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गाया : ३८५-३८६
ज्योतिर्लोकाधिकार
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विशेषार्थ :- पाँचों परिधियों में विवक्षित परिधि मेगिरि की है। जबकि ६० मुहतों में सूर्य ३१६२२ योजन प्रमाण क्षेत्र में सखार करता है, तब मुहूर्त में कितना करेगा ? इस प्रकार शशिक निकालने पर १७१ योजन प्राप्त होता है ।
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सूर्य के गमन की १८४ गलियाँ है, उनमें से अन्तराळ गलियाँ १८३ ही है । इन्हें १० से गुणित करने पर (१८३x १०) १८३० प्राप्त होते हैं । इन १८३० से मेरा गिरि की विवक्षित परिषि ३१६२२ योजन को भाजित करने पर भी ( ३१६२२ : १८२० ) १७६१७योजन प्राप्त होता है । यही देखकर आचार्यों ने ऐसा कहा है कि विवक्षित परिधि को दशगुणित अन्तराल से भाजित करने पर प्रत्येक दिन में ताप और तम की हानि वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है। अर्थात् जब सूर्य उत्तरायण होता है, तब प्रतिदिन ताप का क्षेत्र १७६६ योजन प्रमाण बढ़ता है और इतना ही, क्षेत्र तम का घटता है, किन्तु जब सूर्य दक्षिणायन होता है, तब प्रतिदिन ताप का क्षेत्र १७ योजन प्रमाण घटता है और तम का इतना ही क्षेत्र बढ़ता है। इसी प्रकार अन्य अन्य परिधियों में भी ताप तम की प्रतिदिन को हानि वृद्धि का प्रसारण निकाल लेना चाहिए । अर्थात् अभ्यन्तर बोथी में ताप तम की प्रति दिन की हानि वृद्धि का चय ( ) = १७२०
योजन प्रमाण है ।
मध्यम वीथी में ताप तम को प्रतिदिन की हानि वृद्धि का चय (१७३६. है। बाबोधी में ताप तम की प्रतिदिन की हानि वृद्धि का चय ( ) = १७३१ है । अलषष्ट भाग वीथी में ताप तम की प्रतिदिन की हानि वृद्धि का चय (३४-२८
योजन है ।
अथ च परिधीनां सिद्धाङ्क गाथायेन कथयति -
बावीस सोलतिण्णिय उणणउदी पण्णमेक्कतीसं च । दुखसत द्विगितीसं चोद्दस तेसीदि इगितीसं ।। ३८५ ।। बादालसुण्णसतयवावरणं हाँति मेरुपदुद्दीणं । पंच परिधीमो क्रमेण अंक कमेणेव ।। ३८६ ॥ द्वाविंशतिः षोड़शश्रीणि एकोननवतिपचाशदेकत्रिंशच्च । द्विख सप्तषष्टघ कत्रिशत् चतुर्दशञ्ययोतिएकत्रिशत् ॥ ३८५ ।। षट्चत्वारिंशच्छून्य सप्तक द्विपञ्चाशत् भवन्ति प्रभृतीनाम् । पश्वानां परिषयः क्रमेण अङ्ककमेव ॥ ३८६ ॥