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________________ ३३४ बिलोकसार पाया।३८३-३८४ अर्थमातापमाना:-- परिधिम्हि नम्हि चिढदि पुरो तस्सेव तापमाणदलं । विरपुरदो पसप्पदि पच्छामागे य सेसद्धं ।। ३८३ ।। परिघी यस्मिन् तिष्ठति सूर्यः तस्यैव तापमानदलम् । बिम्बपुरतः प्रसपंति पश्चाद्भागे च शेषार्धम् ॥ ३३ ॥ परिषि । यस्मिन् परिषी सूमस्तिति तस्यैव तापप्रमाणवलं बिम्पुरतः प्रसर्पति, शेषार्ष पश्चायुमागे अपसर्पति ॥ ३३ ॥ इस प्रकार प्राप्त हुए ताप और तम क्षेत्रों का प्रवर्तन ( फैलाव ) कहते हैं गाथाय :-जिस परिधि में सूर्य स्थित होता है उसी परिधि में आधा तापमान सूर्य बिम्ब के पीछे और आधा सूर्यबिम्ब के आगे फैलता है ॥ ३८३ ॥ विशेषार्थ :--जिस परिधि में सूर्य के तापमान का जो प्रमाण कहा गया है, उसका आधा भाग सूर्यबिम्ब के पीछे और आधा प्रमाण सूर्यबिम्ब के आगे आगे फैलता है। इदानी तापतमसोहानि वृद्धिमाह पणपरिधीयो भजिदे दमगुणसूरंतरेण जल्लद्धं । सा होदि हाणिवड्दी दिवसे दिवसे च तावतमे ॥३८४।। पञ्च परिधिषु भक्त षु दशगुणसूर्यान्तरेण यल्लम्धं । सा भवति हानिवृद्धिदिवसे दिवसे च वापतमसोः ।। ३८४ ।। पण । पशि मुहांना पक्षपरिष्यन्यतरमितेषु क्षेत्रेषु गतेषु कष्ट । मुहूर्तानां कियत, क्षेत्रमिति सम्पातेन पमपरिषिषु दशगुणसूर्यान्तरेण १८३० भक्तेषु यस्लम्ब १७२ सा भवति हामि दिदिबसे विवसे च तापतमप्तोः ॥ ३८४ ॥ तापतम को हानि वृद्धि को कहते हैं: गायार्थ :-पाचों परिधियों को दशगुणे सयं के अन्तराल के प्रमाण से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो वही प्रत्येक दिन में हानि वृद्धि के तापतम का प्रमाण है ।। ३८४ ।।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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