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________________ बिलोकसार गाथा: ६९ निविसस्यात् स्यापि सूज्यंगुलस्य "पनविविमेतपर" स्मिारिमा विलनोपपरपादनत्वात् । तस्मिन्येकवार गितेप्रतरांगुलमुत्पद्यते। ततः पसंख्यातल्पामानि गत्वा जगणिधनमूलमुत्पद्यते ६८५ गाश:--प्रतरावलीसे असंख्यात स्थान आगे जाकर अढापल्य की वगंशलाकाए', अर्घच्छेद और प्रथममूल प्राप्त होता है । इसके आगे पल्य, सूर्यगुल, प्रतरांगुल और जगन्छणी का प्रथम घनमूल प्राप्त होता है ।। ६८ ॥ विशेषार्थ :--प्राली से असंस्था स्थान बागे प्राकर वारल्य की वर्गशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। उससे असंख्यात स्थान आगे जाकर उस. की अर्धच्छेदराशि उत्पन्न होती है । इससे असंख्यान स्थान आगे जाकर उसी के प्रथमवर्गमूल की प्राप्ति होती है । इस प्रथम वर्गमूल का एक बार वगं करने पर अदापल्य की उत्पत्ति होती है । अवापल्य से असंख्यात स्थान आगे जाकर सूभ्यंगुल उत्पन्न होता है । नयोंकि "विरलन राशि के अधषद प्रमाण वर्ग स्थान आगे जाकर यह राशि उत्पन्न होती है। यहाँ सूच्यं गुल का प्रमाण उत्पन्न करने के लिये देय राशि पल्य है, और विरलन राशि पस्य के अधच्छेद है । तथा "विरलन राशि के अर्धचछेद प्रमाण वगं स्थान आगे जाकर विवक्षित राशि उत्पन्न होती है" इस नियम के अनुसार विरलन राशि ( पक्ष्य ) के अर्धच्छेद के अबच्छेद असंख्यात हैं. अत: पल्य के अपर असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर सूच्याल प्रा होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। उप्पनदि जो राशि .......गाया ७३ के अनुसार इस द्विरूपवगंधारामें सूच्यं गुल की वगंधलाकाएं और अर्धच्छेद नहीं पाये जाते, क्योंकि सूच्यंगुल की उत्पत्ति देय एवं विरलन राशियों द्वारा हुई है। इस मूच्यंगुल का एक बार वर्ग करने पर प्रतरांगुल उत्पन्न होता है। प्रतरांगुल से असंख्यात स्थान मागे जाकर जगच्छ शी का धनमूल उत्पन्न होता है । (जगच्छ रणी के घनमूल का घन करने से जगमछेणी की उत्पनि होती है।) मोट:-जगच्छणी एनधारा में है, द्विरूपवगंधारा में नहीं। तिषिद जहण्णाणंतं वग्गसलादलछिदी समादिपदं । 'जीवो पोग्गल काला सेढी मागास तप्पदरम् ।। ६९ ।। विविघं जगन्यानन्तं वर्गशलादलच्छेदाः स्वकादिपदं । जीवः पुदगल: कालः श्रेयाकाशं तत्प्रतरम् ॥ १९ ॥ तिमिह । ततोऽसंहपातस्यानानि गरवा वर्गशलाकाः, ततोऽसंख्यातस्मानानि गत्या मण्येवा:, ततोऽसंभपातम्बामामि गत्वा प्रबममूलं, तस्मिन्नेकवार गित परिमितानन्तस्य, पयामुत्पद्यते । तस्मिन् को नियामे कसे विलितराष्पधन्येवमात्राणि वगंस्पानानि गत्वोस्पनगरवासवर्षन्छेवस्यासंख्यातस्परबासमवासस्थानानि गरवा युक्तानन्तस्य अधम्यमेवोल्पद्यते। तत्र प्रापबशनाकानीमा विषिशयात । तस्मिन्नेवारं वगिते दिकबासनातस्य अषभ्यमुत्परते, ततोऽनन्तायामानि गामा १ जीवा (प.)। २ परीसामन्लजषग्य (4०, ५.)। ३ कमेण (प.)। नियोजत्वात ( २०, प.)। --
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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