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त्रिलोकसाथ
गाथा : ८१५६१६-८१७
पुष्पदन्त और शीतलनाथ के अन्तराल में पत्थ तक, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ के अन्तराल में ३ पल्यतक, यांस और वासुपूज्य के अन्तराल में पल्प तक, वासुपूज्य और विमलनाथ के अन्तराल में १ पल्प तक, विमलनाथ और अनन्तनाथ के अन्तराल में पल्य तक अनन्तनाथ और धर्मनाथ के अन्तराल में पलय तक धर्मनाथ और शान्तिनाथ के अन्तराल में पल्य तक जैनधर्म का अत्यन्त प्रभाव ( विच्छेद ) रहा है । अर्थात् चतुर्थ काल में ४ पल्य तक जैनधर्म के अनुयायियों का सर्वथा अभाव रहा है।
अथ चत्रिणां नामान्याहू
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चक्की भरो समरो मघव सणकुमार संतिकुंथुजिणा | अरजिण सुभोममहपउमा हरिसेणजय ब्रह्मदचक्खा ।। ८१५ ।। चक्रिणः भरतः सगरः मघवा सनत्कुमारः शान्ति कुन्थुजिनौ । अरजिनः भौममहापद्मो हरिषेणजय ब्रह्मदत्ताख्याः ।। ८१५ ।।
चक्को भरतः सगरो मघवान् सनत्कुमारः शान्तिजिनः कुन्थुजिनः परजिनः सुभीमो महाहरिषेणो जयो ब्रह्मदसाध्यः । एते द्वावश १२ चक्रिणः ॥ ८१५ ॥
चक्रियों के नाम :--
गाथार्थ :- भरत, सगर, मधवान, सनरकुमार, शान्तिजिन, कुन्थुजिन, अरजिन, सुभौम, महापद्म, हरिषेण जय और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती हुए है ।। ८१५ ।।
एतेषां वर्तनाकालं गाथाद्वयेनाह
महदु बकाले मघव धम्मदुगभंतरे जादा | तिजिणा सुभोमचक्की अरमल्लीणंतरे होदि ।। ८१६ ।। मलिज्मे वो मुणिसुत्रव्यणमिजिणंतरे दसम |
मिदुविरे जयक्खो हो यमिदुग अंतरगो ।। ८१७ ।। भरतद्वयं वृषभयकाले मघवद्वौ धर्मद्वयान्तरे जाती । त्रिजिनाः सुभीमचको अरमल्ल्योरन्तरे भवति ॥ ८१६ ॥ मलिद्वयमध्ये नवमो मुनिसुव्रतनमिजिनान्तरे दशमः ।
नमिद्विविरहे जमाख्यो ब्रह्मो नेमियान्तरगः ।। ८१७ ।।
भर
रसवरी ही वृषभाजितयोः काले जातो मघवसनत्कुमारौ द्वौ घमंशा सि जिनयोरन्तरे
जातो, ततः परं शान्तिकुन्दरायो बिना पत्र स्वयमेव मिलत्वाज्जिनान्तराभावः सुभमचक्री घरमणि जिनयोरन्तरे भवति ॥ १६ ॥