४४४ ६४ जोड़ देने से पुष्कर समुद्र का उभय घन ( आदि व उत्तर दोनों धन ) का प्रमाण १४४४६४+३२४६४-(६४)- १७६x६४-(६४)-१७६x४३ ऋण ८२ है। इसीलिये गाथा में "पृक्खर सिन्धुभय धरणं च उघण गुरण सयछहत्तरि रिमवि अडकदि मुहमुवरि दुगुण कमं" ऐसा कहा गया है। पुष्कर समुद्र के पश्चात् वारुणीवर द्वीप है। जिसका वलय व्यास ६४ लाख योजन है, अतः उसमें सूर्य चन्द्रमा के ६४ वलय हैं। गाथा में "पभो"द्वारा यह बतलाया गया है कि पुष्कर समुद्र का जो उभय धन ( आदिधन + उत्तर धन ) १७६४ ६४ है वह वारुणीवर द्वीप का मुख है. बोर 'चगुण पचओ' द्वारा यह बतलाया गया है कि १७६४६४ को चार से गुणा करने पर वारुणीवर दीप का कुल धन १७६४६४४४ ऋण ६४ x २ होता है । इसको सिद्धि निम्न प्रकार है : गाथा ३५० के अनुसार पुष्कर समुद्र के आदि वलय में १४४४२ सूर्यो की संध्या बतलाई है। उससे दुगुनी (१४४४१४२) बामणीवर द्वीप के आदि वलय में (सूर्यों को संस्था) है । यह वारुणीवर द्वीप का मुख अर्थात आदि है ! वारुणीवर द्वीप में ६४ वजय हैं, अतः (१४४४५४२४६४=१४४४४४ ६४ ) आदि धन का प्रमाण है, क्योंकि मुन १४४४२४२ को गच्छ ( पद ) ६४ से गुणा करने पर आदि धन प्राप्त होता है । इस प्रकार वारुणीवर द्वीप का आदि धन १४४ x ६४४४ प्रान होता है। - - - - एक कम गच्छ (६४-१६३) के अधं भाग (१) को प्रतिवलय वृद्धि के प्रमाण (४) स्वरूप प्रचय से गुणा करने पर १x६३ ४२ प्राप्त होता है। इसको पद ( गच्छ ६४ ) से गुणा कर ६३ x२x६४ में २४६४ जोड़ने और घटाने ( ऋण करने ) से (६३४२४६४+१४६४ - -- ..- -. . - - - - - १ "पहतमुखादि धनं"। २ "वलयबलयेसु घउ पउदाढी" गापा ३५० । . "पदान चय गुणते गच्च"।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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