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त्रिलोकसार
गाथा ४३१
का नक्षत्र हस्त ११ है + १० = २२ हुए अत: दूसरे विधूप का धनिष्ठा नक्षत्र प्राप्त
होता है ।
उदाहरण २९-६ वी आवृत्ति का पुष्य नक्षत्र ६ + ( १०- १ ) = १५ व अनुराधा नक्षत्र ६ व विपूप का नक्षत्र है । इमी प्रकार १० वीं आवृत्ति का कृतिका नक्षत्र ला+ ( १०–१ } = १० व उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र १० वं विष का प्राप्त हुआ।
उदाहरण ३ :- २ री आवृत्ति की पत्र संख्या २४१५ = ३६० + १३ तिथि ३७३ दिन हुए । अर्थात् युग के प्रारम्भ से ३७३ वें दिन दूसरी आवृत्ति हुई ।
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उदाहरण ४ :- सातवें दिन की पर्व संख्या ८०x१५ = १२०० + ६ तिथि १२०६ दिन हुए। अर्थात् युग के प्रारम्भ में १२०९ दिन बाद सात त्रिषुप हुआ है । विषूपे नक्षत्रानयनं प्रकारान्तरेण गाथाद्वयेनाह -
भट्टिक्खिम सिणिहुदीदो गणिय तत्थ अजुदे । सुहोति किया गया किचिदीदो ॥ ९३० ॥
आवृत्ति ऋक्षं अश्विनी प्रभृतितः गणयित्वा तत्र अष्टयुते । विषुषेषु भवन्ति ऋक्षारिण इह गणना कृत्तिका दितः || ४३० ॥
प्रावृतिनक्षत्रमश्विनी प्रभृतितः गमिखा तत्र प्रवृते सति विदुषेषु नक्षत्राणि
उट्टि भवन्ति । इह लब्धे गणनां कृत्तिकावितः कुर्यात् धष्टयुसराशिधिकश्चेत ॥ ४३० ॥
विषय में नक्षत्र प्राप्ति प्रकारान्तर से दो गाथाओं द्वारा कहते हैं। :
गाथार्थ :- आवृत्ति के नक्षत्र को अश्विनी नक्षत्र से गिनकर उसमें जोड़ देने पर ओ लब्ध
प्राप्त हो, उसे कृतिका से गिनना । वही विषुप का नक्षत्र होगा ।। ४३० १३
विशेषार्थ :- विवक्षित आवृत्ति के नक्षत्र को अश्विनी नक्षत्र से गिने, जो संख्या प्राप्त हो उसमें मिला कर कृतिका नक्षत्र से गिनने पर विषय का उसी नम्बर का नक्षत्र जैसे :- वित्रक्षित आवृत्ति तीसरी है। इसका मृगशीर्षा नक्षत्र है, जो अश्विनी से है +८ = १३ हुए । कृतिका नक्षत्र से १३ व नक्षत्र स्वाति है, अतः तीसरे विषूप का प्राप्त हो गया। यदि आवृत्ति नक्षत्र के प्रमाण में मिलाने पर लब्धराशि नक्षत्र मास ( २८ ) अधिक हो जावे तो क्या करना ? उसे आगे गाथा में कहते हैं ।
प्राप्त होता है । गिनने पर ५ व स्वाति नक्षत्र
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अहियंकादडवीमं दंडेजो विदियपंचमडाणे ।
एक्कं ffers aट्टे दशमेविय एकमवणिजो || ४३१ || अधिकाङ्कादष्ट्रविणं स्याज्याः द्वितीयस्थाने
एक निमि पष्ठे दशमेपि च एकमपतेयम् ।। ४३१ ।।
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