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________________ था:६० लोकसामान्याधिकार (शि उत्पन्न होती है। इससे संख्यात स्पान आगे जाकर उसका प्रथम वर्गमूल उत्पन्न होता है । इस थम वर्गमूल का एक बार वर्ग करने से जघन्य परोता संख्यात राशि को उत्पत्ति होती है। इससे संरूपात धान आगे जाकर जघन्ययुक्तरसंख्यात प्रमाणु आकलो को उत्पत्ति होतो है । "जो राशि विरलन और त्य के विधान से उत्पन्न होती है, उस राशि को वर्गशलाकाएं और अर्धच्छेद उस धारा में नहीं मिलते" TI७३ इस नियम के अनुमार इस द्विरूपवर्गधारा में आवली की उत्पत्ति तो होती है किन्तु आवली की वर्गशलाकाए' और अर्धच्छेद राशियों की उत्पत्ति नहीं होती। शंका :-संख्यात स्थान आगे जाकर आवली उत्पन्न होती है। इसका क्या तात्पर्य है ? समाधान :-देय राशि के ऊपर विरलन राशि के जितने अधच्छ५ हों, अलने का पान आगे जाकर विवक्षित राशि उत्पन्न होती है । अर्थात् जघन्यपरीतासंख्यात का विरलन कर जघन्य परीतासंख्यात ही देय देने पर विरलन राशि ( जघन्यपरीता संख्यात ) के जितने अधिछेद हैं परीतासंख्यातसे उतने वर्ग स्थान आगे जाकर आपकी उत्पन्न होती है। अथवा--अधन्यपरीतासंध्यात का विरलन कर जघन्यपरीतासंख्यात ही देय देकर परस्पर गुणा करने से जघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण आवली उत्पन्न होती है । ( जघन्य युक्तासंख्यात की जितनी संख्या है, उतने समयों की एक आवली होती है । जैसे :-यहाँ विवक्षित राशि २५६ है । बिरलन राशि ४, विरलन राशि के अधच्छेद २ और देय राशि ४ है। अतः ४ का विरलान किया और. उसके ऊपर ४ ही देय दिया। विरलन राशि के अधुच्छेद दो हैं इसलिये दो वर्गस्थान [ (४४ -- १६ एक वर्ग स्थान ) (१६४१६= २५६ दूसरा वगं स्थान ) ] आगे जाकर विवक्षित राशि २५६ की प्राप्ति हो जाएगी। अथवा :-चार का विरलन कर उस पर ४ हो देय देकर परस्पर में गुणा करने में भी विवक्षित राशि २५६ को उत्पत्ति हो जाएगी। जैसे :-६६६ = २५६ विवक्षित राशि । इस आवली का एक वार वर्ग करने से प्रतरावली की उत्पत्ति होती है। प्रमिय असंखं ठाणं वग्गसलच्छिदीय पढमपदं । पल्लं च अंगुल पदरं जगसेविषणमूलं ॥ ६८ ॥ गत्वा असंख्य स्थान वर्गलाईच्छिदिश्य प्रश्रमपदम् । पल्यं च सूथ्यङ्गुलं प्रतरं जगच्छणिधनमूलम् ।। ६८ ॥ ममिम । ततः प्रसंपातल्यानानि गरकाशलाकाराशिः उत्पद्यते ततोऽसल्पातस्थानामि पाचा अर्थ छेवरा शिक्षपश्यते । ततोऽसंख्यातस्यानानि गावा प्रपममूलमुत्पयते । तस्मिन्नेकवारं गिते प्रदापल्यमुत्पद्यते । ततः विलितरावर्षच्छेरमात्राणि वर्गस्पानानि गयोत्पन्नवासवर्षन्छेस्स संख्यातरूपवादसंल्पातस्थानानि गवा सूध्यंगुलमुस्पयते । पत्र वर्गशालाकादीनामनुत्पत्तिः समिति वैत । विरलनदेय कमेणोत्पन्नस्य रायोः "अप्पजवि जो रालो" इत्यादिना पारावये वर्गशलाकादीनां - - - - - - १ऋमोत्पत्र राणे (प.प.)।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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